मंगलवार, 31 अक्टूबर 2017

पोनी-(एक कुत्ते की आत्म क्था)-अध्याय-23



(अध्‍याय—23) सन्‍यास एक कला है


      शायद सितम्‍बर माह का ही होगा, बरसात खत्‍म हो गई थी। शरद ऋतु आने में अभी कुछ देरी थी। दिन भर धूप तेज रहती थी। परंतु सूर्य के अस्‍त होते ही एक मधुर सीतलता छा जाती थी। भारतीय  तिथि में इसे कार्तिक माह कहा जाता था। यह एक प्रकार का सुहाना बसंत ही है। जो गर्मी के बाद शरत ऋतु की और अग्रसर हो रहा होता था। इन्‍हीं दिनों हिंदुओं की राम लीला शुरू होती थी। और बच्‍चों के स्‍कूल की छुट्टी हो गई थी। इसी सब से यह तिथि मुझे आज भी याद है। क्‍योंकि पार्क में बहुत बड़ी सी स्‍टेज बना कर रात—रात भर राम लीला खेली जाती थी। जब में पार्क में सुबह जाता तो वहां पर हजारों लोगों के पद चाप की खुशबु महसूस होती थी। तभी मैं समझ जाता था, रात को यहां पर हजूम—हजूम लोग इक्कट्ठे हुए होंगे। परंतु मैं वहां रात को कभी नहीं जा सकता था।
क्‍योंकि लोग नाहक कुत्‍तों को देख कर इतना डर जाते है या घिन्‍न करते है। जबकि हम तो प्रत्‍येक मनुष्‍य का सम्‍मान करते है। हमारे आँगन में जो भेल पत्र और अमरूद का वृक्ष था उस पर श्‍याम के समय चिड़ियों के झुंड का झुंड अठखेलियाँ करते  थे।

पोनी-(एक कुत्ते की आत्म क्था)-अध्याय-22




अध्याय22 मेरी शरारतें

      जैसे—जैसे मैं बड़ा हो रहा था, मेरी शरारतें भी बढ़ती जा रही थी। हालांकि में उन पर काबू पाने की भरसक कोशिश कर रहा था। परंतु पशु स्‍वभाव से जो मुझे पीढ़ी दर पीढी मिला था वह मेरे बस के बहार हो जाता था। कितना ही कोशिश करू परंतु अंदर धक्‍के मारती उर्जा मुझे कुछ न कुछ गलती करने को मजबूर कर देती थी। शरीर का विकास भी इन घटनाओं की जड़ था। जैसे नये दांतों का उगना। अब वह दाँत किसी चीज को फाड़ना चाहते है। वही अभ्‍यास उनकी मजबूती की जड़ है। अब इस बात का पता नहीं चलता कि किसे काटे या किसे फाड़े।
जब सब लोग ध्‍यान में चले जाते तब मुझे बहुत अकेला पन खलता था। और मुझे उस समय यह सधन महसूस होता था कि मैं कुत्‍ता हूं, मनुष्‍य नहीं। इसी सब की हीनता मुझे क्रोध करने को उकसाती थी। कि सब लोग अंदर चले गये और मुझे बहार छोड़ दिया। जब की मुझे अंदर जाना बहुत अच्‍छा लगता था। और मैं किसी को कुछ कहता भी नहीं था किसी एक कोने में आराम से बैठ कर आंखे बद कर लेता था।

गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-092


गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-092   
  
अध्याय ८
तीसरा प्रवचन
स्मरण की कला

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पित मनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्।। ७।।
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।। ८।।
कविं पुराणमनुशासितारम्
अणोरणीयां समनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपम्
आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्।। ९।।
इसलिए हे अर्जुन, तू सब समय में निरंतर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। इस प्रकार मेरे में अर्पण किए हुए मन-बुद्धि से युक्त हुआ निःसंदेह मेरे को ही प्राप्त होगा।
और हे पार्थ, परमेश्वर के ध्यान के अभ्यास रूप योग से युक्त अन्य तरफ न जाने वाले चित्त से निरंतर चिंतन करता हुआ पुरुष परम दिव्य पुरुष को अर्थात परमेश्वर को ही प्राप्त होता है।
इससे जो पुरुष सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियंता, सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म, सबके धारण-पोषण करने वाले, अचिंत्यस्वरूप, सूर्य के सदृश प्रकाशरूप, अविद्या से अति परे, शुद्ध सच्चिदानंदघन परमात्मा को स्मरण करता है...।

गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-091



गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-091     
अध्याय ८
दूसरा प्रवचन
मृत्यु-क्षण में हार्दिक प्रभु-स्मरण

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।। ४।।
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।। ५।।
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।। ६।।
उत्पत्ति-विनाश धर्म वाले सब पदार्थ अधिभूत हैं और हिरण्यमय पुरुष अधिदैव हैं और हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन, इस शरीर में मैं ही अधियज्ञ हूं।
और जो पुरुष अंतकाल में मेरे को ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
कारण कि हे कुंतीपुत्र अर्जुन, यह मनुष्य अंतकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर को त्यागता है, उस-उस को ही प्राप्त होता है।
परंतु सदा उस ही भाव को चिंतन करता हुआ, क्योंकि सदा जिस भाव का चिंतन करता है, अंतकाल में भी प्रायः उसी का स्मरण होता है।

सोमवार, 30 अक्टूबर 2017

पोनी-(एक कुत्ते की आत्म क्था)-अध्याय-21



अध्याय21 मेरा पापा जी को काटना

      पनी एक आदत से मैं बहुत परेशान था, जो इतनी खराब थी कि उसने मुझे ही नहीं जिनके साथ मैं रहता था उन्‍हें कष्‍ट ही नहीं दिये उन्‍हें सताया भी बहुत। ऐसा नहीं था की मैं इस कमजोरी को नहीं जानता था। परंतु मेरी मजबूरी थी या उसे मेरा जंगलीपन कह लीजिए जो मेरे बार—बार चाहने से भी मुझसे छूट नहीं रही थी। शायद यहीं तो बंधन जो हमें अपने में कैद किये हुए है। जो सामने आकर हमें अपनी आदत लगती है।
घर में इतना प्‍यार मिलता है, कोई बंधन नहीं, पूर्ण मुक्‍ति है। कहीं बैठो, परंतु न जाने क्‍यों फिर भी उस चार दीवारी में एक प्रकार सी घुटन महसूस होती थी। जरा भी मुझे मोका मिले घर से बाहर जाने का तो मैं चूकता नही था। फिर सब भूल जाता था, कोई डांटे, मारे.....कुछ भी करे मुझे बुला नहीं सकता। बस अगर में अपने आप में झांक कर देखू तो वहीं एक मात्र बुराई जो मेरे पूरे जीवन पर छाई रही। उस आजादी के सामने मुझे कुछ भी अच्‍छा नहीं लगता था।

पोनी-(एक कुत्ते की आत्म क्था)-अध्याय-20



अध्‍याय—20—सन्यास के बाद फिर वही काम)

चानक घर की घंटी बजी, घंटी बजाने के ढंग से ही मैं समझ गया की पापा जी आ गये। मैं हड़बड़ी में बहुत तेजी से भोंकता हुआ आँगन की और दौड़ा। एक लम्‍बा खिचाव था, एक चुंबकीय विछोह....मैंने दरवाजे के नीचे से ही सूंघ लिया और लगा दरवाजे के पंजा मरने। की जल्‍दी से कोई आकर इन्‍हें खोले। मुझसे रहा नहीं जा रहा था। एक अजीब सी खुशी थी जो मुझमें समा नहीं पा रही थी। ये मनुष्‍य भी कितने सुस्‍त है। कोई काम चटकी से कर क्‍यों नहीं पाते। काम करने वाली अम्‍मा किसी तरह से घीसिड़ —पीसड़ करती हुई आई और उसने दरवाजा खोला1 सामने मम्‍मी—पाप खड़े थे। पापा जी वही महरून कुर्ता पायजामा पहने थे, पापा जी के हाथ में दो बैग थे।
मम्‍मी जी के हाथ में एक छोटा बैग था। मम्‍मी जी पहले अंदर आई मैं खुशी के मारे लगभग रो रहा था। कुं...कुं....कुं करके चक्‍कर लगा रहा था। अम्‍मा जी एक बैग ले कर अंदर चली गई। मम्‍मी जी ने जैसे ही मेरे सर पर हाथ फेरना चाहा मैं उछला और अपनी जीभ सीधी मम्‍मी जी के मुंह में डाल दी। और कोई दिन होता तो मेरी शामत आ जाती पर आज मम्‍मी जी ने मेरी इस बेहूदगी को हंसी में टाल दिया।

