कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 24 अक्टूबर 2017

एक एक कदम-प्रवचन-02



एक एक कदम (विविध)-ओशो

जिज्ञासा साहस और अभीप्सा-प्रवचन-दूसरा  

अभी-अभी आपकी तरफ आने को घर से निकला। सूर्यमुखी के फूलों को सूर्य की ओर मुंह किए हुए देखा और स्मरण आया कि मनुष्य के जीवन का दुख यही है, मनुष्य की सारी पीड़ा, सारा संताप यही है कि वह अपना सूर्य की ओर मुंह नहीं कर पाता है। हम सारे लोग जीवन भर सत्य की ओर पीठ किए हुए खड़े रहते हैं। सूर्य की ओर जो भी पीठ करके खड़ा होगा उसकी खुद की छाया उसका अंधकार बन जाती है। जिसकी पीठ सूर्य की ओर होगी उसकी खुद की छाया उसके सामने पड़ेगी और उसका मार्ग अंधकारपूर्ण हो जाएगा। और जो सूर्य की ओर मुंह कर लेता है उसकी छाया उसके लिए विलीन हो जाती है तथा उसकी आंखें और उसका रास्ता आलोकित हो जाता है।

दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक वे लोग, जो सूर्य की ओर पीठ किए रहते हैं और थोड़े-से वे लोग हैं जो सूर्य की ओर मुंह कर लेते हैं। जो लोग सूर्य की ओर पीठ किए रहते हैं उनका जीवन दुख, पीड़ा और मृत्यु के अतिरिक्त कुछ भी नहीं, उनका जीवन एक दुःस्वप्न से ज्यादा नहीं। वे नाम मात्र को ही जीते हैं। कल्पना में ही उनका सारा आनंद होता है। आशाओं में ही उनकी सारी की सारी निष्ठा होती है। उपलब्धियां उनकी करीब-करीब शून्य होती हैं। और जो लोग सूर्य की ओर या प्रभु की ओर मुंह कर लेते हैं उनके जीवन में आमूल क्रांति घटित हो जाती है। एक ही दुख है कि हमारी पीठ उस तरफ हो जहां हमारा मुंह होना चाहिए।
लेकिन, कुछ कारण हैं जिनकी वजह से जो होना चाहिए वह नहीं हो पाता और जो नहीं होना चाहिए वही होता रहता है। उन कारणों पर थोड़ा-सा विचार करना है। इन तीन दिनों में सूर्य की ओर हमारा मुंह कैसे हो जाए इस संबंध में ही विचार करेंगे। कौन-सी बातें हैं जो हमें रोके हैं, कौन-सी बातें हैं जो हमें बांधे हुए हैं, कौन-सी चित्त-अवस्थाएं हैं जो हमें अपने को ही पाने और अपने को ही उपलब्ध करने में बाधाएं बन जाती हैं, उन पर विचार करेंगे और यह भी विचार करेंगे कि उन बाधाओं को दूर कैसे किया जा सकता है।
सबसे पहली बात जो मैं आपसे कहना चाहूंगा इन तीन दिनों की चर्चा में, वह यह है कि केवल वे ही मनुष्य, केवल वे ही आत्माएं सत्य की ओर उन्मुख होने में समर्थ हो पाती हैं, जो अपने चित्त को समस्त वाद-विवादों से, सत्य के संबंध में प्रचलित समस्त पंथों और मतों से, सत्य के संबंध में बहुप्रचारित संस्थाओं, संप्रदायों और चर्चों से अपने को मुक्त कर लेती हैं। जो व्यक्ति आस्तिकता या नास्तिकता से बंध जाता है, जो व्यक्ति सत्य के संबंध में किन्हीं वादों, विवादों और पंथों में बंध जाता है, वह सत्य को उपलब्ध करने में या सत्य की ओर आंखें उठाने में असमर्थ हो जाता है।
यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात है, क्योंकि इस समय जमीन पर कोई तीन सौ पंथ हैं, कोई तीन सौ धारणाएं सत्य के संबंध में प्रचारित और प्रतिपादित की जाती हैं। कोई तीन सौ संप्रदाय हैं जो यह दावा करते हैं कि जो वे कहते हैं वही सत्य है और शेष जो कहते हैं वह सत्य नहीं है। इनके दावे, इनके विरोध, इनके वाद-विवाद सारे जगत के लोगों को अनेक-अनेक खंडों और टुकड़ों में तोड़े हुए हैं। फिर इनमें से कोई भी धारणा कोई मनुष्य स्वीकार कर ले, वह स्वीकार करते ही चित्त बंध जाता है, सीमित हो जाता है और असीम सत्य की ओर आंखें उठानी असंभव हो जाती हैं।
आप भी किसी न किसी पंथ, किसी न किसी धर्म, किसी न किसी संप्रदाय के पक्ष में खड़े होंगे। आप भी किसी मंदिर, किसी चर्च के अनुयायी होंगे। आपने भी बचपन से कुछ बातें स्वीकार कर ली होंगी जो दूसरों ने आपको सिखा दी हैं--जो समाज ने, संप्रदाय ने प्रचारित करके आपके मस्तिष्क में प्रविष्ट करा दी हैं। तो आप स्मरण रखिए, यदि आप किसी भांति किसी पक्ष में बंधे हैं तो और कुछ भी हो जाए सत्य का अनुभव आपको नहीं हो सकता।
जो व्यक्ति स्वयं को किसी धारणा से बांध लेता है वह उस सत्य को जानने में कैसे समर्थ होगा जिसकी कोई धारणा संभव नहीं है? जो व्यक्ति किसी किनारे से अपने को बांध लेता है वह कैसे समर्थ होगा उस सागर में जाने को जहां कि सब किनारे छोड़ देने पड़ते हैं? निष्पक्ष हुए बिना कोई सत्य के पक्ष में नहीं हो सकता है। सबसे बड़ी बाधा मनुष्य की जिज्ञासा की स्वतंत्रता में उनकी यही प्रतिपादित, यही प्रचलित और परंपराओं से स्वीकृत वाद-विवाद हो जाते हैं। शास्त्र और शब्द रोक लेते हैं। विचार और विचारधाराएं बंधन बन जाती हैं। जब कि चित्त की मुक्ति चाहिए। चित्त पर कोई बंधन, कोई आरोपण नहीं होना चाहिए।
यदि आंखें किन्हीं चित्रों से भरी हों तो मैं आपको देखने में असमर्थ हो जाऊंगा। और यदि दर्पण किन्हीं तस्वीरों को पकड़ ले तो फिर दर्पण और दूसरों के प्रतिबिंब बनाने में असमर्थ हो जाएगा। जो समाज सत्य को जाने बिना, कुछ जाने बिना स्वीकार कर लेता है वह सत्य का प्रतिफलन देने में और सत्य का प्रतिबिंब देने में असमर्थ हो जाता है। चित्त का अत्यंत निर्दोष, निष्पक्ष और स्वच्छ होना जरूरी है। उसी अवस्था में आंखें उस ओर उठ सकती हैं और उसी अवस्था में चित्त की गति और चेतना की नाव आनंद-सागर की ओर जा सकती है।
