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सोमवार, 6 नवंबर 2017

गीता दर्शन-(भाग—4)-प्रवचन-109



वासना और उपासना—प्रवचन—नौवां
गीता दर्शन-(भाग4)-प्रवचन-109
अध्‍याय9

सूत्र:

      ते तं भुक्त्‍वा स्वर्ग्लोकं विशलं क्षीणे पुण्ये मर्त्‍यलोकं विशान्‍ति।
एवं त्रयींधर्ममच्छुयन्‍ना गतरगतं काक्कामा लभन्ते।। 21।।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभिस्त्युक्‍तानां योग्स्सेमं वहाम्यहम्।। 22।।

और वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्ग के साधनरूप तीनों वेदों में कहे हुए सकाम कर्म के शरण हुए और भोगों की कामना वाले पुरूष बारंबार जाने-आने को प्राप्त होते हैं।


और जो अनन्य भाव से मेरे में स्थित हुए भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरंतर चिंतन करते हुए निष्काम भाव से उपासते हैउन नित्य एकीभाव से मेरे में स्थिति वाले पुरुषों का योग-क्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूं।


न बाहर तो बांटता ही हैभीतर भी बांटता है। मन से बाहर जो भी हम जानते हैंवह तो खंड-खंड हो ही जाता है,मन के ही कारण हम भीतर भी खंड-खंड हो जाते हैं। मन के इस दूसरे पहलू को भी समझ लेना जरूरी है।
मन के साथ कभी भी कोई व्यक्ति एक व्यक्ति नहीं होताबल्कि एक भीड़ होता है। भीतर भी मन एक नहीं हैअनेक है। सदा से आदमी ऐसा समझता रहा है कि उसके भीतर एक मन है। वैसा सत्य नहीं है। आपके भीतर बहुतेरे मन हैंबहु-मन हैं। अब मनोविज्ञान स्वीकार करता है कि मैन इज पोलीसाइकिकबहुत मन हैं भीतरएक मन नहीं है। ये बहुत मन भी इसीलिए हैं कि मन जहां भी चरण रखता हैवहीं खंड हो जाते हैं।
समझेंभीतर मन की इस खंड-खंड हो गई स्थिति को भी समझना जरूरी है।
आपने शायद ही कभी ऐसी कोई मन की दशा पाई होजिसके विपरीत स्वर आपके भीतर मौजूद न रहा हो। किसी को आपने किया हो प्रेम और साथ ही उसे घृणा न की होऐसा अर्सभव है। किसी को की हो श्रद्धाऔर साथ ही भीतर मन का एक हिस्सा अश्रद्धा से न भरा रहा होअसंभव है। चाहा हो किसी कोऔर साथ ही चाह से बचना भी न चाहा होऐसा नहीं होगा।
मन जब भी कुछ तय करता हैतो द्वंद्व में ही तय करता हैउसका विपरीत स्वर भी भीतर मौजूद होता है। जिसको आप मित्र मानते हैंकहीं किसी मन की गहराई में उसे आप शत्रु भी मानते हैं। इसीलिए तो मित्रता इतनी जल्दी शत्रुता बन जाती है! अन्यथा जिस आदमी को मैं पचास साल तक मित्र समझा हूं एक क्षण में शत्रु कैसे हो जाएगाकोई उपाय नहीं है;कोई रासायनिक प्रक्रिया नहीं है कि पचास साल की मित्रता एक क्षण मेंएक शब्द से शत्रुता बन जाए। बन जाती है लेकिन। गहरे खोजेंगेतो पाएंगेऊपर मित्रता बन रही थीभीतर शत्रुता भी पल रही थी। इसलिए एक क्षण में मित्रता नीचे चली गई,शत्रुता ऊपर आ गई। यह सिर्फ पलड़ा भारी हो गया। जब हम एक पलड़े पर तराजू के मित्रता रख रहे थेतभी हम शत्रुता भी दूसरे पलड़े पर रखे जाते थे। यह सिर्फ समय और संयोग की बात है कि जिस दिन भी पलड़ा भारी हो जाएगा शत्रुता काउसी दिन शत्रुता प्रकट हो जाएगी। लेकिन मन से कोई आदमी किसी को अनन्य भाव से मित्र नहीं बना सकता है।
मनएक तरह की समझें डेमोक्रेसी हैएक लोकतंत्र है। मन पार्लियामेंटरी है। उसमें जो भी निर्णय होते हैंवे बहुमत से होते हैंलेकिन अल्पमत विरोध में खड़ा ही रहता है। और भरोसा नहीं है कि जो सदस्य आज पक्ष में मत दिया हैवह कल भी देगा। मन के भीतर भी दल-बदलू सदस्य हैं। वे दल बदल लेते हैं।
तो हम जो भी निर्णय मन से लेते हैंवह मेजर माइंड का होता है। हमारे भीतर जो मन का बहुमत होता हैवह कहता हैठीक। लेकिन अल्पमत प्रतीक्षा करता है कि कितनी देर तक ठीक! समय आएगास्थिति बदलेगीऔर हम तोड़ लेंगे। इसलिए हमारा मन कभी भी एक स्वर उपलब्ध नहीं कर पाता। कर भी नहीं सकता है। मन के काम करने का ढंग ही द्वंद्व है।
कीर्कगार्ड ने कहा है-और थोड़े से लोग जो मन की गहराइयों में उतरे हैंउनमें कीर्कगार्ड एक है-उसने कहा है कि मन के साथ निरंतर ही एक डायलाग हैएक वार्तालाप हैजो मन अपने को ही दो हिस्सों में तोड़कर चलाए चला जाता है।
जब आप सोचते हैं कुछतो आपका मन दो हिस्सों में टूट जाता हैएक पक्ष में बोलता हैएक विपक्ष में बोलता है। समस्त विचारमन का दो हिस्सों में टूटकर वार्तालाप है। एक खेल हैजो आप भीतर खेलते हैंइस तरफ से भीउस तरफ से भी।
यह जो मन का भीतर भी दो हिस्सों में टूट जाना है और बाहर भी जगत दो हिस्सों में टूट जाता हैइसके परिणाम क्या होते हैंपहला परिणाम तो यह होता है कि जगत में हमें उस एक के दर्शन नहीं हो पातेजो कि सबके भीतर छिपा है। और जब भीतर भी द्वंद्व हो जाता हैतो भीतर भी उस एक के दर्शन नहीं हो पाते हैंजो मौजूद है।
तो चाहे कोई बाहर उस एक को देख लेशर्त एक ही होगी कि मन को छोड्कर देखेऔर चाहे कोई भीतर उस एक को देख लेशर्त फिर भी वही होगी कि मन को छोड्कर देखे। और जब भीतर का एक दिखाई पड़ता हैतो बाहर और भीतर का द्वंद्व भी गिर जाता है। क्योंकि वह भी दो की भाषा है। भीतर और बाहरवह भी दो की भाषा है। जब भीतर का एक दिखाई पड़ता हैतो भीतर और बाहर दोनों खो जाते हैंएक ही रह जाता है। जब बाहर का एक दिखाई पड़ता हैतब भी एक ही रह जाता हैभीतर और बाहर का द्वंद्व खो जाता है।
इसे अगर हम संक्षिप्त में कहेंतो ऐसेकि समस्त धर्म की यात्रा मन को खोने की यात्रा हैऔर समस्त संसार की यात्रा मन को शक्तिशाली करने की यात्रा है। संसार का अर्थ हैमन को शक्तिशाली किए जाना। धर्म का अर्थ हैमन को विसर्जित किए जाना। धर्म का अर्थ हैऐसी चेतना को पा लेनाजहां मन न हो। और संसार का अर्थ हैऐसे मन को पा लेनाजहां चेतना न होमन ही मन रह जाएआत्मा बिलकुल पता न चले।
ऐसा हो जाता है। कभी किसी नदी पर देखा होपत्तों की बाढ आ जाती हैकाई छा जाती है। सारी नदी ढंक जाती है,कुछ दिखाई नहीं पड़ता। नीचे के जल का कण भी दिखाई नहीं पड़ता। सारी नदी की छाती पर पत्ते फैल जाते हैंनदी भीतर छिप जाती हैं।
ठीक ऐसे हीमन इतना फैल जाता है-फैल सकता है-कि वह जो आत्मा हैवह बिलकुल दिखाई पड़नी बंद हो जाए। नदी बिलकुल मौजूद है। एक पत्ते का जरा-सा फासला है। पत्ते की मोटाई ही कितनी हैलेकिन फिर भी दिखाई नहीं पड़तीओझल हो जाती है।
संसार का अर्थ हैमन ही मन रह जाए और आत्मा का बिलकुल पता न चले।
आपको अपनी आत्मा का पता चलता है?
ऐसे ही मन को समझाने के लिए मत कह लेना कि हौपता चलता है। आत्मा का पता चलना आसान नहीं है। क्योंकि हमारी सारी चेष्टा तो मन को मजबूत करने की है। ये जो मन के पत्ते हैंइनको ही तो हम शक्ति दिए चले जाते हैं। और फिर इन्हीं को हम फैलाए चले जाते हैं। फिर भी हम मानते हैं कि आत्मा है। वह मानना भी हमारे मन का एक विचार है। वह भी मन का एक पत्ता है।
हम मानते हैं कि आत्मा है। वह भी मन के ही कारण है। इसलिए वह मानना भी हमारा कभी पूरा नहीं हो पाता। जरा-सी असुविधा आती है और शक पैदा हो जाता है कि है भीया नहीं है।
आज एक मित्र ने मुझे पत्र लिखा है। वे आई सी एस रिटायर्ड आफिसर हैंपढ़े-लिखे आदमी हैंबडे भक्त हैं। इधर कैंसर हो गया। इधर कैंसर हो गयाचिकित्सकों ने इनकार कर दियाअब कोई इलाज नहीं हैअब मरना ही होगा। बससमय की प्रतीक्षा है। वे आजकलकभी भी मर सकते हैं। महीने दो महीने लग सकते हैं।
मुझे पत्र लिखा है कि मेरी सब भक्ति खो गईमुझे अब किसी ईश्वर पर कोई भरोसा नहीं रहा।
कैंसर शरीर पर ही नहीं फैला अबउसका मतलब हुआआत्मा तक फैल गया। यह कैंसर शरीर की बीमारी न रही अब,यह आत्मा तक फैल गई।
लिखा है कि पहले मुझे भरोसा था।
और मैं जानता हूं कि उनको भरोसा था। और आज से दो साल पहले जब मैंने उनसे कहा था कि यह भरोसा बहुत कीमती नहीं हैथोड़ी-सी चीज इसे तोड़ देगीक्योंकि यह मन का हैतो वे मानने को राजी न हुए थेजिद्द की थीनाराज हुए थेकि आप मुझ पर भरोसा क्यों नहीं करते जब मैं कहता हूं मुझे भरोसा है?
