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गुरुवार, 30 नवंबर 2017

गीता दर्शन--(भाग--5) प्रवचन--134



पूरब और पश्‍चिम: नियति और पुरूषार्थ(प्रवचनछठवां)

अध्‍याय—11
सूत्र—(134)

यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः।
तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवायि वक्ताणि समृद्धवेगाः।। 29।।
लेलिह्यमे ग्रसमान: समन्ताल्लोकान्समग्रान्त्रदनैर्ज्वलदभि:।
तेजोभिरायर्य जगत्ममग्रं भासस्तवोग्रा: प्रतयन्ति विष्णो।। 3०।।
आख्याहि मे को भवागुग्ररूपो नमोउख ते देववर प्रसीद।
विज्ञखमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्।। 3।।

अथवा जैसे पतंगा मोह के वश होकर नष्ट होने के लिए प्रज्वलित अग्नि में अति वेग से युक्त हुए प्रवेश करते हैं वैसे ही ये सब लोग भी अपने नाश के लिए आपके मुखों में अति वेग से युक्त हुए प्रवेश करते हैं।
और आप उन संपूर्ण लोकों को प्रज्वलित मुखों द्वारा ग्रसन करते हुए सब ओर से चाट रहे हैं। हे विष्णो आपका उग्र प्रकाश संपूर्ण जगत को तेज के द्वारा परिपूर्ण करके तपायमान करता है।
हे भगवन— कृपा करके मेरे प्रति कहिए कि आप उग्र रूप वाले कौन हैं! हे देवों में श्रेष्ठ आपको नमस्कार होवे। आय प्रसन्‍न होड़ए। आदिस्वरूप आपको मैं तत्व से जानना चाहता हूं क्योंकि आपकी प्रवृत्ति को मैं नहीं जानता

गीता दर्शन--(भाग--5) प्रवचन--133



अचुनाव अतिक्रमण है(प्रवचनपांचवां)

अध्‍याय—11
सूत्र: (133)

      रूपं महत्ते कवक्तनेत्रं महाबाहो बहुबाक्रयादम्।
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं हूड़वा लोका: प्रव्यथितास्तथाहम्।। 23।।
नभ:स्पृशं दीप्तमनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्।
दृष्ट्रवा हि त्वां प्रव्यखितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो।। 24।।
दंष्ट्राकरालानि व ते मुखानि दृष्ट्रवैव कालानलसब्रिभानि।
दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास।। 25।।
अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्थ युत्रा: सर्वे सहैवावनियालसंघै:।
भीष्मो द्रोण: सूतमुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरयि योधमुख्यै।। 26।।
वक्वाणि ते स्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि।
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेपु संदृश्यन्ते चूर्णितेरुत्तमाङ्गै।। 27।।
यथा नदीनां बहवोउखुवेगा समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति।
तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्ताण्यभिविज्वलन्ति।। 28।।

गीता दर्शन--(भाग--5) प्रवचन--132

परमात्‍मा का भयावह रूप(प्रवचनचौथा)

अध्‍याय—11
सूत्र: (132)

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम।
त्वमध्यय: शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्ल पुरुषो मतो मे।।। 18।।
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्तं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।। 19।।
द्यावायृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्त स्वयैकेन दिशश्च सर्वा:।
दृष्ट्वाइभुतं रूयमुग्रं तवेदं लोकत्रय प्रव्यथितं महात्मन्।। 20।।
अमी हि त्वां सुरसंधा विशन्ति केचिद्रभीता प्राज्जत्नयो ग्दाणन्ति।
स्वस्तीत्युक्ता महर्षिसिद्धसंधा: स्तुवन्ति ना खतिभि पुष्कलाभि।। 21।।
रुद्रादित्या वसवो ये व साध्या विश्वेउश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च।
गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसंघा वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे।। 22।।

