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बुधवार, 31 जनवरी 2018

गीता दर्शन--(भाग--8) प्रवचन--193

तीन प्रकार के यज्ञ—(प्रवचन—छठवां)

अध्‍याय—17
सूत्र—

            अफलाकांक्षिभिर्यज्ञो विभिदृष्टो य हज्यते।
यष्टध्यमेवेति मन: समाधाय अ सात्‍विक।। 11।।
अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्‍यते भरतश्रेष्ठं तं यज्ञं विद्धि राजसम् ।। 12।।
विधिहीनमसृष्‍टान्‍नं मंत्रहीनमदक्षईणम् ।
श्रद्धाविरहितं यज्ञ तामसं परिचक्षते ।। 13।।

और हे अर्जुन, जो यज्ञ शास्त्र— विधि से नियत किया हुआ है तथा करना ही कर्तव्य है, ऐसे मन को समाधान करके फल को न चाहने वाले पुरूषों द्वारा किया जाता है, यह यज्ञ तो सात्‍विक है।
और हे अर्जुन, जो यज्ञ केवल दंभाचरण के ही लिए अथवा फल को भी उद्देश्य रखकर किया जाता है, उस यज्ञ को तू राजस जान।
तथा शास्त्र— विधि से हीन और अन्न— दान से रहित एवं बिना मंत्रों के बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किए हुए यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं।

गीता दर्शन--(भाग--8) प्रवचन--192

 भोजन की कीमिया—(प्रवचन—पांचवां)

अध्‍याय—17
सूत्र:--

आयु:सत्त्वब्रलारौग्यसुख्तीतिविवर्थना:।
रस्‍या: स्निग्‍धा: स्थिरा हद्या आहारा: सात्‍विकप्रिया:।। 8।। कट्वब्ललवणात्युष्यातीक्श्रणीरूक्षधिदाहिन:।
आहारा राजसस्येष्टा दु:खशस्कोमयप्रदा:।। 9।।
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् ।
उच्‍छिष्‍टमपि चामेध्यं भोजन तामसप्रियम्।। 10।।

आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढाने वाले एवं रसयुक्‍त, चिकने स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय, ऐसे आहार सात्‍विक पुरूष को प्रिय होते हैं। और कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त और अति गरम तथा तीक्ष्‍ण, रूखे और दाहकारक एवं दुख, चिंता और रोगों को उत्पन्‍न करने वाले आहार राजस पुरूष को प्रिय होते हैं।
और जो भोजन अधपका, रसरहित और दुर्गंधयुक्त एवं बासा और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र है, वह भोजन तामस पुरूष को प्रिय होता है।

सोमवार, 29 जनवरी 2018

गीता दर्शन--(भाग--8) प्रवचन--191

संदेह और श्रद्धा—(प्रवचन—चौथा)

अध्‍याय—17
सूत्र—

            आहारस्थ्यपि सर्वस्य प्रिविधो भवति प्रिय:।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदीममं श्रृणु।। 7।।

और है अर्जुन, जैसे श्रृद्धा तीन प्रकार की होती है, वैसे ही भोजन भी सबको अपनी—अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है। और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी सात्विक, राजसिक और तामसिक, ऐसे तीन— तीन प्रकार के होते हैं। उनके इस न्यारे— न्यारे भेद को तू मेरे से मन।

 पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न :

आप कहते हैं कि पदार्थ की खोज में जो स्थान संदेह का है, धर्म की खोज में वही स्थान श्रद्धा का है। और पदार्थ की खोज में मैंने इतनी लंबी यात्रा की है कि संदेह मेरा दूसरा स्वभाव बन गया है; वह मेरी चमड़ी में ही नहीं, मांस—मज्जा में समाया है। इस हालत में अपने मूल स्वभाव यानी श्रद्धा को उपलब्ध होने के लिए मैं क्या करूं?