मैंने उनसे कहा थामुझे कोई अड़चन नहीं है भरोसा कर लेने में। मेरा कोई हर्ज और कोई लाभ नहीं है। लेकिन फिर भी आपसे मैं कहता हूं कि यह भरोसा मन का है। यह अनुभव नहीं हैयह खयाल है। और यह खयाल मन इसलिए बनाता है कि मन के अपने भय हैंजिन्हें वह छिपाना चाहता है। मन जानता है कि मौत होगी। मौत से डर लगता हैआत्मा को मान लेता है कि आत्मा अमर है। मन को डर लगता है कि मैं अकेला हूं जगत मेंपरमात्मा को मान लेता है कि किसी का सहारा है।
अब वह सब उखड़ गया हैक्योंकि चिकित्सक कहते हैंनहीं कुछ हो सकता। मंदिर की पूजा-प्रार्थना कुछ नहीं कर पाती,साधु-संतों का प्रसाद कुछ नहीं कर पाता। अब सब भरोसा टूट गया।
इसी के लिए भरोसा थाइसी के लिए टूट गया। जिस चीज के लिए थावही चीज अब नहीं हो रही। ईश्वर साथ नहीं दे रहा हैमौत करीब आ रही है। उस मौत के भय में ही ईश्वर को माना था। उस मौत के भय में ही आत्मा को माना था। अब मौत तो चली आ ?? रही है और भय सामने खड़ा है। अब उस ईश्वर को कैसे मानेंउस आत्मा को कैसे मानें?
मन भय के कारण मान लेता है। या यह भी हो सकता हैमन प्रलोभन के कारण मान ले। क्योंकि भय और प्रलोभन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मन इसलिए भी मान ले सकता है कि प्रलोभन है आत्मा को मानने में स्वर्ग कामोक्ष काईश्वर को मानने में उसके दर्शन काउसके आनंद का प्रलोभन है। मन इसलिए भी मान ले सकता है।
लेकिन लोभ हो या भयमन का माना ऊपर के पत्तों पर रखा गया विश्वास हैनीचे की जीवंत धारा का कोई भी पता नहीं है। इस जीवंत धारा को हम जान ही तब पाएंगेजब हम मन के द्वंद्व से हटें।
द्वंद्व कोई भी हो-चाहे लोभ का होअलोभ का होभय का होअभय का हो-द्वंद्व कोई भी होसत्य का होअसत्य का होजीवन का होमृत्यु का होइससे कोई संबंध नहीं है। द्वंद्व की भाषामन की भाषा है।
कृष्ण इस सूत्र में कहते हैं कि वे लोगजो सकाम साधना करते हैं अर्थात सुख की मांग करते हैंवे फिर-फिर वापस लौट आते हैं। क्योंकि सुख की साधना का अर्थ हैदुख को हम अंगीकार करने को राजी नहीं हैदुख को इनकार करते हैंसुख को अंगीकार करते हैं।
द्वंद्व शुरू हो गया। कुछ हैजिसे हम कहते हैंयह नहीं चाहिएऔर कुछ हैजिसे हम कहते हैंयह चाहिए। हमनें विभाजन कर लिया। हमने जीवन को अविभाज्य स्वीकार नहीं किया। यह टोटल एक्सेप्टिबिलिटी नहीं है कि हम समग्र जीवन को स्वीकार करते हैंजीवन जैसा हैहम राजी हैं। इसमें हम भेद करते हैं कि हम जीवन के इस पहलू से राजी हैंसुख दे जीवन तो हम राजी हैंदुख दे तो हम राजी नहीं है।
लेकिन कठिनाई यह है कि दुख जो हैवह सुख की छाया है। तो मुझसे कोई राजी हैवह कहता हैआओ मेरे घर,लेकिन अपनी छाया को अपने साथ मत लानानिमंत्रण हैस्वागत हैलेकिन छाया को छोड्कर आना।
ज्यादा से ज्यादा मैं इतना ही कर सकता हूं कि छाया को पीछे छिपाकर आ जाऊंछोड्कर तो कैसे आ सकता हूं! इस भांति आऊं कि छाया सामने न पड़ेपीछे छिपी रहे। और जब घर में मैं प्रवेश करूंगातो छाया भी प्रवेश कर जाएगी। क्योंकि छाया को कांटा नहीं जा सकता।
दुख सुख की छाया है। जो सुख को मलता हैवह दुख को भी मांग रहा है। जानकर नहीं मांगताक्योंकि कोई दुख को नहीं मांगता है। फिर भी उसे पता नहीं कि वह मांगे या न मांगेसुख की मांग में ही दुख को भी निमंत्रण मिल जाता है। दुख पीछे आता हैसुख सामने दिखाई पड़ता है। जब भेंट होती हैतो थोड़ी देर में सुख बिखर जाता है और दुख की राख हाथ में आ जाती है।
बार-बार हमें यह अनुभव होता है। जहां-जहां सुख पर मुट्ठी बांधते हैंआखिर में पाते हैं कि दुख हाथ में रह गया। और जहां-जहां सुख के सपने संजोते हैंवहीं-वहीं पाते हैं कि सिवाय दुख केदुखस्वप्नों के कुछ हाथ नहीं लगता है। जहां-जहां सुख का फूल खोजने जाते हैंवहां-वहां दुख का कांटा चुभ जाता है। लेकिन फिर भी मन मांगे चला जाता है सुख को। और जितने जोर से मांगता हैउतने ही जोर से दुख आए चला जाता है।
इस मांग को हम बदल भी सकते हैंबदल लेते हैं लोग। फिर बड़े मकान बनाने की मांग छोड़ देते हैं। फिर बड़ी दुकान सजाने की माग छोड़ देते हैं। फिर बड़ी पद-प्रतिष्ठाधन की मांग छोड़ देते हैं। लेकिन मन नहीं बदलता। मन फिर स्वर्ग में,परलोक में इन्हीं सुखों की मांग शुरू कर देता है।
तो कृष्ण कहते हैंऔर वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार तीनों वेदों में कहे हुए सकाम कर्म के शरण हुए और भोगों की कामना वाले पुरुष बारंबार आने-जाने को प्राप्त होते हैं।
वेद भी सहायता न कर सकेंगेकृष्ण भी सहायता न कर सकेंगेकोई भी सहायता न कर सकेगा। अगर आपकी मांग ही गलत हैतो इस जगत में कोई भी सहायता न कर सकेगा। जगत अपने नियमों से घूमता है। अगर आपने गलत मांगा हैतो गलत आपको मिल जाएगा।
आप कहेंगेहमने तो सुख मांगा है! लेकिन वह जो सुख की छाया हैवह किसको मिलेगीवह भी आपको ही मिलेगी। आप पूरा देखें। मन तोड़ देता हैइसलिए सुख अलग मालूम पड़ता हैदुख अलग मालूम पड़ता है। थोड़ा समझें और मन के बिना जगत को देखेंतब आपको पता चलेगा कि वे दोनों अलग नहीं हैं। मन के कारण ही दो मालूम पड़ते हैंवे एक ही हैं।
किस चीज में हमें सुख मिलता हैऔर जिस चीज में हमें सुख मिलता हैउसी में दुख मिल सकता हैफिर भी हमारी आंख नहीं खुलती। सच तो यह हैउसी में दुख मिलता हैजिसमें हमें सुख मिलता है। ऐसी किसी चीज में आपको कभी दुख मिला हैजिसमें आपको सुख पहले न मिला होजहां सुख मिलता हैवहीं दुख मिलता है। जिसमें सुख मिलता हैउसी में दुख मिलता है। जिससे अपेक्षा बाधते हैंउसी से अपेक्षा टूटती है। जिससे आशा बांधते हैंउसी से विषाद फलित होता है। एक ही बीज होता हैफिर भी हम देख नहीं पाते और जन्मों-जन्मों तक यह कथा ऐसी ही दोहरती चलती है। यह आना-जाना ऐसे ही होता रहता है।
कहांकठिनाई कहां होगीवही कठिनाई है मन के देखने में। मन जब किसी चीज में सुख देखता हैतो दुख दूसरा हिस्सा होता हैवह पीछे छिपा होता हैमन को पूरा दिखाई नहीं पड़ता। जब वह सुख देखता हैतो उसे सुख दिखाई पड़ता है,वह कहता हैसुख है यहां। दुख दिखाई नहीं पड़ता। वह ओझल होता है। वह विपरीत है। वह खयाल में ही नहीं आता। और जब दुख दिखाई पड़ता हैतब सुख ओझल हो गया होता है। तब सुख दिखाई नहीं पड़ता।
यह मन के देखने का जो अधूरा ढंग हैउसके कारण जो एक इकट्ठा सत्य हैवह हमें दो हिस्सों में टूटकर दिखाई पड़ता है। क्या हम मन के बिना जीवन के सत्य को पूरा देख सकते हैं?
जिन्होंने भी देखने की कोशिश की हैउन्हें मन को छोड़ देना पड़ा। मन को छोड़ने का अर्थ ही होता हैकामना को छोड़ देना। क्योंकि मन कामना का विस्तार है। मन वासना हैमन डिजायरिंग है-यह मिल जाएयह मिल जाएयह मिल जाएयह मिल जाए! और कठिनाई तो यह हैअगर न मिलेतो दुख होता हैऔर मिल जाए तो भी सुख नहीं होता। न मिलेतो दुख होता है खोने काऔर मिल जाएतो बोर्डमऊब हो जाती है।
ऐसा कोई सुख आपने जाना हैजो आपको मिल जाएफिर उबाए नजिससे ऊब न होने लगे?
