आनहद में विसराम-(प्रश्नोउत्तर)
ओशो
दिनांक 20, नवम्बर, सन्
1980
दसवां प्रवचन-(सत्य की उदघोषणा)
पहला प्रश्न: भगवान, श्री दत्ताबाल आपसे बहुत बुरी तरह जल-भुन गए हैं। लगता है कि उन्हें पहले
से ही आपसे व्यक्तिगत रूप से जलन थी। और अब उन्हें विवेकानंद का बहाना मिल गया है।
उन्होंने कहा है कि आचार्य रजनीश चरस, गांजा, भांग खिला-पिला कर लोगों को समाधि दिलाते हैं, जब कि
विवेकानंद सिर्फ छूकर ही समाधि दिला देते थे!
उन्होंने और भी निम्न बातें आपके संबंध में कही
हैं, कृपया प्रकाश डालें।
पहली कि आचार्य रजनीश स्वघोषित भगवान हैं।
दूसरी कि आचार्य रजनीश अज्ञानी हैं।
तीसरी कि आचार्य रजनीश का व्यक्तित्व अत्यंत
महत्वहीन है।
चौथी कि आचार्य रजनीश ने हिंदू देवताओं को कामी
और भोगी कह कर हिंदू धर्म का अपमान किया है।
पांचवीं कि आचार्य रजनीश की तुलना विवेकानंद से
कभी भी नहीं हो सकती है।
छठवीं कि स्वामी विवेकानंद ने अकालग्रस्त लोगों
की सहायता के लिए अपना आश्रम बेचने की तैयारी दिखाई थी। क्या आचार्य रजनीश ऐसा कर
सकते हैं?
और सातवीं कि श्री रामकृष्ण परमहंस ने कहा था कि
अगले जन्म में मैं एक हरिजन की कुटिया की सफाई करूंगा। क्या आचार्य रजनीश भी ऐसा
कर सकते हैं?
वंदना!
श्री दत्ताबाल ने जो भी कहा है, सोचने योग्य है।
पहली तो बात, मंगला भारती ने कुछ सूचनाएं श्री दत्ताबाल के संबंध
में भेजी हैं, उन्हें खयाल में लेना।
पहली कि एक साल पहले कोल्हापुर के महालक्ष्मी के मंदिर में श्री
दत्ताबाल और उनके साथियों ने नशे में चूर होकर जब प्रवेश किया, तब मंदिर के पुजारी ने उन्हें मूर्ति के करीब जाने से मना किया। लेकिन
उन्होंने उस पुजारी की मार-पीट की और झगड़ा भी किया। बात यहां तक बढ़ गई कि पुलिस आई
और इन लोगों को पुलिस हिरासत में बंद किया गया।
मंगला ने यह भी लिखा है कि श्री दत्ताबाल मद्यपान ही नहीं करते, मांसाहारी भी हैं। और हिंदू धर्म के अभिमान से इतने भरे हुए हैं कि उनकी
इच्छा थी कि स्वयं को विवेकानंद का उत्तराधिकारी सिद्ध करते और हिंदू धर्म की
विजय-पताका पृथ्वी पर फहराते। इस हेतु उन्होंने दत्ताबाल मिशन नामक संस्था स्थापित
की, लेकिन वहां कोई आता-जाता नहीं! बड़ी ही दयनीय अवस्था हो
गई है अब उनकी! पूरे असफल हो गए हैं। अब फिर से अपना नाम प्रकाश में लाने के लिए
आपके विवेकानंद के प्रवचन का जैसे उन्हें सहारा मिल गया है। दस-बारह साल से वे
आपके प्रतिर् ईष्या से जल रहे हैं। और अब तो वे पूना वालों को भी भड़का रहे हैं।
पहलवान होने के कारण वे बुद्धि का जरा भी उपयोग न करते हुए आपके विरोध में बिलकुल
ही बचकानी और मूढ़ता भरी बातें करते हैं। आपकी किसी बात का जवाब सप्रमाण देना उनके
लिए असंभव सिद्ध हुआ है। इसलिए अब अपनी असलियत पर उतर आए हैं!
मंगला भारती ने यह भी लिखा है कि भगवान, उन्हीं के बारे में
एक घटना याद आ रही है: दस या बारह साल पहले दत्ताबाल के प्रवचन पूना में हुए थे।
सोफा पर बैठ कर वे प्रवचन दे रहे थे। पर शराब के नशे में इस तरह डूबे थे कि उन्हें
खुद का भी कोई होश नहीं था। दृश्य बड़ा ही देखने जैसा था! अपनी जगह से वे एक बार
बाईं तरफ और एक बार दाईं तरफ इस तरह बार-बार हिल रहे थे, और
चंचलता के कारण हिलना भी इतना जल्दी हो रहा था, कि उनके
पाजामे की दो नाड़ियां, जो कि नीचे की तरफ लटक रही थीं,
वे भी हिल रही थीं! हमें तो बड़ी हंसी आई थी, तब
भी और अब भी। क्योंकि जिन्हें खुद का होश नहीं रहता, वे आप
जैसे बुद्धपुरुष को होश की बातें समझा रहे हैं! अब तो हद हो गई मूढ़ता की भी!
मनुष्य अक्सर दूसरों में वही देख लेता है, जो भीतर छुपाए होता है। मैंने किसे गांजा, चरस और
भांग पीने को कहा है? जरूर डुबाता हूं किसी नशे में, मगर वह नशा इस दुनिया का नशा तो नहीं! मस्ती भी चाहता हूं कि छाए लोगों
में, गीत भी उगें, आनंद भी हो, उत्सव भी। मगर वह सब तो आकाश से उतरने वाली मधुवर्षा है। उसके लिए लोगों
को तैयार करता हूं। निश्चित ही, यह मधुशाला है। लेकिन
मधुशाला उसी अर्थों में, जिस अर्थ में बुद्ध का संघ मधुशाला
थी, कृष्ण का सत्संग मधुशाला थी। यहां रिंद ही इकट्ठे हैं!
मगर यह शराब बेहोश नहीं करती, होश में लाती है।
आए हैं समझाने लोग।
हैं कितने दीवाने लोग।
दैरो-हरम में चैन जो मिलता,
क्यों जाते मैखाने लोग।
जान के सब कुछ भी न जाने,
हैं कितने अनजाने लोग।
वक्त पे काम नहीं आते हैं,
ये जाने-पहचाने लोग।
अब जब मुझको होश नहीं है,
आए हैं समझाने लोग।
एक ऐसी भी बेहोशी है, जो बेहोशी भी नहीं। एक ऐसी भी
मस्ती है, जो अंगूर की शराब से नहीं मिलती, आत्मा की शराब से मिलती है।
दत्ताबाल को जो भीतर दबा पड़ा है, वह मेरे दर्पण में
दिखाई पड़ गया होगा।
और तूने पूछा है वंदना, "कि प्रतीत होता
है, वे आपसे व्यक्तिगत रूप से जले-भुने थे।'
स्वभावतः, जिनको किसी भी धर्म की मतांधता है, और जिन्हें यह भ्रांति है कि वे हिंदू धर्म की पताका सारे जगत में फहराना
चाहते हैं, उन्हें मुझसे अड़चन तो हो ही जाएगी।
और फिर इतने दीवानों की यहां जमात, दुनिया के कोने-कोने
से आने वाले खोजियों का यह जमघट, यह मेला--न मालूम कितने
लोगों की छातियों पर सांप लोट गए हैं! विवेकानंद से क्या लेना-देना है उन्हें।
चार साल, पांच साल पहले मुझसे मिलने के लिए व्यक्तिगत रूप से
आना चाहते थे। एकांत में मुझसे मिलना था। मैंने खबर भेजी कि मैं तो एकांत में किसी
से मिलता नहीं। जैसे सबसे मिलता हूं, वैसे आपसे मिल सकता
हूं। जरूर आ जाएं। मगर विशिष्टता चाहिए, एकांत! उससे उन्हें
बड़ी चोट लगी। बहुत भुनभुना गए। तब से उनको अड़चन है।
कौन रोता है किसी और की खातिर ऐ दोस्त!
सबको अपनी ही किसी बात पे रोना आया।
किसको पड़ी है विवेकानंद से?
कौन रोता है किसी और की खातिर ऐ दोस्त!
सबको अपनी ही किसी बात पे रोना आया।
मगर आदमी रोता भी है, तो उसके लिए भी आवरण खोजता है,
मुखौटे खोजता है, बहाने खोजता है।
क्या मिलिए ऐसे लोगों से जिनकी फितरत छिपी रहे।
नकली चेहरा सामने आए असली सूरत छिपी रहे।
खुद से भी जो खुद को छिपाए क्या उनसे पहचान करें,
क्या उनके दामन से लिपटें क्या उनका अरमान करें,
जिनकी आधी नीयत
उभरे आधी नीयत
छिपी रहे।
मुखौटों से भरे हुए लोग! लेकिन धर्म के नाम से यही चलता रहा है, चल रहा है।
और मेरे साथ एक धर्म के पताका फहराने वालों को ही नहीं, सभी धर्मों की पताका फहराने वालों को अड़चन होगी। क्योंकि मेरा किसी धर्म
से कोई लगाव नहीं, धार्मिकता से प्रेम है। और मेरे हिसाब में
तो जो धार्मिक है, वह हिंदू नहीं हो सकता, मुसलमान नहीं हो सकता, ईसाई नहीं हो सकता। धार्मिक
होना पर्याप्त है। इस पर कोई विशेषण न लगाए जा सकते हैं, न
आवश्यक हैं। विशेषण लगाने से तो बात खराब हो जाएगी, बात बिगड़
जाएगी। विशेषण तो सीमा दे देते हैं। विशेषण परिधि बना देते हैं। वह जो मुक्त आकाश
की तरह है, उसे एक छोटा सा आंगन कर देते हैं।
यहां मेरे पास सारे धर्मों के लोग इकट्ठे हैं। संभवतः मनुष्य-जाति के
इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ। पहली बार एक अभूतपूर्व घटना घट रही है। सारे धर्मों
के लोग इकट्ठे हैं। लेकिन उन्होंने अपने विशेषणों को ऐसे हटा कर रख दिया है, जैसे कोई कूड़े-करकट को घर से सुबह साफ करके फेंक देता है। अब तो उनका एक
ही धर्म है, ध्यान! अब तो उनका एक ही धर्म है, प्रेम! ध्यान अपने लिए, प्रेम सबके लिए।
ध्यान--अंतर्यात्रा; प्रेम--बहिर्यात्रा।
बस, धर्म के ये दो पहलू, ये दो चाक,
और धर्म की गाड़ी चल पड़ती है, अनंत यात्रा पर
चल पड़ती है। ये दो पंख--प्रेम और ध्यान के--फिर अनंत दूरी भी तय की जा सकती है।
जितनी बातें तूने लिखी हैं, उनमें से एक-एक बात
का विचार कर लेना उपयोगी है।
पहली तो बात, विवेकानंद स्वयं समाधि के अनुभव के बिना मरे। उनकी
खुद की डायरी सबूत है। मरने के तीन दिन पहले भी उन्होंने अपनी डायरी में लिखा है
कि मैं अभी तक वह पा नहीं सका जो पाना था, अभी तक वह प्रकाश
घटित नहीं हुआ है। रामकृष्ण की बातों को वे दोहराते रहे; और
ढंग से दोहराते रहे। पंडित थे। प्रगाढ़ पंडित थे। मेधावी थे। प्रतिभाशाली थे। लेकिन
मेधा और प्रतिभा समाधि नहीं है। न पांडित्य प्रज्ञा है।
लेकिन हिंदू धर्म की अकड़ थी। उसी अकड़ के कारण भारत में विवेकानंद को
सम्मान मिला। सम्मान मिलने का और कोई कारण न था। इतना ही कारण था कि हिंदू धर्म का
जो आहत अहंकार था, उसको विवेकानंद ने आक्रामक रूप दिया।
अब उनका यह कहना कि जो व्यक्ति हिंदू धर्म के विपरीत कुछ कहेगा उसे
समुद्र में उठा कर फेंक दूंगा, कोई धार्मिक व्यक्ति की बात
नहीं। यह तो अधार्मिक चित्त की बात है। अगर हिंदू धर्म के समर्थन में कुछ कहने की
स्वतंत्रता है, तो हिंदू धर्म के विरोध में भी कहने की
स्वतंत्रता होनी चाहिए। अन्यथा सत्य की शोध कैसे होगी?
हिंदुओं में सिर्फ दो ही मुसलमान हुए, एक दयानंद और एक
विवेकानंद! इन दोनों की बुद्धि मुसलमान की थी। इन दोनों में न सहिष्णुता है,
न उदारता है। दत्ताबाल ने स्वयं उल्लेख किया है। और इसलिए वे मेरी
तुलना विवेकानंद से नहीं कर सकते। मैं भी नहीं करना चाहता। वे करने को राजी भी हों,
तो मैं इनकार करूंगा।
दत्ताबाल ने लिखा है कि कहां विवेकानंद, जिन्होंने कहा कि जो
हिंदू धर्म का विरोध करेगा उसको समुद्र में उठा कर फेंक दूंगा! और कहां आचार्य
रजनीश, नर्म गद्दों पर सोने वाले!
मैं दोनों में कुछ संबंध नहीं देख पाया! और नर्म गद्दे पर सोने में
ऐसा कौन सा अधर्म है? हां, किसी को समुद्र में फेंकना
जरूर अधर्म की बात है। और स्वयं भगवान विष्णु क्षीर-सागर में विश्राम कर रहे हैं!
और नरम गद्दा कहां से खोजोगे?
अब मेरे पास बहुत लोग थे; योग्य लोग थे;
लेकिन मैंने कहा कि लक्ष्मी, तू ही सम्हाल ले
सचिव का पद! उसने कहा, क्यों? मैंने
कहा कि तू लक्ष्मी है। मुझे तो क्षीर-सागर में विश्राम करना है। ऐसे तो मेरे पास
बहुत योग्य लोग थे। लक्ष्मी को बेचारी को कुछ पता ही क्या था इस दुनिया के
काम-धंधे का! लेकिन मैंने कहा, यही ठीक रहेगा। इससे पुरानी
कथा भी फिर जी उठेगी!
यह तो पुराना ढंग है। क्षीर-सागर में विश्राम करने में तो कोई अड़चन
नहीं। लेकिन किसी को क्षीर-सागर में उठा कर फेंक देने की बात तो सुनी नहीं!
नहीं; तुलना मेरी उनके साथ हो ही नहीं सकती।
दत्ताबाल ने उल्लेख किया है--और इस तरह की बहुत कहानियों का हिंदुओं
के मन पर खूब असर पड़ा--कि विवेकानंद प्रथम श्रेणी में यात्रा कर रहे हैं। दो
अंग्रेज उनके दोनों तरफ बैठे हैं। एक अंग्रेज कहता है कि मेरे बगल में एक सूअर का
बच्चा बैठा हुआ है! दूसरा अंग्रेज कहता है कि मेरे बगल में भी एक गधा बैठा हुआ है!
और विवेकानंद कहते हैं कि मैं दोनों के बीच में बैठा हुआ हूं।
हिंदुओं को यह बात बहुत जंची। मगर मैं पूछता हूं कि गधे के बीच और
सूअर के बच्चे के बीच विवेकानंद बैठ कर क्या उपनिषद साध रहे थे? अरे, उठ कर खड़े हो जाना था। ऐसे सत्संग में बैठना
चाहिए क्या? मगर हिंदू अहंकार को सुख मिला।
और सवाल यह उठता है...। मैं अगर प्रथम श्रेणी में चलूं तो चल सकता हूं, मुझे चलना ही चाहिए। क्योंकि मैं वही कहता हूं जो करता हूं, और वही करता हूं जो कहता हूं। मैं ऐश्वर्य-विरोधी नहीं हूं। और विवेकानंद
तो अपना आश्रम बेचने को तैयार थे अकालग्रस्त, दीन-दरिद्रों की
सेवा में। प्रथम श्रेणी में यात्रा करके क्या कर रहे थे? इनको
तो तृतीय श्रेणी में चलना चाहिए! यह तो पाखंड हो गया। मैं तो प्रथम श्रेणी में चल
सकता हूं, कोई इसको पाखंड नहीं कह सकता। मैं तो तृतीय श्रेणी
में चलूं, तो पाखंड हो जाएगा! क्योंकि मेरे सिद्धांत के विपरीत;
कहता कुछ, करता कुछ! मैं तो वही करता हूं जो
कहता हूं। विवेकानंद प्रथम श्रेणी में क्या कर रहे थे?
और अगर ये दोनों आदमी मूढ़ थे, तो विवेकानंद ने कुछ
ज्यादा बुद्धिमत्ता जाहिर नहीं की। उन मूढ़ों के साथ खुद भी मूढ़ता ही प्रकट की! और
जब देख लिया कि एक तरफ गधा बैठा है, एक तरफ सूअर का बच्चा
बैठा है, तो उठ कर खड़े हो जाना था, कि
भई ऐसे सत्संग में मैं कहां तक बैठूं!
मगर नहीं, हिंदू अहंकार को इस तरह की कहानियों से खूब रस मिला।
दत्ताबाल कहते हैं कि विवेकानंद ने पहल की थी कि मैं अकालग्रस्त लोगों
के लिए अपने आश्रम को बेचने को तैयार हूं।
पूछता मैं यह हूं कि बेचा? पहल की थी; कहा था। सवाल है, बेचा? क्या
कहने से अकाल मिट गया था? और फिर सवाल यह है कि विवेकानंद का
रहा होगा आश्रम। अपनी चीज हो तो बेच सकते हो। मुझसे पूछ रहे हैं कि क्या मैं भी
यही कर सकता हूं? मेरा तो कोई आश्रम है नहीं! मैं तो यहां
मेहमान हूं। न तो इस आश्रम में मैं ट्रस्टी हूं। न इस आश्रम के किसी पद पर हूं।
मुझे छोड़ कर इस आश्रम में सभी का कुछ न कुछ हक है! मेरा कोई भी हक नहीं है। मेरी
कोई कानूनी हैसियत नहीं है।
मुझे अगर इस आश्रम के ट्रस्टी--फलीभाई, लक्ष्मी, लहरू--कहें कि अब आप जाइए! तो मैं संत से कहूंगा कि संत चलो! संत को तो
मुझे ले जाना पड़ेगा, क्योंकि दो तंदूर की रोटी बना देगा,
छोले की सब्जी, लस्सी का गिलास; बस काफी है!
मुझसे तो जिस दिन कह दें, उसी दिन मुझे बाहर हो
जाना पड़े, क्योंकि मेरा यहां कोई अधिकार ही नहीं! मैं इस
आश्रम को बेचने की बात तो कैसे करूं? अपना हो, तो कोई बेच सकता है; मेरा तो यहां कुछ भी नहीं है।
और इसलिए तो मजा है। अपना कुछ इसमें है नहीं, इसलिए चिंता
कुछ है नहीं! रहे तो ठीक; जाए तो ठीक।
मैं पूरे आश्रम में भी कभी घूमा नहीं हूं। जो घंटे भर के लिए भी आश्रम
में आता है, वह भी पूरा आश्रम देख लेता है। मुझे तो सात साल हो गए,
मैंने पूरा आश्रम देखा नहीं! पूरे आश्रम की बात छोड़ो, मैंने लाओत्सु, जहां मैं रहता हूं, उस भवन के भी सारे कमरों में नहीं गया हूं! सिर्फ अपने कमरे को छोड़ कर
कहीं नहीं गया हूं।
यूं लोगों को देख कर लगता होगा कि राल्स में चलता हूं! औरों की तो बात
छोड़ो, अभी एक मित्र कृष्णमूर्ति को मिल कर आए, तो कृष्णमूर्ति तक को यह बात कहनी पड़ी। कृष्णमूर्ति से मुझे आशा नहीं थी!
दत्ताबाल वगैरह की मैं कोई गिनती नहीं करता। मगर कृष्णमूर्ति ने भी यह कहा कि आप
भी जाते हैं उस खतरनाक आदमी के पास जिसने कि भारत में सबसे ज्यादा मंहगी कार रख
छोड़ी है?
