रविवार, 17 जून 2018

केनोउपनिषद--प्रवचन--17

हरेक क्षण को उत्‍सव बनाओ—सतरहवां प्रवचन

दिनांक 16 जुलाई 1973; संध्या,
माउंट आबू राजस्थान।

प्रश्‍न सार :


*उपनिषदों की पाप की धारणा में और बाइबिल की पाप की धारणा में क्या अंतर है?

*आत्यंतिक रहस्य सामान्यतया एक ही शिष्य को क्यों हस्तांतरित किया जाता है?


पहला प्रश्न :

सुबह आपने कहा कि जो ब्रह्म को जान लेता है वह पाप को नष्‍ट कर देता है। और ब्रह्म में भलीभांति स्‍थित हो जाता है। इस संदर्भ में कृपया स्‍पष्‍ट करें कि उपनिषदों की पाप की धारणा में और बाइबिल की पाप की धारण में क्‍या अंतर है? और कृपया यह भी समझायें कि मनुष्‍य के जीवन पर उसका क्‍या प्रभाव है?

अंतर बहुत आधारभूत है। बाइबिलसे संबंधित धर्म—यहूदी, ईसाई, और यहां तक कि इस्‍लाम भी—इन सब में पाप की धारण हिंदूओं, बौद्धों आदि से पूर्णतया भिन्‍न है। ईसाइयत में, बाइबिल में, पाप की धारणा तुम्‍हारे कृत्‍यों से संबंधित है, उससेसंबंधित है जो तुम करते हो। जो भी तुम करते हो वह पाप हो सकता है। वह पुण्‍य हो सकता है। लेकिन उसका संबंध तुम्‍हारे करने से है। उपनिषदों के हिसाब से उसका संबंध तुम्‍हारे करने से जरा भी नहीं है। तुम क्‍या करते हो यह बात ही असंगत है। तुम क्‍या हो, यही असली बात हे। तुम्‍हारा करना महत्‍वपूर्ण नहीं है। बल्‍कि तुम्‍हारा होना, तुम्‍हारी बीइंग सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण है।
तो किसी व्‍यक्‍ति को पापी कहने का क्‍या अर्थ होगा? इसका अर्थ है कि वह आदमी अज्ञानी है। उसे अपना कुछ पता नहीं है। इस अज्ञान के कारण ही उसके कृत्‍य पाप हो जाते है। कृत्‍य पाप तभी होते है जब करने वाला अज्ञानी हो। असतग हो, मूर्च्छित हो, सोया—सोया हो। अज्ञान पाप है, और जागरूकता ही पुण्य है। तुम्‍हारे कृत्‍य असंगत हैं क्योंकि वे असली बात नहीं हैं। असली बात तूम्‍हारी  चेतना है। यदि चेतना के साथ कुछ गड़बड़ है, तो तुम्हारे कृत्य भी गलत होंगे। यदि चेतना को ठीक कर दिया जाये, तो फिर उससे सही कृत्य निकलेंगे।
इसलिए सिर्फ कर्मों को बदलने से कुछ नहीं होगा। तुम पाप कर सकते हो, तुम उस पाप का प्रायश्चित कर सकते हो, तुम किसी पाप के बदले में पुण्य कर सकते हों—लेकिन यह उपनिषदों की दृष्‍टि में कुछ अर्थ नहीं रखता यदि तुम वही बने रहते हो। जब तक तुम नहीं बदलते, जब तक तुम्हारी चेतना नहीं बदलती, जब तक तुम बीइंग के नये तल पर, नई ऊंचाई पर नहीं पहुंचते, तब तक सिर्फ कृत्यों को बदलना निरर्थक है।
अत: उपनिषद कृत्यों की भाषा में नहीं सोचते; वे तुम्हारे होने की भाषा में सोचते हैं। सजग जागरूक, होशपूर्ण, तुम पुण्यात्मा हो। क्यों? क्योंकि जितने तुम सजग हो, सचेतन हो, जागे हुए हो, उतनी ही पाप करने की संभावना कम है। पाप करने के लिए बुनियादी आवश्यकता है मूर्च्छित होना।
उदाहरण के लिए तुम क्रोधित तभी हो सकते हो यदि तुम अपने को भूल जाओ। यदि तुम आत्मस्मरण से भरे हो, जागे हुए हो, तो क्रोध असंभव है। होश के साथ वह हो ही नहीं सकता। उनका सह—अस्तित्व संभव नहीं है। जब तुम सजग होते हो तो ऐसा नहीं होता कि तुम अपना क्रोध दबा लेते हो, उसको रोक लेते हो, दमन कर लेते हो—नही! वह हो ही नहीं सकता। एक पूरे जागे हुए व्यक्ति में क्रोध हो ही नहीं सकता, वैसे ही जैसे एक पूर्ण प्रकाशित कमरे में अंधेरा नहीं हो सकता। वे एक साथ नहीं हो सकते।
जैसे ही तुम अंधेरे कमरे में एक दीया लाते हो तो वहां अंधेरा नहीं रहता। प्रकाश के साथ अंधेरा नहीं हो सकता। और उपनिषद कहते हैं कि अंधेरे से लड़ना मूढ़ता है और व्यर्थ है, क्योंकि तुम अंधेरे से लड़ नहीं सकते। यदि तुम लड़े तो तुम हारोगे। तुम चाहे कितने भी बलशाली क्यों न हो, तुम अंधेरे से नहीं लड़ सकते, क्योंकि अंधेरा सिर्फ प्रकाश का अभाव है। प्रकाश को लाओ और अंधेरा विलीन हो जाता है।
उपनिषद कहते हैं कि पाप अंधकार है। चैतन्य का प्रकाश लाओ और पाप तिरोहित हो जाता है। पाप से लड़ी नहीं। सीधे पाप से कुछ संबंध ही मत रखो; पाप की भाषा में सोचो ही मत। वरना तुम स्वयं को दोषी समझोगे, और फिर कोई आध्यात्मिक विकास नहीं होगा। उल्टे नीचे गिरना ही होगा।
ईसाइयत ने लोगों को बहुत पापी बना दिया है, क्योंकि तुम कुछ भी करो वह पाप है। और तुम्हें उससे लड़ना होगा। और उससे कुछ होता नहीं है। जितना ज्यादा तुम किसी पाप से लड़ते हो, उतनी ही गहरी उसकी जड़ें चली जाती हैं। जितना अधिक तुम लड़ते हो उतनी ही अधिक वे बलशाली हो जाती हैं। जितना अधिक तुम लड़ते हो उतने ही अधिक उसके शिकार होते जाते हो। क्यों 2: क्योंकि लड़ाई अंधेरे से है। तुम जीत नहीं सकते; जीत की कोई संभावना ही नहीं है। और जब तुम बार—बार हारते हो तो तुम और भी ज्यादा पापी, हीन अनुभव करने लगते हो। पापों से, गलत कर्मों से लड़ने का यह पूरा प्रयास तुम्हें अपराध— भाव तथा हीनता के भाव से भर देता है। तुम महसूस करने लगते हो कि तुम सर्वथा अयोग्य हो; कि तुम कुछ भी नहीं कर सकते। तुम्हारी आत्मा इस लड़ाई से संगठित नहीं होती, वरन वह रुग्ण हो जाती है और अपराध— भाव तथा हीनता की ग्रंथि से ग्रसित हो जाती है।