गरीब आदमी का दुख होता है अभाव काऔर अमीर आदमी का दुख होता है उपलब्धि का। गरीब आदमी पीड़ित होता है,जो नहीं मिला उससेअमीर आदमी पीड़ित होता है उससेजो मिल गया। बुद्ध को पीड़ा क्या हैबुद्ध को पीड़ा यह है कि जो भी मिल गया हैउसमें कोई सुख नहीं है। घर छोड्कर भाग जाते हैं। उस युग कीउस इलाके की जितनी सुंदर युवतियां थींसभी बुद्ध को उपलब्ध थीं। उनसे घबड़ाकर भाग जाते हैं। महावीर को क्या तकलीफ हैसब मिल गया हैऔर सुख तो दिखाई पड़ता नहीं! तो सड़क पर भीख मांगने निकल जाते हैं। अमीर आदमी का दुख है कि वह जो चाहता थावह मिल गया। गरीब आदमी का दुख है कि जो उसने चाहावह नहीं मिला है।
गरीब और अमीर के दुख अलग-अलग होते हैंलेकिन दुख में कोई फर्क नहीं होता। एक ही चीज के दो छोर होते हैं। गरीब वहां खड़ा हैजहां कभी अमीर खड़ा था। और अमीर वहा खड़ा हैजहां गरीब अगर कोशिश करता रहातो कभी खड़ा हो जाएगा। लेकिन दोनों दुखी हैं।
लेकिन गरीब को दिखाई पड़ता है कि चीजें नहीं हैंइसलिए दुखी हूं। उसे दूसरा पहलू दिखाई नहीं पड़ता। अमीर को दिखाई पड़ता है कि चीजें हैंऔर दुखी हूं। उसे भी दूसरा पहलू नहीं दिखाई पड़ता। और हम दूसरे पहलू को बदलने के लिए आतुर रहते हैं। इसलिए गरीब अमीर बनने को राजी रहता है। और बहुत बार अमीर गरीब बनने को राजी हो गए हैं।
आखिर अमीर लड़कों नेबुद्ध ने और महावीर नेसब छोड्कर भिखारी के रूप में खड़े हो गए! यह दूसरे छोर पर जाने की इनकी तैयारी का कारण क्या है 2: एक ही कारण है कि जो हमारे पास होता हैउसी से दुख मिलने लगता है। जितनी हो दूरी,उतने ही सुख का आभास होता है। जितनी हो निकटताउतना ही दुख प्रकट होने लगता है। जो भी चीज पास आ जाएवही दुख देने लगती है। जो भी चीज दूर होवही सुख देती मालूम पड़ती है। क्योंकि दूर हैदे तो नहीं सकतीसिर्फ आभास हो सकता है। अगर किसी व्यक्ति कोजो भी उसने चाहा हैसभी मिल जाए इसी वक्ततो उससे ज्यादा दुखी आदमी खोजना संसार में मुश्किल होगा।
कल्पवृक्ष के बारे में हम सुनते हैं कि स्वर्ग में कल्पवृक्ष है। उसके नीचे आदमी बैठेतो जो भी चाहेउसे मिल जाए। शायद हम सोचते होंगेउस वृक्ष के नीचे बैठकर लोग कैसे सुख को न उपलब्ध हो जाते होंगे! मैं आपसे एक राज की बात कहता हूं। कभी वह वृक्ष मिलेतो भूलकर उसके नीचे मत बैठना। अन्यथा आपसे बड़ा दुखी व्यक्ति फिर संसार में कोई भी नहीं होगा। क्योंकि सुख सिर्फ उसकी आशा में हैजो नहीं मिला है। और जब तक नहीं मिला हैतभी तक। और जब मिल जाता हैतभी दुख हो जाता है।
तो सुख का जो आभास हैवह वासना का आभास है। वासना जब तक अतृप्त हैतब तक सुख का आभास है। वासना जब तृप्त होती हैतब सब बिखर जाता है। आदमी लेकिन चाहे चला जाएगा! यश को चाहेगाअपयश को नहीं। सुख को चाहेगा,दुख को नहीं।
लेकिन जो यश को चाहेगाउसे अपयश मिलेगा ही। वह उसकी छाया है। जो लाभ चाहेगावह हानि में पड़ेगा ही। वह उसकी छाया है। जो जीवन के प्रति मोहित होगामृत्यु उसे भयभीत करेगी ही। वह उसकी छाया है। अगर मृत्यु के भय से बचना हैतो जीवन के मोह से बचना पड़ेगा। और अगर दुख में गिरने से बचना हैतो सुख के आकर्षण को छोड़ देना पड़ेगा। सुख का आकर्षण जो छोड़ देता हैउसे फिर कोई दुखी नहीं कर सकता। और यश की जिसकी आकांक्षा न रहीउसका अपमान करना असंभव है।
मेरा अपमान मैं ही करवा सकता हूंआप नहीं कर सकते हैं। अगर मैं मान की आकांक्षा करूंतो अपमान करवा सकता हूं। अगर मैं यश चाहूं तो अपयश मेरा किया जा सकता है। अगर मैं प्रशंसा चाहूंतो मुझे गाली दी जा सकती है। लेकिन अगर मैं प्रशंसा ही न चाहूंतो आपकी गाली बिलकुल ही व्यर्थ हो जाती है। उसका कोई मूल्य ही नहीं रह जाता। क्योंकि जिसे मैं चाहता ही नहींउसको मिटाने के प्रयोजन से आप मिटा भी क्या पाएंगेअगर मैं आदर चाहूं तो निरादर के लिए मुझे तैयार होना चाहिए। और अगर निरादर की मेरी तैयारी न होतो आदर का मुझे खयाल छोड़ देना चाहिए। फिर कोई भी निरादर कर नहीं सकता। कोई उपाय नहीं है। मैं बाहर हो गया।। तो कृष्ण कहते हैं कि जो लोग सुख की कामना से धर्म की साधना में भी लगते हैंवे अपने को कितना ही धोखा दे लेंवापस लौट आएंगे। कितने ही बड़े सुख को पा लेंलेकिन चुक जाएगा पुण्य। पाते ही चुक जाता है। कीमत वसूल हो गई। किया हुआ श्रम पूरा हो गया। फल मिल गया हाथ मेंफिर स्वर्ग भी बासा हो जाता है।
सुना है मैंने कि स्वर्ग के देवी-देवता भी पृथ्वी के लिए तरसने लगते हैं। कथाएं हैंपुराणों में कथाएं हैं कि स्वर्ग के देवता अप्सराओं से ऊब जाते हैंबुरी तरह ऊब जाते हैं। पृथ्वी की स्त्रियों की कामना करने लगते हैं। पुरूरवा की कथा है कि स्वर्ग से आशा मांगी उसने कि मुझे पृथ्वी पर जाने देंताकि मैं पृथ्वी की किसी स्त्री को प्रेम कर सकूं!
क्या हुआ होगा पुरूरवा कोयहां पृथ्वी पर तो अप्सराओं के लिए लोग दीवाने हैं। यहां भी कोशिश करते हैं स्त्रियों को अप्सराओं जैसी सजाने की! कोशिश असफल जाती है! लेकिन पुरूरवा को क्या हुआवह अप्सराओं को छोड्कर यहां पृथ्वी पर किसी स्त्री से प्रेम करने आना चाहता है! कोई स्त्री स्वर्ग में-कथाएं हैं-बूढ़ी नहीं होती! सोलह वर्ष पर ही उम्र ठहर जाती है! तो आदमी तो कितना चाहता हैकितनी कविताएं लिखता हैऔर स्त्रियां तो कितनी कोशिश करती हैं! सोलह साल के बाद उनकी उम्र बढ़ती ही नहीं! बहुत कोशिश करती हैं! फिर भीयहां तो सब बढ़ ही जाती है। वहां तो बढ़ती ही नहीं! पुरूरवा क्यों ऊब गया होगा?
यह सोलह साल पर अगर सबकी उम्र ठहर जाएतो भी उबाने वाली हो जाएगीयह भी घबड़ाने वाला हो जाएगा। और जो फूल कुम्हलाता ही न होवह प्लास्टिक का मालूम पड़ने लगेगा। जो फूल कुम्हलाता ही न होवह प्लास्टिक का मालूम पड़ने लगेगा। तो अप्सराएं बिलकुल प्लास्टिक की मालूम पड़ी होंगीकागजी मालूम पड़ी होंगी। न कुम्हलाती हैंन पसीना आता हैन उम्र ढलती हैन कभी आंख से आंसू बहते हैंहोंठों की मुस्कुराहट है कि ऐसी बनी रहती हैजैसी कि नेताओं के मुंह पर चिपकी रहती है! वह चिपकी ही रहती है। वह कभी हटती ही नहीं। अप्सराएं सोती भी हैंतो भी होंठ मुस्कुराते रहते हैं। यह मुस्कुराहट भी घबड़ाने वाली हो जाएगीबेस्वाद हो जाएगी।
पुरूरवा घबड़ा गया। उसने कहा कि मुझे आशा दोमैं पृथ्वी पर जाऊंकिसी स्त्री को प्रेम करूंजो बूढ़ी भी होती होजो रोती भी होजिसके शरीर पर पसीना भी आ जाता होजिसकी जिंदगी में सब उतार-चढाव होते हों। ताकि मुझे कुछ असलियत का अनुभव होयहां तो सब कागजी हो गया है।
स्वर्ग पाकर भी वासना तो क्षीण नहीं होगीवासना नए आयाम पकड़ लेगीनई दुनियाओं में खोज करने लगेगीनई जगह तलाश करने लगेगी। और फिर जो स्वर्ग पा लिया हैजो सुख पा लिया है।
स्वर्ग का अर्थ है मनोवैज्ञानिक कि जो भी सुख पा लिया हैवह पाते ही क्षीण होना शुरू हो जाता है-पाते ही। जिस शिखर को भी हम पा लेते हैंपाते से ही उतार शुरू हो जाता हैउतरना शुरू हो जाता है।
कृष्ण कहते हैंलौट आएगा वापस वह व्यक्तिजिसने सकाम साधना की है। परमात्मा को भी जिसने वासना के माध्यम से चाहा और मांगा हैउसे सुख तो मिल जाएगालेकिन वह लौट आएगा।
और ध्यान रखेंसुख को जानकर जब कोई लौटता हैतो महादुख में पड़ जाता है। कभी आपने देखा हैरास्ते से गुजर रहे हैंअंधेरी रातसन्नाटा हैअंधेरा है रास्ते पर। फिर एक मोटरगाड़ी पास से गुजर जाती है। तेज प्रकाश आपकी आंख में पड़ता है।
मोटर गुजर गईपीछे आप और महाअंधकार अनुभव करते हैंजितना कि इस गाड़ी के गुजरने के पहले नहीं था। अंधेरा तो वही हैपर आपकी आंखों की कठिनाई हो गईआंखों ने प्रकाश जान लियाअब अंधेरा और भी घना मालूम पड़ेगा।
तो जो भी व्यक्ति स्वर्ग में हो आता हैसुख को जान लेता हैगिरते ही महानर्क की गर्त को अनुभव करता है। सुख को जानना महंगा सौदा हैगिरना तो पड़ेगा। और जब चित्त गिरता है वापसतो सभी कुछ दुख हो जाता है। सभी कुछ दुख हो जाता है। चित्त का अनुभव अब सुख के लिए और भारी मांग से भर जाता है। और सभी चीजें उदास कर जाती हैंऔर सभी चीजें दुख दे जाती हैं। कृष्ण कहते हैंऐसे व्यक्ति का आना-जाना जारी रहता है। वह परिभ्रमण में भटकता रहता है। वह एक वर्तुल में पड़ जाता है। जैसे बैलगाड़ी के चाक में एक आरा ऊपर आता हैफिर नीचे जाता हैफिर ऊपर आता हैफिर नीचे जाता है।
संसार हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण शब्द रहा है। संसार का मतलब होता हैचाकदि व्हील। संसार का मतलब होता है,चक्के की तरह जो घूमता रहता है। जो अभी ऊपर हैवह थोड़ी देर में नीचे आ जाता हैजो अभी नीचे हैवह थोड़ी देर में ऊपर आ जाता है। और यह चाक घूमता चला जाता है। और जो नीचे हैवह ऊपर आने की आशा करता रहता है। और ऊपर आ भी नहीं पाता है कि नीचे जाना शुरू हो जाता हैक्योंकि चाक घूमता रहता है। जो ऊपर हैवह ऊपर बने रहने की कितनी ही कोशिश करेबना नहीं रह पातानीचे उतरना पड़ता है।
कृष्ण कहते हैंकामना से अगर स्वर्ग भी मिल जाएतो भी लौट आना पड़ता है। कामना की कोई भी उपलब्धि वास्तविक नहीं है। कामना की कोई भी उपलब्धि यथार्थ नहीं है। कामना की कोई भी उपलब्धि स्वप्न से ज्यादा नहीं है। स्वप्न टूटेगा ही। कितना ही लंबा कोई स्वप्न देखेस्वप्न टूटेगा ही।
क्या कोई उपाय है कि व्यक्ति इस स्वप्न और इस चाक के परिभ्रमण से बाहर हो जाए?
