शनिवार, 1 अप्रैल 2017

ध्यान दर्शन-(साधना-शिविर)-प्रवचन-02



ध्यान दर्शन-(साधना-शिविर)
ओशो
प्रवचन-दूसरा-(ध्यान: स्वयं में डुबकी)


मेरे प्रिय आत्मन्!
ध्यान के संबंध में दोत्तीन प्रश्न पूछे गए हैं, उनकी मैं आपसे बात कर लूं, फिर रात के प्रयोग को समझाऊंगा और हम करेंगे।

एक मित्र ने पूछा है कि श्वास गहरी लेनी है या तीव्र? डीप या फास्ट?

तीव्रता का खयाल रखें, गहरी अपने से हो जाए तो बात अलग। आप गहरे का, डीप का खयाल न करें। आप सिर्फ तीव्रता का, फास्टनेस का खयाल रखें--जितने जोर से! जितनी तेजी से! तेजी इसलिए ताकि चोट हो सके। वह जो भीतर सोई हुई शक्ति है, उसे उठाया और जगाया जा सके। हैमरिंग के लिए, हथौड़े की तरह चोट हो सके कुंडलिनी पर, इसलिए तेज का खयाल रखें।


दूसरी बात पूछी है कि श्वास नाक से ही लेनी है या मुंह से भी ली जा सकती है?

जहां तक बने नाक से ही लेनी है और नाक से ही छोड़नी है। अगर किसी को कठिनाई हो तो नाक से ले और मुंह से छोड़े। अगर सर्दी या जुकाम की कोई तकलीफ हो और नाक से लेना संभव न हो, उस हालत में मुंह से ली और छोड़ी जा सकती है।

तीसरी बात पूछी है कि पूरे समय ध्यान करते वक्त मन के किसी कोने में कोई कहता रहता है--यह क्या कर रहे हैं? यह क्या कर रहे हैं?

जरूर कोई कहता रहेगा, वही आप हैं। कोई नहीं, वही आप हैं। आपके मन ने कभी ध्यान नहीं किया है। आपने कभी ध्यान नहीं किया है। आपका पूरा अतीत, आपकी पूरी स्मृति ध्यान से रिक्त और सूनी है। वही पूरा मन कह रहा है--यह क्या कर रहे हैं? उसकी समझ के आप बिलकुल बाहर कर रहे हैं। उसकी समझ में नहीं आ रही है बात। आएगी भी नहीं, क्योंकि मन अपरिचित है। परिचित हो जाएगा तो नहीं कहेगा कि क्या कर रहे हैं। अगर आनंद की झलक मिल जाएगी तो फिर कभी नहीं कहेगा कि क्या कर रहे हैं।
मन का नियम है: जिसे वह जानता है उससे राजी हो जाता है; जिससे अपरिचित है उससे दूर हटता है। अपरिचित शत्रु मालूम पड़ता है। और मन का यह भी नियम है कि वह केवल आनंद की ओर ही प्रवाहित होता है। चाहे झूठा आनंद ही क्यों न हो। जहां आनंद दिखाई पड़ता है वहीं जाता है। चाहे मिले, न मिले, यह दूसरी बात है। लेकिन आभास भी हो आनंद का तो मन जाता है। ध्यान के आनंद को तो हमने कभी जाना नहीं। वह अपरिचित लोक है, अनजान क्षेत्र है, उस दुनिया में हम कभी प्रविष्ट नहीं हुए। मन पूछता है, यह क्या कर रहे हैं? यह क्या कर रहे हैं? उसे पूछने दें, उसका पूछना बिलकुल स्वाभाविक है। उससे लड़ें भी मत, उसे दबाएं भी मत, उसे पूछते रहने दें और आप ध्यान जारी रखें।
जैसे ही ध्यान में रस और आनंद की झलक मिलनी शुरू होगी, मन खुद ही कहेगा: ठीक कर रहे हैं, ठीक कर रहे हैं। मन खुद ही दिन में पचास बार कहेगा: ध्यान करें, फिर करें, और करें। मन कभी रोकता नहीं। सिर्फ आनंद का उसे थोड़ा सा भी अनुभव हो जाए तो मन उसी दिशा में प्रवाहित होने लगता है। जैसे पानी नीचे की ओर बहता है, ऐसा मन आनंद की ओर बहता है। झूठे आनंद की ओर भी जब बह जाता है, तो सच्चे आनंद की ओर नहीं बहेगा, ऐसा सोचने का कोई भी कारण नहीं है।
लेकिन आनंद का अनुभव निर्मित होने दें। अगर इस मन की मान कर रुक गए कि क्या कर रहे हैं, तो रुक जाएंगे। मन को कहने दें। उसके लिए नई बात है, उसे कहने दें, कहते रहने दें। आप ध्यान में उतरते चले जाएं। जैसे ही आनंद की जरा सी किरण फूटेगी, और मन राजी होकर बहने लगेगा। उसे बहाने की भी कोई कोशिश करने की जरूरत नहीं पड़ती है।

