बुधवार, 30 अगस्त 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-21



देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

इक्कीसवां प्रवचन,
गांधीवादी कहां हैं?

मेरे प्रिय आत्मन्!
मैं निरंतर सोचता रहा, व्हेअर आर द गांधीयंस? गांधीवादी कहां हैं? लेकिन मेरे भीतर सिवाय एक उत्तर के और कुछ शब्द नहीं उठे। मेरे भीतर एक ही उत्तर उठता रहा--वहीं हैं, जहां हो सकते थे। यही सोचते हुए रात मैं सो गया और सोने में मैंने एक सपना देखा। उसी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहता हूं। शायद यही सोचते हुए सोया था कि गांधीवादी कहां हैं, इसलिए वह सपना निर्मित हुआ होगा।
मैंने देखा कि राजधानी के एक बहुत बड़े बगीचे में जहां गांधीजी की प्रतिमा खड़ी है, मैं उस पत्थर की प्रतिमा के नीचे पड़ी बेंच पर बैठा हूं। दोपहर है और बगीचे में सन्नाटा है, कोई भी नहीं है। मैं सोचने लगा कि गांधीजी से ही क्यों न पूछ लिया जाए कि गांधीवादी कहां हैं? लेकिन इसके पहले कि मैं पूछता, मैंने देखा कि गांधीजी की प्रतिमा कुछ बड़बड़ा रही है। तो मैं गौर से सुनने लगा।

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-20



देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

बीसवां प्रवचन
वैज्ञानिक विकास और बदलते जीवन-मूल्य

प्रश्न: इस औद्योगिक युग में आत्म-अभिव्यक्ति के द्वारा मनुष्य आत्म-साक्षात्कार कैसे करे?

दोत्तीन बातें--एक तो मनुष्य सदा से ही औद्योगिक रहा है, इंडस्ट्रियल रहा है। चाहे वह छोटे औजार से काम कर रहा हो या बड़े औजार से काम कर रहा हो--छोटे पैमाने पर काम कर रहा हो, बड़े पैमाने पर काम कर रहा हो, आदमी जब से पृथ्वी पर है तब से इंडस्ट्रियल एक साथ है, वह आदमी के साथ ही था। और जैसे आज हम लगता है कि दो हजार साल पहले आदमी इंडस्ट्रियल नहीं था, दो हजार साल हम भी इंडस्ट्रियल नहीं मालूम होंगे।
पहले तो बात यह समझ लेने जैसी है कि मेरी समझ ही यह है कि आदमी, आदमी होने की वजह से ही इंडस्ट्रियल है। आदमी को पशु से जो बात भिन्न करती है वह उसका यंत्रों का उपयोग है। वह कितने ही छोटे पैमाने पर हो, यह दूसरी बात है। लेकिन हमेशा से आदमी उद्योग में लगा है।

मंगलवार, 29 अगस्त 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-19



देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

उन्नीसवां प्रवचन
परस्पर-निर्भरता और विश्व नागरिकता

नॉन-प्राडक्टिव वेल्थ के लिए हम टैक्सेस ज्यादा लगाएं और प्राडक्टिव वेल्थ के लिए हम जितना प्रमोशंस दे सकें, दें। दो ही तो उपाय हैं। अगर एक आदमी लाख रुपया पाया है मुफ्त में तो उस पर टैक्स भारी होना चाहिए और एक आदमी लाख रुपये से कुछ प्रॉडयूस कर रहा हो, डेढ़ लाख पैदा कर रहा हो तो उस पर टैक्सेस कम होने चाहिए। अभी हालतें उलटी हैं अगर आप लाख रुपया अपने घर में रख कर कुछ भी नहीं कमाते तो आपको कोई टैक्सेशन नहीं है और अगर आप डेढ़ लाख कमाते हैं तो आप पर टैक्सेशन हैं। अभी अगर वेल्थ को क्रिएट करते हैं तो आपको दंड देना पड़ता है टैक्सेशन के रूप में। अगर आप वेल्थ को रोक कर बैठ जाएं तो उसका कोई दंड नहीं है!

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-18




देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

अठारहवां प्रवचन
प्रेम-विवाह: जातिवाद का अंत

हमारे यहां चूंकि जातिवाद का राजकरण है--जो हिंदू है, वह हिंदू को वोट देता है, जो मुस्लिम है वह मुस्लिम को वोट देता है। हमारे यहां बहुत कौमें हैं। आपके खयाल में इसको मिटाने के लिए क्या करना चाहिए?