तो कृष्ण कहते हैंजो अनन्य भाव से मेरे में स्थित हुए भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरंतर चिंतन करते हुए निष्काम भाव से उपासते हैंउन नित्य एकीभाव से मुझ में स्थित पुरुषों का योग- क्षेम मैं स्वयं सम्हाल लेता हूं।
इसमें तीन बातें समझने जैसी हैं।
एकनिष्काम भाव से जो मुझे उपासते हैं। कठिन है बहुत। यही उपासना और वासना का भेद है। हमारी उपासना भी वासना ही है। हम परमात्मा के पास भी जाते हैंतो परमात्मा के लिए नहींकारण कुछ और ही होता है। कोई बीमार हैइसलिए मंदिर में जाता है। कोई बेकार हैइसलिए मंदिर में जाता है। कोई निर्धन हैइसलिए मंदिर में जाता है। कोई निस्संतान है,इसलिए मंदिर में जाता है। जो किसी भी कारण से मंदिर में जाता हैवह मंदिर में पहुंच ही नहीं पाता है। शरीर भीतर प्रवेश कर जाएगामूर्ति सामने आ जाएगीलेकिन उपासना संभव नहीं है। क्योंकि जहां वासना हैवहां उपासना संभव ही नहीं है।
उपासना का अर्थ होता हैपरमात्मा के पास होना। और जब मैं धन मांगने के लिए उसके पास जाता हूं तो मैं धन के पास होता हूंउसके पास कैसे होऊंगामेरी मांग ही मेरी निकटता है। जो मैं चाहता हूं वही मेरे निकट हैऔर जिससे मैं चाहता हूंवह तो केवल साधन है। अगर परमात्मा पूरा कर देतो ठीक हैअगर पूरा न करेतो फिर मैं वहा नहीं जाऊंगा। कोई और पूरा कर देतो उसके पास जाऊंगा। जहां मेरी वासना पूरी होगीवहां मैं जाऊंगा। परमात्मा कर सकता हैतो वहा भी तलाश कर लेता हूं! लेकिन परमात्मा मेरी इच्छा का हिस्सा नहीं है। मेरी इच्छा कोई और है। रामकृष्ण ने विवेकानंद को कहा था। कठिनाई में थेपिता चल बसे थेबहुत कर्ज छोड़ गए थे। घर में भूख के सिवाय और कुछ भी नहीं था। विवेकानंद सड्कों पर घूमकर भूखे-प्यासे वापस लौट आते थे। मां दुखी न होतो उससे कहते थेआज मित्र के घर निमंत्रण है। वहा से हंसते हुएपेट पर हाथ फेरते हुएझूठी डकार लेते हुए घर में प्रवेश करते थे।
रामकृष्ण को पता चलातो रामकृष्ण ने कहा कि तू पागल है। तू जाकर मंदिर में मां को क्यों नहीं कह देता हैअपनी तकलीफ कह दे।
रामकृष्ण ने कहातो विवेकानंद टाल भी न सके। दरवाजे पर रामकृष्ण बैठे हैं दक्षिणेश्वर केऔर विवेकानंद को धक्का देकर भीतर भेजा है कि तू जामां से कहसभी कुछ ठीक हो जाएगा। उस पर छोड़ देवह योग- क्षेम सम्हाल लेगी।
विवेकानंद भीतर गए। घंटा बीत गया। रामकृष्ण झांककर देखते हैंहाथ जोड़े खड़े हैंआंख से आंसू बह रहे हैं! फिर रामकृष्ण प्रतीक्षा करते हैं। और घंटा बीत गया! फिर आवाज देते हैं। विवेकानंद बाहर आते हैं। आनंदित हैं। आंसू फूल की तरह मुस्कुरा रहे हैं। चित्त आनंद से भरा है। नाचते हुए बाहर आते हैं।
रामकृष्ण कहते हैंकहा था मैंने पहले हीतू क्यों नहीं कह देतावे सब सम्हाल लेंगी।
विवेकानंद ने कहाकौन-सी बात सम्हाल लेंगी?
रामकृष्ण ने कहा कि मैंने तुझे कहा थाउनसे कह दे कि घर में कुछ भी नहीं है।
विवेकानंद ने कहावह तो मैं भूल ही गयावह तो मुझे याद ही न रहा। इतने पास था उनका होना कि दोनों के बीच में और किसी तीसरी चीज के होने की जगह भी नहीं थी।
वापस रामकृष्ण ने कहापागल! फिर से जा। ऐसे हल नहीं होगा। मां भी नहीं सुनती हैअगर रोने न लगे बच्चा। जा और कह! विवेकानंद को फिर भेजा हैवे फिर वापस आ गए हैं आनंद से भरे हुएलेकिन फिर भूल गए हैं।
रामकृष्ण ने कहाइसमें भूलने की बात क्या है?
विवेकानंद ने कहा कि भूलने का सवाल ही नहीं है। इतने पास हो जाता हूं कि दूसरी कोई चीज बीच में आएइसके लिए जगहस्पेसस्थान ही नहीं बचता है।
रामकृष्ण ने कहाइसीलिए तुझे बार-बार भेजाजानना चाहता था कि अभी वासना बनी है या उपासना भी बन सकती है!
वासना और उपासना का यह फर्क है। वासना सकाम होगीकुछ मांगने के लिए होगी। तो जो हम मांगते हैंवही श्रेष्ठ है,जिससे हम मांगते हैंवह श्रेष्ठ नहीं है। उससे मिलता हैइसलिए हम उसको श्रेष्ठ मान लेते हैं। लेकिन जो मांगते हैंवही श्रेष्ठ है। उपासना का तो अर्थ ही यह है कि एक नया जगत शुरू हुआ किसी के पास होने काजिससे कुछ भी मांगना नहीं हैजिसके पास होना ही काफी आनंद हैजिससे और कोई माग का सवाल नहीं है। उपासना का अर्थ हैपरमात्मा के पास होना। और पास होने में ही सारी उपलब्धि मानना। पास होने में हीउसकी निकटता ही सब कुछ है। उसके पास होने में ही सब मिल गया। सब स्वर्गसब मोक्ष। उसकी निकटता से ज्यादा और कोई चाह नहीं है।
निष्काम साधना का अर्थ हैपरमात्मा को चाहना उसके ही लिएकिसी और कारण से नहीं
इस जगत में हम सभी को किसी और कारण से चाहते हैं। अगर मैं एक स्त्री को प्रेम करता हूंतो इसलिए कि वह सुंदर है। लेकिन कल वह असुंदर हो सकती है। फिर प्रेम कैसे टिकेगाक्योंकि जिस सौंदर्य के लिए प्रेम थावह खो गया। फिर धोखा ही टिकेगा। फिर मुझे खींच-तानकर चलाना पड़ेगा। फिर मैं कहता रहूंगा कि ठीक हैअब भी प्रेम है। लेकिन प्रेम तिरोहित हो गया होगा। क्योंकि प्रेम का कोई कारण था।
कोई जवान हैइसलिए मेरा उससे प्रेम है। कल वह बूढ़ा हो जाएगाफिर कैसे प्रेम टिकेगाकोई बुद्धिमान हैइसलिए मेरा उससे प्रेम हैकारण है। कोई धनी हैकोई स्वस्थ हैकोई कलाकार है। कुछ है कारण।
इस जगत में हम जितने भी संबंध बनाते हैंवे सभी सकारण हैंसभी सकाम हैं। इसी वजह सेआदत के वशहम परमात्मा से भी जो संबंध बनाते हैंवे भी सकाम हैं। इसलिए सकाम भक्त परमात्मा के संबंध में जो बातें कहता हैजो गीत गाता हैउनको ठीक से अध्ययन करेंतो पता चलेगा कि वह क्या-क्या कह रहा है!