दूसरे मित्र ने पूछा है कि प्रकाश, शून्य, शांति, इनका उदभव स्थान कहां है?

असल में, हम जिस भाषा से और जिस जगत से परिचित हैं, उसमें सब चीजें कहीं न कहीं होती हैं। अगर कोई पूछे--बनारस कहां है? तो हम बता सकते हैं नक्शे पर। कोई पूछे--हिमालय कहां है? तो बता सकते हैं। पश्चिम कहां है? पूरब कहां है? तो बता सकते हैं। लेकिन कोई पूछे कि परमात्मा कहां है? तो खयाल में नहीं आता कि वह गलत सवाल पूछ रहा है और जो जवाब देगा वह जवाब भी उससे ज्यादा गलत होगा। क्योंकि सवाल पूछने वाले को माफ किया जा सकता है कि वह गलत पूछे, जवाब देने वाले को माफ नहीं किया जा सकता है।
जब हम पूछते हैं, ईश्वर कहां है? तो हम बुनियादी गलत सवाल पूछते हैं। क्यों? सवाल असल ऐसा होना चाहिए, ईश्वर कहां नहीं है!
जो चीज कहीं होती है और कहीं नहीं होती है, उसे हम बता सकते हैं--वहां है। लेकिन जो चीज सब जगह होती है उसे हम कैसे बताएं कि वह कहां है। कहां का सवाल सिर्फ वस्तुओं के संबंध में सही होता है, अस्तित्व के संबंध में सही नहीं होता।
तो या तो हम कहें--एवरी व्हेयर, सब जगह, सब कहीं। या अगर हम पसंद करते हों तो कह सकते हैं--नो व्हेयर, कहीं नहीं। दोनों ही सही होंगे। अगर बुद्ध से पूछेंगे, तो बुद्ध नकारात्मक भाषा पसंद करते हैं। वे कहेंगे, नो व्हेयर, कहीं भी नहीं। अगर शंकर से पूछेंगे, तो शंकर पाजिटिव भाषा पसंद करते हैं। वे कहेंगे, एवरी व्हेयर, सब कहीं है। लेकिन दोनों का मतलब एक ही होता है। सब कहीं वही हो सकता है जो किसी एक जगह नहीं है।
यह जो पूछा है: शांति का, आनंद का, अमृत का स्थान कहां है उदगम का?
सब जगह है। और इसलिए बूंद की तरह उस सब में स्वयं को खोते ही आनंद मिलना शुरू हो जाता है। इसलिए जो अपने को बचाएगा वह खो जाएगा और जो अपने को खो देगा वह पा लेगा। जब बूंद सागर में गिर जाती है तो कहां होती है? कहीं नहीं! सब कहीं! सागर ही हो जाती है। ऐसे ही जैसे ही हम ध्यान में गिरते हैं, जैसे हमारी चेतना की बूंद ब्रह्म में गिर जाती है, फिर हम कहीं नहीं होते। और जब हम कहीं नहीं होते, तभी शांति और तभी आनंद और तभी अमृत का जन्म होता है।
जब तक हम हैं, तब तक दुख है। जब तक हम हैं, तब तक पीड़ा है। जब तक हम हैं, तब तक परेशानी है। हमारा होना ही एंग्विश है, संताप है। वह हमारा अहंकार ही सारे दुखों की जड़ और आधार है। जब वह नहीं है, जब हम कह सकते हैं कि अभी मैं या तो कहीं भी नहीं हूं या सब जगह हूं, उसी क्षण आनंद का उदगम स्रोत शुरू हो जाता है।
प्रश्न ठीक है। हमारे मन में सवाल उठता ही है कि उदगम कहां है? निश्चित ही गंगोत्री का उदगम होता है। गंगा निकलती है गंगोत्री से। लेकिन सागर का उदगम कभी पूछा, कहां है? नहीं, सागर का कोई उदगम नहीं होता। सीमित का उदगम हो सकता है, असीम का उदगम नहीं होता। फिर सागर भी सीमित है। परमात्मा की तो फिर कोई सीमा नहीं है। आनंद की फिर कोई सीमा नहीं है। अमृत की कोई सीमा नहीं है। उसका कोई उदगम नहीं होता।
अच्छा होगा हम ऐसा समझें कि हमारा उदगम है। दुख का उदगम है। और दुख के उदगम का स्रोत हम हैं--मैं। वह जो ईगो है, वह दुख की गंगोत्री है। वहां से दुख की गंगा निकलती है। और जब मैं खो जाता है, तो वह शून्य में, विराट में, ब्रह्म में लीन हो जाता है, तब जो पैदा होता है वह आनंद है।

