कैवल्य उपनिषद -ओशो
ओशो द्वारा माऊंटाबू शिविर में दिनांक 25-3-1972 से 2-4-1972 तक केवल्य उपनिषाद पर दिये गये सत्रहप्रवचनो का
अभुतपूर्व संकलन।
ओशो से अनंत—अनंत फूल झरे है,
झरते ही जा रहे है,
झरते ही जा रहे है.....उनका एक—एक शब्द
परम सुगंध का एक जगत है।
माउंट आबू की सुरम्य पहाड़ियों में
ऐसे ही एक अनुठे फूल के रूप में
प्रगटा
कैवल्य उपनिषद, जिसमें शाश्वत की सत्रह पंखुड़ियां है।
अपूर्व था ओशो की भगवता का यह आयाम,
जो माउंट आबू के विभिन्न ध्यान—योग शिविरों
के रूप में देखने—सुनने को मिला।
कैवल्य उपनिषद। कैवल्य उपनिषद एक
आकांक्षा है, परम स्वतंत्रता की। 'कैवल्य' का अर्थ है—ऐसा क्षण आ जाए चेतना में,
जब मैं पूर्णतया अकेला रह जाऊं, लेकिन मुझे
अकेलापन न लगे। एकाकी हो जाऊं, फिर भी मुझे दूसरे की
अनुपस्थिति पता न चले। अकेला ही बचूं तो भी ऐसा पूर्ण हो जाऊं कि दूसरा मुझे पूरा करे
इसकी पीड़ा न रहे। 'कैवल्य' का अर्थ है—केवल
मात्र मैं ही रह जाऊं। लेकिन, इस भांति हो जांऊ कि मेरे होने
में ही सब समा जाए। मेरा होना ही पूर्ण हो जाए। अभीप्सा है यह मनुष्य की, गहनतम प्राणों में छिपी।
सारा दुख
सीमाओं का दुःख है। सारा दुःख बंधन का दुःख है। सारा दुख—मैं पूरा नहीं हूं अधूरा हूं।
और मुझे पूरा होने के लिए न—मालूम कितनी—कितनी चीजों की जरूरत है। और सब चीजें मिल
जाती है तो भी मैं पूरा नहीं हो पाता हू्ं मेरा अधूरापन कायम रहता है। सब कुछ मिल जाए, तो भी मैं अधूरा ही रह जाता हूं।
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