पहली बात है: जिज्ञासा मुक्त और स्वतंत्र हो। इस समय इस जमीन पर बहुत थोड़े लोग हैं जिनकी जिज्ञासा स्वतंत्र और मुक्त है।
मैंने एक छोटी-सी कहानी सुनी है; अत्यंत काल्पनिक कहानी है लेकिन विचार करने जैसी है। वह शायद उपयोग की हो। मैंने सुना है, एक मुसलमान सूफी फकीर ने एक रात्रि स्वप्न देखा कि वह स्वर्ग में पहुंच गया है और उसने वहां यह भी देखा कि स्वर्ग में बहुत बड़ा समारोह मनाया जा रहा है। सारे रास्ते सजे हैं। बहुत दीप जले हैं। बहुत फूल रास्ते के किनारे लगे हैं। सारे पथ और सारे महल सभी प्रकाशित हैं। उसने जाने वालों से पूछा, आज क्या है? क्या कोई समारोह है? और उसे ज्ञात हुआ कि आज भगवान का जन्मदिन है और उनकी सवारी निकलने वाली है। वह एक दरख्त के पास खड़ा हो गया।
लाखों लोगों की बहुत बड़ी शोभायात्रा निकल रही है। सामने घोड़े पर एक अत्यंत प्रतिभाशाली व्यक्ति बैठा हुआ है। उसने लोगों से पूछा, यह प्रकाशवान व्यक्ति कौन है? ज्ञात हुआ कि यह ईसा मसीह हैं और उनके पीछे उनके अनुयायी हैं। लाखों-करोड़ों उनके अनुयायी हैं। उनके निकल जाने के बाद वैसे ही दूसरे व्यक्ति की सवारी निकली, तब फिर उसने पूछा कि यह कौन हैं? उसे ज्ञात हुआ, यह हजरत मोहम्मद हैं। वैसे ही लाखों लोग उनके पीछे हैं। फिर बुद्ध हैं। फिर महावीर हैं, जरथुस्त्र हैं, कनफ्यूशियस हैं और सबके पीछे करोड़ों-करोड़ों लोग हैं। जब सारी शोभायात्रा निकल गई तो पीछे अत्यंत दीन और दरिद्र सा एक वृद्ध घोड़े पर सवार है। उसके पीछे कोई नहीं है। उसने पूछा, यह कौन है? और ज्ञात हुआ कि यह स्वयं परमात्मा हैं। घबराकर उसकी नींद खुल गई और हैरान हुआ...।
यह स्वप्न में सत्य नहीं हुआ है, यह आज सारी जमीन पर सत्य हो गया है। लोग क्राइस्ट के साथ हैं, बुद्ध के साथ हैं, राम के साथ हैं, कृष्ण के साथ हैं, परमात्मा के साथ कोई भी नहीं है। जिसे परमात्मा के साथ होना हो उसे बीच में किसी मध्यस्थ को लेने की कोई भी जरूरत नहीं। और जो परमात्मा के साथ हो, वह स्मरण रखे कि क्राइस्ट के साथ हो ही जाएगा, लेकिन जो क्राइस्ट के साथ है, अनिवार्य नहीं है कि वह परमात्मा के साथ हो जाएगा। जो परमात्मा के साथ है, वह राम, बुद्ध, कृष्ण और महावीर के साथ हो ही जाएगा, लेकिन जो उनके साथ है स्मरण रखे कि अनिवार्य नहीं कि वह परमात्मा के साथ हो जाएगा।
और फिर यह भी स्मरण रहे कि जो बुद्ध के साथ है, कृष्ण के विरोध में है; और जो क्राइस्ट के साथ है और राम के विरोध में है; और जो महावीर के साथ है तथा कनफ्यूशियस के विरोध में है, वह कभी परमात्मा के साथ नहीं हो सकता। जो परमात्मा के साथ है वह एक ही साथ क्राइस्ट, राम, बुद्ध, महावीर सबके साथ हो जाता है।
अपने मन में यह स्मरण रखने की बात है कि सत्य बहुत नहीं हो सकते, सत्य एक ही हो सकता है। और जो एक सत्य है उसके साथ अगर होना है तो सत्य के नाम से जो सत्य की अनेक धारणाएं प्रचलित हैं उनका त्याग कर देना अनिवार्य है। इसके पहले कि कोई मनुष्य धार्मिक हो सके, उसे जैन, हिंदू, मुसलमान और ईसाई होना छोड़ देना चाहिए। इसके पहले कि कोई धार्मिक हो सके, उसे धर्मों के नाम से जो पंथ प्रचलित हैं उनसे थोड़ा दूर हट जाना चाहिए। जितना उनसे दूर होगा उतना धर्म के निकट होगा और जितना आबद्ध होगा उतना धर्म से दूर हो जाएगा। यह स्वाभाविक भी है। किंतु यह इसलिए भी स्वाभाविक है कि जिस सत्य को हम दूसरों से स्वीकार कर लेते हैं वह हमारे लिए सत्य नहीं होता है।
सत्य के संबंध में कुछ बातों में से एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि वह स्वानुभूत हो तो ही सत्य होता है, दूसरे का हो तो असत्य हो जाता है। सत्य कोई भी दूसरा व्यक्ति तीसरे व्यक्ति को नहीं दे सकता। सत्य कोई ऐसी संपदा नहीं जो हस्तांतरित हो सके या ट्रांसफर हो सके। सत्य कोई ऐसी बात नहीं है कि आप उसे उधार ले सकें या चोरी कर सकें या भिक्षा में पा सकें। सत्य अकेली संपत्ति है जो स्वयं ही पानी होती है और कोई रास्ता नहीं है।
बहुत प्राचीन समय में ऐसा हुआ कि एक राज्य में एक युवक की अत्यंत वीरतापूर्ण घटनाओं से, उसके अत्यंत दुस्साहसपूर्ण कार्यों से राज्य का सम्राट बहुत प्रसन्न हो गया और उसने कहा कि राज्य का जो सबसे सम्मानित पद है वह दूंगा तथा जो सबसे सम्मानित पदवी है उसे समर्पित करूंगा, उसे भेंट करूंगा।
यह घटना राज्य के द्वारा इस तरह से सम्मानित होने की तीन सौ वर्षों से उस राज्य में नहीं घटी थी। उस युवक को प्रसन्न हो जाना चाहिए था। लेकिन लोगों ने राजा को कहा कि युवक प्रसन्न नहीं है। राजा ने उसे बुलाया और उससे कहा कि तीन सौ वर्षों से यह सम्मान किसी को नहीं मिला है; राज्य का सर्वोच्च सम्मान मैं तुम्हें दे रहा हूं, किंतु सुना कि तुम प्रसन्न नहीं हो!
उस युवक ने कहा कि मुझे धन नहीं चाहिए, मुझे पद नहीं चाहिए, मुझे यश और गौरव नहीं चाहिए, मैं कुछ और मांगता हूं; यदि राज्य उसे दे सके तो मैं कृतकृत्य हो जाऊं। राजा ने कहा कि जो कहोगे मैं दूंगा। सारे राज्य की शक्ति लग जाए तो भी मैं दूंगा।
उस युवक ने कहा कि मुझे सत्य चाहिए। राजा दो क्षण चुप रह गया और उसने कहा कि मुझे क्षमा करो, वह मेरे पास तो है नहीं जो मैं दे दूं। मुझे खुद ही सत्य का पता नहीं और मेरे सारे राज्य की सारी शक्ति और संपदा उसे खरीद नहीं सकेगी। क्योंकि अगर राज्य की शक्तियां और संपदाएं सत्य को खरीद सकतीं तो जिन्होंने राज्य, सत्य को पाने के लिए छोड़े वे नासमझ थे। क्योंकि अगर संपदा सत्य को खरीद सकती तो जिन्होंने संपदा को ठोकर मारी और सत्य को खोजा वे पागल थे। क्योंकि अगर सत्य असल में किसी से मांगने से मिल जाता तो जिन्होंने तपस्या की, साधना की वे गलती में थे।
शिक्षा मांगनी नहीं चाहिए। तो यह उसने कहा कि मुझे दिखाई नहीं देता कि सत्य कोई दे सकता है! फिर मेरे पास सत्य है भी नहीं, मैं कैसे दे सकता हूं! हां, मैंने सुना है पहाड़ में एक संन्यासी के बाबत कि उसे सत्य उपलब्ध हुआ है। मैं तुम्हारी ओर से प्रार्थना करूंगा उस संन्यासी के चरणों में सिर रख कर।
उस पहाड़ पर राजा उस युवक को साथ ले गया। उसके चरणों में सिर रख कर उसने प्रार्थना की और कहा कि जो मैंने वरदान दिया है कि जो यह मांगेगा वह मैं दूंगा, लेकिन इसने सत्य मांगा और मेरे पास तो वह है ही नहीं! मैं आपके पास आया हूं, इसे सत्य दे दें। वह संन्यासी भी वैसा ही सुन कर चुप रह गया जैसे खुद राजा रह गया था। और फिर उसने कहा, अकेला सत्य एक ऐसा तत्व है जो कोई दूसरा किसी को नहीं दे सकता है। जिस दिन सत्य दिया जा सकेगा उस दिन सत्य सत्य नहीं रह जाएगा।
सत्य दिया नहीं जाता, उसे तो पाना होता है। लेकिन हम जिन सत्य की धारणाओं को पकड़ लेते हैं वे पाई हुई नहीं हैं, दी हुई हैं। आप जो भी धर्म स्वीकार किए हैं वह आपने पाया नहीं है, स्वीकार किया है। परंपरा ने, माता-पिता ने, परिवार ने, संस्कारों ने आपको दिया है। जो भी दिया गया है वह सत्य नहीं हो सकता। अधिक लोग उस दिए गए सत्य को ही सत्य मान कर जीवन व्यतीत कर देते हैं और इससे बड़ी कोई दूसरी वंचना नहीं हो सकती।
स्मरण रखिए, जो भी आपको दिया गया है वह सत्य नहीं हो सकता। सत्य को पाने के लिए पहला चरण होगा, जो दिया गया है उसे अस्वीकार कर देना। अगर नास्तिकता दी गई है तो नास्तिकता अस्वीकार कर दें, अगर आस्तिकता दी गई है तो आस्तिकता अस्वीकार कर दें।
सोवियत रूस में बीस करोड़ लोग हैं। चालीस वर्षों से उनका देश नास्तिकता का संस्कार दे रहा है। शिक्षा में, प्रचार में, साहित्य में, वे अपने युवकों को समझा रहे हैं कि नहीं, न कोई ईश्वर है, न कोई परमात्मा है और न कोई आत्मा है; मोक्ष और धर्म सब अफीम का नशा है। चालीस वर्ष में बीस करोड़ लोगों को उन्होंने सहमत कर लिया है कि धर्म अफीम का नशा है और कोई ईश्वर नहीं है, और कोई आत्मा नहीं है। चालीस वर्ष के प्रोपेगेंडा ने बीस करोड़ लोगों के मस्तिष्क में यह बैठा दिया है कि नास्तिकता ही सत्य है और आस्तिकता मूर्खता की बात है।
आप कहेंगे कि उनकी दृष्टि गलत है; मैं कहूंगा, आपकी दृष्टि भी गलत है। अगर चालीस वर्ष के प्रचार से नास्तिकता भीतर बैठ सकती है तो आपकी भी जो आस्तिकता है वह चार हजार वर्ष के प्रचार से आस्तिकता भी बैठ सकती है। उनकी नास्तिकता जैसी थोथी है, आपकी आस्तिकता भी उससे ज्यादा मूल्य नहीं रखती; वह भी उतनी ही थोथी है। और यही वजह है कि आप कहने को आस्तिक होंगे, धार्मिक होंगे, मंदिर में, पूजा में निष्ठा रखते होंगे, लेकिन आपके जीवन में धर्म की कोई किरण दिखाई नहीं देगी। यही वजह है कि दूसरे का दिया हुआ धर्म कभी जीवंत नहीं हो सकता। कभी वह आपके प्राणों की ऊर्जा नहीं बन सकता है। वह केवल आपकी एक बौद्धिक निष्ठा और आस्था मात्र बन कर रह जाता है।
जिज्ञासा स्वतंत्र होनी चाहिए। किससे स्वतंत्र? जीवन से, संस्कार से, संप्रदाय से। जो संस्कार से आबद्ध है, समाज और संप्रदाय से आबद्ध है, और जो संस्कारों से घिरा हुआ है, उसके पैर जमीन में गड़े हैं; वह आकाश में उड़ नहीं सकता। किनारे तो उसकी नाव की जंजीरें बंधी हैं; वह आनंद-सागर में यात्रा नहीं कर सकता।
लेकिन समाज को छोड़ कर, भाग कर संन्यासी हो जाते हैं। ऐसे सैकड़ों संन्यासियों से मैं निकट से परिचित हूं, जिन्होंने समाज छोड़ दिया, घर छोड़ दिया और परिवार छोड़ दिया। उन संन्यासियों से जब मैं मिलता हूं तो उनसे कहता हूं कि समाज छोड़ कर भाग जाने से कुछ भी नहीं होगा, क्योंकि समाज के संस्कार अगर चित्त में बैठे हैं तो समाज के भीतर में आप हैं। घर-बार और मां-बाप को छोड़ कर भाग जाने से कुछ नहीं होगा; मां-बाप ने जो विश्वास दिए थे वे आपके भीतर बैठे हैं तो आप मां-बाप के साथ ही हैं।
समाज और संस्कार को छोड़ने का अर्थ यह नहीं है कि कोई गांव को छोड़ कर जंगल में चला जाए। समाज को छोड़ने का अर्थ है कि समाज ने जो विश्वास दिए हैं उनको छोड़ देना है। बड़े साहस की बात है। जिज्ञासा इस जगत में सबसे बड़े साहस की बात है। इंक्वायरी इस जगत में सबसे बड़े साहस की बात है। अपने मां-बाप को छोड़ना उतना कठिन नहीं, समाज को छोड़ कर भाग जाना उतना कठिन नहीं, जितना समाज के द्वारा दिए गए संस्कारों को छोड़ देना कठिन है। क्यों? क्योंकि डर लगता है अकेला हो जाने का। समाज में, भीड़ में हम अकेले नहीं होते, हजारों लोग हमारे साथ हैं। उनकी भीड़ हमें विश्वास दिलाती है कि जब इतने लोग मानते हैं इस बात को तो वह बात जरूर सत्य होगी। भीड़ विश्वास दिला देती है। मूर्खतापूर्ण बातों पर भी भीड़ विश्वास दिला देती है। अगर भीड़ साथ हो तो व्यक्तियों से ऐसे काम कराए जा सकते हैं जो वे अकेले में करने को कभी राजी न होंगे।
दुनिया में जितने पाप हुए हैं, उनमें अकेले व्यक्तियों ने बड़े पाप नहीं किए हैं, भीड़ ने बड़े पाप किए हैं। भीड़ पाप इसलिए कर सकती है कि उसमें ऐसा लगता है कि जो कहा जा रहा है वह ठीक ही होगा। इतने लोग साथ हैं, इतने लोग नासमझ हो सकते हैं? अगर एक धर्म यह कहे कि हम एक मुल्क पर हमला करते हैं; क्योंकि यह धर्म का जेहाद है; क्योंकि हम धर्म का प्रचार करने जा रहे हैं; दुनिया को धर्म सिखाने जा रहे हैं। अगर एक आदमी को यह कहा जाए कि धर्म के प्रचार में हजारों लोगों की हत्या करनी होगी तो वह आदमी शायद संकोच करे, विचार करे। जब वह देखता है कि लाखों लोग साथ हैं तो अपने विचार की फिक्र छोड़ देता है कि इतने आदमी साथ हैं तो जो कहते होंगे ठीक ही कहते होंगे। इसलिए भीड़ को छोड़ने में डर लगता है। क्योंकि भीड़ को छोड़ने का अर्थ है पूरी जीवन-दृष्टि पर रिकंसीडरेशन करना होगा। इसलिए सारे लोग भीड़ से चिपके रहते हैं। हर आदमी भीड़ से चिपका रहता है।
लेकिन स्मरण रखें, जो अकेले होने को राजी नहीं है, जो भीड़ से मुक्त नहीं हो सकता, वह सत्य की बातों पर विचार करना छोड़ दे। उसे सत्य से कभी कोई संबंध नहीं होगा। सत्य का रास्ता बहुत अकेला रास्ता है। लोग सोचते हैं, अकेले का अर्थ है पहाड़ पर चले जाना। लोग सोचते हैं, अकेले का अर्थ है घर-द्वार छोड़ देना।
अकेले का अर्थ है, भीड़ का साथ छोड़ देना। भीड़ से मुक्त हो जाए तो आदमी अकेला हो जाए। जिज्ञासा साहस की बात है और साहस शर्त है सत्य को पाने की। जिनमें साहस नहीं है वे जमीन पर ही रेंगते रहेंगे, आकाश में उड़ नहीं सकेंगे। जिनमें साहस नहीं है वे दूसरों के उधार सत्यों को ही ढोते रहेंगे, अपने सत्य की तलाश नहीं कर सकेंगे। और जिसके पास अपना सत्य न हो, वह जीवित है? तो उसके जीवित होने का न कोई अर्थ है और न कोई अभिप्राय है और न ही यह उचित है कि हम उसे जीवित कहें। जब अपना सत्य होता है तो जीवन में प्रकाश हो जाता है, क्योंकि सत्य दीए की भांति सारे जीवन को आलोकित कर देता है।
पहला सूत्र है: अपनी जिज्ञासा को जीवन से मुक्त कर लें, अपनी जिज्ञासा को संस्कार से मुक्त कर लें, अपनी जिज्ञासा को निजी कर लें, व्यक्तिगत कर लें, और सत्य को अपने और परमात्मा के बीच का संबंध समझें। उसमें आपका परिवार, आपका संप्रदाय, आपका परिवार कहीं भी नहीं आता है। और यह चित्त को मुक्त करके उसकी जंजीरों को तोड़ देने की पहली धारणा है।
पहला सूत्र मैंने आपको कहा अपनी जिज्ञासा को मुक्त करने का। दूसरी बात जो जिज्ञासा से ही संबंधित है और मैंने कही है वह है साहस को उत्पन्न करने की। हम सारे लोग अत्यंत कमजोर हैं, हम सारे लोग अत्यंत दरिद्र हैं, हम सारे लोग अत्यंत शक्तिहीन हैं। और हमारी शक्तिहीनता और हमारी दरिद्रता और हमारे साहस की कमी इकट्ठी मिल कर हमारी गति को, हमारे ऊपर उठने को, हमारे ऊर्ध्वगमन को बंद कर देती है। यदि कुछ थोड़ा भी हम साहस जुटा पाएं, थोड़ा-सी शक्ति जुटा पाएं, थोड़ी हिम्मत कर सकें, तो गति संभव हो सकती है।
और यह मैं आपको कहूं कि कोई कितना भी कमजोर हो, एक कदम उठाने की सामर्थ्य सब में है। हजार मील चलने की न हो, हिमालय चढ़ने की न हो, लेकिन एक कदम उठा लेने की सामर्थ्य सबके भीतर है। अगर हम थोड़ा-सा साहस जुटाएं तो एक कदम निश्चित ही उठा सकते हैं।
दूसरी बात आपसे यह कहूं कि जो एक कदम उठा सकता है वह हिमालय चढ़ सकता है, जो एक कदम उठा सकता है वह हजारों मील चल सकता है। क्योंकि इस जगत में एक कदम से ज्यादा चलने का कोई सवाल नहीं है। एक कदम से ज्यादा कभी कोई चलता भी नहीं। हमेशा एक कदम चला जाता है। गांधीजी अपने प्रार्थना गीतों में एक भजन गाया करते थे; उस भजन की एक पंक्ति है: वन स्टेप इज़ इनफ फॉर मी--एक ही कदम मेरे लिए काफी है। परमात्मा से प्रार्थना है कि मुझे एक ही कदम की शक्ति दे दे। एक कदम मेरे लिए काफी है।
एक कदम सबके लिए काफी है। क्योंकि दो कदम कोई भी एक साथ नहीं उठा सकता है। एक ही कदम उठाने की सामर्थ्य जुटा लेने की बात है। और उतनी सामर्थ्य प्रत्येक में है, जो जीवित है; और उसे जुटाने की बात है।
हमारा साहस, हमारी शक्ति, करीब-करीब बिखरी रहती है। उसे हम जुटा नहीं पाते हैं। उसे हम इकट्ठा नहीं कर पाते हैं। क्या उसे हम इकट्ठा इसलिए नहीं कर पाते कि सत्य की जिज्ञासा हमारे भीतर कभी प्यास नहीं बनती? वह एक बौद्धिक ऊहापोह रहती है? अधिक लोग हैं जो मुझसे पूछते हैं कि ईश्वर है? अधिक लोग हैं जो पूछते हैं कि आत्मा है? यदि मैं उनसे कहूं कि क्या तुम सौ कदम मेरे साथ चलने को राजी हो तब मैं उत्तर दूंगा, वे कहेंगे कि अभी मेरे पास फुर्सत नहीं है! अगर मैं उनसे कहूं कि आप तीन दिन तक मेरे पास रुकने का धैर्य रख सकोगे तो मैं उत्तर दूं, शायद वे कहेंगे कि तीन दिन हमारे पास नहीं हैं।
ईश्वर की, आत्मा की, सत्य की जो जिज्ञासा मात्र बौद्धिक ऊहापोह हो, मात्र एक बौद्धिक खुजलाहट हो, तो आप साहस को नहीं जुटा सकेंगे। साहस केवल वे ही जुटा पाते हैं जिनकी जिज्ञासा जिज्ञासा ही नहीं, अभीप्सा होती है, जिनकी जिज्ञासा प्यास होती है।
बुद्ध के पास एक युवक गया और उस युवक ने कहा, मैं सत्य के संबंध में जानने को आपके पास आया हूं। बुद्ध ने पूछा, जानने के मूल्य के बतौर क्या चुका सकोगे? सत्य तो जाना जा सकता है, लेकिन मूल्य क्या चुकाओगे? क्राइस्ट के पास भी एक युवक गया और उसने कहा कि मैं जानने को आया हूं कि क्या परमात्मा है? क्राइस्ट ने कहा कि यह तो जान सकोगे, लेकिन कीमत क्या चुकाने को राजी हो? जाओ, अपनी सारी संपत्ति को बांट कर आ जाओ, मैं तुम्हें सत्य के लिए आश्वासन देता हूं कि सत्य की ओर तुम्हें पहुंचाया जाएगा। उस युवक ने कहा कि संपत्ति को बांट आऊं? फिर विचार करना पड़ेगा! वह युवक वापस लौट गया। फिर उस गांव से ईसा कई बार गुजरे, लेकिन वह उनसे मिलने नहीं आया।
एक भारतीय साधु चीन गया था, बोधिधर्म। वह हमेशा दीवार की ओर मुंह करके बैठता था, कभी लोगों की ओर मुंह नहीं करता था। लोगों ने उससे चीन में पूछा कि यह क्या पागलपन है, आप दीवार की ओर मुंह किए बैठे हो?
