रविवार, 13 मई 2018

मां (कविता)--मनसा मोहनी

मां (कविता)
मॉं, ये एक शब्‍द ही नहीं, न है ये कोई धर्म हे और न पुराण। ये तो केन्‍द्र है समपूर्ण श्रृष्टि का, गंगा के उद्गगम सा, और समेटे है अपने में सागर कि विशालता को, मां तू ही तो प्रकृति का सौन्दर्य, श्रृष्‍टि में फैला प्‍यार भी तु ही है, जीवन तेरा ही स्पंदन नहीं है क्‍या? चारों ओर फैला ये पूर्णता का विस्तार तेरा ही स्वरूप है तेरी पवित्रता हिमालय से भी ऊंची है, किसी स्‍वेत धवल श्वेतांबर सी तेरे आँचल की छांव, ही तो है समग्रता में फैला ये जीवन
और समस्त में फैला ममत्व क्‍या तेरे प्यार का विस्‍तार नहीं है
क्या?
फिर कोई धर्म मजहब तुझसे बड़ा, महान-पवित्र कैसे हो सकता है। औ निर्दय, देखो इस और एक बार, और पूँछों उन माँओं से, जो तुम बहा रहे हो खून निर्दोशो का, क्या ये है नहीं उन्‍हीं माँओं का दुध, फिर कही भी कतरा गिरे उस खून का, क्‍या नहीं चीखता होगा उस मा का ह्रदय, रोता, तड़पता, और करहा उठता होगा हाहाकार कैसा द्रवित हो छटपटा उठती होगी लाचारी। देखो उस और इक बार मुड एक बार क्‍या कर सकोगे उन आँखो का तुम सामना नहीं-तुम दे सकोगे कोई जवाब, क्योंकि नहीं है कोई जवाब तुम्हारे पास क्‍योंकि तुम्‍हारे उत्‍तर थोथे है, केवल हैवानियत से भरे है। देखो औ धर्म के ठेकेदारो क्‍या कर पाओगे उन पथराई आंखों का सामना?, पाषाण बन जो निहारगे तुम्हे, देखना नहीं बहेगे उन आंखों से कोई कोर
कतरा आंसू,
शायद शुषक‍ हो गई है वह जीवन की झील रोक ली है उसने अपनी सिसकियों भी, उसी कफ़न को मुहँ ठूस कर नहीं तो टुट जायेगा कोई सैलाब, प्रलाप कर उठेगी श्रृष्‍टि कहीं पर और टूट जायेगे नाजुक किनारें कहीं पर रह जायेगा पीछे एक हाँ-हाँ कार, एक पलय का तांडव बनकर, और गूंज उठे फिर शायद वो मौन नाद एक बार फिर, मनु और स्‍मृति की तरह, ....एक मरघट की शांति अपने में समाए हुए फैली होगी एक निश्तब्धता चारों और कोई मौन... मुक उत्तर लिए अपने में।
मनसा-मोहनी

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