कुछ और आपके सवाल होंगे, तो कल सुबह हम बात कर लेंगे। रात की ध्यान की प्रक्रिया के संबंध में दोत्तीन बातें समझ लें, और फिर हम प्रयोग में उतरें। क्योंकि वस्तुतः समझना तो प्रयोग में ही होगा, लेकिन थोड़ी सी बातें खयाल के लिए उचित होंगी।
सुबह जिन मित्रों ने प्रयोग किया है, सुबह चार चरण थे, रात्रि के इस प्रयोग में एक ही चरण है। चालीस मिनट, यह सब तरफ का प्रकाश तो बुझा दिया जाएगा, सब तरफ अंधेरा हो जाएगा, यहां मेरे ऊपर प्रकाश शेष रह जाएगा। चालीस मिनट तक अपलक, आंख को बिना झपे, आप सब भूल जाएं और मुझे ही देखते रहें। चालीस मिनट, मैं और आप दो ही रह जाएं, बाकी लोग मिट जाएं। चालीस मिनट तक आपको और कुछ नहीं देखना है। आपकी आंख और मैं, हम दोनों ही जुड़ जाएं। और चालीस मिनट तक पलक नहीं झपनी है।
सुबह चालीस मिनट तक आंख नहीं खोलनी थी--चाहे कुछ भी हो जाए। फिर भी कुछ दस-पांच मित्र आंख खोल लिए। जब आंख बंद रखना इतना मुश्किल पड़ जाता है तो चालीस मिनट आंख खोलना और भी मुश्किल पड़ जाएगा।
लेकिन संकल्प के आगे कुछ भी मुश्किल नहीं है। चालीस मिनट ऐसे बीत जाएंगे जैसे चार क्षण। अगर आपने पक्का कर लिया है, तो आंख की कोई सामर्थ्य नहीं है कि झुक जाए, बंद हो जाए। चालीस मिनट तक, चाहे आंख से आंसू बहें, चाहे आंख में जलन और दर्द होने लगे, आप फिक्र न करें। चालीस मिनट सतत मेरी ओर देखना है।
इस देखने की अवस्था में बहुत कुछ आपके भीतर होना शुरू हो जाएगा, जैसे सुबह दूसरे चरण में शुरू हुआ। अपने आप होगा। जो भी होगा उसे होने देना है। आपको मेरी तरफ देखते रहना है और जो भी हो उसे होने देना है। कोई डोलने लगेगा, कोई नाचने लगेगा, कोई चीखने लगेगा, कोई चिल्लाने लगेगा। वह सब होने देना है।
जिन मित्रों को सुबह खड़े होने में बहुत तीव्रता से नाचना, कूदना, हंसना और रोना आया था, उन सारे मित्रों को मैं कहूंगा...अभी समझ लें, उसके बाद...वे सारे मित्र मेरे आस-पास किनारे पर खड़े हो जाएंगे, बैठे हुए लोग बीच में रह जाएंगे, खड़े हुए लोग बाहर चले जाएंगे। क्योंकि जिनको खड़े होकर बहुत तीव्रता से शक्ति का जन्म होता है, वे बैठे नहीं रह सकेंगे। इसलिए उनको पहले से ही हम किनारे पर खड़ा कर लेंगे। जो बैठे रहेंगे उनको बैठे ही रहना है। फिर बीच में कुछ भी हो जाए, उन्हें उठना नहीं है। अगर शरीर डोले तो भी बैठ कर ही डोलने देना है। चीखें, चिल्लाएं, तो भी बैठ कर ही। हंसना, रोना, तो भी बैठ कर ही। इस सारी क्रिया के बीच दृष्टि मेरी तरफ ही रहे।
क्यों? तीन कारणों से। एक तो अगर चालीस मिनट तक आंख किसी भी चीज पर बिना झपके रुक जाए तो आपका मन तत्काल भीतर रुक जाएगा। आपका मन भीतर नहीं चल सकता। भीतर मन के चलने के लिए हमारी सारी इंद्रियों का चंचल होना जरूरी है। और विशेषतः आंख का चंचल होना जरूरी है।