गीता दर्शन--(भाग--8) प्रवचन--190

सुख नहीं, शांति खोजो—(प्रवचन—तीसरा)

अध्‍याय—17
सूत्र: 190

अशास्‍त्रविहितं धीरं तप्यन्ते ये तपो जना:।
दम्भाहंकारसंयुक्‍ता: कामरागबलान्त्तिता:।। 5।।
कर्शयन्त: शरीरस्थं भूतग्राममचेतस:।
मां चैवान्त:शरीरस्थं तान्‍विद्धय्यासुरीनश्चयान्।। 6।।

और है अर्जुन, जो मनुष्य शास्त्र— विधि से रहित केवल मनोकल्‍पित घोर तप को तपते हैं तथा दंभ और अहंकार से युक्‍त एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्‍त हैं तथा जो शरीररूप से स्थित भूत— समुदाय को और अंत:करण में स्थित मुझे अंतर्यामी को भी कृश: करने वाले है, उन अज्ञानियों को तू आसुरी स्वभाव वाला जान।

 पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न : भक्त के सामने साक्षात भगवान हैं, फिर भी विरह कम क्यों नहीं हो रहा है?

 जैसे—जैसे भगवान की प्रतीति होती है, विरह बढ़ता है। जैसे—जैसे निकट आते हैं, वैसे—वैसे दूरी खलती है। जितने पास आते हैं, उतनी ही पीड़ा होती है। क्योंकि पास आने पर ही पहली दफा पता चलता है कि अब तक सारा जीवन व्यर्थ ही गंवाया। और पास आने पर ही पता चलता है कि इतनी थोड़ी—सी दूरी भी अब बहुत दूरी है।

शनिवार, 27 जनवरी 2018

गीता दर्शन--(भाग--8) प्रवचन--189

भक्‍ति और भगवान—(प्रवचन—दूसरा)

अध्‍याय—17
सूत्र—

सत्‍वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो वो यव्छुद्ध: स एव सः।। 3।।
यजन्ते सात्‍विका देवान्यक्षरक्षांति राजसाः।
प्रेतान्धूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जना: ।। 4।।

है भारत सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अंतःकरण के अनुरूप होती है तथा यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरूष जैसी श्रद्धा वाला है, वह स्वयं भी वही है।
उनमें सात्‍विक पुरूष तो देवों को पूजते हैं और राजस परुष यक्ष और राक्षसों को पूजते हैं तथा अन्य जो तामस मनुष्य है, वे ने और भूतगणों को पूजते हैं।

 पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न : भक्त जब भगवान को मिलता है, तब उसे पुलक और आनंद का अनुभव होता है। क्या भगवान को भी उस क्षण वैसी ही पुलक और आनंद का अनुभव होता है?

गीता दर्शन--(भाग--8) प्रवचन--188

सत्‍य की खोज और त्रिगुण का गणित—(प्रवचन—पहला)

अध्‍याय—17
सूत्र—


                  (श्रीमद्भगवद्गीता अथ सप्तदशोऽध्याय)

 अर्जन उवाच:
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धायान्विता।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण तत्त्वमाहो रजस्तम:।। 1।।
श्रॉभगवानवाच:
त्रिविधा भवति आ देहिनां आ स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु।। 2।।

इस प्रकार भगवान के वचनों को सुनकर अर्जुन बोला, हे कृष्ण, जो मनुष्य शास्त्र— विधि को त्यागकर केवल श्रृद्धा मे युक्त हुए देवादिकों का पूजन करते है, उनकी स्थिति फिर कौन—सी है? क्या सात्विकी है अथवा राजसी है या तामसी है?
इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्री भगवान बोले हे अर्जुन, मनुष्यों की वह बिना शास्त्रीय संस्कारों से केवल स्वभाव से उत्पन्न हुई श्रृद्धा सात्विकी और राजसी तथा तामसी, ऐसे तीनों कार की ही होती ह्रै उसको तू मेरे ते सुन।

गीता दर्शन--(भाग--8) ओशो

गीता दर्शन—(भाग—आठ)
ओशो
(ओशो द्वारा श्रीमदभगवद्गीता के अध्‍याय सत्रह श्रद्धात्रय—विभाग—योग एवं अध्‍याय अठारह मोक्ष—संन्‍यास—योग पर दिए गये बत्‍तीस अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन।)

भूमिका:

 (ओशो कृष्‍ण चेतना)

