कथा—चौथी (चरवाहा और हीरा)
प्रेम जिस द्वार के लिए कुंजी है।
ज्ञान उसी द्वार के लिए ताला है।
और मैंने देखा है कि जीवन उनके पास
रोता है जो कि ज्ञान से भरे हैं लेकिन प्रेम से खाली हैं।
एक चरवाहे को जंगल में पड़ा एक हीरा
मिल गया था। उसकी चमक से प्रभावित हो उसने उसे उठा लिया था और अपनी पगड़ी में खोंस
लिया था। सूर्य की किरणों में चमकते उस बहुमूल्य हीरे को रास्ते से गुज़रते एक
जौहरी ने देखा तो वह हैरान हो गया, क्योंकि इतना बड़ा हीरा तो उसने अपने
जीवन भर में भी नहीं देखा था।
उस जौहरी ने चरवाहे से कहा : ‘क्या
इस पत्थर को बेचोगे? मैं
इसके दो पैसे दे सकता हूँ?'
वह चरवाहा बोला : ‘नहीं। पैसों की
बात न करें। यह पत्थर मुझे बड़ा प्यारा है, मैं इसे पैसों में नहीं बेच सकूँगा।
लेकिन,
आपको पसंद आ
गया है तो इसे आप ले लें। लेकिन एक वचन दे दें कि इसे सम्हालकर रखेंगे। यह पत्थर
बड़ा प्यारा है!’
जौहरी ने हीरा रख लिया और अपने घोड़े
की रफ़्तार तेज की कि कहीं उस चरवाहे का मन न बदल जाए और कहीं वह छोड़े गये दो पैसे
न माँगने लगे! लेकिन जैसे ही उसने घोड़ा बढ़ाया की उसने देखा कि हीरा रो रहा है!
उसने हीरे से पूछा : ‘मित्र रोते क्यों हो? मैं तो तुम्हारा पारखी हूँ? वह मूर्ख
चरवाहा तो तुम्हें जानता ही न था।’
लेकिन यह सुन वह हीरा और भी ज़ोर से
रोने लगा था और बोला था : ‘वह मेरे मूल्य को तो नहीं जानता था, लेकिन मुझे
जानता था। वह ज्ञानी तो नहीं था। लेकिन प्रेमी था। और प्रेम जो जानता है, वह ज्ञान नहीं
जान पाता है।’
(ओशो)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें