जो घर बारे आपना-(साधना-शिविर)
ओशो
प्रवचन-चौथा-(अमृत का सागर)
मनुष्य का जीवन बाहर अंधेरे से भरा हुआ है, लेकिन भीतर प्रकाश की कोई सीमा नहीं है। मनुष्य के जीवन की बाहर की परिधि
पर मृत्यु है, लेकिन भीतर अमृत का सागर है। मनुष्य के जीवन
के बाहर बंधन हैं, लेकिन भीतर मुक्ति है। और जो एक बार भीतर
के आनंद को, आलोक को, अमृत को, मुक्ति को जान लेता है, उसके बाहर भी फिर बंधन,
अंधकार नहीं रह जाते हैं। हम भीतर से अपरिचित हैं तभी तक जीवन एक
अज्ञान है।
ध्यान भीतर से परिचित होने की प्रक्रिया है।
ध्यान मार्ग है स्वयं के भीतर उतरने का। ध्यान सीढ़ी है स्वयं के भीतर
उतरने की।
कठिन नहीं है यह उतरना, बहुत सरल है। चाहिए
सिर्फ संकल्प की शक्ति, चाहिए विल पॉवर, चाहिए आकांक्षा, अभीप्सा। एक ही बात चाहिए कि मेरे
भीतर इच्छा हो कि मैं भीतर जाना चाहता हूं! फिर इस दुनिया में कोई ताकत रोक न
पाएगी। वही इच्छा न हो, तो दुनिया की कोई ताकत आपको भीतर
पहुंचा भी नहीं सकती है।
ध्यान की चार बैठक हो गई हैं। अब मैं आशा करता हूं कि कोई भी खाली न
बैठा रहेगा। बहुत छोटी-छोटी बातें व्यर्थ ही रोक लेती हैं। अत्यंत क्षुद्र बातें
बड़े विराट के ऊपर पर्दा बन जाती हैं। कभी ऐसा होता है--आंख में थोड़ा सा तिनका पड़
जाए, तो हिमालय जैसे बड़े पहाड़ का दर्शन भी फिर नहीं होता।
जरा सा तिनका आंख में और हिमालय जैसा पर्वत भी दिखाई नहीं पड़ेगा। और कोई सोच भी
नहीं सकता कि तिनके की ओट में पहाड़ हो जाएगा। लेकिन हो जाता है। ऐसे ही हमारी
जिंदगी में कोई बहुत बड़ी बाधाएं नहीं हैं, बहुत छोटी बाधाएं
हैं। और वे छोटी-छोटी बाधाएं हमें रोक लेती हैं।
अब यहां मैं देख रहा हूं, सत्तर प्रतिशत के
करीब लोग ठीक से गति किए हैं, तीस प्रतिशत रुके रह गए हैं।
मैं न चाहूंगा कि वे खाली हाथ वापस लौटें। लेकिन अगर आपने तय कर रखा है कि खाली
हाथ वापस लौटना है, तब फिर कोई संभावना नहीं है। फिर से
दोहरा दूं थोड़ी सी बातें, जिनमें भूल-चूक तीस प्रतिशत लोग कर
रहे हैं।
एक: आप चालीस मिनट आंख बंद नहीं रख पाते हैं। कुछ थोड़े से लोग दो-चार
दफे आंख खोल कर देख लेते हैं। जब भी आंख खोलते हैं, उसके पहले का किया
हुआ उपक्रम व्यर्थ हो जाता है। वह ऐसे ही जैसे घड़े में छेद हो और हम पानी भर रहे
हों।
संकल्प में छेद नहीं चलेगा। संकल्प निष्छिद्र होना चाहिए। चालीस मिनट
जैसी छोटी सी बात, आंख बंद न रख सकें तो बहुत कमजोरी की बात हो गई। इतनी
कमजोरी से उसका रास्ता तय नहीं किया जा सकता। तो ध्यान रखें, चालीस मिनट यानी चालीस मिनट! जब तक मैं नहीं बोलता हूं, तब तक आंख खोलनी ही नहीं है। और कठिनाई बहुत नहीं है, क्योंकि रात जो हम प्रयोग करेंगे, चालीस मिनट आंख