वह कार मेरी है नहीं भइया! कार में बैठ गए, तो तुम्हारी हो गई क्या? अब आज छोटा सिद्धार्थ मेरे
साथ बैठ कर आ गया, तो कोई सिद्धार्थ की हो गई? कार शीला की है। मैं तो सिर्फ मेहमान हूं। और यह तो सिर्फ भारत में सबसे
कीमती कार है। अभी शीला गई है अमरीका कि दुनिया में सबसे ज्यादा कीमती कार ले आए!
अब मैं क्या करूं! मेरी कार हो, तो बेच दूं। मगर मेरी
कार है नहीं; न मेरा मकान है, न मेरा
आश्रम है। विवेकानंद का रहा होगा। तो उन्होंने पहल की कि बेच दूं। हालांकि
बेचा-किया नहीं! यही तो मजा है। इस देश में लोग बातों के धनी हैं!
मेरा कुछ भी नहीं है, बेचने का सवाल ही नहीं उठता। न
बेचने का सवाल उठता है, न खरीदने का। क्योंकि खरीदने के लिए
भी मेरे पास कुछ नहीं है। और इसलिए मुझसे ज्यादा मस्त आदमी इस दुनिया में दूसरा
नहीं। कोई आए, कोई जाए, सब बराबर है। न
मेरा कुछ जाता, न मेरा कुछ आता!
लेकिन ये प्रश्न सोच लेने जैसे हैं।
पहला। यह प्रश्न बहुतों के मन में उठता है और विचारणीय है।
वंदना! श्री दत्ताबाल ने कहा, "आचार्य रजनीश
स्वघोषित भगवान हैं!'
यह आलोचना बहुत तरफ से उठती है। सवाल यह है कि कभी कोई और तरह का
भगवान भी दुनिया में हुआ है? क्या तुम सोचते हो, कृष्ण को किसी म्युनिसिपल कमेटी ने भगवान घोषित किया था? कि बुद्ध को किसी पंचायत ने सर्टिफिकेट दिया था? क्या
जीसस को यहूदी धर्मगुरुओं ने प्रमाणित किया था? क्या महावीर
को जनता ने वोट देकर भगवान चुना था? ये सब स्वघोषित थे। मेरा
कसूर क्या है? इसके सिवाय कोई उपाय ही नहीं है। स्वघोषणा के
सिवाय और कोई उपाय नहीं है। भगवान होने की घोषणा तो स्वानुभव है।
लेकिन यह आलोचना बार-बार उठती है। और जो लोग यह आलोचना करते हैं, वे कभी भी यह विचार नहीं करते कि जीसस, मोहम्मद,
जरथुस्त्र, कृष्ण, राम,
बुद्ध, महावीर--कौन स्वघोषित नहीं था? कौन था जिसके पास सर्टिफिकेट हो? और इन सबको भगवान
मानने वाले मुझ पर आलोचना उठाते हैं कि मैं स्वघोषित भगवान हूं!
यह अनुभव ही ऐसा है कि सिवाय स्वघोषणा के और क्या होगा? क्या अज्ञानियों से वोट लेकर तय करना पड़ेगा? तब तो
फिर जैसे कि राष्ट्रपति खड़े होते हैं, वैसे खड़े हो गए
दस-पंद्रह भगवान! चुनाव हो गया। जो जीत गया, वह जीत गया। जो
हार गया, वह हार गया! तो कभी कार्टर हो गए भगवान! कभी रीगन
हो गए भगवान! जो जीत जाए! साल, दो साल रहे; फिर हार गए तो फिर खतम!
यह तो अनुभव की बात है। मैं घोषणा करता हूं कि मैं भगवान हूं, क्योंकि इसके अतिरिक्त और कोई उपाय ही नहीं है। बुद्ध को जब परम समाधि
मिली, तो उन्होंने जो पहली घोषणा की, वह
यही थी कि मैंने परम सत्य को पा लिया है। मैंने परम संबोधि पा ली है। मैं उस
अवस्था को पा गया, जिसको सम्यक संबुद्धत्व कहा जाता है।
मैंने अपने सारे शत्रुओं का विनाश कर दिया--भीतर के शत्रुओं का। मैं अरिहंत हुआ।
जीसस ने घोषणा की कि मैं और परमात्मा जिसने जगत बनाया, एक
हैं। यही तो कसूर था; इसीलिए तो सूली लगी। क्योंकि लोग यही पूछ
रहे थे उनसे भी कि आप ही घोषणा कर रहे हैं!
मगर अगर मेरे सिर में दर्द हो, तो कौन घोषणा करेगा
कि मेरे सिर में दर्द है? मैं ही कहूंगा कि मेरे सिर में
दर्द है। और मेरा दर्द ठीक हो जाए, तो भी मुझे ही कहना होगा
कि मेरा दर्द ठीक हो गया! कौन घोषणा कर सकता है इस बात की? अगर
मेरे भीतर अंधेरा है, तो मैं जानता हूं; और अगर रोशनी है, तो मैं जानता हूं। और जो खुद अंधे
हैं, वे क्या देखेंगे कि मेरी आंखें खुल गई हैं!
भगवत्ता का अनुभव तो स्वघोषित ही हो सकता है। उपनिषद में जिस ऋषि ने
कहा, अहं ब्रह्मास्मि! उसने किसके आधार पर कहा कि मैं
ब्रह्म हूं? और अलहिल्लाज मंसूर ने घोषणा की, अनलहक! मैं परमात्मा हूं! वह किसके आधार पर? स्वानुभव
के आधार पर! और कोई आधार न कभी था, न कभी होगा। यह कोई चुनाव
की बात तो नहीं! यह किसी समिति के द्वारा निर्णीत तो नहीं होना है!
इसलिए मैं स्वीकार करता हूं कि मैं स्वघोषित भगवान हूं, क्योंकि जो भी भगवत्ता को उपलब्ध हुए हैं, सभी
स्वघोषित हैं। इनकार करना हो, सब को कर दो। लेकिन यह बेईमानी
मत करो कि मुझ पर एक अलग नियम लगाओ और बाकी सब पर एक अलग नियम लगाओ।
दूसरा उन्होंने कहा, "आचार्य रजनीश अज्ञानी हैं।'
यह बात सच है! इसे मैं स्वीकार करता हूं। मैं अज्ञानी हूं; क्योंकि मैं तो उपनिषद के इस सूत्र को मानता हूं कि ज्ञानी महा अंधकार में
भटक जाते हैं।
सुकरात ने तो कम से कम इतना कहा कि मैं इतना ही जानता हूं कि मैं कुछ
भी नहीं जानता। मगर इतना तो कहा कि मैं इतना ही जानता हूं। मैं मानता हूं कि इतनी
ही कमी रह गई। मैं तुमसे कहता हूं, मैं इतना भी नहीं
जानता कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। परम अज्ञानी हूं; महा
अज्ञानी हूं। छोटा-मोटा काम ही मैं नहीं करता! जब काम ही करना हो, तो बड़ा। अज्ञान भी क्या! महा अज्ञान। मुझे कुछ भी नहीं मालूम। कबीरदास ने
तो कहा कि मसि कागद छुओ नहीं। उन्होंने तो छुआ भी नहीं था। मैंने छुआ जरूर,
लेकिन फिर भी तुमसे कहता हूं कि मसि कागद छुओ नहीं! अरे नहीं छुआ,
यह कोई बड़ी बात हुई? छूकर और नहीं छुआ,
यह कुछ बात हुई! चले पानी में और भीगे भी नहीं, यह कुछ बात हुई! कबीरदास तो चले ही नहीं, किनारे पर
ही बैठे रहे। कहा भी है उन्होंने कि--
जिन खोजा
तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ।
मैं बौरी
खोजन गई, रही किनारे
बैठ।।
तुम किनारे बैठोगे महाराज, तो फिर कैसे खोजोगे?
मैंने डुबकी भी मारी, और गीला भी नहीं हुआ। तो
कहता हूं कि मसि कागद छुओ नहीं। बिलकुल अज्ञानी हूं।
मगर परमात्मा को जानने में अज्ञान बाधा ही कब रहा? बाधा खड़ी होती है ज्ञान से।
कबीर कहते हैं: लिखा-लिखी की है नहीं, देखा-देखी बात।
लिखा-लिखी की नहीं है। इसलिए ज्ञान क्या करेगा? देखा-देखी बात। देखने की बात है।
तो यह तो मैं स्वीकार करता हूं कि मैं अज्ञानी हूं। और अज्ञान में ही
मैंने जाना भगवत्ता को। अज्ञान का अर्थ है, मैंने सारे ज्ञान को
इनकार कर दिया। सारे ज्ञान को झाड़ कर अलग कर दिया। और जब सारे ज्ञान से छुटकारा हो
गया, तो जो शेष बच रहता है, वही
भगवत्ता है, वही दिव्यता है।
उन्होंने कहा कि "आचार्य रजनीश का व्यक्तित्व अत्यंत महत्वहीन
है।'
यह भी सच है। पहली तो बात, मेरा कोई व्यक्तित्व
ही नहीं। व्यक्तित्व तो झूठी चीज है। वह तो जिनके पास आत्मा नहीं है, उनको ओढ़ना पड़ता है व्यक्तित्व। जिनके पास आत्मा है, उनको
व्यक्तित्व की जरूरत क्या? और महत्वहीन, यह भी सच है। महत्ता की आकांक्षा ही दीन लोगों को होती है।
पश्चिम के बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक एडलर ने कहा है, महत्वाकांक्षी वे ही लोग होते हैं, जो हीन-ग्रंथि से
पीड़ित होते हैं। यह दुनिया में पताका फहराने की आकांक्षा, हीनता
की ग्रंथि है। झंडा ऊंचा रहे हमारा! ये बचकानी बुद्धि के लक्षण हैं। फिर झंडा किस
बात का है, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। बस, ऊंचा रहना चाहिए! क्योंकि भीतर का गङ्ढा दिखाई पड़ता है। झंडे को ऊंचा करके
भुलाने की चेष्टा चलती है।
ये दत्ताबाल के जो पैर छोटे हैं और ऊपर का हिस्सा बड़ा है...। अब यह
मंगला ने लिखा कि बैठे सोफा पर बोल रहे थे और पाजामे का नाड़ा लटका और डोल रहा था!