इसलिए हे भगवन— आय ही जानने योग्य परम अक्षर हैं अर्थात परब्रह्म परमात्मा हैं और आय ही हल जगत के परम आश्रय हैं तथा आय ही अनादि धर्म के रक्षक हैं और आय ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं, ऐसा मेरा मत है।
हे परमेश्वर मैं आपको आदि अंत और मध्य से रहित तथा अनंत सामर्थ्य से युक्त और अनंत हाथों वाला तथा चंद्र— सूर्य रूप नेत्रों वाला और प्रज्वलित अग्निरूप मुख वाला तथा अपने तेज से हम जगत को तपायमान करता हुआ देखता हूं।

गीता दर्शन--(भाग--5) प्रवचन--131

धर्म है आश्‍चर्य की खोज(प्रवचनतीसरा)

अध्‍याय—11
सूत्र—(131)

दिवि सूर्यसहसस्थ भवेह्यगफत्सिता।
यदि भा: सदृशी सा स्यादृभासस्तस्थ महात्मन:।। 12।।
तत्रैकस्थं जगकृत्‍स्‍नं प्रविभक्तमनेकधा।
अयश्यद्देवदेवस्थ शरीरे पाण्डवस्तदा।। 13।।
तत: छ विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनंजय:।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताज्जलिरभाषत।। 14।।

अर्जुन उवाच:

पश्यामि देवास्तव देव देहे सर्वास्तंथा भूतविशेषसंघान्।
ब्रह्माणमीश कमलासनस्थमृषीश्च सर्वागुरगांश्ब दिव्यान्।। 15।।
अनेकबाहूदरवक्तनेत्र यश्यामि त्वां सर्वतोउनन्तरूपम्।
नान्तं न मध्यं न गुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूय।। 16।।
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम्।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्य      समन्ताद्दीप्तानलार्कह्यतिमप्रमेयम्।। 17।।

गीता दर्शन--(भाग--5) प्रवचन--130

दिव्‍यचक्षु की पूर्वभूमिका(प्रवचनदूसरा)

अध्‍याय—11
सार—सूत्र:

            न तु मां शक्यसे द्रष्‍टुमनेनैव स्वच्रुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्वरम।। 8।।

संजय उवाच:

श्वमुक्ला ततो राजन्यहायोगेश्वरो हरि:।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्।। 9।।
अनेकवक्तनयनमनेकादूभुतदर्शनम्।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतामुधम्।। 10।।
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धागुलेयनम्।
सर्वाश्चर्यमय देवमनन्तं विश्वतोमुखम्।। 11।।

परंतु मेरे को इन अपने प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने को तू निःसंदेह समर्थ नहीं है इसी से मैं तेरे लिए दिव्य अर्थात अलौकिक चक्षु देता हूं, उससे तू मेरे प्रभाव को और योगशक्ति को देख।
संजय बोले हे राजन— महायोगेश्वर और सब पापों के नाश करने वाले भगवान ने इस प्रकार कहकर उसके उपरांत अर्जुन के लिए परम ऐश्वर्ययुक्त दिव्य स्वरूय दिखाया।
और उस अनेक मुख और नेत्रों से युक्त तथा अनेक अदभुत दर्शनों वाले एवं बहुत— से दिव्य भूषणों से युक्त और बहुत— से दिव्य शस्त्रों को हाथों में उठाए हुए तथा दिव्य माला और वस्त्रों को धारण किए हुए और दिव्य गंध का अगुलेपन किए हुए एवं सब प्रकार के आश्चर्यों से युक्त सीमारहित विराटस्वरूय परमदेव परमेश्वर को अर्जुन ने देखा।

गीता दर्शन--(भाग--5) प्रवचन--129

विराट से साक्षात की तैयारी—(प्रवचन—पहला)

गीता दर्शन-भाग-5-(प्रवचन-1)
अध्याय-11

      श्रीमद्रभगवद्रगीता
अथ एकादशोउध्‍याय:

      अर्जुन उवाच:

मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम्।
यत्वयोक्तं वचस्तेन मोहोउयं विगतो मम।। 1।।
भवाध्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया।
त्वत: कमलयत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्।। 2।।
एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर।
द्रष्ट्रमिच्छामि ते रूपमैश्वरं गुरुषोत्तम।। 3।।
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रछमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे त्‍वं दर्शयात्मानमव्ययम्।। 4।।