खोल कर ही रखेंगे, तो कंपनसेशन हो जाएगा। इसलिए बहुत घबड़ाइए
मत, जो भी देखना हो, रात चालीस मिनट
इकट्ठा आप देख लेना। अभी चालीस मिनट बंद रखिए।
दूसरी बात: जिस चरण को भी आप कर रहे हैं--पहले को, दूसरे को या तीसरे को--उसे अपनी पूरी क्षमता में करिए। और सब फिक्र छोड़
दीजिए कि थक जाएंगे। थक ही जाएंगे तो कुछ बिगड़ नहीं जाएगा, घंटे
दो घंटे आराम के बाद ठीक हो जाएंगे। थकने की चिंता छोड़ दीजिए, पूरा करिए।
दूसरे चरण में अधिकतम मित्रों को तकलीफ होती है--कैसे नाचें, कैसे कूदें, कैसे रोएं, कैसे
हंसें। तो जो भी आपके लिए निकटतम पड़ता हो वह शुरू कर दें। खाली तो कोई भी खड़ा न
रहे आज, क्योंकि कल का दिन ही बचेगा फिर, आज आप खाली रह जाते हैं तो कल कठिनाई हो जाएगी। खाली तो कोई भी खड़ा न रहे,
जो उससे बन सके दूसरे चरण में--हंस सकता हो तो हंसे दस मिनट;
रो सकता हो तो रोए; नाच सकता हो तो नाचे;
कूद सकता हो तो कूदे--जो भी कर सकता हो। चिल्ला तो सकते हैं?
जोर से चिल्लाएं। जो भी बन सकता हो दूसरे चरण में जिससे वह करे,
लेकिन खाली कोई भी न खड़ा रहे। एक भी व्यक्ति खाली खड़ा हुआ न दिखाई
पड़े। वह दस मिनट आप कुछ भी करें पूरी ताकत से, परिणामकारी
होगा।
तीसरे दस मिनट में "मैं कौन हूं?' पूछना है। वह इतनी
तीव्रता से भीतर पूछना है कि सारे प्राण गूंजने लगें। जब सारे प्राण गूंजेंगे तो
कभी बाहर भी आवाज निकल सकती है, उसकी फिक्र न करें, निकल जाए, निकल जाने दें।
दूसरी बात, पहले दस मिनट में श्वास तीव्रता से लेनी है। इतनी
तीव्रता से लेनी है, इतने फास्ट लेनी है कि चोट पड़ने लगे।
धौंकनी की तरह, भस्त्रिका, जैसे लोहार
धौंकनी चलाता है, ऐसे ही हांफ जाना है। धौंकनी की तरह फेफड़ों
का उपयोग करना है। जितनी ही गंदी हवा बाहर फेंकी जा सके, उतना
ही गहरा परिणाम होगा। स्वास्थ्य के लिए लाभ होगा, मन के लिए
लाभ होगा, आत्मा की तरफ जाने में सुविधा बनेगी।
यह चोट जितने जोर से होगी, कुंडलिनी भीतर जागनी
शुरू होगी। जब कुंडलिनी भीतर जगेगी तो शरीर बहुत तरह की हरकतें, बहुत तरह के मूवमेंट करेगा। वह करने देना आप। जरा भी आपने रोका तो कठिनाई
हो जाएगी। वह कुंडलिनी वहीं अटक जाएगी। उसका जागरण वहीं ठहर जाएगा। वह शरीर के साथ
जो भी करवाना चाहे करने दें। आप एक ही ध्यान रखें कि शरीर जो भी कर रहा हो उसको
कोआपरेट करें और पूरी तरह सहयोग दें। अगर आवाज निकल रही है, तो
पूरी ताकत से चिल्लाएं, ताकत पूरी लगा दें। उस पूरी ताकत में
ही आपके भीतर का सब कचरा बाहर गिर जाएगा। वे दस मिनट रेचन के हैं, कैथार्सिस के हैं। सब चीज बाहर फेंक देनी है। आखिरी दस मिनट में, जैसे ही मैं कहूं, रुक जाएं, समाप्त
