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शुक्रवार, 13 अक्टूबर 2017

गीता दर्शन-(भाग-03)-प्रवचन-058



गीता दर्शन-(भाग-03)-प्रवचन-058 

अध्याय ५
ग्यारहवां प्रवचन
काम-क्रोध से मुक्ति

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।। २५।।
और नाश हो गए हैं सब पाप जिनके, तथा ज्ञान करके निवृत्त हो गया है संशय जिनका और संपूर्ण भूत प्राणियों के हित में है रति जिनकी, एकाग्र हुआ है भगवान के ध्यान में चित्त जिनका, ऐसे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शांत परब्रह्म को प्राप्त होते हैं।

पाप से हो गए हैं जो मुक्त, चित्त की वासनाएं जिनकी शांत हुईं, जो स्वयं में एक शांत झील बन गए हैं, वे शांत ब्रह्म को उपलब्ध होते हैं।
अर्जुन तो चाहता था केवल पलायन। नहीं सोचा था उसने कि कृष्ण उसे एक अंतर-क्रांति में ले जाने के लिए उत्सुक हो जाएंगे। उलझ गया बेचारा। सोचा था, सहारा मिलेगा भागने में। नहीं सोचा था कि किसी आत्मक्रांति से गुजरना पड़ेगा। उसकी मर्जी जिज्ञासा शुरू करने की इतनी ही थी, इस युद्ध से कैसे बच जाऊं। कोई नए जीवन को उपलब्ध करने की आकांक्षा नहीं है।
लेकिन कृष्ण जैसे व्यक्ति के पास कोई पत्थर खोजता हुआ भी जाए, तो भी उनकी मजबूरी है कि वे पत्थर दे नहीं सकते हैं। वे हीरे ही दे सकते हैं। कोई पत्थर खोजता हुआ जाए, तो भी कृष्ण को कोई उपाय नहीं कि पत्थर दें, हीरे ही दे सकते हैं।
जो अर्जुन को कृष्ण ने दिया है, वह अर्जुन ने पूछा नहीं, चाहा नहीं। कठिनाई में पड़ता होगा सुनकर उनकी बातें। ब्रह्म और शांत हुए चित्त का ब्रह्म से तादात्म्य--लगता होगा अर्जुन को, सिर पर से निकल रही हैं बातें।
मुझे एक घटना स्मरण आती है। एक साधु-चित्त व्यक्ति वर्षों से एक कारागृह के कैदियों को परिवर्तित करने के लिए श्रम में रत था। वर्षों से लगा था कि कारागृह के कैदी रूपांतरित हो जाएं, ट्रांसफार्म हो जाएं। कोई सफलता मिलती हुई दिखाई नहीं पड़ती थी। पर साधु वही है कि जहां असफलता भी हो, तो भी शुभ के लिए प्रयत्न करता रहे। उसने प्रयत्न जारी रखा था।
एक दिन चार बार सजा पाया हुआ व्यक्ति, चौथी बार सजा पूरी करके घर वापस लौट रहा है। साठ वर्ष उस अपराधी की उम्र हो गई। उस साधु ने उसे द्वार पर जेलखाने के विदा देते समय पूछा कि अब तुम्हारे क्या इरादे हैं? आगे की क्या योजना है? उस बूढ़े अपराधी ने कहा, अब दूर गांव में मेरी लड़की का एक बड़ा बगीचा है अंगूरों का। अब तो वहीं जाकर अंगूरों के उस बगीचे में ही मेहनत करनी है, विश्राम करना है।
साधु बहुत प्रसन्न हुआ, खुशी से नाचने लगा। उसने कहा कि मुझे कुछ दिन से लग रहा था, यू आर रिफाघमग; कुछ तुम्हारे भीतर बदल रहा है। उस कैदी ने चौंककर रहा, हू सेज एनीथिंग अबाउट रिफाघमग? आई एम जस्ट रिटायरिंग! किसने तुमसे कहा कि मैं बदल रहा हूं? मैं सिर्फ रिटायर हो रहा हूं। किसने कहा कि मैं बदल रहा हूं, मैं सिर्फ थक गया हूं और अब विश्राम को जा रहा हूं!
