जो घर बारे आपना-(साधना-शिविर)
ओशो
प्रवचन-तीसरा-(संकल्प : संघर्ष का विसर्जन)
मेरे प्रिय आत्मन्!
थोड़े से प्रश्न साधकों ने पूछे हैं, उस संबंध में हम बात
करेंगे।
एक मित्र ने पूछा है कि संकल्प की साधना में क्या
थोड़ा सा दमन, सप्रेशन नहीं आ जाता है? संकल्प
की साधना में क्या थोड़ा काय-क्लेश नहीं आ जाता है?
इस संबंध में दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं। एक, कि यदि किसी वृत्ति को दबाने के लिए संकल्प किया है, तब बात दूसरी है। जैसे किसी आदमी को ज्यादा भोजन की आदत है। इस आदत से
छुटकारे के लिए अगर उसने उपवास का संकल्प किया है, तब दमन
होगा। लेकिन ज्यादा भोजन की न कोई आदत है, न ज्यादा भोजन से
लड़ने का कोई खयाल है। तब यदि उपवास का संकल्प किया है तो वह सिर्फ संकल्प है,
उसमें दमन नहीं है।
इस साधना शिविर में मैंने जिस संकल्प की बात की है, वह किसी वृत्ति को दबाने के लिए नहीं, संकल्प को ही
फैलाने के लिए है। वृत्ति को दबाने के लिए भी संकल्प का प्रयोग हो सकता है,
होता है, होता रहा है। लेकिन वह संकल्प का
निषेधात्मक, निगेटिव रूप है।
मैं इस कमरे के बाहर जाता हूं, इसमें दो बातें हो
सकती हैं। बाहर जाना मुझे आनंदपूर्ण मालूम हो रहा है इसलिए बाहर जाता हूं या इस
कमरे में मुझे दुख मालूम पड़ रहा है इसलिए बाहर जाता हूं। दोनों हालत में मैं आपको
बाहर जाता हुआ दिखाई पडूंगा, लेकिन दोनों में चित्त-स्थिति
भिन्न होगी। एक में मैं सिर्फ कमरे से भाग रहा हूं, दूसरे
में मैं बाहर जा रहा हूं। एक निगेटिव है, एक पाजिटिव है।
संकल्प का उपयोग किसी वृत्ति को दबाने के लिए करिएगा तो सप्रेशन और
दमन होगा, जो घातक है। संकल्प को फैलाने के लिए ही प्रयोग
करिएगा तो बहुत सहयोगी है, बहुत अर्थपूर्ण है और बहुत
महत्वपूर्ण है। साधना शिविर में हम किसी चीज को दबाने में जरा भी उत्सुक नहीं हैं।
यह तो सारी प्रक्रिया ही चीजों को निकालने की है, दबाने की
नहीं है। यह सारा ध्यान का प्रयोग, मन में जो भी दबा है,
उसे भी बाहर फेंक देने के लिए है।
तो संकल्प का जो हम प्रयोग कर रहे हैं, जैसे एक आदमी ज्यादा
बात करता है, इससे छुटकारा पाने के लिए अगर मौन का व्रत ले,
तो यह दमन हुआ। लेकिन मौन का सिर्फ इसलिए व्रत ले कि तीन दिन उसे
देखना है कि वह मौन रहने के संकल्प को पूरा कर सकता है या नहीं। बोलने न बोलने का
कोई प्रश्न ही नहीं है। तब सिर्फ संकल्प की ही साधना हुई।
एक दूसरे मित्र ने भी पूछा है कि संकल्प क्या
अपने से ही लड़ना नहीं है?
नहीं। असल में जब तक संकल्प नहीं है तभी तक हम अपने से लड़ते हैं।
संकल्प की कमी हमें दो हिस्सों में बांट देती है। दस हिस्सों में भी बांट सकती है।
संकल्पहीन आदमी का क्या मतलब होता है? संकल्पहीन आदमी का
वस्तुतः यह मतलब नहीं होता कि वह संकल्पहीन है। संकल्पहीन आदमी का मतलब होता है:
उसके भीतर एक ही साथ बहुत से स्व-विरोधी संकल्प हैं। संकल्पहीन आदमी का अर्थ है:
एक ही साथ बहुत से सेल्फ-कंट्राडिक्ट्री संकल्प उसके भीतर हैं। संकल्पहीन आदमी
संकल्पहीन नहीं होता, बहु-संकल्पी होता है, स्व-विरोधी संकल्पी होता है। संकल्पवान आदमी का अर्थ है कि उसके भीतर एक
क्षण में एक ही संकल्प है और उस संकल्प पर उसका सारा चित्त एकजुट, समग्र है, इकट्ठा है।
किसी भी छोटी बात पर अगर चित्त पूरा इकट्ठा हो जाए, टोटल हो जाए, तो हम अपने से लड़ ही नहीं सकते,
क्योंकि हमारे पास दूसरा कोई बचता ही नहीं जिससे हम लड़ें। मैं अपने
इन दोनों हाथों को लड़ा सकता हूं। ये मेरे ही दोनों हाथ हैं। मेरा आधा शरीर एक हाथ
की तरफ हो सकता है, आधा दूसरे हाथ की तरफ हो सकता है। लेकिन
मैं इन दोनों को सहयोगी बना सकता हूं। ये मेरे ही दोनों हाथ हैं। और तब इनमें कोई
लड़ाई नहीं रह जाती, ये इकट्ठे हो जाते हैं।
संकल्प का अर्थ है: हमारे भीतर जो मल्टी-विल्स हैं, जो बहुत संकल्प हैं, बहु-संकल्प हैं, विरोधी संकल्प हैं, वे सब हमें आत्म-खंडित किए हुए
हैं, डिसइंटीग्रेट किए हुए हैं। एक संकल्प पूरा करते ही
हमारे भीतर क्रिस्टलाइजेशन, एकीकरण होना शुरू हो जाता है।
जब भी कोई व्यक्ति एक छोटे से संकल्प को भी पूरा करता है, तब वह व्यक्ति बन जाता है। कम से कम उतनी देर को तो व्यक्ति बन ही जाता
है। अंग्रेजी का शब्द व्यक्ति के लिए इंडिविजुअल बहुत अच्छा है। इंडिविजुअल का
मतलब होता है: इंडिविजिबल, जिसे हम बांट न सकें, अ-बंटा। अगर इंडिविजुअल को हम हिंदी में प्रकट करें, तो कहना होगा: अ-विभक्त, अनबंटा, इकट्ठा।
संकल्प संघर्ष नहीं है स्वयं से।
संकल्प स्वयं से संघर्ष का विसर्जन है, स्वयं का एक होना है।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है इसी संदर्भ में कि
क्या साधना में वृत्तियों के रेचन की ही जरूरत है या दमन की भी जरूरत है?
