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मंगलवार, 7 नवंबर 2017

गीता दर्शन--(भाग-4) प्रवचन--113



गीता दर्शन--(भाग-4) प्रवचन--113

क्षणभंगुरता का बोध—(प्रवचन—तेरहवां)
अध्‍याय9
सूत्र:

मां हि पार्थ व्यपाश्त्यि येऽपि स्युः पापयोनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रस्तिऽपि यान्ति परां गतिम्।। 32।।
किं पुनर्ब्राह्मणा: पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्।। 33।।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरू।
मामेवैष्यीसि युज्ज्वैवमात्मानं मत्यरायण:।। 34।।

क्योंकि हे अर्जुनस्त्रीवैश्यशुद्रादिक तथा पाप योनि वाले भी जो कोई होंवे भी मेरे शरण होकर परम गीत को ही प्राप्त होते हैं।
फिर क्या कहना है कि पुण्यशील ब्रह्यणजन तथा राजऋषि भक्तजन परम गति को प्राप्त होते हैं। इसलिए तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस लोक की प्राप्‍त होकर निरंतर मेरा ही भजन कर।

केवल मुझ परमात्मा में ही अनन्य प्रेम से अचल मन वाला होऔर मुझ परमेश्वर को ही निरंतर भजने वाला होतथा मेरी श्रद्धा,भक्‍ति और प्रेम से विह्लतापूर्वक पूजन करने वाला हो और मुझ परमात्मा को ही प्रणाम कर।
इस प्रकार मेरे शरण हुआ तू आत्मा को मेरे में एकीभाव करके मेरे को ही प्राप्त होवेगा।

 स सूत्र को सुनकर आधुनिक मन को बहुत धक्का लगेगा। चाह होगी कि यह सूत्र न होता तो अच्छा था। आज का विचार इस सूत्र को बड़ी कठिनाई पाएगा समझने में।
कृष्ण ने कहा हैक्योंकि हे अर्जुनस्त्रीवैश्यशूद्र आदि तथा पाप योनि वाले भी जो कोई भी होंवे भी मेरी शरण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं।

बहुत अजीब मालूम पड़ेगा। बहुत कड़वाहट भी मालूम पड़ेगी। स्त्री कोवैश्य कोशूद्र कोपाप योनि को समझने में हमें कई तरह की कठिनाइयां हैं। !,? पहली कठिनाई कि हमने इन शब्दों से जो कुछ समझा हैवह इन शब्दों से अभिप्रेत नहीं है। और इन शब्दों का हमारे मन में जो अर्थ हैवह कृष्ण का अर्थ नहीं है। तो इन शब्दों की ठीक से व्याख्या में प्रवेश करना जरूरी हणोतभी इस सूत्र को समझा जा सके।
मनुष्य की आत्मा तो एक हैलेकिन उसके मन अनेक हैं। और मनुष्य की परम स्थिति तो एक हैलेकिन उसकी बीच की स्थितियां भिन्नभिन्न हैं। मनुष्य आत्यंतिक रूप से तो समान हैलेकिन ! अलगअलग स्थितियों में बहुत असमान है।
मनुष्य का विभाजन जो भारतीय बुद्धि ने किया हैवह पहला विभाजन है स्त्री और पुरुष में। लेकिन ध्यान रहेस्त्री से अर्थ है स्त्रैण। स्त्री से अर्थ स्त्री ही होतो यह वचन बहुत बेहूदा है। स्त्री से अर्थ है स्त्रैण। और जब मैं कहता हूं स्त्री से अर्थ है स्त्रैणतो उसका अर्थ यह है कि पुरुषों में भी ऐसे व्यक्ति हैंजो स्त्री जैसे हैंस्त्रैण हैंस्त्रियों में भी ऐसे व्यक्तित्व हैंजो पुरुष जैसे हैंपौरुषेय हैं। पुरुष और स्त्री प्रतीक हैं,सिंबालिक हैं। उनके अर्थ को हम ठीक से समझ लें।
गुह्य विज्ञान मेंआत्मा की खोज में जौ चल रहे हैंउनके लिए स्त्रैण से अर्थ है ऐसा व्यक्तित्वजो कुछ भी करने में समर्थ नहीं है;जो प्रतीक्षा कर सकता हैलेकिन यात्रा नहीं कर सकताजो राह देख सकता हैलेकिन खोज नहीं कर सकता। इसे स्त्रैण कहने का कारण है।
स्त्री और पुरुष का जो संबंध हैउसमें खोज पुरुष करता हैस्त्री केवल प्रतीक्षा करती है। पहल भी पुरुष करता हैस्त्री केवल बाट जोहती है। प्रेम में भी स्त्री प्रतीक्षा करती हैराह देखती है। और अगर कभी कोई स्त्री प्रेम में पहल करेइनिशिएटिव लेतो आक्रामक मालूम होगीबेशर्म मालूम होगी। और अगर पुरुष प्रतीक्षा करेपहल न कर सकेतो स्त्रैण मालूम होगा।
लेकिन विगत पांच हजार वर्षों मेंगीता के बादसिर्फ आधुनिक युग में कार्ल गुस्ताव कं ने स्त्री और पुरुष के इस मानसिक भेद को समझने की गहरी चेष्टा की है। कं ने इधर इन बीसपच्चीस पिछले वर्षों में एक अभूतपूर्व बात सिद्ध की हैऔर वह यह कि कोई भी पुरुष पूरा पुरुष नहीं है और कोई भी स्त्री पूरी स्त्री नहीं है। और हमारा अब तक जो खयाल रहा है कि हर व्यक्ति एक सेक्स से संबंधित हैवह गलत है। प्रत्येक व्यक्ति बाइसेक्यूअल हैदोनों यौन प्रत्येक व्यक्ति में मौजूद हैं। जिसे हम पुरुष कहते हैंउसमें पुरुष यौन की मात्रा अधिक है,स्त्री यौन की मात्रा कम है। ऐसा समझें कि वह साठ प्रतिशत पुरुष है और चालीस प्रतिशत स्त्री है। जिसे हम स्त्री कहते हैंवह साठ प्रतिशत स्त्री है और चालीस प्रतिशत पुरुष है।
लेकिन ऐसा कोई भी पुरुष खोजना संभव नहीं हैजो सौ प्रतिशत पुरुष होऔर ऐसी कोई स्त्री खोजनी संभव नहीं हैजो सौ प्रतिशत स्त्री हो। यह है भी उचित। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का जन्म स्त्री और पुरुष से मिलकर होता है। इसलिए दोनों ही उसके भीतर प्रवेश कर जाते हैं। चाहे स्त्री का जन्म होचाहे पुरुष का जन्म होदोनों के जन्म के लिए स्त्री और पुरुष का मिलन अनिवार्य है! और स्त्रीपुरुष दोनों के ही कणों से मिलकरजीवाणुओं से मिलकर व्यक्ति का जन्म होता है। दोनों प्रवेश कर जाते हैं। जो फर्क हैवह मात्रा का होता है। जो फर्क हैवह निरपेक्ष नहीं हैसापेक्ष है।
इसका अर्थ यह हुआ कि जो व्यक्ति ऊपर से पुरुष दिखाई पड़ता हैउसके भीतर भी कुछ प्रतिशत मात्रा स्त्री की छिपी होती हैजो स्त्री दिखाई पड़ती हैउसके भीतर भी कुछ मात्रा पुरुष की छिपी होती है। और इसलिए ऐसा भी हो सकता है कि किन्हीं क्षणों में स्त्री पुरुष जैसा व्यवहार करे और किन्हीं क्षणों में पुरुष स्त्री जैसा व्यवहार करे। ऐसा भी हो सकता है कि किन्हीं क्षणों में जो भीतर हैवह ऊपर आ जाएऔर जो ऊपर हैनीचे चला जाए।
आप पर एकदम से हमला हो जाए घर में आग लग जाएतो आप कितने ही बहादुर व्यक्ति होंएक क्षण में अचानक आप पाएंगे,आप स्त्री जैसा व्यवहार कर रहे हैं। रो रहे हैंबाल नोंच रहे हैंचिल्ला रहे हैंघबड़ा रहे हैं! अगर एक मां के बच्चे पर हमला हो जाएतो मं। भी खूंख्वार हो जाएगीऔर ऐसा व्यवहार करेगीइतना कठोरइतना हिंसात्मकजैसा कि पुरुष भी न कर पाए। यह संभावना हैक्योंकि भीतर एक मात्रा निरंतर छिपी हुई है। वह किसी भी क्षण प्रकट हो सकती है।
कै ने स्त्री और पुरुष के नए अर्थ को फिर से प्रकट किया है। कृष्ण का भी अर्थ वही है। जब वे कहते हैंस्त्रियां भी मुझे उपलब्ध हो जाती हैंतो उनका अर्थ यह है .कि वेजो एक कदम भी नहीं चलते हैंमात्र प्रतीक्षा करते हैंवे भी मुझे पा लेते हैं अर्जुन! जिनके मन में आक्रमण ही नहीं हैपरमात्मा की खोज में भी जो आक्रामकएग्रेसिव नहीं हो सकतेवे भी मुझे पा लेते हैं। जो इंचभर भी नहीं चलतेसिर्फ मेरा स्मरण ही करते हैंसिर्फ अनन्य भाव से मुझे पुकारते ही हैंजो बदले में कुछ भी चुकाने को तैयार नहीं होतेजो मुकाबले में कुछ भी दाव पर नहीं लगातेअगर मैं उनके दरवाजे पर भी खड़ा हूंतो वे दरवाजे तक उठकर भी नहीं आतेमुझे ही उन तक जाना पड़ता हैवे भी मुझे पा लेते हैं।
स्त्रैण से अर्थ हैऐसा मनजो कुछ भी करने में समर्थ नहीं हैज्यादा से ज्यादा समर्पण कर सकता हैग्राहक मनरिसेप्टिविटी,द्वार खोलकर प्रतीक्षा कर सकता है।
अगर हम स्त्री के मन को ठीक से समझेंतो वह किसी ऐसे प्रतीक में प्रकट होगाद्वार खोलकर दरवाजे पर बैठी हुईकिसी की प्रतीक्षा में रतखोज में चली गई नहींप्रतीक्षा में। और पुरुष अगर दरवाजा खोलकर और किसी की प्रतीक्षा करते दीवाल से टिककर बैठा हो,तो हमें शक होगा कि वह पुरुष कम है। उसे खोज पर जाना चाहिए।
जिसकी प्रतीक्षा हैउसे खोजना पड़ेगायह पुरुष चित्त का लक्षण है। जिसकी खोज हैउसकी प्रतीक्षा करनी होगीयह स्त्री चित्त का लक्षण है। स्त्री और पुरुष से इसका कोई संबंध नहीं है। कृष्ण कहते हैंजो स्त्रैण हैंवे भी अर्जुनमुझे पाने में समर्थ हो जाते हैं।
फिर कहते हैंवैश्य और शूद्र भी। ये दो शब्द भी समझ लेने जैसे हैं।
मैंने कहाहमारे मन अलगअलग हैंहमारी आत्माएं एक हैं। और मन के अलगअलग होने के कारण हमारे शरीर भी अलगअलग हैं। क्योंकि शरीर मन के द्वारा ही निर्मित होता हैशरीर को हम पाते हैं मन के द्वारा ही।
चार प्रकार के व्यक्तित्व भारत ने विभाजित किए हैंब्राह्मणक्षत्रियवैश्य और शूद्र। इन चारों का भी कोई संबंध आपके जन्म से नहीं है। इन चारों का भी गहरा संबंध आपके व्यक्तित्व के ढांचे से है। हमने यह भी कोशिश की थी कि व्यक्तित्व का ढांचा और जन्म की व्यवस्था में तालमेल हो जाए। हमने अकेले ही इस जमीन पर यह प्रयोग किया था कि जन्म में और व्यक्तित्व के ढांचे में कोई एक इनर हार्मनीएक आंतरिक संबंध खोज लिया जाए। हम थोड़ी दूर तक सफल भी हुए थे। लेकिन वह प्रयोग पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पाया। वह टूट गया। टूट जाने के कारण थेउनकी मैं आपसे पीछे बात करूं। पहले आपको यह कह दूं कि ये चार शब्द व्यक्तित्व के प्रतीक हैं। चार तरह के व्यक्तित्व होते हैं।
शूद्र हम उस व्यक्ति को कहते हैंजो शरीर के इर्दगिर्द जीता है। शरीर से ज्यादा जिसे अस्तित्व में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। शरीर ही जिसका परमात्मा है। शरीर सुख में रहेतो वह प्रसन्न हैशरीर दुख में हो जाएतो वह दुखी है। शरीर की मांग पूरी हो जाएतो सब मागें समाप्त हो गईंशरीर की मांग पूरी न होतो उसके जीवन में व्यथा और संताप है। उसके व्यक्तित्व का केंद्र शरीर है।
बहुत अनूठी बात भारतीय शास्त्रों ने कही है कि सभी व्यक्ति जन्म से शूद्र होते हैं! एक अर्थ में सही है। सभी व्यक्ति जन्म से शरीर के इर्दगिर्द होते हैंबाकी ऊंचाइयां तो क्रमश: पानी पड़ती हैं। ध्यान रहेसभी व्यक्ति शरीर से शूद्र जैसे पैदा होते हैंयह दुर्भाग्य नहीं है। दुर्भाग्य तो यह है कि अधिक लोग शूद्र ही मरते हैंअधिक लोग मरते क्षण में भी शरीर के पास ही होते हैं।
ध्यान रहेअगर आपके भीतर से शूद्र विलीन हो गया होतो मृत्यु की आपको पीड़ा नहीं होगीक्योंकि मृत्यु की पीड़ा शरीर के मरने की पीड़ा है। और जिसके भीतर से शूद्र विलीन हो गया हैउसका शरीर का दृष्टिकोण ही बदल गया! अब वह भलीभांति जानता है कि शरीर मैं नहीं हूं।
संक्षिप्त मेँ कहेंतो जो ऐसा मानता है कि मैं शरीर ही हूं वह शूद्र है। मैं शरीर ही हूंसब कुछ शरीर हैशरीर पर मैं समाप्त हो जाता हूं। शरीर ही मेरा जन्म हैशरीर ही मेरा जीवनशरीर ही मेरी मृत्यु है। शरीर के पार मैं नहीं हूं शरीर से भिन्न मैं नहीं हूँ। शरीर में मैं समाप्त हूंशरीर मेरी सीमा हैयह शूद्र का अर्थ है।
शूद्र को इसलिए निम्नतम कहा है। निम्नतम कहने का कारणकारण इतना ही कि शूद्र होना सिर्फ जीवन की बुनियाद हैऔर भवन उठाया जा सकता है। और भवन न उठेतो बुनियाद बेकार है। शरीर पर ही कोई समाप्त हो जाएतो उसका जीवन व्यर्थ गया। लेकिन हमारी दृष्टि ही शरीर पर है।
तो कृष्ण कहते हैं कि शूद्र भीजो केवल अपने को शरीर में ही जिलाए रखते हैंशरीर के आसपास ही घूमते रहते हैंवे भी अगर अनन्य भाव से मेरा स्मरण कर लेंतो अर्जुनवे भी मुक्त हो जाते हैं।
कृष्णबिलकुल निम्नतम जो चित्त की दशा हो सकती हैउसके लिए भी कह रहे हैं कि उस दशा में भीउस अंधकार में पडा हुआ भी अगर मेरा स्मरण करेतो प्रकाश की किरण उस तक भी पहुंच जाती है। खाई में पड़ा हैगहन अंधकार में पड़ा है कोईचारों ओर अंधकार है,लेकिन अगर मुझे स्मरण करेतो मेरी किरण वहां भी पहुंच जाती है। स्मरण ही मेरी उपस्थिति बन जाती है। शूद्र को भीवे कहते हैंयह हो जाएगा।
वैश्य दूसरी कोटि है। शूद्र उसे कहते हैंजो शरीर के आसपास जीता है। वैश्य उसे कहते हैंजो मन के आसपास जीता है। इसलिए शूद्र की जो भी वासनाएं हैंआकांक्षाएं हैंबहुत सालिडबहुत स्थूल होंगी। वैश्य की जो कामनाएं और वासनाएं और आकांक्षाए हैंवे मानसिक होंगीसूक्ष्म होंगी।
वैश्य धन के लिए जीएगा। धन सूक्ष्म बात हैऔर धन से मिलने वाला रस मन को मिलने वाला रस है। वैश्य यश के लिए जीएगा,पद के लिए जीएगा। उनसे मिलने वाला रसमन के लिए मिलने वाला रस है। और वैश्य धन के लिएपद के लिएप्रतिष्ठा के लिए शरीर को भी गंवाने को तैयार हो जाएगा। शूद्र पद के लिए,। धन के लिएप्रतिष्ठा के लिए शरीर को गंवाने को तैयार नहीं होगा। शरीर उसके लिए मौलिक मूल्य है। शरीर के लिए वह सब कुछ कर सकता है। लेकिन वैश्य शरीर को गंवाने को तैयार हो जाएगा।
एक लिहाज से शूद्र शरीर से स्वस्थ होगावैश्य अस्वस्थ होने ' लगेगा। एक लिहाज से शूद्र के पास प्रकृति कै संपर्क का द्वार बहुत स्पष्ट होगासंवेदनशील होगावैश्य प्रकृति के साथ संवेदना खोने लगेगा। लेकिन प्रकृति से संवेदना उसकी कम होगीलेकिन परमात्मा की तरफ वह एक कदम ऊपर उठ जाएगा। क्योंकि शरीर से आत्मा तक जाने में बीच में मन के पड़ाव को पार करना जरूरी ही है। मन से गुजरना ही पड़ेगा। शूद्र को आत्मा की यात्रा में किसी न किसी क्षण वैश्य होना ही पड़ेगा।
सभी शूद्र की तरह जन्मते हैंकुछ लोग वैश्य तक पहुंच जाते हैं और समाप्त हो जाते हैं। वह भी पड़ाव हैमंजिल नहीं है। मन मूल्यवान हो जाएगा शरीर से ज्यादाऔर मन के रस शरीर के रस से ज्यादा कीमती मालूम पड़ने लगेंगे। भोजन उतना मूल्यवान नहीं रहेगा अबकामवासना उतनी मूल्यवान नहीं रहेगीजितना मन के रस मूल्यवान हो जाएंगे। पद हैप्रतिष्ठा हैयश हैगौरव है, ! गरिमा हैये ज्यादा मूल्यवान होने लगेंगे।
कृष्ण कहते हैंवैश्य भी अगर मुझे स्मरण करेंतो वे भी मुझे उपलब्ध हो जाते हैंअनुईन! वे जो अभी मन में ही घिरे हैं और आत्मा तक जिनका कोई कदम नहीं उठा हैवे भी अगर मुझे स्मरण करेंतो उन तक भी मेरी किरण पहुंच जाती है।
तीसरी कोटि है क्षत्रिय की। क्षत्रिय का अर्थ हैजो शरीर और मन दोनों के पार उठकर आत्मा में जीना शुरू करे। शूद्र और वैश्य की कोटि को भारत ने नीचा माना है। वह एक पलड़ा हैदो वर्गों का। क्षत्रिय और ब्राह्मण को श्रेष्ठतर माना हैवह दूसरा पलड़ा है। जो आत्मा में जीने की चेष्टा करे। शरीर का भी मूल्य नहीं हैमन का भी मूल्य नहीं हैसिर्फ आत्मगौरव का ही मूल्य है।
इसलिए क्षत्रिय धन पर भी लात मार देगाशरीर पर भी लात मार देगामन की भी चिंता छोड़ देगालेकिन आत्मगौरव उसके लिए सबसे ज्यादा कीमती हो जाएगा। वह उसके आसपास ही जीएगा। आत्मगौरव के लिए वह सब कुछ गंवा सकता हैलेकिन आत्मगौरव नहीं गंवा सकता है।
चौथी कोटि है ब्राह्मण की। ब्राह्मण से अर्थ हैजो आत्मा से भी पार हट जाए और ब्रह्म में जीए। उसके लिए अब न शरीर का कोई मूल्य हैन मन का कोई मूल्य हैन आत्मा का कोई मूल्य हैउसके लिए सिर्फ परमात्मा ही मूल्यवान रह गया।
ये चार टाइप हैंइनका जाति से फिलहाल कोई संबंध न जोडे। ये चार मनसप्रकार हैं।
कृष्ण कहते हैं कि पहले दो प्रकार वाले लोग भी मुझे उपलब्ध हो जाते हैंतो बाद के दो प्रकार वाले लोगों का क्या कहना! अगर वे मेरा स्मरण करेंतो वे मुझे उपलब्ध हैं ही।
अगर मन के प्रकार की तरह समझेंतो इस सूत्र में कोई कठिनाई न रह जाएगी। लेकिन भारत ने यह प्रयोग भी किया था। कि ये जो मन के प्रकार हैंइनको जन्म से जोड्ने की एक अभूतपूर्व चेष्टा की थी। असफल गया वह प्रयोगलेकिन बड़ा प्रयोग था। और इतना बड़ा था कि सफल होना संभव नहीं मालूम पड़ता था। जितनी बड़ी बात होउतनी असफलता की संभावना ज्यादा हो जाती है। और जब कोई बहुत बड़ी बात असफल होती हैतो बड़े गट्टे में गिरा जाती है। 
हमने एक अनूठा प्रयोग किया था। वह प्रयोग यह था कि न केवल व्यक्ति का मन अलगअलग हैन केवल उसकी चेतना के ढांचे'अलगअलग हैंक्या यह नहीं हो सकता कि प्रत्येक चेतना के ढांचे के व्यक्ति को जन्म भी इस भाति मिले कि वह जन्म से ही अपने ढांचे के अनुकूल पैदा हो सके?