वह पाजामा था मंगला? पाजामे की उनको जरूरत है? अरे,
जरा लंबा जांघिया रहा होगा! पैर भी तो होना चाहिए पाजामे के लिए!
लेनिन का मनोविश्लेषण जिन लोगों ने किया है, उनकी भी बीमारी यही थी लेनिन की, कि पैर छोटे थे। वे
कुर्सी भी ऐसी बनवाते थे, जो बड़ी होती। उनके पैर जमीन से
नहीं लगते थे। और टेबल ऐसी बनवाते कि पैर छिपे रहते। अपने पैरों को बचा कर चलते
थे। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि लेनिन को बस एक ही धुन थी कि किसी तरह सिद्ध कर
दें कि महत्वपूर्ण व्यक्ति हूं मैं। क्योंकि वह जो पैरों की दीनता थी छोटे होने की,
वह बड़ा कष्ट दे रही थी।
अडोल्फ हिटलर का जिन लोगों ने मनोविश्लेषण किया है, उनका कहना है कि उसका एक अंडकोष छोटा था, एक बड़ा। उस
कारण ही वह परेशान था! वही उसकी जिंदगी भर की पीड़ा थी। उसे सिद्ध करना था दुनिया
में कि मैं कुछ हूं।
यह दत्ताबाल को भी कुछ हीन-ग्रंथि पकड़ी हुई है! उसी हीनता की ग्रंथि
से पीड़ित हैं।
बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति तो साधारण होता है, उसका कोई व्यक्तित्व होता ही नहीं। वह तो अति सामान्य हो जाता है, सहज हो जाता है, साधारण हो जाता है। भूख लगी,
भोजन कर लिया; नींद आई, सो
गए। सुबह हुई, उठे; सांझ हुई, सोए। उसका जीवन तो सहज, स्वस्फूर्त हो जाता है।
उसमें क्या असाधारणता? क्या विशिष्टता?
यह विशिष्टता का मोह और असाधारण होने की आकांक्षा अहंकार के ही
अलग-अलग नाम हैं, और कुछ भी नहीं।
और उन्होंने कहा कि "आचार्य रजनीश ने हिंदू देवी-देवताओं को कामी
और भोगी कह कर हिंदू धर्म का अपमान किया है।'
मैं क्या करूं? तुम्हारे पुराण अपमान कर रहे हैं। अपने पुराण उठा कर
देख लो। तुम्हारे सारे पुराण तुम्हारे देवी-देवताओं की कामवासना, लिप्सा, भोग, इससे भरे पड़े
हैं। तुम्हारे देवताओं का जो प्रमुख देवता है इंद्र, वह किसी
भी ऋषि-मुनि को तपश्चर्या करते देख कर घबड़ा जाता है; उसका
सिंहासन डोलने लगता है; इंद्रासन डोलने लगता है! घबड़ाहट पैदा
हो जाती है उसको कि अब आया कोई दावेदार! तत्क्षण भेजता है उर्वशी-मेनकाओं को,
कि जाओ भ्रष्ट करो इसे! और खुद भी भ्रष्ट करने में कुछ पीछे नहीं!
और कैसा मजा है! कैसे पुराण हैं! और किन बेईमानों ने लिखे हैं! कि
इंद्र ने अहिल्या को भ्रष्ट किया, और सजा बेचारी अहिल्या को भुगतनी
पड़ी! पत्थर होना पड़ा अहिल्या को, और कसूर था इंद्र का! कुछ
न्याय भी होता है! कुछ थोड़ी तो न्याय-बुद्धि हो!
शरद जोशी का एक व्यंग्य मैं कल पढ़ रहा था, वह मुझे पसंद आया। शरद जोशी ने लिखा है कि मैंने जब पहली बार यह श्लोक
सुना कि यत्र नारी पूज्यन्ते, तत्र रमन्ते देवता, तो मेरे मन में तभी से देवताओं के चरित्र पर शक होने लगा है। क्योंकि मैं
सोचता हूं, अगर किसी इलाके में नारी की पूजा हो रही है,
तो उधर देवता लोगों के चक्कर काटने का क्या मतलब? यह तो कोई शराफत की बात न हुई! कि पराई बहू-बेटियां जहां उनके बाप-भाई और
पतियों के खर्च पर आनंद कर रही हैं, जैसे बाग में झूला झूल
रही हैं, या शापिंग कर रही हैं, या
टी.वी. देख रही हैं। अपने रूप-सौंदर्य-स्वास्थ्य आदि गुणों के कारण घर और बाहर
उनका रौब छाया हुआ है...। पता नहीं, कितने लोग उनमें से
कितनी लड़कियों को पाने की साधना में गजलें गा रहे हैं! कविता छपाने की कोशिश में
हैं! अर्थात बड़ा पूजामय वातावरण है!
सुंदर लड़कियां पुरुषों के सपनों में आ-जा रही हैं। स्वस्थ पुरुष शरीफ
घरों की खिड़कियों के पास से लड़कियों के दर्शनों की अभिलाषा में गुजर रहे हैं।
अर्थात बिलकुल नारी पूज्यन्ते का वातावरण है।
संपादकगण अपने मुखपृष्ठों पर नारी की अधखुली तस्वीर छाप कर अभिभूत
हैं! लेकिन भारतीय छपाई है! खराब होने के कारण महात्मागण बहुत दुखी हैं! क्योंकि
तस्वीरें साफ-साफ समझ में नहीं आतीं। सो महात्मागण शिकायत कर रहे हैं कि नारी का
अनादर हो रहा है!
पति अपनी पत्नियों की आरतियां उतार रहे हैं। उतारनी ही पड़ती है! हर
पति को उतारनी पड़ती है!
ऐसे दिव्य माहौल में देवता क्या लेने को रमन्ते हैं? बंबइया भाषा का उपयोग किया है: कायकू रमन्ते? किसके
वास्ते रमन्ते? बिना रमन्ते काम नहीं चलता क्या? घर में मां-बहनें नहीं हैं जो इधर-उधर रमन्ते? जब
देखो तभी रमन्ते! रमन्ते ही रमन्ते! और कुछ नहीं करन्ते! इंसान शांति से अपनी
पत्नी की पूजा भी नहीं कर सकता? यों ही रमन्ते! हर कहीं
रमन्ते! ये देवता हैं कि कालेज के लफंगे छोकरे हैं? इससे तो
बेहतर हो कि सूत्र को बदल लो। यत्र नारी बलात्कारस्ते, रमन्ते
तत्र देवता! जहां नारी पर बलात्कार हो रहा हो, वहां रमो
भैया!
जहां नारी की पूजा हो रही है, जैसे हेमा मालिनी की
पूजा हो रही है, वहीं-वहीं देवता रमन्ते! कायकू रमन्ते?
इन्हें और कोई काम नहीं? कोई घर-गृहस्थी नहीं?
बंबई-बंबई में ही रमन्ते! तभी तो, कायकू
रमन्ते? रमन्ते ही रमन्ते!
मैं क्या करूं? तुम्हारे पुराणों में सारी कथा यह है। मेरा कोई कसूर
नहीं। मैंने तुम्हारे पुराण नहीं लिखे। ऐसी भूल मैं कभी करूंगा भी नहीं। ऐसा कचरा
मैं कभी लिखूंगा भी नहीं। अगर तुम्हें अपने पुराणों के कारण हिंदू धर्म का अपमान
होता दिखाई पड़ता है, पुराणों को होली में चढ़ा दो।
श्री दत्ताबाल ने कहा कि "श्री रामकृष्ण परमहंस ने कहा था कि
अगले जन्म में मैं एक हरिजन की कुटिया की सफाई करूंगा। क्या आचार्य रजनीश भी ऐसा
कह सकते हैं?'
मुझे पता नहीं कि श्री रामकृष्ण ने ऐसा कहा था या नहीं। लेकिन
दत्ताबाल कहते हैं, तो माने लेता हूं कि कहा होगा, जरूर
कहा होगा!
अब सवाल यह है, क्या इस जन्म में रामकृष्ण को कोई हरिजन नहीं मिल रहा
था, जो अगले जन्म में...! हरिजनों की कोई कमी है? कोई हरिजनों की कुटियाओं की कमी है? इस जन्म में तो
काली मैया की पूजा कर रहे हैं! पत्थर की मूर्ति पूज रहे हैं! आरती उतार रहे हैं;
घंटी बजा रहे हैं! जिंदगी भर वही करते रहे। और हरिजन की कुटिया की
सफाई अगले जन्म में करेंगे! क्या चालबाजियां हैं! कौन रोकता है अभी करने से?
और एक ही कुटिया की सफाई करना है, सो कर ही दो
न! अगले जन्म के लिए क्या टाल रहे हो?
छह-छह घंटे, आठ-आठ घंटे काली मैया की पूजा हो रही है! उन्हीं काली
मैया की, जिनके लिए बकरे काटे जा रहे हैं! खून बहाया जा रहा
है! कलकत्ते की काली के सामने जितना खून बहा है, दुनिया के
किसी मंदिर में कभी नहीं बहा। जितनी प्राणियों की हिंसा कलकत्ते की काली के लिए
हुई है, उतनी दुनिया के किसी देवता के सामने नहीं हुई। मगर
वही कटे हुए बकरों का मांस और खून प्रसाद रूप में वितरित होता है! प्रसाद की तो
बड़ी महिमा है!
ये डोंगरे जी महाराज क्या खाक प्रसाद बंटवाते हैं! लस्सी-बूंदी! अरे
यह कोई प्रसाद है? असली प्रसाद बंटता है कलकत्ते की काली के मंदिर में!
यह रामकृष्ण परमहंस को कोई शूद्र नहीं मिल रहा था? दूर तो नहीं था शूद्र। क्योंकि जिनके मंदिर में वे पुजारी का काम करते थे,
रानी रासमणि, रानी रासमणि खुद ही शूद्र थी!
उसका ही बनवाया हुआ मंदिर था। रामकृष्ण परमहंस चौदह रुपए महीने की नौकरी पर वहीं
तो पुजारी का काम करते थे। शूद्रों की कोई कमी थी!