दमन की तो साधना में कोई भी जगह नहीं है। रेचन की ही जगह है। सच बात
यह है कि हमें परमात्मा को पाना नहीं है। हमने परमात्मा को खोया है। हमें उसे वापस
पाना है। वह कोई नई उपलब्धि नहीं है। एक अर्थों में, जो हमारे भीतर निरंतर
मौजूद है उसी को उघाड़ना है। तो हमने अपने ऊपर जितनी वृत्तियों को दमन करके इकट्ठा
कर लिया है उनका कूड़ा-कर्कट सभी अलग कर देना पड़ेगा। यदि हमारे मन पर कोई भी वृत्ति
का आवरण न रह जाए, तो जो शेष बचेगा, वही
परमात्मा है।
लेकिन दमन में तो आवरण बढ़ता है, कम नहीं होता। जो भी
हम दबाते हैं वह हमारे भीतर बैठ जाता है। अगर हम क्रोध को दबाते हैं तो क्रोध की
एक पर्त हमारे भीतर बैठ जाती है। काम को दबाते हैं तो काम की पर्त भीतर बैठ जाती
है। लोभ को दबाते हैं तो लोभ की पर्त भीतर बैठ जाती है। अगर कोई रो न पाए...
अभी मैं दोत्तीन दिन पहले ही दिल्ली में था। एक मित्र आए, उन्होंने कहा, मेरी पत्नी चल बसी। साल भर हो गया,
लेकिन मेरी उदासी का कोई अंत नहीं, मेरा सारा
जीवन उदास हो गया है। मैं क्या करूं? तो मैंने उनसे कहा कि
संभावना यही है कि पत्नी मरी होगी, तो आप रोए नहीं, दुखी नहीं हुए। आप दुख को दबा गए और पी गए। दुख को पी गए हैं, तो अब वह दुख उनकी नस-नस और खून के कण-कण में फैल गया। वह निकल नहीं पाया,
वह दब गया भीतर, वह सब तरफ फैल गया।
जैसे कहीं से मवाद निकल रही हो, तो कोई भी नहीं कहेगा
चिकित्सक कि इसको दबाना है कि रेचन करना है। फोड़ा हो गया है, मवाद है, तो उसे बाहर निकाल अलग करो, सफाई करो। लेकिन हो सकता है कि कोई कहे कि इसे दबा कर भीतर कर लो! अपने
शरीर का इतना हिस्सा खराब बाहर चला जाए तो बड़ा नुकसान हो जाएगा। वजन तो जरूर थोड़ा
कम होगा ही। तो इसे दबा लें भीतर, ऊपर से मलहम-पट्टियां कर
लें और मवाद को अंदर कर दें।
तो फिर ध्यान रहे कि वह मवाद बाकी खून को भी मवाद बना देगी। और यह भी
ध्यान रहे कि वह पूरे शरीर को सड़ा देगी। और यह भी ध्यान रहे कि उससे आप स्वस्थ
नहीं होंगे, और-और बीमार होते चले जाएंगे।
ठीक ऐसे ही चित्त की वृत्तियां हैं। जिन्हें बाहर फेंकना चाहिए, उन्हें हम भीतर दबा रहे हैं। क्रोध को हम भीतर दबा रहे हैं। काम को हम
भीतर दबा रहे हैं। लोभ को, भय को हम भीतर दबा रहे हैं।
लेकिन आप कहेंगे कि क्या हम किसी पर भी क्रोधित हो उठें? मवाद की बात तो बहुत दूसरी है, क्योंकि उसका दूसरे
से कोई संबंध नहीं, मुझसे ही संबंध है। मेरे पैर में फोड़ा है,
मैंने मवाद बाहर निकाल दी। लेकिन क्रोध का मामला तो बहुत दूसरा है।
क्रोध तो मैं किसी पर निकालूंगा।
लेकिन इसे थोड़ा समझना जरूरी है। यह भी आवश्यक नहीं है कि आप क्रोध
दूसरे पर निकालें। कोई ऐसा समाज भी हो सकता है कि जब भी कोई मवाद निकाले, दूसरे पर फेंके। तो उस समाज में बड़ी दिक्कत खड़ी हो जाएगी। क्रोध को भी
दूसरे पर निकालने की जरूरत नहीं है। क्रोध को भी ध्यान में निकाला जा सकता है। दुख
को भी दूसरे पर निकालने की जरूरत नहीं है। दुख को भी ध्यान में निकाला जा सकता है।
अकेले ही निकाला जा सकता है। क्रोध मेरा है तो दूसरे की जरूरत क्या है? अकेला ही निकल सकता है।
मैं आपसे यह कहना चाहता हूं: काम भी, क्रोध भी, मोह भी, सब, जो भी हमारे भीतर
है, हम उसे अगर दूसरे पर न निकालें और ध्यान में निकालें तो
एक रूपांतरण होगा। दूसरे पर निकालने पर तो उपद्रव होने ही वाला है। किसी दूसरे पर
क्रोध निकालेंगे तो उपद्रव होगा। गाली देंगे तो गाली लौटेगी। फिर दूसरा भी तो
क्रोध निकालेगा। फिर इसका अंत कहां होगा?
इसलिए जिन लोगों ने समाज का ध्यान रखा उन्होंने सबको समझा दिया कि
क्रोध मत निकालो, क्रोध अपने भीतर पी जाओ। तो उन्होंने समाज को तो बचा
लिया, दूसरे को तो बचा लिया, लेकिन आप
फंस गए। मैं आप पर क्रोध न करूं तो आप तो बच गए, लेकिन मेरा
क्या होगा? मैं तो क्रोध से भरा हूं भीतर। यह क्रोध कहां
निकलेगा? यह मेरे ही व्यक्तित्व को रुग्ण और बीमार और परेशान
करेगा। और अगर इस तरह के बहुत से रोग इकट्ठे हो जाएं तो मैं पागल हो जाऊंगा।
इसलिए जितनी सभ्यता बढ़ती है उतना पागलपन बढ़ता है, क्योंकि जितनी सभ्यता बढ़ती है उतने हम उन सब चीजों को रोकते चले जाते हैं
जो असभ्य आदमी सहज ही कर लेता है। फिर वे इकट्ठी हो जाती हैं, फिर उनका फूटना शुरू होता है।
नहीं, मैं एक दूसरी ही बात कह रहा हूं। मैं कह रहा हूं: न
तो दूसरे पर निकालें, न अपने में भरें, निकल जाने दें। यह बिलकुल और बात है। यह जो ध्यान का हमारा प्रयोग है,
इसमें निकल जाने का दूसरा चरण है। उस दूसरे चरण में जो भी निकलना है
उसे निकल जाने दें। रोना है, हंसना है, चिल्लाना है, जो भी आग आपके भीतर है उसे बाहर गिर
जाने दें। किसी पर नहीं फेंक रहे हैं उसे हम, कूड़ाघर में
कर्कट में फेंक रहे हैं। किसी से कोई संबंध नहीं है, हमारे
भीतर भरा है, हम उसे बाहर निकाल रहे हैं।
अगर कोई व्यक्ति रोज इस प्रयोग को चालीस मिनट करता रहे, तो तीन महीने के भीतर ही क्रोध करने में असमर्थ हो जाएगा। असमर्थ हो जाएगा,
दबाना नहीं पड़ेगा। हंसी आने लगेगी कि वह क्या पागलपन कर रहा है। और
भीतर से वृत्ति उठनी बंद हो जाएगी, क्योंकि वृत्ति के उठने
के लिए पुराना दमन जरूरी है।
एक और मित्र ने पूछा है कि आपके इस ध्यान के
प्रयोग में अगर कहीं कोई पागल हो जाए!
