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सोमवार, 17 अप्रैल 2017

अमृत द्वार-(विविध) -प्रवचन-06



अमृत द्वार-(विविध)

ओशो
प्रवचन-छट्ठवां-(नाचो शून्यता है नाच)
टेप न. १० बंबई दिनांक ७ मई १९६८

एक बहुत अच्छा प्रश्न है। पूछा है, श्रद्धा के बिना शास्त्र का अध्ययन नहीं, अध्ययन के बिना ज्ञान नहीं। और ज्ञान के बिना आत्मा का अनुभव नहीं होता है।
श्रद्धा के बिना शास्त्र का अध्ययन क्यों नहीं होगा? हमारी धारणा ऐसी है कि या तो हम श्रद्धा करेंगे या अश्रद्धा करेंगे। हमारी धारणा ऐसी है कि या तो हम किसी को प्रेम करेंगे या घृणा करेंगे। तटस्थ हम हो ही नहीं सकते। जो श्रद्धा से शास्त्र का अध्ययन करेगा वह भी गलत, जो अश्रद्धा से शास्त्र का अध्ययन करेगा वह भी गलत है। शास्त्र का ध्यान तटस्थ होकर करना होगा। तटस्थ होकर ही कोई  अध्ययन हो सकता है। श्रद्धा का अर्थ है आप पक्ष में पहले से मानकर बैठ गए हैं, पक्षपात से भरे हैं। अश्रद्धा का अर्थ है आप पहले से ही विपरीत मानकर बैठ गए। आप पक्षपात से भरे हैं।
पक्षपातपूर्ण चित्त अध्ययन क्या करेगा? पक्षपातपूर्ण चित्त ने तो पहले से पक्ष तय कर लिया। वह शास्त्र में अपने पक्ष के समर्थन में दलीलें खोज लेगा और कुछ नहीं करेगा। पक्षपात शून्य होकर ही कोई अध्ययन कर सकता है। इसलिए मुझे श्रद्धा भी व्यर्थ मालूम होती है, अश्रद्धा भी व्यर्थ। असल में श्रद्धा अश्रद्धा दोनों ही अश्रद्धाएं हैं।
एक आदमी ईश्वर पर श्रद्धा करता है, एक आदमी ईश्वर पर अश्रद्धा करता है। असल में अगर हम गौर से देखें तो उसमें एक ईश्वर के होने पर श्रद्धा करता है, एक ईश्वर के न होने पर श्रद्धा करता है वे दोनों ही श्रद्धाएं हैं। अश्रद्धा भी श्रद्धा है, विपरीत श्रद्धा है। इसलिए न तो श्रद्धा और न अश्रद्धा। पक्षपात शून्य होकर ही कोई सम्यक अध्ययन कर सकता है। हमारे इस जगत में वैसा सम्यक अध्ययन बहुत कम लोग करते हैं। परिणाम में भी कुछ उपलब्ध नहीं होता।
दूसरी बात उन्होंने कही, शास्त्र के अध्ययन के बिना ज्ञान नहीं। जिन्होंने भी पूछा है, वे शायद पांडित्य को ज्ञान समझ रहे हैं। शास्त्र के अध्ययन से पांडित्य उपलब्ध होगा, ज्ञान उपलब्ध नहीं होगा। ज्ञान उपलब्ध नहीं करना है, ज्ञान तो हमारा स्वरूप है। शास्त्र से स्वरूप का कैसे पता चलेगा? और अगर शास्त्र के स्वरूप का पता चल जाता तो शास्त्र अध्ययन करवा देना बहुत कठिन बात नहीं है, आत्मज्ञान बहुत आसान हो जाता। दुनिया में ऐसे लोग हुए जिन्होंने कोई शास्त्र नहीं पढ़े और आत्मज्ञान को उपलब्ध हुए जिनमें रामकृष्ण थे या ईसा थे। ये कुछ पढ़े लिखे लोग ही थे लेकिन इन्हें ज्ञान उत्पन्न हुआ। और दुनिया में ऐसे पढ़े लिखे लोगों की भीड़ है जिनका चित्त पूरा शास्त्र से भरा हुआ है और उन्हें आत्मज्ञान का कोई पता भी नहीं है।
शास्त्र के अध्ययन से आत्मज्ञान का कोई संबंध नहीं है। आत्म ज्ञान का संबंध साधना है, अध्ययन से नहीं है। आत्मज्ञान का संबंध और ज्ञान के लिए नहीं कह रहा हूं। इंजीनियरिंग पढ़नी हो, डाक्टरी पढ़नी हो शास्त्रज्ञान से हो जाएगा। पर स्व के संबंध में कोई सूचना पानी हो तो शासन से हो जाएगी। स्व के संबंध में बोध शास्त्र से नहीं हो सकता। शास्त्र तो विचार को परिपक्व कर देंगे। आत्मज्ञता तो विचार के टूटने से होता है। शास्त्र तो बुद्धि को एक विशिष्ट तर्क भर देंगे।
जैसे सोवियत रूस है, चालीस वर्षों से अपने बच्चों को ईश्वर और आत्मा विरोधी पढ़ाए। चालीस वर्षों में सोवियत रूस के बीच करोड़ लोग--ईश्वर और आत्मा नहीं है, ऐसा उनके ज्ञान हो गया। चालीस वर्ष के प्रचार प्रोपेगेंडा ने सोवियत रूस में यह स्थिति पैदा कर दी कि बीस करोड़ लोगों को यह ज्ञान हो गया कि आत्मा और ईश्वर नहीं है। इसको ज्ञान चाहिए? इसको ज्ञान नहीं कह सकते। यह केवल विचार का परिपक्व कर देना हो गया एक पक्ष में।
और आप सोचे हैं, आपकी आत्मा का ज्ञान हो गया है तो आप भी गलती में हैं। आपको मुल्क भी पांच हजार वर्ष से प्रचार कर रहा है कि आत्मा है, आत्मा है, ईश्वर है। उस प्रोपेगेंडा से प्रभावित हैं। एक प्रोपेगेंडा से वे प्रभावित हैं, एक प्रचार उनके चित्त में बैठ गया, एक प्रचार आपके चित्त में बैठा है। दोनों ही प्रचार हैं। प्रचार से एक विचार परिपक्व हो जाता है, अनुभव नहीं होता है। मेरा मानना है, अगर उनको सत्य का अनुभव करना है तो अपना प्रचार छोड़ देना पड़ेगा। आत्म-सत्य का अनुभव करना होगा तो अपना प्रचार छोड़ना पड़ेगा। प्रचार प्रभावित है हमारे ऊपर। सब बाहर के प्रभाव छोड़ देने होंगे। निष्प्रभाव स्थिति में जो स्वयं में भीतर है उसका जागरण होता है। प्रभाव नहीं, क्योंकि प्रभाव तो बाह्य है। प्रभाव का अभाव--उसमें स्वयं को बोध अनुभव होता है।
आत्मज्ञान शास्त्र से नहीं, स्वयं से उत्पन्न होता है। आत्मज्ञान शब्द से नहीं, निशब्द से उत्पन्न होता है। आत्मज्ञान विचार से नहीं निर्विचार से उत्पन्न होता है। आत्मज्ञान विकल्पों के इकट्ठा करने से नहीं निर्विकल्प समाधि में समाधान में उत्पन्न होता है। इसलिए शास्त्र आत्मज्ञता नहीं देता, स्वयं का बोध ही, स्वयं के प्रति जागना ही आत्मज्ञान का संबंध और ज्ञान के लिए नहीं कह रहा हूं। इंजीनियरिंग पढ़नी हो, डाक्टरी पढ़नी हो शास्त्रज्ञान से हो जाएगा। पर स्व के संबंध में कोई सूचना पानी हो तो शास्त्र से हो जाएगी। स्व के संबंध में बोध शास्त्र से नहीं हो सकता। शास्त्र तो विचार को परिपक्व कर देंगे। आत्मज्ञान तो विचार के टूटने से होता है। शास्त्र तो बुद्धि को एक विशिष्ट तर्क भर देंगे।
जैसे सोवियत रूस है, उन्होंने चालीस वर्षों से अपने बच्चे को ईश्वर और आत्मा विरोधी पढ़ाए। चालीस वर्षों में सोवियत रूस के बीच करोड़ लोग--ईश्वर और आत्मा नहीं है, ऐसा उनको ज्ञान हो गया। चालीस वर्ष के प्रचार प्रोपेगेंडा ने सोवियत रूस में यह स्थिति पैदा कर दी कि बीस करोड़ लोगों को यह ज्ञान हो गया कि आत्मा और ईश्वर नहीं है। इसको ज्ञान कहिएगा? इसको ज्ञान नहीं कह सकते। यह केवल विचार का परिपक्व देना हो गया एक पक्ष में।
और आप सोचते हैं, आपकी आत्मा का ज्ञान हो गया है तो आप भी गलती में हैं। आपका मुल्क भी पांच हजार वर्ष से प्रचार कर रहा है कि आत्मा है, आत्मा है, ईश्वर है। उस प्रोपगेंडा से प्रभावित हैं। एक प्रोपेगेंडा से वे प्रभावित हैं, एक प्रचार उनके चित्त में बैठ गया, एक प्रचार आपके चित्त में बैठा है। दोनों ही प्रचार हैं। प्रचार से एक विचार परिपक्व हो जाता है, अनुभव नहीं होता है। मेरा मानना है, अगर उनको सत्य का अनुभव करना है तो अपना प्रचार छोड़ देना पड़ेगा। आत्म-सत्य का अनुभव करना होगा तो अपना प्रचार छोड़ना पड़ेगा। प्रचार प्रभावित है हमारे ऊपर। सब बाहर के प्रभाव छोड़ देने होंगे। निष्प्रभाव स्थिति में जो स्वयं में भीतर है उसका जागरण होता है। प्रभाव नहीं, क्योंकि प्रभावित तो बाह्य है। प्रभाव का अभाव--उसमें स्वयं का बोध अनुभव होता है।
आत्मज्ञान शास्त्र से नहीं, स्वयं से उत्पन्न होता है। आत्मज्ञान शब्द से नहीं, निशब्द से उत्पन्न होता है। आत्मज्ञान विचार से नहीं निर्विचार से उत्पन्न होता है। आत्मज्ञान विकल्पों के इकट्ठा करने से नहीं निर्विकल्प समाधि में समाधान में उत्पन्न होता है। इसलिए शास्त्र आत्मज्ञान नहीं देता, स्वयं का बोध ही, स्वयं के प्रति जागना ही आत्मज्ञान देता है। मैं समझता हूं मेरी बात समझ में आयी होगी।

बहुत सुंदर प्रश्न पूछा है--विचार शून्य होकर स्मरण किसका करें? स्मरण करें तो विचार शून्य कैसे हो सकें?

शून्य होकर किसी का स्मरण नहीं करना है। स्मरण विचार ही है स्मरण तो हम चौबीस घंटे कर रहे हैं किसी न किसी का, इसलिए स्व का विस्मरण हो गया है। या तो हम धन का स्मरण कर रहे हैं, मित्रों का स्मरण कर रहे हैं। अगर मित्र और धन छूटे तो भगवान का स्मरण कर रहे हैं लेकिन हम किसी न किसी के स्मरण से भरे हैं। इसलिए स्व का विस्मरण हो गया है। अगर समस्त पर का स्मरण छूट जाए तो स्व का स्मरण आ जाएगा। स्मरण किसी का करना नहीं है। स्मरण नहीं करना है। दुकान का स्मरण करते थे, उसे छोड़ा तो अरिहंत का स्मरण करने लगे। वह सब स्टीटयूडे हो गया। पहले भी किसी पर अरिहंत का स्मरण कर रहे थे, अब भी पर का स्मरण कर रहे हैं। समस्त पर के स्मरण के शून्य हो जाने पर स्व का जो विस्मरण हो गया है उसका स्मरण हो जाता है। स्मरण करना नहीं होता है, स्मरण हो जाता है। कुछ दोहराना नहीं होता है, कुछ दिख जाता है।
शून्य का अर्थ किसी का स्मरण नहीं, समस्त का विसर्जन है। हमने अपने को खोया नहीं है, हमने केवल अपने को विस्मरण किया है। हम अपने को खो सकते ही नहीं। स्वरूप को खोया नहीं जा सकता, केवल विस्मरण है। और विस्मरण क्यों किया? विस्मरण इसलिए किया कि दूसरी बातों के स्मरण ने चित्त को भर दिया है। मैं दूसरी चीजों से भरा हुआ हूं। दूसरे शब्दों से, विचारों से भरा हुआ हूं। अगर वे सारे शब्द, सब विचार और सारा स्मरण विसर्जित हो जाए तो स्व का बोध उत्पन्न हो जाएगा। स्मरण नहीं करना है, विस्मरण करना है।
श्री रमण से किसी ने पूछा था, आकर कि क्या सीखूं कि मुझे प्रभु उपलब्ध हो जाए? श्री रमण ने कहा, सीखना नहीं है, अनलर्न करना है। सीखना नहीं है, भूलना है। बहुत स्मरण है, बही बाधा है। समस्त स्मरण छूट जाए। स्व-स्मरण जाग्रत हो जाता है।

