कथा—पांचवी (सहास और निरीक्षण)
सत्य की खोज में सम्यक निरीक्षण से
महत्वपूर्ण और कुछ भी नहीं है। लेकिन, हम तो करीब करीब सोये-सोये ही जीते
हैं,
इसलिए जागरूक
निरीक्षण का जन्म ही नहीं हो पाता है। जो जगत हमारे बाहर है, उसके प्रति भी
खुली हुई आँखें और निरीक्षण करता हुआ चित्त चाहिए और तभी उस जगत के निरीक्षण और
दर्शन में भी हम समर्थ हो सकते हैं जो कि हमारे भीतर है।
मैं आपको एक वैज्ञानिक की प्रयोगशाला
में ले चलता हूँ। कुछ विद्यार्थी वहाँ इकट्ठे हैं और एक वृद्ध वैज्ञानिक उन्हें
कुछ समझा रहा है। वह कह रहा है : ‘सत्य के वैज्ञानिक अनुसंधान में दो बातें
सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं- साहस और निरीक्षण।
इन दो को सदा स्मरण रखें और प्रयोग के
तौर पर देखें : मेरे हाथ में नमक के घोल से भरा हुआ एक गिलास है। में इसमें अपनी
एक अंगुली डालकर फिर उसे अपनी जीभ से लगाऊँगा। और जैसा मैं करूँगा, वैसा ही आपमें
से भी प्रत्येक को बाद में करना है।’
उस वृद्ध ने घोल में अंगुली डाली और
जीभ से लगाई। फिर प्रत्येक विद्यार्थी ने भी वैसा ही किया। वह वृद्ध तो घोल चखकर
भी हंसता रहा लेकिन विद्यार्थियों को लगा जैसे उल्टी हो जाएगी। लेकिन साहस करना
ज़रूरी था, सो
उन्होंने साहस किया और उस घोल में डुबाई हुई उंगली को जीभ पर रखा। जब सारे
विद्यार्थी ऐसा कर चुके तो वह वृद्ध वैज्ञानिक खूब हँसने लगा फिर बोला : ‘मेरे
बेटो,
जहाँ तक साहस
की बात है, मैं
तुम्हें पूरे अंक देता हूँ लेकिन निरीक्षण के विषय में तुम सब असफल रहे। क्योंकि
तुमने नहीं देखा कि मैंने जो उंगली घोल में डुबाई थी, वही जीभ से
नहीं लगाई थी!’
(ओशो)
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