रविवार, 29 अक्टूबर 2017

गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-090

गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-090  
   
अध्याय ८
पहला प्रवचन
स्वभाव अध्यात्म है

श्रीमद्भगवद्गीता
अथ अष्टमोऽध्यायः

अर्जुन उवाच
किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते।। १।।
अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः।। २।।
श्रीभगवानुवाच
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः।। ३।।
अर्जुन बोला, हे पुरुषोत्तम, जिसका आपने वर्णन किया, वह ब्रह्म क्या है, और अध्यात्म क्या है तथा कर्म क्या है, और अधिभूत नाम से क्या कहा गया है तथा अधिदैव नाम से क्या कहा जाता है?
और हे मधुसूदन, यहां अधियज्ञ कौन है, और वह इस शरीर में कैसे है, और युक्त चित्त वाले पुरुषों द्वारा अंत समय में आप किस प्रकार जानने में आते हो?
श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे अर्जुन, परम अक्षर अर्थात जिसका कभी नाश नहीं हो, ऐसा सच्चिदानंदघन परमात्मा तो ब्रह्म है और अपना स्वरूप अर्थात स्वभाव अध्यात्म नाम से कहा जाता है तथा भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला जो विसर्ग अर्थात त्याग है, वह कर्म नाम से कहा गया है।

गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-089



गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-089 
    
अध्याय ७
दसवां प्रवचन
धर्म का सार: शरणागति
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परंतप।। २७।।
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः।। २८।।
हे भरतवंशी अर्जुन, संसार में इच्छा और द्वेष से उत्पन्न हुए सुख-दुख आदि द्वंद्व रूप मोह से संपूर्ण प्राणी अति अज्ञानता को प्राप्त हो रहे हैं। परंतु निष्काम भाव से श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करने वाले जिन पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है, वे रागद्वेषादि द्वंद्व रूप मोह से मुक्त हुए और दृढ़ निश्चय वाले पुरुष मेरे को सब प्रकार से भजते हैं।

प्रभु का स्मरण भी उन्हीं के मन में बीज बनता है, जो इच्छाओं, द्वेषों और रागों के घास-पात से मुक्त हो गए हैं। जैसे कोई माली नई जमीन को तैयार करे, तो बीज नहीं बो देता है सीधे ही। घास-पात को, व्यर्थ की जड़ों को उखाड़कर फेंकता है, भूमि को तैयार करता है, फिर बीज डालता है।
इच्छा और द्वेष से भरा हुआ चित्त इतनी घास-पात से भरा होता है, इतनी व्यर्थ की जड़ों से भरा होता है कि उसमें प्रार्थना का बीज पनप सके, इसकी कोई संभावना नहीं है।

पोनी-(एक कुत्ते की आत्म क्था)-अध्याय-19



अध्‍याय—19 मम्‍मी पापा के बिछोह की पीड़ा

म्‍मी—पापा से बिछुड़ने का अनुभव मेरे लिए नया था। इससे कुछ भय और असुरक्षा का भाव भी मेरे अंदर प्रवेश कर गया था। आज जिन मनुष्‍य के संग मैं अपने को सुरक्षित महसूस करता था। वे दोनों नहीं थे। एक नया खाली पन उस में समा गया था। जो मुझे गहरे  मोत के सन्‍नाटे जैसा मालुम होता था। हालाकि खाना तो मिल जाता था। पर मन में एक भय समाया रहता था। एक अंजान सा भय। पर क्‍योंकि ये सब मेरी समझ के बहार की बात थी। सभी तो यहां पर अपने थे, एक मम्‍मी पापा ही तो चले गये थे। और वो भी शायद कुछ दिनों के लिए, फिर शायद लोट आये।
क्‍योंकि छोटी—छोटी विदाई एक दो दिन की तो पहले भी चलती रहती थी। पर इस बार मेरे सब्र के भी पार की बिदाई हो गई। परन्‍तु फिर न जाने क्‍यों सब बिखरा—बिखरा लग रहा था। मेरी चेतना जो मुझे ऊपर की और धक्‍के मार रही थी। और मेरा शरीर जो मुझे बांधे हुए थे, अपने पास में। इन दोनों के कारण मेरा मन अति अशांत रहता था। मैं अपने को एक कैद में बंधा महसूस कर रहा था। लगता था इस सब को फाड़ कर निकल भागू। परंतु शायद हम इसे कभी नहीं तोड़ सकते। ये मुक्‍ति हमारे भाग्‍य में नहीं है। इस पाने के लिए हमें  मनुष्‍य जन्‍म तक की यात्रा करनी ही होगी। 