किन्हीं ने पूछा है, जब बुद्धि असफल हो जाती है तो क्या हम श्रद्धा का सहारा न लें।

श्रद्धा भी बुद्धि है। श्रद्धा बौद्धिक होती है। हम बड़ी मुश्किल में हैं दुनिया में। हम समझते हैं अश्रद्धा बौद्धिक होती है और श्रद्धा बौद्धिक नहीं होती। अश्रद्धा भी बौद्धिक होती है, श्रद्धा भी बौद्धिक होती है। किससे श्रद्धा करते हैं? जो मानता है कि मैं ईश्वर को मानता हूं, वह किस चीज से मान रहा है ईश्वर को? बुद्धि से मान रहा है? जो कहता है, मैं ईश्वर को नहीं मानता, वह किससे नहीं मान रहा है? वह बुद्धि से नहीं मान रहा है। धार्मिक लोगों से एक उलझाव पैदा कर दिया है। वे यह सोचते हैं कि श्रद्धा तो बौद्धिक नहीं है। और अश्रद्धा बौद्धिक है अश्रद्धा भी बौद्धिक है, श्रद्धा भी बौद्धिक है। अगर आपकी बुद्धि पूरी असफल हो जाए, आप भगवान को उपलब्ध हो जाएंगे। बुद्धि ही बाधा है। अगर आपकी बुद्धि बिलकुल असफल हो जाए खोजने में और यह कह दे कि मेरी बुद्धि कुछ भी नहीं खोजती तो न वह बुद्धि श्रद्धा करेगी, न अश्रद्धा क्योंकि श्रद्धा भी खोज है, अश्रद्धा भी खोज है। जो यह कह रहा है, ईश्वर नहीं है उसने भी कुछ खोज लिया। जो यह कह रहा है ईश्वर है, उसने भी कुछ खोज लिया। दोनों की बुद्धि सफल हो गयी।
अगर बुद्धि टोटल फेल्योर हो जाए तो आप सत्य को उपलब्ध हो जाएंगे। अगर बुद्धि यह कह दे कि मैं कुछ भी नहीं खोज पा रही, और बुद्धि पर से आस्था उठ जाए और बुद्धि से आप बिलकुल निराश हो जाएं तो आपके भीतर प्रज्ञा का जागरण हो जाएगा। जब तक बुद्धि को आस्था बनी है--चाहे श्रद्धा में, चाहे अश्रद्धा में तब तक प्रज्ञा का, तब तक इंटयूशन का जागरण नहीं होगा। इंटेलीजेंस बिलकुल असफल हो जाए और आपको आस्था उस तरफ से बिलकुल उठ जाए कि बुद्धि से कुछ भी न होगा तो आपके भीतर एक नया द्वार खुल जाएगा जिसको इंटयूशन कहते हैं, जिसको प्रज्ञा कहते हैं।
बुद्धि की असफलता बड़ा सौभाग्य है। बुद्धि असफल हो जाए, इससे बड़ी और कोई बात नहीं।
एक अंतिम प्रश्न और है--ईश्वर और आत्मा में क्या संबंध है? क्या आत्मा ही परमात्मा है?
मैं कोई उत्तर आपको इस संबंध में दूं तो गलत होगा। क्योंकि मैंने कहा, आत्मा और परमात्मा के संबंध में बाहर से कोई कुछ भी नहीं दे सकता है। अगर मैं खुद ही कोई उत्तर दूं तो मैं अपनी ही बात की गलती में चला जाऊंगा। मैं आपको नहीं कहता कि आत्मा क्या है और परमात्मा क्या है? मैं आपको इतना ही कहता हूं कि कैसे उन्हें जाना जा सकता है। आत्मा क्या है, यह कहना बिलकुल संभव नहीं है। आज तक संभव नहीं हुआ है किसी व्यक्ति ने इस जगत में यह नहीं कहा कि आत्मा क्या है। जो जागे हैं उस सत्य के प्रति उन सबने यही बताया कि हम कैसे जागे हैं; क्या है, नहीं--उस क्या है के प्रति हम कैसे जागे हैं।
तो मैं आपको नहीं कहूंगा कि आत्मा क्या है। मैं तो यही कहूंगा कि कुछ है जो अभी अज्ञात है, और ज्ञात हो सकता है। और ज्ञात होने की विधि यह है कि उसके संबंध में अभी कोई विचार परिपक्व न करें, समस्त, विचार छोड़कर शून्य हों और देखें। और भी एक विचार आपको दे दूं, इससे कोई अर्थ न होगा। वह एक विचार और आपके मस्तिष्क में बैठ जाएगा। मैं तो कह रहा हूं, समस्त विचार छोड़ दें। तो मैं और एक एडीशन नहीं करूंगा। आत्मा के संबंध में सब विचार छोड़ दें, मौन हो जाए, आपको दिखेगा क्या है। और उसी में आपको यह भी दिखेगा कि वही आत्मा समस्त में व्याप्त है या नहीं है। वही आत्मा अगर समस्त में दिखायी पड़े तो अर्थ हुआ, परमात्मा है। जो एक के भीतर व्याप्त है, अगर वही चैतन्य, वैसा ही चैतन्य समग्र के भीतर व्याप्त है तो उस टोटल कांसेसनेस का नाम परमात्मा है। समस्त के भीतर जो व्यस्त चैतन्य है उसका नाम परमात्मा है। समस्त के भीतर व्याप्त जो जड़ है, उसका नाम प्रकृति है। और प्रत्येक व्यक्ति जड़ और प्रकृति, प्रकृति और परमात्मा का जोड़ है। प्रत्येक के भीतर शरीर है और प्रत्येक के भीतर अशरीरी चैतन्य है। मेरे लिए रास्ता है कि मैं शरीर के पार जो अशरीर चैतन्य है उसको अनुभव कर लूं। उसका अनुभव मुझे जगत सत्य का अनुभव दे देगा।
मैं कुछ भी नहीं कहूंगा कि परमात्मा है या नहीं, आत्मा कैसा है। मैं इतना ही कहूंगा कि जो भी है उसे जानने का उपाय है। उपाय बताया जा सकता है, उसे जानने की विधि बतलायी जा सकती है। जैसा मैं निरंतर कहता हूं, अंधे को प्रकाश नहीं बताया जा सकता, आंख सुधारने का उपाय बताया जा सकता है। अंधे का प्रकाश के संबंध में कोई सिद्धांत नहीं समझाया जा सकता, लेकिन आंख के उपचार की व्यवस्था बतायी जा सकती है। आंख सुधर जाए प्रकाश दिखेगा। प्रकाश को देखना पड़ेगा, आंख सुधर सकती है। हमारे भीतर अन्य प्रज्ञा जाग्रत हो सकती है, उससे जो दर्शन होगा, वह जगत सत्य के संबंध में कुछ हमको दिखा देगा। उसके पूर्व कोई दूसरा उसे दिखाने में न समर्थ है। और अगर कोई दावा करता हो तो दावा गलत है।
...और जब हम पूछते हैं कि संन्यासी को क्या मार्ग हो? हमारा मतलब यह है कि हम संन्यासी नहीं हैं। सामान्य घर गृहस्थी में हैं। हम क्या करें? यही मतलब है न?
हम कहीं हो, मार्ग हो सकता है क्योंकि आत्मा प्रतिक्षण उपस्थित तो है मेरे भीतर। मैं बाहर घूम रहा हूं और भीतर जाने का मार्ग नहीं पाता हूं। निरंतर यह सुनने पर कि भीतर जाना है। मेरा सारा घूमना बाहर ही होता है और भीतर जाना नहीं हो पाता। तो असल में कुल इतना समझ लेना है कि बाहर मैं किन वजहों से घूम रहा हूं, कौन से कारण मुझे बाहर घुमा रहे हैं? अगर वे कारण मेरे हाथ छुट जाए तो मैं भीतर पहुंच जाऊंगा।

प्रश्न--निर्विचार कितनी देर तक रहा जाए, क्या चौबीस घंटे तक रहा जाए?

उत्तर--नहीं, चौबीस घंटे की बात नहीं है। अगर दस मिनिट भी परिपूर्ण निर्विचार में जा सकते हैं आप तो चौबीस घंटे धीरे-धीरे आप पाएंगे सब काम करते हुए--पड़े रहने की कोई जरूरत नहीं है--सब काम करते हुए। बात करते हुए, बोलते हुए, भीतर एक शून्य स्थापित बना रहेगा। एक बारगी थोड़ा सा समय तोड़कर चौबीस घंटे में आधा घंटा पंद्रह मिनट। उस पंद्रह मिनट में प्राथमिक रूप से क्रियाएं छोड़कर शून्य में जाना पड़ता है, पहले पहले, और जब एक दफा शून्य का अनुभव हो गया तब तो क्रियाओं के बीच भी शून्य में आ जा सकता है। चौबीस घंटे पड़ा नहीं रहना है, आधा घंटा जरूर पड़ा रहना है शुरुआत में। वह इसलिए कि काम में अगर हम बहुत व्यस्त हैं तो विचार को छोड़ना कठिन होगा शुरू में। विचार छोड़ना ही कठिन है। फिर काम में और व्यस्त थे और काम के कारण ही हममें विचार चलते हैं। तो छोड़ना कठिन होता है।
इसलिए शुरुआत में आधा घंटा निष्क्रिय ध्यान करना है, कोई क्रिया नहीं कर रहे हैं हम, चुपचाप पड़े हुए हैं, सिर्फ विचार को शून्य का भाव कर रहे है, सिर्फ विचार को शून्य में ले जाने का भाव कर रहे हैं। जब आधा घंटा निष्क्रिय ध्यान आ जाए, निष्क्रिय शून्यता आ जाए फिर सक्रिय ध्यान करना चाहिए। फिर क्रिया कर रहे हैं और साथ में चित्त शून्य कर कहे हैं, इसका उपाय भी कर रहे हैं। चल रहे हैं साथ-साथ--चल भी रहे हैं और चित्त शून्य रहे, इसका भी भाव कर रहे हैं। खाना खा रहे हैं, खाना भी खा रहे हैं और चित्त शून्य में है, इसका भी भाव कर रहे है। फिर धीरे-धीरे वह जो निष्क्रियता हमें उपलब्ध हुआ उसका उपयोग सक्रियता में करना होता है। और जब वह सक्रिय रूप से भी पूरा हो जाए तो जानना चाहिए वह स्थित हो गया है। जब वह चौबीस घंटे सतत बना रहे, उठते बैठते, सोते जागते स्थिति बनी रहे तब जानना चाहिए वह सक्रिय ध्यान उपलब्ध हो गया। अगर सक्रिय ध्यान उपलब्ध हो जाए तो जीवन में अदभुत आनंद का अनुभव होगा।

प्रश्न--अस्पष्ट

उत्तर--वह सक्रिय ध्यान का प्रयोग है जागरूकता। समस्त क्रियाओं के प्रति, चित्त की क्रियाओं के प्रति शून्य में भी जाने का माध्यम भी जागरूकता ही है, जैसे आधा घंटा रहेंगे तो आप क्या करेंगे, उस आधा घंटा में चित्त में आपके जो भी विचार चल रहे हों उनके प्रति केवल जागरूक होना है, केवल साक्षी होना है। और क्या करिएगा? साक्षी भर हो जाना है, देखते रहे चुपचाप वह चले। लेकिन हमारे देखने में बाधा आती है, हम तल्लीन हो जाते हैं, साक्षी नहीं रह पाते। हम कब उन्हीं विचारों में एक हो गए उसका पता नहीं रहता है। यह बोध मिट जाता है, मूर्च्छा आ जाती है। एक विचार आया मन में, कोई स्मृति आयी। हम देखने वाले नहीं रह जाते, उसी विचार और उस प्रवाह के हिस्से हो--यह मूर्च्छा है।
और इसके विपरीत जागरूकता है कि हम उसके हिस्से नहीं हो रहे। विचार आ रहा है, हम ऐसे ही देख रहे हैं जैसे हम पर्दे पर फिल्म देखते हैं। हम चुपचाप देख रहे हैं। हम कोई उसके साथ आइडेंटिटी नहीं कर रहे हैं अपने को, अपने को जोड़ नहीं रहे हैं। हम खड़े हैं, और हम देख रहे हैं। थोड़े दिन के अभ्यास से यह भाव होना आसान हो जाएगा। अभी तो एकदम से दिक्कत होती है क्योंकि क्षण भर हम खड़े रहेंगे, फिर हमको होश आएगा कि अरे, हम उसी में संलग्न हो गए! तो निरंतर इसका उपयोग करने से आधा घंटा रोज--कुछ ही दिनों में आधा घंटे में तो स्पष्ट रूप से आप जागरूक रह पाएंगे। और जब आधा घंटे में जागरूक रह पा सकते हैं तो फिर उसका विकसित प्रयोग भी है। धीरे-धीरे क्रियाओं में भी और तब क्रियाओं में भी जागरूकता आ जाए।
गांधी जी के पास शुरू-शुरू में विनोबा जी गए थे। विनोबा जी में अपनी एक बात है कि वह किसी भी काम को परिपूर्ण कुशलता से करन--इनको हरेक बात में वैसा ध्यान रहता है। जो भी काम करना है उसकी पूरी कुशलता पानी है। जब उन्होंने चर्खा कातना शुरू किया तो उन्होंने इतनी अच्छी पोनी बनायी कि गांधी जी दंग रह गए। उन्होंने कहा कि इससे अच्छा पोनी बनाने वाला हमारे पास कोई आदमी नहीं है। फिर उन्होंने खर्चे में भी इतने सुधार किए कि गांधी जी दंग रह गए। फिर वह सूत भी इतना महीन कातने लगे कि गांधी जी ने कहा कि यह सूत कातने का आचार्य है। यह सब होने के बावजूद विनोबा जी ने गांधी से पूछा कि मैंने सबसे अच्छी व्यवस्था कर ली, चर्खा मेरा आपसे बेहतर हो गया है। मेरी पोनी आपसे अच्छी हो गयी है। मेरी कातने में कुशलता आ गयी है लेकिन मेरा अपना धागा टूट क्यों जाता है? और आपका धागा खराब पोनी में भी नहीं टूटता।
गांधी जी ने कहा, उसका संबंध चर्खे से नहीं, उसका संबंध चित्त से है। तुम स्मरण रखना, जब तुम मूर्छित हो जाओगे तभी धागा टूट जाएगा। धागे को चला रहे हो, चित्त कहीं और चला गया, धागा टूट जाएगा। गांधी जी ने कहा, मैं अमूर्छित कातता हूं। जब कात रहा हूं तक चित्त में और कोई विचार ही नहीं है, बस कातने की क्रिया भर के प्रति जागरूकता रह गयी है और कात रहा हूं। न चित्त कुछ सोच रहा है, न विचार कर रहा है, न कोई स्मृति आ रही है, न कोई भविष्य की और कल्पना बन रही है। बस चर्खे के उस कातते धागे कि अतिरिक्त मेरे चित्त में उस समय कुछ भी नहीं है। सिर्फ धागा कत रहा है और मैं हूं। धागा नीचे जा रहा है और मैं हूं, धागा ऊपर जा रहा है और मैं हूं। मैं केवल एक देखने वाला मात्र रह गया हूं और धागे की क्रिया चल रही है। क्रिया है और भीतर जागरूकता है इसलिए धागा नहीं टूटता। गांधी जी इसीलिए बाद मग अपने चर्खे कातने की प्रार्थना कहने लगे, ध्यान कहने लगे। वह कहने लगे मेरा ध्यान तो चर्खा कातने में ही हो जाता है।
अगर हम बुद्ध महावीर को समझें तो हम हैरान हो जाएंगे कि चौबीस घंटे की क्रियाएं ध्यान में उठती हैं। वे जो भी कह रहे हैं वह ध्यान ही होता है। क्रिया कर रहे हैं, चित्त परिपूर्ण शांत है और जागरूक है। हमारा जीवन इस तरह के ध्यान के बिलकुल विपरीत है। हम चौबीस घंटे मूर्च्छा की तलाश कर रहे हैं। चौबीस घंटे हम किसी तरह का इंटाक्सिकेंट खोज रहे हैं--चाहे सिनेमा खोजते हों, चाहे गीत सुनते हों वहां खोजते हों, चाहे ग्रंथ पढ़ते हों, वहां खोजते हों, चाहे मंदिर में जाकर भजन कीर्तन करते हो वहां खोजते हों। हम चौबीस घंटे यह खोज रहे हैं कि किसी तरह मैं अपने को भूल जाऊं। और। सी को सुख भी कहते हैं। जहां-जहां हम अपने को भूल जाते हैं, कहते हैं बड़ा सुख आया।
असल में हमें अपना खुद का स्मरण बहुत दुखद है और हमारा होगा, हमारा एक्जिस्टेंस ही दुख है। हम सब पच्चीस रास्ते से खोज रहे हैं। वह रास्ते फिर चाहे कोई भी हों। जहां-जहां हमको थोड़ी देर का तल्लीनता आ जानी है, हम अपने को भूल जाते हैं। वहीं हमको सुख मालूम होता है। ध्यान तो हमारा बिलकुल विपरीत। ध्यान का कहना है, जहां-जहां हमें तल्लीनता है, वहीं-वहीं हम मूर्छित हैं। किसी में तल्लीन नहीं होता है, समस्त के प्रति जागरूक होना है।

