शिक्षा में क्रांति-ओशो
प्रवचन-चौबीसवां
अंधविश्वासों से मुक्ति
मेरे प्रिय आत्मन्!
मनुष्य का सबसे बड़ा सौभाग्य और दुर्भाग्य एक ही बात में है और वह यह कि मनुष्य को जन्म के साथ कोई सुनिश्चित स्वभाव नहीं मिला। मनुष्य को छोड़ कर इस पृथ्वी पर सारे पशु, सारे पक्षी, सारे पौधे एक निश्चित स्वभाव को लेकर पैदा होते हैं। लेकिन मनुष्य बिलकुल अनिश्चित तरल और लिक्विड है। वह कैसा भी हो सकता है। उसे कैसा भी ढाला जा सकता है।
यह सौभाग्य है, क्योंकि यह स्वतंत्रता है। लेकिन यह दुर्भाग्य भी है क्योंकि मनुष्य को खुद अपने को निर्मित करने में बड़ी भूल-चूक भी करनी पड़ती है। हम किसी कुत्ते को यह नहीं कह सकते कि तुम थोड़े कम कुत्ते हो। सब कुत्ते बराबर कुत्ते होते हैं। लेकिन किसी भी मनुष्य को हम कह सकते हैं कि तुम थोड़े कम मनुष्य मालूम पड़ते हो। मनुष्य को छोड़ कर और किसी को हम दोषी नहीं ठहरा सकते। मनुष्य को हम दोषी ठहरा सकते हैं। मनुष्य को छोड़ कर इस पृथ्वी पर और कोई भूल नहीं करता क्योंकि सबकी प्रकृति बंधी हुई है। जो उन्हें करना है, वे वही करते हैं।
मनुष्य भूल कर सकता है। क्योंकि मनुष्य विकास करने की संभावना लिए हुए है। इसलिए मैं कह रहा हूं, यह सौभाग्य भी है क्योंकि स्वतंत्रता है विकास की और दुर्भाग्य भी क्योंकि बहुत भूल-चूक भी करनी स्वाभाविक है। मनुष्य को स्वयं को निर्माण करना होता है, बाकी सारी जातियां, पशुओं की, पक्षियों की निर्मित ही पैदा होती हैं। मनुष्य को खुद अपने को ढालना और निर्माण करना होता है। इसलिए दुनिया में हजारों तरह की सभ्यताएं विकसित हुई हैं। हजारों तरह से लोगों ने मनुष्य को निर्माण करना चाहा है।
हमने भी इस देश में एक खास ढंग का आदमी पैदा करने की कोशिश की थी। हम उसमें सफल नहीं हुए। लेकिन बड़ी हिम्मत की कोशिश थी, और फिर दाद दी जानी चाहिए और हमने बड़ा साहस किया था। और ऐसा साहस किया पृथ्वी पर जैसा पृथ्वी पर किसी समाज ने कभी नहीं किया। साहस ही नहीं, कहना चाहिए दुस्साहस किया।
हमने यह कोशिश की कि हम आदमी को परमात्मा की शक्ल में ढालेंगे। हमने यह कोशिश की कि हम आदमी को पृथ्वी पर भला रहे वह, लेकिन उसकी आंखें सदा स्वर्ग पर लगी रहेंगी। हमने यह कोशिश की कि हम रहेंगे पृथ्वी पर, लेकिन सोचेंगे स्वर्ग की। हम पृथ्वी की तरफ देखेंगे भी नहीं। यह बड़ी दुस्साहसपूर्ण कोशिश थी। बड़ी असंभव चेष्टा थी। असफल हम हुए, बुरी तरह असफल हुए। इस बुरी तरह असफल हुए कि स्वर्ग देखना तो दूर रहा, हमें जमीन की धूल चाट लेनी पड़ी, हम जमीन पर सीधे गिर पड़े।
लेकिन हमने हिम्मत का प्रयोग किया था इन पांच हजार वर्षों में। वह हिम्मत गलत रास्ते पर गई थी, यह, यह साबित हो गया है। हमारी दीनता से, हमारे दुख से, हमारी दरिद्रता से, हमारी दासता से यह सिद्ध हो गया कि वह हमारी भूल हो गई। लेकिन फिर भी हमने एक अदभुत प्रयोग किया था। और वह प्रयोग यह बताता है कि ताकत हमारे पास थी और आज भी है। हम दूसरा प्रयोग भी कर सकते हैं।
वह समाज युवा है, जो सदा दूसरा प्रयोग करने की क्षमता फिर से जुटा ले। वह समाज बूढ़ा हो जाता है, जो एक ही प्रयोग में झुक जाए। क्या हम एक ही प्रयोग में चुक गए हैं या हम नया प्रयोग कर सकेंगे? भारत के युवकों के सामने आने वाले भविष्य में यही सवाल है कि क्या हम एक प्रयोग करके हमारी जीवन ऊर्जा समाप्त हो गई है? या हम मनुष्य को बदलने का, नया बनाने का दूसरा प्रयोग भी कर सकते हैं।
पांच हजार वर्ष से हम एक ही प्रयोग के साथ बंधे हैं। हमने उसमें हेर-फेर नहीं किया। हमने बदलाहट नहीं की। लेकिन अब उस प्रयोग के साथ आगे जाना असंभव हो गया है। तो पहले तो हम उस प्रयोग के संबंध में थोड़ा समझ लें जो हमने किया था और जो असफल हुआ। क्योंकि अपनी असफलता को समझ लेना सफलता के रास्ते पर जाने का पहला चरण है। अपनी भूल को ठीक से पहचान लेना भूल को सुधारने की जरूरी शर्त है। अपने अतीत को ठीक से समझ लेना, ताकि भविष्य में हम उसे न दोहरा सकें, अत्यंत जरूरी है।
मंदिर हम देखते हैं। मंदिर में आकाश की तरफ उठे हुए स्वर्ण के कलश होते हैं। मन हो सकता है किसी कवि का, किसी स्वप्नशील का, किसी कल्पना आविष्ट का कि हम एक ऐसा मंदिर बनाएं जिसमें सिर्फ कलश ही हों, स्वर्ण के चमकते हुए, आकाश की तरफ उठे हुए, सूरज की किरणों में नाचते हुए, हंसते हुए--हम सिर्फ स्वर्ण के कलश ही बनाएं। हम गंदी नींव न बनाएंगे। क्योंकि गंदी नींव गंदी जमीन में गड़ी होती है। अंधेरे में छिपी होती है, सूर्य से डरती है, अंधेरे से प्रेम करती है। कूड़े में, करकट में नीचे दबी रहती है। हम नींव न बनाएंगे, हम गंदी, कुरूप नींव नहीं बनाएंगे, हम तो सिर्फ स्वर्ण के शिखर बनाएंगे। हम दीवालें न बनाएंगे, पत्थर की, मिट्टी की। हम तो सिर्फ स्वर्ण के शिखर ऊपर चमकते हुए बनाएंगे। हम एक ऐसा मंदिर बनाएंगे जो सिर्फ स्वर्ण-कलशों का मंदिर हो। यह कल्पना तो अच्छी है, काव्य भी अच्छा है। लेकिन यह जिंदगी में सफल नहीं हो सकता। क्योंकि वे जो स्वर्ण के शिखर दिखाई पड़ते हैं ऊपर मंदिर के, स्वर्ण के कलश, वे उस गंदी नींव पर ही खड़े हैं जो नीचे जमीन में दबी है। अगर नींव को हम भूल गए तो स्वर्ण-कलश गिरेंगे, बुरी तरह गिरेंगे, और आकाश में खड़े न रहेंगे; वहां गिर जाएंगे, जहां गंदी नींव होती है। नीचे गिर जाएंगे, पृथ्वी पर गिर जाएंगे। उन्हें ऊपर उठाए रखने में, उन्हें आकाश की तरफ उन्मुक्त रखने में, वह नींव जो जमीन के भीतर छिपी है वही आधार है। वे मिट्टी की, पत्थर की दीवालें उनका सहारा है, इसीलिए वे आकाश में उठे रह पाते हैं। वे आकाश में उठे रह पाते हैं क्योंकि नींव के पत्थरों ने यह त्याग किया है कि वे जमीन में पड़े रहने को तैयार हैं। उनके त्याग के कारण कलश आकाश में उठे हुए हैं।
भारत ने जिंदगी को इसी भांति ढालने की कोशिश की, कलश की जिंदगी बनानी चाही, नींव को इनकार कर दिया। जिंदगी की नींव है भौतिक, जिंदगी की नींव है मैटीरियलिस्ट, जिंदगी की नींव है पदार्थ में और जिंदगी के शिखर हैं परमात्मा में। हमने कहा, हम पदार्थ को इनकार करेंगे, हम भौतिकवादी नहीं हैं, हम शुद्ध अध्यात्मवादी हैं। हम तो सिर्फ अध्यात्म के कलशों में ही जीएंगे, हम आकाश की तरफ उन्मुख होंगे, पृथ्वी की तरफ नहीं देखेंगे।
सुंदर था सपना। लेकिन सुंदर सपने कितने ही हों, सत्य नहीं हो पाते हैं। सिर्फ सपने का सुंदर होना सत्य के होने के लिए पर्याप्त नहीं है।