उपनिषद कहते हैं कि पाप महत्वपूर्ण नहीं हैं। तुम क्या करते हो यह अर्थहीन है। तुम क्या हो यही महत्वपूर्ण बात है। यदि तुम पाप कर रहे हो तो वह यही बतलाता है कि तुम गहरी नींद में सोये हो, बेहोश हो। अत: पापों से मत लड़ो, वरन अपने भीतर जाओ और ज्यादा से ज्यादा सजग होओ। जैसे—जैसे सजगता भीतर बढ़ती है, बाहर पाप तिरोहित हो जाते हैं। एक क्षण आता है कि तुम भीतर एक जलती हुई लपट हो जाते हो, जो भी तुम करते हो उसके प्रति सजग, जो भी मन में आता है उसके प्रति सजग, जो भी तुम्हारे साथ घटता है उसके प्रति सजग। तब कोई पाप नहीं होता।
और यह संभव है। यह विजय तुम्हारे हाथों में है। तब तुम्हें अपराध तथा हीनता का भाव कभी नहीं होगा; तुम कभी यह नहीं कहोगे कि तुम अयोग्य हो। जितना ज्यादा तुम सचेतन होने का प्रयास करते हो उतना ही अधिक तुम्हें लगेगा कि तुम स्वीकृत हो, पात्र हो, स्वागत है तुम्हारा; उतनी ही तुम्हें प्रतीति होगी कि तुम्हारे द्वारा परमात्मा कुछ नियति पूरी करने को है।
मैं इस दृष्टिकोण को अधिक वैज्ञानिक, अधिक धार्मिक कहता हूं क्योंकि यह आदमी को एक गरिमा देता है। यदि तुम पाप को एक कृत्य की तरह लेते हो तो उससे तुम्हारे भीतर अपराध— भाव पैदा होता है, और अपराध—भाव तुम्हें धार्मिक नहीं बना सकता। और अपराध— भाव से तुम परमात्मा को अनुभव नहीं कर सकते, क्योंकि तुम्हारा अपना ही अपराध— भाव एक अवरोध बन जाता है। यदि तुम गहरे में अपराध का भाव लिये हुए हो तो तुम परमात्मा के प्रति कभी भी कृतज्ञ अनुभव नहीं कर सकते। कृतशता का भाव वहा पैदा नहीं हो सकता।
जब तुम स्वीकृत हो, जब तुम अपने को योग्य समझते हो, जब तुम अपने को प्रभु का निवास समझते हो, जब तुम्हें अनुभव होता है कि तुम्हारे भीतर एक ऐसा केंद्र है जो कि सब कृत्यों के पार है, जब तुम इस आतरिक लौ के निकट और अधिक निकट आते जाते हो, तो तुम अधिकाधिक कृतज्ञता से भरते जाते हो। कृतशता धार्मिक चित्त की सुवास है। अपराध— भाव एक दुर्गंध है, बदबू है। यदि तम अपराध— भाव से भरे हुए हो तो तुम्हारे चारों ओर एक दुर्गंध होगी, बदबू होगी।
मेरे देखे, उपनिषद ज्यादा गहरे जाते हैं क्योंकि वे सीधे अंतस में ही पहुंचते हैं, समस्या की जड़ तक चले जाते हैं। ईसाई अथवा यहूदी धारणाएं ऊपरी—ऊपरी हैं क्योंकि वे सिर्फ परिधि को ही छूती हैं। वे कृत्यों को स्पर्श करती हैं, न कि चेतना को। और वे सोचते हैं कि कृत्यों को बदलने से आत्मा बदल जाएगी। यह संभव नहीं है। तुम कृत्य बदलते रह सकते हो, किंतु आत्मा नहीं बदलेगी, क्योंकि परिधि केंद्र को नहीं बदल सकती, बाह्य अंतस को नहीं बदल सकता; सतह बुनियाद को नहीं बदल सकती। लेकिन यदि तुम केंद्र को बदल दो तो परिधि अपने आप बदल जाती है; यदि तुम अंतस को बदल दो तो बाह्य तुरंत बदल जाता है।
यदि मैं तुम्हें बदलता हूं तो तुम्हारी छाया बदल जायेगी। लेकिन यदि मैं तुम्हारी छाया को रंगकर उसे बदलने की कोशिश करूं तो उससे तुम नहीं बदल जाओगे। और मेरी सारी कोशिश बेकार जायेगी। क्योंकि छाया को रंगकर बदला नहीं जा सकता, यदि तुम चल पड़े तो तुम्हारी छाया भी चल पडेगी और मेरा रंग जमीन पर ही पड़ा रह जायेगा, और तुम्हारी छाया अस्पर्शित ही रह जायेगी। कर्मों के साथ कुछ करना छाया के साथ कुछ करने जैसा ही है। जो भी तुम करते हो वह बहुत ऊपरी है। तुम क्या हो, तुम्हारा होना क्या है, वही असली बात है।
उपनिषद तुम्हारे अस्तित्व को छूते हैं, इसीलिए वे कहते हैं. अज्ञान, मूर्च्छा ही एकमात्र पाप है। इसलिए यह सूत्र कहता है : जो इसे जान लेता है वह इस प्रकार पाप को नष्ट कर देता है। सिर्फ ब्रह्म को जानने से, उसकी प्रत्यभिज्ञा से पाप नष्ट हो जाते हैं—जन्मों—जन्मों के सारे पाप। तुमने कितने ही गलत कर्म किये हों जन्मों—जन्मों में; वे वहां संगृहीत हैं। और वे सब तुम्हारे अंतस के अंतर्तम केंद्र पर पहुंचने और उसे स्पर्श करने से ही नष्ट हो जाते हैं।
वे कैसे नष्ट हो जाते हैं? क्योंकि हमारा हिसाबी—किताबी मन सोचेगा, ''मुझे हर पाप को चुकता करना पड़ेगा। हर पाप के लिए मुझे कुछ पुण्य करना पड़ेगा ताकि वह कट जाये। ''
लेकिन उपनिषद कहते हैं कि सिर्फ 'उसको' जानने से ही, सिर्फ उस तथाता को जानने मात्र से ही सारे पाप नष्ट हो जाते हैं।
वे कैसे नष्ट हो जाते हैं? क्योंकि तुम उनको नष्ट करने के लिए कुछ भी नहीं करते। यह बहुत ही सूक्ष्म बात है। यह ऐसा ही है जैसे कि तुम रात सपना देखते हो कि तुम व्यभिचार कर रहे हो, कि तुम कत्‍ल कर रहे हो, कि तुमने सारे शहर को जला दिया है—तुमने बहुत—से पाप कर डाले हैं। और सुबह तुम जाग जाते हो। सपना थोड़ी देर मन पर छाया रहता है, तुम्हें याद होता है, लेकिन तुम उसके लिए अपने को दोषी नहीं ठहराते—या कि तुम अपने को दोषी ठहराते हो? यदि तुम अभी भी अपने को उसके लिए दोषी ठहराते हो तो उसका इतना ही अर्थ हुआ कि तुम अभी भी जागे नहीं हो। तुम अभी भी नींद में हो, तुम पर अभी भी सपने का असर बाकी है। वह अभी भी तुम्हारे साथ है। जब तुम वस्तुत: सजग और सचेतन हो जाते हो तो तुम उस सारी बात पर हंस सकते हो क्योंकि वह एक सपना ही था। वास्तव में तो तुमने कुछ किया ही नहीं।