एक व्यक्ति मरता हैतो उसकी आत्मा भटकती है नए जीवन की तलाश में। हर कहीं आकस्मिक जन्म नहीं होता। आत्मा खोजती है अपने अनुकूलअपने अनुकूल गर्भ को खोजती है। और जब अपने अनुकूल गर्भ मिलता हैतो जन्म लेती है।
तो जन्म की घटना में दो घटनाएं घटती हैंमां और पिता का गर्भ निर्माण करना और उस निर्मित गर्भ में एक चेतना का प्रवेश। वह चेतना का प्रवेश उस चेतना के अपने समस्त कर्मों का फल है। उसके अनुकूल वह खोजती है। यह खोज बहुत सचेतन नहीं हैकांशस नहीं है,अनकांशस है।
अनकाशस खोज का मतलब यह है कि जैसे हम पानी को बहाते हैंतो वह गड्डे को खोज लेता है। भाषा में हम कहेंगेपानी गड्डे को खोज लेता है। लेकिन पानी कोई सचेतन रूप से खोजता नहींसिर्फ स्वभाव अनुसार वह गड्डे की तरफ बहता हैजहां नीचाई हैवहां बहता है। पानी ऊपर की तरफ नहीं बह सकतागड्डे की तरफ बह सकता है। इसलिए जो सबसे बड़ा गड्डा हैवहां पहुंच जाता है। कमरे में जहां गड्डा हैपानी पहुंच जाता है। यह खोज अचेतन है। पानी के स्वभाव से हो जाती है।
ठीक ऐसे हीप्रत्येक आत्मा अचेतन खोज करती है। जहां उसके अनुकूल गर्भ होता हैवहीं गड्डा बन जाता हैवहीं आत्मा प्रवेश कर जाती है। भारत ने यह कोशिश की कि क्या यह नहीं हो सकता कि शूद्र आत्माओं के लिए हम एक वर्ग ही नियत कर देंजहां शूद्र आत्माएं पैदा हो जाएं! क्या यह नहीं हो सकता कि ब्राह्मण आत्माओं के लिए हम ब्राह्मण का एक वर्ग ही नियत कर देंजहां ब्राह्मण आत्माएं पैदा हो जाएं!
यह बड़ा कठिन प्रयोग थाबहुत मुश्किल प्रयोग था। शायद भविष्य में बायोलाजी कुछ इस तरह के प्रयोग करना शुरू करे। लेकिन वे किसी दूसरे ढांचे पर होंगे। क्योंकि विज्ञान अब यह कह रहा है कि हम इस बात की कोशिश जरूर करेंगे आज नहीं कलकि ज्यादा सुंदर लोग पैदा किए जा सकेंऔर निर्णायक बना जा सके कि ज्यादा सुंदर व्यक्ति पैदा हों। विज्ञान यह भी कह रहा है कि अब यह कठिनाई नहीं रही कि हम अगर पुरुष पैदा करना चाहेंतो पुरुष पैदा करेंऔर स्त्री पैदा करना चाहेंतो स्त्री पैदा करें। विज्ञान अब यह भी कह रहा है कि हम यह भी तय कर लेंगे कि जो बच्चा पैदा होउसका बुद्धि अंकउसका आई क्यू. कितना होयह हम पहले तय कर लेंगे। हम यह भी तय कर लेंगे कि उसके शरीर का रंग कैसा होउसकी उम्र कितनी हो। हम ये सारी बात तय करेंगे।
यह तय करेंगेतो हमें ब्रीडिंग को नियत करना पडेगा। फिर हर कोईहर किसी से संबंध नहीं बना सकेगा। तब संबंध हमें सीमित करने पड़ेंगेताकि वे ही लोग संबंधित होंजो नियमानुसार एक व्यक्ति को जन्म दे सकें।
ठीक वैसे ही प्रयोग भारत ने किसी और दिशा से किए थेऔर समाज को चार हिस्सों में बांट दिया था। इन चार हिस्सों में बांटने का प्रयोजन यह था कि शूद्र शूद्र से ही विवाह करेऔर यह पीढ़ी दर पीढ़ी ब्राह्मण ब्राह्मण से ही विवाह करे। तो पचास पीढ़ियों के गुजरने के बाद,यह दो ब्राह्मणों का जो विवाह होगा और इन ब्राह्मणों से जो गर्भ निर्मित होगावह निर्मित गर्भ किसी ब्राह्मण आत्मा को आकर्षित करने में ज्यादा संभव होगाबजाय किसी और गर्भ कै। यह बिलकुल वैज्ञानिक है और तर्कयुक्त है। अगर यह हो सकता हैतो यह बिलकुल तर्कयुक्त है।
यह प्रयोग एक महत प्रयोग किया गया। हर प्रयोग के खतरे भी होते हैं। खतरा हुआ। यह प्रयोग तो संभव नहीं हो सकासमाज चार हिस्सों में बंट गया। यह प्रयोग तो टूटालेकिन समाज चार शत्रुओं के हिस्सों में टूट गया। और धीरेधीरे शूद्र व्यक्तित्व का विचार न रहा,जाति का लक्षण हो गया। और तब कोई आदमी ब्राह्मण पैदा हो गयातो चाहे वह बिलकुल शूद्र के व्यक्तित्व का होतो भी सिर पर बैठ गया। और तब कोई अगर शूद्र घर में पैदा हुआ और अगर वह ब्राह्मण की योग्यता का थातो भी उसे किसी मंदिर में पूजा की जगह न मिली! यह खतरा हुआ।
हर प्रयोग का खतरा है। वैज्ञानिकों ने अणु बम की खोज कीतब सोचा नहीं था कि अणु बम का परिणाम हिरोशिमा और नागासाकी होगा। तब उन्होंने सोचा था कि अणु की ऊर्जा हमारे हाथ में लग जाएगीतो हम सारी जमीन को खुशहाल कर देंगेकोई भूखा नहीं होगाकोई गरीब नहीं होगा। इतनी बड़ी शक्ति हमारे हाथ में लगेगी कि हम सारे जीवन को रूपांतरित कर डालेंगेपृथ्वी स्वर्ग हो जाएगी।
लेकिन यह नहीं हुआ। यह हो सकता थालेकिन यह नहीं हुआ। हुआहिरोशिमा और नागासाकी कब्रगाह बन गए! एक लाख आदमी एक क्षण में जलकर राख हो गए। और अभी सारी दुनिया के पास अणु बम और हाइड्रोजन बम इकट्ठे हैं। किसी भी दिन पूरी दुनिया राख की जा सकती है!
आइंस्टीन मरते वक्त कहकर मरा है कि हमने सोचा भी नहीं था कि इतनी महान ऊर्जा का ऐसा महान दुरुपयोग हो सकेगा। लीनियस पालिंग नेजो कि अणु की खोज में बड़े वैज्ञानिकों में एक थाआखिरी वक्त सारी दुनिया के वैज्ञानिकों से अपील की कि अब दुबारा कोई बड़ी शक्ति आदमी के हाथ में खोजकर मत देना! क्योंकि हम खोजते हैं पता नहीं किसलिए और आदमी उसका क्या उपयोग करता है!