 गीता एक महावाक्य, एक महाश्लोक, एक महाकाव्य है—किन शब्दों, किस भाषा में इसे परिभाषित किया जाए! जैसे अमृतमय, अव्याख्येय, अनूठे—अनमोल बोल कृष्ण ने गीता में बोले हैं वैसे बोल अन्य किसी देश में न तो कभी बोले गए और न कभी सुने गए। इसमें कविता है, संगीत है, सुगंध है। न जाने किस—किस प्रकार के रस अपने में समाए है यह गीता! रागी के लिए इसमें जगह है तो विरागी के लिए भी इसमें स्थान है। संन्यासी भी इसमें रस ले सकता है तो गृहस्थ भी इसमें डूब सकता है। लगता है कि गीता में कोई व्यक्ति नहीं, कोई समाज नहीं, कोई देश विशेष नहीं, समस्त अस्तित्व ही बोल रहा है।

बुधवार, 24 जनवरी 2018

अतुल नामक व्‍यक्‍ति पाँच सौ व्‍यक्‍तियों के साथ धर्मश्रवण को आया—(कथायात्रा—055)

अतुल नामक व्‍यक्‍ति पाँच सौ व्‍यक्‍तियों के साथ धर्मश्रवण को आया—कथा यात्रा

श्रावस्ती का अतुल नामक एक व्यक्ति पांच सौ और व्यक्तियों के साथ भगवान के संघ में धर्मश्रवण के लिए गया। वह क्रमश: स्थविर रेवत स्थविर सारिपुत्र और आयुष्मान आनंद के पास जा फिर भगवान के पास पहुंचा।
ऐसी ही व्यवस्था थी। बुद्ध के जो बड़े शिष्य थे, पहले लोग उनको सुनें, समझें, कुछ थोड़ी पकड़ आ जाए, कुछ थोड़ा समझ आ जाए तो फिर भगवान को वे जाकर  पूछ लें।
भगवान से उसने कहा भंते मैं इतनी प्रबल आशा से धर्मश्रवण के लिए आया धा, लेकिन रेवत स्थविर कुछ बोले ही नहीं चुपचाप बैठे रहे। यह कोई बात हुई!। अकेला भी नहीं पांच सौ लोगों के साथ आया था। हम दूर से यात्रा करके आए थे। बड़ा नाम सुना था रेवत का कि ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं आपके बड़े शिष्य हैं। यह क्या बात हुई हम बैठे रहे और वे चुपचाप बैठे रहे कुछ बोले नहीं? यह तो बात कुछ जंची नहीं।

अनागामी स्‍थविर मर कर ब्रह्मलोक में उत्पन्‍न होना—(कथायात्रा—054)

 अनागामी स्‍थविर मर कर ब्रह्मलोक में उत्पन्‍न होना—(कथा—यात्रा)

गवान के जेतवन में विहरते समय एक अनागामी स्थविर मरकर शुद्धावास ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुए। मरते समय जब उनके शिष्यों ने पूछा क्या भंते कुछ विशेषता प्राप्त हुई है? तब निर्मलचित स्थविर ने यह सोचकर कि यह भी क्या कोई उपलब्धि है या विशेषता है चुप्पी ही साधे रखी। उनकी मृत्यु के पश्चात उनके शिष्य रोते हुए भगवान के पास जाकर उनकी गति पूछे। भगवान ने कहा भिक्षुओ रोओ मत वह मरकर शुद्धावास में उत्पन्न हुआ है। भिक्षुओ देखते हो तुम्हारा उपाध्याय कामों से रहित चित्त वाला हो गया है जाओ खुशी मनाओ।
तब शिष्यों ने कहा पर उन्होंने मरते समय चुप्पी क्यों साधे रखी? हमने तो पूछा था उन्होंने बताया क्यों नहीं? भगवान ने कहा इसीलिए भिक्षुओ इसीलिए क्योकि निर्मल चित्त को उपलब्धि का भाव नहीं होता।

बेटे की मृत्‍यु के शोक में डूबा श्रावक—(कथायात्रा—053)

बेटे की मृत्‍यु के शोक में डूबा श्रावक—(कथा—यात्रा)