प्रश्न--कार्य में भी तल्लीन नहीं होना है।

उत्तर--अगर आप ठीक से समझियेगा, किसी कार्य में अगर आप पूरे तल्लीन हैं, पूरे तल्लीन हैं--तल्लीनता बिलकुल दूसरी बात है और जागरूकता बिलकुल दूसरी बात है। अगर किसी कार्य में आप पूरे तल्लीन हैं तो आप शेष जगत के प्रति एकदम मूर्छित हो जाएंगे।
एक आदमी के मकान में आग लग गयी है और वह भागा चला जा रहा है कोई उसको रास्ते में नमस्कार करता है, उसे दिखायी नहीं पड़ता है, उसको सुनायी नहीं पड़ता है। असल में वह एक बात में तल्लीन है कि उसके मकान में आग लग गयी है, वह भागा जा रहा है। अभी उसका चित्त सब जगह अनुपस्थित है, वहीं उपस्थित है और जागरूकता बिलकुल दूसरी चीज है। जागरूकता में चित्त सब जगह समानरूपेण उपस्थित है चित्त किसी एक केंद्र पर जागकर सब पर नहीं खो गया है चित्त केवल जाग रहा है, चाहे कोई भी केंद्र हो।
तल्लीनता का हम इसलिए मूल्य मानते हैं जीवन में कि हमारी गैरतल्लीनता कार्य में अकुशलता बन जाती है। जैसे एक आदमी कोई काम कर रहा है और चित्त उसका और कहीं लगा हुआ है। इसको हम कहते हैं, यह तल्लीन नहीं है। असल में यह और कहीं तल्लीन है। अगर हम ठीक से समझें, इसको यह नहीं कहना चाहिए कि तल्लीन नहीं है, असल में यह अन्य किसी जगह पर तल्लीन है। तल्लीन तो यह है, यहां तल्लीन नहीं है। इसलिए हम कहते हैं, काम में तल्लीन हो जाओ। तो एक तो यह आदमी है कि काम कुछ कर रहा है और कही तल्लीन और है। दूसरा आदमी वह है कि वहां वह काम कर रहा है वहीं तल्लीन है। वह और शेष जगह अनुपस्थित है। और तीसरा आदमी वह है जो केवल जागरूक है और काम कर रहा है। वह तल्लीन कहीं भी नहीं है।
ऐसा आदमी जो किसी काम में तल्लीन नहीं है, केवल जागरूक है, स्वयं में तल्लीन होगा। अगर वह कहीं भी तल्लीन नहीं और सिर्फ जागरूक है जगत के प्रति तो स्वयं में तल्लीन होगा। अगर स्वयं में तल्लीनता आनंद है। पर में तल्लीनता सुख है और स्वयं में तल्लीनता आनंद है। पर मग तल्लीनता से हम स्वयं को भूल जाते हैं। और समस्त पर के प्रति तल्लीनता टूट जाए, पर के प्रति केवल अवेयरनेस रह जाए, केवल होश मात्र रह जाए तो उस स्थिति में वह जो तल्लीनता होने की हमारी क्षमता है--क्षमता हमसे जरूर है--वह जो तल्लीन होने की क्षमता है वह कहीं और में तल्लीन अगर हमने नहीं होने दिया तो क्षमता स्वयं में तल्लीन हो जाएगी। वह व्यक्ति स्वस्थ होगा, वह स्वयं में स्थित होगा। वह अपने में खड़ा हो जाएगा। वह कहीं और में डूबा हुआ है, वह स्वयं में डूब जाएगा। ऐसा व्यक्ति समस्त कार्य करेगा क्योंकि वह जागरूक तो है, मूर्छित नहीं है। उसकी क्रियाएं पूर्ण कुशल होंगी क्योंकि वह किसी भी कार्य को परिपूर्ण जागरूकता से करेगा। लेकिन साथ-साथ एक अदभुत बात होगी। प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक क्रिया को करते हुए भी अपने से च्युत नहीं होगा, अपने से डिगेगा नहीं, अपने में खड़ा रहेगा, सुस्थित होगा। ऐसे व्यक्ति को गीता ने स्थित प्रज्ञा कहा है। जिसकी प्रज्ञा बिलकुल स्थित हो गयी है--शब्द बड़ा बढ़िया उन्होंने चुना है। जिसकी प्रज्ञा अपने में बिलकुल ठहर गयी है जिसका ज्ञान बिलकुल अपने में ठहर गया है।
तो ज्ञान हमारे स्वयं में ठहर जाए, उसके लिए शून्यता का और जागरूकता का प्रयोग है। शून्यता और जागरूकता में पहले भेद नहीं है। जागरूकता प्रक्रिया है परिणाम शून्यता है। जागरूकता होने का हम प्रयोग करेंगे, परिणाम में शून्यता उपलब्ध होगी। पहले वह निष्क्रिय होगी, फिर उसे सक्रिय करना होगा। और जब वह अखंड चौबीस घंटे जो जाए तो ऐसा आदमी संन्यास में है। वह कहां रहता है इससे मेरे लिए कोई संबंध नहीं है। वह कैसे रहता है इससे कोई संबंध नहीं है।

प्रश्न--क्या सुबह आधा घंटा करना अच्छा रहना?

उत्तर--बहुत अच्छा है रात्रि को, जब शांति हो जाए, उस वक्त आधा घंटा बैठकर प्रयोग करना; और अगर नहीं तो सुबह अच्छा है। अगर उस वक्त थक जाते हो ज्यादा दिन भर के काम काज के बाद और बैठा रहना या आधा घंटा प्रयोग करना संभव न हो तो फिर सुबह जब उठें तो बिस्तर पर ही बैठ जाए, उस वक्त आधा घंटा करें। या जो आपको ठीक लगे।

प्रश्न--किसी खास स्थिति में बैठें या आराम से?

उत्तर--नहीं नहीं, जितने आराम से बैठे उतना। कोई स्थिति की बात नहीं। आराम भी महत्वपूर्ण है। यानी अन्य किसी चीज को महत्व देने की जरूरत नहीं है, महत्व उसी प्रक्रिया को देने का है जो आपको सहज मालूम हो। लेट कर सुखद मालूम हो लेटकर बैठ सकते हैं। क्यों चाहे आप लेटें और चाहे आप बैठे और चाहे आप खड़े हों, आत्मा एक ही स्थिति में हैं। आपके लेटने, उठने, बैठने से कोई अंतर नहीं पड़ने वाला है। बस वह इतना उपयोग है कि आपकी स्थिति शरीर की ऐसी हो कि वही एक अड़चन का कारण बने। इतना ध्यान रखकर कभी भी उस प्रयोग को करें। थोड़े ही दिन में बहुत अदभुत अनुभव होंगे।

प्रश्न--अगर कोई विचार में दिक्कत आयी तो?

उत्तर--नहीं उसमें कोई दिक्कत नहीं है। प्रयोग ही न करें, वही एक दिक्कत है। मेरे देखने में, जानने में एक ही दिक्कत है कि प्रयोग ही न करें। बाकी कोई दिक्कत नहीं है।

प्रश्न--अगर विचार आए तो उसे हटा दे?

उत्तर--हटाएंगे कैसे आप? हमको यही कठिनाई है। जो इस जगत में सारे लोगों को दिक्कत है, निर्विचार होना समझ में आ जाता है, पर वह हमको भाव यह लगता है कि निर्विचार का मतलब हटा देना। इटाइएगा। कैसे? हटाना नहीं है, जागरूक होना है। विचार आया, उसको देखना, उसके द्रष्टा मात्र रह जाना। आने दे, हटाने का भाव ही छोड़े। हटाना भी उसमें उलझ जाना है। न हटाना है, न कुछ।
बुद्ध के जीवन में एक उल्लेख है, शायद पिछली बार उसकी चर्चा किया था। वह एक जंगल से गुजरते थे। उनका एक भिक्षु आनंद उनके साथ था। वह एक वृक्ष के नीचे रुक गए। उन्हें प्यास लगी और उन्होंने आनंद को कहा कि जाकर पास से पानी ले आ। तो आनंद बोला कि यह मार्ग मेरा परिचित है। आगे एक छोटा सा पहाड़ी नाला है फलांग दो फलांग पर, उस पर से पानी ले आऊं? और या फिर पीछे तीन मील लौटने से नदी है, जहां से हम होकर आए हैं, उससे पानी ले आऊं। बुद्ध ने कहा, उस नाले से ही पानी ले आ। वह नाले पर गया, लेकिन जब वह नाले पर पहुंचा तो उसके आगे ही पांच-सात बैलगाड़ियां उस नाले से निकल गयी है। वह एकदम गंदा और कचरे से भर गया है और सार पत्ते दबे हुए, सड़े हुए ऊपर फैल गए हैं। छोटा सा नाला था, वह पानी पीने योग्य नहीं है, ऐसा मानकर वह वापस लौट आया। फिर बुद्ध से कहा कि वह पानी तो पीने योग्य नहीं है, मैं वापस पीछे जाता हूं। बुद्ध ने कहा, इस दोपहरी में पीछे मत जाओ तुम उसी पानी को ले आओ। बुद्ध की बात भी टाल नहीं सका, फिर वहीं गया लेकिन उसका फिर वहां साहस नहीं हुआ कि इस पानी को मैं कैसे ले जाऊं और उनके लिए पीने को पानी कैसे दूं? फिर वापस लौट। मुश्किल यह थी, बीच में वह उसी रास्ते में था, वह रुके थे। वह फिर वापस लौटा, उसने कहा, क्षमा करें, पानी लाने का साहस मेरा नहीं है।
बुद्ध ने कहा, तू मान उसी पानी को ले आ। वह बड़ी अड़चन में पड़ गया। वह जानता था, फिर उसे वापस लौटने का बहुत आग्रह किया। बुद्ध ने कहा, लाना हो तो उसी को ला, अन्यथा मत ला। उसे मजबूर होकर वहीं जाना पड़ा। वहां जाकर वह देखकर हैरान हुआ। वह तो पत्ते बह गए थे और कचरा नीचे बैठ गया था वह पानी को भर लाया, वह बड़ा हैरान हुआ। उसने जाकर बुद्ध को कहा कि बड़ा अदभुत अनुभव हुआ। वह पत्ते तो सब बह गए, कचरा नीचे बैठ गया, पानी तो बिलकुल निर्मल हो गया। बुद्ध ने कहा, मन को शांत करने का सूत्र भी यही है। तुम किनारे बैठ जाओ और जो विचार बहते हों बहने दो। जो विचार बैठ जाए बैठ जाने दो। तुम बिलकुल किनारे बैठे रहो, तुम छेड़छाड़ मत करो। और अगर तुम किनारे बैठे देख सकते हो तो तुम थोड़ी देर में पाओगे कि सब पत्ते बह गए और सब कचरा नीचे बैठ गया और अगर तुम कूद पड़े धारा में उसको शांत करने के लिए, फिर वह शांत होने को नहीं और दबे पत्ते उघड़ आएंगे शांत होना मुश्किल हो जाएगा।
चित्त के प्रति तटस्थ जागरूक होने का प्रयोग भर सार्थक है। कुछ करना नहीं है लेकिन हमारे सारे उपदेश सुनकर हमको ऐसा लगता है कि कुछ करना है। करना भ्रामक हो जाता है। कुछ करना नहीं है। और करने का भ्रम ही हमारा असली भ्रम है। असल में हम केवल द्रष्टा मात्र हैं, इसे हम केवल देख सकते हैं। और इसे हम केवल देखने का उपयोग कर लें थोड़ा सा तो हम अचानक पाएंगे कि चित्त तो गया, बह गया। पर वह हम हटाने में लग जाते हैं। हटाने में फिर कुछ रास्ता नहीं बनता। हटाने में आप उलझ जाते हैं। और जितने आप जोर से हाथ मारते हैं, उतने जोर से उलझ जाते हैं। और तब आप फिर पच्चीस एक्सप्लेनेशंस खोज लेते हैं कि अपने पुराने पाप कर्म होंगे, फलां होगा ढिकां होगा, इससे नहीं हो रहा हैं। ये सब पच्चीस बातें खोज लेते हैं। तो यह सब उस ना समझी को जा आप कर रहे हैं, छिपाने के उपाय से ज्यादा नहीं हैं। यह कोई एक्सप्लेनेशन माने के नहीं हैं। जैसे एक घड़ी को सुधारना न जानता हो और कोई आदमी सुधारने बैठ जाए तो सोचने लगे कि पुराने कर्मों का फल है। घड़ी तो बिगड़ी चली जाती है। अभी कर्मों का उदय नहीं कि घड़ी ठीक हो। और कुल बात इतनी है कि वह टेकनीक को नहीं समझ रहा है कि घड़ी ठीक हो जाएं।
ध्यान बिलकुल टेकनीक की बात है। कुछ करने की बात नहीं है समझ लेना की बात है देखें थोड़े दिन प्रयोग करके। अधैर्य हमारा इतना ज्यादा है कि हम प्रयोग नहीं कर पते। तो थोड़े रखें, बहुत अदभुत होगा।

प्रश्न--प्राणायाम क्या इसके लिए कुछ सहायक हो सकता है?