मजे की बात यह है कि अगर कोई पागल हो और इस ध्यान को कर सके तो पागल
नहीं रह जाएगा। यह जरूर मुश्किल है--पागल को समझाना। हम में भी कई पागल होते हैं
उनको भी समझाना मुश्किल होता है कि कैसे करो। पागलों को समझाना बहुत मुश्किल है कि
ध्यान वे कैसे करें। लेकिन अगर पागल को भी समझाया जा सके तो पागल भी पागलपन से
मुक्त हो जाएगा। क्योंकि जिन चीजों को उसने दबाया है वे गिर जाएं तो उसका मन हलका
हो जाए।
इस ध्यान के प्रयोग से कोई पागल नहीं हो सकता, क्योंकि यह ध्यान का प्रयोग पागलपन को बाहर फेंकना है। पागल होने का
रास्ता है: भीतर दबाना। बाहर फेंकना पागल होने का रास्ता नहीं है। हम तो कचरे को
घर के बाहर फेंक रहे हैं, हम उसे भीतर नहीं रख रहे।
तो इस प्रयोग से कोई पागल नहीं हो सकता। हां, हम चूंकि इस प्रयोग को नहीं किए हैं इसलिए हमारे भीतर बहुत सा पागलपन
इकट्ठा है, वह इसमें निकलेगा, वह दिखाई
पड़ेगा। इसलिए आपको शक हो सकता है कि यह अच्छा-भला आदमी, जिसको
हमने कभी इस तरह चिल्लाते-नाचते नहीं देखा, यह चिल्ला-नाच
क्यों रहा है? पागल तो नहीं हो गया?
यह पागल था! आपके समाज और आपकी कृपा से इसने इतना पागलपन इकट्ठा कर
लिया है जो निकल रहा है। यह आदमी पागल है! और आप यह मत समझना कि यही है, आप भी हैं। आप अपने को रोक कर खड़े होंगे पागलपन को, यह
निकलने दे रहा है। तो ध्यान रखना, आखिर में महंगा आपको
पड़ेगा। इसका निकल जाएगा, आपका बच जाएगा।
पागलपन हमारे भीतर है! उसका निकल जाना जरूरी है, तो हम हलके हो जाएं। और कोई पागल रहते हुए परमात्मा तक नहीं पहुंच सकता।
हलका होना पड़ेगा। पागलपन बोझ है। पागलपन भारी पत्थर की तरह हमारी छाती पर है। तो
पंख लेकर हम उड़ नहीं सकते। ये सब पत्थर अलग करने पड़ेंगे।
अब जो अलग कर रहा है उसको हम कहते हैं--तुम यह क्या कर रहे हो? क्योंकि कल तक वह छिपाए था आभूषणों में पत्थरों को, मखमली
कपड़ों में दबाए था, तो हम समझते थे इसके शरीर के हिस्से हैं।
आज इसने निकाल कर पत्थर फेंके तो हम कहते हैं--तुम पागल तो नहीं हो गए हो?
और मजा यह है कि हम भी उन्हीं पत्थरों को दबाए खड़े हैं। जब आप किसी
आदमी को नाचते देखते हैं तो आप सोचते हैं कि यह पागल तो नहीं हो गया! आपने अपने मन
के भीतर कभी पूछा है कि आप भी नाचना चाहते हैं? कभी बाथरूम में अकेले
में अपने को नाचते हुए अनुभव किया है? कभी बाथरूम के आईने
में मुंह बिचकाते हुए देखा है अपने को खुद?
आईना न हो बाथरूम में तो बात दूसरी है। लेकिन बाथरूम में हम सब
थोड़ा-बहुत निकालते हैं। दूसरों के सामने सम्हल कर खड़े हो जाते हैं। वह सम्हलना
खतरनाक है। उसमें भीतर कुछ इकट्ठा हो रहा है। इकट्ठा होते-होते एक सीमा है हर चीज
की, उसके बाद फूटना शुरू हो जाता है। जिनको हम पागल कहते हैं वे हमसे भिन्न
लोग नहीं हैं, हमारे ही जैसे लोग हैं। सिर्फ जो फर्क है वह
थोड़ा सा क्वांटिटी का है। उनकी मात्रा जरा ज्यादा, हमारी जरा
कम है। वे जरा आगे निकल गए हैं, हम जरा पीछे हैं। लेकिन
रास्ता वही है। कितनी देर आगे रहेंगे? हम भी पहुंच जाएंगे।
हम नार्मल किस्म के पागल हैं, सामान्य किस्म के पागल हैं,
और भी पागल हमारे जैसे बहुत हैं इसलिए हम चलते हैं। वे जरा बेचारे
अकेले किस्म के पागल हो जाते हैं तो उनको दिक्कत हो जाती है।
नहीं, इस ध्यान के प्रयोग से तो कोई पागल नहीं हो सकता।
लेकिन इस ध्यान के प्रयोग में पागलपन निकलता है। निकलना पागल होना नहीं है। पागल
होने का मतलब है: जब आप न निकालना चाहें और निकलने लगे तो समझना कि पागल हो गए। जब
आपके बस में न रहे और निकल जाए।
एक आदमी सड़क पर जा रहा है और न रोक सके और हंसने लगे खड़े होकर, तो समझना कि पागल हो गया। अब वह लाख कोशिश करे, उसके
बस के बाहर है। उसने इतना रोक लिया है कि अब बस से ज्यादा ताकत इकट्ठी हो गई है,
बस को तोड़ कर निकल रही है। लेकिन यहां हम जो प्रयोग कर रहे हैं वह
स्वेच्छा से, वालेंटियरली, हम निकाल
रहे हैं इसलिए निकल रहा है। और हम जिस क्षण चाहते हैं उसी क्षण रुक जाएगा। जिस
क्षण हमने चाहा, रुका। पागलपन का मतलब ही यह है कि अपने पर
नियंत्रण न रह जाए। इस ध्यान में तो अपने पर पूरा नियंत्रण है।
दूसरी बात, जो लोग पागल होते हैं उन्हें समझाना बहुत मुश्किल
होता है, क्योंकि समझने की बुद्धि भी खो जाती है। हम में से
भी कुछ लोग खड़े रह जाते हैं। दस-पांच ऐसे लोग हैं, वे खड़े रह
जाते हैं, वे दूसरों को देखते रहते हैं। अब उन्हें पागल
मानना चाहिए। क्योंकि दूसरे को देखने से कोई भी प्रयोजन नहीं है। दूसरे को देखने
को बड़ी दुनिया पड़ी है, यहां आने की कोई भी जरूरत नहीं। इतनी
दूर की यात्रा दूसरे को देखने के लिए की हो तो बेकार गई। और दूसरे को देख कर
करिएगा क्या? क्या फायदा है? अपने को
देखने की कोशिश करिए। लेकिन कुछ लोग अपने से बचने के लिए दूसरे को देखते रहते हैं।