वह कहता है कि तुम्हारे नयन बहुत प्यारे हैंइसलिएकि तुम बड़े मनमोहन होइसलिएकि तुमने सबको रचाकि तुम सबके पालनहार होइसलिएकि तुम जो पतित हैंउनके सहारे होइसलिएकि तुमने पापियों को उद्धाराइसलिए। लेकिन सबके पीछे देअरफोरइसलिए है।
लेकिन अगर वह पापियों का उद्धारक नहींअगर उसकी आंखें बहुत सुंदर नहींबड़ी कुरूप हैंमनमोहन नहींफिर क्या होगाहम जो इस जगत में संबंध बनाते हैंउन्हीं के आधार पर हम परमात्मा से भी संबंध बनाने की कोशिश करते हैंयही सकाम धारणा है।
कृष्ण कह रहे हैंजो निष्काम भाव से मुझे उपासेगा!
जो किसी कारण से नहींअकारण। जो कहेगाकोई कारण नहीं हैकोई वजह नहीं हैबेवजहबिना कारणतुम्हारे पास होना बस काफी है। तुम कैसे होइसकी कोई शर्त नहीं है। तुम क्या करोगेइसकी कोई माग नहीं है। तुमने कब क्या किया है,उसका कोई हिसाब नहीं है। तुम सुख ही दोगेयह भी पक्का नहीं है। तुम दुख न दोगेइसका भी पक्का नहीं है। यह सब कुछ पक्का नहीं है। लेकिन तुम्हारे पास होनाऔर तुम जैसे भी होतुम्हारे पास होना ही मेरा आनंद है। बसतुम्हारे पास होने में ही मेरा सब समाप्त हो जाता हैमैं मंजिल पर पहुंच जाता हूं।
इसलिए निष्काम साधना बड़ी कठिन हैआदमी सोच भी नहीं पाता। कोई आदमी चाहता हैमन अशांत हैइसलिए। दुखी हैइसलिए। संताप हैचिंता हैइसलिए। अकारणअकारण की भाषा ही हमारी समझ में नहीं आती!
लेकिन ध्यान रहेइस जगत में जो भी महत्वपूर्ण हैसभी अकारण घटित होता हैऔर जो भी क्षुद्र हैवह सकारण होता है। अगर इस जगत में भी कभी प्रेम घटित होता हैतो वह उपासना जैसा होता हैवासना जैसा नहीं होता। कभी हम एक व्यक्ति को इसलिए प्रेम नहीं करते कि कोई भी कारण है। बसउसके पास होना काफी है। वह क्या करेगायह नहीं। उससे कोई मांग नहींकोई अपेक्षा नहीं। बसवह हैइतना काफी है। उसकी उपस्थिति काफी है। उससे क्या मिलता हैइसका भी कोई हिसाब नहीं है। बिना कारण।
तो जगत में भी प्रेम का फूल खिलता है कभी बिना कारण। प्रार्थना भी कभी बिना कारण होतो फूल बन जाती है।
मंदिर में जाएंसब कारण बाहर रख जाएं जहां जूते उतारते हैं। एक बार जूता भी भीतर चला जाएतो मंदिर अपवित्र नहीं होगा। लेकिन कारण भीतर मत ले जाएं। कारण भीतर ले गएतो सब अपवित्र हो जाता है। कारणों को वहीं उतार जाएं,जहां जूते उतार देते हैं। सब कारण वहा रख जाएं। सब वासनाएं वहा रख जाएं। मंदिर में तो सिर्फ होने के आनंद के लिए जाएं। थोड़ी देर उसके पास होंगे। कुछ मत करें वहां। कुछ करना जरूरी नहीं है। बसचुपचाप वहां बैठ जाएं। सिर्फ उसकी मौजूदगी अनुभव करें। उसमें भी अनुभव क्या करना है! शांत बैठेंतो अनुभव होने लगेगी। वह वहां है हीसभी जगह है।
एक बार मंदिर में होने लगेतो कोई कारण नहीं है कि मस्जिद में क्यों न हो! एक बार मस्जिद में होने लगेतो कोई कारण नहीं है कि चर्च में क्यों न हो! और एक बार कहीं भी होने लगेतो कोई भी कारण नहीं है कि और कहीं क्यों न हो! कहीं भी होगा। कहीं भी शांत बैठ जाएंवह मौजूद है। चुप हो जाएंसिर्फ उसकी मौजूदगी को अनुभव करेंतो उपासना है।
और माग कोई भी न हो। रत्तीभर भी नहीं। रत्तीभर भी नहीं। अगर वह देने को भी राजी हो जाएअगर वह कहे भी कि माग लोतो भी खोजने से मांग का भीतर पता न चले। कहना पड़े उससे कि असमर्थ हूं कोई मल नहीं है। ऐसी स्थिति में होगी निष्काम भाव से उपासना।
और जो निष्काम भाव से उपासना करता हैकृष्ण कहते हैंउसका योग- क्षेमदोनों ही मैं सम्हाल लेता हूं।
योग और क्षेम शब्द को समझ लेना चाहिए।
योग से अर्थ हैवह परम प्रतीतिअंतिम प्रतीति प्रभु-मिलन कीपूर्ण के साथ एक होने की। योग से अर्थ हैव्यक्ति के मिटने की घटना परमात्म मेंवह मैं सम्हाल लेता हूं। और क्षेम से अर्थ हैजब तक वह घटना न घट जाएतो जो भी जरूरी है,वह भी मैं सम्हाल लेता हूं। क्षेम से अर्थ हैयोग जब तक न घटेतब तक जो भी जरूरी हो! अगर शरीर की जरूरत होतो शरीर को सम्हाल लूंगा। अगर भोजन की जरूरत हैतो भोजन को सम्हाल लूंगा। अगर श्वास की जरूरत हैतो श्वास को सम्हाल लूंगा। जब तक वह परम घटना नहीं घटती हैतब तक उसके पहले जो-जो आवश्यक हैवह भी मैं सम्हाल लूंगा। उसका नाम है क्षेम। और जब क्षेम के बाद वह परम घटता घट जाएगीआखिरीवह भी मैं सम्हाल लूंगा।
कृष्ण यह कहते हैं कि एक बार तू अपनी मांग छोड़तो मैं सब सम्हालने को तैयार हूं। और जब तक तू मांग किए जाता हैतब तक मैं कुछ भी नहीं सम्हाल सकता हूं। न सम्हालने का कारण है। क्योंकि जब तक तू मांग किए जाता हैतब तक तू अपने को मुझसे ज्यादा समझदार समझे चला जाता है।
मांग का मतलब ही यह होता है। एक आदमी जाता है मंदिर में और भगवान से कहता है कि यह क्या कियायह कैंसर मुझे हो गया! यह कैसा न्याय है?
वह यह कह रहा है कि तुमसे ज्यादा अकल तो हममें है! हम समझते हैं कि यह न्याय नहीं है। और क्या कर रहे हो बैठे वहांजिन मित्र का मैंने उल्लेख कियाउन्होंने मुझे पत्र में लिखा हैक्या ईश्वर न्याय-युक्त हैअगर न्याय-युक्त हैतो मुझे कैंसर क्यों हुआलिखा है कि मैंने जिंदगी में कोई रिश्वत नहीं लीकोई बुरा काम नहीं कियाकिसी को सताया नहींफिर यह फल मुझे मिला! तो ईश्वर न्याय-युक्त हैइसे सिद्ध करके बताएं।
निश्चित ही अन्याय हो गया। निश्चित अन्याय हो गयाक्योंकि कैंसर आ गया! इसका मतलब यह हुआ कि यह आदमी कहता है कि मैंने कोई बुरा नहीं कियाइसका इसे भरोसा है! इस पर इसे शक नहीं आताकि शायद कोई बुरा किया हो! इस पर इसे कोई शक नहीं आता। इस पर भी इसे कोई शक नहीं आता कि इसे कैंसर नहीं होना चाहिए। इस पर भी कोई शक नहीं आता। और इस पर भी इसे कोई शक नहीं आता कि कैंसर के होने में अन्याय है ही! या कैंसर कोई ऐसी बुराई हैजो होनी ही नहीं चाहिए! इस पर भी इसे कोई खयाल नहीं आता। एक बात पक्की खयाल आ जाती है कि ईश्वर अन्यायी हैन्याय-युक्त नहीं है। कोई जस्टिस नहीं है। अगर आज यह ईश्वर की प्रार्थना करे और इसका कैंसर ठीक हो जाएतो फिर यह ईश्वर को मानेगा। अगर इसका कैंसर ठीक न होतो फिर यह नहीं मानेगा।
यह सशर्तसकाम भावना है। भक्तसच में निष्काम भक्त परमात्मा से कहेगा कि जो भी तूने दियामैं आनंदित हूंवह फूल गिराए तोऔर कैंसर बरसा दे तो। जो भी तूने दियामैं आनंदित हूं। क्योंकि तू जो देगावह ठीक होगा ही। गलत तो वह तब होता हैजब मेरी मांग के विपरीत पड़ता है। जब मेरी कोई मांग नहींतो गलत होने का कोई उपाय नहीं। अन्याय तो तब मालूम पड़ता हैजब मैं सोचता था कुछ और मिलेगाऔर मिलता कुछ और है। जब मैं देखता हूं कि जो भी मिलता हैवही न्याय हैतब तो कोई सवाल नहीं है।
कृष्ण कहते हैं कि जो मुझ पर सब छोड़ देता हैउसे मैं सम्हाल लेता हूं। और जो मुझ पर छोड़ता नहींखुद ही सम्हालता हैउसे खुद ही सम्हालना पड़ता है।
हम सब खुद सम्हाल-सम्हालकर बोझ से दबे जाते हैं। हम उन देहाती यात्रियों की तरह हैंजो पहली-पहली दफा ट्रेन में सवार हुए थेतो अपनी पोटलियां अपने सिर पर रखकर बैठ गए थे! क्योंकि उन्होंने सोचाटिकट तो हमने सिर्फ अपने बैठने की ही चुकाई है! और फिर उन्होंने यह भी सोचा कि इतना वजन गाड़ी पर पड़ेगाड़ी चल सकेन चल सके! वैसे भले लोग थे। उन्होंने सिर पर अपनी पोटलिया रख लीं और बैठ गए।
हम भी अपनी पोटलियां अपने सिर पर रखे हैं। हम सोचते हैंजीवन चलेन चले! अपना-अपना जीवन तो खींचना ही पड़ेगा। और अपना-अपना खींचने से भी जिनको बोझ काफी नहीं मालूम पड़तावे दूसरों का भी खींचते हैं! कई की उतने से भी तृप्ति नहीं होती। उन्हें एकाध राष्ट्र का जब तक बोझ न मिल जाएउनकी खोपड़ी पर जब तक कोई चालीस-पचास करोड़ आदमियों का बोझ न होजब तक उन्हें ऐसा न लगे कि पचास करोड़ लोग उन्हीं के कारण चल रहे और जी रहे हैंतब तक उनको चैन नहीं आता। इतनी बेचैनी न मिलेतो उन्हें कोई चैन नहीं है!