उपनिषद कहते हैं कि यही होता है : जब कोई व्यक्ति ब्रह्म में जागता है, तो जो भी जीवन उसने जीये हैं और जो भी उसने किया है, वह सब एक लंबे सपने की भांति विलीन हो जाता है। इस नये जागरण के साथ जो भी अतीत है वह सब का सब माया की तरह लगता है, जैसे कि वह कभी नहीं घटा, अथवा जैसे कि किसी कहानी में घटा हों—सपने के नाटक में हुआ हो।
इसीलिए उपनिषद इस संसार को माया कहते हैं। ऐसा नहीं कि यह नहीं है, ऐसा भी नहीं कि यह अवास्तविक है, लेकिन इस घटना के कारण कि जब एक व्यक्ति गहरे ध्यान में जागता है, तो यह सारा जगत जिसमें वह अब तक जी रहा था, सपने की भांति प्रतीत होता है; अब उसमें कोई सार नहीं होता।
इसलिए, यह सूत्र—यह सूत्र कहता है कि जो उस तत् को, अस्तित्व के तथाताभाव को, उस ब्रह्म को जान लेता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। उनके लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता है। वे बस भीतर से विदा हो जाते हैं। तुम उनसे गुजर गये, तुम उनके पार चले गये। वे सिर्फ अतीत की स्मृति मात्र रह गये जिनका कोई ठोस अस्तित्व नहीं है। तुम उनके बारे में ऐसे ही कह सकते हो जैसे कि वे सपने थे।
उपनिषद कहते हैं कि मनुष्य की चेतना की चार स्थितियां होती हैं। पहली, जब तुम जागे हो, जाग्रत चेतना; दूसरी, जब तुम सपने देख रहे हो—स्वम्मदर्शी चेतना; तीसरी, जब तुम पूरी तरह सोये हो कि कोई सपना भी नहीं चल रहा है—सुषुप्ति। और इन तीनों के पार है चौथी। उपनिषदों ने उसे कोई भी नाम नहीं दिया है। वे सिर्फ उसे कहते हैं चौथी—तुरीय। तुरीय का अर्थ होता है चौथी। वह चौथी वह स्थिति है जिसमें तुम ब्रह्म को जानते हो।
यदि तुम चौथी में प्रवेश कर जाओ तो पहली तीनों स्थितियां मायावी हो जाती हैं। इसे इस भांति सोचो क्योंकि वह चौथी अभी तुम्हारा अनुभव नहीं है, लेकिन तुमने इन तीनों का अनुभव किया है। और इन तीन के बारे में समझने से चौथी के बारे में कुछ अनुमान लगाया जा सकता है।
जब तुम जागे हुए होते हो, जब तुम दिन में जाग्रत चेतना की स्थिति में होते हो तब क्या होता है? स्वप्न—चेतना विलीन हो जाती है; वह तब नहीं होती। सुषुप्ति भी विलीन हो जाती है; वह भी नहीं होती। फिर रात होगी और तुम पुन: सोओगे, सपने शुरू हो जायेंगे। जब सपने शुरू होते हैं तो तुम चेतना बदल लेते हो। चेतना का गेयर बदल जाता है; अब जो भी तुम्हारी जाग्रत चेतना में था वह सब विलीन हो जाता है। तुम माउंट आबू में जागे हुए थे, लेकिन तुम सपना देख सकते हो कि तुम लंदन में हो, अथवा न्यूयार्क में हो, अथवा कलकत्ता में हो। माउंट आबू तिरोहित हो जाता है; वह सपने देखने वाली चेतना के लिए मिट जाता है। सपने देखने वाली चेतना के लिए लंदन ज्यादा वास्तविक है, और तुम्हें यह याद भी नहीं रहता कि जागते में तुम माउंट आबू में थे। वह इस तरह भूल जाता है कि उसका कहीं नामो—निशान भी नहीं बचता। और तुम कोई विरोधाभास भी महसूस नहीं कर सकते, तुम कोई सवाल भी नहीं खड़ा कर सकते, ''यह सब कैसे हुआ—मैं माउंट आबू में था, मैं लंदन कैसे आ गया? '' नहीं, कोई संदेह भी पेद। नहीं होता, क्योंकि माउंट आबू इस तरह से तिरोहित हो गया है कि तुम उसे तुलना करने के लिए भी नहीं ला सकते।
जागते में तुम अपनी पत्नी के साथ अपने घर में थे। सपने में पत्नी तिरोहित हो गई, घर भी तिरोहित हो गया। तुम किसी और स्त्री के साथ रह रहे हो, तुमने दोबारा विवाह कर लिया है। और तुम्हारे मन में जरा भी अपराध का भाव नहीं होता है कि तुमने पहली पत्नी को तलाक भी नहीं दिया है, क्योंकि तुम तुलना ही नहीं कर सकते। पहली पत्नी इस भांति विलीन हो गई है कि इसमें कोई विरोधाभास अथवा असंगति नहीं है।
और फिर तुम तीसरी अवस्था में प्रवेश करते हो, गहरी निद्रा, सुषुप्ति, जहां सपने भी खो जाते हैं। अब जाग्रत अवस्था, पत्नी, घर, वे सब तो पहले ही तिरोहित हो गये हैं। अब वह स्वम्नावस्था, वह पलो जिससे तुमने अभी विवाह किया है, नया घर, वे भी विलीन हो गये। अब दोनों अवस्थाएं तिरोहित हो गयीं। तुम इतनी गहरी नींद में डूबे हो कि तुम्हें कुछ याद नहीं है।
और फिर सुबह तुम पुन: जाग्रत अवस्था में प्रवेश कर रहे हो। अब सपना भी खो गया, नींद भी रखो गई। फिर वही पत्नी, फिर वही घर, फिर वही संसार शुरू हुआ। अब तुम फिर माउंट आबू में हो।
उपनिषद कहते हैं इन तीन अवस्थाओं से स्पष्ट होता है कि जब तुम एक अवस्था में होते हो तो बाके दो अवस्थाएं तिरोहित हो जाती हैं।
एक चौथी अवस्था भी है। हम सारे प्रयास उस चौथी अवस्था के लिए कर रहे हैं—इन तीनों के पार जाने के लिए। उस चौथी अवस्था को कहते हैं तुरीय—परिपूर्ण सजगता। उस समग्र सजगता में ये तीनों अवस्थाएं विलीन हो जाती हैं और इन तीनों से संबंधित सब कुछ तिरोहित हो जाता है। उस चौथी के पार नहीं जाया जा सकता। चेतना की कोई पांचवीं अवस्था नहीं होती। चौथी आखिरी है। बुद्ध उसी अवसर। में जीते हैं, जीसस उसी में जीते हैं, कृष्ण उसी में जीते हैं। उसका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। और क्योंकि उसका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता इसीलिए उसे किसी चीज से काटा भी नहीं जा सकता। इसी कारण उपनिषद कहते हैं कि यही परम सत्य है। बाकी सब सापेक्ष रूप से सत्य था। जिसको किसी भी भांति काटा नहीं जा सके वही अंतिम है, परम है, निरपेक्ष है, वास्तविक है।