इस मुल्क में इस मुल्क के मनीषियों ने भी एक बहुत अदभुत सूत्र खोजा था। और वह सूत्र यह था कि प्रत्येक आत्मा को हम उसके जीवन के चुनाव में भी मार्गनिर्देश कर सकें। आत्मा ऐसे ही भटककर कहीं भीकिसी भी तरह पैदा न हो। हम उसे सुनिश्चित मार्ग दे सकें,व्यवस्थित मार्ग दे सकेंताकि ज्यादा से ज्यादा उपयोग थोड़े से थोड़े जीवन का किया जा सके।
और अगर एक व्यक्ति पिछले जन्म में ब्राह्मण थासमझेंऔर उसने ब्राह्मण की एक ऊंचाई पाई। लेकिन इस बार जन्म की खोज करते वक्त उसे एक शूद्र के घर में ही योग्य मौका मिलावह शूद्र के घर पैदा हो जाता है। तो उसे ब्राह्मण की पूरी शिक्षा नहीं मिल सकेगी,उसे ब्राह्मण का पूरा वातावरण नहीं मिल सकेगा। हो सकता हैवह पचास वर्ष का हो जाएतब इस योग्य होजिस योग्य का वह ब्राह्मण के घर में पैदा होकर पांच वर्ष में हो जाता! ये पैंतालीस वर्ष उसके व्यर्थ खो जाएंगे।
भारत ने एक जीवन की गहरी इकॉनामिक्स की चिंता की थीसमय कम से कम उपयोग में लाया जा सके और अधिक से अधिक परिणाम हो सकेंऔर व्यक्ति में जो गहनतम छिपा हैवह प्रकट हो सके। उसे मांबाप भीपरिवार भीवातावरण भीसब कुछ ब्राह्मण का मिल सके। शूद्र को शूद्र का मिल सकेवैश्य को वैश्य का मिल सके। इसलिए जातिया विभाजित हुईं।
लेकिन यह महान प्रयोग नहीं हो सका। जिन्होंने किया थावे खो गए। और जिनके हाथ में यह महान प्रयोग दे गएउन्होंने केवल समाज को विभाजित करके शोषण का एक उपाय किया।
तब शूद्र शोषित हो गया। तब ब्राह्मण छाती पर बैठ गया। तब क्षत्रिय ने तलवार हाथ में ले ली और लोगों के ऊपर प्रभुसत्ता कायम कर ली। और तब वैश्य धन इकट्ठा करके बैठ गया। और इन चारों वर्गों ने एकदूसरे के साथ गहरी शत्रुता ठान ली। जो फायदा होतावह तो नहीं हुआनुकसान यह हुआ कि शूद्र के घर अगर कोई पैदा हो गयातो उसके विकास का उपाय ही न रहा।
पांच हजार साल मेंअगर डा अंबेदकर को छोड़ देंतो शूद्रों में एक भी बुद्धिमान आदमी पैदा नहीं हो सका। और ये डाक्टर अंबेदकर भी हमारी वजह से पैदा नहीं हुए। यह एक आदमी हैजिसको ब्राह्मण की हैसियत का कहा जा सके। इसलिए ब्राह्मणों से नाराज भी थे वे। ब्राह्मणों से नाराज होना बिलकुल स्वाभाविक थाक्रोध स्वाभाविक था।
पांच हजार वर्षों में शूद्रों की कितनी प्रतिभाएं खो गईंइसका हमें कोई पता नहीं है! प्रयोग गलत निकल गयागलत आदमियों के हाथों में पड़ गया। और कितने शूद्र जैसे ब्राह्मण हमारे मुल्क की छाती पर छाए चले गए और कितना गहन नुकसान पहुंचा गएउसका भी अब हिसाब लगाना मुश्किल है।
यह मैंने इसलिए कहाताकि आपको कृष्ण का अर्थ साफ हो सके। कृष्ण के समय में यह महान प्रयोग गतिमान थायह प्रयोग चल रहा थाइस प्रयोग की आधारशिलाए रखी जा रही थीं। कृष्ण को पता भी नहीं है कि इस प्रयोग का क्या परिणाम आज हो गया!
जो लोग हिरोशिमा के पहले मर गए अणु बम बनाकरउनको पता भी नहीं है। वे इसी खुशी में मरे हैं कि वे मनुष्यजाति को एक,महान शक्ति देकर विदा हो गए हैं। अभागे तो वे वैज्ञानिक थेजिन्होंने अपने हाथ से अपने सामने आदमीयत को जलते हुए देखाअपनी ही खोज का यह परिणाम!
कृष्ण ने जब यह सूत्र कहा थातब मनुष्य के प्रकार का यह महान प्रयोग गतिमान थास्वस्थ थाविकसित हो रहा थाअंकुरित हो रहा थासड़ नहीं गया था।
कृष्ण कहते हैंशूद्र होकि वैश्य होकि स्त्री होकोई भी होवे भी मेरी शरण को पाकर परम गति को उपलब्ध हो जाते हैं।
यहां कोई निंदा का स्वर नहीं हैयहां केवल तथ्य की सूचना है। सिर्फ इस तथ्य की कि जो शरीर के पास जी रहे हैंवे भीजो मन के पास जी रहे हैंवे भीवे भी शरण आकर मुझे पा लेते हैं।
शरण आने का मूल्य समझाया जा रहा है। आप क्या हैंयह मूल्यवान नहीं हैआप कौन हैंयह मूल्यवान नहीं हैअच्छे हैंबुरे हैंयह मूल्यवान नहीं है। शरण जाने की क्षमता आपकी हैतो आप परमात्मा को उपलब्ध हो जाएंगे। ऐसी शर्त कृष्ण कहते हैंशरणसरेंडर की,उसके सामने समर्पण कर देने कीअपने अहंकार को उसके सामने छोड़ देने की।
पुण्यशील ब्राह्मणजन और राजऋषि भक्तजनों का तो परमगति को प्राप्त होना सुनिश्चित है। अगर वे भी अपने को शरण में लगा पाएं। इसलिए तू सुखरहित ओर क्षणभंगुर इस लोक को प्राप्त होकर निरंतर मेरा ही भजन कर।
केवल मुझ परमात्मा में अनन्य प्रेम से अचल मन वाला होऔर मुझ परमेश्वर को ही निरंतर भजने वाला हो। और मेरा श्रद्धाभक्ति और प्रेम से विह्वलतापूर्वक पूजन करने वाला होमुझ परमात्मा को प्रणाम कर। इस प्रकार मेरे शरण हुआ तू आत्मा को मेरे में एकीभाव करके मुझ को ही प्राप्त हो सकेगा।
यहां तीनचार बातें खयाल में लेने जैसी हैं।
पहली बातकृष्‍ण कहते हैंसुखरहित और क्षणभंगुर लोक में! जहां हम जी रहे हैंवहां सुख का आभास बहुत होता हैसुख मिलता नहीं। मिलता है दुखआभास होता है सुख का। हाथ में आता है दुखआशा बनती है सुख की। दूर से दिखाई पड़ता है सुखपास पहुंचकर उघड जाता है और पता चलता हैदुख ही है। दूर से सुख दिखाई पड़ता था। दूरी की भूल है। दूर से जैसा दिखाई पड़ता हैवैसा पास पाया नहीं जाता।
इसलिए कृष्ण कहते हैंसुखरहित संसार में!
ध्यान रहेकृष्ण यह भी कह सकते थेइस दुख से भरे संसार में। यह नहीं कहा। ज्यादा उचित होताज्यादा जोर वाला होताकहते कि इस दुख भरे संसार में। लेकिन कृष्ण ने यह नहीं कहा कि इस दुख भरे संसार में। बुद्ध ने कहा हैयह संसार दुख है। कृष्ण ने कुछ दूसरा शब्द उपयोग किया हैऔर ज्यादा विचारपूर्वक है। कृष्ण ने कहा हैइस सुखरहित संसार में!