यह तरकीब है, एस्केप है, पलायन है।
दूसरे को देख कर वे अपने को बचा रहे हैं कि अपने को न देखना पड़े।
अब आज दोपहर मौन में मैंने देखा: दो-चार लोग दूसरों को देखने में लगे
हैं। ये पागल हैं। अच्छी दुनिया होगी तो इनका इलाज होगा। अभी इनका इलाज नहीं होता।
बल्कि हो सकता है ये अपने मन में सोच रहे हों कि ये सारे पागल लोग इकट्ठे हो गए
हैं, हम एक बुद्धिमान यहां बैठे हैं। हम जरा देख रहे हैं
कि कौन-कौन पागल हैं।
ध्यान रहे, पागलों को छोड़ कर...पागलों को कभी पता नहीं होता कि
वे पागल हैं, बस...पागलों को छोड़ कर सभी को थोड़ा-बहुत शक
होता है कि हम पागल हैं। सिर्फ पागलों को शक नहीं होता कभी। अगर आप पागलखाने में
जाएं तो एक पागल नहीं कहेगा कि मैं पागल हूं! देख लें आप पागलखाने में जाकर। असल
में पागल होने का पहला प्रमाण यह है कि उसको शक कभी नहीं होता कि मैं पागल हूं।
पागलों को सदा यही शक होता है कि दूसरे पागल हो गए हैं।
खलील जिब्रान ने एक छोटी से घटना लिखी है कि उसका एक मित्र पागल हो
गया। मित्र पागल हो गया तो वह दया दिखाने पागलखाने में गया। बड़ी ऊंची दीवाल के
भीतर पागलखाने के बगीचे में उसका मित्र बैठा था। वह जाकर उसके पास बैठ गया। फिर
उसने सोचा कहां से बात शुरू करूं। फिर उसने यही कहा कि यहां सब ठीक तो है? उसने कहा कि बिलकुल ठीक है। बाहर के पागलखाने से जब से बच गए हैं, बड़ा आनंद है। उस पागल ने कहा कि बाहर के पागलखाने से जब से बच गए हैं तब
से बड़ा आनंद है।
वह तो बड़ा हैरान हुआ। वह आया था सहानुभूति दिखाने। उसने उस पागल को गौर
से देखा! वह पागल उसकी तरफ बड़ी सहानुभूति से देख रहा था। उस पागल ने कहा कि तुम भी
आ गए क्या भीतर? अच्छा किया! भगवान करे जिनमें भी बुद्धि है भीतर आ
जाएं। बाहर तो सब पागल हो गए हैं।
पागलों को भर शक कभी नहीं आता कि वे पागल हैं। उन्हें सदा दूसरों पर
शक आता रहता है कि वे पागल हैं। बुद्धिमान आदमी पहला शक अपने पर उठाता है कि मेरी
स्थिति क्या है?
इतना जरूर मैं कहता हूं कि यह प्रयोग रेचन का है, कैथार्सिस का है। इसलिए इसके द्वारा पागल होने की कोई संभावना नहीं है।
हां, इसको न करिए, तो पागलपन को बचा
लेने की संभावना है।
एक और मित्र ने पूछा है कि आपने कहा कि इस ध्यान
के प्रयोग में कभी-कभी अल्पतम वस्त्र भी असह हो जाता है। तो नग्नता का ध्यान में
क्या स्थान है?
असल में बहुत गहरे में ध्यान समग्र नग्नता है, टोटल नेकेडनेस है। वस्त्रों की ही नहीं, चित्त के
वस्त्रों की भी। शरीर पर ढंके हुए वस्त्रों की ही नहीं, मन
पर ढंके हुए वस्त्रों की भी। ध्यान पूर्ण दिगंबरत्व है। लेकिन पहली बार जब ध्यान
में भीतर प्रवेश होता है, तो शरीर के वस्त्र भी कई कारणों से
बाधा बन जाते हैं। वे सदा बाधा नहीं रहेंगे, लेकिन प्रारंभ
में बाधा बन जाते हैं। और एक घड़ी ऐसी आती है कि वे रुकावट मालूम पड़ते हैं। दोत्तीन
कारणों से।
एक तो हमने वस्त्र जो पहन रखे हैं, वे वस्त्र हमने केवल
शरीर को ढांकने के लिए नहीं पहन रखे हैं। अगर किसी ने केवल शरीर को ढांकने के लिए
वस्त्र पहन रखे हैं, तो उसे शायद ध्यान में बाधा न पड़े
वस्त्रों से। लेकिन वस्त्र हमने शरीर को ढांकने के लिए ही नहीं पहने हैं, वस्त्र हमने बहुत सी और बातों के कारण भी पहने हैं। वस्त्र के पहनने में
हमारे बहुत तरह के इन्हीबीशंस हैं, बहुत तरह की दमित
वृत्तियां, बहुत तरह के टैबूज हैं।
छोटे बच्चों को हम नग्न घूमने देते हैं। जैसे ही उनकी बुद्धि थोड़ी
विकसित हुई, हम उन्हें वस्त्रों में ढांकने लगते हैं। असल में
नग्न शरीर के साथ हमें कुछ न कुछ दुर्भाव है। नग्न शरीर के साथ हमारे मन में कुछ न
कुछ अनुचित खयाल है। नग्न शरीर के साथ कहीं न कहीं हमारे चित्त में कामवासना जुड़ी
है। हम अपनी कामवासना को छिपाए फिर रहे हैं अपने वस्त्रों में। तो जब चित्त शांत
होगा और कामवासना गिरना चाहेगी, तब उस वक्त वस्त्र भी फेंकने
का मन हो जाएगा। और यह बड़े मजे की बात है, जिस दिन ध्यान में
कोई वस्त्र फेंक देता है, उस दिन अचानक पाता है कि जैसे
कामवासना से छुटकारा हो गया। एकदम मन हलका हो गया। वस्त्र जो हैं वह कामवासना के
प्रतीक की तरह हमारे ऊपर हैं।
इसीलिए तो दूसरे को भी नंगा देख कर हमको घबड़ाहट होती है। अब दूसरा
आदमी नंगा है, उसको अगर सर्दी लग रही होगी तो उसको लग रही होगी और
धूप लग रही होगी तो उसको लग रही होगी, आप क्यों परेशान हुए
जा रहे हैं? आपको परेशानी इसलिए हो रही है कि उसकी नग्नता
सिर्फ नग्नता नहीं है, उसकी नग्नता कहीं हमारे गहरे मन में
कामवासना की प्रतीक है। वह हमारे मन की कामवासना मुश्किल में डाल रही है।
तो जब आपका मन हलका होगा तो वासना के जो प्रतीक-वस्त्र हैं वे गिरना
चाहेंगे। उस वक्त रोकना ही मत, उनको गिर जाने देना। उनके गिरते