जितने भी पाप तुमने किए हैं वे तिरोहित हो जाते हैं, क्योंकि तुम्हें पता चलता है कि तुम उनके कर्त्ता नहीं हो। तुम्हारी आत्मा ने कुछ भी नहीं किया, वह सिर्फ साक्षी है। और जो भी किया गया वह सब प्रकृाrत के द्वारा किया गया—प्राकृतिक नियमों ने किया।
समाज के लिए यह बात समझना बहुत कठिन है। इसीलिए संसार में कोई भी समाज नहीं है जिसका आधार उपनिषदों की शिक्षा हो। कोई भी समाज उसके साथ नहीं जी सकता—वह शिक्षा इतनी खतरनाक है। हिंदू भी उपनिषद पढ़ते हैं, लेकिन वे भी कभी ऐसा समाज निर्मित करने का प्रयास नहीं करते जो इस शिक्षा की बुनियाद पर खड़ा हो। क्योंकि यह चीजों को देखने का इतना विराट दृष्टिकोण है। यह कहता है कि यदि एक आदमी हत्या कर रहा है, तो बस ऐसा है—इस भांति प्रकृति उससे काम कर रही है, इस भांाrत प्रकृति उसके द्वारा हत्या हो गई है। एक दिन जब यह आदमी परम चेतना को उपलब्ध होगा तो वह हंसेगा। वह कहेगा, ''मैंने कभी हत्या नहीं की। सिर्फ परिस्थिति, प्रकृति की शक्तियों ने ही सारा काम किया। ''
लेकिन यदि यह अभी सिखाया जाए तो यह मन में भय और भ्रांति पैदा करेगा कि ''यदि इस बात की शिक्षा दी जाए तो हर आदमी हत्या करने लगेगा और कहेगा कि मैं क्या करूं, प्रकृति इसी भांति मेरे भीतर काम कर रही है। ''
यह भय भी व्यर्थ है, क्योंकि जो लोग हत्या करने वाले हैं वे करते ही हैं, चाहे आप कुछ भी करो। जितनी ज्यादा सजा हो सकती है हम देते हैं—कैद की सजा, जन्मकैद, यहां तक कि मौत की सजा भी—लेकिन उससे कुछ भी नहीं बदला। हत्याएं जारी हैं, बल्कि उनमें वृद्धि होती जाती है।
हमने दूसरे विकल्प को कभी नहीं आजमाया। जहां तक मुझे लगता है, जहां तक मैं जानता हूं यदि हम उपनिषदों की देशना के आधार पर समाज को खड़ा करें तो एक भी अतिरिक्त हत्या नहीं होगी। चीजें जैसी हैं वैसी ही रहेंगी, लेकिन आदमी के रूपांतरण की ज्यादा संभावना होगी।
यह कठिन है, क्योंकि सारी मनुष्यता ही इस भांति संस्कारित है कि वह व्यक्ति पापी है और उसे रोका जाना चाहिए, वरना वह पाप करता ही रहेगा। उसे कैद की सजा दी जानी चाहिए, उसे दंडित किया जाना चाहिए। उसे यातना दो ताकि वह पाप करने से रुके। लेकिन हम किसी को भी रोक नहीं पाये—एक भी आदमी को हम पाप करने से रोक नहीं पाये।
मैंने सुना है कि इंगलैंड में पुराने दिनों में, अभी दो सौ वर्ष पहले, जब भी कोई चोर पकड़ा जाता था तो चौराहे पर नंगा करके सारे शहर के सामने उसके कोड़े लगाये जाते थे। उसे वहां लटकाकर कोड़े मारे जाते थे—सिर्फ पूरे शहर को सीख देने के लिए कि चोरी करने पर क्या होता है। लेकिन फिर यह रोक देना पड़ा क्योंकि सारा शहर उसकी पिटाई देखने के लिए इकट्ठा होता, और उस भीड़ में ही जेब काटने वाले जेब काट लेते। लोग उसकी यंत्रणा देखने में इतने तन्मय हो जाते कि अपनी जेब के बारे में बिलकुल भूल ही जाते। इसलिए यह बात स्पष्ट हो गई कि यह बेकार है। कोई भी उससे नहीं सीख रहा था। ठीक उसी जगह पर लोग चोरी कर रहे थे। वे बिलकुल वही काम वहां कर रहे थे।
मुझे यह घटना बड़ी प्रतीकात्मक लगती है। हमारी सारी सजायें, कैद, मृत्यु—दंड, यंत्रणाएं, सब की सब बेकार हैं; उन्होंने एक भी आदमी को नहीं बदला। वे बदल भी नहीं सकतीं, क्योंकि आदमी बहुत सी प्राकृतिक शक्तियों का एक जोड़ है। सजा देने से तुम उस जोड़ को नहीं बदल सकते। आदमी एक इतनी गहरी घटना है कि सिर्फ उसको मारने—पीटने से तुम उसकी चेतना को नहीं बदल सकते।
और वास्तव में, यह एक काफी लंबा और व्यर्थ खेल चलता आ रहा है, क्योंकि जो आदमी पीट रहा है वह भी उसी ढंग का है। पुलिस वाले और चोर, वे दोनों उसी श्रेणी के हैं। हत्या करने वाले तथा न्यायाधीश उसी वर्ग के हैं। वे दोनों विपरीत ध्रुवों पर खड़े हैं, लेकिन उनकी चेतना की गुणवत्ता एक जैसी ही है। एक समाज के खिलाफ पाप कर रहा है, दूसरा समाज के लिए पाप कर रहा है।
यदि तुम किसी की हत्या करते हो तो समाज तुम्हारी हत्या कर देगा। और समाज के द्वारा की गई हत्या पाप नहीं है! कैसे तुम हत्या को हत्या से बदल सकते हो? कैसे तुम हिंसा को हिंसा से बदल सकते हो? तुम उसे बढ़ाते हो। तुम उसे दुगुनी कर देते हो। तुम बदला ले सकते हो, लेकिन तुम कुछ भी बदल नहीं सकते। उपनिषद कहते हैं कि जब तुम अपने अंतर्तम केंद्र पर पहुंच जाते हो और जाग जाते हो, पूर्णत: सजग हो जाते हो कि क्या हुआ तो तुम जानते हो कि वह प्रकृति थी जो कि सब कुछ कर रही थी। तुम तो सदा से केवल साक्षीमात्र थे—पुरुष थे।
भारत में सर्वाधिक गहन दर्शन, सांख्य दर्शन है, और सांख्य कहता है कि सभी कृत्य प्रकृति के हैं; तुम्हारी तो केवल चेतना है। सारे कृत्य, अच्छे या बुरे, सारे कर्म प्रकृति के हैं। तुम्हारी तो सिर्फ चेतना है। उस चेतना को पा लो, उस परम के साथ एक हो जाओ, और सारे पाप नष्ट हो जायेंगे, और तुम ब्रह्म में स्थित हो जाओगे।

दूसरा प्रश्न


बहुत—सी परंपराओं में समग्र हस्तांतरण किसी गुरु से केवल एक ही शिष्य को दिया गया जैसे कि बुद्ध से महाकाश्यप को बोधिधर्म से हुईके को और उसके बाद हुई—नेंग को जिसका कि उल्लेख आपने आज सुबह किया। क्या आपके पास भी आपके बहुत से शिष्यों मै ऐसा कोई शिष्य है जिसको कि आप अपना समग्र ज्ञान हस्तांतरित करने की योजना रखते हैं? क्या इसकी संभावना है कि आप ऐसा एक शिष्य के बजाय बहुत— से शिष्यों को करेंगे? ऐसा क्यों है कि बहुत—सी परंपराओं में आत्यंतिक रहस्य सामान्यतया एक शिष्य को ही हस्तांतरित किया जाता है?


यह केवल एक ही को हस्तांतरित नहीं किया जाता। यह बहुतों को हस्तांतरित किया जाता है, लेकिन एक ही को यह अधिकार होता है कि वह आगे हस्तांतरित करे। बुद्ध ने अपना ज्ञान हजारों को बांटा, लेकिन उन्होंने अपना अधिकार सिर्फ महाकाश्यप को ही दिया, क्योंकि वही गुरु होने के सबसे ज्यादा योग्य था। बुद्धत्व पाना कठिन नहीं है, लेकिन गुरु होना बड़ा कठिन है। बहुत—से लोग बुद्धत्व को उपलब्ध हुए हैं, लेकिन सारे उपलब्ध व्यक्ति गुरु नहीं हैं।
जब तुम बुद्धत्व को उपलब्ध होते हो, तो यह तुम्हारी अपनी बात है, लेकिन गुरु होने के लिए तुम्हें इसे दूसरों को संप्रेषित करने की कला आनी चाहिए। और यह कला सर्वाधिक कठिन है क्योंकि कुछ ऐसा संप्रेषित करना है, जिसे संप्रेषित नहीं किया जा सकता, कुछ ऐसा हस्तांतरित करना है जो हस्तांतरित नहीं किया जा सकता, कुछ ऐसा कहना है जिसे भाषा में नहीं कहा जा सकता। इसलिए अत्यंत परिष्कृत कलाकार ही हस्तांतरित करने के लिए नियुक्त किया जा सकता है।
ऐसा हुआ :

बुद्ध एक दिन एक फूल हाथ में लेकर आये, और वृक्ष के नीचे बैठ गये। वे शिष्यों के सामने प्रवचन करने वाले थे, लेकिन वे चुप ही रहे, और शिष्य बड़े बेचैन हो गये। पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था। वे आते थे और बोलना शुरू कर देते थे तो आज वे चुप क्यों थे? और वे उस फूल की ओर ही देखते रहे जैसे कि वे यह बिलकुल भूल ही गये थे कि दस हजार संन्यासी वहां इकट्ठे थे उन्हें सुनने को। कुछ मिनट बीत गए, और वे उनकी ओर काफी देर तक देखते रहे, लेकिन किसी में इतना साहस नहीं था कि उनसे कहता, ''आप यह क्या कर रहे हैं? क्या आप हमें भूल गये हैं? क्या आप भूल ही गये हैं कि आपने हमें क्यों बुलाया है और आप क्या कहने वाले थे? ''
उन्होंने उन लोगों को विशेष रूप से बुलाया था, और वे लोग बड़ी आशाएं लेकर आये थे। बुद्ध बहुत के हो गये थे, इसलिए उन्होंने सोचा था, ''शरीर छोड़ने के पहले वे कुछ बहुत गुप्त, कुछ बहुत रहस्य की बात, कुछ खास बात कहने वाले हैं जो कि उन्होंने पहले नहीं कही है। ''और वे चुप ही रहे और सतत फूल की ओर देखते रहे। मौन भारी हो गया, बोझिल हो गया। प्रत्येक आदमी बेचैन हो गया। और तब महाकाश्यप, एक शिष्य जोर से हंसने लगा। और महाकाश्यप अनूठा है, क्योंकि इसके पहले उसके नाम का उल्लेख कभी नहीं हुआ। वह बिलकुल अनजान शिष्य था जहां तक संसार का संबंध है, लेकिन बुद्ध के लिए अनजान नहीं था। बुद्ध जरूर उसको पहले से जानते रहे होंगे।
बहुत—से प्रसिद्ध शिष्य वहां मौजूद थे। सारिपुत्त वहां था जो कि स्वयं एक महान शिक्षक था। मोदगलायन वहां था जो कि स्वयं एक महान शिक्षक था, उसके अपने हजारों शिष्य थे। आनंद वहा था, जो कि सबसे ज्यादा निकट था, जो बुद्ध के साथ छाया की तरह रहता था। और १गई बहुत लोग वहां पर थे—जों किसी न किसी ढंग से बहुत प्रसिद्ध और जाने—माने। और इस महाकाश्यप का बौद्ध—ग्रंथों में इस घटना के पहले कभी उल्लेख नहीं आया।
वह हंसा। बुद्ध ने उसकी ओर देखा। बुद्ध मुस्कुराये और महाकाश्यप को पास आने को कहा। महाकाश्यप निकट आया। बुद्ध ने बिना एक शब्द भी बोले वह फूल उसे दे दिया। और फिर उन्होंने सभा से कहा, ''जो भी भाषा से कहा जा सकता था वह मैंने तुम्हें कह दिया है, और जो भाषा से नहीं कहा जा सकता है, वह मैंने महाकाश्यप को दे दिया है। ''
इसे महान हस्तातरण कहते हैं। महाकाश्यप मौन की भाषा समझ सका। और जो मौन की भाषा समझ सकता है वही मौन के द्वारा चीजों को सिखा सकता है, बता सकता है। महाकाश्यप ही अकेला नहीं है जिसे बुद्ध ने वह गुप्त कुंजी दी थी; वह गुप्त कुंजी बहुतों को दी गई थी, लेकिन सर्वाधिक गुप्त कुंजी केवल मौन में ही दी जा सकती है, और महाकाश्यप उस भाषा को समझ सका। फिर उसे नियुक्त किया गया कि वह इस मौन—देशना को संप्रेषित करे।
बोधिधर्म उस परंपरा में छठा था। महाकाश्यप प्रथम था जिसने कि बुद्ध से देशना ग्रहण की थी, बोधिधर्म छठा था। और बोधिधर्म भारत भर में घूमा कि ऐसा आदमी मिल जाए जो मौन की भाषा समझ सके। उसे यहा भारत में कोई नहीं मिला; इसीलिए उसे चीन जाना पड़ा। वहां उसे हुईके मिला, दीवार के सामने मुंह कर के नौ वर्ष बैठने के बाद।
बुद्ध ने अपना बुद्धत्व, उसका स्वाद, बहुतों को दिया था, लेकिन वे सब गुरु नहीं थे। उन्होंने उसे स्वयं के लिए उपलब्ध किया और फिर वे इस असीम में खो गये।
गुरु होना बहुत ही कठिन तथा नाजुक बात है। तुमने उस असीम को पा लिया है, और फिर भी तुम किसी भांति इसी किनारे बने रहते हो—दूसरों को सिखाने के लिए। यह बहुत ही कठिन है। एक अर्थ में यह इतना दुर्लभ है कि यह अपवाद लगता है, क्योंकि जिसने असीम को जान लिया है वह उसमें खो जाना चाहेगा। तुम्हें समझाने की चिंता क्यों लेना? क्यों चिंता करना उन्हें कहने की जो कि समझ नहीं सकते, अथवा उन्हें जो कि गलत ही समझ सकते हैं? क्यों उन्हें समझाना? क्यों परेशानी उठाना? कोई चाहेगा कि मौन में, आनंद में, असीम में, उतर जाये और भूल जाये इस संसार को।
गुरु का अर्थ है वह व्यक्ति जिसे आनंद की पुकार कम महत्वपूर्ण है, करुणा की पुकार ज्यादा महत्वपूर्ण है। वह कहता है, ''रुको। असीम रुक सकता है, उसके लिए इतनी जल्दी नहीं है। आनंद थोड़ी देर ठहर सकता है, अंतिम विलय थोड़ी देर के लिए प्रतीक्षा कर सकता है, उसके लिए कोई जल्दी नहीं है। ''
गुरु का अर्थ होता है वह व्यक्ति जो कि इस किनारे थोड़ी देर और रुका रहता है। यह बहुत कठिन है, क्योंकि उसे ऐसे उपाय करने पड़ेंगे जिससे कि वह थोडी देर और यहीं रुका रह सके। और यह बात बहुत कठिन होनेवाली है, क्योंकि अब शरीर विश्राम करना चाहता है, प्रकृति में लौट जाना चाहता है। एक बार तुम बुद्ध हो जाओ, तो शरीर विश्राम करना चाहता है। अब उसे घसीटने की जरूरत नहीं है। शरीर प्रकृति में विलीन हो जाना चाहेगा, क्योंकि नियति पूरी हो गई। अब घर की जरूरत नहीं है; अब आत्मा का पक्षी असीम में पंख पसार कर उड़ सकता है। यह घर अब बेकार है। क्यों इसे घसीटना? लेकिन गुरु को घसीटना पड़ता है। उसे ऐसी तरकीबें ईजाद करनी पड़ती हैं जिससे वह इस शरीर को घसीटता रहे ताकि दूसरों की सहायता हो सके।
और शरीर ही एकमात्र समस्या नहीं है। यह कोशिश ही इतनी व्यर्थ मालूम पड़ती है, क्योंकि तुम दस हजार लोगों से बोलो और शायद एक ही समझेगा। और बाकी बचे हुए नौ हजार नौ सौ निन्यानबे तुम्हारे लिए ऐसी परेशानियां खड़ी करेंगे! वे तुम्हारे लिए हर प्रकार से समस्याएं और मुश्किलें पैदा करेंगे।
यह स्वाभाविक है क्योंकि वे तुम्हें नहीं समझ सकते, और तुम जो भी करते हो और कहते हो वह उनके लिए खतरनाक है। क्योंकि उनकी जमी—जमाई मान्यताओं को चुनौती मिलती है, उनका सुव्यवस्थित जीवन, उनकी जीवन—शैली, सभी कुछ को चुनौती खड़ी हो जाती है। तुम उन्हें झटके देते रहते हो, अत: वे बदला लेंगे। वे तुम्हें रोकने के लिए जो भी कर सकते हैं वह सब करेंगे—तुम्हें उनकी सहायता करने से रोकने के लिए।
इसलिए किसी भी बुद्धपुरुष के लिए यह सरल है कि वह विलीन हो जाए। इसीलिए बुद्ध कहते हैं कि दो प्रकार के जाग्रत पुरुष होते हैं। एक को वे कहते हैं—अर्हत। अर्हत से उनका अर्थ है ऐसा व्यक्ति जिसने अपनी आत्मा को उपलब्ध कर लिया है और वह दूसरों की चिंता नहीं लेता। वह सागर में बूंद की तरह विलीन हो जाता है। दूसरे को वे बोधिसत्व कहते हैं। बोधिसत्व से उनका अर्थ है ऐसा व्यक्ति जो अर्हत हो गया है, लेकिन वह अंतिम आकाक्षा को रोकता है—विलीन हो जाने की अंतिम आकाक्षा। इस आकाक्षा का प्रतिरोध करता है और इसी किनारे, इसी तट पर रुकता है दूसरों की सहायता के लिए। और बुद्ध कहते हैं कि बोधिसत्व बड़ा त्याग करते हैं।
अर्हत कभी गुरु नहीं हो सकते; केवल बोधिसत्व ही गुरु हो सकते हैं। और सभी बोधिसत्व भी गुरु नहीं हो सकते, क्योंकि गुरु होने के लिए एक विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है—संप्रेषित करने और मदद करने का एक विशेष प्रशिक्षण, सलाह देने तथा सिखाने का एक विशेष प्रशिक्षण, एक विशेष प्रशिक्षण नई—नई विधियां खोजने का—क्योकि प्रत्येक व्यक्ति के लिए कुछ भिन्न विधि की आवश्यकता होती है, और हर युग की कुछ अलग ही जरूरत होती है।
इसीलिए सारी पुरानी विधियां व्यर्थ हो जाती हैं। उन्हें किन्हीं विशेष मनोदशा के लोगों के लिए खोजा गया था, और वे लोग अब इस जगत में नहीं हैं। और हम उन्हीं विधियों का अभ्यास करते चले जाते हैं। वे बहुत लोगों को सहायता नहीं पहुंचा सकतीं। वे बहुत थोड़े—से लोगों की सहायता कर सकती हैं। नई विधियों की जरूरत है। तुम गुरु तभी हो सकते हो जब तुम नये उपाय, नई विधियां खोज सकी, और आविष्कारक तथा सृजनात्मक हो सको।
ऐसा नहीं है कि बुद्धत्व तथा शान की वह गुप्त कुंजी एक ही को दी जाती है। वे तो बहुतों को दी जाती हैं, लेकिन गुरु की भांति एक को ही दी जाती है, जो कि इस योग्य होगा कि वह आगे उसे सौंपता जायेगा।