क श्रावक का बेटा मर गया। वह बहुत दुखी हुआ।

श्रावक कहते हैं सुनने वाले को, बुद्ध को सुनता था। अगर सुना होता तो दुखी होना नहीं था, तो कानों से ही सुना होगा, हृदय से नहीं सुना था। नाममात्र को श्रावक था, वस्तुत: श्रावक होता तो यह बात नहीं होनी थी।
जब बुद्ध को पता चला कि उस श्रावक का बेटा मर गया और वह बहुत दुखी है तो बुद्ध ने कहा अरे तो फिर उसने सुना नहीं। फिर कैसा श्रावक! श्रावक का फिर अर्थ क्या हुआ। वर्षों सुना और जरा भी गुना नहीं। तो आज बेटे ने मरकर सब कलई खोल दी सब उघाड़ा कर दिया।
उसका दुख कुछ ऐसा था कि सारे गांव में चर्चा का विषय बन गया। नित्यप्रति वह श्मशान जाता। बेटा मर गया, जला भी आया मगर रोज जाता उस जगह जहां बेटे को जलाया। वहां बैठकर रोता। जो बेटा अब नही है उससे बातें करता। वह करीब— करीब विक्षिप्त हो गया।

मंगलवार, 23 जनवरी 2018

युवक के माता—पिता का मोहवश संन्‍यस्‍त होना—(कथायात्रा—052)

युवक के माता—पिता का मोहवश संन्‍यस्‍त होना—(कथा—यात्रा)

क युवक बुद्ध से दीक्षा लेकर संन्यस्त होना चाहता था युवक था अभी बहुत कच्ची उम्र का था? जीवन अभी जाना नहीं था। लेकिन घर से ऊब गया था मां— बाप से ऊब गया था—इकलौता बेटा था मां—बाप की मौजूदगी धीरे— धीरे उबाने वाली हो गयी थी। और मां— बाप का बड़ा मोह था युवक पर ऐसा मोह था कि उसे छोड़ते ही नहीं थे एक ही कमरे में सोते थे तीनों। एक ही साथ खाना खाते थे। एक ही साथ कहीं जाते तो जाते थे।
थक गया होगा घबड़ा गया होगा। संन्यास में उसे कुछ रस नहीं था लेकिन ये मां— बाप से किसी तरह पिंड छूट जाए और कोई उपाय नहीं दिखता था तो वह बुद्ध के संघ में दीक्षित होने की उसने आकांक्षा प्रगट की मां—बाप तो रोने लगे चिल्लाने— चीखने लगे। यह तो बात ही उन्होंने कहा मत उठाना उनका मोह उससे भारी था।

तिष्‍यस्‍थविर और बुद्ध के परिनिवृत होने की कथा—(कथायात्रा—051)

 तिष्‍यस्‍थविर और बुद्ध के परिनिवृत होने की कथा—(कथा—यात्रा)

पविवेकं रसं पीत्वा रसं उपसमस्स च।
निद्दरो होति निप्पापो धम्मपीतिरसं पिवं। 
     तस्‍माहि:
धीरन्च पज्‍च्‍ज्‍च बहुस्सुतं व धोरय्हसीलं वतवतमरियं।
न तादिसं सपुरिसं सुमेधं भजेथ नक्सतपथं व चंदिमा ।।

क दिन वैशाली में विहार करते हुए भगवान ने भिक्षुओं से कहा—भिक्षुओं सावधान। मैं आज से चार माह बाद परिनिवृत्त हो जाऊंगा। मेरी घड़ी करीब आ रही है मेरे विदा का क्षण निकट आ रहा है। इसलिए जो करने योग्य हो करो। देर मत करो।

ऐसी बात सुन भिक्षुओं में बड़ा भय उत्पन्न हो गया स्वाभाविक। भिक्षु— संघ महाविषाद में डूब गया। स्वाभाविक। जैसे अचानक अमावस हो गयी। भिक्षु रोने लगे छाती पीटने लगे। झुंड के झुंड भिक्षुओं के इकट्टे होने लगे और सोचने लगे और रोने लगे और कहने लगे अब क्या होगा? अब क्या करेंगे।

भोजन भट्ट सम्राट प्रसेनजित—(कथायात्रा—050)

 भोजन भट्ट सम्राट प्रसेनजित—(कथा—यात्रा)