ही मन एक नई गति में प्रवेश कर जाएगा। या तो हम कामवासना को छिपाने के लिए वस्त्र
पहने हुए हैं और या फिर हम कामवासना को दिखाने के लिए वस्त्र पहने हुए हैं। इसमें
पुरुष और स्त्री के बीच फासला है थोड़ा। आमतौर से पुरुष कामवासना को छिपाने के लिए
वस्त्र पहने हुए हैं और आमतौर से स्त्रियां कामवासना को प्रकट करने के लिए वस्त्र
पहने हुए हैं। इसलिए पुरुषों का वस्त्र छोड़ना सदा आसान है, स्त्रियों
का छोड़ना और मुश्किल है। स्त्रियों के सारे वस्त्र उनके शरीर को छिपाने का काम कम,
प्रकट करने का काम ज्यादा करते हैं। असल में कोई स्त्री वस्त्रों के
बिना इतनी सुंदर नहीं होती जितनी वस्त्रों में दिखाई पड़ती है। वस्त्रों का सारा
उपयोग शरीर को उभारने के लिए किया जा रहा है। स्त्री के वस्त्र बहुत ही आक्रामक
हैं, एग्रेसिव हैं। इसलिए स्त्री को तो और मुश्किल हो जाती
है उन्हें छोड़ना। लेकिन स्त्री के चित्त में भी क्षण आता है, क्षण आता है जब मन उसका निर्भार होता है। और जब वह अपने शरीर, जब अपने शरीर को दिखाने की वृत्ति से मुक्त होने का क्षण आता है, तब उसके वस्त्र गिर सकते हैं।
नग्नता का अर्थ वस्त्रों के अर्थ से जुड़ा है। वस्त्र का आपका जो अर्थ
है, उससे विपरीत आपकी नग्नता का अर्थ होगा। अगर वस्त्र आपके लिए सिर्फ शरीर
ढांकने का साधन हैं, तब कोई सवाल नहीं है, तब ध्यान में आपको वस्त्र गिराने का सवाल नहीं उठेगा। लेकिन इतनी ही बात
नहीं है, वस्त्रों के साथ हमारे गहरे भाव जुड़े हैं। हमने
नग्न शरीर को स्वीकार नहीं किया है। जब कि नग्न शरीर ही हमारा है, चाहे हम कितने ही वस्त्र पहनें, शरीर नग्न ही है।
लेकिन नग्न शरीर से हम भयभीत हो गए हैं।
मैं नहीं कहता हूं कि आप अपनी तरफ से वस्त्रों को छोड़ दें।
उन मित्र ने यह भी पूछा है कि कोई अपनी तरफ से
छोड़ कर खड़ा हो जाए, तो यह तो अभ्यास हो जाएगा।
मैं नहीं कहता हूं आप अपनी तरफ से छोड़ दें। लेकिन क्षण आ जाता है मन
का जब छोड़ने का खयाल उठे, तब चुपचाप गिरा दें। और अगर आपको पहले से ही पता है
कि आपके चित्त में ध्यान में वह क्षण आता है, तो उसकी वजह से
बाधा न डालें, ध्यान के पहले ही वस्त्र अलग करके खड़े हो
जाएं।
अब मुझे न मालूम कितने मित्रों ने आज ही आकर कहा कि बहुत कठिनाई हो
जाती है वस्त्र को पहनना--होता है कि फाड़ कर फेंक दें।
फाड़ कर फेंकने से नाहक वस्त्र का नुकसान होगा। उसे निकाल कर ही रख दें
वह बेहतर है। और बीच में कठिनाई आए, अगर आपको पता चल गया
है कि बीच में कठिनाई आती है, तो पहले ही रख दें, उसमें कोई अभ्यास नहीं है, उसमें सिर्फ समझ है। अगर
गर्मी तेज है तो कोई आदमी वस्त्र निकाल कर रख देता है, क्योंकि
उसे मालूम है कि वस्त्र पहनने से गर्मी भारी पड़ जाएगी। अगर ध्यान में ऐसी स्थिति
आती है तो डरें न, चुपचाप वस्त्र अलग कर दें।
उस वस्त्र के अलग करते ही कामवृत्ति को बहुत बुनियादी अंतर पड़ेगा। और
भय को भी बहुत, आपके भय की वृत्ति भी गिर जाएगी। भयभीत हैं हम
सबसे--कि कहीं हम नग्न खड़े हो गए तो क्या होगा? कोई क्या
कहेगा? वस्त्रों के साथ "कोई क्या कहेगा' यह बहुत जोर से जुड़ा है। बाथरूम में तो आप नग्न हो जाते हैं, अपने आपको नग्न देखने में आपको कोई एतराज नहीं। लेकिन कोई दूसरा न देख ले,
कोई दूसरा क्या कहेगा? जिस क्षण वस्त्र गिर
जाते हैं उस दिन दूसरे का भय भी गिर जाता है उसी क्षण। उस दिन के बाद शायद
"दूसरा क्या कहेगा' यह सवाल ही नहीं उठता, दूसरा ही समाप्त हो जाता है। और हमारे पास वस्त्रों के सिवाय शरीर के पास
गिराने को कुछ है भी नहीं।
ध्यान रहे, मन में कुछ गिरे, इसके पहले
शरीर से गिरना जरूरी हो जाता है। वही हमारा द्वार है। और जो आदमी शरीर की चीज तक
गिराने में असमर्थ होता है वह मन की चीज गिराने में बहुत असमर्थ हो जाता है। शरीर
की चीज गिरते ही मन की चीज गिरने में सहूलियत, सुविधा,
सुगमता, सरलता हो जाती है।
इसलिए मैंने कहा, किसी को भी छोड़ना हो वह छोड़ सकता
है। यह तो साधना शिविर है। यह कोई बाजार नहीं है। यहां तो वे लोग इकट्ठे हैं जिनकी
अपने में उत्सुकता है और जो कहीं जाना चाहते हैं किसी गहरी यात्रा पर। और जिनकी
वस्त्रों में उत्सुकता है उन्हें साधना शिविरों में नहीं आना चाहिए। उनकी दुनिया
यह नहीं है। जो उतनी ओछी और व्यर्थ की चीजों में उत्सुक हैं उनका साधना से कोई
संबंध कभी न जुड़ पाएगा। साधना से संबंध तो उनका ही जुड़ पाएगा जो बिलकुल ही तलवार
की धार पर चलने के लिए तैयार हैं, इतने साहसी हैं, बस उनका। अन्यथा बाकी लोगों को साधना में उत्सुकता नहीं लेनी चाहिए,
वह उनका काम नहीं है। तैयारी आने दें, वक्त
आने दें, प्रतीक्षा करें। जब वह वक्त आ जाए तब।
एक मित्र ने पूछा है कि शक्तिपात के संबंध में
आपकी क्या दृष्टि है?