अब, चूंकि यह अंतिम सभा है, इसके पूर्व की तुम यहां से जाओ मैं तुम्हें कुछ बातें कहना चाहता हूं।
पहली, यह मेरे देखने में आया है कि तुम में से निन्यानबे प्रतिशत, और यह अच्छा खासा प्रतिशत है, बड़ी त्वरा से ध्यान करते रहे हैं। यह बहुत आशाजनक है, लेकिन यह स्वरा समूह पर निर्भर थी। शायद घर पर तुम्हारे लिए यही त्वरा रखना कठिन हो।
तो एक काम करना : जब तुम घर पर ध्यान करो, पहले अपनी आंखों को बंद कर लेना और मेरी उपस्थिति अपने सामने अनुभव करना, जैसे यहां मैं हूं। कल्पना करना मेरी, कल्पना करना समूह की तुम्हारे चारों ओर, और उसके बाद ध्यान प्रारंभ करना जैसे तुम समूह में करते रहे हो। वैसा करना बड़ा सहायक होगा। यदि तुम्हारे पास टेप—रिकॉर्डर है तो उसे चालू कर लेना ताकि सारा वातावरण निर्मित हो जाये और तुम अकेले न रहो। क्योंकि इतनी त्वरा से अकेले करना बहुत कठिन है। यह समूह की आत्मा है जो तुम्हें पकड लेती है घर वापस लौट कर तुम्हें लगेगा, आश्चर्य होगा, कि किस तरह दिन में तीन—तीन बार तुम इतनी मेहनत कर रहे थे। शायद तुम कल्पना भी नहीं कर सको कि यह सब तुम कैसे कर रहे थे! समूह की चेतना तुम्हें पकड़ लेती है—तब तुम धारा में गिर जाते हो, तब तुम बाढ़ में बह रहे होते हो, तब तुम्हें पूरा समूह आगे धकेलता चला जाता है।
बहुत—से लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं, ''शिविर में तो बड़ा अदभुत लगता है, लेकिन जब हम घर वापस लौटते हैं तो सब खो जाता है। '' घर पर भी समूह की याद रखना, समूह की कल्पना करना, समूह को अनुभव करना, और समूह वहां पर होगा। कम से कम मैं वहा होऊंगा।
और यदि तुम संन्यासी हो तो लॉकेट को अपने हाथ में लेना और तीन बार श्वास को बाहर छोड़ना। भीतर मत लेना। तीन बार श्वास को जोर से बाहर छोड़ना और शरीर को श्वास लेने देना, तुम मत लेना। सिर्फ तीन बार श्वास को बाहर छोड़ना, मुझे स्मरण करना, और प्रारंभ करना; और मैं वहां होऊंगग।
समय और स्थान कुछ ज्यादा अहमियत नहीं रखते। यदि तुम्हारी त्वरा इतनी गहरी है कि तुम मुझे महसूस कर सको तो मैं वहां होऊंगा। दूरी मिट जाती है, समय खो जाता है, और तुममें से निन्यानबे प्रतिशत लोग कर सकेंगे जैसे यहा पर कर रहे हैं। और अकेले करना अच्छा है। समूह से प्रारंभ करना अच्छा है लेकिन यह अच्छा नहीं है कि हमेशा के लिए समूह पर निर्भर हो जाया जाये।
लेकिन अंतराल मत छोड़ना। जिस दिन भी तुम घर पहुंचो, एकदम शुरू कर देना। ऐसा मत कहना, ''एक सप्ताह आराम कर लूं और फिर शुरू करूंगा। '' तब तुम कभी भी शुरू नहीं कर सकोगे। यह मन की तरकीब है। जैसे ही तुम घर पहुंचो, प्रारंभ कर देना। यह तुम्हें वहां पर भी घटेगा। और एक बार तुम्हें अकेले में ध्यान हो जाये तो तुम स्वनिर्भर हो गये। ध्यान समूह में शुरू किया जा सकता है, लेकिन वह स्वनिर्भरता में समाप्त होना चाहिए। तुम्हें समूह से मुक्त होना ही चाहिए।
दूसरी बात : तुम में से बहुत—से अपने पड़ोसियों से डरेंगे, अपने परिवार से डरेंगे। वे लोग तुम्हें पागल समझेंगे। यहां कोई समस्या नहीं है, क्योंकि सभी लोग तुमसे ज्यादा पागल हैं, इसलिए तुम डरे हुए नहीं हो। यहां कोई कहने वाला नहीं है कि तुम पागल हो। सारा वातावरण, सारी बात ही भिन्न है। यहां पर यह सब सहयोगी है। लेकिन घर जाने पर सारी बात उल्टी हो जायेगी। वही बाधा बन जाती है। तो अच्छा होगा कि अपने परिवार के लोगों से कह दो, ''मैं इस विधि पर प्रयोग कर रहा हूं और यह कुछ पागल विधि है। '' अपने पड़ोसियों को भी जाकर कह दो, ''सुबह एक घंटे के लिए यह ध्यान की विधि करूंगा—और यह बिलकुल ही पागल विधि है, लेकिन आप लोग परेशान मत होना।''

