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बुधवार, 8 नवंबर 2017

गीता दर्शन—भाग—5 (ओशो)



गीता दर्शन—भाग—5

(ओशो)

(इस पुस्तक में गीता के दसवें व ग्यारहवें अध्याय—विभूति—योग व विश्वरूप—दर्शन—योग—तथा विविध प्रश्नों व विषयों पर चर्चा है।)

र्जुन को पता हो या न पता हो, ये कृष्ण के वचन जन्मों—जन्मों तक भी वह सुनता रहे, तो भी इनको सुनकर ही संतोष नहीं मिलेगा। इनके अनुकूल रूपांतरित होना पड़ेगा, इनके अनुकूल अर्जुन को बदलना पड़ेगा। और अगर इनके अनुकूल अर्जुन बदल जाए, तो अर्जुन स्वयं कृष्ण हो जाएगा। कृष्ण हो जाए, तो ही संतुष्ट हो सकेगा। उसके पहले कोई संतोष नहीं है। उसके पहले अतृप्ति बढ़ती चली जाएगी। अगर कोई वचनों से ही तृप्त होना चाहे, तो कभी तृप्त न हो सकेगा। चलना पड़ेगा उस ओर, जिस ओर ये वचन इशारा करते हैं, इंगित करते हैं। जहां ये ले जाना चाहते हैं, वहां कोई पहुंचे तो तृप्ति होगी।

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हां अर्जुन को मैं मानकर चल रहा हूं कि वह जैसे आदमी के भीतर का, सबके भीतर का, सार—संक्षिप्त है। है भी। और कृष्ण को मानकर चल रहा हूं कि जैसे वे आज तक इस जगत में जितनी भगवत्ता के लक्षण प्रकट हुए हैं, उन सबका सार—संक्षिप्त हैं। कृष्ण जैसे इस जगत में जो भी भगवान होने जैसा हुआ है, उस सबका निचोड़ हैं। और अर्जुन जैसे इस जगत में जितने भी डावाडोल आदमी हुए हैं, उन सबका निचोड़ है।
इसलिए गीता जो है, वह दो व्यक्तियों के बीच ही चर्चा नहीं है; दो अस्तित्वों के बीच, दो दुनियाओं के बीच, दो लोकों के बीच, दो अलग— अलग आयाम जो समानांतर दौड़ रहे हैं, उनके बीच चर्चा है। इसलिए दुनिया में गीता जैसी दूसरी किताब नहीं है, क्योंकि इतना सीधा डायलाग, ऐसा सीधा संवाद नहीं है।
ओशो

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