यह जान कर आप हैरान होंगे कि रात जब आप सपना देखते हैं तब भी आपकी आंख जोर से चलती है। जब आप गहरी नींद में होते हैं तो आंख नहीं चलती, जब सपना देखते हैं तो आंख चलती है। इसलिए अब तो आपकी आंख की गति को, मूवमेंट को जांचने का उपाय हो गया है। और हम बता सकते हैं कि आदमी ने रात कितनी देर सपना देखा और कितनी देर गहरी नींद में रहा। जितनी देर आंख में मूवमेंट होता है, गति होती है, भीतर पुतली चलती रहती है, उतनी देर वह आदमी सपना देखता है। और जब पुतली ठहर जाती है, तो सपने ठहर जाते हैं, नींद गहरी, सुषुप्ति हो जाती है।
रात में लेकिन कोई आठ-दस बार सपनों का दौर आता है, साधारणतः। और पूरी रात में थोड़े से ही क्षण होते हैं जब आप गहरी नींद में होते हैं, बाकी सपने में ही होते हैं। सपने की भी गति उतनी ही तीव्र होती है जितनी जोर से आंख घूमती है। अगर आंख धीमे घूम रही है, तो उसका मतलब है आप बैलगाड़ी में सपना देख रहे हैं। अगर आंख बहुत तेजी से घूम रही है, तो उसका मतलब है आप कार में सपना देख रहे हैं। आपके सपने की जो गति होगी, वही आपकी आंख की गति भी हो जाती है।
जो बात रात के सपने के संबंध में सच है, वही दिन के विचारों के संबंध में भी सच है। अगर आपकी आंख बिलकुल थिर है तो भीतर विचार ज्यादा देर चल नहीं सकते, वे ठहर जाएंगे, गिर जाएंगे, मर जाएंगे। इसलिए चालीस मिनट आपको मेरी तरफ आंख रखनी है। यानी मैं तो सिर्फ प्रयोग के लिए कि आपको चालीस मिनट एक जगह मिल जाए जहां आपकी आंख रुक गई। जैसे ही आपकी आंख रुकेगी, कोई पांच मिनट के बाद आपके भीतर से विचार खोने शुरू हो जाएंगे। और दस मिनट होते-होते आपके विचार विदा हो जाएंगे। इस दस मिनट के बाद आपके भीतर बहुत कुछ होना शुरू हो जाएगा। उस होने को होने देना है, उसे रोकना नहीं है। उसे जिसने भी जरा रोका, उसका ध्यान व्यर्थ हो जाता है। जो भी हो रहा है, उसे होने देना है। जब शरीर में नई शक्तियों का अवतरण होता है तो शरीर उन नई शक्तियों के लिए अपने को पुनः-संयोजित करता है, रि-एडजेस्ट करता है। तो उसमें गति होगी।
अब समझें कि कोई आदमी नाच रहा है। वह क्यों नाच रहा है? उसके भीतर जो शक्ति जाग रही है, वह शक्ति उसके पूरे शरीर को आंदोलित कर रही है। वह आंदोलन अगर रोकेगा, तो भीतर जागती हुई शक्ति रुक जाएगी। इसलिए सब आंदोलन को पूरा मौका देना है। लेकिन एक बात ध्यान रखते हुए! डोलें, चिल्लाएं, नाचें, रोएं, हंसें, जो भी आए होने दें, लेकिन ध्यान मेरी तरफ रहे। ध्यान कहीं भी न जाए। आपके पड़ोस में कोई चिल्ला रहा है, चिल्लाने दें; रो रहा है, रोने दें; नाच रहा है, नाचने दें। आपको यहां-वहां नहीं देखना है। आपको चालीस मिनट मेरी तरफ ही देखते रहना है।