आज दोपहर जो लोग मौन में उपस्थित थे, उनमें से चार-छह इस
स्थिति में आ गए थे कि उन पर शक्तिपात हो जाए। लेकिन छोटी-छोटी बाधाएं बाधा बन
जाती हैं।
शक्तिपात का केवल इतना ही अर्थ है कि हमारे चारों तरफ विराट ऊर्जा
फैली हुई है। परमात्मा की अनंत शक्ति फैली हुई है। किसी क्षण में आप इस भाव-दशा
में होते हैं कि वह शक्ति आपके भीतर प्रवेश कर जाए। कभी वह सीधी भी प्रवेश कर सकती
है। लेकिन सीधी प्रवेश करने में शायद आप बहुत मुश्किल में पड़ जाएं। उसके आघात को
शायद समझ पाएं, न समझ पाएं। शायद उसके आघात में उन्मत्त हो जाएं।
शायद उसके आघात में आप इतने घबड़ा जाएं कि दुबारा उस द्वार पर न जाएं। क्योंकि
विराट है शक्ति, और उसका पहला अनुभव बहुत संघातक चोट पहुंचा
सकता है। पहले अनुभव की वजह से। बिजली को छूकर कभी देखा होगा, अनजाने छू गई होगी--पर वह तो कोई बड़ी शक्ति नहीं है, बहुत साधारण वोल्टेज का मामला है। परमात्मा का वोल्टेज तो अनंत है। उसकी
शक्ति जब पहली दफे किसी पात्र में उतरती है तो कुछ भी हो सकता है--उसके भीतर आंधी,
तूफान, भूकंप; उसके भीतर
ज्वालामुखी, सब कुछ हो सकता है।
वह शक्ति सीधी भी उतर सकती है, लेकिन खतरे उसमें
बहुत हैं। इसलिए सदा आसान पड़ता है यह कि किसी व्यक्ति के माध्यम से वह उतर जाए। तब
बहुत सरलता हो जाती है। वह व्यक्ति जैसे रेग्युलेटर का काम कर पाता है। जैसे आपके
घर में एक रेग्युलेटर लगा हुआ है, उससे कितनी बिजली का
वोल्टेज घर के भीतर लाना, उतना आप ला पाते हैं।
तो कभी कोई ऐसा व्यक्ति जो उस शक्ति को उपलब्ध हुआ हो, आपके लिए माध्यम बन सकता है। आप अगर तैयार हों तो वह माध्यम से विराट की
शक्ति आप में उतर सकती है। वह उस व्यक्ति की शक्ति नहीं होती, शक्ति तो विराट की ही होती है, व्यक्ति तो सिर्फ एक
माध्यम की तरह, बीच में एक बांसुरी की तरह काम में आ जाता
है। बांसुरी होता है वह, सुनने वाले आप होते हैं, गाने वाला कोई और होता है। ओंठ किसी और के, गीत किसी
और के, बांसुरी किसी और की, कान किसी
और के।
शक्तिपात संभव है। और इस संबंध में कल मौन के समय में दोत्तीन बातें
आपको कह दूं तो खयाल रखें, तो बजाय समझने के कि क्या है, करके
ही देख लें कि वह क्या है।
जब कल मेरे पास आएं, तो आपके भीतर जो भी होता हो उसे
पूरी शक्ति से होने दें। चीख निकलती हो, नाचना होता हो,
चिल्लाना होता हो, कूदना होता हो, जो भी मेरे पास आकर हो उसे पूरी शक्ति से होने दें। और जब मैं हाथ आपके
सिर पर रखूं, तब आपके भीतर जो भी हो रहा हो उसे दबाएं न,
जरा भी दबाएं न, उसे पूरा खुल कर प्रकट हो
जाने दें। तो आप फौरन अनुभव करेंगे कि आपके भीतर कोई और शक्ति उतर गई। ऊपर से कुछ
आपके भीतर उतर गया है। कुछ आपके भीतर जगा है, कुछ ऊपर से
उतरा है, और दोनों का मिलन हो गया है। शक्तिपात बड़ी सरल और
संभव बात है।
लेकिन जैसा मैंने कहा, कभी छोटी सी बातें
बाधा बन जाती हैं।
अब आज एक संन्यासी स्वामी क्रियानंद दोपहर को मौन में मेरे पास आए।
अगर उनके शरीर पर वस्त्र न होते तो शक्तिपात संभव होता। वह अटक गया। उतनी छोटी सी
बात से! पूरी तैयारी थी भीतर। थोड़ा सा अटकाव रह गया। एक जापानी साधिका आई हुई है, अगर उसके वस्त्र न होते शरीर पर, शक्तिपात संभव हो
जाता। वह पूरी तैयार थी। बस जरा सी अड़चन, और सारी बात रुक
गई।
शक्तिपात का अर्थ केवल इतना ही है कि विराट की शक्ति हमारे चारों तरफ
मौजूद है, हम उससे संबंध जुड़ा लें। अब वह संबंध कई तरह से हो
सकता है। मकान के ऊपर आपने देखा होगा कि बड़े मकान बनाते हैं, मंदिर बनाते हैं, गिरजे बनाते हैं, तो लोहे की सलाख लगा देते हैं। आकाश से बिजली कभी कौंधे और गिरे तो पूरे
मकान को नष्ट न कर दे, वह लोहे की सलाख से गुजर कर जमीन में नीचे
चली जाए। पूरी बिजली गिरे तो मकान टूट सकता है। वह लोहे की डंडी, छोटी सी डंडी, बड़ी कीमत नहीं मालूम पड़ती, वह मकान को बचा लेती है। बिजली उसके रास्ते को पकड़ कर जमीन में चली जाती
है।
विराट से शक्ति सीधी भी उतर सकती है किसी व्यक्ति के ऊपर। लेकिन तब
कुछ भी नहीं कहा जा सकता क्या हो जाए। लेकिन किसी व्यक्ति के माध्यम से अगर उतरे
तो बहुत कुछ सुनिश्चित यात्रा हो जाती है। उस व्यक्ति की उतनी ही कीमत है जितनी कि
वह लोहे की डंडी की कीमत है जो मकान के ऊपर लगा देते हैं। इससे ज्यादा कोई कीमत
नहीं है। उसे धन्यवाद देने की भी जरूरत नहीं है पीछे जाकर। लेकिन उतनी कीमत है।
एक और प्रश्न, फिर रात्रि को हम एक नया प्रयोग शुरू करने वाले हैं,
वह हम शुरू करेंगे। वह तीन दिन रात्रि में चलेगा। तो एक सवाल और,
फिर मैं उस नये प्रयोग के संबंध में दो-चार बात आपको कह दूं,
फिर हम प्रयोग के लिए बैठेंगे।
एक मित्र ने पूछा है कि ध्यान के पहले चरण में ही
एक-दो मिनट में बिलकुल थक जाते हैं।
नहीं, थक नहीं जाते, थकने का खयाल
पैदा हो जाता है। थकने का खयाल बड़ी बात है। जब आपको लग रहा हो कि बिलकुल थक गए हैं,
उसी वक्त कोई एक बंदूक लेकर आपके पीछे लग जाए कि मार डालेंगे,
तब आपको पता चलेगा बिलकुल नहीं थके। मीलों दौड़ते चले जाएंगे,
थकान का पता ही नहीं रहेगा। क्या हो गया? थक
गए थे आप! एक आदमी बंदूक लेकर पीछे लग गया, अब आप दौड़ कैसे
रहे हैं?