बुधवार, 29 नवंबर 2017

पोनी-(एक कुत्ते की आत्म क्था)-अध्याय-32



अध्‍याय32 मेरा खुब सूरत अध्‍याय 

      पिरामिड का बनने का काम लगाता नहीं चलता था। परंतु बीच—बीच में उसमें अविराम आ जाता था। क्‍योंकि रामरतन अंकल जब भी अपने घर जाते तो दो तीन महीने से पहले कभी नहीं आते थे। चाहे वह दिपावली हो या होली हो। क्‍योंकि घर पर जाने के बाद पाँच काम आपका इंतजार कर रहे होते है सो उन्‍हें भी निपटाना होता था। फिर यहां आने के बाद तो वह पड़े ही रह जायेगे। परंतु ये कोई चिंता का विषय नहीं था ये तो पूरे घर लिए एक आनंद उत्‍सव और छूट्टी का माहोल हो जाता था। इन्‍हीं दिनों तो जंगल में घूमने में आनंद आता था क्‍योंकि होली के दिनों में मौसम बसंत का होता है। और दीपावली के समय में भी बारीस जा चूकि होती है और शरद आने को होती है। सौ दोनों संध्‍या बड़ी सुंदर होती है। परंतु अब काम की गति कुछ पहले से अधिक हो गई थी। क्‍योंकि रामरतन अंकल ने अब इधर उधर के सारे काम छोड़ दिये थे। और केवल यही काम अपने हाथ से करते थे। काम को न देखों तो कोन काम करता है।

मंगलवार, 28 नवंबर 2017

ओशो का जीवन में प्रवेश--एक परर्कमा-(खंड़-2)

ओशो का जीवन में प्रवेश

      कुछ बातें जीवन में ऐसी होती है, न तो उनके आने की आहट हमें सुनाई देती है और न ही उनके पदचाप ही हमारे ह्रदय में कही छपते है। वे अदृष्‍य मूक हमारे जीवन में प्रवेश कर जाना चाहती है। लेकिन ये कुदरत की प्रबोधन के आगमन अनुभूति इतना पारदर्शी अस्‍पर्शित होती है, कि वो अनछुआ क्वारी की क्वारी ही रह जाती है।। वो इतना शूक्ष्माति-शूक्ष्‍म होता है कि चाहे तो उसके आर-पार आसानी से आया जाया जा सकता है। मेरे जीवन में ओशो का प्रवेश भी कुछ ऐसे ही हुआ। हुआ भी नहीं का जा सकता क्‍योंकि जब उन्‍होंने आकर दस्‍तक दी तो मैं द्वार बंद कर करवट बदल कर सो गया।
      बात सन् 1985 की है उन दिनों ओशो अमरीका से भारत आये थे। मेरा व्‍यवसाय उस समय बहुत अच्‍छा चल रहा था। घर में वो सब कुछ था जो होना चाहिए। घर में ख़ुशियों के साथ-साथ जरूरत की हर चीज थी। मेरी लड़की अन्‍नू( मां बोद्धीउनमनी) उस समय पाँच वर्ष की थी। उसे एक टीचर पढ़ाने आया करता था। वो ओशो को पढ़ता था। एक दिन न जाने उस के मन में क्‍या आई वो जो ओशो पुस्‍तक हाथ में लिए हुए था।

शब्दों के आयाम—एक परिक्रमा ( 01)

शब्‍दों के आयाम
   

      ओशो के स्‍वर्णिम बचपन के सत्र-37 लिखते-लिखते अचानक बीच में ऐसा लगा की मैं जो लिख रहा हूं वो शब्‍द और में एक ही हो गए है, मैं खुद शब्‍द और अपने होने के भेद को भूल गया, इतना लवलीन हो गया शब्‍दों में की शरीर से भी नीर भार हो गया, शरीर का भी भार है। हम उसे जब महसूस करते जब हम स्‍वास्‍थ होते है वो भी पूर्ण नहीं, एक झलक मात्र, नहीं तो कितने ही लोगों को तो शारीर का होना भी जब पता चलता है जब अस्वस्थ होते है। मानों शरीर झर गया निर्झरा, शरीर एक घुल कण कि तरह छटक गया। कितना सुखद अस्‍वाद होता है शरीर विहीन होना मानों हमारी पकड़ इस पृथ्‍वी से पलभर के लिए छुट गई।
      लेकिन ये स्‍थिति ज्‍यादा देर नहीं रही और कुछ ही देर में अपने पर लोट आया। लेकिन इसके बाद मन की तरंगें ही बदल गई, मुहँ का स्‍वाद, स्वादों कि खुशबु, मन मानों समुन्दर होकर तरंगें मारने लगा , एक मीठा सा तूफान  लह लाने लगा।