उत्तर--नहीं, मेरे मानने में तो कुछ सहायक नहीं है और इसीलिए मैं हरेक चीज को इनकार कर देता हूं कि वह सहारे अगर मैं थोड़े भी मैं कहूं तो आप थोड़े ही दिन में पाएंगे कि यह तो गौण हो गया है, वह सहार की ही आप फिकर कर रहे हैं और वही काम कर रहा है। कोई सहायक नहीं है। यानी निपट मैं, एक छोटी सी बात, बात ही आपकी दृष्टि में रखे रहना चाहता हूं। कोई भी दूसरी चीज को बीच में नहीं आने देना है। कोई सहायक नहीं है। और या तो फिर जीवन का हर काम सहायक है--खाने, पीने, सोने उठने, बैठने से लेकर सब। प्राणायाम स्वस्थ के लिए सहायक होता है। स्वास्थ्य के लिए उपयोगी होगा। पर वह भी बहुत सोच समझ कर करने जैसा है, नहीं तो अस्वास्थ्य लाने में उपयोगी हो जाता है।
जीवन और शरीर के बाबत तो मेरी धारणा यह है कि वह बहुत सहज, निसर्ग, जीने देना चाहिए। जितना सहज उसको निर्सगतः जीने दें जितना उसमें कुछ उल्टा सीधा न करें उतना अच्छा है। प्राणायाम का उतना मूल्य नहीं है जितना स्वच्छ वायु का शरीर में पहुंच जाने का मूल्य है। वह कभी घंटे भर के लिए खाली स्वच्छ स्थान पर बैठकर धीमे से गहरी श्वास ले लें तो शरीर को लाभ पहुंचाएगा। और श्वास की जो रिदम है वह मन को शांत करने मग सहयोगी हो जाती है। असल में सब रिदम शांत लाती है किसी तरह की रिदम हो, किसी तरह की गतिबद्धता हो वह शांति लाती है।
वहां बर्मा में या कुछ और मुल्कों में वह ध्यान के लिए अनिवार्य मानते हैं, श्वास में रिदम पैदा करना। आधा घंटे को बैठ जाए और श्वास के आने जाने को देखते रहे। श्वास भीतर गई तो स्मरणपूर्वक भीतर जाने दें, बाहर गयी तो स्मरण पूर्वक बाहर जाने दें। फिर भीतर गयी तो स्मरण पूर्वक। वह जागरूक का प्रयोग करें। तो उसमें दोहरे फायदे होंगे। श्वास थोड़ी देर में रिदम पकड़ लेगी। रिदम का परिणाम स्वाथ्य पर अच्छा होगा। और दूसरा, वह जो मैं जागरूकता कह रहा हूं वह श्वास के मध्यम से जागरूकता विकसित होने लगेगी। और वह जागरूकता जो श्वास के संबंध में विकसित हो गए, उसी जागरूकता का प्रयाग मन के संबंध में, विचार के संबंध में किया जा सकता है।
और सच तो यह है कि अगर आप श्वास के प्रति भी जागरूक हो जाए तो भी चित्त में विचार शून्य हो जाएंगे। श्वास और विचार बंधे हुए हैं। अगर पांच मिनट बैठकर आप श्वास को देखते रहे--श्वास प्रश्वास को, आप अचानक पाएंगे, मन शून्य हो गया आखिर है किसी भी चीज के प्रति जागरूकता का प्रयोग करें तो चित्त शून्य हो जाएगा। अगर एक हाथ को यहां तक ले जाएं और होश से देखते रहे तो आप पाएंगे कि चित्त शून्य हो गया। अगर आप रास्ते पर चलें और कदम-कदम पर जागरूकता रखें, बायां पैर उठा और नीचे गया, दायां पैर उठा और नीचे गया पूरा होश रखें तो आप एक पांच मिनट बाद पाएंगे कि आप चल रहे हैं और चित्त शून्य हो गया है। जहां भी जागरूकता का प्रयोग कर लें, वह चित्त शून्य होगा। मूर्च्छा चित्त है जागरूकता चित्त शून्यता है।
सहयोगी किसी बात को न मानें। नहीं तो धीरे-धीरे धर्म के अदभुत परिणाम हो गए हैं जगत में, वे सहयोगी बातें बताने की वजह से हो गए हैं। और तब धीरे-धीरे ऐसा होता है कि वह सहयोगी बातें हमारे लिए इतनी महत्वपूर्ण हो जाती है। तो मैंने बिलकुल नियमित रूप से उनकी बात करना बंद कर दी है। थोड़ा बहुत सहयोग जरूर मिल सकता है। बाकी मैं उसकी बात बंद किया है। नहीं तो लोग मुझसे पूछते हैं, आहार कौन सा सहयोगी होगा? कपड़े कौन से सहयोगी होंगे? जरूर कुछ सहयोग हो सकता है। लेकिन अगर उनकी बातें इतनी की गयी है कि कुछ लोग जो जिंदगी भर आहार ठीक करने में व्यय कर देते हैं। कुछ लोग हैं जो जिंदगी में कपड़े कैसे पहनना है, इसमें व्यय कर देते हैं।
जब जैसे जैन हैं, इन्होंने चुकता पच्चीस सौ वर्ष आहार ठीक करने में व्यय किए। चुकता ढ़ाई हजार वर्ष का इनका इतिहास आहार शुद्धि का इतिहास है। उसने आत्मा-वात्मा का कोई संबंध नहीं रहा है। वह एक बहुत गौ बिंदु था जिससे थोड़ा सहयोग मिल कसता था। लेकिन वह इतना ज्यादा आउट आफ प्रपोर्शन महत्वपूर्ण हो गया कि वह किसने बनाया और कैसे बनाया और किसने छुआ और किसने नहीं छुआ, वह इतनी महत्वपूर्ण बात हो गयी कि हमारा साधु करीब-करीब अपने जीवन का अधिकतम हिस्सा खाने की शोध में व्यय करता है, आत्मा की शोध में नहीं। वह सारे अनुपात से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया। वैसा ही प्राणायाम और दूसरी चीजें--जो कुछ संप्रदायों में अतिशय महत्वपूर्ण हो गयी और तब यह हो गया कि कुछ साधु बेचारे दिन रात व्यायाम करने में व्यर्थ करते हैं, आत्मा की शोध में नहीं। और हमारा चित्त इतना ज्यादा डिसेप्टिव है, इतना ज्यादा वंचक है कि अगर उसे कोई भी चीज पकड़ा दी जाए तो वह मूल पर जाने की बजाए--वह तो जाना नहीं चाहता, मूल पर जाने में उसकी मृत्यु है। जो हमारा माइंड है, वह पूरा बचना चाहता है कि कहीं ध्यान में न चला जाए। तो कोई भी बचने का उसको अगर थोड़ा रास्ता मिल जाए, मूल से हटने का, तो तत्काल उसको पकड़ लेता है। सोचता है, पहले इसको पूरा कर लूं तब तो असली बात करेंगे। और जब यह पूरी कभी होंगी नहीं, असली बात होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठेगा।
इसलिए मैंने सख्ती से यह तय किया कि कोई सहयोगी नहीं। बात इतनी ही करनी तो इतनी ही बात करनी है। इतना जरूर मेरा अनुभव कि अगर इसका प्रयोग जारी किया तो जो चीजें सहयोगी हैं, धीरे-धीरे वे अपने आप आती जाएंगी। अगर इसका ठीक से प्रयोग किया तो थोड़े दिन में आपको पता चलेगा कि कि श्वास लेने का आपका ढंग बदल गया। थोड़े दिन में आपको पता चलेगा, आपका सोने का ढंग बदल गया। थोड़े दिन में आपको पता चलेगा, आपके भोजन का ढंग बदल गया। यह आपको अचानक पता चलेगा क्योंकि चित्त जैसे शांत होगा चित्त की अशांति में जो जो चीजें संबंधित थीं, वे विलीन होने लगी।
जैसे हमारे चित्त की अशांति से हमारा आहार संबंधित है। जितना चित्त अशांति है उतना मादक, उत्तेजक आहार प्रिय होता है। हम सोचते हैं, यह प्रिय होना कोई गलती की बात नहीं है। इसमें चित्त की अशांति के साथ मादक और उत्तेजक आहार प्रिय होगा। और अगर चित्त को बिना बदले कोई आहार को बदलेगा तो बड़ा त्याग मालूम पड़ेगा कि भारी कष्ट कर रहे हैं, बड़ा त्याग कर रहे हैं। लेकिन अगर चित्त शांत हो जाए, आहार में एकदम परिवर्तन हो जाए, अपने से परिवर्तन हो जाएगा।
एक महिला मेरे पास, एक बंगाली महिला अभी आती रही, अविवाहित है। वह जो उनकी मां ने आकर बताया कि हमारे बंगालियों में अविवाहित लड़की मांस मछली छोड़े तो अपशगुन समझते हैं। असल में विधवा मांस मछली छोड़ देती हैं इसलिए। उन्होंने आकर मुझसे कहा कि इसने मांस मछली खाना छोड़ दिया तो हमको तो बड़ी परेशानी हो गयी, समाज में बड़ी बदनामी हो गयी। तो आपसे हम प्रार्थना करने आए हैं कि इसको कह दें कि यह खाए। तो मैंने उससे कहा, मैंने तो कभी उसको रोका नहीं कि वह न खाए। इसलिए मैं कोई कहने वाला नहीं हूं कि वह खाए। वह ध्यान करने आती है। ध्यान का यह परिणाम होगा। उस लड़की को मैंने पूछा कि तुमने यह बंद क्या किया? उसने कहा कि बंद करने का कोई सवाल नहीं है। मुझे आश्चर्य है कि मैं इतने दिनों तक खायी कैसे? जैसे-जैसे मन शांत हुआ है वह मुझे बिलकुल फिजूल सी लगने लगी। इसको कैसे खाऊं, यह सवाल है। इसको खाना नहीं खाने का तो प्रश्न ही नहीं है। सभी भीड़ को घटनाएं घटी जिन लोगों ने ध्यान का थोड़ा सा प्रयोग किया उनके आचरण में व्यवहार में, पच्चीसों बातों में अंतर पड़ना शुरू हो गया। हमारी श्वास जो है, चित्त की अशांति के कारण बार-बार गैर रिदमिक हो जाती है। अनुभव किया होगा, क्रोध में श्वास रिदम टूट जाएगा। तीव्र कामवासना में श्वास का रिदम टूट जाएगा। किसी भी उत्तेजना में श्वास का रिदम टूट जाएगा। श्वास कंपती हुई, झटके से लंबी और छोटी चलने लगेगी। उसमें जो गतिबद्धता है लयबद्धता है वह विलीन हो जाएगी। वह डिसहार्मोंनियस हो जाएगी। तो चौबीस घंटे में हम इतनी बार उत्तेजित होते हैं कि श्वास कई बार डिसहार्मोनियम होकर शरीर को नुकसान पहुंचाती है। उसके प्रतिकार के रूप में प्राणायाम है कि श्वास को हम लयबद्धता दे दें।
नहीं, इस बीमारी के लिए वह प्रतिकार है। चित्त शांत हो जाए तो यह बीमारी नहीं होती। उसके प्रणाम करने का कोई सवाल नहीं उठता। बीमार होते हैं इसलिए स्वास्थ्य के लिए औषधि लेनी पड़ती है और अगर हम स्वस्थ हो जाएं तो औषधि व्यर्थ हो जाती है। मूल बात को ही पकड़ें ध्यान में और उसके ही प्रयोग को जारी रखें। धीरे-धीरे जो गौण हैं वे अपने आप बीतने लगेंगे और जो सहयोगी हैं वे दिखायी पड़ने लगेंगे, और उनका काम शुरू हो जाएगा। और जो सहयोगी हों उन पर पहले चिंतन करेगा, वह उन पर नहीं पहुंच पाएगा।
तो मेरी पूरी एंफेसिस जो है, जानकर ही आपको कोई और सहयोग की बात नहीं करता। लेकिन वह उतना बड़ा प्रपंच है सहयोग का कि वह उसके धुएं में मूल बात कहां खो जाएगी, पता नहीं। इतने ग्रंथ हैं, मैं तो हैरान हो गया हूं। जैन दर्शन पर सैकड़ों अभी किताबें लिखी गयी हैं, उनमें ध्यान पर एक अध्याय भी है? मैं हैरान हो गया कि दर्शन और धर्म पर लिखी गयी किताबें हैं, उनमें ध्यान का एक अध्याय नहीं। ऐसी किताबें मैंने देखीं कि हजार पृष्ठ की किताब है और ध्यान पर दो पन्ने कहीं एक जगह लिखे हुए हैं। बाकी ये सब सहायक हैं जिनका इतना विस्तार हो गया है, जिन पर इतना ज्यादा वाद-विवाद, इतना उपद्रव है और वह एक मौलिक बात है।

प्रश्न--ध्यान तपश्चर्या में कितनी सहयोगी है?