दोत्तीन बातें करना चाहूंगा। एक तो जातीय दंगे को साधारण दंगा मानना शुरू करना चाहिए। उसे जातीय दंगा मानना नहीं चाहिए, साधारण दंगा मानना चाहिए। और जो हम साधारण दंगे के साथ व्यवहार करते हैं वही व्यवहार उस दंगे के साथ भी करना चाहिए, क्योंकि जातीय दंगा मानने से ही कठिनाइयां शुरू हो जाती हैं, इसलिए जातीय दंगा मानने की जरूरत नहीं है। जब एक लड़का एक लड़की को भगा कर ले जाता है, वह मुसलमान हो कि हिंदू, कि लड़की हिंदू है कि मुसलमान है--इस लड़के और लड़की के साथ वही व्यवहार किया जाना चाहिए, जो कोई लड़का किसी लड़का को भगा कर ले जाए, और हो। इसको जातीय मानने का कोई कारण नहीं है।

सोमवार, 28 अगस्त 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-17



देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

सत्रहवां प्रवचन
असली अपराधी: राजनीतिज्ञ

आज तक आपने जो किया है, उसका मिशन क्या-क्या है--आपका उद्देश्य क्या है? महाबलेश्वर शिविर में मैं आ चुका हूं।

दोत्तीन बातें हैं। हमारे समाज की और हमारे देश की एक जड़ मनोदशा है, जहां चीजें ठहर गई हैं, बहुत समय से ठहर गई हैं। उनमें कोई गति नहीं रह गई। कोई दो ढाई हजार वर्ष से हम सिर्फ पुनरुक्ति कर रहे हैं। दो ढाई हजार वर्ष से हमने नये का स्वागत बंद कर दिया है, पुराने की ही पुनरुक्ति कर रहे हैं। तो मेरे काम का पहला हिस्सा पुराने की पुनरुक्ति को तोड़ता है। और पुराने की पुनरुक्ति का हमारा मन टूटे, तो ही हम नये के स्वागत के लिए तैयार हो सकते हैं, वह दूसरा हिस्सा है। तो पहला तो पुराने को पकड़ने की हमारी जो आकांक्षा है, और जो नये का भय है, ये दो हिस्से हैं। पुराने को तोड़ देने का और नये के स्वागत के लिए मार्ग खोलने का।

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-16



देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

सोलहवां प्रवचन
विध्वंस: सृजन का प्रारंभ

यह सवाल नहीं है। पहली बात तो यह कि मैं निपट एक व्यक्ति की भांति, जो मुझे ठीक लगता है वह में कहूं। न तो मेरी कोई संस्था है, न कोई संगठन। हां, कोई संगठन बना कर मेरी बात उसे ठीक लगती है और लोगों तक पहुंचाए, तो वैसा संगठन जीवन जागृति केंद्र है। वह उसका संगठन है, जिन्हें मेरी बात ठीक लगती है और वे लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं। लेकिन मैं उस संगठन का हिस्सा नहीं हूं और उस संगठन का मेरे ऊपर कोई बंधन नहीं है, इसलिए वह संगठन रोज मुश्किल में है। क्योंकि कल मैंने कुछ कहा था, वह संगठन के लोगों को ठीक लगता था। आज कुछ कहता हूं, नहीं ठीक लगता है। वे मुश्किल में पड़ जाते हैं। मेरी तो उनसे कोई शर्त नहीं है, उनसे मैं बंधा हुआ नहीं हूं, इसलिए जितनी प्रवृत्तियां चलती हैं, जिन्हें मेरी बात ठीक लगती है, उनके द्वारा चलती हैं।

रविवार, 20 अगस्त 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-15




देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो
पंद्रहवां प्रवचन
भौतिक समृद्धि अध्यात्म का आधार