संत तोता पुरी की समाधी--(पुरी जगन्ननाथ)



परम हंस तौता पुरी-(समाधि)



कभी-कभी इत्फाक भी चमत्कार से लगता है। हम (मैं ओर अदवीता) पूरी जगन्नाथ की यात्रा पर जाने की तैयारी कर रहे थे कि दो दिन पहले एक हीरा मन तोता न जाने कहां से आ गया ओर वह आने के बाद ऐसा व्यवहार करने लगा कि जैसे सालो से हमे जानता है। मैरे हाथ से खाये पेड पोधो पर किलकारी भरे मैं कम्पूटर पर कर करू तो अंदर आकर मेरे पास बैठ जाये।
कितना आनंद और उत्सव में सराबोर था, इस टेहनी से उस टहनी पर कुदता फांदता कितना मन को मोह रहा था। मैं पेड पोधो को पानी डालते उसे खुब नहलाया वह कैसे फंख खोल कर नहा रहा था। जैसे उसे वो सब चाहिए। तब हम पूरी की और चले गये वहां पहुचने पर बेटी बोधी उनमनी में कहा की वह तोता तो अपको चारो ओर ढूंढ रहा है वह बहुत शौर मचा रहा है मैंने उसे सेब आदि खाने के दिये परंतु वह कुछ ढूढता सा प्रतित हो रहा है और मेरे नीचे चले जाने के बाद बहुत शौर मचा रहा है काम करने वाली भी कह रही थी की मेरे पास आ कुछ कहना चाहता था। ओर उसका भी दिल भर आया। कि शायद मम्मी-पापा को ढूंढ रहा है। ओर सच वह श्याम होते न होते उड गया। बेटी ने फोन किया की पापा वह तोता तो उड गया....शयद आपको ढूंढता रहा...ओर आप उपर नहीं आये तो चला गया।

सोमवार, 13 नवंबर 2017

पोनी-(एक कुत्ते की आत्म क्था)-अध्याय-31



अध्‍याय31 नये घर का खरिदना

            गांव के पास जो खुबसुरत जंगल था जहां मेरी पैदाईस हुई थी.....वो सच ही सुंदर था। वह इस लिए सुंदर नहीं कह रहा कि वहां मैं पैदा हुआ। पानी के कल—कल बहते सीतल झरने....गहरे....मिट्टीके खाल....उंच्‍चे शिशम, शहमल, अमलाता और ढाक के साथ—साथ बबूल और रोंझ के दरखत। हजारो तरह के जंगली फल और जड़ी बुटीया। जानवर के नाम पर नीलगाय....जंगली गायें के झुंड के झुंड.....गिदडो की बहुतायत थी। और दूर दराज सड़क के पार बंदरों की आबादी थी। शायह ये प्राणीगहरे जंगल में रहना इस लिए पसंद नहीं करता क्‍योंकि यह वो सब चीजे खा लेता है जो मनुष्‍य खाता है। और थोड़ा चपल भी है। साथ—साथ इस हिंदुओं ने हुनमान के साथ जोड़ कर एक और महत्‍व दे दिया था। फिर भी कभी—कभार कोई बंदर अपने पद हटाये जानेके बाद गांवकी और आ जाता है। कहावत तो कि गीदड की जब मौत आती हे वे वह गांव की और दौड़ता है.....परंतु समय ने ये सब कहावत बदल दी है...वह भी गांव के आस पास रहकर अपनापेट भरता है। अगर हिंसक न हो तो शायद मनुष्‍य किसी प्राणी को नहीं मारता। ये जो बंदर गांवमें आते है ये होते तो हष्‍ठ—पुष्‍ठ है पंरतु इनके शरीर पर बहुत जगह जखमों के निशान होते है। लेकिन इस बार तो बंदर की जगह लंगुरबंदर घर पर आ गया। एक तो हमारे घर में पेड़ आदि बहुत है....इसके साथ कुछ पेड़ फलों के भी है....अनारअमरूद...शरीफा....आवला.....फालसा.....ओर चीकु.....शायद ये फल के वृक्ष भी उसे अपनी और अधिक लुभाते है।