 म्राट प्रसेनजित भोजन— भट्ट था। उसकी सारी आत्मा जैसे जिह्वा में थी। खाना-खाना और खाना। और तब स्वभावत: सोना-सोना और सोना। इतना भोजन कर लेता कि सदा बीमार रहता। इतना भोजन कर लेता कि सदा चिकित्सक उसके पीछे सेवा में लगे रहते। देह भी स्थूल हो गयी। देह की आभा और कांति भी खो गयी। एक मुर्दा लाश की तरह पड़ा रहता। इतना भोजन कर लेता।
बुद्ध गांव में आए तो प्रसेनजित उन्हें सुनने गया।
जाना पड़ा होगा। सारा गाव जा रहा है और गाव का राजा न जाए तो लोग क्या कहेंगे? लोग समझेंगे, यह अधार्मिक है। उन दिनों राजाओं को दिखाना पड़ता था कि वे धार्मिक हैं। नहीं तो उनकी प्रतिष्ठा चूकती थी, नुकसान होता था। अगर लोगों को पता चल जाए कि राजा अधार्मिक है, तो राजा का सम्मान कम हो जाता था। तो गया होगा। जाना पड़ा होगा।

लेकिन जाने के पहले—इतनी देर बुद्ध को पता नहीं घंटाभर सुनना पड़े डेढ़ घंटा सुनना पड़े कितनी देर बुद्ध बोले इतनी देर वहां रहना पड़े— तो उसने डटकर भोजन कर लिया।
इतनी देर भोजन करने को मिलेगा नहीं। खूब डटकर भोजन करके गया।
राजा था तो सामने ही बैठा बुद्ध के वचन सुनने को और जैसे ही बैठा वैसे ही झपकी लेने लगा

सोमवार, 22 जनवरी 2018

आलवी में बुद्ध ने एक निर्धन उपासक को भोजन कराया—(कथायात्रा—049)

 आलवी में बुद्ध ने एक निर्धन उपासक को भोजन कराया—कथा—यात्रा

क समय भगवान पांच सौ भिक्षुओं के साथ आलवी नगर आए आलवी नगरवासियों ने भगवान को भोजन के लिए निमंत्रित किया उस दिन आलवी नगर का एक निर्धन उपासक भी भगवान के आगमन को सुनकर धर्म—श्रवण के लिए मन किया। किंतु प्रात: ही उस गरीब के दो बैलों में से एक कहीं चला गया सो उसे बैल को खोजने जाना पड़ा बिना कुछ खाए— पीए ही दोपहर तक वह बैल को खोजता रहा बैल के मिलते ही वह भूखा— प्यासा ही बुद्ध के दर्शन को पहुंच गया उनके चरणों में झुककर धर्म—श्रवण के लिए आतुर हो पास ही बैठ गया।


लेकिन बुद्ध ने पहले भोजन बुलाया। उसके बहुत मना करने पर भी पहले उन्होंने जिद की और उसे भोजन कराया। फिर उपदेश की दो बातें कहीं। वह उन थोड़ी सी बातों को सुनकर ही स्रोतापत्ति— फल को उपलब्ध हो गया भगवान के द्वारा किसी को भोजन कराने की यह घटना बिलकुल नयी थी ऐसा पहले कभी उन्होंने किया न था—और न फिर पीछे कभी किया तो बिजली की भांति भिक्षु— संघ में
चर्चा का विषय बन गयी अंतत: भिक्षुओं ने भगवान से जिज्ञासा की। तो उन्होंने कहा भूखे पेट धर्म नहीं। भूखे पेट धर्म समझा जा सकता नहीं भिक्षुओ भूख के समान और कोई रोग नहीं है।
और तब उन्होंने यह गाथा कही—

जिधच्छा परमा रोना संखारा परमा द्रुखा।
एतं जत्वा यकभूतं निबानं परमं सुखं ।।

'भूख सबसे बडा रोग है, संस्कार सबसे बड़े दुख हैं। ऐसा यथार्थ जो जानता है, वही जानता है कि निर्वाण सबसे बड़ा सुख है।
इस बात को समझना।

श्रावस्‍ती में बुद्ध को कुलकन्‍या के विवाह में निमंत्रण—(कथायात्रा—048)

 श्रावस्‍ती में बुद्ध को कुलकन्‍या के विवाह में निमंत्रण—कथा—यात्रा

श्रावस्‍ती में एक कुलकन्‍या का विवाह। मां—बाप ने भिक्षु संध के साथ भगवान को भी निमंत्रित किया। भगवान भिक्षु—संध के साथ आकर आसन पर विराजे है। कुलकन्या भगवान के चरणों में झुकी और फिर अन्य भिक्षुओं के चरणों में। उसका होने वाला पति उसे देखकर नाना प्रकार के काम— संबंधी विचार करता हुआ रागाग्नि से जल रहा था। उसका मन काम की गहन बदलियों और धुओं से ढंका था। उसने भगवान को देखा ही नहीं। न देखा उस विशाल भिक्षुओं के संघ को। उसका मन तो वहां था ही नहीं। वह तो भविष्य में था। उसके भीतर तो सुहागरात चल रही थी। वह तो एक अंधे की भांति था।

भगवान ने उस पर करुणा की और कुछ ऐसा किया कि वह वधू को देखने में अनायास असमर्थ हो गया। जैसे वह नींद से जला ऐसे ही वह चौककर खड़ा हो गया। और तब उसे भगवान दिखायी पड़े और तब दिखायी पड़ा उसे भिक्षु— संघ। और तब दिखायी पड़ा उसे कि अब तक मुझे दिखायी नहीं पड़ रहा था। संसार का धुआ जहां नहीं है वहीं तो सत्य के दर्शन होते हैं। वासना जहां नहीं है वहीं तो भगवत्ता की प्रतीति होती है। उसे चौकन्ना और विस्मय में डूबा देखकर भगवान ने कहा कुमार। रागाग्नि के समान दूसरी कोई अग्नि नहीं है। वही है नर्क वही है निद्रा। जागो प्रिय जागो। और जैसे शरीर उठ बैठा है ऐसे ही तुम भी उत्तिष्ठित हो जाओ। उठो! उठने में ही मनुष्यता की शुरुआत है।
और तब उन्होंने यह गाथा कही—

नत्थि रागसमो अग्नि नत्थि दोससमो कलि।
नत्मि खंधसमा दुक्खा नत्थि सति परं सुखं।।

पाँच सौ भिक्षुओं में से एक आलस्‍यवश जेतवन में रूक जाना (उत्‍तारर्द्ध)—(कथायात्रा—047

पाँच सौ भिक्षुओं में से एक आलस्‍यवश जेतवन में रूक जाना—कथा—यात्रा


भगवान से नवदृष्टि ले उत्साह से भरे वे भिक्षु पुन: अरण्य में गये। उनमें से सिर्फ एक जेतवन में ही रह गया
चार सौ निन्यानबे गये इस बार, पहले पांच सौ गये थे। एक रुक गया।
वह आलसी था और आस्थाहीन भी। उसे भरोसा नहीं था कि ध्यान जैसी कोई स्थिति भी होती है!
वह तो सोचता था, यह बुद्ध भी न—मालूम कहां की बातें करते हैं! कैसा ध्यान! आलस्य की भी अपनी व्यवस्था है तर्क की। आलस्य भी अपनी रक्षा करता है। आलसी यह न कहेगा कि होगा, ध्यान होता होगा, मैं आलसी हूं। आलसी कहेगा, ध्यान होता ही नहीं। मैं तो तैयार हूं करने को, लेकिन यह ध्यान इत्यादि सब बातचीत है, यह कुछ होता नहीं। आलसी यह न कहेगा कि मैं आलसी हूं इसलिए परमात्मा को नहीं खोज पाता हूं, आलसी कहेगा, परमात्मा है कहां! होता तो हम कभी का खोज लेते, है ही नहीं तो खोजें क्या? और चांदर तानकर सो रहता है। आलस्य अपनी रक्षा में बड़ा कुशल है। बड़े तर्क खोजता है। बजाय इसके कि हम यह कहें कि मेरी सामर्थ्य नहीं सत्य को जानने की, हम कहते हैं, सत्य है ही नहीं। बजाय इसके कि हम कहें कि मैं जीवन में अमृत को नहीं जान पाया, हम कहते हैं, अमृत होता ही नहीं।

रविवार, 21 जनवरी 2018

पाँच सौ भिक्षुओं का अरण्‍यवास में जाना (पूर्वार्द्ध)—(कथायात्रा—046)