हम सबका मन होता है कि मैं चला रहा हूं सब! ऐसा व्यक्ति निष्काम भावना को कैसे उपलब्ध हो सकता हैनिष्काम भावना को तो वही उपलब्ध हो सकता हैजो जानता है कि वही चला रहा हैतो मैं फिर बीच-बीच में क्यों मांगें खड़ी करूं। फिर मैं बीच-बीच में क्यों कहूं कि ऐसा होना चाहिए और ऐसा नहीं होना चाहिए!
सुना है मैंनेएक मुसलमान बादशाह हुआ। गुलाम था उसका एकबहुत प्रेम था गुलाम से। पत्नी भी नहीं सो सकती थी उसके कमरे मेंलेकिन गुलाम सोता था। कोई भी साथ न जाए वहावहां भी गुलाम साथ होता था। कितनी ही गुफ्तगू की बात होबडे दो सम्राटों से मिलना हो रहा होतो भी गुलाम मौजूद होता था। गहरी मैत्री थी। सम्राट कुछ भोजन भी करता थातो पहला कौर गुलाम को देता था।
दोनों शिकार के लिए गए थे। रास्ते में खो गए। भूख लगीबहुत परेशान थे। एक वृक्ष के पास रुके। एक ही फल था वृक्ष मेंसम्राट ने हाथ बढ़ाकर तोड़ा। सदा के हिसाब के अनुसार उसने एक कली काटी और गुलाम को दी। उस गुलाम ने कली खाई और कहा कि आश्चर्यऐसा अमृत फल! एक कली और दे दें।
सम्राट ने दूसरी भी दे दी। गुलाम ने तीसरी भी मांगी। एक ही टुकड़ा सम्राट के पास बचा। सम्राट ने कहा कि अब बस! हद्द कर दी तूने! अगर इतना अमृत फल हैतो एक तो टुकड़ा मुझे खा लेने दे! गुलाम हाथ से छीनने लगा। उसने कहा कि नहीं मालिकयह फल ऐसा अमृत है कि मुझे पूरा दे दें।
सम्राट ने कहायह ज्यादती है। यह सीमा के बाहर बात हुई जा रही है। तू तीन टुकड़े खा चुका है। दूसरा फल वृक्ष पर नहीं है। हम दोनों भूखे हैं। और मैंने तुझे तीन टुकड़े दे दिए। फल मैंने तोड़ा है। और तू आखिरी टुकड़ा भी नहीं छोड़ना चाहता।
गुलाम ने कहा कि नहींछोड़ने को राजी नहीं हूं।
लेकिन सम्राट न माना। उसने टुकड़ा अपने मुंह में रखा। जहर था बिलकुल। उसने गुलाम से कहातू पागल तो नहीं है?इसे तू अमृत कहता है!
उस गुलाम ने कहा कि जिस हाथ से सदा मीठे फल खाने को मिलेउसके एक जरा-से कड़वे फल की शिकायत भी करनी सारे जीवन के प्रेम पर पानी फेर देना है। और सवाल फल का नहीं हैसवाल तो उस हाथ का हैजिसने दिया है। वह हाथ इतना मीठा है। इसीलिए जिद्द कर रहा था कि वह टुकड़ा मुझे दे दें। आपको पता भी न चल पाए। क्योंकि पता भी चल गयातो शिकायत हो गई। आपको पता भी न चल पाए। क्योंकि पता भी चल गया किसी कारण सेतो शिकायत हो गई। तो जिंदगी भर इतना प्रेमउसमें यह छोटी-सी शिकायतमेरे छोटे मन का सबूत है। यह फल बहुत मीठा था।
पर सम्राट ने कहा कि मुझे कडुवा लगता है।
तो उस गुलाम ने कहा कि मुझे आपके हाथ के संबंध में पता नहींआपके मुंह के संबंध में मुझे कुछ पता नहींलेकिन आपने जिस हाथ से मुझे दिया हैउस हाथ में सभी कुछ मीठा हो जाता है।
निष्काम भावना का अर्थ हैपरमात्मा जो भी दे रहा हैवह उसकी अनुकंपा हैहमारी कोई मांग नहीं है। और वह जो भी दे रहा हैउस सभी के लिए हम अनुगृहीत हैं। उसमें भेद नहीं है कि इस बात के लिए अनुग्रह है और इस बात के लिए शिकायत है। जिस आदमी के मन में शिकायत हैवह आस्तिक नहीं है।
आस्तिक की मेरी तरफ एक ही परिभाषा हैवह आदमी नहींजो कहता हैईश्वर है। वह आदमी नहींजो कहता है कि ईश्वर हैइसके मैं प्रमाण दे सकता हूं। वह आदमी नहींजो ईश्वर हैऐसी मान्यता रखकर जीता है। आस्तिक का एक ही अर्थ हैवह आदमीजिसकी अस्तित्व के प्रति कोई शिकायत नहीं है। ईश्वर का नाम भी न लेतो चलेगा। चर्चा ही न उठाएतो भी चलेगा। ईश्वर की बात भी न करेतो भी चलेगा। लेकिन अस्तित्व के प्रतिजीवन के प्रति उसकी कोई शिकायत नहीं है।
यह सारा जीवन उसके लिए एक आनंद-उत्सव है। यह सारा जीवन उसकेलिए एक अनुग्रह हैएक ग्रेटिटयूड है। यह सारा जीवन एक अनुकंपा हैएक आभार है। उसके प्राण का एक-एक स्वर धन्यवाद से भरा हैजो भी हैउसके लिए। उसमें रत्तीभर फर्क की उसकी आकांक्षा नहीं है। '
ऐसा व्यक्तिकृष्ण कहते हैंनिष्काम भाव से उपासता है मुझे।। उसके योग- क्षेम की मैं स्वयं ही चिंता कर लेता हूं। उसे अपने न तो योग की चिंता करनी है और न क्षेम की।
यहां एक बड़ी अदभुत बात है। और आमतौर से जब भी कोई इस सूत्र को पढ़ता हैतो उसको कठिनाई क्षेम में मालूम पड़ती हैयोग में नहीं! इस सूत्र परजितने व्याख्याकार हैंउनको कठिनाई क्षेम में मालूम पड़ती है। वे कहते हैंयोग तो ठीक है कि परमात्मा सम्हाल लेगाअंतिम मिलन कोलेकिन यह जो रोज दैनंदिन का जीवन हैयह जो रोटी कमानी हैयह जो कपड़ा बनाना हैयह जो मकान बनाना हैयह जो बच्चे पालने हैं-यह सब-यह परमात्मा कैसे करेगाहालत दूसरी होनी चाहिए। हालत तो यह होनी चाहिए कि ये छोटी-छोटी चीजें शायद परमात्मा कर भी लेगा। योगसाधना की अंतिम अवस्थावह कैसे करेगा! लेकिन वह किसी को खयाल नहीं उठता।
हम सबको डर इन्हीं सब छोटी चीजों का हैइसीलिए। उस बड़ी चीज पर तो हमारी कोई दृष्टि भी नहीं है। मोहम्मद,सांझ जो भी उन्हें मिलता थाबांट देते थे। कोई भेंट कर जाताकोई दे जाताकोई चढ़ा जातावे सांझ सब बांटकररात फकीर होकर सो जाते थे। मोहम्मद जैसा फकीर मुश्किल से होता है।
और एकबारगी सब छोड़ देना बहुत आसान है। महावीर ने एकबारगी सब छोड़ दियायह बहुत आसान है। मोहम्मद ने एकबारगी सब नहीं छोड़ारोज-रोज छोड़ा। यह बहुत कठिन है। सुबह लोग दे जातेतो मोहम्मद ले लेतेऔर सांझ सब बांट देते। रात फकीर होकर सो जाते। आदेश था घर में कि एक चावल का टुकड़ा भी बचाया न जाए। क्योंकि जिसने आज सुबह दिया थावह कल सुबह देगा। और नहीं देगातो उसकी मर्जी। नहीं देगातो इसीलिए कि देने की बजाय न देना हितकर होगा। सांझ सब बांट देना है। जिसने आज सुबह फिक्र की थीकल सुबह फिक्र करेगा। नहीं करेगातो उसका अर्थ है कि वह चाहता हैआज हम भूखे रहें। उसका अर्थ है कि वह चाहता हैआज भोजन की बजाय भूख हितकर है।
ठीक चलता रहा। मोहम्मद की जिद्द थीइसलिए कोई रोकता नहीं था। लेकिन फिर मोहम्मद बीमार पड़े और अंतिम रात आ गई। तो पत्नी को भय लगा! उसे लगाऔर दिन तो सब ठीक थालेकिन आज आंधी रात में भी दवा की जरूरत पड़ सकती है। सुबह वह देगालेकिन आंधी रात! पत्नी का मनप्रेम के कारण हीपांच दीनारपांच रुपए उसने बचाकर रख लिए।
मोहम्मद बेचैन हैं। करवट बदलते हैंनींद नहीं आती। रात बारह बज गए हैं। आखिर उन्होंने उठकर कहा कि मुझे लगता है कि मेरे जीवनभर का नियम आज टूट गया है। मुझे नींद नहीं आती! मैं तो सदा सो जाता था। आज मेरी हालत वैसी हैजैसी धनपतियों की होती है। करवट बदलता हूं नींद नहीं आती। मैं सदा का गरीबमुझे कभी कोई चिंता नहीं पकड़ी। रात मुझे कोई सवाल नहीं था। आज क्या हो रहा हैमुझे डर है कि कहीं कुछ बचा तो नहीं लिया गया! पत्नी घबड़ा गई। उसने कहा कि क्षमा करेंभूल हो गई बड़ी! पांच रुपए मैंने बचा लिएइस डर से कि बीमार हैं आपपता नहींरात दवा-दारू कीचिकित्सक की,वैद्य की जरूरत पड़ जाए तो मैं क्या करूंगी!