उन लोगों को यह बात छिपाने की बजाय साफ कह देना; क्योंकि यदि तुमने छिपाने की कोशिश की तो तुम ठीक से नहीं कर सकते; तुम हमेशा कुछ न कुछ दबा लोगे। स्वयं ही जाकर सबसे यह बात कह देना। और केवल थोड़े दिन, दो-तीन दिन लोग तुम्हारे में रस लेंगे। फिर वे भूल जायेंगे, क्योंकि किसी के पास तुम्हारे बारे में सोचने की फुरसत नहीं है, कि तुम पागल हो गये हो। तीन-चार दिन के बाद उनको आदत हो जाती है, और वे जान जाते हैं कि तुम कुछ कर रहे हो।
और यदि तुम तीन महीने तक सतत करते रहे, तो वे तुमसे पूछना शुरू कर देंगे कि तुम क्या कर रहे हो, क्योंकि अब स्पष्ट दिखाई पड़ेगा कि कुछ तुमको घटा है। वह तुम्हारे चेहरे पर झलकेगा, तुम्हारी आंखों से दिखाई पड़ेगा, तुम्हारी गतिविधियों से पता चलेगा। तुम्हारे व्यवहार का ढंग, सब कुछ बदल जाएगा। तुम्हारे ऊपर एक नई आभा आ जायेगी। एक नया मौन तुम्हारे पीछे-पीछे चलेगा, और एक नया सूक्ष्म आनंद उमगेगा जो कि कहीं से भी नहीं आ रहा है। बस, तुम जीवित हो इससे ही एक सूक्ष्म आनंद तुम्हारे साथ होगा। और प्रत्येक को यह फर्क मालूम पड़ेगा। फिर वे लोग तुमसे पूछेंगे। फिर वे तुम्हें कभी पागल नहीं समझेंगे।
अत: यदि तुम इस पागलपन को करते ही गये, तो कोई भी तुम्हें पागल नहीं समझेगा। लेकिन सातत्य चाहिए, और प्रारंभ में थोड़ा साहस। यदि तुम डरपोक हो तो तुम नहीं कर सकोगे। तुम इसके साथ तर्क-सरणी मत बिठाना। नहीं कहना कि दूसरों को परेशानी होगी। कोई परेशान नहीं होता। तुम अपने सारे परिवार को देखने के लिए निमंत्रण भी दे सकते हो। उन्हें आनंद आयेगा। किसी को भी परेशानी नहीं होगी, यह तो उनके लिए मुफ्त का मनोरंजन होगा।
पड़ोसियों को भी निमंत्रण दे देना। उनसे कह देना कि तुम एक ध्यान-शिविर से लौटे हो जहा पर तुमने एक ध्यान की विधि सीखी है और उसे तुम उन्हें भी दिखाना चाहते हो। प्रारंभ में वे लोग हंसेंगे, लेकिन वे लोग ज्यादा दिनों तक नहीं हंस सकते। वे उसके बारे में गंभीर हो जायेंगे। लेकिन तुम्हारी बदलाहट से ही उसका प्रभाव साबित होगा, किसी और बात से यह साबित नहीं हो सकता। तुम उसके बारे में तर्क नहीं कर सकते।
तीसरी बात : किसी को भी इस बाबत समझाने की कोशिश मत करना, बहस आदि मत करना। वह सब व्यर्थ है, सिर्फ तुम अपनी ऊर्जा व्यय करते हो। केवल एक ही तर्क है जो कि कुछ साबित कर सकता है, और वह तुम हो। यदि तुम बदलते हो, तो तुम स्वयं ही एक जीवंत तर्क बन जाते हो। यदि तुम नहीं बदलते, तो बहस करना व्यर्थ है, तुम किसी को भी समझा नहीं सकते। खाली तर्क से किसी को समझाया नहीं जा सकता; लेकिन तुम्हारा होना समझा सकता है। अत: इसके बारे में बहस आदि मत करना।
ऐसी मेरी प्रतीति रही है : कि जब भी तुम कुछ नया सीखते हो तो तुम तार्किक हो जाते हो। तुम उसके बारे में बात करते रहते हो। और ऐसा नहीं है कि उससे तुम किसी को नुकसान पहुंचाते हो-शायद तुम उनकी मदद की ही सोचते हो। जब तुम्हारे पास कुछ बात इतनी ताजा हो और तुमने कोई नया अनुभव किया हो तो तुम उसको बांटना चाहते हो; यह स्वाभाविक है। यह स्वाभाविक हो सकता है लेकिन यह बुद्धिमानी नहीं है, क्योंकि दूसरा बिलकुल ही अपरिचित है कि तुम क्या बात कर रहे हो।
और विशेषत: मेरी विधियां ऐसी पागलपन की हैं कि तुम किसी को भी समझा नहीं सकते। इसलिए तुम कोशिश ही मत करना, क्योंकि यदि तुम किसी को भी समझा नहीं सके तो इसका तुम पर बुरा असर पड़ सकता है। तुम्हारी असफलता तुम्हारा अपना विश्वास कम कर सकती है। तब तुम अपने भीतर ही झिझकने लगते हो। तुम किसी को भी समझा नहीं सकते, और दूसरे तुम्हें समझा सकते हैं कि जुम पागल हो गये हो, कि तुम गलत हो। वे लोग तुम्हें आश्वस्त कर सकते हैं, क्योंकि तुम्हारे पास इतना सूक्ष्म अनुभव है कि तुम उसे उरभिव्यक्त नहीं कर सकते। तुम संप्रेषित कैसे करोगे? जब तक कि कोई —बहुत ही ग्राहक और स्वागत करने वाला नहीं हो, तुम संप्रेषित नहीं कर सकते। किसी भी बात के लिए ना कहना बड़ा सरल है; इंकार करना आसान है। विधायक होना, ही कहना, बहुत ही कठिन है।
चेखव ने एक कहानी लिखी है.