असल में हमारे भीतर कितनी शक्ति है इसका हमें पता ही नहीं होता। छोटी
सी शक्ति जो ऊपर होती है उसी का हम उपयोग करके जिंदा रहते हैं। बस वह जरा सी थक गई, बस हमने सोचा--अब तो थक गए, अब बात खतम हो गई।
जिस वक्त आपको लगे कि थकान आ गई, उस वक्त और ताकत से
शुरू करें। आप दो मिनट के भीतर पाएंगे कि थकान चली गई और बड़ी शक्ति भीतर से आ गई
है। थकान का क्षण बहुत कीमती है, वह यह बता रहा है कि आप
कितनी शक्ति के उपयोग करने के आदी हैं। बस इतना ही बता रहा है, और कुछ नहीं बता रहा। यह आपकी सीमा है। आप यहां तक उपयोग करते हैं। अब तक
आपने दो मिनट में जितनी सांस ली, इतनी ही सांस लेने का काम
किया होगा। बस वह आदत की सीमा है। वहां थक गए, मन कहता है,
बस अब आ गई अपनी सीमा, अब थक गए।
अगर दो मिनट सांस लेने में थक जाएंगे तो जिंदा कैसे रहेंगे? नहीं, वह आदत की सीमा है। घबड़ाएं मत, उस वक्त और जोर से ताकत लगा दें सांस लेने की। आप मिनट भर में पाएंगे कि
वह सीमा पार हो गई और नये तल से शक्ति आनी शुरू हो गई। थकान का क्षण ही सीमा का
क्षण होता है। और अगर कोई आदमी अपने थकान के क्षण को पार कर ले तो बहुत हैरान
होगा।
जैसे आपने कभी खयाल किया होगा, रात आप रोज दस बजे सो
जाते हैं, तो दस बजे नींद आने लगती है। लेकिन ग्यारह बजे तक
जग जाइए, फिर ग्यारह बजे नींद नहीं आती। बात क्या हो गई?
दस बजे आती थी तो ग्यारह बजे तो और भी आनी चाहिए। असल में सीमा पार
हो गई। आप एक घंटे और जग गए हैं। तो जिस शक्ति से आप दस बजे तक जगते थे वह तो खतम
हो गई है, लेकिन जिस शक्ति से आप और जग सकते हैं वह काम में
आनी शुरू हो गई है। हमारे पास रिजर्वायर है शक्ति का। उससे हम कितनी ही शक्ति ले
सकते हैं। और वह जो शक्ति का स्रोत है हमारे पास वह कभी नहीं चुकता, क्योंकि अंततः वह परमात्मा से जुड़ा हुआ है। अनंत जन्मों से सांस ले रहे
हैं आप, नहीं थके, दो मिनट में सांस
लेने से थक जाएंगे? नहीं थकेंगे। जब थकें तब जोर से और कोशिश
करें। असल में अपनी थकान को स्वीकार न करें। अपनी थकान को तोड़ दें।
उन्हीं मित्र ने पूछा है कि फिर दिन भर हाथ-पैर
में दर्द होता है, कहीं पीठ में दर्द होता है।
होगा ही। जब दो मिनट में थक जाएंगे तो दर्द नहीं होगा तो क्या होगा!
नहीं, थकें मत दो मिनट में। पूरी ताकत लगाएं। तीस मिनट जो
पूरी ताकत लगाएगा वह सबसे कम थकेगा। यह मेरे रोज के सैकड़ों अनुभव से कह रहा हूं
आपसे। जो आदमी तीस मिनट पूरी ताकत लगा देगा वह कम से कम थकेगा। और अगर सच में पूरी
ताकत लगा दी तो तीस मिनट के बाद एकदम हलका और ताजा हो जाएगा, थकेगा नहीं।
हम थकते हैं, हम पूरी ताकत नहीं लगाते--एक। ताकत भी लगाते हैं और
पूरे वक्त भीतर सोचते रहते हैं कि कहीं थक न जाएं--दो। ताकत भी लगाते हैं और रोकते
भी रहते हैं कि कहीं ज्यादा न लग जाए। बस इसमें सारा उपद्रव हो जाता है।
अब जैसे आप कहते हैं कि पीठ में दर्द होता है, किसी के हाथ में दर्द होता है। उसका मतलब यह है कि हाथ नाचना चाहता था,
आपने नाचने नहीं दिया। पीठ झुकना चाहती थी, आपने
झुकने नहीं दी, दर्द होगा। पैर कूदना चाहते थे, आपने कूदने नहीं दिया, दर्द होगा।
अब एक मित्र अभी मेरे पास आए और उन्होंने कहा कि दिन भर रोना ही रोना
सा मन बना रहता है।
तो मैंने कहा, ध्यान में रोए थे?
उन्होंने कहा, नहीं, ध्यान में तो रोना आता
नहीं।
अब वे ध्यान में रोना रोके हुए हैं। अब दिन भर रोना-रोना मन रहेगा।
नहीं, रो लें ध्यान में, फिर दिन में
देखें कैसे रोना संभव हो पाए! हम रोक रहे हैं कहीं, इसलिए
अड़चन है। और, अगर इस सबको आप जो मैं कह रहा हूं ऐसा ही कर
रहे हैं और फिर भी आपको थकान मालूम पड़े, तो समझना कि आपके
शरीर को किसी तरह के व्यायाम की, एक्सरसाइज की आदत नहीं है।
तीन-चार दिन, पांच दिन में वह आदत पड़ जाएगी। कोई भी नया
व्यायाम शुरू हो तो तीन-चार-पांच दिन शरीर थोड़ा दुखेगा। वह तीन-चार-पांच दिन में
ठीक हो जाता है, उसकी कोई बहुत चिंता लेने की जरूरत नहीं है।
लेकिन रुकें मत, उसे दुखने दें और आप करें।
यह भी पूछा है कि दूसरे चरण में शरीर बिलकुल अलग
मालूम होता है, लेकिन शरीर को कुछ होने पर उसकी खबर तुरंत लग जाती
है।
अलग जरूर है, लेकिन इसका यह मतलब थोड़े ही है कि खबर नहीं लगेगी।
अलग है, तब भी खबर लगेगी। एक मालूम होता है, तब भी खबर लगती है। एक मालूम होने से खबर के लगने में फर्क होता है,
खबर तो लगती ही है। जब शरीर अलग मालूम हो रहा है तब अगर भूख लगेगी,
तो ऐसा लगेगा कि शरीर को भूख लगी है। और जब शरीर एक मालूम हो रहा है,
तो ऐसा लगेगा कि मुझको भूख लगी है। इसमें फर्क है बस, और कोई फर्क नहीं होगा। शरीर में दर्द हो रहा है, तो
अगर शरीर अलग है तो ऐसा लगेगा कि कहीं दूर शरीर में दर्द हो रहा है और मैं जान रहा
हूं। और अगर आप शरीर के साथ अपने को एक समझ रहे हैं, तो ऐसा
लगेगा कि मुझे दर्द हो रहा है। एकता की भ्रांति में, तादात्म्य
में, आइडेंटिटी में जब आप शरीर के साथ अपने को एक समझते हैं,
तब आप भोक्ता बन जाएंगे। और जब आप शरीर के साथ अपने को भिन्न देखते
हैं ध्यान में, तब आप द्रष्टा बन जाएंगे। बस इतना ही फर्क
होगा।
इससे भयभीत न हों कि शरीर से तो अलग मालूम पड़ रहे हैं, फिर शरीर का दर्द क्यों मालूम पड़ रहा है?