तो मोहम्मद ने कहा कि जीवनभर के अनुभव के बाद भी कि हर सुबह वह सम्हालने मौजूद रहातुझे बुद्धि न आई! जीवनभर के अनुभव के बाद! और जो हर सुबह मौजूद रहाअगर जरूरत पड़ेगी तो आंधी रात मौजूद नहीं होगाऐसे शक का क्या कारण थाकोई अनुभव है तेरा ऐसावह पांच रुपए बांट दे! अन्यथा मैं सो न सकूंगा। और यह मरते क्षण मेरे ऊपर इल्जाम रह जाए कि मोहम्मदकुछ साथ थातब मरे। जिंदगीभर की फकीरी को खराब किए देती है!
पत्नी बाहर गई। चकित हुई देखकरएक भिखारी द्वार पर खड़ा है! मोहम्मद ने कहादेखती है! जब लेने वाला आंधी रात को आ सकता हैतो देने वाला क्यों नहीं आ सकतायह आंधी रातअंधेराकोई बस्ती में दिखाई नहीं पड़तापक्षी भी पर नहीं मारतेऔर दरवाजे पर आदमी भिक्षा-पात्र लिए खड़ा है! फिर भी तेरी आंख नहीं खुलतीदे आ!
वह उसको देकर आ गईलौटकर आई। मोहम्मद नेकहते हैंचादर ओढीऔर उनकी अंतिम सांस निकल गई।
जो जानते हैंवे कहते हैं कि मोहम्मद की सांस अटकी रहीउन पाच दीनार की वजह से। वह अड़चन थीवह बोझ था,वह पत्थर की तरह जमीन से उन्हें खींचे रहा। वह पत्थर जैसे ही हटा गर्दन सेउन्होंने पंख पसार दिए और किसी दूसरी यात्रा पर चले गए।
योग- क्षेम मैं ही सम्हाल लेता हूं कृष्ण कहते हैं।
उतने भाव सेफिर जो भी होवही क्षेम हैध्यान रखना आप! इसका यह मतलब नहीं है कि वैसे व्यक्ति को कभी मुसीबत न आएगी। इसका यह मतलब भी नहीं है कि उसे रोज सुबह चेक उसके हाथ में आ जाएगा! ऐसा कोई मतलब नहीं है। अगर इसे ठीक से समझेंगेतो इसका मतलब यह है कि सुबह जो भी हाथ में आ जाएगावही उसका क्षेम है। जो भी उसे आ जाएगा हाथ में-भूखतकलीफसुखदुख-जो भीवही परमात्मा के द्वारा दिया गया क्षेम है। वह उसे ही अपना क्षेम मानकर आगे चल पड़ेगा।
और योग और भी कठिन बात है। कृष्ण कहते हैंवह भी मैं सम्हाल लेता हूं।
उसका मतलबऐसे उपासक को न साधना की जरूरत हैन साधन की जरूरत हैन तप की जरूरत हैन यश की जरूरत हैन किसी विधि की जरूरत हैन किसी व्यवस्था की जरूरत है। ऐसे व्यक्ति को परमात्मा से मिलने के लिए कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। अगर निष्काम उपासना उसका भाव हैतो मैं उसे मिल ही जाता हूं। वह मिलने का काम मैं सम्हाल लेता हूं।
ऐसी बहुत कथाएं हैंबड़ी मीठीऔर मनुष्य के अंतरतम के बड़े गहरे रहस्यों को लाने वालीजब परमात्मा उपासक को खोजता हुआ उसके पास आया है। ये प्रतीक कथाएं हैंऔर इनको समझने में भूल हो जाती है। इन प्रतीक कथाओं का अर्थ यह होता है कि वे एक इंगित करती हैं स्व तथ्य की ओर।
अगर उपासक निष्काम भाव में जीता होतो उसे परमात्मा को खोजने भी जाना नहीं पड़तापरमात्मा ही उसे खोजता चला आता है। आ ही जाएगा। जैसे जब कोई गड्डा होता हैतो वर्षा का पानी भागता हुआ गड्डे में चला आता है। पहाड़ पर भी गिरता हैलेकिन पहाड़ वंचित रह जाते हैं। वे अपने से पहले से ही भरे हुए हैं। उनका अहंकार मजबूत है। गड्डा खाली है,निरहंकार हैपानी भागता हुआ आकर गड्डे में भर जाता है। ठीक ऐसे हीजहां निष्काम भाव है उपासना कापरमात्मा भागता चला आता हैऔर हृदय को घेर लेता है।
लेकिन इतनी भी वासना की जरूरत नहीं है-इतनी भी-कि वह आएकि वह मुझे मिले। यह आखिरी कठिन बात हैजो खयाल में ले लेनी चाहिए। क्योंकि भक्त अगर यह भी कहे कि तू मुझे मिलतो भी वासना है।
भक्त तो यह कहता है कि तू है ही चारों तरफ। बसमैं निर्वासन। हो जाऊंतो तू यहीं है। तू मुझे यहीं दिखाई पड़ जाएगा। मेरी आंख खुल जाएतो तू यहीं है। सिर्फ मैं आंख बंद किए बैठा हूं इसलिए तू दिखाई नहीं पड़ता है। भक्त यह नहीं कहता है कि तू आ। इतनी भी वासना नहीं है। इतना ही कि अपने को मिटा देता है। वासना के खोते ही मिट जाता है।
वासना ही हमारे अहंकार का आधार है। जब तक हम कुछ मागते हैंतभी तक मैं हूं। जब मैं कुछ भी नहीं मांगतातो मेरे होने का कोई कारण नहीं रह जाता। मैं न होने के बराबर हो जाता हूं। एक खालीपनएक शून्यता घटित हो जाती है। वही शून्यता उपासना हैवही शून्य परमात्मा की सन्निधि है।
यह जो व्यक्ति के भीतर वासना से छूटकर शून्य का निर्मित होना हैइस पर ध्यान दें। इस पर ध्यान देंतो कोई कारण नहीं हैकोई कारण नहीं है कि जो हमारे लिए बड़े-बड़े शब्द मालूम पड़ते हैंखाली और व्यर्थवे सार्थक और जीवंत न हो जाएं।
परमात्मा एक खाली शब्द है हमारे लिए। इस शब्द में हमारे लिए कुछ भी मालूम नहीं पड़ता कि क्या है। अगर कोई कहता है दरवाजातो दरवाजे में कोई अर्थ हैकोई कहता है पानीतो पानी में कोई अर्थ हैकोई कहता है वृक्षतो वृक्ष में कोई अर्थ हैजब मैं कहता हूं परमात्मातब कोई भी अर्थ नहीं है।
वृक्ष कहते से वृक्ष की तस्वीर घूम जाती है। वृक्ष कहते से वृक्ष जाएगी। अगर किसी ने गाली दीऔर पहले राम का स्मरण आयाका एहसास हो जाता है। दरवाजा कहते से दरवाजे की प्रतीति हो तो फिर गाली का उत्तर गाली से देना मुश्किल हो जाएगा। कैसेकहते से कुछ भी तो निर्मित नहीं होता!
परमात्मा हमारा अनुभव ही नहीं हैइसलिए शब्द खाली है! घोड़ा हमारा अनुभव हैइसलिए शब्द आते से अनुभव भी सामने आ जाता है। परमात्मा हमारा अनुभव नहीं हैइसलिए परमात्मा शब्द खाली है। सुन लेते हैंबार-बार सुनने से ऐसा वहम भी पैदा हो जाता है कि अर्थ हमें मालूम है।
अर्थ अनुभव में होता हैशब्दकोश में नहीं। शब्दकोश में लिखा हुआ है अर्थलेकिन अर्थ अनुभव में होता है। और जब तक अनुभव न होतब तक हम कितनी ही बार सुनें परमात्मापरमात्मापरमात्माकुछ होगा नहीं। अर्थ कहां से प्रकट होगा?
इसलिए परमात्मा को छोड़ेउपासना पर ध्यान दें। उपासना से अर्थ निकलेगा। उपासना असली चीज है। जैसे अंधे आदमी से हम कहें कि तू प्रकाश की फिक्र छोड़तू आंख का इलाज करवा। प्रकाश की फिक्र ही छोड़ दे। जिस दिन आंख ठीक हो जाएगीउस दिन प्रकाश प्रकट हो जाएगा। ऐसे मैं आपसे कहूं कि आप फिक्र छोड़ दें परमात्मा कीफिक्र कर लें उपासना की। उपासना आंख है। आंख जिस दिन खुल जाएगीउस दिन परमात्मा प्रकट हो जाएगा। वह यहीं मौजूद है।
उपासना का अर्थ क्या हैउपासना का अर्थ हैहम उसकी उपस्थिति को प्रतिपल स्मरण करते रहेंअनुभव करते रहें। कुछ भी घटित होवही हमें याद आए। कुछ भी घटित होपहली खबर हमें उसकी ही मिले। कुछ भी हो जाए चारों तरफनंबर दो पर दूसरी याद आएपहली याद उसकी आए। रास्ते पर एक सुंदर चेहरा दिखाई पड़ेतो सुंदर चेहरा नंबर दो होपहले उसकी खबर आए। एक फूल खिलता हुआ दिखाई पड़ेफूल नंबर दो होपहले उसकी खबर आए। कोई गाली देगाली देने वाला बाद में दिखाई पड़ेपहले उसकी खबर आए।
आपकी जिंदगी बदलनी शुरू हो जाएगीउसकी खबर को प्राथमिक बना लें। इसको ही मैं स्मरण कहता हूं। उसकी खबर को प्राथमिक बना लें। रास्ते पर पागल की तरह अगर राम-रामराम-राम कहते हुए गुजरते रहेंतो कुछ भी न होगा। बहुत लोग गुजर रहे हैं। राम-राम कहने का सवाल नहींस्मरण का है।
जो भी होपहले रामफिर दूसरी बात। सारी जिंदगी बदल जाएगा। अगर किसी ने गाली दीऔर पहले राम का स्‍मरण तो फिर गाली का उत्‍तर गाली से देना मुश्‍किल हो जायेगा। कैसेरात बीच में आ गयाअब गाली देना असंभव है। मौत भी आ जाएपहले राम का स्मरण आए। फिर मौत में भी दंश न रह जाएगा। कुछ भी होराम पहले खड़ा हो जाए।
इसको ही मैं उपासना कह रहा हूं। चौबीस घंटे-उठतेबैठतेसोते-राम काप्रभु कापरमात्मा की उपस्थिति का अनुभव होता रहे। धीरे- धीरे यह सघन हो जाता है। यह इतना सघन हो जाता है कि सब चीजें पिघलकर बह जाती हैंयही सघनता रह जाती है। धीरे- धीरे सब चीजें ओझल हो जाती हैंपरमात्मा की चारों तरफ उपस्थिति हो जाती है।
फिर आप चलते हैंतो परमात्मा आपके साथ चलता है। आप उठते हैंतो परमात्मा आपके साथ उठता है। आप हिलते हैं,तो परमात्मा आपके साथ हिलता है। आप सोते हैंतो उसमें सोते हैं। आप जागते हैंतो उसमें जागते हैं। फिर चारों तरफ वही है। श्वास-श्वास में वही है। हृदय की धड़कन में वही है।
यह उपासना है। और मांग कुछ भी नहीं है। उससे चाहना कुछ भी नहीं है। और मजा यह हैजो उससे कुछ भी नहीं चाहताउसे सब कुछ मिल जाता है। और जो उससे सब कुछ चाहता रहता हैउसे कुछ भी नहीं मिलता है।
वासना से भरा हुआ व्यक्ति दरिद्र ही मरता हैउपासना से भरा हुआ व्यक्ति सम्राट हो जाता हैइसी क्षण। वासना भिक्षा-पात्र हैमांगते रहोमांगते रहोवह कभी भरता नहीं। उपासना भिक्षा-पात्र को तोड़कर फेंक देना है। उपासना इस बात की खबर है कि वह हमारा ही हैउससे मांगना क्या है! वह मुझमें ही हैउससे मांगना क्या है! और जो भी उसने दिया हैवह सब कुछ हैअब और उसमें जोड़ना क्या है!