जो ठीक है और सच है वह मुझे कहना ही पड़ेगा। इसकी मुझे जरा भी परवाह नहीं। आखिर जो सत्य है, लोगों को उसके साथ आना पड़ेगा--चाहे वे आज दूर जाते हुए मालूम पड़ें। और लोग पास हैं इसलिए मैं असत्य नहीं बोल सकता। क्योंकि सच जब भी बोला जाएगा, तब भी प्राथमिक परिणाम उसका यही होगा कि लोग दूर भागेंगे। क्योंकि हजारों वर्षों की धारणा में वे पले हैं, उस पर चोट पड़ेगी। सत्य का हमेशा ही यही परिणाम हुआ है। सत्य हमेशा डिवास्टेंटिंग है। एक अर्थ है कि वह जो हमारी धारणा है उसको तो तोड़ डालेगा। और अगर धारणा तोड़ने से हम बचना चाहें तो हम सत्य नहीं बोल सकते। जान कर मैं किसी को चोट नहीं पहुंचाना चाह रहा हूं। डेलिब्रेटली मैं किसी को चोट नहीं पहुंचाना चाहता। लेकिन सत्य जितनी चोट पहुंचाता है उसमें मैं असमर्थ हूं, उतनी चोट पहुंचेगी। उसको बचा भी नहीं सकता हूं। फिर मैं कोई राजनीतिक नेता नहीं हूं कि मैं इसकी फिक्र करूं कि लोग मेरे पास आएं, कि मैं इसकी फिक्र करूं कि पब्लिक ओपिनियन क्या है?

शनिवार, 19 अगस्त 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-14



देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

चौदहवां प्रवचन
पूंजीवाद का दर्शन

इस वक्त तकलीफ यह है कि समाजवादी तो कह रहा है, और पूंजीवाद चुप है, वह सब देख रहा है। अपने घर में बैठ कर कह रहा है कि यह क्या हो रहा है। तब वह मर ही जाएगा, कोई उपाय नहीं है।

समाजवादी आपके पास आकर कहता नहीं है कि आप गलत बात कर रहे हैं?

मुझसे कोई आकर कहे तो मैं सदा तैयार हूं समझने को, अपनी बात समझाने को। अगर आप किसी बात को ठीक से कह रहे हैं और ठीक है बात, तो बहुत कठिनाई है एंटी सोशलिज्म की बात में। तो फिलासफी नहीं बना सकेंगे आप, इसलिए कहते हैं। जब तक आपके पास अपने आर्ग्युमेंट न हों...सोशलिज्म के पास अपने आर्ग्युमेंट हैं इसलिए आप परेशानी में पड़ जाते हैं। आपके पास आर्ग्युमेंट हैं इसलिए आप परेशानी में पड़ जाते हैं। आपके पास आर्ग्युमेंट नहीं हैं। और बिना आर्ग्युमेंट के आप जब कुछ कहते हैं तो ऐसा लगता है कि सिर्फ आपका इंट्रेस्ट है इसलिए आप बकवास कर रहे हैं।

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-13



देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

तेरहवां प्रवचन
समाजवाद: पूंजीवाद का विकास

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

मेरे खयाल में तो अगर कोई बात सत्य है, उपयोगी है, तो सत्य अपना माध्यम खोज ही लेता है। नहीं अखबार थे तब की दुनिया में, सत्य मरा नहीं। बुद्ध के लिए कोई अखबार नहीं था, महावीर के लिए कोई अखबार नहीं था, क्राइस्ट के लिए कोई अखबार नहीं था। तो भी क्राइस्ट मर नहीं गए। अगर बात में कुछ सच्चाई है, तो सत्य अपना माध्यम खोज लेगा। अखबार भी उसका माध्यम बन सकता है। लेकिन अखबार की वजह से कोई सत्य बचेगा, ऐसा नहीं है। या अखबार की वजह से कोई असत्य बहुत दिन तक रह सकता है, ऐसा भी नहीं है। माध्यम की वजह से कोई चीज नहीं बचती है, कोई चीज बचने योग्य हो, तो माध्यम मिल जाता है। अखबार भी मिल ही जाएगा। नहीं मिले, तो भी इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए। हम जो कह रहे हैं, वह सत्य है, इसकी चिंता करनी चाहिए। अगर वह सत्य है तो माध्यम मिलेगा। और नहीं मिला तो भी क्या हर्ज है, तो भी कोई हर्ज नहीं है।