बोधिधर्म ने कहा कि तुम्हारी तरफ मैं मुंह करता हूं तो तुमको मैं दीवार की तरह पाता हूं। तुमसे बात करने का कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि तुम्हारे भीतर जिस बात की प्यास नहीं है, उसकी वर्षा करने का फायदा क्या? तुम भी दीवार की भांति हो इसलिए मुंह दीवार की तरफ किए रहता हूं। कम से कम दीवार पर दया तो नहीं आती। जब कोई आदमी ऐसा आएगा जिसके भीतर प्यास हो तो मैं उसकी ओर मुंह कर दूंगा।
नौ वर्ष तक वह चीन में था। उसने दीवार की तरफ से मुंह नहीं हटाया। एक दिन हुईनेंग नाम का एक व्यक्ति आया और उसके पीछे खड़ा हो गया। हुईनेंग ने कहा कि इस तरफ मुंह कर लो! बोधिधर्म, मुंह इस तरफ कर लो! वह आदमी आ गया जिसकी प्रतीक्षा थी। बोधिधर्म ने कहा कि प्रमाण? दीवार की तरफ ही मुंह रहा और कहा कि प्रमाण? इस आदमी ने एक हाथ काट कर उसके हाथ में रख दिया। बोधिधर्म घबरा गया। और उस आदमी ने कहा कि अगर थोड़ी देर और रुके तो गर्दन से प्रमाण दे दूंगा। बोधिधर्म ने मुंह इस तरफ कर लिया। उसने कहा, ठीक है कि वह आदमी आ गया।
सत्य के लिए अगर थोड़ी-सी प्यास हो तो अदम्य साहस की जो बिखरी हुई शक्तियां हैं वे इस प्यास के केंद्र पर इकट्ठी हो जाती हैं। स्मरण रखिए, सत्य हमेशा प्यास के केंद्र पर इकट्ठा हो जाता है। जो प्यास होती है वह शक्ति बन जाती है। आपकी जो प्यास है वही आपकी शक्ति है।
शीरी का आपने नाम सुना होगा, फरहाद और शीरी का। शीरी ने फरहाद से पूछा कि तुम मुझे प्रेम करते हो? फरहाद ने कहा कि अगर कहूंगा तो क्या विश्वास होगा? कैसे विश्वास दिलाऊं? शीरी ने कहा कि गांव के पीछे जो पहाड़ है उसको खोद कर अलग कर दो। फरहाद ने फावड़ा उठाया और पहाड़ पर चला गया। कहा जाता है कि उसने सूरज उगने से पहले पहाड़ को खोद कर फेंक दिया।
यह बात तो काल्पनिक ही कही जा सकती है, सूरज उगने के पहले उसने पहाड़ को खोद कर फेंक दिया। लेकिन यह बात काल्पनिक हो तो भी सच है। जिनके भीतर प्यास हो और प्रेम हो, उनके लिए और भी कम समय में पहाड़ खोद कर फेंका जा सकता है। असल में पहाड़ है ही इसलिए क्योंकि हमारे अंदर प्यास नहीं है। प्यास हो तो पहाड़ मिट जाता है। रास्ते पर जो भी अड़चनें हैं वे इसलिए हैं कि हमारे भीतर प्यास नहीं है। हमारे भीतर प्यास की जलती अग्नि हो तो रास्ता सीधा और राजपथ हो जाता है। सारी कठिनाइयां दूर हट जाती हैं, क्योंकि कठिनाइयों का अनुपात वही होता है जो हमारी कमजोरी का अनुपात है। जितनी शक्ति इकट्ठी हो उतनी कमजोरी टूट जाती है और मार्ग की बाधाएं नष्ट हो जाती हैं। जिनकी केवल जिज्ञासा है वे केवल ज्यादा से ज्यादा तत्व-चर्चा को उपलब्ध हो सकते हैं, तत्व-साक्षात को नहीं।
पूरब और पश्चिम का यही फर्क है। पश्चिम ने भी दो-ढाई हजार वर्षों में साहित्य का अनुसंधान किया है, लेकिन वे फिलासफी के ऊपर नहीं जा सके, वे रियलाइजेशन पर नहीं जा सके। उन्होंने तत्व-चिंतन तो किया, लेकिन वे केवल जिज्ञासाएं मात्र थीं, अभीप्साएं नहीं थीं। वे कोई ऐसी बातें नहीं थीं जिन पर वे अपने प्राण को न्योछावर कर सकें और समर्पित कर सकें। वे कोई ऐसी तलाश और खोजें नहीं थीं कि वहां वे अपने जीवन के मूल्य चुकाने को राजी हों। और जो मनुष्य सत्य के ऊपर किसी और चीज को रखता है वह यह समझ ले, अभी उसकी प्यास नहीं जगी और समय नहीं आया।
आप अपने भीतर निर्णय करें और विचार करें कि क्या परमात्मा को या सत्य को, जो भी है जगत में उसको खोजने के लिए, जो भी भीतर है उसको खोजने के लिए प्यास का जागरण शुरू हो गया है? यदि जागरण शुरू नहीं हुआ तो उसके पहले खोज में लग जाना व्यर्थ होगा। तब बेहतर है कि पहले प्यास को सजग करने की चेष्टा करें और फिर तलाश में लगें। बहुत-से लोग बिना प्यासे हुए खोजने चले जाते हैं। वे जीवन भर दौड़ते हैं, उन्हें कुछ मिलता नहीं है।
मुझे संन्यासी मिलते हैं, वे कहते हैं कि मुझे चालीस वर्ष हुए, हम खोज कर रहे हैं किंतु कुछ मिला नहीं। मैं उनसे पूछता हूं कि पहले यह खोजो कि खोजने के पहले प्यास पैदा हो गई कि नहीं? अगर प्यास पैदा नहीं हुई तो खोज व्यर्थ है, क्योंकि पानी की पहचान ही नहीं हो सकेगी जब तक प्यास नहीं होगी। मेरे सामने नदी बहती रहे, झरने बहते रहें, और मेरे भीतर प्यास न हो तो पानी को पहचानूंगा कैसे?