पोनी-(एक कुत्ते की आत्म क्था)-अध्याय-18



अध्‍याय—18 मम्‍मी पापा का सन्‍यास लेने जाना

मैं अपनी बीमारी को लगभग भूल गया था। मेरे शरीर में जो गाँठें पड़ गई थी। बह अब धीरे—धीरे छोटी होती जा रही थी। शायद जैसे—जैसे मैं जवान होता जा रहा था या मेरा शरीर भी बलिष्‍ठ हो रहा था। वह अपनी अवरोध शक्‍ति के सहारे खुद ही अपना उपचार कर रहा था। मेरे कान एक दम से सीधे खड़े थे। मेरी पूछ बहुत भारी और मोटी थी। मेरी टांगे मेरे शरीर के हिसाब से कुछ अधिक बड़ी हो गई थी। हमारा शरीर भी अलग—अलग हिस्सों में विकसित होता है। उसकी एक गति है एक लय है। जब मैंने उसे महसूस किया और जिया तब वह कुछ—कुछ मेरी समझ में आया।
हमारे शरीर में सबसे पहले कान विकसित होते है। मेरे छोटे मुलायम कान एक दम से आम के पत्‍ते की तरह बड़े हो गये। गये उस समय में कितना अजीब—बेडौल लग रहा होगा। 7—8 माह में जितने मेरे कान बढ़ सकते थे पुरी उम्र उतने ही रहे। आप जरा सोचिए छोटा सा मुंह और छाज से दो कान। खेर इन बातों पर कोई खास गोर नहीं करता। अगर करे भी तो कुदरत के सामने क्‍या किया जा सकता है। कानों के बाद हमारी टांगों का नम्‍बर आता है और उसके बाद शरीर का और मेरे हिसाब से सबसे अंत में हमारी पूछ बड़ी होती है।

शनिवार, 28 अक्टूबर 2017

गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-088



गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-088   
 
अध्याय ७
नौवां प्रवचन

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि।। २३।।
परंतु उन अल्पबुद्धि वालों का वह फल नाशवान है तथा वे देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मेरे को ही प्राप्त होते हैं।

कामनाओं से प्रेरित होकर की गई प्रार्थनाएं जरूर ही फल लाती हैं। लेकिन वे फल क्षणिक ही होने वाले हैं; वे फल थोड़ी देर ही टिकने वाले हैं। कोई भी सुख सदा नहीं टिक सकता, न ही कोई दुख सदा टिकता है। सुख और दुख लहर की तरह आते हैं और चले जाते हैं।
देवताओं की पूजा से जो मिल सकता है, वह क्षणिक सुख का आभास ही हो सकता है। वासनाओं के मार्ग से कुछ और ज्यादा पाने का उपाय ही नहीं है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, लेकिन जो मेरे निकट आता है--और उनके निकट आने की शर्त है, वासनाओं को छोड़कर, विषयासक्ति को छोड़कर--वह उसे पाता है, जो नष्ट नहीं होता, जो खोता नहीं, जो शाश्वत है। इसलिए उन्होंने दो बातें इस सूत्र में कही हैं। अल्पबुद्धि वाले लोग!

गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-087



गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-087 
    
अध्याय ७
आठवां प्रवचन
श्रद्धा का सेतु

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।। २१।।
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्।। २२।।
जो-जो सकामी भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस भक्त की मैं उस ही देवता के प्रति श्रद्धा को स्थिर करता हूं। तथा वह पुरुष उस श्रद्धा से युक्त हुआ उस देवता के पूजन की चेष्टा करता है और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किए हुए उन इच्छित भोगों को निःसंदेह प्राप्त होता है।

प्रभु की खोज में किस नाम से यात्रा पर निकला कोई, यह महत्वपूर्ण नहीं है; और किस मंदिर से प्रवेश किया उसने, यह भी महत्वपूर्ण नहीं है। किस शास्त्र को माना, यह भी महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण सिर्फ इतना है कि उसका भाव श्रद्धा का था। वह राम को भजता है, कि कृष्ण को भजता है, कि जीसस को भजता है, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। वह भजता है, इससे फर्क पड़ता है। किस बहाने से वह प्रभु और अपने बीच सेतु निर्मित करता है, वे बहाने बेकार हैं। असली बात यही है कि वह प्रभु-मिलन के लिए आतुर है; वह श्रद्धा ही सार्थक है।

गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-086



गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-086  
   
अध्याय ७
सातवां प्रवचन
मुखौटों से मुक्ति

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्।। १८।।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।। १९।।
यद्यपि ये सब ही उदार हैं अर्थात श्रद्धासहित मेरे भजन के लिए समय लगाने वाले होने से उत्तम हैं, परंतु ज्ञानी तो साक्षात मेरा स्वरूप ही है, ऐसा मेरा मत है, क्योंकि वह स्थिर बुद्धि ज्ञानी भक्त अति उत्तम गति-स्वरूप मेरे में ही अच्छी प्रकार स्थित है। और जो बहुत जन्मों के अंत के जन्म में तत्वज्ञान को प्राप्त हुआ ज्ञानी, सब कुछ वासुदेव ही है, इस प्रकार मेरे को भजता है, वह महात्मा अति दुर्लभ है।

प्रभु को जो जानता है, वह उस जानने में ही उसके साथ एक हो जाता है। सब दूरी अज्ञान की दूरी है। सब फासले अज्ञान के फासले हैं। परमात्मा को दूर से जानने का कोई भी उपाय नहीं है, परमात्मा होकर ही जाना जा सकता है।

गुरुवार, 26 अक्टूबर 2017

गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-085




गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-085   
  
अध्याय ७
छठवां प्रवचन
जीवन अवसर है

न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः।। १५।।
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।। १६।।
माया द्वारा हरे हुए ज्ञान वाले और आसुरी स्वभाव को धारण किए हुए तथा मनुष्यों में नीच और दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग तो मेरे को नहीं भजते हैं।
और हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन, उत्तम कर्म वाले अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी अर्थात निष्कामी, ऐसे चार प्रकार के भक्तजन मेरे को भजते हैं।

कौन करता है प्रभु का स्मरण, इस संबंध में कृष्ण ने कुछ बातें कही हैं।
मनुष्य जाति को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। और जब दुनिया से सारे वर्ग मिट जाएंगे, तब भी वही विभाजन अंतिम सिद्ध होगा।
बहुत तरह से आदमी को हम बांटते हैं। धन से बांटते हैं; गरीब है, अमीर है। शिक्षा से बांटते हैं; शिक्षित है, अशिक्षित है। चमड़ी के रंगों से बांटते हैं; गोरा है, काला है। हजार तरह से आदमी को हम बांटते हैं।

गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-084



गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-084 
    
अध्याय ७
पांचवां प्रवचन
प्रकृति और परमात्मा

ये चैव सात्त्विा भावा राजसास्तामसाश्च ये।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि।। १२।।
और भी जो सत्व गुण से उत्पन्न होने वाले भाव हैं और जो रजोगुण से तथा तमोगुण से होने वाले भाव हैं, उन सबको तू मेरे से ही होते हैं ऐसा जान, परंतु वास्तव में उनमें मैं और वे मेरे में नहीं हैं।

प्रकृति परमात्मा में है, लेकिन परमात्मा प्रकृति में नहीं है। यह विरोधाभासी, पैराडाक्सिकल सा दिखने वाला वक्तव्य अति गहन है। इसके अर्थ को ठीक से समझ लेना उपयोगी है।
कृष्ण कहते हैं, सत्व, रज, तम, तीनों गुणों से बनी जो प्रकृति है, वह मुझमें है। लेकिन मैं उसमें नहीं हूं।

गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-083



गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-083     

अध्याय ७
चौथा प्रवचन
आध्यात्मिक बल

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।। १०।।
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।। ११।।
हे अर्जुन, तू संपूर्ण भूतों का सनातन कारण मेरे को ही जान। मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूं।
और हे भरत श्रेष्ठ, मैं बलवानों का आसक्ति और कामनाओं से रहित बल अर्थात सामर्थ्य हूं, और सब भूतों में धर्म के अनुकूल अर्थात शास्त्र के अनुकूल काम हूं।

परमात्मा स्वयं अपना परिचय देना चाहे, तो निश्चित ही बड़ी कठिन बात है। आदमी भी अपना परिचय देना चाहे, तो कठिन हो जाती है बात। और परमात्मा अपना देना चाहे, तो और भी कठिन हो जाती है।

बुधवार, 25 अक्टूबर 2017

गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-082



गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-082  
    अध्याय ७
तीसरा प्रवचन
अदृश्य की खोज