इस देखने का तीसरा परिणाम होगा कि जब आप मेरी तरफ ही देखते रहेंगे, तो बहुत अनजान रास्तों से मैं आपसे जुड़ जाऊंगा। मेरी बात तो आप निरंतर सुनते हैं, मेरे शब्द आपने बहुत सुने हैं। शब्द प्रीतिकर भी लग सकते हैं। लेकिन शब्दों से बहुत कुछ हो नहीं सकता। जो बात मैं आपसे शब्दों में कभी नहीं कह सका हूं, वह अगर आप चालीस मिनट मेरी तरफ देखते रहे, तो मैं आपसे मौन में कह सकूंगा। इसलिए एक कम्युनिकेशन, एक संवाद भी मुझसे आपका हो सकेगा। जो मैं शब्दों से कहने की कोशिश करता रहता हूं दिन-रात और नहीं कहा जा सकता है, वह भी अगर आपने चुप चालीस मिनट तक मेरी तरफ देखा तो मैं आपसे कह सकूंगा। वह बहुत अंतर-संवाद होगा। वह बहुत टेलिपैथिक कम्युनिकेशन होगा। अगर आप चुप मेरी तरफ देखते रहे तो बहुत कुछ आपके खयाल में आना शुरू हो जाएगा, जो शब्दों से कभी नहीं आया है। इसलिए इस मौके को छोड़ देना गलत होगा। इस क्षण को छोड़ देना गलत होगा।
तीसरी बात, चालीस मिनट अपलक मेरी ओर देखते रहने पर यहां दो ही व्यक्ति रह जाएंगे, मैं और आप, बाकी लोग नहीं रह जाएंगे। बाकी के लिए आप नहीं रह जाएंगे। और जब सारी दृष्टियां एक तरफ बहती हैं, तो जैसे सूरज की किरणें इकट्ठी हो जाएं तो आग पैदा हो जाए, जब इतनी दृष्टियां और इतने विचार और इतने संकल्प और इतनी भावनाएं और इतना ध्यान एक तरफ बहता है, तो उसके भी बड़े गहरे परिणाम होते हैं--उस कनसनट्रेशन के, उस कनसनटे्रटेड एनर्जी के। उस शक्ति का पूल यहां इकट्ठा हो जाएगा। और जो लोग सच में ही चालीस मिनट प्रयोग कर पाएंगे, वे उस शक्ति का भी अनुभव कर पाएंगे। किसी को वह शक्ति प्रकाश के पूल जैसी दिखाई पड़ सकती है।
अनेक मित्रों को, जो ध्यान में गहरे उतरेंगे--और कम से कम पचास प्रतिशत से ऊपर मित्र उतर ही जाएंगे--उन्हें कई बार मैं खो जाऊंगा, तो भी उन्हें आंख यहां-वहां नहीं हटानी है। कई बार उन्हें लगेगा कि मैं यहां मौजूद नहीं हूं, तो भी उन्हें आंख नहीं हटानी है। वह लक्षण शुभ है। कई बार लग सकता है कि मैं बड़ा हो गया हूं, तो घबड़ा नहीं जाना है। कई बार लग सकता है छोटा हो गया हूं, तो घबड़ा नहीं जाना है। कई बार लग सकता है मैं खो गया हूं, यह मंच खाली हो गया, तो घबड़ा नहीं जाना है। कई बार लग सकता है कि यहां सिर्फ प्रकाश का एक पुंज रह गया है और मैं नहीं हूं, तो घबड़ा नहीं जाना है। और कई मित्रों को, जो किसी इष्ट का सहारा लेकर प्रयोग करते रहे हैं, अगर उनका इष्ट मेरी जगह दिखाई पड़ने लगे, तो भी किसी तरह की चिंता और विचार में नहीं पड़ जाना है। कोई अगर राम को प्रेम करता रहा है, कोई अगर कृष्ण को या क्राइस्ट को या मोहम्मद को--या किसी को--या महावीर को या बुद्ध को, तो अगर मैं यहां से खो जाऊं और उसे बुद्ध दिखाई पड़ने लगें, तो उसे कोई चिंता नहीं लेनी है, उसे देखते चले जाना है, मैं जल्दी ही वापस लौट आऊंगा।