रविवार, 12 नवंबर 2017

पोनी-(एक कुत्ते की आत्म क्था)-अध्याय-30



अध्‍याय—30 मेरी मुक्‍ति

      दिसम्बर की शरदऋतु के दिन थे ठंडी हवा अंदर तक शरीर कंपा दे रही थी। तभी अचानक घर में कुछ अजीब सी हरकत शुरू हो गई। जब भी कुछ इस तरह की हरकत घर में होती तो मैं भयभीत हो जाता था। जरूर कही कुछ गलत होने वाला है। उस ऐकांत से बहुत डर जाता था जो मुझे जीना होता था। मन भी कैसा है उस जैसे जीने के लिए छोड दिया जायेऔर मेरा शक शुभा सही निकला। लगातार रोज छत पर ब्रैड सुखाई जा रही थी। और उन्‍हें एक बड़े से ड्रम में भर कर रखा जा रहा था। इत्मीनान से ऐसा काम पहले भी होता था परंतु बहुत छोटे पैमाने पर। या फिर गीदड़ों के लिए ब्रेड ले जाई जाती थी। इस तरह प्रचुर मात्रा में सूखाई जा रही है ओर उन्‍हें एक जगह जगह सम्‍हाल कर रखा जा रहा है। मन में कहीं चौर था, एक भय की आहट होने लेगी....कि जरूर कोई आपतकालिन स्‍थिति आने वाली है। वैसे मुझे सुखी हुई कुरमुरी ब्रैड़ खाने में मजा बहुत आता है।
      लेकिन बात कुछ और ही चल रही थी। घर के अंदर सब समान जमाया जा रहा था। बड़े—बड़े सूट केस खुले रखे थे। मेरे मन को एकदम से धक्‍का लगा हो न हो ये कहीं जाने की तैयारी चल रही है। पिछली बार तो भईया और दीदी  मेरे साथ रह गई थी। इस बार तो ये लोग भी बहुत खुश धूम रहे है। मैंने लाख पास जाकर सूधने की कोशिश की....परंतु मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। शायद भय के कारण में घबरा गया था ओर मेरे सुघंने की इंद्री भी ठीक तरह से काम नहीं कर रही थी। क्‍योंकि में साफ देख रहा था मन पर एक तनवा बह रहा है।

गीता दर्शन--(भाग--5) प्रवचन--128

मंजिल है स्‍वयं में—(प्रवचन—पंद्रहवां)

गीता दर्शन--(भाग--5) प्रवचन--127

अध्‍याय—10
सूत्र—
यच्चायि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन
 तदस्ति विना यत्‍स्‍यान्मया भूतं चराचरम्।। 39।।
नान्तोउस्ति मम दिव्यानां विभूतीना परंतप
एक् तूद्देशत: प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।। 40।।
यद्यद्विभूतिमत्सत्वं श्रीमदूर्जितमेव वा
तत्तदेवावगच्छ स्वं मम तेजोंउशसंभवम्।। 41।।
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन
विष्टथ्याहमिदं कृत्नमेकांशेन स्थितो जगत।। 42।।

और हे अर्जुन जो सब भूतों की उत्पलि का कारण है वह भी मैं ही हूं क्योंकि ऐसा वह चर और अचर कोई भी भूत नहीं है कि जो मेरे से रहित होवे
हे परंतप मेरी दिव्य विभूतियों का अंत नहीं है यह तो मैने अपनी विभूतियों का विस्तार तेरे लिए संक्षेप से कहा है इसलिए हे अर्जुन जो जो भी विभूतियुक्त अर्थात