सच तो यह है कि विवेकानंद खुद ही शूद्र हैं। कायस्थों की गिनती और
कहां करोगे? कायस्थों की गिनती व्यवस्था से शूद्रों में ही होगी।
असल में कायस्थ शब्द ही शूद्र का पर्यायवाची है--काया में स्थित! आत्मस्थ हो तो
ब्राह्मण और कायस्थ हो तो शूद्र। और क्या चाहिए! सीधा-साफ हिसाब है।
रामकृष्ण परमहंस अगले जन्म में सफाई करेंगे! बड़ी गजब की बात कही!
जिंदगी भर ये पत्थर की मूर्ति पूजते रहे! तो यहीं कर लेनी थी! एकाध कुटिया साफ कर
लेते। इसके लिए अगले जन्म का क्यों उपद्रव लेना!
और वे मुझसे पूछते हैं, "क्या आचार्य
रजनीश ऐसा कर सकते हैं?'
पहली तो बात, मैं अपनी कुटिया की सफाई नहीं करता! किसी ब्राह्मण की
कुटिया की सफाई नहीं की तो हरिजन की कुटिया की सफाई क्या खाक करूंगा? अरे, अपनी-अपनी कुटिया की सफाई करो!
मैं जब विश्वविद्यालय में विद्यार्थी था, तो अपना बिस्तर दरवाजे के पास लगाए रखता था कि सीधा अपने बिस्तर में कूद
जाता था, जिसमें कमरे की सफाई न करनी पड़े! कौन झंझट करे! अरे
रोज सफाई करो, फिर कचरा इकट्ठा। फिर सफाई करो, फिर कचरा इकट्ठा। इधर भीतर की सफाई से फुर्सत नहीं है; बाहर की सफाई में कौन पड़े! और क्या फायदा? क्या मिल
जाने वाला है? कचरा थोड़ा कम हुआ कि ज्यादा, कमरा ही है! और कोई अपना है? अरे, आज यहां कल वहां! होस्टल ही तो ठहरा; सरायघर है। तो
मैं तो दरवाजे पर, बिलकुल दरवाजे पर अपने बिस्तर को लगा कर
रखता था, कि सीधा दरवाजे से कूद जाना बिस्तर में, और बिस्तर से कूद जाना बाहर। न देखना भीतर, न झंझट
में पड़ना।
मगर मेरे प्रोफेसरों को दया आती। मेरे आस-पास के विद्यार्थियों को दया
आती। मेरे साथ दो लड़कियां पढ़ती थीं, उनको दया आती। वे
मुझसे कहतीं कि हमें आज्ञा दो कि आपका आकर एक दिन कमरा साफ कर दिया करें--सप्ताह
में कम से कम एक दिन!
मैंने कहा, क्यों नाहक परेशान करना! तुम साफ करोगी, वह फिर धूल जम जाएगी। और मैं वहां जाता ही नहीं, उस
स्थान में, जहां धूल जमी है! फायदा क्या है साफ करने का?
मगर फिर भी कोई न कोई आकर साफ करता। तुम्हारी मर्जी! तुम्हें सेवा
करके अगर मोक्ष पाना है, पाओ! हम तो अपने बिस्तर पर मोक्ष
में हैं!
और अगले जन्म की तो बड़ी मुश्किल है। अगला जन्म मेरा होना नहीं!
रामकृष्ण का होना होगा, तो वे करें अगले जन्म में! मेरा तो यह आखिरी जन्म है,
दत्ताबाल! अब आगे कोई मेरा जन्म नहीं है। तुम जानो, तुम्हारे रामकृष्ण जानें! उनका होगा आगे जन्म।
यह तो दत्ताबाल, अगर यह बात रामकृष्ण ने कही हो,
तो यह सिद्ध कर रहे हैं कि रामकृष्ण अभी मुक्त नहीं हुए। क्योंकि
मुक्ति के बाद कहां जन्म है! मुक्ति के बाद कैसा जन्म है! यह तो इसका अर्थ इतना
हुआ कि अभी भी बंधे हैं। और यह भी एक वासना ही रही कि एक हरिजन की कुटिया साफ करनी
है। अरे, इतनी छोटी सी वासना! कर-करा लेते साफ; झंझट मिट जाती; अगले जन्म का उपद्रव खतम हो जाता। अब
होंगे कहीं पैदा; कर रहे होंगे कोई हरिजन की कुटिया साफ!
यह भी क्या पतन हुआ! इसी को कहते हैं योगभ्रष्ट होना! कहां से कहां
पहुंचे! काली मैया की पूजा करते-करते अब हरिजन की कुटिया साफ कर रहे हैं!
मेरा तो कोई अगला जन्म नहीं है। मेरा तो काम पूरा हो चुका है। अब मुझे
लौटना नहीं है। इसलिए कैसे वायदा करूं, दत्ताबाल, कि अगले जन्म में आकर हरिजन की कुटिया साफ करूंगा!
और दूसरी बात यह है कि मैं तो ब्राह्मण और शूद्र का भेद मानता नहीं।
जो मानते हों भेद, वे इन चिंताओं में पड़ें। मेरे लिए तो हरिजन शब्द का
उपयोग करना शूद्र के लिए गलत है। हरिजन तो वह जो हरि को जाने।
क्या पागलपन है! बिना ब्रह्म को जाने ब्राह्मण बने बैठे हैं लोग, और बिना हरि को जाने हरिजन बने बैठे हैं लोग! ब्रह्म को जाने सो ब्राह्मण;
हरि को जाने सो हरिजन। एक ही मतलब हुआ दोनों बातों का, चाहे हरि कहो, चाहे ब्रह्म कहो। मेरे लिए तो ये सारे
लोग ही, जब तक ब्रह्म को नहीं जान लिए हैं, तब तक हरिजन नहीं हैं, ब्राह्मण नहीं हैं, शूद्र ही हैं। और इन्हीं की कुटियाएं तो साफ करने में लगा हूं। लेकिन
कुटियाएं मेरे लिए भीतर हैं, बाहर नहीं। बाहर की कुटिया मैं
क्या साफ करूं! असली सफाई में लगा हूं।
भीतर तुम्हारी आत्मा का स्नान हो जाए--उसको ही मैं ध्यान कहता हूं।
भीतर तुम स्वच्छ हो जाओ--उसी को मैं स्वास्थ्य कहता हूं। भीतर तुम आनंदमग्न हो जाओ, उत्सव आ जाए, दीए ही दीए जल जाएं, फूल ही फूल खिल जाएं--तो तुमने जाना, तुमने जीया,
तुमने पहचाना। उसको मैं संन्यास कहता हूं। उसी कार्य में लगा हुआ
हूं।
अजब जुनूंने-मुसाफत में घर से निकला था,
खबर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था।
यह कौन फिर से उन्हें रास्तों पे छोड़ गया,
अभी-अभी तो अजाबे-सफर से निकला था।
ये तीर दिल में मगर बेसबब नहीं उतरा,
कोई तो हर्फ लबे-चारागर से निकला था।
वो कैस अब जिसे मजनू पुकारते हैं "फराज'
तेरी तरह कोई दीवाना घर से निकला था।
मैं तो दीवाना हूं। और मेरे पास दीवाने इकट्ठे हैं।
वो कैस अब जिसे मजनू पुकारते हैं "फराज'
तेरी तरह कोई
दीवाना घर से
निकला था।
मुझसे तुम हिसाब-किताब की बातें न पूछो। यहां कोई हिसाब-किताब नहीं, कोई गणित नहीं। यहां तो प्रेम एक शास्त्र है, और
ध्यान एकमात्र धर्म है।
दूसरा प्रश्न: भगवान, मेरा प्रश्न भी वही है, जो कि श्री निर्मल घोष का
था। आदेश दें कि मैं क्या करूं कि इस देश की दीन-हीनता, भुखमरी,
पाखंड, काहिलता, और
सड़ांध मिट जाए!
दयानंद!
यह सब हो सकता है। लेकिन हजार-हजार बाधाएं हैं। और बाधाएं गलत लोगों
की तरफ से नहीं हैं। बाधाएं उन लोगों की तरफ से हैं, जिन्हें तुम भला
समझते हो, साधु समझते हो, संत समझते हो,
महात्मा समझते हो। बाधाएं उनकी तरफ से हैं, जो
तुम्हारे पंडित हैं, तुम्हारे पुरोहित हैं, तुम्हारे इमाम हैं, तुम्हारे पादरी हैं। बाधाएं उनकी
तरफ से हैं, जो तुम्हारे नीति के निर्धारक हैं, तुम्हारे नेता हैं।
इसलिए बड़ी कठिन बात है। क्योंकि उन्होंने ही तो तुम्हारे मन को रचा
है। उन्होंने ही तुम्हारे अंतःकरण पर छाप छोड़ी है। वे बाहर भी खड़े हैं; उनके हाथ में बाहर भी बंदूक है। और वे तुम्हारे भीतर भी अंतःकरण बन कर खड़े
हैं। उन्होंने तुम्हें दोनों तरफ से कसा है। बाहर से जंजीरें पहनाई हैं; भीतर से जंजीरें पहनाई हैं।
मगर फिर भी क्रांति घट सकती है; घटनी चाहिए। समय आ
गया है कि घटे।
फेंक दो--
अपनी पुरानी कल्पनाओं के कफन,
हे कवि!
ग्रहण से पहले नया सूरज उगाना है
तुम्हें अब।
हो चुका है प्यार काफी दीप से भी,
शलभ से भी,
तारिकाओं से,
गगन से,
चांद से,
चंचल कमल से,
विरह डूबी प्रिया का अब,
राजरथ आए न आए।
कली की अभ्यर्थना,
सहकार को भाए न भाए।
जीर्ण चिथड़ों से बुने उपमान मैले,
अब सहेजो।
अश्रु डूबी यक्ष-पाती मेघमाला में,
न भेजो।
लो नए परिधान, नूतन स्वर, नए त्यौहार लाओ,
लो नया चश्मा, नया आलोक देखो,
अब नया संधान, नूतन लक्ष्य देखो।
फेंक दो--
अपनी पुरानी कल्पनाओं के कफन,
हे कवि!