मैंने सुना है, यूनान में एक बहुत बड़ा ज्योतिषी था। वह एक सांझ निकल रहा है रास्ते से। आकाश के तारों को देखता हुआ और एक कुएं में गिर पड़ा है क्योंकि जो आकाश के तारों में जिसकी नजर लगी हो उसे जमीन के गड्ढे दिखाई पड़ें, मुश्किल है! दोनों एक साथ नहीं हो पाता। वह एक गड्ढे में गिर पड़ा है, एक सूखे कुएं में। हड्डियां टूट गई हैं, चिल्लाता है। पास के झोपड़े से एक बूढ़ी औरत उसे बामुश्किल निकाल पाती है। निकलते ही वह उस बूढ़ी औरत को कहता है कि मां, शायद तुझे पता नहीं कि मैं कौन हूं। मैं एक बहुत बड़ा ज्योतिषी हूं। संभवतः मुझसे ज्यादा आकाश के तारों के संबंध में आज पृथ्वी पर कोई भी नहीं जानता है। अगर तुझे कभी आकाश के तारों के संबंध में कुछ जानना हो तो मेरे पास आना। दूसरे लोग तो आते हैं तो हजारों रुपये फीस देनी पड़ती है, तुझे मैं ऐसे ही सब समझा दूंगा।
उस बूढ़ी औरत ने कहाः बेटे, तुम फिकर मत करो, मैं कभी न आऊंगी। क्योंकि जिसे अभी जमीन के गड्ढे नहीं दिखाई पड़ते, उसके आकाश के तारों के ज्ञान का भरोसा नहीं। उस बूढ़ी औरत ने कहा कि अभी गड्ढे नहीं दिखाई पड़ते जमीन के, तुम्हारे आकाश के ज्ञान का भरोसा क्या है? पास का नहीं दिखाई पड़ता है, दूर का तुम्हें क्या दिखाई पड़ता होगा? पास के लिए तुम इतने अंधे हो तो दूर के तरफ तुम्हारे दर्शन का बहुत विश्वास नहीं किया जा सकता।
भारत से किसी को आज कहने की जरूरत पड़ गई है। हमने पांच हजार वर्ष आकाश के तारों को देख कर चलने की कोशिश की है। आकाश के तारे बहुत सुंदर हैं, आकाश के तारों को देख कर चलने की कामना बहुत सुंदर है। आकाश के तारों में जीने की इच्छा बहुत महान है। लेकिन जमीन भी है, और पैर जमीन पर ही रहते हैं, आंखें भला आकाश में हों। और जमीन पर गड्ढे भी हैं, और गड्ढों में गिर जाने की संभावना भी है। हमने जमीन को इनकार ही कर दिया था। हमने यह कह ही दिया, यहां सब माया है, सब झूठ है, यह सब पदार्थ, यह पदार्थ का जगत सब असत्य है। सत्य तो कहीं और है, जो दिखाई नहीं पड़ता। जो दिखाई पड़ता है वह असत्य है, और जो दिखाई नहीं पड़ता है वह सत्य है। ऐसा शीर्षासन करने की हमने कोशिश की है। ऐसे हम उलटे खड़े होने की चेष्टा में बुरी तरह गिरे हैं।
मैं यह नहीं कहता हूं कि आकाश में तारे नहीं हैं। वे जरूर हैं, लेकिन वे भी उन्हीं के देखने के लिए हैं जिनकी जमीन सुनिश्चित हो गई हो और रास्ते बन गए हों और जहां गड्ढे न रह गए हों। आकाश के तारे देखने का हक उन्हें है जिन्होंने जमीन के गड्ढे मिटा लिए हों। आकाश के तारों को देखने की क्षमता और पात्रता उन्हीं की हो सकती है जिनके पैर इतने मजबूत हो गए हों कि अब नीचे गिरने का कोई डर नहीं। जिनके पैरों में भी आंखें पैदा हो गई हों, वे अब आकाश की तरफ देख कर चल सकते हैं। लेकिन हमने तो पैरों को इनकार ही कर दिया है।
भारत के इतिहास की बुनियादी भूल यह है कि हमने भौतिक को इनकार किया और हमने सोचा कि अध्यात्म कुछ भौतिक का विरोधी है। यह भूल ऐसी ही है जैसे कोई कहे कि जड़ें फूलों की विरोधी हैं। माना कि जड़ें बहुत कुरूप हैं, और फूलों जैसी सुंदर नहीं हैं। और यह भी माना कि जड़ें बहुत अंधेरे में हैं, बेढंगी फैली हैं और फूलों जैसी हैं अनुपात में और कवि की कल्पना में प्रकट नहीं हुई हैं; और यह भी माना कि जड़ों के लिए आज तक किसी ने गीत नहीं गाया और यह भी माना कि आज तक जड़ों की किसी ने प्रशंसा नहीं की है; लेकिन ध्यान रहे, जड़ों के बिना इस जगत में एक भी फूल नहीं खिल सकता है। सारे फूल जड़ों को धन्यवाद देते होंगे, क्योंकि जड़ों से ही सारा रस आता है, जड़ों से ही सारा जीवन आता है। हमने ऐसा किया कि हमने कहा कि जड़ों को हम पानी न देंगे। हम कुरूप को क्यों पानी दें? हम तो सिर्फ फूलों को पानी देंगे। फूलों को पानी देने से फूलों का हित नहीं होता।
माओ ने अपने बचपन का एक संस्मरण लिखा है, जो मुझे बहुत प्रीतिकर रहा है। उसने लिखा है कि मेरी मां की एक बगिया थी। एक छोटी बगिया मेरी मां ने बसाई थी। वह बूढ़ी हो गई और बीमार पड़ गई। वह इतनी बीमार थी कि बगिया में नहीं जा सकती थी, तो वह बहुत चिंतित थी कि कहीं फूल कुम्हला न जाएं। तो उसने अपने बेटे को कहा कि तू देख सकेगा? उसके बेटे ने कहा, तू बिलकुल निशिं्चत रह, मैं बगिया की पूरी फिकर कर लूंगा। लेकिन उस बेटे को यह पता न था कि फूलों के प्राण जमीन में छिपी हुई जड़ों में होते हैं। जड़ें तो दिखाई पड़ती नहीं हैं, दिखाई तो फूल पड़ते हैं। उस बेटे को पता न था। उस बेटे ने एक-एक फूल को पानी दिया, एक-एक फूल को झाड़ा, पोंछा, प्रेम किया।
पंद्रह दिन में बगिया सूख गई। जब बूढ़ी उठी, उसने देखा, उसने कहा, यह क्या हुआ बगिया का? यह बगिया तो नष्ट हो गई। ये फूल तो सूख गए। तो उस बेटे ने कहा, मैं क्या करूं? मैंने तो एक-एक फूल को प्रेम किया, एक-एक फूल को झाड़ा, पोंछा, बुहारा, लेकिन पता नहीं क्या हुआ कि ये फूल सूखते चले गए। उस बूढ़ी औरत ने कहा, बेटे, जड़ों की फिकर की? उसने कहा, कैसी जड़ें? जड़ों का तो मुझे कुछ पता ही नहीं, जड़ें कहां हैं? उस बूढ़ी स्त्री ने कहा कि जड़ें जमीन में दबी हैं। फूलों की फिकर करनी हो तो फूलों की फिकर नहीं करनी पड़ती है, जड़ों की फिकर करनी पड़ती है। जड़ों की फिकर हो जाए, फूलों की फिकर अपने आप हो जाती है। और अगर किसी ने यह भूल की कि फूलों की फिकर की और जड़ें भूल गईं तो फूल कुम्हला जाएंगे, उनकी फिकर से उनको नहीं बचाया जा सकता।
इस देश ने ऐसी भूल कर ली है। हमने जड़ों को इनकार कर दिया, इसलिए विज्ञान पैदा नहीं हो सका। विज्ञान जीवन की जड़ है। धर्म जीवन के फूल हैं। इसलिए हमारा शरीर कमजोर होता चला गया। शरीर जीवन की जड़ है। आत्मा जीवन का फूल है। हम फूलों की ही बात करते रहे। हम फूल से नीचे उतरने को राजी ही न हुए। हमने सारे शास्त्र फूलों के लिखे, जड़ की हमने एक किताब न लिखी। हमने उपनिषद लिखे, हमने वेद लिखे, हमने गीता लिखी। ये सब फूलों की किताबें हैं। हमने फिजिक्स और कैमिस्ट्री न लिखी, हमने गणित और भूगोल न लिखा। वे जड़ों की किताबें थीं। इसलिए हम पिछड़ गए, हम बुरी तरह पिछड़े। फूलों की बात करते रहे और फूल कुम्हलाते चले गए। फूलों की चर्चा में रत रहे और फूल मरते चले गए।
ऐसे हमने फूलों को प्रेम तो किया, लेकिन फूलों के हत्यारे भी हम ही सिद्ध हुए। क्योंकि फूलों को प्रेम करना ही फूलों को बचाने के लिए पर्याप्त नहीं है। जड़ों को भी प्रेम करना पड़ता है। माली जड़ों की फिकर करता है, फूलों की फिकर ही नहीं करता। फूल अपने आप आ जाते हैं। फूलों को लाना नहीं पड़ता, जड़ें सम्हल जाएं, फूल चले आते हैं। फूल जड़ों की सहज छाया की भांति आते हैं।
मैं आऊंगा आपके घर तो मेरी छाया चली आएगी। लेकिन आप अगर मेरी छाया को निमंत्रण दे गए और मुझे भूल गए तो मैं तो आऊंगा ही नहीं, मेरी छाया के आने की भी कोई संभावना नहीं है।