क्यों त्र: क्योंकि दुख तो पैदा ही इसलिए होता है कि हम इस जगत में सुख मान लेते हैं। इसलिए यह कहना कि जगत दुख हैठीक नहीं है। हम सुख मानते हैंइसलिए दुख पाते हैं। जगत दुख हैयह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि अगर हम सुख न मागेंतो जगत बिलकुल दुख नहीं देता। हम सुख मानते हैंइसलिए दुख मिलता है। जगत दुख नहीं देता।
मैं आपसे आशा करता हूं कि मेरा सम्मान करेंगेमेरा आदर करेंगे। फिर आप मेरा आदर न करेंसम्मान न करेंतो मुझे दुख हो। दुख आपने मुझे दिया नहीं। आपका कोई हाथ ही नहीं है। आप बिना नमस्कार किए निकल गए। आपको पता भी नहीं होगा कि आपने मुझे दुख दिया। लेकिन मुझे दुख मिलाबिना आपके दिए! यह दुख कहां से पैदा हुआयह दुख मेरी अपेक्षा से जन्मा। मैंने चाहा था नमस्कार हो,प्रणाम करें मुझेआदर दें मुझे। नहीं दियामेरी अपेक्षा टूटी। टूटी हुई अपेक्षा दुख बन जाती है। बिखरा हुआ सुखदुख बन जाता है। न मिला सुखदुख बन जाता है।
तो जगत दुख हैयह कहना ठीक नहीं है। बुद्ध से कृष्ण का वचन ज्यादा गहन है। बुद्ध सीधा कहते हैंजगत दुख है। ठीक नहीं है। कृष्ण कहते हैंजगत सुखरहित है। वे यह कहते हैं कि जगत में कोई सुख नहीं है। और अगर कोई मनुष्य ऐसा जान ले कि जगत सुखरहित है,तो फिर उसे इस जगत में दुख नहीं हो सकता। उसे इस जगत में कोई दुख नहीं दे सकता।
मुझे आप दुख देने में उसी सीमा तक समर्थ हैंजिस सीमा तक मैं आपसे सुख मांगने में आतुर हूं। मेरे सुख मांगने की मात्रा ही आपकी क्षमता है मुझे दुख देने की। अगर मैं कुछ भी मांग नहीं रहा हूंतो आप मुझे दुख नहीं दे सकते।
तो दुख स्वअर्जित हैजगत सुखरहित है और दुख स्वअर्जित है। इसलिए शब्द पर खयाल करें! कृष्ण कहते हैंसुखरहित है जगत। दूसरी बात कहते हैंक्षणभंगुर। एकएक क्षण में नष्ट हो जाने वाला है।
हमें खयाल नहीं आता। हमें ऐसा लगता है कि जगत बहुत थिर है। हम सबको यही खयाल होता है कि हम एक थिर जगत में जी रहे हैं। लेकिन जगत प्रतिपल बदलता चला जाता हैप्रतिपल! लेकिन बदलाहट इतनी तीव्र है कि दिखाई नहीं पड़ती।
नदी के किनारे खड़े हैंनदी बही जा रही हैहम सोचते हैं वही नदी है। फिर भी नदी में तो दिखाई पड़ता है। पहाड़ के किनारे खड़े हैंतब तो बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता कि पहाड़ बहा जा रहा है। पहाड़ भी बह रहे हैं! उनके बहने का समय जरा लंबा है। नदी के बहने का समय जरा तीव्र हैइसलिए नदी दिखाई पड़ रही है। पहाड़ भी बह रहे हैं। क्योंकि कल जो पहाड़ थेआज नहीं हैंऔर आज जो पहाड़ हैंकल नहीं थे। कल जो पहाड़ होंगेउनका हमें अभी कोई पता नहीं है।
पहाड़ बह रहे हैं। वे भी बदल रहे हैं। उनका कालमाप बड़ा है। करोड़ों वर्ष में बदलते हैं। नदी घड़ी में बदल जाती है। बस कालमाप,टाइम पीरियड का फर्क हैबाकी पहाड़ भी बह रहे हैं।। और अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि प्रत्येक चीज बह रही है।। प्रत्येक चीज लयमान है,गतिमान है। प्रत्येक चीज दौड़ रही है।।प्रत्येक चीज एक बहाव है। और यहां हर क्षण सब बदला जा रहा। है। यहां कुछ भी एक क्षण से ज्यादा नहीं टिकता। बाहर भी कुछ नहीं टिकताभीतर भी कुछ नहीं टिकता आपने कभी खयाल किया है कि आपका मन एक क्षण भी वही नहीं रहताजो एक क्षण पहले था। एक क्षण पहले सुख मालूम हो रहा थाऔर जरा भीतर झांककर देखेंसुख तिरोहित हो गया है! एक क्षण पहले दुख मालूम हो रहा थादुख खो गया है! एक क्षण पहले चिंता मालूम हो रही थीचिंता चली गई! एक क्षण पहले बड़े शांत थेअशांत हो गए हैं! एक क्षण भी मन दोहरता नहींवही नहीं होता। दो क्षण भी मन एक जैसा नहीं रहता।
भीतर मन बदल रहा हैबाहर संसार बदल रहा है। कोई चीज ठहरी हुई नहीं है। और जहां कोई भी चीज ठहरी हुई नहीं हैवहा हमारी ठहराने की आकांक्षा से दुख पैदा होता है। हम ठहराना चाहते हैंहम हर चीज को ठहराना चाहते हैं। हम जगत केजीवन के नियम के विपरीत कोशिश में लगते हैं। फिर हार जाते हैं। फिर दुखी ' होते हैं।
एक आदमी जवान रहना चाहता हैतो जवान ही रहना चाहता है। उसे पता नहीं है कि उसके रहने की कोशिश भी उसको बूढ़ा कर रही हैरहने की कोशिश में भी जो समय और ताकत लगा रहा हैवह भी कावह भी बूढ़ा होता जा रहा है! एक आदमी मरना ही नहीं चाहता है। वह जो कोशिश कर रहा हैउसमें ही मर जाएगा। जीवन कै प्रवाह के विपरीत हम थिर को खोजना चाहते हैं। हम चाहते हैंकुछ ठहर जाए।
मैं किसी को प्रेम करता हूंतो सोचता हूंयह प्रेम बह न जाएबचेसदा बचे। सिर्फ कवियों की कविताओं में बचता है। और अक्सर उन कवियों कीजिनको प्रेम का कोई अनुभव नहीं है। सच।तो यह है कि जिनको प्रेम का अनुभव हैवे कविता लिखने की। झंझट में नहीं पड़ते। जिनको कोई अनुभव नहीं हैवे कविता से तृप्ति खोजते रहते हैं।
सिर्फ कविताओं में प्रेम अमर है। जीवन में कहीं भी अमर नहीं है। हो नहीं सकता। ऐसा नहीं कि प्रेमी का कोई कसूर है। नहींजीवन का नियम नहीं है। क्षणभंगुर है।
इसीलिए प्रेमी बड़ी मुश्किल में पड़ते हैं। जब प्रेम के बहाव में होते हैं और प्रेम अपनी ऊंचाई पर होता हैतो उनको लगता है कि शाश्वत हैइटरनल है। अब तो इसका कोई अंत नहीं होगा। उन्हें पता नहीं है कि शाश्वत तो बहुत दूर की बात हैकल कासुबह का भी कोई भरोसा नहीं है।
और फिर कल सुबह जब गंगा बह जाती हैऔर हाथ से पानी की धाराएं गिर जाती हैं बाहरऔर हाथ में कुछ नहीं रह जातातब बड़ी कठिनाई शुरू होती है। फिर अपने ही किए हुए वचनकि चाहे मर जाऊंलेकिन प्रेम करूंगाचाहे कुछ भी हो जाएप्रेम करूंगा। लेकिन प्रेम बह गया। क्योंकि प्रेम आपके वचनों को नहीं मानता। प्रेम जगत के नियमों को मानता है। उसके अपने नियम हैं। मैं कितना ही कहूं मेरे कहने का कोई सवाल नहीं है। जीवन के नियम अपवाद नहीं करते।
प्रेम बह जाएगातब फिर मुझे प्रेम का धोखा सम्हालना पड़ेगा। फिर मैं एक डिसेप्शन को पालकर रखूंगा। फिर मैं कहता रहूंगा कि ! प्रेम करता हूं और भीतर प्रेम नहीं पाऊंगा। और जारी रखूंगा। अपने को भी धोखा दूंगादूसरे को भी धोखा दूंगा। और तब प्रेम से पीड़ा निकलेगीकष्ट आएगाऊब मालूम पड़ेगीघबड़ाहट मालूम होगीधोखा मालूम पड़ेगा। लेकिन अब मैं क्या कर सकता हूं! वचन जो मैंने दिया थाउसे खींचना पड़ता है।
प्रेम थिर नहीं हो सकता। कोई चीज थिर नहीं हो सकती। सिर्फ एक चीज थिर हैवह है परिवर्तन। सिर्फ एक चीज नहीं बदलती हैवह है बदलाहट। और सब बदल जाता है।
      तो कृष्ण कहते हैंक्षणभंगुर है यह।
और इस क्षणभंगुर में हम कोशिश करते हैं बचाव कीठहराव की। उस लड़ने में ही हम मिट जाते हैं और नष्ट हो जाते हैं।
ज्ञान का अर्थ होता हैजीवन के नियम को जानकर जीना। अज्ञान का अर्थ होता हैजीवन के नियम के विपरीत चेष्टा में लगे रहना। एक आदमी को पता ही नहीं है कि जमीन में गुरुत्वाकर्षण हैवह छलांग लगालगाकर आकाश छूने की कोशिश करते हैंगिरगिरकर हाथपैर तोड़ लेते हैं। नियम का उन्हें पता नहीं है कि जमीन खींच रही हैऔर जितने जोर से तुम उछाल मारोगेउतने ही जोर से खींचे जाओगे। हाथपैर तोड़ लेंगेतो शायद वह कहेंगे कि जीवन ने उनके साथ धोखा किया! जमीन को कितना कहा कि धरती माता है तू और यह व्यवहार किया मां होकर!
