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मंगलवार, 24 अक्टूबर 2017

एक एक कदम-प्रवचन-01



एक एक कदम-ओशो
(विविध)
प्रवचन-पहला

कोई दो सौ वर्ष पहले, जापान में दो राज्यों में युद्ध छिड़ गया था। छोटा जो राज्य था, भयभीत था; हार जाना उसका निश्चित था। उसके पास सैनिकों की संख्या कम थी। थोड़ी कम नहीं थी, बहुत कम थी। दुश्मन के पास दस सैनिक थे, तो उसके पास एक सैनिक था। उस राज्य के सेनापतियों ने युद्ध पर जाने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि यह तो सीधी मूढ़ता होगी; हम अपने आदमियों को व्यर्थ ही कटवाने ले जाएं। हार तो निश्चित है। और जब सेनापतियों ने इनकार कर दिया युद्ध पर जाने से...उन्होंने कहा कि यह हार निश्चित है, तो हम अपना मुंह पराजय की कालिख से पोतने जाने को तैयार नहीं; और अपने सैनिकों को भी व्यर्थ कटवाने के लिए हमारी मर्जी नहीं। मरने की बजाय हार जाना उचित है। मर कर भी हारना है, जीत की तो कोई संभावना मानी नहीं जा सकती।

सम्राट भी कुछ नहीं कह सकता था, बात सत्य थी, आंकड़े सही थे। तब उसने गांव में बसे एक फकीर से जाकर प्रार्थना की कि क्या आप मेरी फौजों के सेनापति बन कर जा सकते हैं? यह उसके सेनापतियों को समझ में ही नहीं आई बात। सेनापति जब इनकार करते हों, तो एक फकीर को--जिसे युद्ध का कोई अनुभव नहीं, जो कभी युद्ध पर गया नहीं, जिसने कभी कोई युद्ध किया नहीं, जिसने कभी युद्ध की कोई बात नहीं की--यह बिलकुल अव्यावहारिक आदमी को आगे करने का क्या प्रयोजन है?
लेकिन वह फकीर राजी हो गया। जहां बहुत-से व्यावहारिक लोग राजी नहीं होते वहां अव्यावहारिक लोग राजी हो जाते हैं। जहां समझदार पीछे हट जाते हैं, वहां जिन्हें कोई अनुभव नहीं है, वे आगे खड़े हो जाते हैं। वह फकीर राजी हो गया। सम्राट भी डरा मन में, लेकिन फिर भी ठीक था। हारना भी था तो मर कर हारना ही ठीक था। फकीर के साथ सैनिकों को जाने में बड़ी घबड़ाहट हुई: यह आदमी कुछ जानता नहीं! लेकिन फकीर इतने जोश से भरा था, सैनिकों को जाना पड़ा। सेनापति भी सैनिकों के पीछे हो लिए कि देखें, होता क्या है?
जहां दुश्मन के पड़ाव पड़े थे उससे थोड़ी ही दूर उस फकीर ने एक छोटे-से मंदिर में सारे सैनिकों को रोका, और उसने कहा कि इसके पहले कि हम चलें, कम से कम भगवान को कह दें कि हम लड़ने जाते हैं और उनसे पूछ भी लें कि तुम्हारी मर्जी क्या है। अगर हराना ही हो तो हम वापस लौट जाएं और अगर जिताना हो तो ठीक।
सैनिक बड़ी आशा से मंदिर के बाहर खड़े हो गए। उस आदमी ने हाथ जोड़ कर आंख बंद करके भगवान से प्रार्थना की, फिर खीसे से एक रुपया निकाला और भगवान से कहा कि मैं इस रुपए को फेंकता हूं, अगर यह सीधा गिरा तो हम समझ लेंगे कि जीत हमारी होनी है और हम बढ़ जाएंगे आगे, और अगर यह उलटा गिरा तो हम मान लेंगे कि हम हार गए, हम वापस लौट जाएंगे, राजा से कह देंगे, व्यर्थ मरने की व्यवस्था मत करो; हमारी हार निश्चित है, भगवान की भी मर्जी यही है।
सैनिकों ने गौर से देखा, उसने रुपया फेंका। चमकती धूप में रुपया चमका और नीचे गिरा। वह सिर के बल गिरा था; वह सीधा गिरा था। उसने सैनिकों से कहा, अब फिक्र छोड़ दो। अब खयाल ही छोड़ दो कि तुम हार सकते हो। अब इस जमीन पर कोई तुम्हें हरा नहीं सकता। रुपया सीधा गिरा था। भगवान साथ थे। वे सैनिक जाकर जूझ गए। सात दिन में उन्होंने दुश्मन को परास्त कर दिया। वे जीते हुए वापस लौटे। उस मंदिर के पास उस फकीर ने कहा, अब लौट कर हम धन्यवाद तो दे दें!