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा।। ६।।
मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।। ७।।
और हे अर्जुन, तू ऐसा समझ कि संपूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पत्ति वाले हैं और मैं संपूर्ण जगत का उत्पत्ति तथा प्रलयरूप हूं, अर्थात संपूर्ण जगत का मूल कारण हूं।
हे धनंजय, मेरे सिवाय किंचितमात्र भी दूसरी वस्तु नहीं है। यह संपूर्ण जगत सूत्र में सूत्र के मणियों के सदृश मेरे में गुंथा हुआ है।

जगत प्रकट है, ऐसे ही जैसे माला के मनके प्रकट होते हैं। परमात्मा अप्रकट है, वैसे ही जैसे मनकों में पिरोया हुआ धागा अप्रकट होता है। पर जो अप्रकट है, उसी पर प्रकट सम्हला हुआ है। जो नहीं दिखाई पड़ता उसी पर, जो दिखाई पड़ता है, आधारित है।
जीवन के आधारों में सदा ही अदृश्य छिपा होता है। वृक्ष दिखाई पड़ता है, जड़ें दिखाई नहीं पड़ती हैं। फूल दिखाई पड़ते हैं, पत्ते दिखाई पड़ते हैं, जड़ें पृथ्वी के गर्भ में छिपी रहती हैं--अंधकार में, अदृश्य में। पर उन अदृश्य में छिपी जड़ों पर ही प्रकट वृक्ष की जीवन की सारी लीला निर्भर है।

गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-081




गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-081   
    अध्याय ७
दूसरा प्रवचन
परमात्मा की खोज

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।। ३।।
परंतु हजारों मनुष्यों में कोई ही मनुष्य मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है, और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई ही पुरुष मेरे परायण हुआ मेरे को तत्व से जानता है अर्थात यथार्थ मर्म से जानता है।

प्रभु की यात्रा सरल भी है और सर्वाधिक कठिन भी। सरल इसलिए कि जिसे पाना है, उसे हमने सदा से पाया ही हुआ है। जिसे खोजना है, उसे हमने वस्तुतः कभी खोया नहीं है। वह निरंतर ही हमारे भीतर मौजूद है, हमारी प्रत्येक श्वास में और हमारे हृदय की प्रत्येक धड़कन में। इसलिए सरल है प्रभु को पाना, क्योंकि प्रभु की तरफ से उसमें कोई भी बाधा नहीं है। इसे ठीक से ध्यान में ले लेंगे।
प्रभु को पाना सरल है, क्योंकि प्रभु सदा ही अवेलेबल है, सदा ही उपलब्ध है। लेकिन प्रभु को पाना कठिन बहुत है, क्योंकि आदमी सदा ही प्रभु की तरफ पीठ किए हुए खड़ा है।

गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-080



गीता दर्शन-भाग-04 (ओशो)

प्रवचन—080

अध्याय ७
पहला प्रवचन
अनन्य निष्ठा

श्रीमद्भगवद्गीता
अथ सप्तमोऽध्यायः

श्रीभगवानुवाच
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युग्जन्मदाश्रयः।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु।। १।।
श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे पार्थ, तू मेरे में अनन्य प्रेम से आसक्त हुए मन वाला और अनन्य भाव से मेरे परायण योग में लगा हुआ मुझको संपूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि गुणों से युक्त सबका आत्मरूप जिस प्रकार संशयरहित जानेगा, उसको सुन।

धर्म मौलिक रूप से जीवन के प्रति एक प्रेमपूर्ण निष्ठा का नाम है।
जीवन के प्रति दो दृष्टियां हो सकती हैं। एक--नकार की, इनकार की, अस्वीकार की। दूसरी--स्वीकार की, निष्ठा की, प्रीति की। जितना अहंकार होगा भीतर, उतना जीवन के प्रति अस्वीकार और विरोध होता है। जितनी विनम्रता होगी, उतना स्वीकार। जैसा है जीवन, उसके प्रति एक भरोसा और ट्रस्ट। और जीवन जहां ले जाए, उसका हाथ पकड़कर जाने की संशयहीन अवस्था होती है।
कृष्ण इस सूत्र में अर्जुन से कह रहे हैं कि जो अनन्य भाव से मेरे प्रति प्रेम और श्रद्धा से भरा है!
अनन्य भाव को ठीक से समझ लेना जरूरी है।