ग्रहण से पहले नया सूरज उगाना है,
तुम्हें अब।
फेंकना होगा कफन जो हम ओढ़े बैठे हैं। लेकिन हम तो समझते हैं, वह चुनरी है! हम तो समझते हैं, वह बड़ा बहुमूल्य है,
कफन नहीं।
इसलिए पहली बात तो यह समझना जरूरी है कि भारत इतना दीन-हीन क्यों है? क्या कारण है? किसका हाथ है? कौन
से दुर्भाग्य ने इसे ग्रसा? इसकी छाती पर कौन से चट्टान रखे
हैं कि यह दबा जा रहा है, मरा जा रहा है? किसने बनाया इसे भूखा, पाखंडी, काहिल? किसने इसके जीवन में सड़ांध भर दी है?
पहले तो मूल कारण खोजने पड़ें, दयानंद! और मूल कारण
बड़े गहरे हैं, सदियों पुराने हैं। जब तक इस देश में कर्मवाद
की गलत व्याख्या प्रचलित रहेगी, दीनता-हीनता मिट नहीं सकती।
क्योंकि तुमने दीनता-हीनता को सांत्वना के बड़े सुंदर वस्त्रों में ढांक रखा है।
सदियों से तुमने यह समझाया है लोगों को कि तुम गरीब हो इसलिए कि तुमने
पिछले जन्म में पाप किए थे! तुम अमीर हो इसलिए कि तुमने पिछले जन्म में पुण्य किए
थे! चाहे शास्त्र हिंदुओं के हों, चाहे जैनों के, चाहे बौद्धों के, इस बात पर राजी हैं--तीनों धर्मों
के शास्त्र इस बात पर राजी हैं--कि महावीर राजा के घर में पैदा हुए, हजारों हाथी, हजारों घोड़े, रथ!
क्यों? क्योंकि पिछले जन्म में उन्होंने बहुत पुण्य कर्म किए
थे। बुद्ध राजा के घर में पैदा हुए, पिछले जन्मों के पुण्यों
का फल! कृष्ण, राम, सब राजाओं के बेटे!
एक तीर्थंकर गरीब घर में पैदा न हुआ! एक अवतार गरीब घर में पैदा न हुआ! एक बुद्ध
गरीब घर में पैदा न हुआ! हो कैसे सकता है? गरीब हो तो उसका
मतलब ही साफ है कि अतीत में तुमने बहुत दुष्कर्म किए हैं! पाप-कर्म किए हैं!
बुद्धत्व को पाओगे कैसे? तीर्थंकर होओगे कैसे?
यह बात भयंकर है। यह जहर है, जिसने भारत की आत्मा
को नष्ट किया, सड़ांध से भर दिया। मेरे हिसाब में कर्म का
सिद्धांत गलत नहीं है, मगर उस सिद्धांत की जो व्याख्या की गई
वह गलत है। मेरे हिसाब में कर्म का सिद्धांत तो वैज्ञानिक है: आग में हाथ डालोगे,
तो हाथ जलेगा। लेकिन अभी! अगले जन्म में नहीं। यह अगले जन्म की बात
बेईमानी से भरी हुई है। हाथ अभी डालोगे, और जलेगा अगले जन्म
में? किसी की गर्दन अभी काटोगे, और
कटेगी अगले जन्म में?
कर्म और उसका फल संयुक्त है। जैसे हर सिक्के के दो पहलू, ऐसे कर्म और फल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इधर कर्म, इधर फल। यहां देर नहीं है। तुमने कहावत सुनी है कि परमात्मा के घर में देर
है, अंधेर नहीं। वह कहावत बेईमानों ने गढ़ी होगी। मैं तुमसे
कहता हूं, न देर है, न अंधेर है।
प्रकृति के नियम में, परमात्मा के नियम में कैसी देर और कैसी
अंधेर! अगर देर हो गई, तो वही तो अंधेर है। और फिर अगर थोड़ी
देर हुई, तो ज्यादा हो सकती है। फिर देर को लंबाया जा सकता
है। फिर फाइल पड़ी रहे जन्मों-जन्मों तक! फिर पूजा-पत्री तुम करते ही रहो, सत्यनारायण की कथा करवाते रहो, यज्ञ-हवन करवाते रहो,
फाइल पड़ी रहेगी! अंधेर फिर तो होता चला जाएगा।
नहीं, देर ही नहीं है। तुम जब क्रोध करते हो, तब क्रोध के साथ ही तुम्हारे भीतर जो जहर फैलता है, जो
आग जलती है, वह उसका फल है। अगले जन्म में नहीं, बात यहीं है, नगद है।
मेरे लिए धर्म नगद है और तुम्हें समझाया गया है कि धर्म उधार है! तुम
अगर अभी प्रेम करोगे, तो अभी तुम्हारे जीवन का फूल खिलेगा। तुम अगर अभी
बांसुरी बजाओगे, तो अभी बांसुरी बजेगी, अभी गीत जागेगा। तुम अभी गाली दोगे, तो अभी गाली
खाओगे। अभी प्रेम बांटोगे, तो अभी प्रेम पाओगे।
मैं चाहता हूं कि कर्म का सिद्धांत इस वैज्ञानिक व्यवस्था को समझ ले।
हम जो करते हैं, वह अभी हमें मिल जाता है, इसी
क्षण। कल की कोई बात नहीं।
लेकिन कल की बात क्यों ईजाद करनी पड़ी? कल की बात
पंडित-पुरोहितों ने इसलिए ईजाद की कि वे समझाने में असमर्थ हुए बहुत सी बातें।
जैसे कि बेईमानों को उन्होंने देखा धन कमा रहे हैं, और
ईमानदारों को देखा कि भूखों मर रहे हैं। बस, उनको मुश्किल
खड़ी हुई। अब क्या करें? अब कैसे इस बात को लीपापोती करें?
क्योंकि बेईमान छाती पर चढ़े बैठे हैं। दादागिरी कर रहे हैं। और
ईमानदार सड़ रहे हैं। उनकी छाती पर ये ही दादा चढ़े बैठे हैं! तो अब किस तरह समझाएं?
एक ही उपाय था कि पिछले जन्म पर बात को टाल दें। कि ये जो तुम्हारी
छाती पर चढ़े बैठे हैं, इनके पास धन है, पद है, प्रतिष्ठा है, यह इस जन्म की बुराइयों के कारण नहीं
है। यह पिछले जन्म की भलाइयों के कारण है। इस जन्म की बुराइयों का फल तो ये अगले
जन्म में भोगेंगे! और तुम जो छाती कुचली जा रही है तुम्हारी, यह तुम्हारे इस जन्म की ईमानदारी का परिणाम नहीं है, पिछले जन्मों में की गई बेईमानियों का फल है। इसका पुण्य-फल तो तुम्हें
अगले जन्म में मिलेगा।
इससे तरकीब मिल गई। इससे इस समाज की व्यवस्था को, जैसी है वैसा का वैसा बनाए रखने के लिए तर्क का सहारा मिल गया। यह
पूंजीपतियों की ईजाद है। यह न्यस्त स्वार्थों की ईजाद है।
इस देश से दीनता मिट सकती है। कोई कारण नहीं है। अगर अमरीका से मिट
सकती है, तो भारत से क्यों नहीं मिट सकती? भारत की भूमि कोई कम उर्वरा नहीं है। भारत के पास सब है। लेकिन सिर्फ भारत
की बुद्धि को विकृत कर दिया गया है, विक्षिप्त कर दिया गया
है। इस विक्षिप्तता से हम छूट जाएं, तो आज दीनता-हीनता बदल
सकती है।
तो पहला तो काम यह करो दयानंद, कि कर्म के सिद्धांत
का जो गलत रूपांतरण तुम्हारे प्राणों में समाविष्ट हो गया है, उसे निकाल फेंको। भाग्यवाद बैठ गया है सिर पर! कि हम क्या कर सकते हैं,
विधाता ने लिख दिया है!
विधाता ने कुछ भी नहीं लिखा है। तुम जब आते हो, कोरे कागज की तरह आते हो। फिर तुम अपना भाग्य खुद ही लिखते हो। किसी और ने
नहीं लिखा है।
लेकिन हमारे मन में यह धारणा बिठाई गई है कि भगवान लिख देता है
किस्मत। लिख दिया जिसके जीवन में गरीबी, वह गरीब रहेगा;
और लिख दी अमीरी, वह अमीर रहेगा।
बिलकुल झूठी बात है। बिलकुल व्यर्थ बात है। यह पोषण है व्यवस्था के
लिए। जो न्यस्त स्वार्थों की व्यवस्था है, उसको सहारा देना है।
भाग्यवाद उसके लिए सबसे बड़ी सुरक्षा है।
इसलिए भारत में कभी कोई क्रांति नहीं हो सकी। क्योंकि क्रांति के लिए
बुनियादी आधार नहीं मिलते। यह भाग्यवाद हमारी क्रांति को बुझा देता है।
भाग्य नहीं है। भाग्य हम निर्मित करते हैं।
तुम्हें नैतिकता की अस्वाभाविक धारणाएं समझाई गई हैं, इसलिए पाखंड है। पाखंड का अर्थ क्या होता है? तुमसे
अगर कुछ अस्वाभाविक करने को कहा जाए, तो पाखंड होगा ही।
पाखंड का इतना ही मतलब होता है कि तुम प्रकृति के अनुकूल नहीं, बल्कि प्रतिकूल चलने की कोशिश कर रहे हो। चल तो न पाओगे। न चल पाओगे,
तो फिर तुम्हें एक इंतजाम करना पड़ेगा, कम से
कम दिखाना पड़ेगा कि चल रहे हैं। तब तुम्हारी जिंदगी में दोहरापन हो जाएगा; भीतर कुछ, बाहर कुछ। बाहर एक काम करोगे, भीतर दूसरा काम करोगे। बाहर मंदिर में पूजा करोगे, गीता
पढ़ोगे। और भीतर? भीतर सब तरह की वासनाओं के जाल चलते रहेंगे।
इस देश को इसके असंभव मूल्यों से मुक्त कराना जरूरी है, तो पाखंड मिटेगा।
मनुष्य की सहजता को स्वीकार करो। जो भी प्रकृति ने मनुष्य को दिया है, उसका रूपांतरण तो करना है, लेकिन दमन नहीं। और हमें
दमन ही सिखाया गया है। तो सब अजीब हो गया है! कुछ का कुछ हो गया है! सब लोग मुखौटे
लगाए हुए हैं। किसी आदमी की असली शक्ल पहचान में नहीं आती कि कौन कौन है!