वे सारे सैनिक रुके, उन सबने हाथ जोड़ कर भगवान से प्रार्थना की और कहा, तेरा बहुत धन्यवाद कि तू अगर हमें इशारा न करता जीतने का, तो हम तो हार ही चुके थे। तेरी कृपा और तेरे इशारे से हम जीते हैं।
उस फकीर ने कहा, इसके पहले कि भगवान को धन्यवाद दो, मेरे खीसे में जो सिक्का पड़ा है, उसे गौर से देख लो। उसने सिक्का निकाल कर बताया, वह सिक्का दोनों तरफ सीधा था, उसमें कोई उलटा हिस्सा था ही नहीं। वह सिक्का बनावटी था, वह दोनों तरफ सीधा था, वह उलटा गिर ही नहीं सकता था!
उसने कहा, भगवान को धन्यवाद मत दो। तुम आशा से भर गए जीत की, इसलिए जीत गए। तुम हार भी सकते थे, क्योंकि तुम निराश थे और हारने की कामना से भरे थे। तुम जानते थे कि हारना ही है।
जीवन में सारे कामों की सफलताएं इस बात पर निर्भर करती हैं कि हम उनकी जीत की आशा से भरे हुए हैं या हार के खयाल से डरे हुए हैं। और बहुत आशा से भरे हुए लोग थोड़ी-सी सामर्थ्य से इतना कर पाते हैं, जितना कि बहुत सामर्थ्य के रहते हुए भी निराशा से भरे हुए लोग नहीं कर पाते हैं। सामर्थ्य मूल्यवान नहीं है। सामर्थ्य असली संपत्ति नहीं है। असली संपत्ति तो आशा है--और यह खयाल है कि कोई काम है जो होना चाहिए; जो होगा; और जिसे करने में हम कुछ भी नहीं छोड़ रखेंगे।
एक करोड़ की बात बड़ी मालूम पड़ सकती है इतने थोड़े-से लोगों को। सीमित साधनों के मित्रों को बहुत बड़ी बात मालूम पड़ सकती है। वह बहुत बड़ी बात इसलिए मालूम पड़ती है कि एक करोड़ की संख्या को हम एकदम से गिनते हैं। एक करोड़ संख्या बहुत बड़ी है!
एक घटना मुझे याद आती है। एक गांव के पास एक बहुत सुंदर पहाड़ था। उस सुंदर पहाड़ पर एक मंदिर था। वह दस मील की ही दूरी पर था और गांव से यह मंदिर दिखाई पड़ता था। दूर-दूर के लोग उस मंदिर के दर्शन करने आते और उस पहाड़ को देखने जाते। उस गांव में एक युवक था, वह भी सोचता था, कभी मुझे जाकर देख आना है। लेकिन करीब था, कभी भी देख आएगा। लेकिन एक दिन उसने तय ही कर लिया कि मैं कब तक रुका रहूंगा; आज रात मुझे उठ कर चले जाना है। सुबह से धूप बढ़ जाती थी, इसलिए वह दो बजे रात उठा। उसने लालटेन जलाई और गांव के बाहर आया। घनी अंधेरी रात थी, वह बहुत डर गया। उसने सोचा, छोटी-सी लालटेन है, दोत्तीन कदम तक प्रकाश पड़ता है, और दस मील का फासला है। इतना दस मील का अंधेरा इतनी छोटी-सी लालटेन से कैसे कटेगा? इतना है अंधेरा, इतना विराट, इतनी छोटी-सी है लालटेन पास में, इससे क्या होगा? इससे दस मील पार नहीं किए जा सकते। सूरज की राह देखनी चाहिए, तभी ठीक होगा। वह वहीं गांव के बाहर बैठ गया।
ठीक भी था, उसका गणित बिलकुल सही था। और आमतौर से ऐसा ही गणित अधिकतम लोगों का होता है। तीन फीट तक तो प्रकाश पहुंचता है और दस मील लंबा रास्ता है। भाग दे दें दस मील में तीन फीट का, तो कहीं इस लालटेन से काम चलने वाला है? लाखों लालटेन चाहिए, तब कहीं कुछ हो सकता है।