बुधवार, 16 अगस्त 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-12



देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

बारहवां प्रवचन
समाजवाद का पहला कदम: पूंजीवाद

जैसे ही समाज में सुविधा बढ़ती है, सुख बढ़ता है, धन बढ़ता है, वैसे ही परेशानी बढ़ती है। जब आप भी सुखी थे तो आपमें भी परेशान आदमी पैदा हुआ है। हरे राम जो आप भज रहे थे, वह आपके सुखी समाज ने पैदा किया था, वह गरीब आदमी ने पैदा नहीं किया था। वह बुद्ध या महावीर जैसे अमीर घर के बेटे जाकर हरे राम कर रहे थे। एक गरीब आदमी इतना परेशान है कि और परेशान होने का उसे उपाय नहीं है। इसलिए यह जो आप सोचते हैं, एस्केपिज्म नहीं है, यह सुविधा है जो कि आपको...होता क्या है, कठिनाई क्या है, मुझे एक तकलीफ है, मुझे खाना नहीं मिल रहा, तो मेरा चौबीस घंटा तो खाना जुटाने में व्यतीत होता है। मुझे रहने को मकान नहीं है, तो मैं उसमें परेशान हूं, और मेरे सारे सपने इसके होते हैं कि मुझे खाना कैसे मिल जाए, मकान कैसे मिल जाता है, कपड़ा कैसे मिल जाए, एक औरत कैसे मिल जाए?

मंगलवार, 15 अगस्त 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-11



देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

ग्यारहवां प्रवचन
गांधीवाद ही नहीं, वाद मात्र के विरोध में हूं

आपके प्रवचनों से जो सारा ही गुजरात में एक हलचल मच गई है। तो इसमें आप खुलासा कर सकते हैं?

किस संबंध में? कुछ एक-एक बात...

अगर गांधीजी के बारे में बोलेंगे और किसी व्यक्ति के बारे में बोलेंगे, तो आपको बोला है, इस गैर-संदिग्ध होगी यह। आज तो हमने सुना, तो उसमें कोई गैर-संदिग्ध नहीं होती है। न आपने गांधीजी की निंदा की है, न ही क्राइस्ट की। मगर यह गैर-संदिग्ध हो गई है सारे गुजरात में कि आपने गांधीजी की निंदा की या नेहरू जी की निंदा की, तो इसमें आप कुछ खुलासा कर सकते हैं?

किसी व्यक्ति की निंदा करने का मेरे मन में कोई सवाल ही नहीं है। और व्यक्ति की निंदा का कोई प्रयोजन भी नहीं है। वाद की जरूर मेरे मन में बहुत निंदा है। वाद, संप्रदाय--चाहे वह राजनैतिक हो, चाहे धार्मिक हो, सब तरह के बाड़े टूटने चाहिए, और मनुष्य का मन सोचने-समझने के लिए मुक्त होना चाहिए।

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-10



देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

दसवां प्रवचन
मेरी दृष्टि में रचनात्मक क्या है?
मेरे प्रिय आत्मन्!

बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं। एक मित्र ने पूछा है कि मैं बोलता ही रहूंगा, कोई सेवा कार्य नहीं करूंगा, कोई रचनात्मक काम नहीं करूंगा, क्या मेरी दृष्टि में सिर्फ बोलते ही जाना पर्याप्त है?

इस बात को थोड़ा समझ लेना उपयोगी है। पहली बात तो यह कि जो लोग सेवा को सचेत रूप से करते हैं, कांशसली, उन लोगों को मैं समाज के लिए अहितकर और खतरनाक मानता हूं। सेवा जीवन का सहज अंग हो छाया की तरह, वह हमारे प्रेम से सहज निकलती हो, तब तो ठीक; अन्यथा समाज-सेवक जितना समाज का अहित और नुकसान करते हैं, उतना कोई भी नहीं करता है।
समाज-सेवा भी अहंकारियों के लिए एक व्यवसाय है। दिखाई ऐसा पड़ता है कि समाज-सेवक विनम्र है; सबकी सेवा करता है; लेकिन सेवक के अहंकार को कोई देखेगा तो पता चलेगा कि सेवक भी सेवा करके मालिक बनने की पूरी चेष्टा में संलग्न होता है।

रविवार, 13 अगस्त 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-09



देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

नौवां प्रवचन
गांधी का चिंतन अवैज्ञानिक है

...व्यवहार करते हैं। ये दोनों तरकीबें हैं। जिंदा आदमी को मार डालो और मरे हुए आदमी की पूजा करो। ये छूटने के रास्ते हैं, ये बचने के रास्ते हैं। फिर पूजा भी हम उसी की करते हैं जिसे हमने बहुत सताया हो। पूजा मानसिक रूप से पश्चात्ताप है। वह प्रायश्चित्त है। जिन लोगों को जीते जी हम सताते हैं, उनके मरने के बाद पूरा समाज उनकी पूजा करता है; ऐसे प्रायश्चित्त करता है। वह जो पीड़ा दी है, वह जो अपराध किया है, वह जो पाप है भीतर, उस पाप का प्रायश्चित्त चलता है, फिर हजारों साल तक पूजा चलती है। पूजा किए गए अपराध का प्रायश्चित्त है। लेकिन वह भी अपराध का ही दूसरा हिस्सा है।
गांधी को जिंदा रहते में हम सताएंगे, न सुनेंगे उनकी, लेकिन मर जाने पर हम हजारों साल तक पूजा करेंगे। यह गिल्टी कांसियंस, यह अपराधी चित्त का हिस्सा है यह पूजा। और फिर इस पूजा के कारण हम सोचने-विचारने को राजी नहीं होंगे। पहले भी हम सोचने-विचारने को राजी नहीं होते। गांधी जिंदा हों तो हम सोचने-विचारने को राजी नहीं हैं।

शनिवार, 12 अगस्त 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-06



देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

छठवां-प्रवचन
तोड़ने का एक और उपक्रम

मेरे प्रिय आत्मन्!
मित्रों ने बहुत से प्रश्न से पूछे हैं। एक मित्र ने पूछा है: महापुरुषों की आलोचना की बजाय उचित होगा कि सृजनात्मक रूप से मैं क्या देखना चाहता हूं देश को, समाज को, उस संबंध में कहूं।

लेकिन आलोचना से इतने भयभीत होने की क्या बात है। क्या यह वैसा ही नहीं है हम कहें कि पुराने मकान को तोड़ने की बजाय नये मकान को बनाना ही उचित है? पुराने को तोड़े बिना नये को बनाया कब किसने है? और कैसे बना सकता है? विध्वंस भी रचना की प्रक्रिया का हिस्सा है। तोड़ना भी बनाने के लिए जरूरी हिस्सा है। अतीत की आलोचना भविष्य में गति करने का पहला चरण है और जो लोग अतीत की आलोचना से भयभीत होते हैं, वे वे ही लोग हैं जो भविष्य में जाने में सामर्थ्य भी नहीं दिखा सकते हैं।
लेकिन इतना भय क्या है? सृजनात्मक आलोचना, एक क्रिएटिव क्रिटिसिज्म से इतना भय क्या है? क्या हमारे महापुरुष इतने छोटे हैं कि उनकी आलोचना से हमें भयभीत होने की जरूरत पड़े। और अगर वे इतने छोटे हैं तब तो उनकी आलोचना जरूर ही होनी चाहिए, क्योंकि उनसे हमारा छुटकारा हो जाएगा। और अगर वे इतने छोटे नहीं हैं तो आलोचना से उनका कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है।

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-05



देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो
पांचवां-प्रवचन
अतीत के मरघट से मुक्ति

मेरे प्रिय आत्मन्!
आज ही एक पत्र में मुझे स्वामी आनंद का एक वक्तव्य पढ़ने को मिला। और बहुत आश्चर्य भी हुआ, बहुत हैरानी भी हुई। स्वामी आनंद से किसी ने पूछा कि मैं जो कुछ गांधीजी के संबंध में कह रहा हूं उसके संबंध में आपके क्या खयाल हैं? स्वामी आनंद ने तत्काल कहा, उस संबंध में मैं कुछ भी नहीं कहना चाहता हूं। शिष्टाचार वश शायद उनके मुंह से ऐसा निकल गया होगा, क्योंकि यह कहने के बाद वे रुके नहीं और जो कहना था वह कहा। ऊपर से ही कह दिया होगा कि कुछ नहीं कहना चाहता हूं, लेकिन भीतर आग उबल रही होगी वह पीछे से निकल आई, इससे रुकी नहीं। आश्चर्य लगा मुझे कि पहले कहते हैं कि कुछ भी नहीं कहना चाहता हूं और फिर जो कहते हैं! आदमी ऐसा ही झूठा और प्रवंचक है। शब्दों में कुछ है, भीतर कुछ है। कहता कुछ है, कहना कुछ और चाहता है। उन्होंने जो कहा वह और भी हैरानी का है।
स्वामी आनंद तो मुझसे भलीभांति परिचित हैं। लेकिन, ऐसी जानकारी भी उनकी होगी, यह मुझे पता नहीं था। उन्होंने कहा कि नहीं कुछ कहना चाहता हूं, और फिर कहा कि अगर एक कौआ मस्जिद पर बैठ कर अपने को मुल्ला समझने लगे, तो इसमें कुछ कहने की बात नहीं। स्वामी आनंद से मैं परिचित हूं। लेकिन मुझे इसका परिचय नहीं था कि उनका कौओं से परिचय है।

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-04



देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

चौथा-प्रवचन
लकीरों से हट कर

मित्रों ने बहुत से प्रश्न पूछे हैं। एक मित्र ने पूछा है कि गांधीजी ने दरिद्रों को दरिद्रनारायण कहा, इससे उन्होंने दरिद्रता को कोई गौरव-मंडित नहीं किया है, कोई ग्लोरीफाई नहीं किया है।

शायद आपको पता न हो, दरिद्रनारायण शब्द गांधीजी की ईजाद है। हिंदुस्तान में एक शब्द चलता था, वह था लक्ष्मीनारायण। दरिद्रनारायण शब्द कभी नहीं चलता था, चलता था लक्ष्मीनारायण। मान्यता यह थी कि लक्ष्मी के पति ही नारायण हैं। ईश्वर को भी हम ईश्वर कहते हैं, ऐश्वर्य के कारण। वह शब्द भी ऐश्वर्य से बनता है। लक्ष्मी के पति जो हैं वह नारायण हैं। समृद्धनारायण, ऐसी हमारी धारणा थी। हजारों साल से वही धारणा थी। धारणा यह थी कि जिनके पास धन है उनके पास धन पुण्य के कारण है, परमात्मा की कृपा के कारण है। धन का एक महिमावान रूप था, धन गौरव-मंडित था, धन की ग्लोरी थी हजारों वर्षों से। दरिद्र दरिद्र था पाप के कारण, अपने पिछले जन्मों के पापों के कारण दरिद्र था। धनी धनी था अपने पिछले जन्मों के पुण्यों के कारण। धन प्रतीक था उसके पुण्यवान होने का, दरिद्रता प्रतीक थी उसके पापी होने का। यह हमारी धारणा थी।

शुक्रवार, 11 अगस्त 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-03



देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

तीसरा प्रवचन
एक और असहमति
मेरे प्रिय आत्मन्!

मैं कोई राजनीतिज्ञ नहीं हूं और न ही मैंने अपने किसी पिछले जन्म में ऐसे कोई पाप किए हैं कि मुझे राजनीतिज्ञ होना पड़े। इसलिए राजनीतिज्ञ मुझसे परेशान न हों और चिंतित न हों। उन्हें घबड़ाने की और भयभीत होने की कोई भी जरूरत नहीं है। मैं उनका प्रतियोगी नहीं हूं, इसलिए अकारण मुझ पर रोष भी प्रकट करने में शक्ति जाया न करें। लेकिन एक बात जरूर कह देना चाहता हूं, हजारों वर्ष तक भारत के धार्मिक व्यक्ति ने जीवन के प्रति एक उपेक्षा का भाव ग्रहण किया था।
गांधी ने भारत की धार्मिक परंपरा में उस उपेक्षा के भाव को आमूल तोड़ दिया है। गांधी के बाद भारत का धार्मिक व्यक्ति जीवन के और पहलुओं के प्रति उपेक्षा नहीं कर सकता है। गांधी के पहले तो यह कल्पनातीत था कि कोई धार्मिक व्यक्ति जीवन के मसलों पर चाहे वह राजनीति हो, चाहे अर्थ हो, चाहे परिवार हो, चाहे सेक्स हो--इन सारी चीजों पर कोई स्पष्ट दृष्टिकोण दे। धार्मिक आदमी का काम था सदा से जीवन जीना सिखाना नहीं, जीवन से मुक्त होने का रास्ता बताना। धार्मिक आदमी का स्पष्ट कार्य था लोगों को मोक्ष की दिशा में गतिमान करना।

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-02



देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

दूसरा प्रवचन
संचेतना के ठोस आयाम

कुछ मित्रों ने कहा है कि गांधीजी यंत्र के विरोध में नहीं थे। और मैंने कल सांझ को कहा कि गांधीजी यंत्र, केंद्रीकरण विकसित तकनीक के विरोध में थे।

गांधीजी की उन्नीस सौ अठारह से लेकर उन्नीस सौ अड़तालीस तक की चिंतना को हम देखेंगे तो उसमें बहुत फर्क होता हुआ मालूम पड़ता है। वे बहुत सजग आब्जर्वर थे। वे रोज-रोज, जो उन्हें गलत दिखाई पड़ता, उसे छोड़ते, जो ठीक दिखाई पड़ता उसे स्वीकार करते हैं। धीरे-धीरे उनका यंत्र-विरोध कम हुआ था, लेकिन समाप्त नहीं हो गया था।
अगर वे जीवित रहते और बीस वर्ष, तो शायद उनका यंत्र-विरोध और भी नष्ट हो गया होता। लेकिन वे जीवित नहीं रहे, और हमारा दुर्भाग्य सदा से यह है कि जहां हमारा महापुरुष मरता है वहीं उसका जीवन-चिंतन भी हम दफना देते हैं। महापुरुष तो समाप्त हो जाते हैं, उनकी जीवन-चिंतना आगे बढ़ती रहनी चाहिए। जहां महापुरुष समाप्त होते हैं वहीं उनका जीवन-दर्शन समाप्त नहीं हो जाना चाहिए। महापुरुष का शरीर समाप्त हो जाता है, उसका जीवन-चिंतन देश को आगे बढ़ाते रहना चाहिए। लेकिन हम इतने भयभीत हैं, हम इतने डरे हुए लोग हैं कि हम चिंतन को आगे ले जाना नहीं चाहते, हम चिंतन को वहीं ठोंक कर रोक देना चाहते हैं, जहां महापुरुष का शरीर गिर जाता है वहीं हम उसके चिंतन को भी दफना देना चाहते हैं। उसके ही विरोध में मैं कह रहा हूं।

गुरुवार, 10 अगस्त 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-01



देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

पहला प्रवचन
एक मृत महापुरुष का जन्म
मेरे प्रिय आत्मन्!
वेटिकन पोप अमेरिका गया हुआ था। हवाई जहाज से उतरने के पहले उसके मित्रों ने उससे कहा, एक बात ध्यान रखना, उतरते ही हवाई अड्डे पर पत्रकार कुछ पूछें तो थोड़ा सोच-समझ कर उत्तर देना। और "हां' और "न' में तो उत्तर देना ही नहीं। जहां तक बन सके, उत्तर देने से बचने की कोशिश करना; अन्यथा अमेरिका में आते ही परेशानी शुरू हो जाएगी।
पोप जैसे ही हवाई अड्डे पर उतरा, वैसे ही पत्रकारों ने उसे घेर लिया और एक पत्रकार ने उससे पूछा, वुड यू लाइक टु विजिट एनी न्युडिस्ट कैंप, वाइल इन न्यूयार्क? क्या तुम कोई दिगंबर क्लब, कोई न्युडिस्ट क्लब, कोई नग्न रहने वाले लोगों के क्लब में, न्यूयार्क में रहते समय जाना पसंद करोगे?

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-10



उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
सावन आया अब के सजन-(प्रवचन-दसवां)
दिनांक 10 जनवरी सन् 1979 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्नसार:

     भगवान,
            पल भर में यह क्या हो गया,
            वह मैं गई, वह मन गया!
            चुनरी कहे, सुन री पवन
            सावन आया अब के सजन।
      फिर-फिर धन्यवाद प्रभु!

     भगवान, जीवन के हर आयाम में सत्य के सामने झुकना मुश्किल है
      और झूठ के सामने झुकना सरल! ऐसी उलटबांसी क्यों है?

     भगवान, क्या मौत पर विजय नहीं पाई जा सकती है?

     भगवान, आप सत्य को बांटने में सदा संलग्न रहते हैं।
      आपकी अथक चेष्टा देख बस मैं चकित हूं!
      आप कहते हैं चमत्कार नहीं होते।
      मैं कैसे मानूं? आप तो जीवित चमत्कार हैं!
      मनुष्य की चेतना को जगाने का ऐसा प्रयास न पहले हुआ और न आगे होगा!
      मैं इस चमत्कार को नमस्कार करती हूं।

बुधवार, 9 अगस्त 2017

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-09



उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
वेणु लो, गूंजे धरा-(प्रवचन-नौवां)
दिनांक 09 जनवरी सन् 1979 ओशो आश्रम पूना।

प्रश्नसार:
     भगवान, आपका मूल संदेश क्या है?

     भगवान,
            जाने क्या ढूंढती रहती हैं निगाहें मेरी
            राख के ढेर में न शोला है न चिनगारी।
      जिंदगी में है तो बहुत कुछ, लेकिन जीत कर कुछ भी न मिला, कुछ न रहा।
      जिसकी आस किए बैठी हूं, वह बार-बार क्यों फिसल जाता है?