हमने फूलों को निमंत्रण दिया कि आओ। हमने परमात्मा को बुलाया कि आओ, विराजो हमारे भवन में, लेकिन हमने जड़ों को, प्रकृति को, पृथ्वी को अस्वीकार कर दिया।
जहां परमात्मा का मंदिर बन सकता था पृथ्वी पर, वह पृथ्वी अस्वीकृत थी, मंदिर ही न बना। निमंत्रण व्यर्थ ही पड़ा रहा। परमात्मा को आने के लिए जगह भी नहीं मिल सकी। हम दोनों तरफ चूक गए। यहां प्रकृति के साथ हमारा संबंध गहरा न हो पाया, वहां परमात्मा के लिए दिया गया निमंत्रण व्यर्थ हो गया क्योंकि वह निमंत्रण तभी स्वीकार हो सकता था, जब जड़ों को प्रेम किया गया हो तभी फूलों को दिए गए निमंत्रण स्वीकार होते हैं। आने वाले भविष्य में हमें इस भूल को दोहराने से बचना होगा।
क्या इसका यह मतलब है कि मैं कह रहा हूं कि भारत भौतिकवादी हो जाए? नहीं, इसका यह मतलब नहीं है। इसलिए दूसरी बात भी आप से कह दूं। भारत ने यह भूल की थी, यह आधी भूल थी--जिंदगी के आधे को अस्वीकार करने की, आधे को स्वीकार करने की। जिंदगी पूरी स्वीकृत होनी चाहिए। उसमें पदार्थ भी है, परमात्मा भी है। उसमें शरीर भी है, आत्मा भी है। उसमें अंधेरा भी है, प्रकाश भी है। पूरी जिंदगी स्वीकृत हमने नहीं की। आधी जिंदगी स्वीकार करके हमने बहुत दुख झेल लिया। लेकिन अब एक नया डर पैदा हो गया है।
पश्चिम ने भी आधी जिंदगी स्वीकार की है। उसने सिर्फ जड़ों को ही स्वीकार कर लिया है और जड़ों में ही रत हो गया है और उसने ऊपर से ठूंठ ही काट दिया है वृक्ष का। उसने फूलों के, पत्तों के आने की संभावना ही मिटा दी है। क्योंकि उनका कहना है, फूल सब झूठ हैं, सब सपने हैं, फूल कहीं आते नहीं। जड़ें ही सत्य हैं। उन्हीं को पानी देना, उन्हीं की पूजा करना। तो पश्चिम जड़ों को बहुत पानी दे रहा है। जड़ें बहुत मोटी होती चली गईं। अब वे पृथ्वी के ऊपर भी निकलने लगी हैं। जड़ों का जाल ही फैलता चला जा रहा है, वह बहुत कुरूप है। क्योंकि उन जड़ों में फूल आने का उपाय न रहा। फूल पश्चिम ने अस्वीकार कर दिए हैं।
पश्चिम है निपट भौतिकवादी और पूरब था निपट अध्यात्मवादी। यह दोनों ही अधूरी गलतियां हैं। आधे-आधे की भूल है।
आज दूसरा डर यह है कि हम पुरानी भूल से बच कर कहीं पश्चिम की भूल न पकड़ लें, इसकी बहुत संभावना है। इसकी बहुत संभावना है क्योंकि जब आदमी एक भूल छोड़ता है तो दूसरी अति पर, दूसरी एक्सट्रीम पर चला जाता है। घड़ी की पेंडुलम की तरह हमारा चित्त बाएं से जाता है तो फिर ठीक दाएं पहुंच जाता है। और एक बहुत मजे की बात है, जब घड़ी का पेंडुलम बाईं तरफ जाता है, तब कभी खयाल नहीं किया होगा कि बाईं तरफ जाता हुआ पेंडुलम दाईं तरफ जाने की शक्ति इकट्ठी करता है। जितना वह बायां जाता है, उतना दायां जाने का मोमेंटम इकट्ठा करता है। जाता है बायां, तैयारी हो रही है दाएं जाने की। जाता है दायां, तैयारी हो रही है बाएं जाने की।
पश्चिम भौतिकता में बहुत गहरे गया है और उसकी तैयारी हो गई है अध्यात्म में जाने की। वह दूसरी अति की भूल करेगा। इसलिए महेश योगी या और किसी को पश्चिम में जो सम्मान मिलता है, वह दूसरी अति को दिया गया सम्मान है। वह पश्चिम दूसरी अति पर जाएगा। और हम भी तैयार हो गए हैं यहां, अध्यात्म में बहुत गहरे चले गए हैं। अब हमारा पेंडुलम भौतिकवाद की तरफ जाने की तैयारी में है। तो आज हमारा युवक अगर भौतिक को, शरीर को बहुत सम्मान दे रहा है, आदर दे रहा है तो कोई आश्चर्य नहीं है, वह दूसरी अति में जाने की कोशिश कर रहा है। खतरा यह है कि कहीं पश्चिम पूरब न हो जाए और पूरब पश्चिम न हो जाए। और यह इसका डर है।
मैंने सुना है, एक गांव में ऐसा एक बार हुआ। एक गांव में एक बहुत बड़ा नास्तिक था और एक बहुत बड़ा आस्तिक था और दोनों बहुत गांव को परेशान किए थे। वादी परेशान किए ही रहते हैं। आस्तिक कहता था कि ईश्वर है और सारे गांव को समझाता था। उसकी दलीलों में ताकत थी, जान थी। और नास्तिक कहता था, ईश्वर नहीं है, उसकी दलीलें भी कम ताकतवर न थीं। थोड़ी ज्यादा ही ताकतवर थीं। आस्तिक समझा जाता, नास्तिक मिटा जाता। नास्तिक समझाता, आस्तिक मिटा देता। गांव परेशान हो गया। और गांव के लोगों ने कहा, तुम दोनों कोई निर्णय ही कर लो तो अच्छा था, ताकि हमारी परेशानी मिट जाए। एक पूर्णिमा की रात दोनों का विवाद हुआ। दोनों ने सख्त से सख्त दलीलें दीं--आस्तिक ने आस्तिकता की, नास्तिक ने नास्तिकता की। विवाद रात भर चला। और आखिर सुबह परिणाम यह हुआ कि नास्तिक की दलीलों से आस्तिक प्रभावित हो गया और आस्तिक की दलीलों से नास्तिक प्रभावित हो गया। उस गांव में फिर एक आस्तिक रहा, फिर एक नास्तिक रहा। गांव की मुसीबत बरकरार रही, गांव की मुसीबत वही की वही रही।
आज पूरब पश्चिम को समझा रहा है, पश्चिम पूरब को समझा रहा है। धर्म के संबंध में पूछना हो तो पश्चिम पूरब के चरणों में आकर बैठता है। और विज्ञान के संबंध में पूछना हो, पूरब को पश्चिम के चरणों में जाकर बैठ जाना पड़ता है। आज अगर विज्ञान की फिकर करनी हो, आॅक्सफोर्ड और कैंब्रिज, हार्वर्ड में बैठना पड़ता है। और अगर धर्म की फिकर करनी हो तो ऋषिकेश आना पड़ता है। लेकिन ये दोनों कहीं खतरा न हो जाए, जमीन फिर वही भूल में न पड़ जाए कि हम आधे-आधे फिर आधे-आधे बदल जाएं। उससे कुछ फर्क न पड़ेगा।
तो दूसरी बात ध्यान में रखने की है कि भारत को अपने अतीत की भूल से बचना है। और पश्चिम की अतीत की भूल से भी बचना है। अगर मैं पश्चिम के लोगों से कहूं, तो उनसे भी कहूंगा कि तुम अपनी भूल से भी बचना, और भारत की भूल से भी बचना। अन्यथा तुम भी मुश्किल में पड़ जाओगे। पूरी जिंदगी स्वीकृत होनी चाहिए। मेरा कहना है, भौतिकवाद जीवन का आधार बने, अध्यात्म जीवन का शिखर। न तो शिखर को इनकार करना उचित है, न बुनियाद को इनकार करना उचित है। जीवन इकट्ठा है।
विज्ञान और धर्म एक साथ स्वीकृत होने चाहिए। भारत में आने वाले विचारशील युवकों को कैसी जिंदगी बनानी है, उसको सोचते समय धर्म और विज्ञान दोनों के समन्वय पर दृष्टि रखनी होगी। और ध्यान रखना होगा कि कहीं ऐसा न हो कि हम सिर्फ धर्म के आधार पर जिंदगी बना लें। वह बड़ी कविता है, लेकिन कविता से पेट नहीं भरते। और कहीं ऐसा न हो कि हम विज्ञान के आधार पर जिंदगी बना लें। वह बहुत मजबूत रोटी है, लेकिन अकेली रोटी से आदमी तृप्त नहीं हो पाता।
जीसस का एक वचन है बाइबिल मेंः मैन कैन नाॅट लिव बाई ब्रेड अलोन, आदमी अकेली रोटी से नहीं जी सकता। लेकिन यह अधूरा वचन है। आदमी बिना रोटी के भी नहीं जी सकता। यह भी सच है कि आदमी बिना रोटी के भी मर जाएगा। और यह भी सच है कि आदमी को सिर्फ रोटी मिले, और कुछ न मिले तो भी मर जाएगा। ये दोनों बातें एक साथ सच हैं। अकेली रोटी तृप्ति नहीं दे सकती। और भी बहुत कुछ चाहिए। जिंदगी की बड़ी लंबी आकांक्षाएं हैं। जिंदगी बड़ी ऊंची उठना चाहती है। रोटी पर ही नहीं रुक जाना चाहती है।