उत्तर--ध्यान ही तपश्चर्या है। आज मैंने सुबह या कल रात चर्चा भी किया। तपश्चर्या का हमको जो अर्थ पकड़ गया है, हमको मोटे अर्थ बहुत जल्दी पकड़े जाते हैं। जैसे, अभी मैं वहां गया, वहां इस पर बात हो रही थी--महावीर के उपवास, महावीर की तपश्चर्या महावीर ने साढ़े बारह वर्ष तक तपश्चर्या की। हमको लगता है तपश्चर्या की और मुझको लगता है तपश्चर्या हुई। और की और हुई में मैं बहुत फर्क कर लेता हूं।
एक साधु मेरे पास थे। वह मुझसे कहे कि मैं बड़े उपवास करता हूं। मैंने कहा, तुम जब तक उपवास करते हो, तब तक तपश्चर्या नहीं है। जब उपवास हो तब वह तपश्चर्या है। बोले, उपवास कैसे होगा? हम नहीं करेंगे तो होगा कैसे? हम करेंगे तभी तो होगा! मैंने उनसे कहा कि तुम ध्यान का थोड़ा प्रयोग करो तो अचानक कभी-कभी पाओगे कि उपवास हो गया। फिर बाद में, छह महीने बाद में वे मेरे पास गाए--हिंदू साधु थे--और उन्होंने कहा, जिंदगी मग पहली दफा एक उपवास हुआ। मैं सुबह पांच बजे उठकर ध्यान करने बैठा, उस वक्त अंधेरा था। जब मैंने वापस आंख खोली तो मैं समझा, अभी सुबह नहीं हुआ क्या? पूछने पर पता चला, रात हो गयी है। पूरा दिन बीत गया, मुझे तो समय का पता है, न किसी और बात का। उस दिन भोजन नहीं हुआ। उन्होंने मुझे आकर कहा, एक उपवास मेरा हुआ।
इसको मैं उपवास कहता हूं। हम जो करते हैं, वह अनाहार है, उपवास नहीं है। वह भोजन न करना है। यह उपवास है। उपवास का अर्थ है, उसके निकट वास। वह आत्मा के निकट वास है। उस वास में भोजन का स्मरण नहीं आएगा। तो, वह तो हुआ उपवास। और एक है अनाहार कि तुम खाना न खाएं। उसमें भोजन भोजन का ही स्मरण आएगा। वह तपश्चर्या की हुई, यह तपश्चर्या अपने से हुई। महावीर ने तपश्चर्या की नहीं, यह बात ही भ्रांत है। या कोई कभी तपश्चर्या करता है? सिर्फ अज्ञानी तपश्चर्या करते हैं। ज्ञानियों से तपश्चर्या होती है।
होने का अर्थ यह है कि उनका जीवन, उनकी पूरी चेतना कहीं ऐसी जगह लगी हुई है जहां बहुत सी बातों का हमें खयाल आता है, वह उन्हें नहीं आता। हम सोचते हैं कि वे त्याग कर रहे हैं और उनके कई बात यह है कि उनको स्मरण भी नहीं आ रहा। हम सोचते हैं उन्होंने बड़ी बहुमूल्य चीजें छोड़ दी। हम सोचते हैं, उन्होंने बड़ा कष्ट सहा। और वह हमारा मूल्यांकन में, भेद असल मग वैल्युएशन में हमारे और उनके अलग हैं। जिस चीज को महावीर सार्थक समझते हैं, हम उसे व्यर्थ समझते हैं। जिसको वे व्यर्थ समझते हैं, हम सार्थक सकते हैं। तो तब हम उनको हमारी दृष्टि से सार्थक को छोड़ते देखते हैं तो हम सोचते हैं, कितना कष्ट झेल रहे हैं, कितनी तपश्चर्या कर रहे हैं! और उनकी कई स्थिति बिलकुल दूसरी है। जो व्यर्थ है वह छूटता चला जा रहा है।
महावीर ने घर छोड़ा--हां वह बिलकुल सहज छूट रहा है। तपश्चर्या करनी नहीं है, केवल ज्ञान को जगाना है। जो जो व्यर्थ है वह छूटता चला जाएगा। और दूसरों को देखेगा कि आप तपश्चर्या कर रहे हैं और आपका दिखेगा कि आप निरंतर ज्यादा आनंद को उपलब्ध होते चले जा हरे हैं। दूसरों को दिखेगा, बड़ा कष्ट सह रहे हैं और आपको दिखेगा हम तो बड़े आनंद को उपलब्ध होते चले जा रहे हैं। धीरे-धीरे आपको दिखेगा, मैं तो आनंद को उपलब्ध हो रहा हूं, दूसरे लोग कष्ट भोग रहे हैं। और दूसरों को यही दिखेगा कि आप कष्ट उठा रहे हैं और वे आपके पैर छूने आएंगे और नमस्कार करने आएंगे कि आप बड़ा भारी कार्य कर रहे हैं। तपश्चर्या दूसरों को दिखाती है, स्वयं को केवल आनंद है। और अगर स्वयं को तपश्चर्या दिखती है तो अज्ञान है, और कुछ नहीं है। वह पागलपन कर रहा है और अगर उसको स्वयं को दिखता है कि मैं बड़ा तप कर रहा हूं और बड़ी तपश्चर्या और बड़ी कठिनाई तो वह बिलकुल पागल है, वह नाहक परेशान हो रहा है। और उसमें केवल उसका दंभ विकसित होगा, आत्मज्ञान उपलब्ध नहीं होगा।
जो तपश्चर्या करता है यह दंभी है, वह अहंकारी है और वह अहंकार का पोषण करता है। जब वह सुनता है, उसने तीस उपवास किए और चारों तरफ लोग फूल मालाएं लिए खड़े हैं। तो जो सुख मिल रहा है वह इन फूलमालाओं का और इन लोगों का आदर का और सम्मान का है, तपस्वी कहलाने का है। और जिसमें सच तपश्चर्या हुई हो उसे पता भी नहीं पड़ता है। आप उसका सम्मान करने जाएं तो उसे सिर्फ हैरानी भर होती है कि आपको क्या हो गया है। उसे तपश्चर्या का बोध नहीं होता है।
तो मेरी दृष्टि में तो एक ही तपश्चर्या है और वह तपश्चर्या यह है कि जागरूकता को पैदा करें, मूर्च्छा को तोड़ें, चित्त की विकार विकल्प की स्थिति को विसर्जित करें, निर्विकल्प समाधि को उत्पन्न करें। और उसे परिणाम में जो जो परिवर्तन होंगे वे दूसरों को दिखायी पड़ेंगे कि तपश्चर्या हो रही है। अब जैसे महावीर का उल्लेख है। महावीर को लोगों ने मारा, ठोंका, पीटा, उनको कष्ट दिए। हमको लगता है, यह आदमी कितना सहा है, कितना तपस्वी था,। लोग मार रहे हैं। और वह सह रहे हैं। हमको ऐसा लगता है क्योंकि महावीर की जगह हम अपने को रखकर सोचते हैं। अगर लोग हमको मार रहे हैं और हमको उन्हें न मारना पड़े तो कितना कष्ट होगा, कितनी तपश्चर्या होगी। और जहां तक महावीर का संबंध है, उन्हें केवल यही हैरानी हो रही होगी कि इन विचारों को कैसी पीड़ा है कि ये मारने को उतारू हो गए हैं।
एक साधु थे उत्तर प्रदेश में। उनको अनेक लोग मानते थे, बड़े-बड़े राजा महाराजा उनकी सेवा में जाते थे। किसी राजा ने बहुत से स्वर्ण-पात्र उनको भेंट कर दिए थे। देवहरवा बाबा उनका नाम था पूरा का पूरा एक बड़ा बोरा भर कर भेज दिया। तो वहां तो झोपड़े में सांकल भी लगाने को नहीं थी। रात को एक चोर उसको उठाकर ले गया। तो देवहरवा बाबा नंगे पड़े रहते थे उस झोपड़े में। उन्होंने अंधेरे में देखा कि कोई उठाने आया है तो उनको आंसू आ गए कि बेचारा इतनी रात आया, जरूर तकलीफ में होगा। वह पहली बात उनको जो खयाल में आयी, इतनी रात आया। अरे दिन में आ जाता! जरूर ज्यादा तकलीफ में होगा, नहीं तो कौन इतनी रात, ठंडी रात और इधर आना इसकी परेशानी, इस पहाड़ी को पार करना, पहाड़ी में आना! अंधेरे में डर भी लगा होगा, रास्ते में दिक्कत भी हो सकती है और यह बेचारा आया तो जरूर तकलीफ में है। वह बोरा था वजनी और वह आदमी था कमजोर। वह उसको उठाता था, पूरा उठता नहीं था। मोह था घना, छोड़ सकता था नहीं। तो उनको भारी कष्ट लगा कि यह बेचारा है कमजोर और बोरा है वजनी। उस राजा को मैं पहले ही कहा था कि थोड़े ही भेंट कर, इतना क्या करेगा। आधे बोरे भेंट किए होते तो यह उसे बड़ी आसानी से ले जाता। और इस मूर्ख को यह भी पता नहीं कि अपनी ताकत से ज्यादा काम नहीं करना। दुबारा आ जाना इतना क्या जल्दी है! उनको यह भी लगा कि इसको मैं उठाकर सहारा दे दूं। मगर यह कहीं चौंक न जाए, भाग न जाए इसलिए दिक्कत है। और किसी के काम में आपने को बाधा नहीं बनाना है, यह भी खयाल था। फिर भर जब उनसे नहीं सहा गया तो वे उठे, वह उसको पीछे से उठा रहा था। ऊपर से उन्होंने हाथ लगाया। उसको दरवाजे के बाहर पहुंचाया। बाहर जाकर कहा, भैया इससे आगे मैं नहीं जा सकता। अब तू ले जा लेकिन एक बात भर स्मरण रख बोरा गिर पड़ा, जब उसने आवाज सुनी। अब वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। उसने कहा, एक बात भर स्मरण रख। हमेशा अपनी ताकत के हिसाब से काम करना। बोरा बड़ा है, ताकत तेरी कम है। थोड़ा दूध मलाई खा, ताकतवर बन, तब बड़े बोरे उठाया कर। अभी छोटे बारे उठाना। वह तो पैर पर गिर पड़ा वह तो बोरा चोरी नहीं गया। वह तो उनका भक्त हो गया। लेकिन वह घटना बड़ी महत्वपूर्ण है। उस आदमी को कैसा दिखेगा, उसका मूल्यांकन भिन्न है। जिन लोगों ने महावीर को जाकर मारा होगा उनको क्या दिखा होगा? उनको दिखा होगा, ये बड़े उद्विग्न हैं, बड़े परेशान हैं, नहीं तो मुझे काहे को मारने आते। परेशानी है इसके भीतर कुछ, जो इनके मारने में प्रकट हो रही है। सिर्फ इस वजह से दया और करुणा भर आयी होगी। इस वजह से कोई दूसरा प्रश्न नहीं उठता। हमको लगता है, उन्होंने बड़ा कष्ट सहा। उनको लगा होगा, यह जो मारने आए, बड़े कष्ट में हैं।
यह तप का, कष्ट का और पीड़ा का और सहने का ये सारे शब्द.गलत है। मनुष्य को जो आनंदपूर्ण है उसके अनुसार व्यवहार करता है। हमको जो आनंदपूर्ण है हम उसको मानकर व्यवहार करते हैं। उनको जो आनंदपूर्ण है उसको मानकर व्यवहार करते हैं। और दोनों के आनंद के दृष्टि में जमीन आसमान का अंतर है। इसलिए जो हमको तप है, वह उनको आनंद है। और जो हमारे आनंद है, उनके लिए अज्ञान है। वह हम पर दया से भरे हुए हैं कि हम मूर्ख हैं, हम किन चीजों में अपने समय को खो रहे हैं। और हम उनके ऊपर श्रद्धा से भरे हुए है कि कितने महान हैं कि बड़ा त्याग कर रहे हैं।

प्रश्न--वह तो समझता है कि मैं तपश्चर्या कर रहा हूं, बड़ा अच्छा कर रहा हूं।

उत्तर--वह भी अगर थोड़ी सी समझ का उपयोग करे तो उसे दिखायी पड़ेगा कि तपश्चर्या से अहंकार मजबूत हो रहा है या ज्ञान उत्पन्न हो रहा है। इसमें देर न लगेगी। और उसके समस्त व्यवहार में वह दिख जाएगा। साधु जितने अहंकारी हैं इस जगत में--मुश्किल से एकाध प्रतिशत को छोड़कर जो वस्तुतः साधु हैं--उतना दूसरा आदमी नहीं मिलेगा। वह आसपास के लोगों को भी दिखता है, उनको भी दिखाता है कि वह मौजूद है। लेकिन पच्चीस व्याख्याएं करके उनके समझाएंगे।
मैं अभी एक इलाहाबाद में एक बड़ा यज्ञ था, वहां गया। वहां उन्होंने संप्रदायों के साधुओं को बुलाया हुआ था। उन्होंने इतना बड़ा मंच बनाया था कि उस पर सौ साधु इकट्ठे बैठे सकें। उन्होंने लाख चेष्टा की, हाथ पैर जोड़े कि सारे साधु एक दफा बैठ जाएं मंच पर। दो साधु एक साथ बैठने को राजी नहीं हुए। क्योंकि कोई किसी से नीचे नहीं बैठ सकता था। दो शंकराचार्य मौजूद थे लेकिन दोनों बैठने को राजी नहीं हुए क्योंकि दोनों का सिंहासन एक दूसरे से ऊंचा होना चाहिए। आखिर उस सौ आदमियों के मंच पर सौ बोलने के मंच पर एक-एक आदमी को भाषण करवाना पड़ा। बाकी लोग सुन भी नहीं सके बैठकर। वह अपने शिविर में--बोला आदमी, अपने शिविर चला गया। दूसरा साधु बोला, उसे उसके शिविर में पहुंचा दिया। को दो साधु मंच पर इकट्ठे होकर नहीं बैठते हैं। हैरानी होगी कि मामला क्या है? अभी पूरे मुल्क में यह दिक्कत है। दो साधु मिल जाएं तो कौन किसको पहले नमस्कार करे, यह दिक्कत है। इसलिए दो साधु मिलना नहीं चाहते कि पहले कौन किसको नमस्कार करे? दो साधु इसलिए नहीं मिलना चाहते कि कौन किससे मिल जाए? आप उनसे मिलने गए थे या वह आपसे मिलने आए थे, यह बड़ा महत्वपूर्ण है।
हमें दिखता नहीं, अन्यथा जो तथाकथित साधु हैं, इस तरह वे कामों में लगा हुआ, वह इतने दंभ का पोषण करता है कि उसको कोई हिसाब नहीं है।

प्रश्न--अनंतकाल के बाद आप भी इस अवस्था में अभी आए--यह अवस्था कैसे आयी।

उत्तर--यह सब बहुत महत्वपूर्ण नहीं है विचार करने के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है कि हम कैसे आया और क्या हुआ! महत्वपूर्ण यह जानना है कि यह कैसे आ सकता है। दो ही बातें महत्वपूर्ण हैं। एक तो हम मौजूद हैं और दुख से भरे हैं, अज्ञान से भरे हैं। एक बात तो यह विचारणीय है कि हम दुख से, अज्ञान से भरे हैं। कितने जन्मों से आए या नहीं, यह सब तो हाइपोथीसिस हैं, हमारी मान्यताएं हैं। इनमें पच्चीस ढंग की मान्यताएं हैं। कोई मानता होगा। कि नहीं आए, कोई मानता है पहले ही जन्म है, कोई कहता है पचास जन्म है। इनसे कोई लेना देना नहीं है। महत्वपूर्ण मुद्दे के तथ्य इतने हैं, जिनमें कुछ सोचना नहीं पड़ेगा जो कि मौजूद हैं, जिनमें हमें कोई  चीज परिकल्पना नहीं करनी पड़ेगी जो कि वर्तमान है! वर्तमान इतनी बात है कि मैं और आप मौजूद है और दुख से भरे हैं और जिस स्थिति में है उससे तृप्त नहीं है। यह एक तथ्य ऐसा है, जिसे किसी धार्मिक को विधि से सोचने की जरूरत नहीं है। वह वास्तविक तथ्य है। बाकी तो सब विस्तार है सोचने का। यह वास्तविक तथ्य है कि मैं दुख से भरा हुआ हूं। यह भी वास्तविक तथ्य है कि इस दुख से मैं सहमत नहीं हूं, ऊपर उठना कैसे हो सकता है? बाकी बातें मौन है और बाकी बातों का बहुत मूल्य नहीं है क्योंकि आप क्या करिएगा सोचकर भी? इससे क्या फर्क पड़ता है? यह थोड़ी सी बातें महत्वपूर्ण हैं। यानी हमारे बहुत चिंतन में से हमें उतनी थोड़ी सी बातें लेनी चाहिए। जो कि वस्तुतः महत्वपूर्ण हैं।

प्रश्न--तब कोई पकड़ भी नहीं थी। कोई पकड़ेगा और छह महीने बाद भी पकड़ेगा। कोई अभी शुरुआत करेगा, किसी की शुरुआत कल से हो जाएगी, किसी-किसी की नहीं भी होगी, इसके बारे में आपका क्या कहना है?