एक गांव में एक आदमी इतना मूर्ख था, इतना मूढ़ था कि सारा गांव जानता था कि वह आदमी बहुत ही मूर्ख है। और वह स्वयं भी इस बात से इतना आश्वस्त हो गया था कि वह मूर्ख है, कि वह बोलने से, एक शब्द भी मुंह से निकालने से घबराता था, क्योंकि जैसे ही वह कुछ भी बोला कि लोग कहेंगे, ''यह श्री तुमने क्या मूर्खता की बात कही! ''
वह आदमी इतना उदास हो गया कि वह एक फकीर के पास गया और उससे पूछा, ''मैं क्या करूं? मैं ऐसा प्रसिद्ध मूर्ख हूं कि मैं एक शब्द भी नहीं बोल सकता। जरा—सा बोलते ही लोग कहने लग जाते हैं कि चुप रहो। बीच में मत बोलो। ''
उस फकीर ने कहा, ''तुम एक काम करो। आज से किसी भी बात के लिए ही मत कहना। जो भी तुम देखो, उसकी निंदा करना। ''
उस मूर्ख ने कहा, ''लेकिन वे लोग मेरी सुनेंगे ही नहीं। ''
फकीर ने कहा, ''तुम इस बात की चिंता ही मत करो। यदि वे कहें कि यह चित्र बड़ा सुंदर है, तो तुम कहना. यह चित्र और सुंदर? इससे ज्यादा असुंदर चित्र पहले कभी नहीं देखा। यदि वे कहें कि यह उपन्यास बड़ा मौलिक है तो तुम कहना, यह सिर्फ पुनरुक्ति है। हजारों बार यही कहानी लिखी जा चुकी है। इसे सिद्ध करने की कोशिश मत करना। सिर्फ हर चीज को इंकार करना, यही आधारभूत दर्शन बना लो। यदि कोई कहे कि रात बडी सुंदर है, चांद बड़ा सुंदर है तो तुम कहना, इसको तुम सुंदरता कहते हो? और वे इसके विपरीत साबित नहीं कर सकते। याद रखना, वे साबित नहीं कर सकते। ''
वह आदमी लौट कर वापस गांव गया। उसने हर बात के लिए ना कहना शुरू कर दिया। एक सप्ताह में गांव में खबर फैल गई. ''हम लोग तो बड़े गलत थे। वह आदमी तो मूर्ख नहीं है। वह तो बडा भारी आलोचक है; वह तो प्रतिभाशाली व्यक्ति है। ''

ना कहने के लिए किसी बुद्धिमत्ता की जरूरत नहीं है। यदि तुम महान प्रतिभाशाली व्यक्ति बनना चाहते हो तो इंकार करो, आलोचक हो जाओ। किसी भी बात के लिए हा कहने की चिंता ही मत करो। जो भी कुछ दूसरा कहे, उसे पूरी तरह से इंकार कर दो। और कोई भी इस बात को साबित नहीं कर सकता, क्योंकि किसी भी बात को साबित करना बड़ा कठिन है। इंकार करना सबसे आसान तरकीब है।
जब तुम उच्चतर अनुभवों के बारे में बात कर रहे हो तो कोई भी तुम्हें इंकार कर सकता है—कोई भी मूढ़ इंकार कर सकता है—और तुम अन्यथा साबित नहीं कर सकते। अत: बड़े सजग रहना। उसके बारे में कभी बात नहीं करना, जब तक कि कोई बहुत ही सहानुभूति से भरा हृदय सुनने को, ग्रहण करने को राजी न हो। और बहस मत करना। यदि तुम्हें कुछ घटित हुआ है तो तुम्हारा होना ही एक प्रमाण बन


जायेगा। किसी को समझाने में अपनी ऊर्जा बरबाद मत करना। तुम्हारे भीतर जितनी ऊर्जा है उसको स्वयं के रूपांतरण में लगाओ। तुम्हारा रूपांतरण बहुतों की सहायता करेगा; तुम्हारा तर्क किसी के भी काम 'नहीं पड़ेगा।
एक बार तुम रूपांतरित हो जाओ, तो लोग अपने से ही तुम्हारे प्रेम में पड़ने लगेंगे। वे ग्राहक हो जायेंगे, निमंत्रित करने लगेंगे। वे तुम्हारे आतिथेय हो जायेंगे। और जो कुछ भी तुम कहोगे वे उसे बीज की तरह ग्रहण कर लेंगे, वे उसे अपने हृदय में ले जायेंगे। लेकिन किसी को मनवा लेने की कोशिश मत करना, न ही तर्क करना; उसके बारे में तार्किक अथवा बौद्धिक मत होना। पूरी बात ही इतनी बेबूझ ते, इतनी विरोधाभासी है!
यह विरोधाभासी है क्योंकि होशपूर्वक पागल होने से तुम सारे पागलपन के पार चले जाते हो। कोई व्यक्ति जो इस विधि का प्रयोग कर रहा है, कभी पागल नहीं हो सकता। यह असंभव है, क्योंकि तूम अपनी सारी विक्षिप्तता बाहर फेंके दे रहे हो, इकट्ठी नहीं कर रहे हो। और जब तक तुम इकट्ठी न करो, तूम विक्षिप्त नहीं हो सकते।
तुम रोज अपने को स्वच्छ कर रहे हो; तुम रोज एक निर्जरा से गुजर रहे हो। तुम बदल रहे हो, अपनी विक्षिप्तता को ध्यान में रूपातरित कर रहे हो। इस विधि को करते हुए, जो कि ऊपर से इतनी विक्षिप्ततापूर्ण है, तुम एक संभावना निर्मित कर रहे हो जहा कि वास्तविक स्वास्थ्य पैदा हो सकता है। यह बात बड़ी विरोधाभासी है; इसीलिए मैं इसे बेबूझ कहता हूं।
हंसो, गाओ, नाचो, लेकिन तर्क मत करो। तुम्हारा नृत्य 'संक्रामक हो सकता है, तुम्हारा गीत किसी को छू सकता है। तुम्हारे हृदय की गहराई से निकला हास्य किसी के हृदय को स्पर्श कर सकता है। अधिक आनदपूर्ण, नाचते हुए, उत्सव मनाते हुए रहो, जैसे कि हर क्षण एक आशीर्वाद हो, जैसे कि हर क्षण एक अहोभाव हो। और प्रत्येक पल को महोत्सव बना लो।
इस शिविर के लिए मेरे ये अंतिम शब्द हैं : प्रत्येक क्षण को महोत्सव बना लो... तब फिर तुमःएं परमात्मा को नहीं खोजना पड़ेगा। तुम जहं। भी होओगे, परमात्मा खुद तुम्हें खोजता हुआ आ जायेगा।

कनोपनिषद समाप्‍त
ओशो
दिनांक 16 जुलाई 1973; संध्या,
माउंट आबू राजस्थान।

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