पानी की पहचान पानी में नहीं, मेरी प्यास में है। यदि मेरे भीतर प्यास है तो पानी पहचान लिया जाएगा। और मेरे भीतर प्यास नहीं है तो पानी पहचाना नहीं जा सकेगा। सत्य तो निरंतर मौजूद है। मेरे भीतर प्यास है तो उसी वक्त पहचाना जा सकेगा। और मेरे भीतर प्यास न हो तो कैसे पहचानूंगा?
सत्य को शास्त्रों से नहीं, प्यास से पहचाना जाता है। तो इसके पहले कि प्यास हो... कैसी प्यास हो? जिज्ञासा हो अकेली? जिज्ञासा काफी नहीं है। जिज्ञासा अभीप्सा बने--प्राणों की प्यास बन जाए। और प्राणों की प्यास कैसे बनेगी? कुछ चीजों को देखने से प्राणों की प्यास बन जाएगी। आंख खोलें और चारों तरफ देखें।
वहां दूर इटली में एक साधु हुआ है, और जब वह मर रहा था तो लोगों ने उससे पूछा कि तुम साधु कैसे हुए? उसने कहा कि मैंने आंख खोल कर देखा तो साधु होने के सिवाय कोई उपाय नहीं रह गया।
पूछा, आंख खोल कर देखा? हम भी आंख खोल कर देख रहे हैं!
उसने कहा, मैंने बहुत कम लोग देखे जो आंख खोल कर देख रहे हों, अधिक लोग आंख बंद किए देख रहे हैं।
मैं भी आपसे कहता हूं कि अधिक लोग आंख बंद करके देख रहे हैं। अगर आंख खोल कर देखेंगे तो इतनी प्यास पैदा होगी उसको जानने के लिए कि जो इस सबके पीछे छिपा है, जिसका कोई हिसाब नहीं, सारे प्राण ही प्यास की लपटों में बदल जाएंगे।
आंख खोल कर देखने का अर्थ है जो दिखाई पड़ा है, सामान्यतः जो दिखाई पड़ रहा है, वही नहीं, बल्कि सामान्यतः जो दिखाई पड़ रहा है उसके पीछे जो राज छिपे हुए हैं, वह देखना चाहिए।
बुद्ध का जन्म हुआ तो ज्योतिषियों ने बुद्ध के पिता से कहा कि यह बच्चा बड़ा होकर या तो चक्रवर्ती या संन्यासी हो जाएगा। सारे घर में रुदन हो गया, सारे घर में घबराहट फैल गई। एक ही पुत्र हुआ था, बहुत प्रतीक्षा के बाद हुआ था, और वह भी संन्यासी हो जाएगा! तो बुद्ध के पिता ने पूछा, क्या रास्ता है कि उसे संन्यासी होने से रोक सकूं? क्या मार्ग है कि यह संन्यासी होने से रुक जाए? हम अपनी सारी शक्ति लगा देंगे। ज्योतिषियों ने और विचारशील लोगों ने कहा, एक ही मार्ग है, इसकी आंखें न खुलने पाएं।
अजीब उन्होंने बात कही: इसकी आंखें न खुलने पाएं, फिर आंखें खुलीं तो कोई भी आदमी संन्यासी हुए बिना नहीं रह सकता। आंख न खुलने पाए, यह कैसे होगा? उन्होंने मार्ग बताया, वैसी व्यवस्था की गई। व्यवस्था तीन बातों की की गई: बुद्ध को जगत में किसी तरह का दुख दिखाई न पड़े; बुद्ध को जगत में किसी भांति की जरा, मरण, मृत्यु दिखाई न पड़े; बुद्ध को जगत में विचार करने का मौका न आने पाए।
ये तीन व्यवस्थाएं की गईं। ये तीन व्यवस्थाएं आप भी किए हुए होंगे। हर आदमी अपने लिए किए हुए है। दुख दिखाई न पड़े, मृत्यु दिखाई न पड़े, और विचार का मौका न आने पाए। विचारशील लोगों ने कहा, ऐसा करें, इतना भोग में लगा दें, इतना व्यस्त कर दें कि विचार करने का मौका न आ पाए। जो जितना भोग में व्यस्त होगा, विचार करने का मौका कम पैदा होता है। जो जितना निरंतर सुबह से शाम तक लगा रहेगा उसे विचार करने का मौका कम पैदा होता है। भोग के बीच अंतराल हो तो विचार पैदा होता है।
तो उनके पिता ने ऐसी व्यवस्था की कि संगीत में, शराब में, स्त्रियों में, वैभव में सुबह से शाम रात आ जाए, उसे मौका न मिले सोचने का। ऐसे मकानों में उन्हें रखा गया कि कोई कुम्हलाया हुआ फूल बुद्ध नहीं देख पाएं। कुम्हलाए फूल रात में अलग कर दिए जाते थे। कोई कुम्हलाया हुआ पौधा न देख पाएं। वह जहां रहते थे वहां कोई वृद्ध व्यक्ति न जा पाए, कोई बीमार न जा पाए, ऐसी व्यवस्था थी। किसी तरह की रुग्णता का उन्हें पता न चले। जीवन में सुख ही सुख है, फूल ही फूल हैं, कोई कांटा नहीं है।
बुद्ध युवा हुए तब तक उनकी आंखें बंद रहीं।
हम में से बहुत-से बूढ़े हो जाते हैं तब तक आंखें बंद रहती हैं।
एक दिन वह गांव से निकले एक महोत्सव में, युवक महोत्सव में भाग लेने को। रास्ते में पहली दफा कहा जाता है कि उन्होंने एक वृद्ध को देखा। बुद्ध ने अपने सारथी से पूछा, इस व्यक्ति को क्या हो गया है?
जिसने अब तक कोई बूढ़ा न देखा हो, स्वाभाविक था वह पूछे कि इस व्यक्ति को क्या हो गया है। अगर मुझसे बुद्ध के पिता ने पूछा होता कि मैं क्या करूं तो मैं कहता कि बचपन से जो भी दुख हैं, पीड़ाएं हैं, इसे देखने दें। यह उनका आदी हो जाएगा। जिन्होंने बुद्ध के पिता को सलाह दी वह सलाह गलत हो गई। चूंकि युवा होने तक कोई बूढ़ा नहीं देखा था। इसलिए जब एकदम से बूढ़ा देखा तो आंख खुल गई। वे आदी नहीं थे, वह हैबिट न हो पाई थी देखने की। और जो उनके पिता ने समझा था रुकने का कारण, वही आज जाने का कारण हो गया।
देखा बूढ़े को तो बुद्ध ने पूछा, यह क्या हो गया? सारथी ने कहा, यह आदमी बूढ़ा हो गया है। बुद्ध ने पूछा, क्या हर आदमी बूढ़ा हो जाता है? सारथी ने कहा, हर आदमी बूढ़ा हो जाता है। बुद्ध ने पूछा कि क्या मैं भी? सारथी ने कहा, कोई भी अपवाद नहीं है। बुद्ध ने कहा, रथ को वापस लौटा लो, युवक महोत्सव में जाने का क्या प्रयोजन?