उत्तर--किसी के छह महीने बाद होगी, किसी के छह महीने बाद होगी। यह संसार आप नहीं रहेंगे, मैं नहीं रहूंगा, तब भी हरेगा। तब भी किसी की शुरुआत होती रहेंगी और नहीं होती रहेंगी।
--रहने देना है ऐसा, चिंतन नहीं करना।
--लेकिन मैं इसकी चिंता करके क्या करूंगा? मेरे किस उपयोग की होगी यह चिंता कि कौन छह महीने पीछे है, कौन छह महीने बाद? कौन हजार साल पहले कौन हजार साल बाद--मेरे किस उपयोग की होगी? नहीं ऐसा तो नहीं है कि मैं शुरू न करूं, इसके लिए कोई उपाय और कोई बहाना खोज रहा हूं? बड़ा रहस्य यह है कि हम बहुत अच्छी बातों के पीछे भी सफेद बहाने खोज लेते हैं। जैसे मैं आज शुरू न करूं तो मैं सोचूंगा कि अभी उदय में नहीं आया। जब उदय में आएगा तभी तो होगा। अब मेरे वश में क्या है, अभी उदय में नहीं होगा। जिसके उदय में है वह अभी करेगा।जिसके उदय में छह महीने बाद है वह छह महीने बाद करेगा। कहीं यह उदय की धारणा केवल अपने न करने की स्थिति को छिपाने का उपाय न हो।
हमारी सामर्थय करने की, हम कर सकते हैं। अगर हम न कर सकते होते तो हममें यह आकांक्षा ही नहीं हो सकती थीं कि हम शांत हो जाएं। वह आकांक्षा कि शांत होना चाहिए, हम पुरुषार्थ के छिपे हुए रूप की सूचना है कि हम हो सकते हैं। यह आकांक्षा कि आनंद मिलना चाहिए उस सुप्त पुरुषार्थ की सूचना है कि आनंद मिल सकता है। नहीं तो यह प्यास नहीं हो सकती थी। यह आकांक्षा नहीं हो सकती थी। यह भीतर हमारे जो, निरंतर चाहे हम कुछ भी चाहे न करें, हमारे भीतर जरूर एक केंद्र पर यह आकांक्षा बनी ही है। यानी वह आकांक्षा सूचना है किसी सोए हुए पुरुषार्थ की। और अगर हम चेष्टा करें तो वह पुरुषार्थ जाग सकता है और यह आकांक्षा प्राप्ति में परिणत हो सकती है। वह हममें कहीं सोया हुआ है और उस सोए हुए के जगाने के बहुत उपाय हैं। धार्मिक लोगों ने किए हैं, लेकिन हम हर तरकीब को गलत कर देते हैं।
बुद्ध शुरू-शुरू में जब ज्ञान को उपलब्ध हुए तो वह काशी आए। वह काशी के बाहर एक वृक्ष के नीचे ठहरे अकेले थे उस वक्त; कोई भीड़ न थी, कोई संग न था, कोई जानने वाला न था। अभी उन्होंने किसी को उपदेश भी नहीं दिया था। लेकिन ज्ञान उन्हें उपलब्ध हुआ था कि और उसका प्रकीर्ण प्रकाश उनसे दिखाई भी पड़ने लगा था। अनुभव लोगों को होने लगा, कुछ हुआ है। काशी का नरेश संध्या को अपने रथ को लेकर नगर के बाहर निकला था। बहुत चिंतित था। कई भार थे उस पर राज्य के तो झांझ को भ्रमण के निकला था। सारथी से उसने बीच में एकदम कहा कि रोक दो, यह कौन मनुष्य वृक्ष के नीचे लेटा हुआ है? बुद्ध, सांझ को सूरज डूबता था, एक वृक्ष के नीचे बैठे थे। उसने कहा, रोक दो। यह कौन मनुष्य वृक्ष के नीचे लेटा हुआ है इतना आनंद में, इतना शांत? और उसके पास कुछ दिखायी भी नहीं पड़ता है। थोड़ी देर मैं इससे मिलूं। वह उत्तर कर बुद्ध के पास गया और कहा, तुम्हारे पास कुछ भी दिखायी पड़ रहा है, फिर इतने शांत और निश्चिंत कैसे लेटे हो? मेरे पास तो सब कुछ है, लेकिन न निश्चितता है, न शांति है।
बुद्ध ने कहा, एक दिन तुम जिस  स्थिति में हो, मैं भी था। और आज के दिन मैं जिस स्थिति में हूं, चाहो तो तुम अभी उस स्थिति में भी हो सकते हो। मैं दोनों स्थितियों से गुजर गया और तुम एक से गुजरे हो। और अगर मुझे देखो तो तुम्हारा पुरुषार्थ जाग सकता है। अगर तुम मुझे देखकर अपमानित हो जाओ तो तुम्हारा पुरुषार्थ जाग सकता है और तुम सिंह गर्जना कर सकते हो कि मैं भी होकर रहूंगा।
यानी मेरी धारणा में तो यही बात है कि महावीर, बुद्ध और ईसा, इनको देखकर अगर हम अपमानित हो जाएं तो पुरुषार्थ जाग जाए। लेकिन हम इतने होशियार हैं कि हम अपमानित नहीं होते, उल्टा उन्हीं का सम्मान करके घर चले आते हैं। उनके पैर में सिर झुका आते हैं। असलियत यह है कि उन्हें देखकर हमें अपमानित हो जाना चाहिए। कहीं हमारे भीतर यह आकांक्षा जग जानी चाहिए कि अगर इनको उपलब्ध हो सका तो...तो मैं? लेकिन इससे बचने के लिए कि हमारा पुरुषार्थ न जगे, हम कहेंगे कि वह भगवान हैं, वह तीर्थंकर हैं, वह अवतार हैं, उनको हो सकता है। हम साधारण जन हैं, हमको कैसे हो सकता है? तरकीबें हैं। यह हमारे हिसाब से हम बच जाएं तो उनको अवतार, उनको तीर्थंकर, उनको भगवान कहकर छुटकारा पाते हैं, कि हम साधारण जन, आप हैं भगवान, आप ठहरे विशिष्ट, आप कर सकते हैं, हम कैसे करेंगे? और एक बहुत बहुमूल्य पुरुषार्थ के जगाने का अवसर हम तीर्थंकर कहकर खो देते हैं।
उन्हें अति सामान्य मानने की जरूरत है--जैसा हम हैं, लेकिन उसमें उनको बहुत दुख होगा। उसमें हमें बहुत आत्मग्लानि होगी। अगर हम महावीर को भी अति सामान्य मानें कि वह भी ठीक हमारे जैसे हैं तो फिर हमें बहुत आत्मग्लानि होगी कि फिर हम क्या कर कहे हैं? वह मारे जैसे हैं, और इस स्थिति को पा सके, और हम क्या कर रहे हैं बैठे हुए? यह आत्मग्लानि न हो, इसलिए हम उनको कहते हैं, तुम तीर्थंकर हो, तुम भगवान हो और हम साधारण जन हैं। हम पूजा ही कर सकते हैं, हम कुछ और नहीं कर सकते।
यह सेल्फ डिसेप्टिव हमारा जो दिमाग है वह उसके खोजे हुए रास्ते हैं ये सारे तीर्थंकर के, अवतार के, भगवान के, फलां के, ढिकां के। सच बात यह है कि वे ठीक हमारे जैसे लोग हैं और फिर एक दिन अचानक हमारे जैसे नहीं रह जाते हैं। वह जो क्रांति उनमें घटित होती है, वह हममें भी घटित हो सकती है, अगर हम उनको सामान्य मान लें। और चेष्टा की; महावीर बुद्ध ने पूरी चेष्टा की कि उनको एक सामान्य आदमी आप मान लें। इसलिए ईश्वर से इनकार किया, ईश्वर के अवतार से इंकार किया। लेकिन हम बहुत होशियार हैं, हमने नये शब्द खोज लिए कि न सही अवतारख तीर्थंकर सही; न सही तीर्थंकर, बुद्ध सही, अगर हो भगवान, हम तुम्हें पूजेंगे।
पुरुषार्थ के जागरण का कुल अर्थ इतना ही है, कुछ हममें प्रसुप्त है, कोई एक शक्ति प्रसुप्त हैं हममें, जो अगर जाग सके, अगर हम उसे पुकार सकें तो वह शक्ति हमारे भीतर क्रांति घटित कर सकती है। न पुकार उसको तो चलता है जीवन, चलता चला जाता है। लेकिन एक्सप्लेशंस कोई खोजना मुझे रुचिकर नहीं हैं। वास्तविक तथ्यों को पकड़ ले कि ये तथ्य है हमारे सामने हम दुखी हैं, यह एक तथ्य है। पीछे जन्म था या नहीं, यह कोई तथ्य नहीं है। आगे जन्म होगा या नहीं, यह कोई तथ्य नहीं है। तथ्य यह है कि मैं दुखी हूं। और यह भी एक तथ्य है कि दुख के ऊपर उठने की मेरी आकांक्षा है। तब एक बात ही रह जाती है। दुखी हूं, दुख के ऊपर उठने की आकांक्षा है। फिर से ऊपर उठने का उपाय खोज लेंगे। इससे ज्यादा और कोई अर्थ नहीं है। और अर्थ फिर सब पांडित्य हैं। फिर बहुत शास्त्र हैं और उनको मजे से पढ़ा जा सकता है और उनका अध्ययन किया जा सकता है। और ढेर साधु हैं जो उनकी व्याख्याएं समझा सकते हैं। और वैसे चलता है, उससे कुछ होता नहीं है।

प्रश्न--अस्पष्ट

उत्तर--वह जो फर्क कर लेते हैं--मैं नहीं कह रहा अपनी बात--वह जो फर्क कर लेते हैं--केवल ज्ञान तो अनेकों को उपलब्ध हुआ है लेकिन केवल ज्ञान उपलब्ध होने पर जो तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं, यानी जो सब धर्मों को वापस स्थापित करते हैं ताकि उसके मार्ग से और लोग भी केवल ज्ञान तक पहुंच सकें। केवल ज्ञान उपलब्ध करना--वे स्वयं मुक्त हो जाते हैं। केवल ज्ञान उपलब्ध करके तीर्थ प्रवर्तन करना, धर्म को पुनर्स्थापित करना है। ऐसे पुनर्स्थापित उनके हिसाब से चौबीस होते हैं। धर्म का पुनर्स्थापित करने वाले लोग हैं। एक तीर्थंकर स्थापना देकर, जब उसका एक वक्त होता है कि कुछ वर्ष बीतने पर वह धर्म फिर विलीन हो जाएगा, वह मार्ग फिर अवरुद्ध हो जाएगा, उसको जो पुनर्स्थापित कर देगा वह केवल ज्ञानी तीर्थंकर है। फिर उन्होंने पच्चीस एक्सप्लेनेशस खोजे हुए हैं कि पिछले जन्म में तीर्थंकर होने का कर्मबंध करता है, फिर वह तीर्थंकर हो सकता है। जो ऐसा कर्म बंध नहीं करता वह तीर्थंकर नहीं होगा।
लेकिन मेरी यह धारणा नहीं है। मेरी धारणा तो यह है कि जो भी सदधर्म को उपलब्ध होता है और सदधर्म के संबंध में बोलता है वह तीर्थंकर है--मेरी बात कह रहा हूं, मैं जो भी सदधर्म को उपलब्ध होता है--और अगर नहीं बोलता उसके संबंध में तो तीर्थंकर नहीं है, केवल सदधर्म को उपलब्ध है, केवल ध्यानी है। और यह जो बोलना और न बोलना है--मेरी दृष्टि में इस भांति सोचने पर लाखों तीर्थंकर हैं, जैसा हमेशा हुए हैं, हमेशा होंगे। और उसमें उन सबको गिन लेता हूं जो कभी भी, जिसने कभी भी स्वयं सत्य को उपलब्ध होकर सत्य के संबंध में किसी को भी कुछ कहा हो। उस दिशा की तरफ कोई भी इंगित किया हो, चाहे एक को किया हो तो भी वह तीर्थ का प्रवर्तनकर्ता है।
यह भी करना नहीं है उसकी तरफ से कुछ। जैसे यह उपलब्ध होता है, वैसे ही बहुत तेज सहज प्रेरणा, बहुत सहज भाव से उस अनुमति को दूसरों से कहने की उसको हो जाती है। इसमें कोई चेष्टित नहीं है कि वह कोई जाकर और चेष्टा करके और विचार करके, योजना करके किसी को कहता हो। यह लगभग ऐसा ही है कि अगर मेरे हृदय में परिपूर्ण प्रेम भर गया है, अगर सतत चौबीस घंटे मेरी चेतना प्रेम से भर गयी है तो मेरे तई जो भी आएगा, उसे मैं प्रेम के सिवाय दे नहीं सकूंगा।

एक राबिया नाम की मुसलमान फकीर स्त्री हुई है। कुरान में कहीं एक वचन है शैतान को घृणा करने के संबंध में। राबिया ने वह वचन काट दिया। कुरान में किसी तरह का संशोधन करना बहुत कुफ्र की, बहुत पाप की बात है। और यह तो हद्द पाप की बात थी कि उसमें किसी वचन को कोई काट ही दे। एक बायजीद नाम फकीर उसके घर ठहरा था। उसने सुबह-सुबह कुरान पढ़ने को मांगी। यह देखकर कि वचन कटा हुआ है बहुत हैरान हुआ। उसने कहा, यह तरमीम सुधार किसीने किया है इसमें? यह कौन नासमझ है जो कुरान में भी सुधार करता है? राबिया ने कहा मैंने खुद ही किया है। बायजीद तो दंग हो गया। उसने कहा, पागल हो? राबिया ने कहा, जब से मेरा हृदय शांत हुआ उसमें घृणा है ही नहीं तो अब मैं शैतान को घृणा कैसे करूं? शैतान भी मेरे सामने खड़ा हो जाए तो मैं जितना प्रेम ईश्वर को कर सकती हूं उतना ही उसको कर सकती हूं। क्योंकि वह मेरे भीतर रहा नहीं। अब मैं प्रेम और घृणा करती नहीं। मैं प्रेम से भर गयी हूं तो प्रेम ही होता है। जो ज्ञान से भर गया है, उसे सहज ज्ञान प्रकीर्ण होगा।
हम भी अज्ञान को प्रकीर्ण करते हैं। अगर हम इसको समझ लें तो हम ज्ञानी के ज्ञान को प्रकीर्ण करने को समझ लें हमको पता न भी हो कि आत्मा क्या है, तो भी हम बताने को जरूर किसी को मिल जाएंगे। और उसको बताएंगे कि आत्मा यह है और धर्म यह है। हम अज्ञान को प्रकीर्ण करते है, अज्ञान को फैलाते हैं। वैसे ही एक स्थिति ज्ञान की है जब व्यक्ति उपलब्ध हो जाता है तो सहज--जैसे हम अज्ञान को फैलाते रहते हैं वैसे हम ज्ञान को फैलाने लगते हैं। उसमें कोई चेष्टित नहीं है। जगत में जितने लोगों ने भी धर्म को उपलब्ध करके उसके संबंध में किसी को भी इशारा किया हो वे सारे लोग मेरे लिए तीर्थंकर हो जाते हैं। यह भी अपनी बात कह रहा हूं। परंपरागत जैसा जैन सोचते हैं, उनका हिसाब वैसा है।

प्रश्न--ज्ञान क्या है?