नहींधरती माता का कोई लेनादेना नहीं है इसमें। आपको नियम का पता नहीं है। नियम के विपरीत आदमी दुख पैदा कर लेता है। तो कृष्ण कहते हैं कि क्षणभंगुर इस लोक में तू निरंतर मेरा ही भजन कर। क्योंकि तभी तू उसे पा सकेगाजो कभी नहीं खोता है। बाकी तू कुछ भी पा लेगातो खो जाएगा। चाहे यशचाहे कीर्तिचाहे धनचाहे राज्यकुछ भीइस संसार में तू कुछ भी पा लेगातो तू ध्यान रखना कि पा भी नहीं पाएगा कि खोना शुरू हो जाएगा।
यहां हम जीत भी नहीं पाते हैं कि हार शुरू हो जाती है। पहुंच भी नहीं पाते हैं कि भटकना शुरू हो जाता है। मंजिल हाथ में आती नहीं कि छीनने वाले मौजूद हो जाते हैं। उसका कारणजीवन क्षणभंगुर है।
इसमें कुछ निराशा नहीं है। पश्चिम के लोगों ने पूरब के संबंध में निरंतर ऐसा सोचा है कि पूरब के लोग बिलकुल निराश हो गए हैं। इन्होंने जीवन की आशा छोड़ दी है। तभी तो ये कहते हैंकोई सुख नहीं हैदुख ही दुख है। कोई आशा नहींकोई अपेक्षा नहीं है। कुछ नहीं होगा।
लेकिन पश्चिम के लोगों को ठीक खयाल नहीं है। पूरब के लोग निराशावादी नहीं हैं। लेकिन पूरब के लोग नासमझ भी नहीं हैं। अगर एक आदमी जमीन पर कूदकूदकर हाथपैर तोड़ रहा है और मैं उससे कहूं कि पागलतुझे पता नहीं कि जमीन का स्वभाव खींच लेना है! तो खींचने के खिलाफ तू जो भी कर रहा हैसोचसमझ के कर! अन्यथा हाथपैर टूट जाएंगे। और हाथपैर सेतो जमीन को दोष मत देनाअपनी नासमझी को दोष देना।
तो मैं निराशावादी नहीं हूं। मैं सिर्फ इतना ही कह रहा हूं कि जीवन से व्यर्थ लड़ने की कोशिश में मत पड़! उसमें तू टूट जाएगा। तब मैं यह भी कह रहा हूं कि यह शक्तिजो तू जीवन से लड़कर नष्ट कर रहा हैयह शक्ति एक और दिशा में भी लगाई जा सकती है। और जो तू पाना चाहता हैवह पाया जा सकता है।
एक ऐसा प्रेम भी हैजो शाश्वत हैलेकिन वह परमात्मा का प्रेम है। वह पाया जा सकता है। आदमीआदमी के प्रेम को शाश्वत करने की कोशिश मत कर! वह नहीं हो सकता। इसका कोई उपाय ही नहीं है। इसका कभी कोई उपाय नहीं हो सकेगा। लेकिन एक प्रेम हैजो शाश्वत भी है। आदमीआदमी के बीच के प्रेम की परेशानी में मत पड़! और अगर आदमीआदमी के बीच भी प्रेम करना हैतो आदमी के भीतर से भी परमात्मा को खोज। प्रेम उसको ही कर। आदमी को भी बीच का द्वार बनाजस्ट ए पैसेजएक मार्ग। लेकिन उसके भीतर भी परमात्मा को देख।
इसलिए हमने चाहा था कि पति में परमात्मा देखा जा सके। क्योंकि अगर पति ही देखा जा सकेतो जिस प्रेम की आशा हैवह कभी संभव नहीं हो सकता। पश्चिम में प्रेम टूटेगाविवाह भी टूटेगापरिवार भी बिखरेगा। बिखरना ही पड़ेगा। वह एक ही आधार पर बन सकता था और थिर हो सकता थाकि किसी दिन पति में परमात्मा की झलक मिल जाए या पत्नी में कभी उस दिव्यता का बोध हो जाए। तो ही। जिस दिन किसी दिन पत्नी में मां दिखाई पड़ जाए गहरे में कहींपति में प्रभु दिखाई पड़ जाए गहरे में कहींउस दिन हम शाश्वत के नियम में प्रवेश कर गए।
ऐसा समझेंआज हमने जमीन के पार जाने के उपाय कर लिए अब हम चांद पर जा सकते हैं। अब तक नहीं जा सकते थे। न जा सकने का कारण जमीन का ग्रेविटेशन था। दो सौ मील तक जमीन का गुरुत्वाकर्षण पकड़े हुए है। दो सौ मील के भीतर कोई भी चीज फेंको,जमीन उसे खींच लेगी। और या फिर उसको इतनी तीव्र गति में रखना पड़ेगाजैसे हवाई जहाज को रखना पड़ता है। इतनी तीव्र गति में रखना पड़ेगा कि यहां की जमीन खींच पाएइसके पहले वह यहां की जमीन से आगे हट जाए। वहा की जमीन खींच पाए उसके पहले आगे हट जाए।
तो या उसे तीव्र गति में रखना पड़ेगातो जमीन उसे नहीं खींच पाएगी। क्योंकि जमीन के खींचने में समय लगेगा। मेरा हाथ यहां है,जमीन के खिंचाव का असर पड़ातब तक हाथ आगे हट गया। यह खिंचाव बेकार चला गया। तब तक उस पर असर पड़ाआगे हाथ हट गया। तो या तो हवाई जहाज की गति से घूमते रहो वर्तुलाकारतो जमीन से बच जाओगे। लेकिन जमीन का कर्षण खींचता ही रहेगा।
हीदो सौ मील के पार अगर हम किसी भी चीज को फेंक देंतो फिर जमीन खींचने में असमर्थ हो जाती है। दूसरा नियम शुरू हो गया। जमीन के घेरे के बाहर दो सौ मील की जमीन का फील्ड हैएनर्जी फील्ड है। उसके बाहर फिर जमीन नहीं खींचेगी। फिर एक छोटासा कंकड़ भी छोड़ दोतो जमीन की ताकत उसे खींचने की नहीं है। फिर वह कंकड़ अनंत में घूम सकता है।
ठीक ऐसे हीजीवन के आंतरिक नियम भी हैं। जब तक हम क्षणभंगुर के घेरे में ही सब कुछ खोजेंगेशाश्वत को खोजेंगेतब तक हम क्षणभंगुर से खिंचते रहेंगेटूटते रहेंगेपरेशान होते रहेंगे। वह स्थिर हमें उपलब्ध नहीं होगाशाश्वत की प्रतीति नहीं होगी। एक और दिशा भी हैआदमी के पार। जैसे जमीन के पार दो सौ मील के पार उठने कीठीक ऐसे हीआदमी के प्रेमवस्तुओं के आकर्षण के पारपरमात्मा के प्रेम की तरफ उठने की भी एक आंतरिक दिशा है। उस दिशा में उठते ही सारे नियम दूसरे हो जाते हैं। यहां सब क्षणभंगुर हैवहा कुछ भी क्षणभंगुर नहीं है। यहां सब सुखरहित हैवहां सब दुखरहित है।
मैं नहीं कहूंगा कि वहां सुख है। क्योंकि आप नहीं समझ पाएंगे। क्योंकि सुख तो आपने जाना नहीं कभी। अगर मैं कहूंवहां सुख है,तो आपकी समझ में कुछ भी न आएगा। और अगर आएगा भीतो वही सुख समझ में आएंगेजो आप यहां जानना चाह रहे थे। नहीं। मैं कहूंगायह संसार सुखरहित हैऔर वह संसारपरमात्मा कादुखरहित है। दुखरहित इसलिए कि आप दुख को भलीभांति जानते हैं। आपका दुख वहां कोई भी नहीं होगा। स्वभावत:आपका कोई भी सुख वहां नहीं होगा। क्योंकि आपके सब दुख इन्हीं सुखों से पैदा हुए हैं।
यह क्षणभंगुर हैवह शाश्वत है। यहां हर चीज क्षण में बदल जाती हैवहां कुछ भी कभी नहीं बदला है।
निश्चित हीजहां बदलाहट बिलकुल नहीं हैवहा समय नहीं हो सकतावहां टाइम नहीं हो सकता। क्योंकि समय तो बदलाहट का माध्यम है। जहां भी समय होगावहां बदलाहट होगी। जहां बदलाहट नहीं होगीवहा समय नहीं होगा।
यहांजहां हम जीते हैंवहां हम समय में जीते हैं। समय की प्रक्रिया को हम समझ लेंतो क्षणभंगुर का दूसरा अर्थ समझ में आ जाए।
समय मेंकभी आपने खयाल किया कि आपको वर्षमाहजीवन इकट्ठा नहीं मिलताएकएक क्षण एकएक बार मिलता है! कभी आपने खयाल किया कि दो क्षण इकट्ठे आपके हाथ में कभी नहीं होते! एक क्षणऔर जब वह छिन जाता हैतभी दूसरा आपके हाथ में उतरता है।
एक क्षण से ज्यादा आपके हाथ में कभी नहीं होता। कोई आदमी कितनी ही कोशिश करे कि दो क्षण मेरे हाथ में हो जाएंतो नहीं हो सकते। एक ही क्षण हाथ में होता है। जब वह खिसक जाता है हाथ सेतब दूसरा आता है। अगर आपने रेत से चलती हुई घड़ी देखी हैतो एकएक दाना रेत का गिरता रहता है। बसएक दाना ही गुजरता है छेद से। जब एक गुजर जाता हैतब दूसरा दाना गुजरता है। दो दाने साथ नहीं गुजरते।
समय का भी एक दाना हमें मिलता हैएक क्षण। क्षण समय का एटम हैआखिरी कण है। उसके आगे विभाजन नहीं हो सकता। एक क्षण हमें मिलता है। वह खोता हैतो दूसरा हाथ में आता है।
इसका अर्थ हुआ कि हमारे पास एक क्षण से ज्यादा जिंदगी कभी नहीं होती! चाहे बच्चा होचाहे जवान होचाहे का होचाहे गरीब हो,चाहे अमीर होचाहे ज्ञानी होचाहे अज्ञानी होएक क्षण से ज्यादा जिंदगी किसी के पास नहीं होती।
क्षणभंगुर का यह भी अर्थ है कि पूरा जीवन क्षण से ज्यादा हमारे पास नहीं होता।
और क्षण कितनी छोटी चीज है आपको पता है गुर आपको पता नहीं होगा। जिसे हम सेकेंड कहते हैं घड़ी मेंवह बहुत बड़ा है। बहुत बड़ा है। अब तक समय की ठीकठीक जांचपड़ताल नहीं हो सकीक्योंकि बड़ा सूक्ष्म मामला है समय का।
लेकिन क्षणआप ऐसा ही समझेंडेमोक्रीट्स या वैशेषिक भारत के आज से तीनचार हजार साल पहले परमाणु की जो कल्पना करते थेपरमाणु का जो खयाल करते थेतो उनका खयाल था कि परमाणु आखिरी टुकड़ा हैउससे ज्यादा नहीं टूट सकता। लेकिन फिर परमाणु भी टूट गया और अब इलेक्ट्रान हमारे हाथ में है। अब इलेक्ट्रान जो हैवस्तु का आखिरी टुकड़ा है। वह कितना बड़ा हैयह कहना मुश्किल हैवह कितना छोटा हैयह कहना मुश्किल है। और जो भी बातें कही जाती हैंवे सब अंदाज हैंअनुमान हैं।
इसे ऐसा समझें कि एक पानी की बूंदस्याही का ड्रापर होता मुड़ने की बात है और वह दिखाई पड़ जाएगा। संसार पर ध्यान मत है,आप स्याही के ड्रापर से एक पानी की या स्याही की बूंद गिरा दोउसकी तलाश करोजिसमें संसार बह रहा हैजिसमें संसार लें। तो वैज्ञानिक कहते हैंएक बूंद में जितने इलेक्ट्रौस हैंअगर उठ रहा हैजिसमें संसार खो रहा हैजिसमें संसार बना है और पूरी पृथ्वी के लोगतीन अरब लोग हैं अभीतीन अरब लोग उन इलेक्ट्रांस की गिनती करने लग जाएंतो छ: करोड़ वर्ष लगेंगे! एक पानी की बूंद मेंजमीन पर जितने लोग हैंतीन अरब लोग हैं अभीअगर ये गिनती करने लग जाएंखाएं नपानी न पीएउठें नसोए नबैठें नकुछ भी न करेंचौबीस घंटे गिनती ही करेंतो छ: करोड़ वर्ष! एक पानी की बूंद में उतने इलेक्ट्रांस हैं! कहना मुश्किल है कि एक सेकेंड में कितने क्षण हैंकहना मुश्किल है। इलेक्ट्रौस से तो छोटे किसी हालत में नहीं होंगे। बहुत बारीक है मामला। उतना बारीक हमारे पास होता है! हमें पता भी नहीं चल पाता। बारीक इतना है कि जब आपको पता चलता हैतब तक क्षण आपके हाथ से जा चुका होता है। पता चलने में जितना वक्त लगता हैउतने में वह जा चुका होता है। आपको पता लगता है कि आपको लगाबारह बजकर एक मिनटजब आपको पता लगता हैतो बारह बजकर एक मिनट अब नहीं रहा। क्षण सरक गए।
इसका मतलब यह हुआ कि क्षण भी हमारे हाथ में हैयह भी हमें पता नहीं चल पाता। इतना छोटा है क्षण और इतना क्षणभंगुर है जीवन कि हमारे हाथ से कब गुजर जाता हैहमें इसका भी पता नहीं चलता। इस बदलती हुईभागती हुई समय की धारा में जो जीवन के शाश्वत भवन बनाने की कोशिश करते हैंवे अगर दुख में पड़ जाते हैंतो कसूर किसका है?