पाँच सौ भिक्षुओं का अरण्‍यवास में जाना (पूर्वार्द्ध)—कथा—यात्रा

गवान जेतवन में विहरते थे। उनकी देशना में निरंतर ही ध्यान के लिए आमंत्रण था सुबह दोपहर सांझ बस एक ही बात वे समझाते थे— ध्यान ध्यान ध्यान सागर जैसे कहीं से भी चखो खारा है वैसे ही बुद्धों का भी एक ही स्वाद है— ध्यान। ध्यान का अर्थ है— निर्विचार चैतन्य। पांच सौ भिक्षु भगवान का आवाहन सुन ध्यान को तत्पर हुए। भगवान ने उन्हें अरण्यवास में भेजा। एकांत ध्यान की भूमिका है। अव्यस्तता ध्यान का द्वार है। प्रकृति— सान्निध्य अपूर्वरूप से ध्यान में सहयोगी है।
उन पांच सौ भिक्षुओं ने बहुत सिर मारा पर कुछ परिणाम न हुआ। वे पुन: भगवान के पास आए ताकि ध्यान— सूत्र फिर से समझ लें। भगवान ने उनसे कहा— बीज को सम्यक भूमि चाहिए अनुकूल ऋतु चाहिए सूर्य की रोशनी चाहिए ताजी हवाएं चाहिए जलवृष्टि चाहिए तभी बीज अंकुरित होता है। और ऐसा ही है ध्यान। सम्यक संदर्भ के बिना ध्यान का जन्म नहीं होता।

इसके पहले कि हम सूत्रों में प्रवेश करें, इस छोटे से संदर्भ को जितनी गहराई से समझ लें उतना उपयोगी होगा।
भगवान जेतवन में विहरते थे।
विहार बौद्धों का पारिभाषिक शब्द है। बिहार प्रांत का नाम भी बिहार इसीलिए पड गया कि वहा बुद्ध विहरे। विहार का अर्थ होता है, रहते हुए न रहना। जैसे झील में कमल विहरता है—होता है झील में, फिर भी झील का पानी उसे छूता नहीं। होकर भी नहीं होना, उसका नाम है विहार। बुद्ध ने विहार की धारणा को बडा मूल्य दिया है। वह समाधि की परम दशा है।

भिक्षुगण भ्रांत धारणाओं के शिकार—(कथायात्रा—045)

 भिक्षुगण भ्रांत धारणाओं के शिकार—कथा—यात्रा

गवान के जेतवन में रहते समय बहुत शीलसंपन्न भिक्षुओं के मन में ऐसे विचार हुए— हम लोग शीलसंपन हैं ध्यानी हैं जब चाहेगे तब निर्वाण प्राप्त कर लेने। ऐसी भ्रांत धारणाएं साधना— पथ पर अनिवार्य रूप से आती हैं।
जरा सा कुछ हुआ कि आदमी सोचता है, बस.. .किसी ने जरा सा ध्यान साध लिया, किसी ने जरा सच बोल लिया, किसी ने जरा दान कर दिया, किसी ने जरा वासना छोड़ दी कि वह सोचता है बस, मिल गयी कुंजी, अब क्या देर है, जब चाहेंगे तब निर्वाण उपलब्ध कर लेंगे। आदमी बड़ी जल्दी पड़ाव को मंजिल मान लेता है। जहां रातभर रुकना है और सुबह चल पड़ना है, सोचता है—आ गयी मंजिल।

ऐसी प्रांत धारणाएं साधना— पथ पर अनिवार्य रूप से आती हैं।
अनाचरण छूटा तो आचरण पकड़ लेता है। धन छूटा तो ध्यान पकड़ लेता है। पाप छूटा तो पुण्य पकड लेता है। इधर कुआ, उधर खाई।
भगवान ने उन्हें अपने पास बुलाया और पूछा भिक्षुको क्या तुम्हारे संन्यस्त होने का उद्देश्य पूर्ण हो गया?
पूछना पड़ा होगा। क्योंकि देखा होगा, वे तो अकड़कर चलने लगे। देखा होगा कि वे तो ऐसे चलने लगे जैसे पा लिया, जैसे आ गए घर। तो बुलाया उन्हें और पूछा, क्या तुम्हारे संन्यस्त होने का उद्देश्य पूर्ण हो गया?