यह सब होगा। और भी बहुत कुछ हो सकता है। जो भी हो वह आप मुझसे कल सांझ लिख कर पूछ लेंगे। अगर आपको ऐसा लगे कि व्यक्तिगत है और निजी है, और सबके सामने नहीं पूछा जा सकता, तो कल दोपहर ढाई से साढ़े तीन के बीच मुझसे अलग मिल कर पूछ लेंगे।
अब हम प्रयोग के लिए तैयार हो जाएं। आखिरी सूचना दो और हैं। वे यह कि कोई भी व्यक्ति यहां भीतर जिसे प्रयोग न करना हो, वह हट जाएगा। क्योंकि एक भी व्यक्ति यहां नुकसान पहुंचाएगा। जिन मित्रों को नाचना, कूदना जोर से होता है, वे किनारे खड़े हो जाएं, दूर नहीं बहुत, जहां से मैं दिखाई पड़ता रहूं। और बाकी लोग बीच में सरक कर बैठ जाएंगे। और लोग किनारे खड़े हो जाएं। संकोच न करें, जिनको भी पता है कि वे जोर से कूदेंगे, उछलेंगे, सुबह के ध्यान में जिनको वैसा हुआ है, वे बाहर निकल आएं। उनको फिर होगा।
हां, बातचीत बिलकुल न करें, चुपचाप बाहर निकल आएं। यहां मेरे पास आ जाएं। दोनों तरफ मंच के पास आ जाएं। और उठ ही आएं, क्योंकि आपको जरा भी खयाल हो तो फिर पीछे बाद में दिक्कत में पड़ेंगे आप, वहां बैठ कर फिर आपसे नहीं हो सकेगा। चुपचाप बाहर आ जाएं। बातचीत जरा न करें, चुपचाप कर लें काम, फिर प्रकाश बुझा दिया जाएगा।
हां, जो लोग बाहर खड़े हैं, यहां करीब आ जाएं, ताकि मैं उन्हें ठीक से दिखाई पड़ सकूं। मैं मान लेता हूं कि जिनको भी थोड़ा सा खयाल है, वे बाहर आ गए हैं। लेकिन कोई भी अगर भीतर संकोच में बैठा रह गया हो तो पहले बाहर निकल आए, अन्यथा वह खुद के लिए बाधा बन जाएगा और दूसरों के लिए बाधा बन जाएगा। जो बैठे हैं, उनमें से कोई बीच में खड़ा नहीं हो सकेगा, क्योंकि उसके खड़े होने से पीछे वाले लोगों को बाधा पड़ेगी। इसलिए जिनको भी खड़े होने में सुविधा रहेगी, वे एक दफे बाहर आ जाएं।
तो मैं मान लूं...जल्दी कर लें, आप इतनी देर क्या सोच रहे हैं कि बैठना है या खड़े रहना है! और यहां मेरे पास आ जाएं तो सुविधा पड़ेगी। बहुत दूर खड़े हों तो आपको दिखाई न पड़े तो कठिनाई होगी।
सबसे पहले तो आंख बंद कर लें दो मिनट के लिए, हाथ जोड़ कर परमात्मा के सामने संकल्प कर लें। आंख बंद कर लें। हाथ जोड़ लें। तीन बार मन में संकल्प कर लें।
मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा। मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा। मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा।
आप अपने संकल्प को स्मरण रखना, प्रभु आपके संकल्प को स्मरण रखेगा। एक बहुत गहरे प्रयोग में आप उतर रहे हैं। पूरी शक्ति आप लगा देना। चालीस मिनट, जब तक मैं न कहूं, आपको अब आंख नहीं बंद करनी है। आंख खोल लें। अब मैं चुप रहूंगा। अगर मुझे कुछ आपसे कहना भी होगा तो हाथ के इशारे से ही कहूंगा।
आंख मेरी ओर कर लें, अपलक, अब आंख नहीं झपनी है।