वह वहां डरा हुआ बैठा था और सुबह की प्रतीक्षा करता था। तभी एक बूढ़ा आदमी एक और छोटे-से दीए को हाथ में लिए चला जा रहा था। उसने उस बूढ़े से पूछा, पागल हो गए हो? कुछ गणित का पता है? दस मील लंबा रास्ता है, तुम्हारे दीए से तो एक कदम भी रोशनी नहीं पड़ती है! उस बूढ़े ने कहा, पागल, एक कदम से ज्यादा कभी कोई चल पाया है? एक कदम से ज्यादा मैं चल भी नहीं सकता, रोशनी चाहे हजार मील पड़ती रहे। और जब तक मैं एक कदम चलता हूं, तब तक रोशनी एक कदम आगे बढ़ जाती है। दस मील क्या, मैं दस हजार मील पार कर लूंगा। उठ आ, तू क्यों बैठा है? तेरे पास तो अच्छी लालटेन है। एक कदम तू आगे चलेगा, रोशनी उतनी आगे बढ़ जाएगी।
जिंदगी में, अगर कोई पूरा हिसाब पहले लगा ले तो वहीं बैठ जाएगा, वहीं डर जाएगा और खत्म हो जाएगा। जिंदगी में एक-एक कदम का हिसाब लगाने वाले लोग हजारों मील चल जाते हैं और हजारों मील का हिसाब लगाने वाले लोग एक कदम भी नहीं उठाते, डर के मारे वहीं बैठे रह जाते हैं।
तो मैं आपको कहूंगा, इसकी बहुत फिक्र न करें। हिसाब बहुत लंबा है, चिंता की बात नहीं है। आप यह तो सोचें ही मत कि एक करोड़ तो बहुत होते हैं। और यह भी मत सोचें, जैसा दुर्लभजी भाई ने कहा कि एक-एक लाख रुपया सौ लोग दे दें। एक-एक लाख देने वाले सौ लोग नहीं खोजे जा सकते, लेकिन एक-एक रुपया देनेवाले एक करोड़ लोग आज ही खोजे जा सकते हैं। एक-एक लाख की बात ही मत सोचें; एक-एक रुपए की बात सोचें। एक-एक कदम की बात सोचें, दस मील की क्यों बात सोचें?
इसमें तो चिंता की कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। एक-एक रुपया देने वाले एक करोड़ लोग खोज लेना इतना आसान है, इतना आसान कि आपसे न हो सके तो मुझसे कह दें। आपसे हो सके रुपए का तो आप कर लेना, नहीं तो मुझसे कह देना, वह भी मैं कर दूंगा। उसकी कोई बहुत चिंता की बात नहीं है। उसमें बहुत घबड़ाने की बात नहीं है। एक-एक लाख रुपए का तो मैं कोई वायदा नहीं दे सकता, लेकिन एक-एक रुपए वालों का वायदा दे सकता हूं; उसमें क्या कठिनाई है? इसलिए बहुत इस विचार में न पड़ें कि इतना कैसे होगा, इतना तो कोई कठिन नहीं है। इतना तो कोई कठिन नहीं है।
और इस मुल्क में, जहां कि भिखारियों की बड़ी परंपरा है। अगर आप नहीं कर सके तो मैं भिखारी बन सकता हूं; इसमें कोई कठिनाई नहीं है। यहां महावीर भिखारी हैं, यहां बुद्ध भिखारी हैं, यहां गांधी भिखारी हैं--यहां कोई तकलीफ नहीं है भिखारी होने में। यहां तो राजा होने में बड़ी तकलीफ है। यहां राजा होना बहुत निंदित है; बहुत दुष्कर्म है। यहां भिखारी होना तो इतने बड़े आदर की बात है जिसका कोई हिसाब नहीं।
गांधी देहरादून में थे एक बार। और रात जब सभा पूरी हुई तो उन्होंने कहा कि कोई भी आदमी बिना दिए नहीं जाएगा, कुछ न कुछ दे जाएगा। और वे दोनों हाथ लेकर भीड़ में उतर गए और कहा कि कोई भी, जिसके सामने भी मेरा हाथ जाता है, वह कुछ न कुछ दे। तो जिसको जो बन सका, जिसके पास जो था, वह दे दिया। हाथ भर गया। तो गांधी उसको वहीं गिरा देते जमीन पर और फिर हाथ खाली कर लेते। और कह देते कि यह मेरी संपत्ति जो पड़ी है, लोग खयाल लें, कहीं यहां-वहां गड़बड़ न हो जाए। वहां उस भीड़ में पच्चीसों बार हाथ भरा और उसको उन्होंने जमीन पर गिरा दिया। फिर वे तो गिरा कर चले गए और कार्यकर्ताओं को कह गए कि जमीन से बीन लाना।