चंदूलाल को उनके मित्र ने लताड़ा। कहा, अरे चंदूलाल! शर्म
नहीं आती बुढ़ापे में, बाल सफेद हो गए, दांत
गिर गए, और कल शाम एक पतली कमर, टाइट
जीन्स और लहरदार लंबे बालों वाली वह कौन सी छोकरी थी जिसके साथ मीठा-मीठा बतियाते
चले जा रहे थे?
हिश! छोकरी कैसी! चंदूलाल ने कहा, वह मेरा दामाद था।
मित्र बड़ा हैरान हुआ। उसने कहा, अरे माफ करना भाई
चंदूलाल, भूल हो गई! और दूसरा छींटदार बुशर्ट वाला लड़का,
वह कौन था?
अरे वह? वह मेरी कुन्नी थी, मेरी बेटी!
यहां सब गड़बड़ हो गया है। यहां कुछ पता ही नहीं चलता कि कौन कौन है!
कौन कुन्नी है, कौन दामाद है! कौन आदमी है, कौन
औरत है! कुछ साफ नहीं है।
यहां साधु असाधुओं में मिल जाएं तो मिल जाएं, साधुओं में नहीं मिलते! साधुओं में तो पाखंडियों का जाल है। सब तरह के
बेईमान, सब तरह के चोर, सब तरह के
नैतिक रूप से भ्रष्ट लोग! मगर अगर उन्होंने राम-नाम की चदरिया ओढ़ रखी है, तो बस पर्याप्त है!
और जब ये झूठी बातें बहुत प्रचलित की जाएंगी, तो आदमी तो विज्ञापनों से जीता है, आदमी का मन तो
विज्ञापनों से भरा होता है।
अब रोज-रोज पढ़ोगे कि लक्स टायलेट साबुन से सौंदर्य उपलब्ध हो जाता है, तो सुंदर कौन नहीं होना चाहता! और जो देखो अभिनेत्री वही कह रही है: लक्स
टायलेट साबुन! पढ़ो, तो लक्स टायलेट! फिल्म देखो, तो लक्स टायलेट! रास्ते से गुजरो, तो लक्स टायलेट!
तो फिर जो भी सुंदरी दिखाई पड़ती है, उसका चेहरा नहीं दिखाई
पड़ता, एकदम लक्स टायलेट साबुन दिखाई पड़ने लगता है! हर सुंदरी
की फोटो के साथ लक्स टायलेट साबुन छपा हुआ है। दोनों का संयोग हो जाता है।
पावलव ने इस पर बहुत खोज की, संयोग का सिद्धांत।
वह अपने कुत्ते को खाना खिलाता और घंटी बजाता। खाना जब सामने रखता, तो कुत्ते की लार टपकती, जो बिलकुल स्वाभाविक है;
और घंटी बजाता। पंद्रह दिन बाद खाना तो नहीं रखा, सिर्फ घंटी बजाई, और कुत्ते की लार टपकने लगी! अब
घंटी से कुत्ते की लार टपकने का कोई संबंध नहीं। कुत्ता कोई भक्त थोड़े ही है! न
भक्त है, न भगवान है। घंटी बजा रहे हो, और वह लार टपका रहा है!
यह संयोग का सिद्धांत, उसने कहा कि दोनों का
संयोग हो गया। लार टपकती थी, तब घंटी भी बजती थी, रोटी भी देखता था। देखता था और घंटी बजती थी। रोटी में और घंटी में संबंध
हो गया। अब घंटी बजाना काफी है, लार टपकने लगती है।
कोई भी चीज बेचनी हो, सुंदर स्त्री पहले खड़ी करो! कुछ
भी अंट-शंट बेचना हो, सुंदर स्त्री खड़ी कर दो, फिर लार टपकने लगेगी! पहले सुंदर स्त्री पर टपकेगी, स्वभावतः।
फिर लक्स टायलेट साबुन पर टपकेगी। फिर तुम बाजार गए साबुन खरीदने। दुकानदार पूछता
है, कौन सा साबुन? एकदम तुम्हारे मुंह
से निकल जाता है, लक्स टायलेट! फिर तुम नहीं सोचते कि क्यों?
तुम यही सोचते हो कि बहुत सोच-विचार करके कह रहे हैं, लक्स टायलेट साबुन! मगर वे विज्ञापन काम कर रहे हैं। उन्होंने संयोग करवा
दिया।
पहले जब पहली दफे बिजली के विज्ञापन बने, तो वे ठहरे रहते थे अक्षर; लक्स टायलेट लिखा रहता
था। फिर मनोवैज्ञानिकों ने कहा, इससे भी ज्यादा कारगर यह
होगा कि इनको बुझाओ-जलाओ, बुझाओ-जलाओ। और प्रयोग किए और पाया
कि वह ठीक, वह ज्यादा काम करता है। क्योंकि अगर लक्स टायलेट
साबुन बिजली के थिर अक्षरों में लिखा रहे, और तुम वहां से
गुजरो, तो एक दफा पढ़ोगे, बस। अगर वह
जले, फिर बुझे; फिर जले, फिर बुझे; तो जितनी बार जलेगा-बुझेगा, उतनी बार तुमको पढ़ना पड़ेगा! तुम कोई बुद्ध थोड़े ही हो कि चार फीट ही नीचे
देख कर चलोगे! कि अपने को देखना ही नहीं ऊपर क्या हो रहा है! होने दो, बिकने दो लक्स टायलेट साबुन!
नहीं; नीचे कौन देखता है! अरे, सबकी
आंखें ऊपर टिकी हुई हैं। वह जितनी बार जलेगा-बुझेगा, उतनी
बार, लक्स टायलेट साबुन! लक्स टायलेट साबुन! वह उतर रहा है
भीतर। बूंद-बूंद भीतर जा रहा है। धीरे-धीरे तुम्हारी आत्मा में लक्स टायलेट साबुन
भर गया!
तो तुम्हें जो भी नैतिक धारणाएं हजारों साल तक समझाई गई हैं, चाहे कितनी ही असंभव हों, कितनी ही मूर्खतापूर्ण
हों...।
अब दत्ताबाल ने अपने लेख में लिखा है कि वीर्य को ऊपर चढ़ाने की एक बड़ी
गहरी तरकीब है।
अब यह मूर्खतापूर्ण बात है। वीर्य को ऊपर कभी चढ़ाया जा सकता नहीं।
क्योंकि चढ़ाने के लिए कोई व्यवस्था ही शरीर में नहीं है। कोई न तो नाड़ी है, न कोई स्नायुओं का जाल है। वीर्य को ऊपर चढ़ाया ही नहीं जा सकता, चाहे तुम कितना ही शीर्षासन करो; लाख करो शीर्षासन।
अरे, टोंटी ही नहीं है भीतर कि वीर्य ऊपर चढ़ जाए! टोंटी भी
तो होनी चाहिए। भीतर जाल भी तो होना चाहिए।
डी.एच.लारेंस ने लिखा है कि वह अपने कुछ मित्रों को लेकर पेरिस की
प्रदर्शनी दिखाने ले गया था। वे मित्र थे खानाबदोश अरब के। अब अरब में सबसे ज्यादा
तकलीफ है पानी की। पेरिस की होटल! उन्हें किसी चीज में रस ही नहीं। न पेरिस देखने
जाएं, न प्रदर्शनी देखने जाएं; दिन भर
बाथरूम में घुसे रहें! बैठे फव्वारे के नीचे! लेटे टब में! बस, उनके लिए सबसे बड़ा गुलछर्रा वही था। रेगिस्तानी बेचारे, क्या करें!
जिस दिन जाने का दिन आया; सब सामान तो रख दिया
गया जाकर कारों में, लेकिन वे जितने खानाबदोश थे, बादायून थे, वे सब नदारद! लारेंस ने थोड़ी देर रास्ता
देखा और पूछा कि भई, वे गए कहां? उन्होंने
कहा, वे सब बाथरूमों में घुसे हुए हैं!
वह भागा, ऊपर पहुंचा कि इसमें हम तो गाड़ी चूक जाएंगे! क्या कर
रहे हो? दरवाजा खोलो! दरवाजा खोला, तो
देख कर हैरान हुआ। वे सब के सब नल की टोंटियां निकालने की कोशिश कर रहे थे! पूछा,
यह तुम क्या कर रहे हो?
उन्होंने कहा, ये टोंटियां तो हम न छोड़ेंगे! अरे, दाम लगते हों तो लग जाएं। ये तो बड़ी गजब की टोंटियां हैं! इन टोंटियों को
ले जाएंगे हम तो अपने साथ। अपने घर में लगा लेंगे टोंटियों को। और जब खोला,
पानी ही पानी!
लारेंस ने कहा, पागलो! इन टोंटियों के पीछे नालियों का जाल है। ये टोंटियां
अकेली काम न आएंगी, अगर तुम टोंटियां खोल कर भी ले गए। तो
मैं तुमको बाजार से टोंटियां दिलवाए देता हूं, इनको खोलने के
पीछे मत पड़ो। मगर उन टोंटियों से कुछ भी नहीं निकलेगा। उनके पीछे तो नलों का जाल
है। जालों के पीछे दूर सरोवर है। बड़ा लंबा विस्तार है। वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता,
तुम्हें सिर्फ टोंटी दिखाई पड़ रही है!
वीर्य को ऊपर चढ़ाना! पागल हो गए हो तुम? किसी शरीर-शास्त्री
से तो पूछो! हमारे अजित सरस्वती से पूछो! वे तो गायनोकोलाजिस्ट हैं। वे तुम्हें
बता सकेंगे कि वीर्य कैसे ऊपर चढ़ सकता है?
दत्ताबाल वीर्य को ऊपर चढ़ाने की बातें बता रहे हैं लोगों को! मगर ये
सदियों से सुनी गई बातें हैं, तो लोगों को भरोसा आता है।
ये मूढ़तापूर्ण बातें हैं। वीर्य इत्यादि कोई ऊपर नहीं चढ़ता। हां, कामवासना रूपांतरित होती है। काम राम बन सकता है। लेकिन कोई वीर्य ऊपर
नहीं चढ़ जाता। और चढ़ जाए, तो तुम्हारी खोपड़ी गंदी हो जाए!