तो कृष्ण कहते हैंहे अर्जुनइस क्षणभंगुर और सुखरहित संसार में तू मुझ को स्मरण कर। और स्मरण के लिए कुछ बातें कहते हैं।
अनन्य प्रेम से अचल मन वाला होमुझ परमेश्वर को निरंतर भज। श्रद्धाभक्ति और प्रेम से विह्वलतापूर्वक पूजन कर। मुझ परमात्मा को प्रणाम कर। मेरे शरण हुआमेरे में एकीभाव करके मेरे को ही प्राप्त हो जाएगा।
इन सब बातों का सार तीन शब्दों में आपसे कहना चाहूं।
एकदृष्टि संसार पर मत रखो। वहां कुछ भी हाथ में आएगा नहीं। निराश होने का कोई कारण नहींक्योंकि जहां कुछ हाथ में आ सकता हैवह बिलकुल किनारे ही है। संसार से बहुत दूर नहींबस जस्ट बाई दि कार्नर। एकदम किनारेनुक्कड़ पर ही है। जरा

जिसमें संसार लीन हो जाएगा। उसकी थोड़ी फिक्र करो। आदमी से आंख थोडी ऊपर उठाओआदमी के थोड़े पार देखो।
नीत्शे ने कहा हैअभागा होगा वह दिनजिस दिन आदमी अपने से तृप्त हो जाएगा। और लगता है कि वह अभागा दिन हमारे आसपास है कहीं। आदमी अपने से तृप्त मालूम पड़ता है।
धर्म का अर्थ हैआदमी का अपने से अतृप्त हो जानाए बेसिक डिसकटेंटएक आधारभूत प्राणों में असंतुष्टिकि आदमी होना काफी नहीं हैऔर संसार पा लेना पर्याप्त नहीं हैकोई और खोज! वही खोज परमात्मा की तरफ उठाती है।
तो पहली बातसंसार से तृप्त मत हो जानासंसार में खो मत जानाडूब मत जानास्मरण रखना कि पार भी कोई है।
एक मित्र ने पूछा है कि उस पार का हमें कोई पता ही नहीं हैतो हम उसका स्मरण कैसे करें?
वे ठीक कहते हैं। उसका कोई भी पता नहीं है। उसका स्मरण कैसे करें?
बच्चा पैदा होता है। आपने कभी खयाल किया हैबच्चा पैदा होकर पहला काम क्या करता हैरोता है। इस बच्चे को रोने का भी कोई पता नहीं था। रोता क्यों हैशायद आपको खयाल में भी न हो! रोता इसलिए हैताकि सांस ले सकेक्योंकि मां के पेट में उसे सांस नहीं लेनी पड़ती। मां की सांस से ही काम चलता है। मां के पेट में नौ महीने बच्चे के फेफड़े काम नहीं करते। पैदा होते से ही फेफड़ों को काम करना पड़ता है। पता कुछ भी नहीं है बच्चे को कि फेफड़े कैसे काम करेंकैसे श्वास लेंलेकिन एक बेचैनी है। उसका जो पता नहीं हैउसकी भी एक बेचैनी तो है। पूरा यंत्र माग करता हैतो एक विह्वलता पैदा होती है।
कृष्ण ने उसी विह्वलता की बात्त कही है। रो उठता हैचीख उठता है। उसी चीखने में सांस भीतरबाहर हो जाती हैहृदय की धड़कन शुरू हो जाती है। इसलिए अगर बच्चा न रोएतो डाक्टर चिंतित हो जाते हैंनर्सें घबड़ा जाती हैंकिसी तरह रुलाओ बच्चे को। अगर बच्चा नहीं रोयातो गया! अगर बच्चा न रोएतो उसका मतलब है कि वह बचेगा नहींमर जाएगा। मरा ही हुआ होगा। रो भी नहीं सकतातो मरा ही हुआ है।
तो दूसरी बात आपसे कहता हूं परमात्मा का तो आपको पता नहीं हैलेकिन एक बात तो आपको पता चल सकती है कि जिस जगत में आप जी रहे हैंवहां कुछ भी नहीं है। तो फिर रो तो सकते हैं। जहां खोज रहे हैंवहां कुछ भी नहीं मिल रहा है। उसका कोई पता नहीं है,माना मैंने। उसका कोई पता नहीं हैजो मिले। लेकिन जहां हैंवहां कुछ भी नहीं मिल रहा हैतो छाती पीटकर रो तो सकते हैं! हृदयपूर्वक चीख तो सकते हैं! आंसू तो बह सकते हैं! कृष्ण ने उसे ही विह्वलता कहा है। वह विह्वलता इस बात का ही सबूत है कि जो सामने हैउसमें कुछ मिलता नहींऔर तुमजिनमें मुझे मिल सकता हैतुम दिखाई नहीं पड़ते! इस क्षण में जो पीड़ा पैदा होती हैउसका नाम विह्वलता है। जो हैवह पाने योग्य नहीं मालूम पड़ताजो पाने योग्य हैउसका कोई पता नहीं है! तो मैं क्या करूंलेकिन मैं रो तो सकता हूं।
भक्तों ने रोने का अभूतपूर्व उपयोग किया है। भक्तों ने रोने को योग बना लिया है। रोने का उन्होंने वही उपयोग किया हैजो बच्चा मां से पैदा होकर करता है अनजान जगत में प्रवेश करने के लिए। भक्तों ने रोकर परमात्मा में प्रवेश करने के लिए वही उपयोग किया है। और जो व्यक्ति उस अनजान के लिए रुदन से भर जाता है और उसके प्राणों में आंसू भर जाते हैंअचानक वह पाता है कि उसके हृदय ने नई श्वास लेनी शुरू कर दी है। वह किसी दूसरे लोक में प्रवेश कर गया है। कोई दूसरा जगत सामने खड़ा हो गया है। द्वार खुल गए हैं।
उन मित्र का पूछना ठीक है कि जिस भगवान को हम नहीं जानतेउसका स्मरण कैसे करें?