यह देखना आंख खोल कर देखना है।
बुद्ध ने तीन प्रश्न पूछे: इस आदमी को क्या हुआ है? क्या हर आदमी को ऐसा हो जाएगा? क्या मुझे भी ऐसा हो जाएगा? सारथी ने कहा, कोई भी अपवाद नहीं है, आप भी बूढ़े हो जाएंगे। बुद्ध ने कहा, मैं बूढ़ा हो गया, रथ वापस लौटा लो।
और मार्ग में उन्होंने एक मृतक की लाश देखी। लोग उसके शव को लिए जाते हैं। और बुद्ध ने पूछा, यह क्या हुआ? क्या यह हर आदमी को होगा? क्या यह मुझे भी होगा? सारथी ने कहा, मैं कैसे कहूं? लेकिन जो जन्मता है उसको मरना होता है।
रथ वापस करो, मैं मर गया।
यह देखना है। यह आंख खोल कर देखना है। अगर कोई आंख खोल कर देखे तो हर मरते हुए आदमी में अपनी मृत्यु को देखेगा। अगर कोई आंख बंद करके देखेगा तो यह देखेगा कि वह आदमी मर रहा है, मैं मरूंगा यह उसे खयाल नहीं आएगा। रोज हम मरते हुए देखते हैं, लेकिन आंख बंद है कि लोग तो मरते हैं लेकिन अपनी मौत दिखाई नहीं पड़ती।
जीवन में आंख खोल कर देखने की बात है। जो भी आप देख रहे हैं, विचार कर लें, समझ लें जो कि चारों ओर हो रहा है, आप उसके हिस्से हैं, और वह आपके साथ होगा।
अगर हम आंख खोल कर देख लें! हम कहते हैं कि महावीर के पास राज्य था, बुद्ध के पास राज्य था, वे अपने राज्य को ठोकर मार कर चले गए, लेकिन हम राज्य की खोज में लगे हैं। अगर हम देख सकें कि जिनके पास धन है, आंख खोल कर देख सकें कि उनके पास आनंद है? लेकिन हम धन की खोज में लगे हैं। जिसके पास पद है, प्रतिष्ठा है, अगर हम आंख खोल कर देख सकें तो पूछना पड़ेगा कि उनके भीतर शांति है? लेकिन हम भी पद और प्रतिष्ठा की खोज में लगे हैं। हम अंधे ही हो सकते हैं, क्योंकि जिन गङ्ढों में दूसरे गिरे हैं हम भी उन गङ्ढों को खोज रहे हैं।
तो हमारे पास आंखें हैं यह नहीं माना जा सकता। आंख खोल कर देखने का अर्थ है जो चारों तरफ हो रहा है उसके प्रति सजग हो जाएं और अपने प्रति भी विचार कर लें कि जो चारों तरफ हो रहा है वह मेरे साथ भी होगा। निश्चित है उसका होना। अगर यह बोध दिख जाए, अगर यह दुख, यह पीड़ा, यह एक्झिस्टेंस, यह अस्तित्व की सारी की सारी संताप-स्थिति अनुभव हो जाए तो प्राण एकदम छटपटाने लगेंगे और यह खयाल होगा कि क्या अगर यही जीवन है तो जीवन व्यर्थ है या फिर कोई और जीवन हो सकता है? उसकी मैं खोज करूं।
जब तक मुझे दिखाई न पड़े कि इस भवन में आग लगी है, तब तक मैं कैसे इस भवन के बाहर निकलने के लिए उत्कंठित हो सकता हूं! दूसरे मुझसे कहते हैं कि भवन में आग लगी है तो उनसे मैं कहूंगा कि ठहरिए, अभी चलता हूं। या उनसे कहूंगा, यह देखूंगा कि मौका लगेगा तो बाहर आ जाऊंगा। या उनसे मैं कहूंगा कि विचार से मैं सहमत हो गया हूं कि मकान में आग लगी है, लेकिन अभी जरा उलझन है इसलिए बाहर आने में असमर्थ हूं। दूसरे अगर मुझसे कहें तो। लेकिन अगर मुझे दिखाई पड़े, अगर मुझे दिखाई पड़े कि इस भवन में आग लगी है तो फिर इस भवन में मेरा एक भी क्षण रुकना असंभव है।
आंख खोल कर देखें तो सारे जगत में, सारे संसार में आग लगी हुई दिखाई पड़ रही है। हर आदमी अपनी कब्र पर बैठा हुआ है, हर आदमी अपनी चिता पर चढ़ा हुआ है। और जो दूसरे को चिता पर चढ़ा हुआ देख रहा है, वह गलत देख रहा है। हर आदमी चिता पर चढ़ा हुआ है। हम सब चिता पर बैठे हुए हैं और उसकी आग धीरे-धीरे डुबाती जाती है; और एक दिन भस्मीभूत कर देगी; और एक दिन जला कर राख कर देगी।
जन्म के दिन से ही हमारा मरण शुरू हो जाता है। उस दिन से ही हम चिता पर रख दिए गए। जिस दिन हम घर के पालने में रख दिए गए उस दिन हम चिता पर रख दिए गए। जिस दिन जमीन पर उतरे, उसी दिन हम कब्र पर भी उतर गए हैं। और हर आदमी जल रहा है। उसे बोध नहीं कि वह सारी दुनिया को देख रहा है लेकिन अपने नीचे नहीं देख रहा है कि वहां क्या हो रहा है।
प्रतिक्षण आप मौत में उतरते जा रहे हैं। जिसे आप जीवन कहते हैं वह रोज-रोज कब्र में उतर जाने के सिवाय और कुछ भी नहीं है। वह ग्रेज्युअल डेथ है; रोज-रोज मरते जाना है। यह समय-समय हम मर रहे हैं। इसे देखते हैं और तब एक घबराहट जीवन को पाने की पैदा होगी। अगर इसी को जीवन समझ लिया तो चूक जाएंगे उस जीवन से जो मिल सकता था। अगर इसी को सत्य समझ लिया तो चूक जाएंगे उस सत्य को जो हो सकता था।
अगर यह मृत्यु दिख जाए जिसे हम जीवन समझते हैं और जिसे हम सत्य और वास्तविक समझते हैं, यह अवास्तविक और असत्य दिख जाए, तो सारे प्राण छटपटाते उसमें लग जाएं--किसी दूर, किसी अनंत छिपे हुए रहस्य की खोज में। और जब जिज्ञासा न होगी, तब प्यास होगी। तब अभीप्सा होगी और वैसी अभीप्सा ही केवल तैयार करती है व्यक्ति को--उसके साहस को; उसकी शक्ति को जुटा देती है।
मैंने कुछ थोड़ी-सी बातें कहीं, बिलकुल प्राथमिक भूमिका है। जिज्ञासा मुक्त हो, वाद-विवाद, विचार, पंथों से अलग हो, निष्पक्ष हो। कोई जरूरत नहीं मानने की कि ईश्वर है या नहीं, इतना ही काफी है कि क्या है उसे मैं जानना चाहता हूं। जानने की प्यास, जानने की जिज्ञासा काफी है, मानने की कोई जरूरत नहीं। क्योंकि मानना दूसरे से आता है, जानना स्वयं से आता है। जो भी हम मानते हैं वह दूसरों से मानते हैं और जो भी हम जानते हैं वह स्वयं जानते हैं। धर्म मानना नहीं है, धर्म जानना है। धर्म विश्वास नहीं है, धर्म विवेक है। धर्म दूसरों के द्वारा गृहीत नहीं है, धर्म स्वयं के द्वारा अभीप्सित है।