महावीर त्यागी उन कार्यकर्ताओं में एक थे। वह बीन-बान कर लाए। बहुत-से रुपए थे, बहुत-से गहने थे, रात एक बज गया वह सब बीनने में। लोगों के पैरों में यहां-वहां हो गया, वे सब जमीन पर फेंक गए थे उस भीड़ में। रात को सब हिसाब हुआ। वहां पहुंचे तो देखा गांधी जागे हुए हैं। उन्होंने कहा, सब हिसाब ले आए? उन्होंने सब हिसाब दिया, इतने हजार रुपए हुए हैं, यह-यह इतना हुआ है।
एक औरत के कान का एक ही बुंदा था। गांधी ने कहा, दूसरा बुंदा कहां है? कोई औरत मुझे एक बुंदा देगी, यह तुम खयाल कर सकते हो? तुम वापस जाओ, एक बुंदा और होना चाहिए, क्योंकि मैं मांगने खड़ा हो जाऊंगा तो कोई औरत ऐसी हो सकती है हमारे मुल्क में कि वह एक कान का बुंदा दे दे और एक घर ले जाए! यह बिलकुल संभव नहीं है। इसमें गलती तुम्हारी होगी। तुम जाओ; दूसरा बुंदा वहां होना चाहिए।
महावीर त्यागी ने पीछे कहा कि हम इतने घबड़ाए कि यह बूढ़ा आदमी है कैसा! एक तो वहां डाल दिया, यह सब उपद्रव किया और अब हम इतनी रात बीन-बान कर लाए हैं अंधेरे में और कहता है कि एक बुंदा इसमें कम है! वापस गए। वहां तो हैरान हुए, एक बुंदा ही नहीं मिला और कुछ गहने भी मिले! वह बुंदा तो मिल गया। गांधी ने कहा, मैं मान ही नहीं सकता था कि इस मुल्क में मैं मांगने जाऊं तो एक बुंदा कोई दे दे; दोनों ही देगी। तो इसलिए वह तो कमी थी। यह तुम और भी ले आए, कल सुबह और देख लेना गौर से, वहां कुछ और भी...।
तो जिस मुल्क में मांगने वालों की बहुत बड़ी परंपरा हो। और इस मुल्क का बड़ा मजा है, और वह मजा यह है कि यहां मांगने वाला देने वाले से छोटा नहीं होता। यहां मांगने वाला देने वाले से छोटा नहीं होता, यहां मांगने वाला देने वाले से बड़ा ही रहता है। और धन्यवाद मांगने वाला नहीं देता कि धन्यवाद दे कि आपने मुझे इतना दिया, मैं धन्यवाद दूं। धन्यवाद देने वाला ही देता है कि मैं धन्यवाद करता हूं कि आपने ले लिया, नहीं लेते तो मैं क्या करता।
मैं जयपुर में था, कल रात ही बात कर रहा था। एक बूढ़े आदमी ने आकर बहुत-से बंडल रखे नोटों के और मुझे नमस्कार किया। मैंने कहा, नमस्कार मैं ले लेता हूं और रुपए की अभी जरूरत नहीं है, कभी जरूरत होगी तो मैं मांगने निकलूंगा तो आपसे मांग लूंगा। रुपया आप रख लें, अभी तो मुझे कोई जरूरत है नहीं।
मैंने तो ऐसे ही कह दिया, लेकिन देखा तो उनकी आंखों में आंसू आ गए हैं। वे सत्तर साल के बूढ़े आदमी हैं। उन्होंने कहा कि आप कहते क्या हैं! आपको जरूरत है, इसलिए मैंने दिया कब! मेरे पास है, अब मैं इसका क्या करूं? अच्छे आदमियों को दे देता हूं कि इसका कुछ हो जाएगा। मैं तो इसका कुछ कर नहीं सकता। आपको जरूरत है इसलिए मैंने दिया ही नहीं, इसलिए आपकी जरूरत का सवाल नहीं है; मेरे पास है, मैं क्या करूं? मुझे देना जरूरी है। और मैं अच्छे आदमियों को दे देता हूं कि इसका कुछ अच्छा हो जाएगा।
और फिर उस बूढ़े आदमी ने कहा कि आपको पता नहीं, आप इनकार करके मुझे कितना सदमा पहुंचा रहे हैं। मैं इतना गरीब आदमी हूं कि मेरे पास सिवाय रुपए के और कुछ है ही नहीं। मैं इतना गरीब आदमी हूं कि मेरे पास सिवाय रुपए के और कुछ है ही नहीं! तो जब कोई रुपया लेने से इनकार कर देता है तो फिर मेरी मुश्किल हो जाती है, फिर अब मैं क्या करूं! मेरे मन में कुछ करने का खयाल आता है, तो सिवाय रुपए के मेरे पास कुछ भी नहीं है। तो आप इसको इनकार न करें। आप इसको फेंक दें, आग लगा दें, बाकी इनकार आपको नहीं करने दूंगा, क्योंकि फिर मेरे पास देने को कुछ और है ही नहीं--और देने का मेरे मन में खयाल आ गया है। आप कृपा करें और इसको ले लें।
इसलिए पैसे के लिए तो चिंता आप नहीं करें बहुत। और जिस दिन भी आपको लगे कि आपको पैसे की जरूरत है और वह आपसे नहीं होता है, आप सिर्फ मुझे कह देंगे, पैसा हो जाएगा। पैसे की बहुत चिंता नहीं है। वह मैं नहीं मांगता हूं, यह बात दूसरी है। लेकिन जिस दिन मांगूं तो पैसा! पैसे जैसी सस्ती चीज और दुनिया में कुछ भी नहीं है; जो कोई भी दे देगा। पैसा देने में कोई भी आदमी इतना कमजोर नहीं है कि पैसा न दे दे। आदमी तो दिल दे देता है, प्राण दे देता है, पैसे में तो कुछ भी नहीं है। तो इसलिए उसकी बहुत चिंता की बात नहीं है। और हिम्मत से काम में लग जाएं तो आप पाएंगे कि वह काम अपने आप लेता चला आता है। वह अपने आप लेता चला आता है।
अब मुझे जगह-जगह लोग, न मालूम कितने लोग आकर कहते हैं कि हमें दस हजार रुपए लगा देने हैं। मैं उनको क्या कहूं? कहां लगा दें? मेरे पास तो कोई जरूरत है नहीं। अब मैं कहां ले जाऊं? इन रुपयों का मैं क्या करूंगा? तो वे कहते हैं कि कभी जरूरत हो तो, कोई काम हो तो!
लोग, आप सोचते होंगे कि इसलिए नहीं देते कि नहीं देना चाहते। आप हैरान होंगे, मेरा अपना अनुभव यह है कि लोग संकोच में रहते हैं कि हम कैसे कहें कि पैसा दें। मेरा अपना अनुभव यही है कि लोग संकोच में होते हैं कि हम कैसे कहें, किस मुंह से कहें! पैसे जैसी सड़ी चीज को देने के लिए किस मुंह से कहें कि हम पैसा देना चाहते हैं! जिस दिन उनको पता चल जाए कि जरूरत है, तो पैसा बहा चला आता है, उसकी कोई कठिनाई नहीं है। उसकी जरा भी चिंता की बात नहीं है। उससे ज्यादा व्यर्थ तो कोई चिंता नहीं है, अगर उसके लिए बहुत चिंता करते हैं। लेकिन चिंता इसलिए पैदा होती है कि आप लाख-लाख का हिसाब लगाते हैं। जिस आदमी के पास लाख रुपया होता है, उस आदमी की उतनी ही ताकत पैसा छोड़ने की कम हो जाती है। जिसके पास एक रुपया होता है, उसकी ताकत छोड़ने की बहुत होती है।
एक फकीर था, मुसलमान फकीर, हसन। वह एक छोटे-से झोपड़े में रहता था। उस झोपड़े में इतनी थोड़ी जगह थी कि हसन और उसकी पत्नी, बस दो ही सो पाते थे। रात सोए थे, वर्षा की रात थी, अंधेरी रात थी। कोई आधी रात किसी आदमी ने आकर दरवाजा खटखटाया। तो हसन ने अपनी पत्नी से कहा, दरवाजा खोल! मालूम होता है कोई भटक गया राहगीर है। उसकी पत्नी ने कहा, देखते नहीं हैं, यहां जगह कहां है दो से ज्यादा के लिए!
उस फकीर ने कहा, पागल, यह कोई अमीर का महल नहीं है कि जगह कम पड़ जाए। यह गरीब की झोपड़ी है। अमीर के महल छोटे होते हैं, गरीब की झोपड़ी तो बड़ी होती है। अमीर का महल नहीं है यह कोई कि जगह कम पड़ जाए, यह गरीब की झोपड़ी है। अभी हम दो लेटे थे, अब हम तीन बैठेंगे। जगह काफी हो जाएगी। दरवाजा खोल। द्वार आया हुआ आदमी वापस लौट जाए?
दरवाजा खोल दिया। वह आदमी आकर बैठ गया। वे दोनों उठ कर बैठ गए, तीनों बैठ कर गप-शप करने लगे। दरवाजा अटका है। फिर दो आदमी आए और दरवाजा खटखटाया। तो वह जो मेहमान आकर बाहर बैठा था किनारे पर, उससे हसन ने कहा, दरवाजा खोल मित्र जल्दी। उस आदमी ने कहा, आप कहते क्या हैं! यहां जगह बहुत कम है। उसने कहा कि जगह कम है? अगर जगह कम होती तो तू अंदर कैसे आ पाता? जगह यहां बहुत ज्यादा है। उसने कहा, देखते नहीं हो, मुश्किल से हम तीन बैठे हुए हैं! हसन ने कहा, अभी हम बैठे हैं, फिर हम खड़े हो जाएंगे। लेकिन यह गरीब की झोपड़ी है, इसमें जगह कभी कम होती ही नहीं।
दरवाजा खोल देना पड़ा, वे दो आदमी भीतर आ गए। वे पांचों खड़े होकर बातचीत करने लगे। और तभी एक गधे ने आकर, वर्षा में भीगे हुए एक गधे ने आकर द्वार खटखटाया, सिर मारा। हसन ने द्वार पर खड़े आदमी से कहा, मित्र, दरवाजा खोल, कोई अतिथि आया है। उसने कहा, कोई अतिथि नहीं है, यह गधा है।
उसने कहा, तुझे पता नहीं है, यह गरीब आदमी का झोपड़ा है, यहां गधे के साथ भी आदमी जैसा व्यवहार होता है। अमीर के महल पर आदमी से भी गधे जैसा व्यवहार होता है। यह तो गरीब का झोपड़ा है, यहां तो हम गधे से भी आदमी जैसा व्यवहार करते हैं। अमीर के मकान की बात अलग है, वहां तो आदमी से भी गधे जैसा व्यवहार होता है। दरवाजा खोल! अभी हम दूर-दूर खड़े हैं, अब हम पास-पास खड़े हो जाएंगे। लेकिन यह गरीब की झोपड़ी छोटी नहीं पड़ सकती है। अगर बहुत जरूरत पड़ी तो मैं अलग हो जाऊंगा, पत्नी मेरी बाहर हो जाएगी। लेकिन जब तक हमसे हो सकेगा, हम इसे बड़ा करते रहेंगे।
आप लाख पर विचार करते हैं तो परेशानी हो जाती है। लाख वाले आदमी के पास दिल होता ही नहीं। उसके पास दिल बड़ा छोटा हो जाता है। इसलिए उसकी बहुत चिंता न करें, उसकी बहुत चिंता न करें। लाख वाले के पास बड़ा दिल होगा तो वहां से लाख आ जाएंगे। नहीं तो रुपए वाले का दिल अब भी बड़ा है, इसमें कोई बहुत कठिनाई नहीं है। वह हो सकेगा। हिम्मत से उस काम में आप लगते हैं, तो उसके हो जाने में कोई कठिनाई नहीं है।
और तो मुझे अभी कुछ कहना नहीं है। रात आपकी बात सुनूंगा, फिर कुछ और कहना होगा तो आपसे कहूंगा।
आज इतना ही।


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