हो गए, तो सबको सब छोड़ देना है--श्वास की गहराई भी छोड़ देनी
है, नाचना भी छोड़ देना है।
लेकिन पहले चरण में श्वास पर एंफेसिस रहेगी, जोर रहेगा। दूसरे चरण में श्वास जिनसे बन सके वे लें, नाच भी सकें साथ तो ठीक। अगर न बन सकें दोनों बातें, तो दूसरे चरण को करें--नाचें, रोएं, हंसें--श्वास की फिक्र छोड़ दें, जितनी बन सके उतनी
लें। तीसरे चरण में नाचना जारी रखें, कूदना जारी रखें और
"मैं कौन हूं?' पूछना शुरू कर दें। और चौथे चरण में कुछ
भी नहीं, सिर्फ प्रतीक्षा करें।
दोत्तीन प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं। एक मित्र ने
पूछा है कि दोपहर की साधना के लिए आदेश दोहरा दें।
दोपहर की साधना में कुछ भी नहीं करना है। दोपहर की साधना परिपूर्ण मौन
की साधना है। मैं आपके बीच बैठूंगा, आप मेरे पास मौन
बैठेंगे। उस मौन में जो भी हो उसे होने देना है--नाचना, चिल्लाना,
रोना, गाना, शरीर का
डोलना--जो भी हो, होने देना है। किसी को लगे कि मेरे पास
जाने की आकांक्षा भीतर पैदा हुई, तो वह मेरे पास दो मिनट आकर
बैठ जाए और फिर उठ कर चला जाए। लगे तो ही मेरे पास आए। और कोई जा रहा है इसलिए आप
न आएं। आपके भीतर आ जाए भाव तो आ जाएं और चले जाएं। दूसरे की फिक्र छोड़ दें।
एक मित्र ने पूछा है कि ध्यान के अतिरिक्त जो समय
बच रहा है शिविर में, उसका हम क्या करें? उन्होंने पूछा है: क्या हम आपकी किताबें पढ़ें?
नहीं, ध्यान शिविर में किताबें न पढ़ें तो अच्छा। मेरी या
किसी की, कोई किताब न पढ़ें। जो समय बचता हो, एकांत में किसी वृक्ष के नीचे बैठ जाएं, ध्यान में
लगाएं, मौन में लगाएं। किताबें फिर कभी पढ़ी जा सकती हैं। और
किताबों से पढ़ कर कभी कुछ बहुत मिलने को नहीं है। इसलिए यहां ध्यान शिविर में तो
जितनी देर डूब सकें ध्यान में उसकी फिक्र करें। जो भी खाली समय बच जाए--खाने,
सोने, स्नान करने से, वह
वृक्षों के नीचे एकांत में कहीं भी बैठ जाएं। जो भी हो रहा हो उसे होने दें। उसकी
भी फिक्र न करें कि अकेले में करूंगा तो कौन क्या कहेगा। कोई यहां कुछ कहने को
नहीं है।
उन्होंने यह भी पूछा है कि जो समय मिले उसमें
"मैं कौन हूं?' इसकी जिज्ञासा करनी चाहिए कि बाकी चरण पूरे करने
चाहिए?
जैसा आपको सुविधाजनक लगे। जो भी आपको आनंदपूर्ण लगे वह कर सकते हैं।
लेकिन इतना खयाल रखें कि ध्यान शिविर का सारा समय ध्यान में ही व्यतीत
करना है। नींद भी ध्यान बन जाए, जागना भी ध्यान बन जाए। तो आप
अपने हाथ भरे हुए लेकर लौट सकते हैं।
अब हम प्रयोग के लिए खड़े हो जाएं।
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