पहली बात मैंने कही: समस्त धारणाओं, मतों, पंथों--हिंदू, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, जैन--इनसे मुक्त कर लो। ये घेरे काफी नहीं हैं। ये दीवारें तोड़ दो। कितने सुख का दिन होगा अगर जगत में ये दीवारें गिर जाएं और केवल सत्य की जिज्ञासा रह जाए। और दूसरी बात मैंने कही, ऐसी जिज्ञासा के लिए साहस जुटाने की जरूरत है, क्योंकि बिना साहस के अकेले होने में डर लगेगा। भीड़ से, समाज से, संस्कार से मुक्त होने में डर लगेगा। अकेले होने के लिए साहस की जरूरत है। लेकिन मैंने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति की यह शक्ति है कि वह एक कदम चलने का साहस जुटा सकता है। लेकिन वह कदम भी तभी उठाने का विचार कर रहा होगा जब जिज्ञासा मात्र बौद्धिक खोजबीन न हो वरन प्राणों की प्यास और अभीप्सा बन जाए। और अभीप्सा अभीप्सा तब बनेगी जब आंखें खुली हों।
आंखें खोलें और देखें, पूरी जिंदगी आपके चारों तरफ प्रकृति से प्रतिक्षण ईश्वर का आह्वान और संदेशा आ रहा है। हर घड़ी हर गिरते हुए पत्ते से आपकी मौत की खबर है। हर डूबते हुए सूरज से आपके डूबने की खबर है। हर मरते हुए आदमी में आपकी मृत्यु का आह्वान और संदेश है। हर तरफ जो दुख है वह आपका दुख है। सब तरफ जो संताप के तीर बिछे हैं वे आपके हैं। इस पीड़ा को आंख खोल कर अनुभव करें तो प्यास पैदा होगी। इस जीवन की व्यर्थता को अनुभव करें तो सार्थक जीवन को पाने का अनुभव-बोध पैदा होगा। इस जीवन को मृत समझें तो जो अमृत जीवन है उसकी तरफ आंखें अनायास उठनी शुरू हो जाएंगी।
जिज्ञासा, साहस और अभीप्सा, ये तीन सूत्र हैं। आज स्मरण रखिए और इसके बाद की भूमिकाओं के सूत्रों पर हम रोज विचार करेंगे। रात्रि के जो आपके प्रश्न होंगे उन पर हम चर्चा कर लेंगे। और यह तो सब बातचीत है उसी भांति जैसे एक कांटा लग जाए तो दूसरे कांटे से हम निकाल देते हैं लेकिन दूसरे कांटे को उसी जगह नहीं रख देते हैं। मैं जो बातें कर रहा हूं वे आपके मन में रखने के लिए नहीं हैं। नहीं तो मैं आपका दुश्मन हो गया। क्योंकि मैंने कुछ विचार निकाले और दूसरे डाल दिए। उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। मेरी बातें उतनी ही व्यर्थ हैं जितनी वे बातें जो आपको दूसरों ने दी हैं। इसलिए इनको उनकी जगह नहीं रख लेना।
हम कोई पंथ और पक्ष खड़ा नहीं करना चाहते कि मैं आपको सारे पंथों से मुक्त कर लूं और एक पंथ में खड़ा कर दूं। वह तो मैं आपका दुश्मन हो जाऊंगा। वह तो वही बात हो गई। इससे क्या फर्क पड़ता है कि पंथ किसका है और विश्वास किसके हैं। मेरी बातों का इससे ज्यादा कोई भी मूल्य नहीं है कि जो कांटे लगे हैं आपको वे निकाल दिए जाएं दूसरे कांटे से। लेकिन दूसरा कांटा उतना ही कांटा है जितना पहला लगा हुआ है। और दोनों फेंक देने योग्य हैं। दूसरा कांटा रख लेने की जरूरत नहीं।
इसलिए मेरी बातों को कहीं रख नहीं लेना है। यह सब बातचीत है। अगर पहले से घुसी हुई बातचीत को निकाल देने की सामर्थ्य हो जाए तो ठीक, असली बात साधना है। वह हम रात्रि को आपके प्रश्नों के बाद उस पर थोड़े-से प्रयोग करेंगे। लाख विचार उतने काम के नहीं हैं जितना एक छोटा-सा अणुमात्र साधना का काम का है। लाख चिंतन अर्थ का नहीं है जितना प्यास से भर कर सत्य और परमात्मा की ओर आंखें उठा कर थोड़ी देर चुप हो जाने का मूल्य है। वह चुप होकर कैसे हम परमात्मा की ओर आंखें उठा सकते हैं--वे जो सूर्यमुखी के फूल देखे, वे जैसे सूरज की ओर मुंह उठाए खड़े हैं, वैसे हम कैसे आलोक और प्रकाश की ओर मुंह उठा सकते हैं--उसको तो हम रात में ध्यान के प्रयोग में तीन दिन करेंगे। और बाकी तीन दिन आपके भीतर लगे हुए कांटे को दूसरे कांटे से निकालने की मैं चेष्टा करूंगा। फिर भी कोई-कोई कांटे लगे रह जाएं तो रात को शंका-समाधान में वह आप मुझसे बात कर सकते हैं।
अंत में परमात्मा से यही प्रार्थना करता हूं कि जो भी इस जमीन पर हैं उन सबको--उन सबों को उसकी अनुभूति उपलब्ध हो। जो भी इस जमीन पर हैं उनके हृदय उसके आलोक से भर जाएं। जो भी सत्तावान हैं, उसके प्रेम को, उसके आनंद को अनुभव कर सकें। उस प्रेम और उस आनंद के अनुभव में स्वयं के भी परमात्मा होने का अनुभव छिपा हुआ है। और जब तक यह अनुभव न हो जाए कि मैं ही परमात्मा हूं तब तक आप जीवित नहीं हैं, तब तक आप मृत प्रकृति के हिस्से हैं। और जिस दिन यह अनुभव आपके भीतर जागता है और आपके अणु-अणु में और श्वास-श्वास में व्याप्त हो जाता है कि मैं ही परमात्मा हूं, उस दिन जो आप जानते हैं उसे शब्दों में कहने का कोई उपाय नहीं।
लेकिन सारे जगत की, सारे प्राणों की जानी-अनजानी आकांक्षा उसी सत्य को जानने की है--उसी परिपूर्ण को, उसी अनंत को, उसी अनादि को, उसी सनातन को, जो सबके भीतर छिपा है। जो फिर से प्रकट नहीं है। जिस दिन प्रकट हो जाएगा उस दिन आनंद और संगीत से, उस दिन सारा जीवन, श्वास-श्वास, आलोकित सौंदर्य से भर जाता है। उस सौंदर्य का सब में अनुभव हो सके, यह प्रार्थना करता हूं।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है, उसके लिए अनुगृहीत हूं। अंत में सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा के लिए मेरे प्रणाम स्वीकार करें।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें