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बुधवार, 24 मई 2017

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-06



प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्रनोंत्तर)-ओशो

दिनांक 13 जून सन् 1967 अहमदाबाद-चांदा
प्रवचन-छट्ठवां-(जीवन है द्वार)

मित्रों ने बहुत से प्रश्न पूछे हैं--एक मित्र ने पूछा है कि हमारे देश की क्या यह सबसे बड़ी बीमारी नहीं रही कि हमने बहुत ऊंचे विचार किए, लेकिन व्यवहार बहुत नीचा किया। सिद्धांत ऊंचे और कर्म बहुत नीचा। इसीलिए बहुत बड़े-बड़े व्यक्ति तो पैदा हो सके, लेकिन, भारत में एक बड़ा समाज नहीं बन सका?
इस संबंध में दो तीन बातें समझनी उपयोग की होंगी। पहली बात तो यह--यदि विचार श्रेष्ठ हो तो कर्म अनिवार्यरूपेण श्रेष्ठ हो जाता है। इस भ्रम में रहने की कोई जरूरत नहीं है कि विचार हमारे श्रेष्ठ थे और फिर कर्म हमारा निकृष्ट रहा। श्रेष्ठ विचार अनिवार्यरूपेण श्रेष्ठ कर्म के जन्मदाता बनते हैं। अगर श्रेष्ठ कर्म न जन्मा हो तो जानना कि विचार ही भ्रांत रहे होंगे, श्रेष्ठ न रहे होंगे। यह असंभव है कि विचार सत्य के हो और आचरण असत्य की और चला जाए। यह असंभव है कि ज्ञान तो स्पष्ट हो और जीवन भटक जाए। यह तो ऐसे ही हुआ कि हम कहें कि आंख तो बिलकुल ठीक थी लेकिन फिर भी हम दीवार से टकरा गए। दरवाजे से न निकल सके। अगर दीवार से टकरा गए हैं, तो आंख ठीक न रही होगी। आंख वीक रही होती तो दरवाजे से निकल गए होते। दीवार से टकराने की कोई जरूरत न थी।

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-05



प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
दिनांक 10 जून 1969, शाम अहमदाबाद-चांदा।
प्रवचन-पांचवा-(साक्षी भाव है द्वार)

मेरे प्रिय आत्मन,
पिछली चर्चाओं के आधार पर मित्रों ने बहुत से प्रश्न पूछे हैं एक मित्र ने पूछा है कि आप गांधीजी की भांति हरिजनों के घर में क्यों नहीं ठहरते हैं?

एक छोटी सी कहानी से समझाऊं। जर्मनी का सबसे बड़ा पादरी आर्च प्रीस्ट एक छोटे-से गांव के चर्च का निरीक्षण करने गया था। नियम था कि जब वह किसी चर्च की निरीक्षण करने जाए तो चर्च कि घंटियां उसके स्वागत में बजाई जाती थीं। लेकिन उस गांव के चर्च की घंटियां न बजीं। जब वह चर्च के भीतर पहुंचा तब उसने उस चर्च के पादरी को पूछा कि मेरे स्वागत में घंटियां बजती हैं हर चर्च की। तुम्हारे चर्च की घंटी क्यों नहीं बजी? उस पादरी की आदत थी, कि वह कोई भी कारण बताए, तो उसका तकिया कलाम था, वह इसी में शुरू करता था, कि इसके हजार कारण है। उसने कहा--इसके हजार कारण हैं। पहला कारण तो यह कि चर्च में घंटी भी नहीं है। उस आर्च प्रीस्ट ने कहा, बाकी कारण रहने दो, उनके बिना भी चल जाएगा। यह एक ही कारण काफी है।

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-04



प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 10 जून 1969; सुबह अहमदाबाद-चांदा ।
प्रवचन—चौथा-(ध्यान है द्वार)

संदेह पूर्ण हो तो संदेह से मुक्ति हो जाती है। विचार पूर्ण हो तो विचार से भी मुक्ति हो जाती है। असल में जो भी पूर्ण हो जाए उससे ही मुक्ति हो जाती है। सिर्फ अधूरा बांधता है। अर्द्व बांधता है। पूर्ण कभी भी नहीं बांधता है। लेकिन संदेह पूर्ण नहीं हो पाता और विचार भी पूर्ण नहीं हो पाता। जो संदेह भी करते हैं वे भी पूरा संदेह नहीं करते हैं। जो संदेह करते हुए मालूम होते हैं,उनकी भी आस्थाएं हैं। उनकी भी श्रद्धाएं है। उनका भी अंधापन है। और जो विचार करते हैं वे भी पूरा विचार नहीं करते। वे भी कुछ चीजों का बिना विचारे ही स्वीकार कर लेते हैं। संदेह वाला भी विचार को बिना विचारे स्वीकार कर लेता है। यदि कोई पूर्ण संदेह करेगा तो अंततः संदेह के ऊपर भी संदेह आ जाएगा। और यह सवाल उठेगा कि मैं संदेह भी क्यों करूं? और यह भी सवाल उठेगा--क्या संदेह से कुछ मिल सकता है? जो विचार पूर्ण करेगा, अंततः उसे यह भी ज्ञात होगा कि क्या विचार से उसे जाना जा सकता है, जिसे मैं नहीं जानता हूं? और क्या विचार से जो जाना जाएगा वह सत्य होगा ही? इस संबंध में कल थोड़ी सी बातें सुबह मैंने कहीं--

मंगलवार, 23 मई 2017

बांझ-(कहानी)--मनसा



बाँझ – कहानी

घर क्‍या था, एक भूतीय बंगला ही समझो। घर बनता है परिवार से, बच्‍चो की किलकारीयों से, इतनी बड़ी हवेली नुमा मकान के अंदर रहने को जिसमें मात्र एक पाणी हो, उसे घर कहना कुछ अनुचित सा लगता है। रहने के नाम का नाम क्या मात्र दीवरों पर आदमी की परछाई पड़ना है। एक बूढ़ी अम्‍मा कितना ओर कहां-कहां उस घर की दीवारों से अपने केा टकराये। हर कोना उसकी यादें से जूडा था। कहां वह दूध बिलोती थी,  कहां हारी लगा कर वह दूध को कढ़ने के लिए रखती थी। वहां आज भी धूए के निशान थे। कहां वह कंडे करखती थी। कहां ढिबरी का प्रकाश पूरें आंगन को ही नहीं साल ओर कोठे के कोने तक को स्वर्णिमय कर जाता था। अंदर पूजा का आला जहां वह नित नियम से देसी घी का दिया जलती थी। अब तो वहां जाने से भी अपने होने का भय लगाता है। क्या मनुष्य इतना मजबुर हो जाता है। समय की मार से की वह करहा भी नहीं पाता। क्या ऐसा नहीं होता की समय किस चुपके से आपके जीवन में बिना कोई आहाट किया चला आता है।

पोनी-(एक कुत्ते की आत्म कथा)-अध्याय-10



अध्‍याय—दसवां–(हनि का मरना)


      नि कभी कभार ही घर पर आता था। शायद दुकान पर ही आ कर वहीं से ही कुछ खा पी कर चला जाता हो। ये मैं नहीं जानता था। पर घर पर कम ही आता था। ऐसा शायद हम लोगों के आने के कारण ही हुआ होगा। क्‍योंकि वह शायद समझ गया की अब मैरा इस घर से अधिकार खत्‍म हो गया। मैं बूढा हो गया हूं। पर जिस दवाई ने मेरे शरीर पर कुछ असर दिखाया था। उसी दवाई का उसके शरीर पर कोई असर नहीं हुआ। शायद मेरी भी यही हालत होती पर अभी मैं बच्‍चा था। मेरा शरीर अभी बलिष्‍ठ था। उस की प्रतिरोधक शक्‍ति थोड़ी अधिक है। उस समय तक हानि का शरीर बूढा हो गया था। जो उस ज़हरीले खरगोश के जहर को झेल नहीं पाया जिससे उसकी हालत इतनी खराब हो गई।
उसने भी ज्‍यादा नहीं भागा। पर वह खरगोश इतना जहरीला था कि करीब एक महीने बाद उसकी मोत हो गई। पाप जी और वरूण भैया उसे एक कपड़े में बाँध कर जंगल में किन्हीं झाड़ियों में छुपा आये।  ताकी उसे कोई जंगली जानवर न खा कर बीमार न हो जाये। पर ये भी कुदरत का एक चमत्कार है या रहस्‍य है। कि कोई भी मांसाहारी पशु दूसरे मांसाहारी प्रणी को नहीं खाता। क्‍या मांसाहार से निर्मित शरीर कुछ विषाक्‍त हो जाता है?

पोनी-(एक कुत्ते की आत्म कथा)-अध्याय-09



अध्‍याय—नौवां   (खरगोश का खाना घातक)

 सुबह मम्‍मी—पापा ने हमारी कारस्‍तानी देखी तो दंग रह गये। जहां देखो वहीं मिट्टी—मिट्टी का ढेर लगा था। पैरो से खोद—खोद कर फैंकने के कारण दूर आँगन तक भी मिटटी बिखरी हुई थी। हमनें इतना गहरा गढ़ा खोद दिया, और ये तो हमारा शोभाग्‍य ही था कि उसके उपर जो पत्‍थर रखे थे वो इसी तरह से रुके हुए थे। और उसके नीचे से खोद कर खरगोश निकाल लिया गया था। उसके बाल और खून वहां चारो और बिखरा हुए थे। मेरी और जब पापा जी ने जब देखा वह तुरंत समझ गये कि ये कारस्‍तानी किस की हो सकती है। पापा जी ने मुझे देखते हुए थोड़ा मुस्‍कुराये, मैं तुरंत समझ गया कि पापा जी को सब पता चल। अब बात छुपाने से कोई लाभ नहीं है। और मैं अपनी पूछ हिलाते हुए पापा जी की और चल दिया।
मैंने आपने को सुकेड़ कर गोल मोल कर लिया और अपने कान भी बोच लिए। पापा जी ने मेरी और देखा और समझ गये कि मैं बहुत बुरी तरह से डर गया हूं। सच पूछो तो मैं इतना डर गया था कि मुझे अपने दिल की धडकन खुद ही सुनाई दे रही थी। वो ऐसे धड़क रहा था जैसे किसी लुहार की धौकनी हो या में मीलों  दौड़ कर आया हूं। पापा जी मेरे उपर झुके, तो मैं एक दम डर  के मारे जमीन पर लेट गया। मैंने सोचा अब लगा थप्‍पड़…….

पोनी-(एक कुत्ते की आत्म कथा)-अध्याय-08



अध्‍याय——आठवां  (खरगोश का खाना)

पापा और मम्‍मी जी को मैं मेहनत करते देखता तो मुझे लगता की इंसान कितनी मेहनत कर सकता है। आप को ये सब कुछ जान कर अजीब लगा होगा, कि मैं मनुष्‍य की तरह पापा मम्‍मी बोलता हूं। अब मैं भी क्‍या करू जब सब बच्‍चे उन्‍हें इसी तरह से बुलाते है तब मैं कैसे उन्‍हें किस नाम से पुकार सकता हूं। मम्‍मी पापा जी ने कभी मुझे अपने बच्‍चों से अलग नहीं समझा। और सच कहुं तो मुझे मेरी मां की याद तो कही अंधेरे कोने में दबी से दिखाई देती है।  हाँ तो मैं कह रहा था कि मानव कितना मेहनती है ताकत वर है।
आदमी सुबह से उठ कर सार दिन काम करता ही रहता है। ये सब बातें में पूरी मनुष्‍य जाति के लिए नहीं कहा रहा हूं। केवल जिन लोगों के संग—साथ मैं रहा हूं और जिन्‍हें मैंने जाना है। रम  हमारा तो सो लेना ही पूरा नहीं होता। जब देखो हमारी जाती को कोई सोने की बीमारी है। दिन—रात केवल सोना। दुकान पर दुध लाने से लेकर बेचना, फिर घर पर आकर कोन सा आराम कर लेते थे। पहले नहाते, मम्‍मी इतनी देर में खाना बना लेती थी। शायद आधे घंटे में फिर मम्‍मी जी नहाती। और दोनों ध्‍यान के कमरे में चले जाते। ये उनका रोज का नियम था। जो मेरे अचेतन में बस गया था। मैं आँख बंद कर भी आपको बता सकता था कि मम्‍मी पापा अब क्‍या कर रहे होगें।

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-03



प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 09 जून, 1969 रात्रि अहमदाबाद-चांदा
प्रवचन-तीसरा-(तुलना रहितता है द्वार)

बहुत से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं। एक मित्र ने पूछा है कि मेरे विचार एम. एन. राय के विचारों से नहीं मिलते हैं? एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि मैं माओ के विचार से सहमत हूं। एक तीसरे मित्र ने पूछा है कि क्या कृष्णमूर्ति और मेरे विचारों के बीच कोई समानता है? और इसी तरह के कुछ और प्रश्न भी मित्रों ने पूछे हैं।
इस संबंध में कुछ बात समझ लेनी उपयोगी होगी। पहली बात तो यह कि मैं किसी से प्रभावित होने में या किसी भी प्रभावित करने में विश्वास नहीं करता हूं। प्रभावित होने और प्रभावित करने दोनों को, आध्यात्मिक रूप से बहुत खतरनाक, विषाक्त बीमारी मानता हूं। जो व्यक्ति प्रभावित करने की कोशिश करता है वह दूसरे की आत्मा को नुकसान पहुंचाता है। और जो व्यक्ति प्रभावित होता है। वह अपनी ही आत्मा का हनन करता है। लेकिन इस जगत में बहुत लोगों ने सोचा है, बहुत लोगों ने खोजा है। अगर आप भी खोज करने निकलेंगे तो उस खोज के अंतहीन रास्ते पर, उस विराट जंगल में जहां बहुत से पथ-पगडंडिया हैं बहुत बार बहुत से लोगों से थोड़ी देर के लिए मिलना हो जाएगा और फिर बिछुड़ना हो जाएगा।

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-02



प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 09 जून सन् 1969 अहमदाबाद-चांदा
प्रवचन-दूसरा-(प्रवाह शीलता है द्वार)

विश्वास अंधा द्वार है। अर्थात विश्वास द्वार नहीं है, केवल द्वार का मिथ्या आभास है। मनुष्य जो नहीं जानता है उसे इस भांति मान लेता है, जैसे जानता हो। मनुष्य के पास जो नहीं है, उसे वह इस भांति समझ लेता है वह उसके साथ हो। और तब खोज बंद हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं है।
मैंने सुना है, एक अंधेरी रात में एक जंगल से दो संन्यासी गुजरते थे। एक वृद्ध संन्यासी है, एक युवा संन्यासी है। अंधेरी रात है। बियावान जंगल है। अपरिचित रास्त है, गांव कितनी दूर है, कुछ पता नहीं। वह वृद्ध संन्यासी तेजी से भागा चला जाता है। कंधे पर झोला लटकाया है, उस जोर से हाथ से पकड़े हुए हैं। और बार-बार अपने युवा संन्यासी से पूछता है, कोई खतरा तो नहीं, कोई भय तो नहीं, कोई चिंता तो नहीं? युवा संन्यासी बहुत हैरान है, क्योंकि संन्यासी को भय कैसा, खतरा कैसा? और अगर संन्यासी को भय हो, खतरा हो, तो फिर ऐसा कौन होगा जिसे भय न हो, खतरा न हो? वह बहुत हैरान है कि आज यह वृद्ध संन्यासी बार-बार क्यों पूछने लगा है कि भय तो नहीं है कोई, खतरा तो नहीं है।

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-01



प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
दिनांक 08 जून सन् 1969 अहमदाबाद-चांदा
प्रवचन-पहला-(समग्रता है द्वार)

मेरे प्रिय आत्मन,
सुबह की चर्चा के संबंध में बहुत से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं। एक मित्र ने पूछा है कि क्या ईश्वर है, जिसकी हम खोज करें? और भी दो तीन मित्र ने ईश्वर के संबंध में ऐसे ही प्रश्न पूछे हैं कि क्या आप ईश्वर को मानते हैं, क्या अपने ईश्वर का दर्शन किया है? कुछ मित्रों ने संदेह किया है कि ईश्वर तो नहीं है, उसको खोजें ही क्यों?

इसे थोड़ा समझ लेना उपयोगी होगा। मैं जब परमात्मा का, प्रभु का, या ईश्वर शब्द का प्रयोग करता हूं तो मेरा प्रयोजन है, उससे जो है। दैट, व्हिच इज। जो है। जीवन है। अस्तित्व है। हम नहीं थे तब भी अस्तित्व था। हम नहीं होंगे, तब भी अस्तित्व होगा। हमारे भीतर भी अस्तित्व है। जीवन है। जीवन की यह समग्रता, यह टोटलिटी ही परमात्मा है। इस जीवन का हमें कुछ भी पता नहीं, किया क्या है? स्वयं के भीतर भी जो जीवन है उसका भी हमें कोई पता नहीं कि वह क्या है?
एक फकीर था बायजीद--कोई उसके द्वार पर दस्तक दे रहा है। और कह रहा है, द्वार खोलो। बायजीद भीतर से पूछता है, किसको बुलाते हो, किसको खोजते हो? कौन द्वार खोले? अगर आपके घर किसी ने दस्तक दी होती तो आप पूछते कौन है? कौन बुलाता है?

सोमवार, 22 मई 2017

पोनी-(एक कुत्ते की आत्म कथा)-अध्याय-07



अध्‍याय—सातवां-(चिडियाओं का उड़ाना)

 टोनी के साथ खेलना बहुत अच्छा लगता था। एक बात और, टोनी को देख कर पहले मुझे जितना बुरा लगा, वा इतना बुरा नहीं था, वो मेरी भूल या जलन कह लो वह तो बहुत ही अच्छा था। सच कहुँ तो मुझे वह बहुत अच्छा लगने लगा था, उसके संग साथ चिपट के सोना, कैसे नरम मुलायम बाल थे उसके जब शेम्पो से धोएं होते तो केसी मधुर—मन मोहक महक आती थी। जब दोनों को खेल मैं बहुत मस्ती चढ़ जाती आपस मैं खेलते हुये जो भी पास मैं सुविधा जनक चीज़ पकड़ मैं आ जाती उसी से हम दोनों छीना झपट कर खेलना शुरू कर देते थे। अब हमारे लिए विशेष खिलौनों की आवश्यकता नहीं थी, फिर लाता भी कौन हिमांशु भैया के पास तो खिलौनों की पुरी दुकान थी। वो तो स्कूल गया होता था, मैं और टोनी उन्हे निकाल कर खूब मुहँ से पकड़ के नोचते, खिंचते, फ्फेड़ते और खूब भागते थे।

पोनी-( एक कुत्ते की आत्म कथा)-अध्याय-06


अध्‍याय—छट्ठवां- (जंगल की मस्‍ती)

      विवार छुटटी का दिन, सभी बच्चों के आराम का दिन होता था। पूरे हफ्ते की कच्ची नींद आज बिस्तरे मैं खूबकुनमुनाते से पूरी करने की कोशिश की जाती थी। जब भी उन्‍हें जगाने के लिए उनकी चादर को खिचता तो अपने शरीर पर फिर से पुरी तरह से पूरे शरीर पर वापस खींच कर औड करसोने का भ्रम पैदा करने की कोशिश करते। चादर पर शारीर को तान—तान कर कैसे तम्बू सा बना लेते थे, मेरा मन करता था उस में भाग कर घुस जाऊँ पर डाट पड़ने के डर से बड़ी मुश्‍किल से रोक पाता था। सोन वाली चद्दर पर सिलवटों परसिल बटे डाली जाती हैं इधर से उधर करवटें ले कर। बच्चे आँखें खोल—खोल कर चारों तरफ़ देख लेते हैं, फिर आँख बंद कर लेते हैं, छूटी की खुशी चेहरे पर लिए हुए।जब मैं उसके पास खड़ा होकर भौंकता तो वह कैसी मधहोशी के साथ आलसाया पन लिये मुझे देखते। इस सब को देख मुझे खीज भी बहुत होती की आज तो जंगल में जाना है वहाँ की खूली हवा में कितनी मस्‍ती भरी होती है। मैं बार—बार कोशिश करता उनके बिस्तरे पर चढने की पर सब बेकार जाती।

पोनी-(एक कुत्ते की आत्म कथा)-अध्याय-05



अध्‍याय—5 (दिनो  की गहराई)


न दिनों दिन इतने लम्बे और उबाऊ भरे होते थे,शरद ऋतु के मध्‍यकाल में ही होता है। फागुन मास शरद ओर गिरीक्षम ऋतु का संधि काल ही समझो। इसमें एक तरफ तो सूहाना पन होता है ओर दूसरी ओर एक अलसायापन। धूप सूमधुर तो लगती है परंतु कुछ ही क्षण के बाद वह वदन पर चूबने लग जाती है। धूप की वहनता शरीर अपने पर से गुजरने भर देना चाहता है। वह एक उथले पानी की तरह मानों आप गुजरोरूको मत। पूरी प्रकृति इस समय सझ धज कर कैसे रमणीय लगती है। देखना हो तो आप जहां तक देख सकेंगे प्रकृति कैसी नये कौमलपत्‍तो से सजीसंवरीदेखाई देगी। प्रकृति कैसे प्रत्येक मौसम को अपने पर पूर्णता से बीतने देती है। यह तो मुश्‍किल थी कि कितनासोऊं मैं सौ—सौ कर भी उक्तता जाता था। जितना सौ सकता था उतना सोने की कोशिश करता था, परमेरे पास सोने के सिवाय और क्या काम था, इस स्थिति मैं मुझे अकेला पन बहुत सालता था, फिर प्रत्‍येक प्राणी को अपने जैसे संगी—साथी की ज़रूरत महसूस होती हैं। वो मेरी भाषा समझे, मेरे अंग—संग लिपट कर सोये, मेरे साथ लड़े—झगड़े, खेले—कुंदे या हम एक दूसरे से खूब  भागे और मेरे साथ खाना खाए। यही प्रकृति के विकास का तरीका है। परंतु मनुष्‍य तो अपनी को परिमाजित कर के खूश है वह तो अपने ह्रदय ओर दूसरी अंतियज्ञान को लगभग भूल गया है। उसे तो अपने मस्‍तिष्‍क पर बहुत गुमान है।

रविवार, 21 मई 2017

भोला-(कहानी्-मनसा



भोला


      भोला ये केवल एक नाम ही नहीं है। ये उस चलते-फिरते हाड़ मांस के शरीर मैं झलकती एक व्‍यक्‍ति के व्यक्तित्व कि कोमलता, गरिमा, उसका  माधुर्य उसके पोर-पोर से टपकती ही नहीं झरता हुआ आप देख सकते थे। भोला की मनुष्यता, मनस्विता, महिमा या गरिमा उसके दैनिक छोटे बड़े कार्यो मे देखी जा सकती थी। उसकी विशालता को मैने उसके अंतिम चरण मे एक बूढे होते वृक्ष के रूप में जाना था। उसका क्षीण होता शरीर भी बढ़ते उस अपूर सौन्दर्य को कम नहीं कर पर रहा था। परन्‍तु उसकी सुकोमल व पारदर्शी स्फटिक गहरी झील में प्रतिबिम्बित देख सकते थे। उसका शरीर जरूर झुरियां से भर गया था। पर अब भी उसमें एक सुकोमल ताजगी, एक जीवन्तता साफ दिखाई दे रही थी। मानों एक विशाल वृक्ष का खुरदरापन और उबड़-खाबड, रूखा पन भी अपने में एक आकर्षणता लिए हुये था।  जिस तरह से एक वृक्ष  का सौन्दर्य  केवल उसकी कोमलता ही नहीं बखानती, उसकी पूर्णता उसके पल्लव-पल्लव से टपक कर, झूमती लता पर इठलाते हुये पत्ते उसके रूप और आकरशण की कहानी कह रहे थे।

नीम का दर्द-(कहानी)-मनसा



नीम का दर्द—कहानी
नीम के उस पेड़ को अपनी विशालता, भव्‍यता और सौंदर्य पर बहुत गर्व था। गर्व हो भी क्‍यों न प्रत्‍येक प्राणी उसके रंग रूप और आकार को देख कर कैसा गद-गद हो जाता था। पक्षी उस पर आकर बैठते और अठखेलिया करते। आपस में लड़ते झगड़ते कूद-फुांदक कर कैसे मधुर गीतों की किलकारीयाँ गाते थे। मानों आपके कानों में कहीं दूर से घंटियों को मधुर नाद आ रहा है। कोई अपनी चोंच टहनियों पर रगड़-रगड़ कर उसे साफ़ कर रहा होता। कोई चोंच मार कर आपस में प्रेम प्रदर्शित कर रहा होता। आप बस यूं कह लीजिए की उस नीम के पेड़ के चारों और रौनक मेला लगा रहता था। उस सब को देख कर नीम भी मारे खुशी के पागल हुआ रहता था। उस नीम का तना हमारे आंगन में जरूर था पर उसकी शाखा-प्रशाखाओं दूर पड़ोसियों के छत और आंगन तक पसरी फैली हुई थी। वो इतना ऊँचा और विशाल था कि ये बटवारे की छोटी-छोटी चार दीवारी उसकी महानता के आगे बहुत ही नीची थी, इन दीवारों की उँचाई का कोई महत्‍व नहीं था उसकी विशालता के आगे। या यूं कह लीजिए कि नीम कि उँचाई के आगे वह बोनी महसूस होती थी। जड़ें और तना भले ही हमारे आंगन में हो, परन्‍तु उसकी छत्र छाया का आशीर्वाद दुर दराज के घरों को भी उतना ही मिलता था। ये शायद उसकी बुजुर्गता और महानता का ही वरदान था।

शनिवार, 20 मई 2017

पोकर-(कहानी्)- 'मनसा'



पोकर 


      बढ़ी अम्माँ बैल गाडियों की लीक के किनारे बैठी दूर से देखने पर ऐसी लग रही थी, जैसे कोई मूर्ति बैठी हो।  उसका शरीर एक दम थिर था, बिना हलचल के शांत मौन मुद्रा लिए हुए पाषाण वत लग रही थी। कितनी-कितनी देर तक बिना हीले-डूले अपनी मुद्रा बदले वह इसी तरह वह सालों से बैठती आ रही थी। उसके चेहरे की झुर्रियां में दुख, पीड़ा और संताप की लकीरें साफ देखाई दे रही थी। सालों से अम्माँ इसी तरह नितान्त अकेली यहाँ आकर रोज बैठती थी। और दूर उन धुँधली आँखों से क्षतिज का पोर-पोर निहारती रहती थी। अंबर में बनती मिटती धूधूंली उन अकृर्तियां सा ही उसके मन मष्तिष्क कुछ कुछ छपता मिटता रहता। परंतु उसको न वह किसी पर विभेद होने देती थी ओर नहीं उसे कोई जान पाया। दूर कहीं जब कोई आहट या बेलों के पैरो से उड़ती घुल तब वह अपना दायां हाथ आँखों पर हाथ रख अपनी मुद्रा बदल कर उस और देखने की बेकार कोशिश करती थी। क्‍योंकि अब अम्‍मा की आँखो कमजोर ओर धुँधली हो गई थी। शायद यह मूर्ति किसी अर्पूणता को पूर्णता में बदलने के लिए किसी आने वाले किसी कलाकार की राह तक रही हो। दूर तक फैला सफ़ेद काँस जैसे उसके बालों का विस्तार हो। पास पत्थर मिट्टी के टिब्बा उसके रूखे चेहरे जैसे लग रहे थे। और तालाब का पानी सूख कर चितका भर रह ऐसा लग रहा था, जैसे अम्माँ की आँखों में उतरा मोतियाबिंद। मानों उसके इस दूख को आस पास की पूरी पकृति ने अपने पर उकेर लिया हो। देखते हैं उसकी धुँधली आस कब तक हिलते हाथ की धुँधली परछाई को, आस भरी बूढ़ी आँखें निहार सकेगी।

पोनी -(एक कुत्ते की आत्म कथा)-अध्याय-04



अध्‍याय—चौथा-( मेरी नई दूनियां)


ब मेरे लिए तो ये एक नई ही दुनिया थी। एक दम से अनजानी अनसमझी अनसुलझी एक तिलिस्म की तरह से मुझे लग रही थी। जिसे मैं समझ नहीं पा रहा था। मैं इसके बारे में ना के बराबर रही जानता था।  मां जी सुबह जब उठाती तो मेरी समझ में नहीं आता था ये मानव इतनी जल्‍दी से उठ कर क्‍या करता है। पापा जी भी सुबह सवेरे ही स्‍कूटर ले कर बहार चले जाते थे। में बिस्‍तरे में लेटा—लेटा ये सब देखता रहता पर में इन्‍हें एक तारतम्‍यता में जोड़ नहीं पा रहा था। ये सब एक टूकडे-टूकडे मेरी समझ में नहीं आते थे। जैसे भिन्‍न-भिन्‍न छाया चित्र अलग-अलग रख दिये जाये तो उनसे कोई चलचित्र नहीं बन सकता। मेरा छोटा सा मस्‍तिष्‍क इसके लिए तैयार नही था। इनका ताल मेल नहीं बिठा पा रहा था। कि ये क्‍या करते कहां जाते है। फिर बच्‍चों को उठाया जाता स्कूल भेजने के लिए, तब मुझे पहली बार ये सब देख कर बड़ा अचरज हुआ। क्‍योंकि ये सब मेरे लिए नया और जिज्ञासा का प्रश्न था। उन बच्‍चों को सोते से क्‍यों उठाना पड़ा। हमे तो हमारी मां कभी नहीं उठाती क्‍या हमारी स्‍वतंत्रता इन मनुष्‍यों से कुछ भिन्‍न है। बच्‍चो के चेहरे कैसे उदास ओर मायूस होते जब वे स्‍कूल के लिए जाते माने उन्‍हें कोई सज़ा दी जा रही है।

पोनी-(एक कुत्ते की आत्म कथा)-अध्याय-03



अध्‍याय—तीसरा  (काल चक्र एक नियती)


काल चक्र का चलना एक नियति हैं, इसकी गति मैं समस्वरता हैं, एक लय वदिता हैं, एक माधुर्य हैं पूर्णता है।जब वह चलता है तो हमे उसकी परछाई दिखाई देती है। जैस एक छाया दीवार से होकर गुजर रही है। वह अपने निशान तक नहीं छोडता। जो चारों तरफ फैले जड़ चेतन का भेद किए बिना,सब में एक धारा प्रवाह बहती रहती है। उसके साथ बहना ही आनंद हैं, उत्सव हैं, जीवन की सरसता हैं। उसका अवरोध दु:ख, पीड़ा और संताप ही लाता हैं। लेकिन हम कहां उसे समझ पाते हमे तो खोए रहते है अपने मद में अंहकार में, पर की लोलुपता में और सच कहूं तो इस मन ने  मनुष्‍य के साथ रहने से कुछ नये आयाम छुएँ है। मन में कुछ हलचल हुई है। कुछ नई तरंगें उठी है। मुझे पहली बार मन का भास इस मनुष्‍य  के साथ रहते हुए हुआ।
ऐसा नहीं है कि मन नहीं होता पशु—पक्षियों में, होता तो है परंतु  वो निष्क्रिय होता है। सोया हुआ कुछ—कुछ अलसाया सा जगा हुआ। लेकिन मनुष्‍य  में यही मन क्रियाशील या सक्रिय हो जाता है। लेकिन मनुष्‍य में ये पूर्ण सजग, जागरूक भी हो सकता है।

पोनी-(एक कुत्ते की आत्म कथा)-अध्याय-02



अध्‍याय—2 मनुष्‍य का पहला स्‍पर्श

     मेरा जन्म दिल्ली कि अरावली पर्वतश्रृंखला के घने जंगल मैं हुआ, जो तड़पती दिल्ली के फेफडों को ताजा हवा दे कर उसे जीवित रखे हुऐ है। यह कैसे आज भी अपने को पर्यावरण के उन भूखे भेडीयों से घूंघट की ओट मे एक छुई—मुई सी दुल्हन बन कर वह अपने आप को बचाए हुऐ है। यहीं नहीं वह सजने संवारने के साथ—साथ इठलाती मस्त मुस्कराती सी प्रतीत होती है। ये भी एक चमत्कार से कम नहीं है, वरना उसके अस्तित्व को खत्म करने के लिए लोग बेचैन, बेताब, इंतजार कर रहे है। आज भी इसके अंदर गहरे बरसाती नाले, सेमल, रोझ, कीकर, बकाण, अमलतास, ढाँक और अनेक जंगली नसल के पेड़ों की भरमार है। कितने पशु पक्षी आज भी इसकी शरण में विचरण करते ही नहीं इठलाते से दिखते है, गिदड़..खरगोश, जंगली गाय, नीलगाय, मोर...तीतर...उदबिलाव, सांप...बिच्‍छू...ओर न जाने कितने ही। सर्दी में झाड़ियाँ, कीकर, ढाँक केछोटे बड़े पेड़ सभी अपने पत्तों को गिरा, कैसे एक दूसरे मे समा जाना चाहते हैं। कैसे दूर से देखने में वह समभाव खड़े नजर आते है। जब तक कोई बहुत जानकार नहीं हो तो कहां पहचान पाता है। कि यह रौंझ है या रौझी....किकर है या बबुल...कैर है या गुगल......।

पोनी-(एक कुत्ते की आत्म कथा)-अध्याय-01



(पोनी—कुत्‍ते की आत्‍म कथा)

स्‍वामी आनंद प्रसाद 'मनसा'


ब तुम एक कुत्‍ते से बात करते हो, खेलते हो, तो समाज ने जो अहंकार तुम्‍हें दिया है वह विदा हो जाता है। क्‍योंकि कुत्‍ते के साथ अहंकार का प्रश्न ही नहीं उठता।
                  
ओशो
(विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—5)


अध्‍याय—1(मां से बिछुड़ना)

      क सुहानी बसंत, हवा में ठंडक के साथ थोड़ी मदहोशी छाई थी। धूप में भी हलकी—हलकी तपीस के साथ—साथ थोड़ी सुकोमलता भरी थी।जो शारीर में एक सुमधुरअलसाया पन भर रही थी। कोमल अंकुरों का निकलना, पुराने के विछोह मे नए का पदार्पण, जीवन में कोमलता के साथ सजीवता फैला रहा था। पेड़ों की बल खाती टहानीयाँ, उन पर निकले नए कोमल चमकदार रंग बिरंगे पत्ते, दूर पक्षियों को कोरस गान....मधुर झिंगुरों को तार वाद्य चारों तरफ़ फेले सौन्दर्य में अपना आनंद बिखेर रहे था। उन गुजरे सुहावने चौदह वसंतों को आज याद करना मानो जीवन के उसतल को छूना है जो आज भी मीलों लम्बा ही नहीं, अथाह अनंत—गहरा भी लग रहा हैं। जीवन एक तरह से तो कितना छोटा लगता है ओर उसे पूर्णता से देखो  तो वह कितना गहरा.....ओर अंनत लगा है। तब वह गुजरता है तो हम उसे पर्णता से जी क्‍यों नहीं पाते। शायद यह हमारी तमस है...एक मुर्छा जो जीवन को सहज ओर सरल चलाने के लिए प्रकृति ने हमें उपहार स्‍वरूप भेट दी है।