(इसके बाद चालीस मिनट तक ध्यान-प्रयोग चलता रहा। ओशो हाथ के इशारों से साधकों को अपनी पूरी शक्ति लगाने के लिए प्रोत्साहित करते रहे। चालीस मिनट के ध्यान-प्रयोग के बाद ओशो साधकों को सुझाव देना प्रारंभ करते हैं।)

दो-चार गहरी श्वास ले लें, ठीक से अपनी जगह पर बैठ जाएं।
दोत्तीन बातें खयाल में ले लें। कोई तीस-पैंतीस प्रतिशत मित्रों ने ठीक से प्रयोग किया है। उन्हें परिणाम भी हुए हैं। शेष मित्रों से आशा है कि कल वे भी प्रयोग में बैठे न रहें, उतरें।
कुछ चीजें हैं जीवन में जो किनारे बैठ कर कभी भी नहीं जानी जा सकतीं। कूदना ही पड़ता है, डूबना ही पड़ता है, तो ही जाना जा सकता है। ध्यान तो उन गहरे तत्वों में से एक है कि जब तक आप खुद न रंग जाएं उसमें, आपको कुछ भी पता नहीं चलेगा। हां, इतना जरूर पता चल सकता है कि दूसरे आपको पागल मालूम हो सकते हैं। जो ध्यान के बाहर हैं, उन्हें ध्यान करने वाले लोग पागल मालूम हो सकते हैं।
अगर आपको पागल मालूम हुए हों, तो समझना कि आप किनारे पर खड़े रहे हैं, आप भीतर नहीं उतरे। जैसा प्रेम में होता है, वैसा ही ध्यान में होता है। जो प्रेम में होता है, बाकी लोगों को मालूम होता है, पागल हो गया। लेकिन प्रेम का पागलपन प्रेम के अभाव की बुद्धिमानी से बहुत ज्यादा कीमती है।
तो मैं आपसे कहूंगा, उतरें, अनुभव करें, स्वाद लें, फिर निर्णय करें। और जो आदमी अनुभव के बिना निर्णय कर लेता है, वह आदमी बहुत बुद्धिमान नहीं है।
तीस-पैंतीस प्रतिशत मित्रों ने बहुत गहरा प्रयोग किया। फिर आज तो पहला दिन था, प्रयोग का आपको पता भी नहीं था। कल से उसमें गति बढ़ेगी। आज बीच में भी कोई बीस-पच्चीस मित्र ऐसे बैठे रहे, जो खड़े हुए होते तो उनको बहुत लाभ हुआ होता। बैठ कर उतनी गति नहीं हो सकती। और शक्ति जब जगती है, अगर गति न हो पाए, तो भीतर कुछ अधूरा-अधूरा छूट जाता है।
तो कल, जो मित्र आज भीतर बैठे थे और जिन्हें तीव्रता आई थी, उनसे भी मैं कहूंगा, वे कल बाहर खड़े होंगे। जो मित्र बैठे हैं, उनको ऐसा नहीं सोचना है कि वे सिर्फ बैठे रहने के लिए बैठे हैं। बैठे हैं तो भी करने के लिए ही बैठे हैं। आंख भी यहां-वहां आप कर लेंगे तो सब व्यर्थ हो जाएगा। कभी थोड़े संकल्प के प्रयोग भी देखने चाहिए। अपनी ही आंख अगर चालीस मिनट तक एक जगह न रख सकें, तो अपनी आंख कहने का बहुत हक नहीं रह जाता।
और ध्यान रहे, शरीर के किसी भी हिस्से पर अगर इतनी मालकियत आ जाए, तो धीरे-धीरे पूरे शरीर पर मालकियत आनी शुरू हो जाती है। आंख शरीर का सबसे ज्यादा कीमती, सबसे ज्यादा डेलिकेट, सबसे ज्यादा मूल्यवान हिस्सा है। जो आदमी आंख का मालिक हो जाता है, वह पूरे शरीर का मालिक हो जाता है। इसलिए शायद आपने कभी न सोचा होगा कि सारी दुनिया में, जितने कीमती शब्द हैं, वे हमने आंख से बनाए हैं।