उत्तर--उसकी ही बात करता हूं। मैं जो पूरी बात करता हूं। मेरे लिए तो दो स्थितियां हैं हमारी। ज्ञान की एक स्थिति वह है जो हम कुछ जानते हैं। जैसे मैं ज्ञान, इस वस्तु को देख रहा हूं, ज्ञान से आपको देख रहा हूं। ज्ञान से जब किसी को जानता हूं। ज्ञान पूरे वक्त किसी न किसी को जान रहा है। यह ज्ञान की मिश्रित स्थिति है। इसमें ज्ञान भी है। ज्ञाता पीछे छिपा है और ज्ञेय सामने खड़ा हुआ है। मैं हूं जानने वाला, वह पीछे छिपा हुआ है। आप, जिसको मैं जान रहा हूं, मेरे समाने खड़े हैं और दोनों के बीच का जो संबंध है वह ज्ञान है। तो मुझे दो बातों का पता चल रहा है--एक तो ज्ञेय का और ज्ञान का। ज्ञाता का पता नहीं चल रहा है। एक ज्ञान की स्थिति यह है। और एक ज्ञान की स्थिति वह है कि ज्ञेय तो कोई भी नहीं है। ज्ञान है और ज्ञाता का पता चल रहा है। ये तीन बिंदु हैं न! ज्ञेय है ज्ञान है और ज्ञाता है। हमें तो ज्ञेय का पता चलता है और ज्ञान का पता चलता है, ज्ञाता का पता नहीं चलता है। यह मिथ्या ज्ञान है। जो जान रहा है उसका तो पता नहीं चल रहा है, जो जाना जा रहा है उसका पता चल रहा है ज्ञेय न हो, ज्ञाता रह जाए और ज्ञान रह जाए तो यह सम्यक ज्ञान है। ज्ञाता का पूजा चल रहा है। और ज्ञान की क्षमता का पता चल रहा है, वह सम्यक ज्ञान है। मिथ्या ज्ञान से सम्यक ज्ञान पर परिवर्तन होगा। अगर ठीक से इस बात को समझें तो जब ज्ञेय पता नहीं चलेगा तो ज्ञात भी पता नहीं चलेगा क्योंकि वह अंतर्सबंधित था। ज्ञेय था इसलिए हम उसे ज्ञाता कहते थे। जब ज्ञेय कोई भी नहीं रहा तो उसे ज्ञाता भी नहीं कहेंगे। तब मात्र ज्ञान का अनुभव होगा। केवल मात्र ज्ञान है, इसको अनुभव होगा। उस केवल मात्र ज्ञान के अनुभव को केवल ज्ञान कहा है। केवल ज्ञान की शक्ति भर का बांध होगा। न कोई जान रहा है, न कोई जाना जा रहा है। केवल जानने की क्षमता का संपदन हो रहा है। केवल कांसेसनेस भर रह गयी। किसी चीज के प्रति कांसेस नहीं है, कोई कांसेस नहीं है, केवल प्योर कांसेसनेस रह गयी है।
यह प्यारे कांसेसनेस समाधि में भी अनुभव होगी। लेकिन समाधि में यह थोड़ी देर टिकेगी और विलीन हो जाएगी। अगर यह सतत चौबीस घंटे अनुभव लेने लगे तो केवल ज्ञान की जो प्राथमिक अनुभूतियां हैं वह समाधि मिलनी शुरू होगी।और जब समाधि पूरे चौबीस घंटे पर फैल जाएगी तो वह केवल ज्ञान हो जाएगा। ज्ञान मात्र का शेष रह जाना, ज्ञाता और ज्ञेय दोनों का मिट जाना है।
अभी हमको एकदम से दिक्कत होगी, वह ज्ञान मात्र कैसा रह जाएगा? क्योंकि अभी तो हम जब भी जानते हैं ज्ञान को, तब किसी को जान रहे हैं। अभी मैं केवल कह सकता हूं। लेकिन अगर ध्यान का प्रयोग चले तो किसी दिन समाधि में लगेगा कि अकेला मैं ही रह गया था, केवल ज्ञान मात्र रह गया था। न कोई जान रहा था, न कोई जाना गया था, केवल ज्ञान मात्र रह गया था। न कोई जान रहा था, न कोई जाना जा रहा था, केवल ज्ञान था। केवल एक कांसेसनेस भर रह गई थी। उस वक्त पहला अनुभव मालूम होगा, जो कि सूचना देगा कि मात्र ज्ञान के अकेले रह जाने का क्या अर्थ होगा।
कुछ बातें ऐसी हैं कि शब्द तभी उनको बता पाते हैं जब साथ में अनुभूति भी हो। और सच तो यह है कि हमारे सामान्य जीवन के भी शब्द जब अनुभूति हो तभी कुछ बता पाते हैं। जैसा मैंने कहा, किवाड़--तो मेरा शब्द आपको कुछ सूचना दे पाता है क्योंकि आप भी किवाड़ को जानते हैं। अगर आप किवाड़ को नहीं जानते तो शब्द तो मेरा आपके कान में गूंजेगा लेकिन कोई अर्थ बोध नहीं होगा। शब्द अर्थ नहीं देता, अर्थ तो स्वयं की उसी वस्तु की सामान्य अनुभूति से आता है। मैंने कहा किवाड़ अगर आप भी किवाड़ से परिचित हैं, तो मेरा शब्द सार्थक हो जाएगा। और मैंने कहा किवाड़ और आप किवाड़ से परिचित नहीं हैं तो किवाड़ केवल ध्वनि रह जाएगा, उसमें अर्थ नहीं होगा। तो सामान्य में शब्द तभी बोधपूर्ण होते हैं जब उनकी सामान्य अनुभूति होती है। धर्म के जीवन में दिक्कत है। वहां शब्द भी गूंजते रह जाते हैं। मैंने कहा, आत्मा--ध्वनि है, शब्द नहीं है यह। जब तक कि वहां भी अनुभूति न हो, तब तक यह केवल ध्वनि है। इससे कुछ बोध नहीं होता कि क्या! एक कान पर एक शब्द गूंजता है आत्मा, और विलीन हो जाता है। अर्थ तो इसमें तब आएगा जब थोड़ी सी अनुभूति भी दूसरी तरफ आएगी।
कबीर से एक मुसलमान फकीर फरीद मिला था। फरीद निकला था यात्रा को, कबीर उन दिनों मगहर काशी के पास रहते थे। वह करीब से निकला तो कबीर के भक्तों ने कहा कि ऐसा करें, फरीद को दो दिन रोक लें, आप दोनों में चर्चा होगी तो हमें बड़ा आनंद आएगा। फरीद बोला,तुम चाहो रोक लो, चाहो तो आनंद ले लेना, चर्चा शायद ही हो। समझे कि कबीर ने यों ही मजाक में कहा है। फरीद के भी शिष्य जो उसके साथ जा रहे थे उन्होंने कहा कि बड़ा भला हो, दो दिन कबीर का आश्रम पड़ेगा, वहां रुक जाएं। आपकी चर्चा होगी, हमको बड़ा आनंद होगा। उसने कहा कि तुम चाहो तो रुक जाओ, आनंद मिल जाए, लेकिन चर्चा शायद ही हो। उनके भक्त मिले तो दोनों ने कहा, ऐसा ऐसा कहा था। वे दोनों मिले, दोनों गले मिले, दोनों खूब हंसे, दोनों दो दिन रहे, लेकिन अदभुत कथा है कि दोनों कुछ बोले नहीं। दो दिन बाद कबीर विदा भी कर आए दोनों के बाहर, दोनों गले मिल लिए, लेकिन वह बातचीत हुई नहीं। दोनों के भक्त बहुत परेशान हुए और उन्होंने लौटकर पूछा, कि हम तो थक गए दो दिन राह देखकर। कुछ तो बोलते! कबीर ने कहा, बोलते क्या, जो वे जानते हैं, वह मैं जानता हूं। फरीद ने भी कहा, जो वे जानते हैं वह मैं जानता हूं। अनुभूति बिलकुल इनकी एक-सी है, बोलने को कुछ है नहीं।
यह धार्मिक जीवन की अदभुत बात है कि अगर अनुभूति बिलकुल एक सी हो जाए आत्म जीवन की, तो बोलने को कुछ नहीं रह जाता। और जब तक अनुभूति एक सी नहीं है तब तक जो बोला जाता है, वह कोई अर्थ नहीं लेता। तब तक बोला जा सकता है, लेकिन अर्थ नहीं होता। और जब अनुभूति एक सी हो जाए, बोलने को कुछ नहीं रह जाता, तब अर्थ मिल सकता है। अब जैसे हम कहें, केवल ज्ञान। तो कुछ समझाया जा सकता है, लेकिन समझाने से कुछ बोध होगा बहुत, यह नहीं पकड़ में आता। इसलिए हमको अक्सर लगता है कि तृप्ति तो नहीं हुई उस बात को सुनने में। तृप्ति नहीं होगी। तृप्ति तो उस दिन होगी जब थोड़ी सी झलक उस बात की मिल जाए, जब केवल ज्ञान मात्र रह गया।
तो मैंने यह अनुभव किया--धीरे-धीरे मैंने यह कहना भी शुरू किया कि ग्रंथ जो धर्म के हैं वह साधना के बाद पढ़े, तो उनमें कुछ आनंद जाएगा। साधना के पूर्व पढ़ने में कोई आनंद उपलब्ध नहीं होगा। थोड़ी साधना हो तो कई शब्द इतने अर्थपूर्ण है कि साधना उनके अर्थ को खोल देगी। तब एक-एक शब्द आपकी अनुभूति को खोलता हुआ मालूम होगा। मेरी तो धारणा विपरीत सी है। मेरा तो मानना वह है कि योग के जितने ग्रंथ हैं वे साधक को पढ़ने के नहीं है। वह सिद्ध को पढ़ने के हैं। हालांकि तब पढ़ने की कोई जरूरत नहीं रह जाती--पढ़े या न पढ़े, लेकिन सिद्ध के पढ़ने के लिए है। और वह केवल पहचानने के लिए है कि जो मुझे मिला उसको पुराने सिद्धों ने क्या नाम दिए हैं। इससे ज्यादा कोई माने नहीं हैं। हर शब्द परंपरा शब्द देती है। जैसे जैनों की परंपरा है, बौद्धों की, हिंदुओं की, योगियों की परंपराएं हैं। जब पहली दफा साधक को समाधि का अनुभव होता है तो उसको कुछ नहीं समझता है, इसको मैं क्या कहूं! कुछ कहने को शब्द होता ही नहीं। समझ लीजिए कि मैं इस घर में आया और मैंने पहली दफा कोई चीज इस कमरे में रखी देखी। मैं उसे देखूंगा जरूर, अनुभव जरूर करूंगा लेकिन शब्द क्या दूं? शब्द तो परंपरा से दिए जाते हैं। तो जब पहली दफे व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार करेगा तो उसको समझ में नहीं आता, क्या शब्द दूं। तो अगर वह बौद्ध की परंपरा में पला है तो उसके ग्रंथ इसको बताएंगे कि इसको क्या नाम देना है। अगर वह जैनों की परंपरा में पला है तो जैन परंपरा के ग्रंथ बताएंगे कि इस अनुभूति को क्या नाम देना है। तो उसमें ग्रंथों में लक्षण भी दिए हुए हैं, नाम भी दिए हुए हैं। लक्षण उसको सूचना देंगे कि ठीक, यह बात घट गयी है, और नाम उसे मिल जाएगा। परंपराएं केवल नाम देती हैं, ज्ञान नहीं देती है। ज्ञान अनुभव से आता है, नाम परंपरा से मिल जाते हैं। और उल्टी हमारी स्थिति है, हम पहले नाम पढ़ लेते हैं, ज्ञान तो आता नहीं। नाम सीख जाते हैं और फिर उन्हीं में से हम प्रश्न पूछते रहते हैं, और जिंदगी भर उलझते रहते हैं कि वह क्या है और फलां क्या है, ढिकां क्या है। उससे कुछ हल नहीं होता है। बिलकुल फिकर छोड़ दे नामों की, शब्दों की। कोई चिंता न करें, एक ही चिंता करें कि मेरे भीतर कुछ घटित होता है।
आप कह रहे हैं, थोड़ा सा आता और ज्ञेय का थोड़ा-सा और गहराई से समझा जाए तो उपयोगी होगा।
जब भी मैं किसी वस्तु को जान रहा हूं, किसी भी वस्तु को जान रहा हूं तब उस जानी हुई वस्तु का प्रभाव मुझ पर छूटता है। मैं आपको देख रहा हूं, प्रभाव, एक प्रतिबिंब मेरे भीतर छूटा। कल जब मैं आपको दुबारा देखूंगा तो मैं आपको नहीं देखूंगा, उस प्रतिबिंब के माध्यम से आपको देखूंगा। वह प्रतिबिंब मेरे बीच में आ जाएगा कि कल भी देखा था, यह वही है और उसके माध्यम से मैं आपको देखूंगा। हो सकता है, रात्रि आपको बिलकुल बदल गयी हो। हो सकता है आप बिलकुल दूसरे आदमी हो गए हों। हो सकता है आप क्रोध में आए हों, अब प्रेम में आए हों। लेकिन मेरा जो कल का ज्ञान है वह आज खड़ा होगा, वह मेरी स्मृति होगी। उसके माध्यम से मैं आपको जानूंगा। हम असल में चौबीस घंटे जो भी जान रहे हैं, जो वास्तविक है, उसको हम जान रहे हैं, जो स्मृति का संकलन है, उसके माध्यम से उसकी व्याख्या कर रहे हैं। इस स्मृति के माध्यम से हम उसकी व्याख्या कर रहे हैं, जो ज्ञेय है। इसलिए हम ज्ञेय को भी नहीं जान रहे हैं, बीच में स्मृति का पर्दा है। अगर आप कल मुझे गाली दे गए और आज फिर मिलने आए तो मैं जानता हूं, यह दुष्ट कहां से आ गया! हो सकता है, आप क्षमा मांगने आए हों। हो सकता है आप कहने आए हों कि भूल हो गई है। हो सकता है आप कहने आए हों कि मैं होश में नहीं था, बेहोश था, शराब पीए था। लेकिन मैं यह सोच रहा हूं कि ये सज्जन कहां से आ गए। और बीच में वह कल का पर्दा आपका खड़ा हो जाएगा। मैं आपके चेहरे को नहीं देखूंगा जो अभी मौजूद है। मैं उस चेहरे को बीच में पहले देखूंगा जो कल मौजूद था।
स्मृति ज्ञेय के और ज्ञाता के बीच में हमेशा खड़ी है। इसलिए हम ज्ञेय को भी नहीं जान पाते। और स्मृति का जो संकलन है उसी को हम ज्ञाता समझ लेते हैं तो भ्रम होता है। ज्ञेय को हम नहीं जान पाते हैं, स्मृति बीच में आ जाती है। और स्मृति का जो संकलन, एकुलमेशन है मेमोरी का, हम समझ लेते हैं, यही मैं जानने वाला हूं। जैसे अगर कोई आपसे पूछे, आप कौन हैं? तो आप क्या बताइएगा? आप कुछ स्मृतियां बताइएगा। मैं फलां का लड़का हूं, यह एक स्मृति है। तीस साल मैंने यह अनुभव लिए, उनमें से कुछ बताएंगे, यहां पढ़ा हूं, यहां नौकरी करता हूं, यहां यह हूं, यहां वह हूं। यह सारी आपकी मेमोरी है बीस वर्ष की। इनका एकुमिलेशन आप हैं। इसलिए कभी-कभी यह होता है कि किसी चोट से अगर स्मृति विलीन हो जाती है और उससे पूछिए कि आप क्या हैं तो वह खड़ा रह जाता है। उसको याद ही नहीं पड़ता कि कोई स्मृति हो। थोड़ी दूर आप कल्पना करिए कि आपकी स्मृति पोंछ दी जाए तो आपसे फिर पूछा जाए कि आप क्या है तो आप खड़े रह जाएंगे। आपको कुछ उत्तर नहीं सूझेगा कि मैं क्या कहूं। क्योंकि आप जो भी उत्तर देते हैं, वह स्मृति से है।
स्मृति का जो संग्रह है, उसी को हम समझ लेते हैं, मैं हूं स्मृति ज्ञेय को भी नहीं जानने देती। स्मृति का संग्रह ज्ञाता को भी नहीं जानने देगा। स्मृति के पीछे ज्ञाता छिपा हुआ है और स्मृति के आगे ज्ञेय बैठा हुआ है। बीच में स्मृति की धारा है। उस तरफ ज्ञेय है, इस तरफ ज्ञाता है, बीच में मेमोरी है। मेमोरी न ज्ञेय को जानने देती है न ज्ञाता को जानने देती है। अगर मेमोरी का, स्मृति विसर्जन हो जाए तो मैं ज्ञेय को पहली दफा देखूंगा। और पहली दफा इंस्टीटीनियस--अलग-अलग घटना नहीं घटेगी यह क्योंकि ज्ञाता और ज्ञेय साथ ही जाने जाएंगे। जिस क्षण मैं ज्ञेय को देखूंगा उसी क्षण ज्ञाता को भी। ये अलग नहीं जाने जाएंगे। दोनों एक साथ, दोनों एक साथ अनुभव होंगे। और वह साथ होना इतना गहरा होगा कि मुझे नहीं मालूम होगा कि ज्ञेय अलग, आता ज्ञाता अलग। मुझे असल में ज्ञान का अनुभव होगा। मुझे कांसेसनेस का अनुभव होगा। अगर मेमोरी विसर्जित हो जाए तो केवल ज्ञान का अनुभव होगा। जब हम कहते हैं, महावीर ने, या किन्हीं और ने अपने समस्त पुराने कर्मों से अपना छुटकारा पा लिया तो मैं पाता हूं, कर्म असल में सिवाय स्मृति के और कुछ भी हनीं है। कर्मबंध का अर्थ स्मृतिबंध है। कर्मबंध का अर्थ है मेमोरी। वह जो हम कहते हैं कर्म चिपक जाते हैं, कर्म नहीं चिपकता है, केवल स्मृति चिपक जाती है। किए हुए की स्मृति चिपक जाती है। किए हुए का संस्कार चिपक जाता है। जिसको महावीर निर्जरा कह रहे हैं, असल में डी-मेमोराइड है।

प्रश्न--स्मृति चिपक जाती है या संस्कार?