     भगवान, आपके आश्रम को देख कर दूसरे लोक की अनुभूति हुई।
      यह हमारे भारत देश में कहां तक सार्थक है?

     भगवान, मैं आचार्य तुलसी के जाने-माने श्रावकों के परिवार से हूं।
      कुछ दिनों पहले आपने उनके पंडितराज शिष्य, मुनि नथमल,
      जिनको महाप्राज्ञ युवराज की उपाधि से अभिषेक किया गया है,
      उनको मुनि थोथूमल की उपाधि दी।
      उसके बाद उनका एक लेख अणुव्रत नाम की पत्रिका में देखा
      "कितना सच, कितना झूठ' शीर्षक से,
      जिसमें उन्होंने संभोग से समाधि की चर्चा की है, जो कि उनके अधिकार का विषय नहीं है।
      मेरे देखे, न तो उनको संभोग का कोई अनुभव है, समाधि का अनुभव होने की तो बात ही दूर।
      फिर भी आप जैसे अनुभूतिपूर्ण विवेचन की ऐसी बचकानी चर्चा करते हैं--
      काम के दमन की नहीं, उदात्तीकरण की बात करते हैं।
      बड़ा ही रोष आता है। कई बार मन उनसे जाकर बात करने का होता है।

मंगलवार, 8 अगस्त 2017

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-08



उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

मेरी आंखों में झांको-(प्रवचन-आठवां)
दिनांक 08 जनवरी सन् 1979 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्नसार:

     भगवान, क्या भारतीय संस्कृति विश्व की श्रेष्ठतम संस्कृति नहीं है?

     भगवान, मनुष्य इतना दुखी और इतना उदास क्यों हो गया है?

     भगवान, जनता जिस ईश्वर को पूजती है वह ईश्वर और आपका ईश्वर क्या एक ही है?

पहला प्रश्न: भगवान, क्या भारतीय संस्कृति विश्व की श्रेष्ठतम संस्कृति नहीं है?

सुरेंद्र कुमार, मनुष्य का अहंकार बहुत से रूप लेता है। अहंकार के खेल बड़े सूक्ष्म हैं। मैं बड़ा हूं, ऐसा सीधा कहना तो मुश्किल है, परोक्ष रूप से ही कहा जा सकता है। मेरा धर्म बड़ा है, मेरा देश बड़ा है, मेरी संस्कृति बड़ी है, इन सबके पीछे घोषणा एक ही है: मैं बड़ा हूं!
और तुम सोचते हो, तुम्हीं सोचते हो कि भारतीय संस्कृति श्रेष्ठतम है? चीनी सोचते हैं चीनी संस्कृति श्रेष्ठतम है। और अमरीकी सोचते हैं कि अमरीकी संस्कृति श्रेष्ठतम है। दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं है जो ऐसा ही न सोचता हो।

रविवार, 6 अगस्त 2017

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-07



उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

संन्यास : परमात्मा का संदेश-(प्रवचन-सातवां)
दिनांक 07 जनवरी सन् 1979 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्नसार:

     भगवान, उन्नीस सौ चौंसठ के माथेरान शिविर में आपसे प्रथम मिलन हुआ था।
      माथेरान स्टेशन पर जिस प्रेम से आपने मुझे बुलाया था, वे शब्द आज भी कान में गूंजते हैं।
      उन दिन जो आंसू झर-झर बह रहे थे, वे आंसू अब तक आते ही रहते हैं।
      आपको सुनते समय, आपके दर्शन के समय यही स्थिति रहती है।
      आपके साथ रहने का, उठने-बैठने का सौभाग्य काफी सालों तक मिलता रहा है।
      आपसे प्राप्त प्रेम की जो परिपूर्ण अवस्था उस दिन थी वही परिपूर्ण अवस्था आज भी है।
      यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी और आश्चर्यजनक घटना मानती हूं।
      यह प्रेम की अवस्था मेरे जीवन के अंत समय तक रहे, ऐसा आशीर्वाद आपसे चाहती हूं!

     भगवान, एक प्रश्न के उत्तर में आपने कहा कि पत्नी को दुख मत दो। संन्यास की जल्दी न
      करो। अगर जल्दी करोगे तो तुम ही मेरे और तुम्हारी पत्नी के बीच दीवार बनोगे।
      भगवान, ठीक यही मेरे साथ हुआ है।
      आखिर पत्नी को साथ ले चलना इतना असंभव सा क्यों लगता है?
      क्या यह आकांक्षा ही गलत है?