दर्शन, वह देखने से बनता है। द्रष्टा, सियर, वह देखने से बनता है। जिसकी आंख पर मालकियत हो गई वह दर्शन का मालिक हो जाता है। क्योंकि आंख शरीर का सबसे ज्यादा चंचल हिस्सा है। और अगर आंख की मालकियत हो गई तो शरीर के फिर कोई और हिस्से आपकी मालकियत के बाहर नहीं रह सकते। वे बहुत जड़ हैं।
इसलिए आंख का यह चालीस मिनट का प्रयोग बहुत गहरे अर्थ रखता है। उसके इंप्लीकेशंस बहुत ज्यादा हैं। चालीस मिनट कल, जो मित्र आज प्रयोग नहीं कर पाए ठीक से...एक दफे भी अगर आप यहां-वहां चूक गए, तो आप ऐसा मत सोचिए कि एक दफा चूक गए तो क्या हर्जा है, फिर आंख वापस ले आए। ऐसे ही है जैसे कि एक छेद हो नाव में, एक छेद है तो क्या हर्जा है!
हर्जा कुछ नहीं है, नाव किनारे वापस नहीं आएगी। एक भी छेद नहीं चलेगा। एक ही छेद से सब लीक हो जाएगा, सब बह जाएगा। जो भी मेहनत की वह व्यर्थ हो जाएगी। चालीस मिनट यानी चालीस मिनट। और जब मैंने कहा मेरी तरफ तो यानी मेरी तरफ। फिर आपको यहां-वहां जरा भी नहीं देखना है।
कुछ दस-पांच मित्र देखने को भी खड़े हो गए। देखने में कुछ हर्जा नहीं है। लेकिन दूसरे को देखने में कुछ खास मजा भी नहीं है। देखना हो तो अपने को ही देखना चाहिए। तो आज जो दस-पांच मित्र देखने खड़े हो गए, कल उनको भी निमंत्रण देता हूं, वे भी प्रयोग करें। दूसरे को नाचते देख कर जो आनंद आ रहा है, खुद नाचेंगे तब पता चलेगा कि वह तो कुछ भी न था। खुद को नाचते देख कर जो आनंद आएगा उसका हिसाब भी लगाना मुश्किल है। कभी कोई मीरा जानती है, कभी कोई कबीर जानता है। लेकिन आप भी जान सकते हैं। हां, खुद ही अपने लिए रुकावट बन जाएं तो बात दूसरी है।
परमात्मा और मनुष्य के बीच स्वयं मनुष्य के और कोई भी रुकावट नहीं है। अगर आप ही जिद्द करके रुकना चाहें तो रुक सकते हैं। अगर आप जाना चाहें तो इस जगत की कोई शक्ति आपको नहीं रोक सकती सिवाय आपके।
तो कल सुबह...और ध्यान रहे, जो मित्र शाम को आए हैं वे सुबह जरूर ही आ जाएं, क्योंकि सुबह का प्रयोग करेंगे तो शाम के प्रयोग में बहुत गति बढ़ जाएगी। शाम का प्रयोग करेंगे तो सुबह के प्रयोग में बहुत गति बढ़ जाएगी। और कल कोई बैठा न रहे। इन पांच दिनों में, मैं चाहूंगा, एक भी व्यक्ति खाली हाथ यहां से नहीं लौटना चाहिए। और अगर आप लौट गए तो मेरी जिम्मेवारी नहीं होगी। अगर कोई नदी के किनारे से भी खाली हाथ लौट जाए तो नदी की कोई जिम्मेवारी नहीं है।
नहीं, कल से अपना पात्र लेकर ही आएं। कल से कुछ लेकर ही जाना है। आज प्रयोग का दिन था पहला, लेकिन कल से नहीं। कल से नहीं किसी को मैं इतना कमजोर समझता हूं कि वह बैठा रह जाएगा।
कल सुबह ठीक आठ बजे। कोई सवाल होंगे तो लिख कर दे देंगे।

हमारी रात की बैठक पूरी हुई।


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