उपासना का अर्थ हैस्वयं के भीतर छिपी हुई परम संपदा का अनुभव। और वासना का अर्थ हैस्वयं के भीतर एक भिक्षा-पात्र की स्मृति कि मैं एक भिखारी का पात्र हूंमांगता रहूंमांगता रहूं! स्वामी राम अमेरिका गएवे अपने को बादशाह कहते थे। उन्होंने किताब लिखी हैबादशाह राम के छ: हुक्मनामे-बादशाह राम की छ: आज्ञाएं। अमेरिका में पहली दफा तो जिन लोगों ने उन्हें देखावे थोड़े हैरान हुए कि दिमाग कुछ ढीला मालूम पड़ता है! फकीर हैंलंगोटी लगाए हुए हैंऔर अपने को बादशाह कहते हैं! और राम तो बोलते नहीं थे बिना बादशाह के! वे तो कहते थेराम बादशाह यहां गए। बादशाह राम वहा गए,बहुत लोग वहां मिले। एक व्यक्ति ने पूछा कि आप अपने को बादशाह कहते हैं! क्या कारणआपके पास कुछ दिखाई तो नहीं पड़ता। बादशाहत का कोई लक्षण नहीं है। भिखारी हैं।
राम ने कहाकुछ दिन मेरे पास रहोतो दिखाई पड़ेगा। क्योंकि बादशाहत बहुत गहरी चीज है और बाहर से दिखाई नहीं पड़ती। वह आदमी कुछ दिन राम के पास रहा। धीरे- धीरे उसे अनुभव हुआ कि यह आदमी है तो कुछ अदभुत! यह आदमी कभी किसी से कुछ मांगता नहीं! इस आदमी की कोई चाह नहीं दिखती! यह ऐसे जीता हैजैसे सारी दुनिया इसकी है! यह मागें किससेमांगे क्योंयह ऐसे जीता हैजैसे सारी दुनिया इसकी है। यह सुबह सूरज की तरफ ऐसे देखता हैजैसे इसकी ही आज्ञा से सूरज निकला है। यह फूलों की तरफ ऐसे देखता हैजैसे इसकी ही आज्ञा से फूल खिल रहे हैं। यह लोगों की तरफ ऐसे देखता हैजैसे इसकी ही आशा से वे श्वास ले रहे हैं।
उस आदमी ने सातवें दिन कहा कि मुझे लगता है! पहले तो मैं सोचता था कि आपका दिमाग कुछ खराब है। सात दिन रहकर मुझे ऐसा लगता है कि अगर ज्यादा मैं आपके साथ रहातो कहीं मेरा दिमाग खराब न हो जाए! आप बिलकुल सच में ही बादशाह मालूम पड़ते हैं! और है आपके पास कुछ भी नहीं! इसका राज क्या हैव्हाट इज दि सीक्रेट?
राम ने कहाइसका एक ही राज हैहमने अपनी भिक्षा का पात्र तोड़ दियाहमने मांगना बंद कर दिया। और जिस दिन से हमने मागना बंद कियायह सारी दुनिया हमारी हो गई। और मैं तुमसे कहता हूं कि भिक्षा-पात्र तोड्ने से मुझे पता चला कि ये चांद-तारे मैंने ही बनाए हैं। और जिसने पहली दफा इन चांद-तारों को अंगुली से इशारा किया थावह मैं ही हूं।
लेकिन राम ने कहातुझे जो मैं दिखाई पड़ रहा हूं उसकी मैं चर्चा नहीं कर रहा हूं! मुझे जो भीतर दिखाई पड़ता हैजो मुझसे भी पार हैमैं उसकी ही बात कर रहा हूं। उसी ने चलाए सब चांद-तारे। वही है मालिक। अब मुझे भीतर के मालिक का पता चल गयाअब मांगना किससे है!
उपासना परमात्मा की इतनी सघन प्रतीति करा देती है! वासना धीरे- धीरे दीन बना देती हैदीन से दीनतर बना देती है। वासना में जीने वाला सिकंदर भी दीन ही मरता है। वासना में जीने वाला बड़े से बडा धनपति भी निर्धन ही मरता है। वासना आखिर में भिखारी को और बड़ा कर जाती है।
मांगें मत! यह प्रार्थना शब्द है हुमारे पास। हमने इतना मांगा है प्रार्थना के साथ कि प्रार्थना का मतलब ही लगने लगा मांगना! हम प्रार्थना के साथ सदा मांगते हैंइसलिए प्रार्थना का मतलब ही मालूम पड़ने लगाकुछ मांगना। प्रार्थना करोइसका मतलब ही होता हैमांगो।
प्रार्थना का मतलब मांगना जरा भी नहीं है। प्रार्थना का मतलब है. उस तान में एक हो जानाउस तान के साथ डोलने लगनाउस तान के साथ नाचने लगनाजो कि चारों तरफ मौजूद है। प्रार्थना एक लीनता है। उपासना उसकी उपस्थिति को अनुभव करने का नाम है।
और बिना मांगे जो उसे अनुभव करने को तैयार हैकृष्ण कहते हैंवह फिर लौटता नहीं। वह फिर चक्कर के बाहर हो जाता है। वह चाक से छलांग लगाकर बाहर निकल जाता है। फिर यह चाक घूमता रहेवह नहीं घूमता।
कभी आपने देखा हो अगरतोतों को पकड़ने वाले शिकारी जंगल में जाकर तोतों को जिस ढंग से पकड़ते हैं। तो जरूर देखना चाहिएन देखा हो तो। रस्सी बौध देते हैं एकदोहरी रस्सियों को ऐंठाकरउसमें लकड़िया बांध देते हैं। रस्सियों की ऐंठन में लकड़ियां अटका देते हैं। तोता लकड़ी पर बैठता हैउसके वजन से उलटा होकर नीचे लटक जाता है। जब बैठता हैतो लकड़ी ऊपर मालूम पड़ती हैदोनों तरफ रस्सी से बंधी। जब बैठ जाता हैतो वजन से नीचे लटक जाता हैलकड़ी उलटी हो जाती है। फिर घबड़ा जाता है और लकड़ी को जोर से पकड़ लेता है। अब उलटा लटका हैअब उसको डर लगता है कि अगर मैंने लकड़ी को छोड़ा तो गिरा। और पकड़ने वाला उसको आकर पकड़ लेता है।
लकड़ी उसको पकड़े नहीं होतीवही लकड़ी को पकड़े होता है। छोड़ देतो अभी उड़ जाए। लेकिन अब उसे डर लगता है कि अगर मैंने छोड़ातो कौन सम्हालेगा! अगर मैंने छोड़ी लकड़ीतो उलटा लटका हूंजमीन पर गिरूंगासिर टूट जाएगा। वह लटका रहता है। घंटों लटका रहता है। फंसाने वाला अगर देर से आएतो कोई चिंता नहीं। वह जब भी आएगावह लटका हुआ मिलेगा।
करीब-करीब वासना में हम ऐसे ही लटके होते हैं। और जिसे हम पकड़े होते हैंहम सोचते हैंअगर छोड़ा तो मर जाएंगे! कौन सम्हालेगावह कृष्ण कहते हैंकहते होंगे! अर्जुन से कुछ नाता-रिश्ता रहा होगा। इसलिए कहा कि तेरा योग- क्षेम मैं सम्हाल लूंगा। इधर तो हमने छोड़ी अपनी लकड़ीकि मरे! सिर के बल गिरेंगेसब टूट-फूट जाएगा। कोई सम्हालने वाला नहीं मिलेगा। अपना पकड़े रहो जोर से!
प्रार्थना कभी-कभी करते हैं कि हे परमात्मा! लकड़ी को जरा बड़ी कर देताकि ठीक से पकड़े रहेंकि मेरे हाथों को जरा मजबूत करकि लकड़ी छूट न जाए! ये हमारी प्रार्थनाएं हैं।
हमारी प्रार्थनाएं हमारे बंधन को और मजबूत करने वाली हैं। हमारी प्रार्थनाएं हमारे संसार को और गहरा करने वाली हैं।

आज इतना ही।
लेकिन उठें न। पांच मिनट संन्यासी कीर्तन करते हैंउसमें सम्मिलित होकर जाएँ। बीच में कोई उठे न! एक भी उठता है,तो बाकी लोगों को अड़चन होती है।


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