एक अच्छे से अच्छा मकान बना कर भी मन तृप्त नहीं होता। धन इकट्ठा करके भी मन तृप्त नहीं होता। सब पा लो, फिर भी मन तृप्त नहीं होता। मन कहता है, कुछ और, कुछ और। मन कहे ही चला जाता है, कुछ और। कुछ उसकी और गहरी खोज की, वह आकाश की यात्रा पर भी जाना चाहता है। ये आधी-आधी भूलें हो चुकी हैं। हमें समझ लेना चाहिए कि हमें अपने मंदिर के शिखर के नीचे, मंदिर के कलश के नीचे पत्थरों की नींव भी बनानी है। ।
एक बात--कि हमें पत्थर की नींव पर स्वर्ण के कलश चढ़ाने हैं। भारत को शरीर की, पदार्थ की, भूत की पूरी चिंता करनी पड़ेगी। हमने चिंता ही नहीं की है, इसलिए जिम्मा ज्यादा है। पांच हजार वर्ष में जो चिंता होनी चाहिए थी, वह हमें पचास वर्ष में पूरी करनी है। अगर पचास वर्ष में वह हम पूरी नहीं कर पाते तो शायद फिर जगत की दौड़ में हम कभी भी ठीक-ठीक साथ खड़े नहीं हो पाएंगे। पांच हजार वर्ष का लंबा इतिहास हमें पचास वर्ष में तीव्रता से पूरा कर लेना है। उस तीव्रता से पूरा करने के लिए कुछ आधार बिंदु खोजने होंगे। तो मैं भारत के युवकों से कुछ आधार बिंदु की निरंतर बात करता हूं। दो तीन आधार बिंदु आप से भी कहना चाहूंगा।
पहली तो बात यह है कि जिंदगी विरोध से बन कर निर्मित हुई है। हमारा मन करता है कि विरोध से एक का चुनाव कर लें। लेकिन जिंदगी विरोध से ही निर्मित है--कभी किसी मकान का दरवाजा देखा है, तो वहां दोनों तरफ से ईंटें लगाते हैं हम, उलटी ईंटें लगाते हैं दरवाजे पर आर्च बनाने को। दोनों तरफ की ईंटें जाकर बीच में जुड़ जाती हैं और मकान के सारे बोझ को झेल लेती हैं, विरोधी ईंटें! कोई कह सकता है कि एक सी ईंटें लगाएं तो हर्ज क्या है! एक सी ईंटें लगाएं तो मकान गिर जाएगा। विरोधी ईंटों के दबाव और तनाव पर मकान खड़ा होता है।
जिंदगी का सारा मकान विरोधी ईंटों से बना है। अगर हमने एकतरफा विचार किया और एक सी ईंटें लगा दीं तो मकान गिरेगा। लेकिन अब तक हम इसी भाषा में सोचते रहे हैं कि एक तरह की ईंट ही होनी चाहिए। अगर उपनिषद हम लिखेंगे तो उपनिषद ही लिखेंगे हम; अगर हम आत्मा की बात करेंगे, तो आत्मा की ही बात करेंगे; दूसरे को हम इनकार कर देंगे। इसलिए हमने जगत को इनकार कर दिया था। लेकिन इनकार करने से कुछ इनकार नहीं होता है। जगत है, बहुत मजबूती से है, बहुत पूरी तरह से है। हमारा इनकार भी कहता है कि जगत है। इनकार करना पड़ता है उसे ही, जो है, अन्यथा इनकार की भी कोई जरूरत न रह जाए। हम कितना ही इनकार करें, वह मौजूद है। हम कितनी ही माया कहें, वह मौजूद है। हम कितना ही असार कहें, वह मौजूद है। असार कहने से हिंदुस्तान एक हजार साल की गुलामी से नहीं बच सका। हमला होगा तो गुलामी आएगी। गुलामी बहुत सत्य है। असार कहने से हिंदुस्तान का संन्यासी भूखा नहीं रह सकता, रोटी खानी पड़ेगी। पेट बहुत वास्तविक है, उसकी भूख बहुत वास्तविक है।
माया कहने से जिंदगी से इनकार नहीं होता, सिर्फ जिंदगी को सम्हालने से इनकार हो जाता है। जिंदगी तो चलती है अपने रास्ते पर, वह है। लेकिन अगर हमने इनकार कर दिया, असार कह दिया, व्यर्थ कह दिया, तो जिंदगी के जिन राजों को हम खोल कर जिंदगी को ज्यादा सुंदर और सुखद बना सकते थे, वे राज हम खोजना बंद कर देंगे। इसलिए पांच हजार वर्षों में अब माया में विज्ञान कैसे खड़ा हो! अगर हमने कह दिया, सब माया है तो विज्ञान का क्या मतलब है। कैसे विज्ञान खोजेंगे हम? जगत को हम सत्य मानेंगे तो विज्ञान का जन्म होगा। क्योंकि सत्य के ही नियम हो सकते हैं, स्वप्न के तो कोई नियम नहीं हो सकते हैं। झूठ के तो कोई नियम नहीं हो सकते। पांच हजार वर्ष में इतने प्रतिभाशाली लोग हमने पैदा किए, लेकिन एक बड़ा वैज्ञानिक पैदा नहीं किया! इसे भविष्य में सोच लेना पड़ेगा। बुद्ध जैसा आदमी पैदा किया, महावीर, कृष्ण और राम और शंकर और नागार्जुन और दिग्नाद। हमने एक से एक प्रतिभाशाली लोग पैदा किए। लेकिन, इनमें से एक भी वैज्ञानिक नहीं था। वैज्ञानिक हम पैदा न कर पाए, एक आइंस्टीन पैदा न कर पाए! उसका कुछ विचार करना पड़ेगा। जिस मुल्क के पास इतनी प्रतिभा है, उसके पास एक आइंस्टीन पैदा न हो तो जरूर कहीं हमारे सोचने में कोई भूल हो गई है। दस आइंस्टीन पैदा हो सकते हैं, एक बुद्ध के व्यक्तित्व से। एक कृष्ण की क्षमता से दस आइंस्टीन पैदा हो सकते हैं, लेकिन हम एक आइंस्टीन पैदा न कर पाए! प्रतिभाशाली लोग पैदा हुए, लेकिन हमने उनको एक ही धारा में बहने को मजबूर कर दिया। बस वह आत्मा की धारा में बहते चले गए। जीवन की वास्तविकता की खोज में एक भी नहीं गया।
भविष्य में हमें आइंस्टीन पैदा करने होंगे, और तीव्रता से पैदा करने होंगे, क्योंकि पचास साल में पांच हजार साल के विकास को पूरा करना है। लेकिन आइंस्टीन कैसे पैदा होंगे? क्या सिर्फ गणित पढ़ लेने से कोई आइंस्टीन पैदा हो सकते हैं? या कालेज में, युनिवर्सिटी में विज्ञान पढ़ लेने से आइंस्टीन पैदा हो सकते हैं? नहीं, विज्ञान तो हम दो सौ साल से पढ़ रहे हैं। दो सौ साल से विज्ञान पढ़ कर भी हम वैज्ञानिक नहीं पैदा कर पाते हैं। उसका कारण है कि हमारे पास वैज्ञानिक बुद्धि, साइंटिफिक आउटलुक नहीं है। तो विज्ञान की शिक्षा तो हो जाती है, टेक्नीशियंस पैदा हो जाता है, लेकिन वैज्ञानिक पैदा नहीं होता। टेक्नीशियंस और साइंटिस्ट में बहुत फर्क है। टेक्नीशियन का मतलब है कि वह जानता है कि कैसे क्या करना; नो-हाउ उसे पता है, लेकिन वैज्ञानिक की जो दृष्टि है, वह उसमें नहीं है। मैं कुछ उदाहरण से समझाने की कोशिश करूं।
एक डाक्टर के घर में मैं कलकत्ते में मेहमान था। उस डाक्टर ने मुझे ले जाकर...सांझ को मीटिंग में ले जा रहा है। अपनी गाड़ी में मैं बैठने को गया हूं कि उसकी लड़की को छींक आ गई। उस डाक्टर ने कहाः रुकें एक मिनट। वह डाक्टर टेक्नीशियन है। वह जानता है फोड़े को कैसे काटना और टी. बी. में कौन सी गोली देनी है, लेकिन साइंटिस्ट नहीं है। मैंने उससे कहा कि तुम्हारी लड़की को छींक आती है, इससे मेरे रुकने का क्या संबंध है? और तुम्हारी लड़की को छींक आए तो क्या सारी दुनिया रुक जाए? तुम्हारी लड़की को तुम बड़ा महत्व दे रहे हो। उन्होंने कहाः नहीं-नहीं, यह सवाल नहीं है। मैंने कहा कि और तुम डाक्टर हो, तुम भलीभांति जानते हो कि छींक क्यों आती है। और अगर छींक आना भी नहीं जानते तो टी. बी. का आना तुम कैसे समझ पाओगे? बहुत मुश्किल में पड़ जाओगे। उस डाक्टर ने कहा: जानता हूं कि छींक क्यों आती है, लेकिन फिर भी एक मिनट रुकने में हर्ज क्या है?
मैंने कहा, हर्ज बहुत बड़ा है, क्योंकि वैज्ञानिक बुद्धि की कमी का पता चलता है। हर्ज बहुत बड़ा है। डाक्टर भी यही कह रहा है। और वह डाक्टर हिंदुस्तान में नहीं पढ़ा है, यूरोप में पढ़ा है। लेकिन उसके पास जो एक साइंटिफिक आउटलुक चाहिए, वैज्ञानिक चिंतन चाहिए कि चीजों के कार्य कारण में प्रवेश करे, कल्पनाओं में, अंधविश्वासों में नहीं, वह नहीं है।
मैं अभी एक पंजाब के बड़े नगर में एक मित्र के घर का उदघाटन करने गया। वे बड़े इंजीनियर हैं, बड़ा अच्छा मकान बनाया। खुद ही इंजीनियर है, तो अच्छा मकान बनाया है। उनका फीता काट रहा था तो सामने देखा कि मकान के ऊपर एक हंडी लटकी है। हंडी पर आदमी का चेहरा बना है, बाल लटके हुए हैं। मैंने पूछाः यह क्या है? उन्होंने कहा कि मकान को नजर न लग जाए। एक इंजीनियर भी सोचता है कि मकान को नजर लग सकती है! तो फिर इस देश में वैज्ञानिक पैदा नहीं हो सकेगा।
वैज्ञानिक पैदा करने का मतलब है, अंधविश्वासों से मुक्ति। वैज्ञानिक पैदा करने का मतलब है, अंधी श्रद्धा से मुक्ति। वैज्ञानिक पैदा करने का मतलब है, विश्वास नहीं, विचार। वैज्ञानिक पैदा करने का मतलब है, आस्था नहीं, संदेह। तो हम वैज्ञानिक पैदा कर सकेंगे; अन्यथा नहीं पैदा कर सकेंगे। अब एम.एस.सी. पढ़ रहा है लड़का। वह सब विज्ञान की शिक्षा ले रहा है। लेकिन परीक्षा के वक्त हनुमान जी के मंदिर के सामने मिल जाएगा! तब थोड़ा सोचना जरूरी है कि हनुमान जी की क्या गलती है। उनकी परीक्षा के लिए हनुमान जी की क्या जिम्मेवारी है। वह हनुमान जी को क्यों मुसीबत में फंसा देने के खयाल में है। नहीं, लेकिन वह पांच आने की रिश्वत दे रहा है! वह कह रहा है, एक नारियल चढ़ा देंगे!
भारत में, अगर हमें एक वैज्ञानिक समाज की दिशा में सोचना हो तो हमें वैज्ञानिक चित्त कैसे निर्मित होता है इस दिशा की बात समझ लेनी जरूरी है। जीवन चलता है कार्य-कारण से, अंध-विश्वासों से नहीं। जिंदगी चलती है एक वैज्ञानिक व्यवस्था से, हमारी कल्पनाओं और श्रद्धाओं से नहीं।
सोमनाथ पर हमला हुआ। तो सोमनाथ में पांच सौ पुजारी थे। करोड़ों रुपये की संपत्ति थी। आस-पास के राजपूत राजाओं ने उन्हें खबर भेजी कि हम रक्षा के लिए आएं? तो उन पुजारियों ने कहा, पागल हो गए हो? जो भगवान सबकी रक्षा करता है, उसकी रक्षा तुम करोगे? उनकी दलील तो बिलकुल ठीक थी। उनकी दलील से लड़ना मुश्किल हो गया। और इसलिए भी मुश्किल हो गया कि वे राजा भी उसी दलील को मानते थे। उन्होंने कहाः यह बात तो ठीक है। भगवान सबका रक्षक है। हम उसकी रक्षा कैसे करेंगे? तो राजाओं का यह निवेदन कि हम रक्षा करने आएं, पुजारियों ने इनकार कर दिया। उन्होंने कहा, यह तो नास्तिकता की बात है। तुम और भगवान की रक्षा करोगे? भगवान सबकी रक्षा कर रहा है। पुजारी खड़े होकर प्रार्थना करते रहे, और गजनी आया और उस मूर्ति को टुकड़े-टुकड़े कर दिया। और भगवान ने कोई रक्षा नहीं की। वह मूर्ति बिखर गई।
अंधविश्वास से जीए हम, वैज्ञानिक चिंतन से नहीं जीए हैं। वैज्ञानिक चिंतन से जीते तो हम कुछ और ढंग से सोचते। क्योंकि जब भगवान की मूर्ति आदमी बनाता है तो रक्षा भी आदमी को ही करनी पड़ेगी। हां, उस भगवान की रक्षा की हमें कोई जरूरत नहीं, जिसको हमने नहीं बनाया। वह अपनी रक्षा करेगा। लेकिन जिस भगवान को हमने बनाया, बनाएंगे हम, और रक्षा भगवान करेगा?
नहीं, यह वैज्ञानिक चिंतन न हुआ। इसमें बुनियादी भूल हो गई। इस भूल का हमने परिणाम भोगा। एक हजार साल हम गुलाम थे इस भूल के कारण। हमारी पिछली एक हजार वर्ष की, दुख की, दारिद्रय की, दीनता की, दुर्भाग्य की, हार की, पराजय की कथा हमारे अवैज्ञानिक होने की कथा है। लोग हमें यही समझाते हैं कि फूट की वजह से हम हार गए। फूट की वजह से हम नहीं हारे। फूट सारी दुनिया में है। ऐसा कोई मुल्क नहीं है जिसमें फूट न हो। ऐसी जमीन पर कोई कौम नहीं है जिसमें फूट न हो। सब तरफ फूट है। लेकिन हम ही क्यों हारते चले गए। कुछ कारण थे। हमारी वैज्ञानिक सूझ में बहुत कमी थी।
इधर हिंदुस्तान सिकंदर आया तो पोरस उस सिकंदर से कमजोर आदमी न था। और अगर दोनों मैदान में लड़ते तो सिकंदर के जीतने के कोई उपाय न थे। पोरस सिकंदर से बहुत मजबूत और बहुत हिम्मत का आदमी था। सिकंदर ने भी स्वीकार किया है कि किसी आदमी से लड़ने में मजा आया तो पोरस से मजा आया। लेकिन पोरस के पास वैज्ञानिक बुद्धि न थी। सिकंदर घोड़ों पर चढ़ कर आया था और पोरस हाथियों पर चढ़ कर लड़ने गया।
हाथियों पर बरात वगैरह ठीक होती है। बरात जा रही हो तो हाथी बड़ा अच्छा योग्य जानवर है। लेकिन युद्ध के मैदान पर हाथी बहुत महंगा है और बहुत खतरनाक है। न तो उसकी चाल उतनी तेज है जितनी घोड़े की। वह जगह भी ज्यादा घेरता है। जहां एक हाथी खड़ा हो वहां दस घोड़े खड़े हो जाएंगे। वह जगह ज्यादा घेरता है। एक हाथी पर दस घोड़े हमला कर सकते हैं। घोड़े गतिमान हैं, तेज हैं, चंचल हैं, जल्दी भागते हैं, जल्दी बचते हैं। हाथी के पास कोई क्षमता नहीं है। वह बहुत शानदार शाही जानवर है। वह धीरे चलता है, आहिस्ता चलता है। बरात के लिए बिलकुल ठीक है, युद्ध के लिए बिलकुल ठीक नहीं है।
पोरस हाथियों पर लड़ने गया और पोरस की हार सिकंदर से कम हुई, अपने हाथियों से ज्यादा हुई। सिकंदर ने भी अपने मित्रों को यह कहा कि पोरस की हार उसके हाथियों के कारण हुई।
यह बिलकुल अवैज्ञानिक चिंतन है। बाबर हिंदुस्तान आया, तो वह तो बंदूकें लेकर आया था, हम तलवारें लेकर लड़ने गए थे। अब बंदूक के सामने तलवार नहीं जीत सकती। कितना ही बहादुर आदमी पीछे खड़ा हो, कुछ फर्क नहीं पड़ता। कितनी ही मजबूत मसल का आदमी हो, क्या करेगा? तलवार क्या करेगी? गोली के सामने तलवार कुछ भी नहीं कर सकती। गोली बहुत वैज्ञानिक है। बड़ा विज्ञान तो उसमें यह है कि बहुत दूर से हमला कर सकती है। तलवार के लिए बहुत करीब होना चाहिए, तब हमला हो सकता है। गोली दूर से हमला कर सकती है। एक कमजोर आदमी, डरपोक आदमी गोली से जीत जाएगा बहादुर हिम्मतवर आदमी से, जो तलवार लिए है। क्योंकि गोली फासले से हमला करती है, डिस्टेंस से हमला करती है। पचास फीट से भी, दूर से हमला कर सकती है। तलवार के लिए तो पचास फीट की दूरी बेमानी है, कुछ भी नहीं कर सकती। हिंदुस्तान हारा, तलवारों से लड़ा।
फिर अंग्रेज आए। लेकिन हम सीखते ही नहीं भूलों से। हम अपनी पुरानी भूलों के लिए ऐसे पक्के नियम बांधे हुए हैं कि हम उनको दोहराए चले जाते हैं। अंग्रेज हिंदुस्तान में आए तो वे तोपें लेकर आए थे। हम बंदूकों से लड़ रहे थे। फिर वही भूल हो गई। वह भूल निरंतर वही होती रही है। आज भी, अभी भी, चीन के साथ जो हमारा उपद्रव हुआ उसमें वही भूल हुई। हमारे पास कम विकसित साधन हैं। आज चीन के पास दुनिया में चैथे नंबर के विकसित साधन हैं। चीन से हम जीत नहीं सकते।
हां, कविताएं हम कितनी करें, कविताओं से कुछ भी न होगा। हिंदुस्तान पूरा का पूरा कवि हो गया था। पता है जब चीन से हमला हुआ। तो गांव-गांव में कवि कहने लगे कि हम सोए हुए सिंह हैं, हमको छेड़ो मत। मैं तो बहुत हैरान हुआ। मैं इसलिए हैरान हुआ कि अब तक किसी सिंह ने कभी कविता नहीं की। और सिंह को छेड़ो तो पता चल जाता है कि क्या होता है। तो कुछ कहने की जरूरत नहीं होती। सारे हिंदुस्तान में कवि कविताएं करने लगे, रंगमंचों पर नाटक होने लगे। जैसे कि रंगमंचों के नाटकों, कविताओं से कोई युद्ध जीते जाने वाले हैं। और फिर हम हार गए। और लाखों मील की जमीन चीन ने कब्जा कर ली। जिन्होंने कविताएं की थीं, उनमें से कोई पद्मश्री हो गए, कोई कुछ हो गए, कोई कुछ हो गए।
अभी मैं गांव-गांव पूछता हूं, वह पद्मश्री कहां हैं, जिन्होंने कहा था कि हम सिंह हैं, हमें छेड़ो मत। वह जमीन का क्या होगा? दिल्ली में एक बड़े नेता से मैं कह रहा था। उन्होंने कहाः वह जमीन बिलकुल बेकार है। उसमें घास भी पैदा नहीं होती है। तो मैंने कहाः अगर ऐसा ही था तो पहले से चुपचाप दे देनी थी, फिर झंझट क्यों करनी, इतने आदमी क्यों मरवाए? और नाहक इतनी कविता किसलिए की। पहले ही कह देते कि जमीन बेकार है? सम्हालो, जब हार गए तो कहते हो जमीन बेकार है। लड़े क्यों थे उस पर, अगर जमीन बेकार है। तो फिर तुम जिम्मेवार हो हजारों लोगों के खून के, जिनको तुमने मरवाया वहां। जिनको तुमने मरवाया उनका जिम्मा किसका है फिर? अगर तुम कहते हो, जमीन बेकार है तो वहां लड़वाया क्यों अपने जवानों को, वहां जाकर उनकी जान क्यों मरवाई, वहां उनको क्यों कटवाया? उन्हें नहीं कटवाना था, बस चुपचाप पीछे हट आना था। और मैंने कहा, और पता लगा लो कि मुल्क में जमीन कहां-कहां बेकार है। उन सबको सौंप दो, नहीं तो किसी दिन झंझट हो जाए।
हम कविताएं करते हैं, हम कल्पनाएं करते हैं। लेकिन कल्पनाएं और कविताएं जीवन के यथार्थ के संघर्ष में टिक नहीं सकतीं। वैज्ञानिक होने का अर्थ है--जीवन के यथार्थ की पकड़। वह जो आॅथेंटिक रियलिटी है, उसकी पकड़, जीवन के तथ्य की पकड़। जीवन के तथ्य की पकड़ हमारी बहुत कम रही, इसलिए हम बहुत दुर्दिन देखे। आने वाले भविष्य में जीवन के तथ्य को ठीक से पकड़ना जरूरी है। एक बात, अंधविश्वास से नहीं वैज्ञानिक विचार से जीवन के तथ्यों को पकड़ना होगा।
अब जैसे आज हमारी संख्या बढ़ी चली जाती है, तो हम वही बातें कर रहे हैं जो हमें नहीं करनी चाहिए। हम कहते हैं, बच्चे तो भगवान दे रहा है। अब यह,यह तथ्य का पकड़ना न हुआ अगर बच्चे भगवान दे रहा है तो रूस के साथ अलग नियम का उपयोग करता है और हमारे साथ अलग नियम का? फ्रांस के साथ अलग नियम का और हमारे साथ अलग नियम का? फ्रांस की बीस साल से जनसंख्या नहीं बढ़ी। तो भगवान भी बड़ा अदभुत है कि यहीं-यहीं बच्चे दिया चला जाता है। इधर हमसे नाराजगी क्या है उसकी? यानी हमसे ज्यादा पूजा नहीं करता, हमसे ज्यादा कोई प्रार्थना नहीं करता, हमसे ज्यादा भजन-कीर्तन नहीं, अखंड चल रहे हैं। चाहे किसी की नींद हो पाए चाहे न हो पाए, रात-रात भर चल रहे हैं। फिर भी, फिर भी नाराज हैं कुछ हमसे। लेकिन हम यही कहे चले जाते हैं कि बच्चे तो भगवान देता है, हम क्या कर सकते हैं?
नहीं, बच्चे भगवान नहीं देता। बच्चे हम ही पैदा करते हैं। और हम चाहें तो बच्चे रोक सकते हैं। यह तो जीवन के तथ्य को पहचानना होगा। और अगर आज हम बच्चे नहीं रोकते तो हम दस साल में उस जगह पहुंच जाएंगे, जिस हालत में हम कभी भी नहीं पहुंचे थे। अभी पश्चिम के सारे वैज्ञानिक, विचारक इस चिंता में पड़ गए हैं कि दस साल या पंद्रह साल के भीतर हिंदुस्तान में इतना बड़ा अकाल पड़ेगा जिसमें दस करोड़ लोग भी मर सकते हैं। लेकिन हिंदुस्तान में किसी को फिकर नहीं है! यानी मैं बहुत हैरान हूं कि वे कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी में सेमिनार करते हैं कि हिंदुस्तान में पंद्रह साल के बीच जो अकाल पड़ेगा, उसमें कितने लोगों के मरने की संभावना है। लेकिन हिंदुस्तान में हमें कोई फिकर नहीं है। हम सोचते भी नहीं। हम कहते हैं, पंद्रह साल? पंद्रह साल बहुत लंबा वक्त है। अभी हमको पंद्रह साल जब आएगा तब देखेंगे। जब आग लग जाएगी घर में, हम कुआं खोद लेंगे। इतनी जल्दी कुआं खोदने की जरूरत क्या है? पंद्रह साल में हम इतनी संख्या पैदा कर लेंगे कि हमारा जीना बहुत मुश्किल हो जाएगा।
उन्नीस सौ सैंतालिस में पाकिस्तान अलग हुआ था। बीस साल में जितने पाकिस्तान में लोग गए थे, उससे ज्यादा हमने पैदा कर लिए। एक पाकिस्तान हमने पैदा कर लिया। हमारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता, कितने ही पाकिस्तान बनाओ, हम फिर पैदा कर लेंगे। इतनी बड़ी संख्या का बोझ, इतनी बड़ी संख्या का बोझ हमें जिंदगी को ठीक से जीने में समर्थ नहीं बना सकता। हम रोज दरिद्र होते चले जाएंगे, हम रोज दरिद्र हो रहे हैं। लेकिन तथ्य की हमारी पकड़ नहीं है। हम कहते हैं, हम पुरानी बातें कहे चले जाते हैं कि दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम। बड़ी मजे की बात है। तो हम अभी, अभी भी यह कहे चले जा रहे हैं। पर दाना भी तो होना चाहिए, तब तो उस पर नाम होगा। दाना ही नहीं होगा तो नाम कैसे होगा। दाना भी पैदा करना जरूरी है।
आज अमरीका में चार किसान जो मेहनत करते हैं, उसमें एक किसान की मेहनत का हम भोजन कर रहे हैं। यह कब तक चलेगा। अमरीका पर बोझ भारी हो गया है। और अमरीका की जनता अमरीका पर दबाव डालती है कि अब ज्यादा नहीं। क्योंकि क्या मतलब है देने का? कोई मतलब नहीं है देने का। आज हम मजे से जी रहे हैं एक अर्थ में। चुपचाप खाने-पीने को मिल जाता है तो हमें कोई फिकर नहीं है। लेकिन हमारे लिए मेहनत अमरीका का किसान कर रहा है। केनेडा का किसान हमारे लिए मेहनत कर रहा है। दवा हमारे लिए कोई भेज रहा है, खाना कोई भेज रहा है, कपड़े के लिए कोई फिकर कर रहा है। यह कितनी देर चल सकता है। दुनिया के ऊपर निर्भर होकर हम कितनी देर समर्थ हो सकते हैं। और अगर यह दीनता हमारी बढ़ती चली जाती है और हम तथ्यों को नहीं पकड़ते तो हमारे अतिरिक्त और कोई जिम्मेदार नहीं होगा।