समझो, खोपड़ी में वीर्य चढ़ गया किसी के! अब गए ये काम से। और
यह खोपड़ी में वीर्य चढ़ जाएगा, तो कभी नाक से बहेगा, कभी आंख से आएगा, कभी कान से निकलेगा। इनकी हालत बड़ी
खस्ता हो जाएगी! मक्खियां भिनभिनाएंगी! देवता तो दूर, भूत-प्रेत
भी इनके आस-पास न रमेंगे। जो देखेगा, वही भागेगा दूर! सड़
जाएगा यह आदमी!
मगर व्यर्थ की और मूर्खतापूर्ण बातें अगर बहुत दिन तक प्रचारित की
जाएं, तो पकड़ जाती हैं। और प्रचार करने वालों को तो कोई
संकोच लगता ही नहीं!
एक अंग्रेज यात्रा पर आया हुआ था। उसने देखा हिमालय में बड़ी चर्चा है
एक साधु की कि सात सौ साल उसकी उम्र है। भीड़ लगी हुई थी। उसने देखा कि ज्यादा से
ज्यादा सत्तर साल का हो सकता है--ज्यादा से ज्यादा। सात सौ साल? हद्द हो गई! और वह जड़ी-बूटी बेच रहा था, कि जो भी यह
जड़ी-बूटी लेगा, वह भी सात सौ साल का हो जाएगा। यह जड़ी-बूटी
गारंटी है, सात सौ साल तो जिंदा रखेगी ही, कम से कम; ज्यादा कोई भला जिंदा रह जाए। मैं सबूत
हूं।
उसने कहा, कुछ पता लगाना चाहिए! भारतीय तो खरीद रहे थे, क्योंकि भारतीयों को पता वगैरह लगाने का तो हिसाब ही नहीं होता! श्रद्धा
करना इनका नियम है। अब जब कह रहा है, तो वृद्ध आदमी है,
ठीक ही कह रहा होगा। खरीद रहे थे जड़ी-बूटी।
अंग्रेज था वह, इतने जल्दी श्रद्धा नहीं कर सका। उसने देखा कि एक
छोकरा उसकी जड़ी-बूटी बेचने में सहायता कर रहा है। तोल रहा है इत्यादि; पैसे इकट्ठे कर रहा है। उसने उस छोकरे को अलग बुलाया और पांच रुपए का नोट
दिया और कहा, भइया, तू एक बात बता!
तेरे गुरु की सच में कितनी उम्र है?
उसने कहा कि भई, मैं नहीं कह सकता। मेरी तो कुल
उम्र तीन सौ साल है! तीन सौ साल से उनके साथ हूं। अब उनकी कितनी उम्र है, वे जानें!
वह छोकरा तो कोई बारहत्तेरह साल का था! अंग्रेज ने तो अपना सिर ठोंक
लिया। उसने कहा, हद्द हो गई। यह छोकरा भी बदमाश है! तीन सौ साल से,
कह रहा है, इनके गुरु के साथ हूं। मैं क्या कह
सकता हूं! सात सौ साल कहते हैं, तो होंगे। जरूर होंगे! वे
पांच रुपए भी गए! यह छोकरा भी बदमाश है!
क्या आप दावे के साथ कह सकते हैं कि इस दवा के रगड़ने से सिर पर बाल उग
आएंगे? चंदूलाल ने दवाफरोश से पूछा।
दावा कैसा हुजूर! पिछले हफ्ते एक साहब ने इस्तेमाल की। कल शाम
मियां-बीबी में जूती-पैंजार हुई। मोहल्ले वालों ने सिर के बाल पकड़ कर दोनों को
जुदा किया और सोचते ही रह गए कि कौन सा सर मियां का था और कौन सा बीबी का! सात दिन
में!
पाखंड है इसलिए कि तुम असंभव को मूल्य बनाए हुए हो। आदमी को हमने इस
देश में सामान्य होने का अवसर ही नहीं दिया। हमने उसे साधारण, प्राकृतिक होने की सुविधा ही नहीं दी। न हमने उसकी किसी चीज को अंगीकार
किया जो प्राकृतिक थी। हमने मूल्य थोप दिए। असंभव मूल्य! उनको वह पूरा कर पाता
नहीं बेचारा, तो क्या करे? अगर स्वीकार
करे कि पूरा नहीं कर पाता, तो लोग हंसी-मजाक उड़ाते हैं। लोग
कहते हैं, अरे, तुम आदमी हो कि पशु! हम
तो पूरा कर रहे हैं, तुमसे क्यों पूरा नहीं होता?
तो उसे भी कहना पड़ता है कि पूरा कर रहा हूं। बिलकुल पूरा कर रहा हूं।
सिद्धांत बड़े ऊंचे हैं; बिलकुल सही साबित होते हैं! यह उसको भी चेहरा बना कर
रखना पड़ता है। और भीतर जो उसे करना है, करना होता है। इस तरह
पाखंड पैदा होता है। पीछे के दरवाजे से एक जीवन, बाहर के
दरवाजे से एक जीवन।
सरदार बिचित्तर सिंह अमृतसर के माई सेवा बाजार में अपने बालों के लिए
कंघा खरीद रहे थे। दुकानदार ने एक जैसे दिखने वाले दो कंघों का दाम पच्चीस पैसे और
पचास पैसे बताया। बिचित्तर सिंह ने पूछा कि दूसरे कंघे के पचास पैसे क्यों? दुकानदार ने कंघे का ऊपरी भाग दिखाते हुए कहा कि यह देखो, यहां छोटी कृपाण भी फिट की गई है।
बिचित्तर सिंह ने खुश होते हुए कहा, यार तू एक रुपया ले
ले, मगर मैंनूं ओहू कंघा दे दो जिहदे विच कच्छा वी फिट होवे!
फिर तो मजा ही मजा आ जाए!
अरे, सरदार होने के लिए पांच ही चीजें तो जरूरी हैं;
पांच ककार। कंघा होना चाहिए; समझो एक-बटा-पांच
सरदार हो गए! कच्छा हुआ, और एक अंग जुड़ गया! कृपाण हुई,
फिर तो कहना ही क्या; और तीसरा अंग जुड़ गया!
कड़ा हुआ, फिर तो क्या कहना; चार अंग
जुड़ गए! अब बचा ही क्या! केश और होना चाहिए। अब जब कंघा ही है, तो केश बढ़ाने में क्या दिक्कत! पांच क हो गए पूरे, कि
सिक्ख हो गए!
क्या सरल बात निकाल दी! और बिचित्तर सिंह ने बेचारे ने कुछ गलत बात न
पूछी। उसने कहा, यह तो बड़े मजे की बात है। कंघा में तीन चीजें आ गईं;
अब दो ही बचीं। अरे, दो-चार केश और लपेट लिए
तो चौथी भी हो गई! और कंघा ही में एक कड़ा और पहना दिया, फिर
कहना ही क्या! कंघा रहा जेब में कि सब चीजें पूरी हो गईं। सरदारी पूरी हो गई!
जब तुम व्यर्थ की बातों को आदर देना शुरू करोगे और सार्थक और
प्राकृतिक जीवन को इनकार करोगे, तो पाखंड पैदा होता है।
अब तुम पूछते हो दयानंद, पाखंड कैसे जाए?
आज जा सकता है; अभी जा सकता है। मगर उसके साथ तुम्हें हिम्मत करनी
होगी। तुम्हें स्वीकार करना पड़ेगा जीवन की सहजता को।
अब तुम कहते हो, इतनी काहिलता है, यह कैसे जाएगी?
यह काहिलता इसलिए है कि तुम्हें सिखाई गई है काहिलता। तुम्हें कहा गया
है, परमात्मा के बिना इशारे के पत्ता नहीं हिलता! अरे, तो
तुम क्यों हिलो! जब पत्ता ही नहीं हिलता। और जब उसको हिलाना होगा हिलाएगा! जब तक
नहीं हिलाना है, तुम लाख कोशिश करो, हिला
नहीं सकते! तो फिर कोशिश ही क्यों करनी? सब परमात्मा पर छोड़
कर बैठ गए हो, इसलिए काहिल हो।
जीवन कर्म है। और कर्म का त्याग हमने सिखाया लोगों को! हम कहते हैं, संन्यास का अर्थ है कर्म को छोड़ दो! और संन्यासी महात्मा है। मैं तुमसे
कहता हूं, कर्म के साथ ध्यान को जोड़ दो। और संन्यास पूरा हो
गया। कर्म को छोड़ना नहीं है; कर्म को ध्यान के साथ जोड़ना है।
और तब यह काहिलता मिट जाएगी।
और यह इतनी सड़ांध जो दिखाई पड़ती है, यह इसीलिए है। जब कमल
कमल न हो पाए, तो कीचड़ ही रह जाती है। कीचड़ कमल हो जाए,
तो सुगंध; और कमल कमल न हो पाए, कीचड़ ही रह जाए, तो दुर्गंध।
यह देश कीचड़ ही रह गया। और इस देश को कीचड़ बनाए रखने में तुम्हारे
महात्माओं का हाथ है, तुम्हारे धर्मों का हाथ है, तुम्हारे
तथाकथित नैतिक गुरुओं का हाथ है। और जब तक तुम इस सारी गुलामी से मुक्त न होओगे,
इस देश के भाग्य का सूर्योदय नहीं हो सकता है।
लेकिन सब तुम्हारे हाथ में है। सूर्योदय हो सकता है। उसी की हम यहां
चेष्टा में लगे हैं।
शोर, केवल शोर चारों ओर
दर्द होता जा रहा मुंहजोर
इस तरह भटका हुआ है आदमी
शून्य में लटका हुआ है आदमी
एक तिनके सी बची है जिंदगी
सांस की डोर हुई कमजोर।
हर दिशा ने आचरण बदले
किस तरह बागी उमर सम्हले
इस कदर पथरा गया है मन
भीगती है आंख की बस कोर।
एक पत्ता तक नहीं अपना
खेत और खलिहान हैं सपना
एक दिन आकर रहेगी रोशनी
आज कुहरे में ढंकी है भोर।
आज तो जरूर रात है, लेकिन सुबह हो सकती है।
आज इतना ही।
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