उत्तर--एक ही बात है, कुछ भी कह सकते हैं। इंप्रेशंस की है--संस्कार कह लें स्मृति कह लें क्योंकि हम स्मृति उसको कहते हैं जो हमको याद है और अनेक संस्कार हमको ऐसे हैं जो हमको याद नहीं हैं। लेकिन जो हमें याद नहीं हैं वह भी हमारे अवचेतन में मौजूद हैं और सब याद किए जा सकते हैं। मैं भी वहां प्रयोग किया। तो आपको पिछले जन्म याद दिलाए जा सकते हैं। एक पूरी स्मृति धारा याद हो जाएगी आपको एक-एक पर्दा भीतर मौजूद है, उघाड़ा जा सकता है। और आपको फिल्म की तरह सब दोहराने लगेगा, यह हुआ, यह हुआ। और अगर आपकी सारी स्मृति उघाड़ दी जाए तो आप हैरान होंगे, एक दफा जो संस्कार पड़ा है चित्त पर वह मौजूद है। सब संस्कार स्मृति में है। और सच तो यह है कि अगर मैं आपसे अभी पूछूं कि उन्नीस सौ पचास में एक जनवरी को आपने क्या किया, आपको कुछ याद नहीं हैं। आप कहेंगे, इसकी तो विस्मृति हो गई। इसकी विस्मृति नहीं हुई, या अभी मौजूद है। और मैं अभी आपको बेहोश करूं, हिप्नोटाइज करूं और आपसे पूछूं तो आप एक तारीख को ऐसे दोहरा देंगे जैसे अभी देख रहे हैं।
मैं कुछ दिन प्रयोग करता था तो मैं बहुत हैरान हुआ। वह तो कुछ भूलता ही नहीं है। फिर मुझे यह दिक्कत हुई कि पता नहीं एक तारीख को आपने किया या नहीं, या बेहोशी में आप कुछ भी अनर्गल बोलते हैं। फिर मैं कुछ लोगों पर नियमित रूप से ध्यान रखा। उनसे आज मिला तो नोट कर लिया कि उनसे मेरी क्या बात हुई, कि वे क्या कर रहे थे। छह महीने बाद उनको बेहोश करके पूछा, वह तो उन्होंने बताया कि आप दो बजे मुझसे मिले थे और यह मुझसे कहा था। होश में तो उनको पात नहीं कि आप उस दिन उनसे मिले भी थे या नहीं मिले थे।
फिर मैं धीरे-धीरे पिछले जन्मों में भी प्रयोग किया। आप हैरान होंगे, मां के गर्भ में भी आप पर जो संस्कार पड़े हैं, वे स्मरण दिलाए जा सकते हैं। जिस क्षण कंसेप्शन हुआ मां के पेट में आपका, वे संस्कार भी स्मरण दिलाए जा सकते हैं। फिर धीरे से उस पर, उस जन्म के भी जो संस्कार है वे भी स्मरण दिलाए जा सकते हैं। सारे जन्म-मरण की पूरी कथाएं स्मरण आ सकती हैं। वह सब मेमोरी है। और अगर मेमोरी से कोई बिलकुल मुक्त हो जाए तो वह निर्जरा है। अगर ये सारी मेमोरीज ढह जाए और इनसे व्यक्ति पृथक हो जाए और जान ले कि मैं इन मेमोरीज में नहीं हूं, मैं इनके बाहर और अलग हूं। और अगर यह कंडीशनिंग जो मेमोरीज से पैदा हुई है ये सब विसर्जित हो जाएं तो मोक्ष है। स्मृति से मुक्त होना मोक्ष है, और स्मृति में भूलना संसार है। उस स्मृति के विसर्जन में जो भी है वह दिखेगा। स्मृति के विसर्जन में चैतन्य का जागरण है। इसके प्राथमिक प्रयोग विचार के विसर्जन से शुरू होंगे, क्योंकि स्मृति भी केवल विचार के प्रवाह का अंग है, और कोई खास बात नहीं है।

प्रश्न--अस्पष्ट

उत्तर--ना, फार्स्ट और सेकेंड का कोई सवाल नहीं है। फर्स्ट और सेकेंड का सवाल मेमोरी में है। जैसे मैं यहां बैठा हूं। मैंने इस तरफ से देखना शुरू किया तो जरूर मैं किसी को पहले दिखता हूं, किसी को दूसरे दिखता हूं, फिर किसी को तीसरा देखता हूं। लेकिन जब मैं पहले को देख रहा हूं तब भी दूसरा उसी वक्त पूरा का पूरा मौजूद है। जब मैं तीसरे को देख रहा हूं तब भी दो मौजूद हैं। हम यहां सारे लोग साइमलटेनियसली मौजूद हैं। लेकिन जब मैं देखता हूं, मेरी मेमोरी में मैं जब स्मरण करूंगा तो मैंने पहले एक को देखा, फिर दूसरे को देखा, फिर तीसरे को देखा। जगत में जो एक्जिस्टेस है वह साइमल्टेनियस है, केवल मेमोरी में पोस्ट, प्रेजेंट और फ्यूचर है। जगत में यह कहीं भी नहीं है। जगत में अतीत है ही नहीं, जगत में भविष्य है ही नहीं, जगत में सतत वर्तमान है। जगत में कहीं कोई अतीत संग्रहीत नहीं होता, जगत में कहीं कोई भविष्य खुलने को नहीं है। जगत एक इटर्नल नाउ है जो प्रत्येक क्षण पूरा जगत एक सतत प्रवाह है--एक्चुअल जगत जो है।
हमारी स्मृति में अतीत, वर्तमान, भविष्य होते हैं। इसलिए टाइम जो है, समय जो है, वह केवल मेमोरी से पैदा हुई चीज है, टाइम कहीं है नहीं। प्रेजेंट जो हैं वह मेमोरी के हिस्से हैं, वह मेमोरी के हिस्से हैं, इसलिए जिसकी मेमोरी चली जाएगी वह टाइमलेसनेस मग चला जाएगा, उसे टाइम का पता नहीं रहेगा। इसलिए लोगों ने कहा, समाधि जो है वह समयातीत है, समय के बाहर है, कालातीत है। वह काल के बाहर है। समाधि में समय नहीं है, काल नहीं है, क्षेत्र नहीं है, केवल होना मात्र है। स्मृति में जो सीक्वेंस है, कुछ चीजें पहले हैं, कुछ चीजें बाद में हैं, कुछ चीजें आगे हैं, उसकी वजह से, उस सीक्वेंस की वजह से टाइम बनता है। अगर सारी मेमोरी विलीन हो जाएं, थोड़ी देर को समझ लीजिए, आपकी सारी मेमोरी अगर विलीन हो गई तो पहले आपका जन्म हुआ, बाद में आपकी मृत्यु हुई, यह आपको पता नहीं चल सकता है। बहुत अजीब सा लगेगा। सारी मेमोरी जब विलीन हो गयी तो आपका पहले हुआ और मृत्यु बाद में हुई, ऐसा नहीं कहा जा सकता। शायद उस मेरोरीलेस स्थिति में ये घटनाएं साइमल्टेनियस में ये घटनाएं हो ही नहीं। आपको पता ही नहीं पड़े कि कब आप जन्मे और कब आप मरे। यह कब जो है--आगे और पीछे का संबंध वह स्मृति का है स्मृति विलीन हुई तो कब आगे पीछे विलीन हो गया, सीक्वेंस विलीन हो गया।
 इसलिए एक बहुत अदभुत बात, जो मुझे दिखाई पड़ने लगी, महावीर पच्चीस सौ साल पहले मुक्त हुए और आप भी मुक्त हो जाएं, तो हमको लगता है कि पच्चीस सौ साल बाद मुक्त हुए। लेकिन कांसेसनेस का जो जगत है वहां दोनों साइमल्टेनियस मुक्त हो रहे हैं। एक ही साथ मुक्त हो रहे हैं। और यह बात तो अजीब सी होगी, फिर कोई माने ही हनीं होगा दिखने में ऊपर। यह हमारी मेमोरी है जो पच्चीस सौ साल आगे-पीछे करती है। चैतन्य के जगत में सब एक साथ मुक्ति हो रहे हैं और एक साथ बद्ध हैं। वहां कोई समय नहीं है, वहां कोई आगे पीछे नहीं है।

प्रश्न--आदमी जब पागल हो जाता है उसकी क्या हालत है?

उत्तर--हां, अगर आदमी जब पागल हो जाता है तो आदमी अब अकेला स्मृति रह गया, उसे अब बिलकुल भी होश नहीं है अपने स्व की। केवल मेमोरी रह गयी। आप हैरान होगे, वह जिस दिन पागल होता है उस दिन के बाद की उसकी कोई मेमोरी नहीं रहती है, उसके पहले की ही मेमोरी रहती है अगर एक आदमी आज सुबह पागल हो गया तो वह जितनी बातें करेगा वह आज के सुबह के पहले की हैं, आज के सुबह के बाद की कोई बात नहीं करेगा। आज के सुबह के बाद की कोई मेमोरी नहीं बन रही। अब आज के सुबह के पहले की सब मेमोरी होगी, उन्हीं को दोहराएगा। उन्हीं को बोलेगा, उनकी बकवास करेगा, वह वही बातें करता रहेगा। उसने होश बिलकुल खो दिया और जिस घड़ी उसने होश खो दिया, उस क्षण तक जितनी मेमोरी है, अब वही रिपीट होती हरेगी। और इसीलिए वह हमको पागल दिखेगा क्योंकि यह हमेशा असंगत होगा और वर्तमान में उसके ऊपर कोई प्रभाव पड़ नहीं रहे। उसके सब प्रभाव पीछे के रह गए है। इसीलिए पागल में और मुफ्त में करीबी अनुभव एक सी कुछ बातें मालूम होंगी। एक मैं सिर्फ पीछे के अनुभव रह गए हैं, वर्तमान के कोई अनुभव नहीं पैदा हो रहे हैं। वह भी हमको पागल लगेगा क्योंकि वर्तमान से उनकी कोई संगति नहीं है। और मुक्त और सिद्ध भी हमको कुछ न कुछ पागल प्रतीत होगा क्योंकि न उसमें अतीत के कोई स्मरण रह गए हैं, न भविष्य के, न वर्तमान के। उसमें भी हमें थोड़ा-सा पागल की झलक मालूम होगी।
इसलिए सारे साधुओं को, सारे संतों को हम चाहे कितना ही आदर हैं, हमको थोड़ा बहुत यह शक बना ही रहता है कि कुछ पागल तो नहीं है! हमारा जो भाव है वह कहीं न कहीं उनके पागल होने का बना रहता है और कहीं किसी किनारे पर वह पागल के करीब मालूम होते हैं। उनकी आंख में भी वही वैक्यूम दिखाई पड़ेगा जो पागल की आंख में दिखाई देता है। वही वैक्यूम--वही आपको देखते हुए भी जैसे आपका नहीं देख रहे हैं, वही बात। आपके बिलकुल करीब होकर भी जैसे आप दूर हों, वही बात। आंख में वैक्यूम मालूम होगा, जैसे आपको कोई प्रतिबिंब उनकी आंख में नहीं बनता है। आपको वह कोई मेमोरी नहीं पकड़ा रहे हैं। इसलिए बड़े से बड़े सिद्ध की आंक में झांककर जो आपको पहला अनुभव होगा, वह पागल का होगा। तो आंखें जो अनुभव होगा वह पागल होगा। तो थोड़ा सा दोनों में करीब ही बात है। दोनों में स्मृति का एक संबंध एक सा हो गया है। एक स्मृतियां टूट गई हैं विक्षोभ के कारण। उसके पहले जितनी बनी हैं वह विक्षुब्ध उसमें तैर रही हैं। उसका अब जीवन असंगत हो गया है। एक में स्मृतियां टूट गई हैं अविक्षुब्ध, शांति के कारण। उसमें भी कुछ लहरें नहीं उठ रही हैं। एक विक्षोभ के कारण सब टूट खंडित हो गया है। एक मैं शांति के कारण सब खंडित हो गया है। दोनों बिलकुल अलग कोनों पर खड़े लोग हैं, लेकिन दोनों एक बात कहीं कुछ समान है। इसलिए भक्त उनको, जिनका भक्त है, साधु समझ लेते हैं, गैर भक्त उसको पागल समझते रहते हैं। तो कोई अंतर नहीं पड़ रहा है।

प्रश्न--अस्पष्ट

उत्तर--बहुत फर्क है। फर्क उतना ही है कि हिप्नोसिस जो है, सम्मोहित जो कर रहा है, इस सम्मोहन में भी घटना करीब-करीब वैसी ही घट रही है। जैसे स्वयं ध्यान करने पर घटेगी--करीब-करीब वैसे ही। इसमें भी सूक्ष्म शरीर बाहर निकाला जा सकता है, भेजा जा सकता है, देखा जा सकता है, लेकिन यह दूसरे के द्वारा इनडयूस्टहै और जबर्दस्ती है और फोर्स्ड है। यह दूसरे के द्वारा आपमें की गई घटना है। दूसरे के द्वारा की गयी घटना से आपको लाभ नहीं है, शायद नुकसान है। आपको कोई लाभ नहीं है। आपके कुछ साइकिक काम करवा ले सकता है लेकिन आपको कोई लाभ नहीं, वरन आपको नुकसान है। आपकी जो अपने रिदम और जर्मनी है आपके साइकिक शरीर की, उसको इसके प्रयोग से नुकसान पहुंचेगा। और जब स्वयं आप अपने प्रयोग से सहज बाहर निकलते हैं तो आपको नुकसान नहीं है, बल्कि अपने भीतर के कुछ राजों कुछ रहस्यों का अनुभव होता है। हिप्नोसिस बेहोशी है बेहोशी में आपमें कुछ होता है और समाधि परिपूर्ण जागरूकता है। जागरूकता में कुछ हो रहा है। जागरूकता में जब कुछ होता है स्वयं के भीतर तो आप अपने जगत और जीवन के रहस्य के कुछ नए तथ्यों से परिचित होते हैं, वह परिचय आपको आत्मसाधना में सहयोगी होता है। हिप्नोसिस में आप तो परिचित होते नहीं, आप तो बेहोश हैं, आप को कोई लाभ नहीं होता है। लेकिन घटना करीब-करीब एक सी घटती है।
पुरानी स्मृतियां जगानी हों, तो हिप्नोटाइज के बिना कोई रास्ता नहीं है या फिर अटो-हिप्नोटाइज, अपने को खुद करना पड़े तब कोई रास्ता है। इस मुल्क में हिप्नोटिज्म का प्रयोग बहुत प्राचीन है। लेकिन उसका उपयोग उस ढंग से कभी नहीं किया गया जैसा पश्चिम में कर रहे हैं। इस मुल्क में हिप्नोटिज्म का प्रयोग भी साधना के पक्ष में किया गया। हिप्नोटिज्म के माध्यम से व्यक्ति को कई सहायताएं पहुंचाई जा सकती हैं साधना में। वह सहायता इस मुल्क में पहुंचाई गई। हिप्नोटिज्म का और कोई प्रयोग कभी नहीं हुआ है। पश्चिम में वह उसके दूसरे प्रयोग शुरू किए हैं क्योंकि उनकी आत्मसाधना से उनका कोई संबंध नहीं है। तो वहां घातक परिणाम आने शुरू हुए। अभी तो उन्होंने वहां अमरीका में हिप्नोटिज्म के खिलाफ एक कानून भी विचार है क्योंकि उसके बहुत घातक परिणाम हो सकते हैं।

ओशो
टेप न. १० बंबई दिनांक ७ मई १९६८


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