तो मैं यह कह रहा हूं कि हम तथ्य को पकड़ें। अब तथ्य यह है कि संख्या जरा भी आगे नहीं बढ़नी चाहिए तो हम शायद कोई उपाय कर सकें कि मुल्क को किसी तरह बचाया जा सके। अन्यथा, अगर दस करोड़ लोग मरे अकाल में, तो जो बचेंगे जिंदा उनकी हालत भी जिंदा जैसी नहीं रह जाएगी। अगर एक गांव में, पचास हजार की बस्ती में पांच हजार, दस हजार आदमी एकदम से मरने की हालत में पहुंच जाएं तो बाकी लोग भी अधमरी हालत में हो जाएंगे। उनकी, उनकी जिंदगी भी ठीक अर्थ में जिंदगी नहीं रह जाएगी। आज वैसी हालत है। लेकिन हम तथ्य पर सोचने के आदी नहीं हैं। हम कहते हैं, जिसने पैदा किया है, वह फिकर करेगा। हम कहते हैं कि जब उसने हमें मुंह दिया है तो वह हमको रोटी भी देगा। जिसने चोंच दी है वह चुन भी देता है, यह हमारा खयाल है।
इस तरह नहीं चल सकता है। जिंदगी के और सारे पहलुओं पर सोचने पर खयाल में आएगा, इस तरह नहीं चल सकता है। आज भी हम ज्योतिषी के पास जाकर अपना हाथ दिखला रहे हैं कि हमारी उम्र कितनी है, जब कि सारी दुनिया उम्र बढ़ाए चली जा रही है। रूस में उन्नीस सौ सत्रह में उम्र थी तेईस वर्ष, औसत उम्र। आज रूस की औसत उम्र है अड़सठ वर्ष। प्रति वर्ष एक वर्ष औसत उम्र बढ़ी है। आज स्वीडन और स्विटजरलैंड की औसत उम्र है अठहत्तर वर्ष; बैल्जियम जैसे मुल्क की औसत उम्र है बयासी वर्ष। वे अपनी उम्र बढ़ाए चले जा रहे हैं।
सोचें थोड़ा, हमारी उम्र है उनतीस वर्ष, औसत उम्र। उनतीस वर्ष जब हमारी औसत उम्र है, तब हमारे यहां सत्तर-अस्सी साल का बूढ़ा बहुत आसानी से मिल जाता है। जिनकी उम्र अस्सी साल औसत उम्र है उनके यहां अगर दो सौ साल का बूढ़ा मिलने लगे तो कोई कठिनाई है? कोई कठिनाई नहीं है। आज रूस में डेढ़ सौ वर्ष के ऊपर, हजारों लोगों की संख्या में उम्र के लोग हैं। जब डेढ़ सौ वर्ष की उम्र तक कोई बूढ़ा आदमी जीता है तो जवानी का स्पेन बढ़ जाता है, क्षेत्र बढ़ जाता है। वह सौ वर्ष तक जवान होता है।
अभी बट्र्रेंड रसल ने बानवे वर्ष की उम्र में शादी की तो हम बहुत हैरान हुए कि बानबे वर्ष का बुड्ढा शादी करता है। हम गलती में हैं। असल में बानवे वर्ष का बुड्ढा ही नहीं है। वह बानवे वर्ष हमारे खयाल से, हमारे खयाल से तो मरा हुआ आदमी शादी कर रहा है। बानवे वर्ष का बुड्ढा भी कहां होता है हमारे पास। हमारे हिसाब से तो पोस्थमस मैरिज है यह। आदमी मर चुका होगा, अब कहां शादी कर रहा है। मर जाना था सत्तर साल में, बाईस साल हो चुके मरे हुए, अब शादी कर रहा है। नहीं, लेकिन बट्र्रेंड रसल बानवे वर्ष में भी स्वस्थ है, ताजा है, प्रसन्न है, आनंदित है, शादी कर सकता है।
सारी दुनिया उम्र बढ़ाए चली जाती है और हम कहते हैं, उम्र तो भाग्य में लिखी है। और सारी दुनिया को हम नहीं देखते कि उम्र बढ़ती चली जा रही है, भाग्य में कैसी लिखी है? सिर्फ हमारे भाग्य में लिखी है और किसी के भाग्य में नहीं लिखी है। सारी दुनिया में आदमी का स्वास्थ्य अच्छा हुआ है, उम्र बढ़ी है, मस्तिष्क अच्छा हुआ है, बुद्धि बढ़ी है, प्रतिभा बढ़ी है; लेकिन हम भाग्य को मान कर बैठे हुए हैं। हम कहते हैं, भाग्य में जो लिखा है वह हो रहा है। यह तथ्य को छोड़ना है और कल्पनाओं में जीना है। हमने बहुत मुसीबत में ये कल्पनाएं गढ़ी थीं, अब हमें छोड़ देनी चाहिए। असल में बहुत तकलीफ में एक ही सहारा था हमारे पास कि हम यह कहते कि यह तकलीफ हमारा भाग्य है। इस भांति सहने में सुविधा हो जाती है। बहुत मुसीबत हो तो यह कह कर कि हमारा भाग्य है, सहने में सुविधा मिल जाती है, संतोष करने में रास्ता बन जाता है, कंसोलेशन के लिए, सांत्वना के लिए व्यवस्था हो जाती है। हमने हजारों वर्ष की दुख और परेशानी में भाग्य की धारणा विकसित की। और हमने कहा, सब भाग्य है, जैसा है वैसा होता है। जब यह मान लिया कि जैसा है वैसा होता है तो फिर हमारे भीतर पीड़ा मिटाना, बदलना सब समाप्त हो गया। हम चुपचाप राजी हो गए। जिंदगी के लिए परिवर्तन की और क्रांति की संभावना विदा हो गई।
तो मैं आप से यह कहना चाहता हूं कि जीवन के चारों तरफ जगत में जो हो रहा है उसे देख कर, तथ्यों को पहचान कर हमें अपने अब तक के डायरेक्टिवस, अब तक के जो मार्गदर्शक सूत्र थे भारत के, वे बदल देने पड़ेंगे। हमें कहना पड़ेगा, उम्र भाग्य से तय नहीं होती और संख्या भी परमात्मा निर्णीत नहीं करता है, संख्या भी हम निर्णीत करते हैं और उम्र भी हम निर्णीत कर सकते हैं। और जितना मनुष्य विकसित हो रहा है, निर्णय अधिकतम उसके अपने हाथ में आता चला जा रहा है। वह बहुत सी चीजें निर्णय कर रहा है। आज रूस में कोई जरूरत नहीं है कि वह किसी खेत पर पानी न गिरे तो भगवान की तरफ प्रतीक्षा करनी पड़े। और अच्छा है।
मैं कहता हूं, भगवान को जितनी ज्यादा फुर्सत हम दें उतना ही हम भगवान के प्रेमी हैं। छोटे-छोटे काम में उसको खींचना अभद्रता है। आपके खेत में पानी नहीं गिरा, आप बैठे हैं हाथ जोड़े कि भगवान इसमें पानी गिराओ। अब भगवान आपके खेत में पानी गिराएं, और भी कुछ काम है उनके पास? कि बस आपके खेत में पानी गिराना कोई बहुत बड़ी घटना है। नहीं, सारी दुनिया का आदमी कहता है, हम अपने हाथ में ले लेते हैं। जो हम कर सकते हैं, वह हम करते हैं। आज रूस में जहां उन्हें पानी गिराना है, वहां वे पानी गिरा लेते हैं। जहां पानी नहीं गिराना है वहां नहीं गिराते। क्योंकि बादल से पानी गिराने का सूत्र समझ में आ गया। बहुत कठिन नहीं है मामला। बादल किस तरफ जाता है, वह भी उसे ले जाया जा सकता है। आखिर बादल को भी तो लगाम बांधी जा सकती है। वह भी इस गांव के ऊपर से गुजरे, यह व्यवस्था की जा सकती है। हवाएं उसे किस भांति यहां से ले जा सकती हैं यह जाना जा सकता है। और फिर बादल ठंडा किया जा सके, ऊपर हवाई जहाज से उस पर बर्फ फेंका जा सके तो उसका भरा हुआ पानी नीचे छलक जाता है।
तो उन्होंने तो अब पानी बरसाने की व्यवस्था कर ली, लेकिन हम? हम आज इस बीसवीं सदी में भी अगर पानी न गिरे तो यज्ञ कर रहे हैं! हम यज्ञ करेंगे, अगर पानी न गिरे तो! और मजा यह है कि हम हजारों साल से यज्ञ कर रहे हैं, फिर भी हमने अब तक यह नहीं सीखा कि यज्ञ इतना करने पर भी पानी नहीं गिरा है। लेकिन हम उसे दोहराए चले जाएंगे! फिर मैं यह नहीं कहता हूं, मैं यह कहता हूं कि यज्ञ भी जिन्हें करना हो, वह भी प्रयोगशाला में सिद्ध करके दिखा दें कि हमने यह यज्ञ किया, यह बदली से पानी गिरा लिया। वह प्रयोगशाला में सिद्ध कर दें तो सारी दुनिया के काम की हो जाएगी बात, सारी दुनिया यज्ञ कर लेगी। लेकिन हम वह भी सिद्ध करके क्या बताएंगे? हमारा चेहरा कुछ भी सिद्ध करने का नहीं रह गया है। हमारा चेहरा हमारी असफलता की गवाहियां दे रहा है।
हम सारी दुनिया में आज अपनी असफलता की कहानी बन कर खड़े हो गए हैं। जीवन को वैज्ञानिक बनाना हो तो उसके सारे नियमों पर पुनर्विचार की जरूरत है। यह एक! और दूसरी बात फिर दोहरा दूं अंत में, वह यह कि इसका यह मतलब नहीं है कि विज्ञान सब कुछ है। इसका यह मतलब नहीं है कि विज्ञान हमने सीख लिया तो सब सीख लिया कि खेत पर हमने पानी गिरा लिया तो सब आ गया। इसका यह मतलब भी नहीं है कि हमने बीमारियां ठीक कर ली हैं तो हम जिंदगी के सब सूत्र पा गए। इसका यह मतलब भी नहीं है कि हमने आदमी की उम्र बढ़ा ली तो हमने आदमी का आनंद भी बढ़ा दिया, इसका यह मतलब नहीं है।
पश्चिम ने उम्र भी बढ़ा ली, स्वास्थ्य भी बढ़ा लिया। बीमारियां भी कम कर लीं। कुछ बीमारियां तो इतिहास की घटना हो गई। बच्चों को पता ही नहीं कि ये बीमारियां कभी होती थीं। जिंदगी ज्यादा व्यवस्थित हो गई, लेकिन ज्यादा आनंदित नहीं हो गई। ज्यादा दुखी हो गई। यह बहुत चमत्कार की घटना घटी है, पश्चिम में। सारी सुविधा बढ़ गई है, समृद्धि बढ़ गई, स्वास्थ्य बढ़ गया, लेकिन शांति कम हो गई। शांति एकदम खो गई है। शांति का कोई पता ही नहीं रहा। आदमी डेढ सौ साल जीने लगा है। लेकिन कैसे जीए, यह भूल गया है--ज्यादा जीने से क्या होगा। आखिर कैसे जीए यह भी तो पता होना चाहिए, नहीं तो डेढ सौ साल की उम्र भी डंड हो जाएगी। आनंद न रह जाएगी, हजार साल आदमी जीए और कष्ट में, दुख में, चिंता में, पीड़ा में। तो एक तरफ पश्चिम में उम्र बढ़ी तो दूसरी तरफ आत्महत्या बढ़ गई।
अब यह बड़े मजे की बात है, एक तरफ वैज्ञानिक कोशिश में लगा है उम्र बढ़ाने की और दूसरी तरफ आदमी हैं कि कहते हैं हमें जिंदा नहीं रहना, हमें मरना है। आत्महत्या बढ़ती जा रही है। हर सेकेंड एक आत्महत्या यूरोप में हो रही है। एक घंटा मैं बोलूंगा यहां तो कितनी आत्महत्याएं हो जाएंगी! हर सेकेंड एक हो रही है। एक मिनट में साठ लोग सारे पश्चिम में आत्महत्या कर लेंगे। एक घंटें में साठ गुणा, साठ! इतने लोग अपने को समाप्त कर लेंगे। चैबीस घंटे इसी क्रम से आत्महत्या चल रही है। इतना जीवन दुखी हो जाए तो भी सोचना जरूरी है। तो मेरा मानना है कि पश्चिम भी अधूरा है। इसलिए मैं आपसे कहता हूं, वैज्ञानिक बुद्धि लानी है और वैज्ञानिक बुद्धि के आधार पर धार्मिक चिंतन को खड़ा करना है। धार्मिक चिंतन से मुक्त नहीं हो जाना है। विज्ञान के आधार पर धर्म का चिंतन खड़ा करना है।
धर्म का चिंतन बहुत भिन्न बात है। धर्म को न तो मतलब है आपकी उम्र से, न धर्म को मतलब है आपके खेत में पानी से, न धर्म को मतलब है आपके मकान से, न आपके कपड़े से। धर्म को तो सीधा मतलब है आपसे। आप कैसे हैं भीतर, आनंदित! शांत! प्रफुल्लित! परमात्मा के प्रति कृतज्ञता से भरे हुए, धन्यवाद से भरे हुए! प्रार्थना से भरे हुए, प्रेम से भरे हुए, आप कैसे हैं! विज्ञान आप को छोड़ कर सब व्यवस्था कर लेगा और आप छूट जाएंगे। लेकिन धर्म आपकी भी व्यवस्था करना चाहता है भीतर से कि आप भी विकसित हो सकें।
एक छोटी सी कहानी, अपनी बात मैं पूरी करूंगा।
मैंने सुना है कि रामतीर्थ जब जापान गए तो टोक्यो के एक बड़े मकान में आग लग गई थी। वह उस मकान के सामने ठहरे हुए थे। मकान में आग लग गई है रात को। हजारों लोग मकान की आग बुझाते हैं। राम बाहर आकर खड़े होकर देख रहे हैं। मकान का मालिक रो रहा है। छाती पीट रहा है। लोग सामान निकाल रहे हैं बाहर--तिजोड़ियां, कपड़े, बहुमूल्य फर्नीचर। वह सब निकाला जा रहा है। सब सामान निकल गया है। फिर उन लोगों ने आकर मकान के मालिक को पूछा कि कुछ और जरूरी रह गया हो तो बता दें क्योंकि अब आखिरी बार मकान के भीतर जाया जा सकता है। उसके बाद लपटें इतनी बढ़ जाएंगी कि भीतर जाना असंभव है। उस मकान के मालिक ने कहा, मुझे कुछ भी होश नहीं। मुझे कुछ समझ में नहीं आता, तुम एक दफा और जाकर देख लो। कुछ बचा सको तो बचा लो। वे लोग भीतर गए। भीतर जाकर वे बहुत मुश्किल में पड़ गए। मकान मालिक का इकलौता बेटा भीतर ही सोता रह गया था। वे उसकी लाश को लेकर बाहर आए। वह तो मर चुका था। वे बाहर चिल्लाते, रोते, छाती पीटते आए और उन्होंने मकान मालिक को कहा, हमसे बड़ी भूल हो गई। हम तो मकान का सामान बचाने में लग गए और मकान का मालिक भूल गया, वह मर ही गया।
रामतीर्थ ने अपनी डायरी में लिखा कि आज इस मकान में जो घटना घटी है, उसे देख कर मुझे खयाल आता है कि सारी दुनिया में यह घटना घट रही है। आदमी सामान को बचाने में लग गया है और आदमी, खुद मालिक सामान का, भीतर मरा जा रहा है, समाप्त हुआ जा रहा है।
विज्ञान सामान को बचा सकता है, आदमी को नहीं। विज्ञान बाहर की सारी व्यवस्था को बचा लेगा, आत्मा को नहीं।
इसलिए दूसरी बात निरंतर ध्यान में रखनी जरूरी है कि वैज्ञानिक बुद्धि अधार्मिक बुद्धि न हो जाए। वैज्ञानिक बुद्धि धार्मिक बुद्धि हो, वैज्ञानिक बुद्धि धर्म के विपरीत न चली जाए। वैज्ञानिक बुद्धि बाहर की व्यवस्था करे और धर्म को मनुष्य के भीतर की व्यवस्था करने दे। और धर्म भी एक विज्ञान ही है। धर्म परम विज्ञान है। धर्म है चेतना का विज्ञान। बाहर जो है उसकी खोज साइंस है, भीतर जो है उसकी खोज धर्म है। और मनुष्य दोनों तरफ फैला है, बाहर भी, भीतर भी। इन दो में से हम एक को काटेंगे तो मनुष्य मर जाएगा। पूरब ने बाहर को काटा, पश्चिम ने भीतर को काटा। आने वाले भविष्य में भारत के युवकों को ध्यान रखना है कि हम दोनों के समन्वय को उपलब्ध हो सकें। अगर यह समन्वय हो सका तो भारत के जीवन में सुख भी, और आनंद भी...। सुख मिलता है बाहर से और आनंद मिलता है भीतर से। अगर यह संभव हो सका समन्वय तो शक्ति भी और शांति भी--शक्ति मिलती है बाहर से और शांति मिलती है भीतर से--संभव हो सकती है। परमात्मा करे, यह संभव हो सके।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
युवकों के समक्ष प्रवचन
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