दर्द तो मालूम पड़ना चाहिए। आप बेहोश नहीं हैं, आप पूरे होश में हैं। और मैं चाहता नहीं कि आप बेहोश हों। अगर आप बेहोश हो
गए तो ध्यान खो गया। फिर आप ध्यान में नहीं हैं। फिर वह सम्मोहन हो गया, हिप्नोटिज्म हो गया अगर आप बेहोश हो गए।
बहुत से लोगों का ऐसा खयाल है।
एक मित्र ने पूछा भी है कि इसमें और सम्मोहन में
क्या फर्क है?
बस यही फर्क है। प्रक्रिया बिलकुल एक! यही प्रक्रिया सम्मोहन की है, यही प्रक्रिया ध्यान की है। दोनों की प्रक्रिया एक है। फर्क बहुत गहरा है।
प्रक्रिया का नहीं है, फर्क अंतरात्मा का है। वह फर्क यह है
कि सम्मोहन में निद्रा आ जाएगी, सुषुप्ति आ जाएगी, बेहोशी आ जाएगी; और ध्यान में होश और जागरूकता पूरी
बनी रहेगी, अवेयरनेस पूरी बनी रहेगी। अगर आप बेहोश हो जाते
हों, तो समझना कि आप सम्मोहन में चले गए। अगर भीतर होश बना
रहता हो और प्रत्येक चीज का होश बना रहता हो, तो आप समझना कि
आप ध्यान में हैं।
जो लोग नहीं जानते, वे बेचारे इसको सम्मोहन कह देंगे
देख कर। वे कह देंगे, यह सम्मोहन हो गया।
सम्मोहन की और ध्यान की प्रक्रिया बिलकुल एक है। सम्मोहन सुषुप्ति में
जाने की विधि है, ध्यान समाधि में जाने की विधि है। ऐसे ही जैसे एक घर
में सीढ़ियां लगी हों। उन सीढ़ियों से हम चाहें तो नीचे तलघरे में चले जाएं, वे ही सीढ़ियां हैं। और उन्हीं सीढ़ियों से हम चाहें तो घर की छत पर,
छप्पर पर चले जाएं, वे ही सीढ़ियां हैं। सीढ?ियों को देख कर कोई कह देगा कि कहां तलघरे में जा रहे हो? जिसने तलघरा ही जाना है, वह ऊपर चढ़ते हुए आदमी को भी
देख कर कहेगा कि सीढ़ियों पर जा रहे हो? तलघरे में जा रहे हो?
वह आदमी कहेगा कि सीढ़ियां तो वही हैं, लेकिन
रुख अलग है, पीठ अलग है। जब तलघरे में जाते हैं तब तलघरे की
तरफ मुंह होता है और जब छत की तरफ जाते हैं तब तलघरे की तरफ पीठ होती है, बस इतना ही फर्क है, सीढ़ियां तो वही हैं।
सम्मोहन की और ध्यान की सीढ़ियां एक ही हैं। सम्मोहन नीचे उतारता
है--अनकांशस में, अचेतन में, सुषुप्ति में,
मूर्च्छा में। और ध्यान? ध्यान ऊपर ले जाता
है--सुपरकांशस में, अतिचेतन में, जागृति
में, होश में। अगर कोई व्यक्ति पूरे रूप से सम्मोहित हो जाए
तो प्रकृति का हिस्सा हो जाता है। और पूरे रूप से ध्यानस्थ हो जाए तो परमात्मा का
हिस्सा हो जाता है। लेकिन प्रक्रिया और सीढ़ियां बिलकुल एक हैं।
और जो सवाल रह गए हैं, वह मैं कल बात
करूंगा। अब हम रात्रि के प्रयोग को थोड़ा सा समझ लें और फिर हम इस प्रयोग को करें।
दोत्तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं। पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है
कि यह प्रयोग साक्षी का है। इसके दोत्तीन छोटे से चरण हैं। बाकी तो ध्यान की
स्थिति बनेगी, लेकिन दोत्तीन बातें हैं।
एक तो चालीस मिनट तक ध्यान में हम आंख बंद रखने का प्रयोग करते हैं, इसमें हम आंख खुली रखने का प्रयोग करेंगे, चालीस
मिनट तक। आप अपनी तरफ से आंख बंद करना ही नहीं। आंख जलने लगे, आंसू बहने लगें, पलक भारी पत्थर की तरह हो जाएं,
तब तक आप रोकना, रोकना, रोकना।
आप आंख बंद करना ही मत। हां, आंख बंद ही हो जाए और आप रोक ही
न सकें, आप रोकते ही रहें, आंख बंद हो
जाए, तब बात दूसरी। लेकिन आप बंद मत करना, आप खोले ही रखना, खोले ही रखना, खोले ही रखना। और मेरी तरफ देखना, आप आपस में किसी
को देखना ही मत, मेरी तरफ देखते रहना, और
पूरी आंख खोल कर।
इस बीच आपके शरीर को जो कुछ भी हो, होने देना। अगर
चिल्लाने लगे, चिल्लाने देना; रोने लगे,
रोने देना; हंसने लगे, हंसने
देना; खड़ा हो जाए, नाचने लगे, नाचने देना; जो कुछ शरीर को हो, होने देना। आप एक ही ध्यान रखना कि मेरी तरफ आंख हो। और चालीस मिनट तक आंख
बंद नहीं करनी है। दूसरे को आपको नहीं देखना है, आपको भूल
जाना है कि हॉल में कोई और है, बस मैं हूं और आप हैं।
मैं कोई सूचना नहीं दूंगा। बस मैं यहां बैठा हूं, आप मुझे देखते रहेंगे। और जो कुछ आपको होगा उसे होने देना है। बहुत कुछ
होगा, उसे होने देना है। अगर आंख अपने से बंद हो जाए तो हो
जाएगी, फिर भी जो कुछ होगा उसे होने देना है।
कोई लोग सिर्फ सुनने चले आए हों, तो वे कृपा करके बाहर
चले जाएं, यहां कोई भी आदमी बिना प्रयोग के नहीं बैठ सकेगा।
जिस आदमी ने भी यहां-वहां देखना हो वह अभी बाहर हो जाए। जिसको प्रयोग न करना हो वह
बाहर हो जाए। उसकी मौजूदगी बहुत नुकसानदायक सिद्ध होती है। उसके लिए तो होती है,
दूसरों के लिए होती है। यहां का सारा वातावरण खराब हो जाता है।
तो अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। प्रकाश जला दिया जाए। जिन मित्रों को बाहर
जाना है वे बिलकुल चुपचाप, उसमें कोई संकोच न करें कि कोई क्या कहेगा, आप चुपचाप बाहर चले जाएं। आज सुबह ध्यान में तीन सज्जन बीच में ही खड़े होकर
बात कर रहे थे। बड़ी तकलीफ की बात हो जाती है। मैं बीच में उनको कहूं, यह भी कष्टपूर्ण मालूम पड़ता है। आप चुपचाप बाहर चले जाएं। जो सुनने आए थे
वे चले जाएं।
आज इतना ही।
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