मत करो स्मरण! लेकिन जिसे तुम जानते होउससे पूरी तरह असंतुष्ट तो हो जाओ। जहां तुम खड़े होउस जमीन को तो व्यर्थ समझ लो। तो तुम्हारे पैर आतुर हो जाएंगे उस जमीन को खोजने के लिएजहां खड़ा हुआ जा सके। जिस नाव पर तुम बैठे होउसे तो देख लो कि वह कागज की है। कोई फिक्र नहीं कि दूसरी नाव का हमें कोई पता नहीं है। और हमें कोई पता नहीं है कि कोई किनारा भी मिलने वाला है। हमें कोई पता ही नहीं है कि कोई और खिवैया भी हो सकता है। लेकिन यह नावजिस पर तुम बैठे होकागज की है या सपने की हैजरा नीचे इसकी तलाश कर लो।
और जिस आदमी को पता चल जाए कि मैं कागज की नाव में बैठा हूं पता है वह क्या करेगाकम से कम चीखकर रोकाचिल्लाएगा तो! पता है कि कोई सुनने वाला नहीं हैतो भी मैं कहता हूं वह चिल्लाएगा और रोएगा। कोई किनारा हो या न होऔर कोई निकट हो या न होउस स्वात निर्जन में भी उसका रुदन तो सुनाई ही पड़ेगाउसके प्राण तो चिल्लाने ही लगेंगेकि मैं कागज की नाव में बैठा हूंअब क्या होगाइस घटना से हीइस विह्वलता से ही अचानक हृदय का एक नया यंत्र शुरू हो जाता है। हृदय में दो यंत्र हैं। वैज्ञानिक से पूछने जाएंगे,तो वह कहेगाफेफड़े के अतिरिक्त हृदय में और कुछ भी नहीं हैफुफफुस है। पंपिंग सेट के सिवाय वहा कुछ भी नहीं है। वह सिर्फ श्वास को फेंकने और खून को शुद्ध करने का काम करता है। एक पंपिंग की व्यवस्था है। वैज्ञानिक से पूछने जाएंगेतो हृदय जैसी कोई भी चीज नहीं है,फेफडा हैफुफफुस हैलेकिन शब्द हम सदा हृदय का उपयोग करते हैंहालाकि हमारे पास भी फुफफुस है अभीअभी हृदय नहीं है।
हृदय उस फेफड़े का नाम हैजो दूसरे संसार में श्वास लेना शुरू करता है। यह फेफड़ा तो इसी संसार में श्वास लेता हैयही आक्सीजन और कार्बन डायआक्साइड के बीच चलता है। एक और भी आक्सीजन हैएक और प्राणवायु हैएक और प्राणवान जीवन हैजब वह शुरू होता हैतो इसी फुफफुस के भीतर एक और हृदय हैजिसमें नई श्वास और नई धड़कन शुरू हो जाती है। वह धड़कन अमृत की धड़कन है। तो दूसरी बात हैविह्वलता। और तीसरी बात हैसमर्पण।
पहली बात हैयह जो चारों तरफ हैयह व्यर्थ हो जाएतो ही आंख उठेगी। आंख उठेकुछ दिखाई न पड़ेजो थावह छूट जाएजो मिलने को हैवह मिले नहींबीच में आदमी अटक जाए तो विह्वलता पैदा होगीघबड़ाहट पैदा होगीएक बेचैनी पैदा होगी। कीर्कगार्ड ने कहा हैएक ट्रेबलिंगएक कंपन पैदा होगा। एक चिंता पैदा होगी कि अब क्या होगाजो नाव थी वह छूट गईनई नाव पर पाव नहीं पड़ेअब तो लहर पर ही खड़े हैंअब क्या होगा?
इस विह्वलता में घटना घटेगी।
और तीसरी बात हैसमर्पण। समर्पण का अर्थ हैजब उस नए हृदय की धड़कन शुरू हो जाएतो समग्र भाव सेअत्यंत श्रद्धापूर्वक,पूरे ट्रस्ट सेभरोसे से उस नए जीवन में प्रवेश कर जाना। उस नए जीवन को सौंप देना अपनी बागडोर। कहना कि तू मुझे खींच ले।
दो तरह से एक आदमी नाव में जाता है। एक तो नाव होती हैजिसमें हाथ से खेना पड़ता है। एक नाव होती हैजिसमें पाल लगा होता है। हवा बहती है पूरब की तरफ और पाल खोल देते हैंतो हवा ही नाव को खींचकर ले जाती है।
ध्यान रहेसंसार का जो जगत हैवहा जिस नाव से हमें चलना पड़ता हैवहां खेना होता हैवहां प्रत्येक आदमी को मेहनत उठानी पड़ती हैपतवार चलानी पड़ती है। तब भी चलता नहीं कुछकहीं पहुंचते नहीं। पतवार चलती है बहुतपरेशान बहुत होते हैंदौड़धूपपूरी जिंदगी डूब जाती हैकिनाराविनारा कभी मिलता नहीं। वही सागर की लहरें ही कब सिद्ध होती हैं। लेकिन मेहनत करनी पड़ती है। यहां इंचभर अगर आप रुकेतो डूब जाएंगे। कारणपूरे वक्त लगे रहना पड़ता है बचने में। यहां क्षणभंगुर है सब। यहां पूरे वक्त लगे रहेंगेतब भी डूबेंगे! लेकिन जितनी देर बचे रहेउतनी देर बचे रहेंगे।
एक दूसरा लोक हैजिसकी मैं बात कर रहा हूंजिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं। उस लोक में आपको पतवार नहीं चलानी पड़ती। वहा पतवार लेकर पहुंच गएतो आप मुश्किल में पड़ेंगे। वहा तो उस परमात्मा की हवाएं ही आपकी नाव को ले जाने लगती हैं। आपको सिर्फ छोड़ देना पड़ता है।
लेकिन जिसको पतवार चलाने की आदत है और कभी उस पाल वाली नाव में नहीं बैठा हैवह पाल वाली नाव में बैठकर बहुत घबडाएगा कि पता नहीं कहां जाऊंगाक्या होगाक्या नहींउतर जाऊंक्या करूंया पतवार भी चलाऊ?
समर्पण का अर्थ हैतुम अपनी पतवार मत चलाना। वह तुम्हें जहां ले जाएतुम वहीं चले जाना। छोड़ देना अपने को।
तो कृष्ण कहते हैंऐसा जो छोड़ देता है सबवह मुझे उपलब्ध हो जाता है।
इन दिनों में जौ कुछ आपसे कहा हैमेरा कोई प्रयोजन नहीं है कि कोई सिद्धात आपको साफ हो जाएं। सिद्धांतों के साफ होने से कुछ होता नहीं। कोई मार्ग साफ हो जाएतो कुछ होता है। मार्ग भी साफ हो जाएतो भी बहुत कुछ नहीं होताजब तक कि चलने की उमंग और लहर न आ जाए। चलने की उमंग और लहर भी आ जाएतो भी बहुत कुछ नहीं होताजब तक कि उस अज्ञात पर भरोसा न आ जाए। तो फिर वह चलाता है और खे लेता है।
इतने दिन इन बातों को इतनी शांति से सुना हैतो यह आशा की जा सकती है कि कोई बात इनमें से आपके जीवन में बीज बन जाए,कोई परिणाम ले आए। परिणाम तो कुछ आते हैंलेकिन वे परिणाम अक्सर वैसे नहीं होतेजैसे आने चाहिए।
अनुभव करता हूं मैंसुनते हैं आप मुझेपरिणाम एक आता है कि आप सोचविचार में पड़ जाते हैं। वह कोई बहुत गहरा परिणाम नहीं है। या आपके मन में और अनेक प्रश्न उठ आते हैं और उनकी चर्चा में आप पड़ जाते हैं। वह भी कोई बहुत गहरा परिणाम नहीं है। ऐसे तो अनेक जीवन आदमी सोचकरविचारकरप्रश्न उठाकरजवाब खोजकर व्यय कर सकता है। किए ही हैं हमने। कुछ चलें। एक कदम भी चलें,तो हजार कदमों की चर्चा करने से बेहतर है। परिणाम तो आते हैंलेकिन हितकर नहीं मालूम होते। कल मैंने जिन मित्र के लिए कहा था कि वे मुझे मूर्ख सिद्ध करने के लिए यहां आना चाहते हैंतो मैंने स्वीकार कर लिया कि मैं मूर्ख हूंअब कोई सिद्ध करने की जरूरत नहीं है। तो आज वे मेरे ऊपर हमला ही कर दिए! उन्होंने कहाजब विवाद से सिद्ध नहीं होना हैतो अब हमले से सिद्ध होना है!
परिणाम उन पर भी आया! जो मैंने कहाउसका परिणाम आया। पर परिणाम यह आया कि अब विवाद की जगह हमला करना है।
हमारा मन कैसे परिणाम लेता है! मैंने अगर स्वीकार ही कर लियातो बात समाप्त हो जानी चाहिए। लेकिन बात समाप्त नहीं हुई है। उनको और भी ज्यादा चेष्टा करनी पड़ेगी मुझे मूर्ख सिद्ध करने की। वह चेष्टा यह है कि मुझ पर हमला किए! उनको खयाल भी नहीं हो सकता कि वे क्या कर रहे हैं! खयाल ही होतातो क्यों करेंगे!
जब आदमी मन के एक ढांचे में फंस जाता हैतो उसी में आगे बढ़ा चला जाता है। हर मन के ढांचे में आगे बढ़ने की तरकीब होती है,पीछे लौटने की तरकीब नहीं होती। पहले दिन वे चिल्लाकर व्यवहार किए। दूसरे दिन गाली देकर व्यवहार किए। आज हमला करके मारकर व्यवहार किए। वे एक ढांचे में फंस गए। तो अब वे ढांचे में बढ़ते चले जाएंगे। अब उनको कोई उपाय नहीं सूझेगा कि कैसे पीछे लौट जाएं!
उनका तो मैंने उदाहरण दिया। हम सब भी मन के ढांचों में फंसे हुए लोग हैं। और हमारे मन का ढांचा हमें आगे ही धकाए चला जाता है। तो जो हमने कल किया हैवही हमसे और आगे करवाए चला जाता है।
धार्मिक आदमी वही हो सकता हैजो मन के इस ढांचे को किसी जगह कहकर बाहर निकल सके कि बहुत चला तुम्हारे साथअब मैं लौटता हूं। अब बंद! अब तुम्हारा तर्क नहीं सुनूंगातुम्हारी व्यवस्था नहीं सुनूंगातुम्हारा हिसाब नहीं मानूंगा। बहुत माना।
अब मैं हटता हूं तुम्हारी लीक से ही हटता हूं।
लीक से ही आप हट जाएंतो शायद वह घटना घट सकेजिसकी कृष्ण अर्जुन से बात कर रहे हैं। और वह घटना न घटेतो जीवन व्यर्थ है। और वह घटना न घटेतो जीवन सार्थक नहीं है। और वह घटना न घटेतो हम जीए भीमरे भीउसका कोई भी मूल्य नहीं है।
आपके जीवन में यह मूल्य का फूल खिल सकेइस आशा से यह अध्याय पूरा करता हूं।
आज इतना ही।
पांच मिनट आप बैठेंगे। कोई उठेगा नहीं। पांच मिनट कीर्तन में सम्मिलित होंगेफिर हम विदा होंगे।

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