अर्जुन रिटायर होना चाहता था; कृष्ण रिफार्म करना चाहते हैं। अर्जुन चाहता था, सिर्फ बच निकले! कृष्ण उसकी पूरी जीवन ऊर्जा को नई दिशा दे देना चाहते हैं।
और दो ही प्रकार के मार्ग हैं जीवन ऊर्जा के लिए। एक तो मार्ग है कि हम अशांति के जालों को निर्मित करते चले जाएं, जैसा कि हम सब करते हैं। अशांति की भी अपनी विधि है। पागलपन की भी अपनी विधि होती है। बीमार होने के भी अपने उपाय होते हैं। चित्त को रुग्ण करना और विक्षिप्त करना भी बड़ा सुनियोजित काम है! पता नहीं चलता हमें, क्योंकि बचपन से जिस समाज में हम बड़े होते हैं, वहां चारों तरफ हमारे जैसे ही लोग हैं। जो भी हम करते हैं, बिना इस बात को सोचे-समझे कि जो भी हम कर रहे हैं, वह हमें भी बदल जाएगा।
कोई भी कृत्य करने वाले को अछूता नहीं छोड़ता है। विचार भी करने वाले को अछूता नहीं छोड़ता है। अगर आप घंटेभर बैठकर किसी की हत्या का विचार कर रहे हैं, माना कि अपने कोई हत्या नहीं की, घंटेभर बाद विचार के बाहर हो जाएंगे। लेकिन घंटेभर तक हत्या के विचार ने आपको पतित किया, आप नीचे गिरे। आपकी चेतना नीचे उतरी। और आपके लिए हत्या करना अब ज्यादा आसान होगा, जितना घंटेभर के पहले था। आपकी हत्या करने की संभावना विकसित हो गई। अगर आप मन में किसी पर क्रोध कर रहे हैं, नहीं किया क्रोध तो भी, तो भी आपके अशांत होने के बीज आपने बो दिए, जो कभी भी अंकुरित हो सकते हैं।
हमारी कठिनाई यही है कि मनुष्य की चेतना में जो बीज हम आज बोते हैं, कभी-कभी हम भूल ही जाते हैं कि हमने ये बीज बोए थे। जब उनके फल आते हैं, तो इतना फासला मालूम पड़ता है दोनों स्थितियों में कि हम कभी जोड़ नहीं पाते कि फल और बीज का कोई जोड़ है।
जो भी हमारे जीवन में घटित होता है, उसे हमने बोया है। हो सकता है, कितनी ही देर हो गई हो किसान को अनाज डाले, छः महीने बाद आया हो अंकुर, सालभर बाद आया हो अंकुर, लेकिन अंकुर बिना बीज के नहीं आता है।
हम अशांति को उपलब्ध होते चले जाते हैं। जितनी अशांति बढ़ती जाती है, उतना ही ब्रह्म से संबंध क्षीण मालूम पड़ता है; क्योंकि ब्रह्म से केवल वे ही संबंधित हो सकते हैं, जो परम शांत हैं। शांति ब्रह्म और स्वयं के बीच सेतु है। जैसे ही कोई शांत हुआ, वैसे ही ब्रह्म के साथ एक हुआ। जैसे ही अशांत हुआ कि मुंह मुड़ गया।
अशांत चित्त संसार से संबंधित हो सकता है। शांत चित्त संसार से संबंधित नहीं हो पाता। अशांत चित्त परमात्मा से संबंधित नहीं हो पाता। शांत चित्त परमात्मा में विराजमान हो जाता है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, पाप जिनके क्षीण हुए!
क्या है पाप? जब भी हम किसी दूसरे को दुख पहुंचाना चाहते हैं, विचार में या कृत्य में, तभी पाप घटित हो जाता है। जो व्यक्ति दूसरे को दुख पहुंचाना चाहता है, कृत्य में या भाव में, वह पाप में ग्रसित हो जाता है। जो व्यक्ति इस पृथ्वी पर किसी को भी दुख नहीं पहुंचाना चाहता, कृत्य में या विचार में, वह पाप के बाहर हो जाता है।
बुद्धि हुई जिनकी निःसंशय!
जिनकी बुद्धि निःसंशय हो गई, सम हो गई, समान हो गई; ठहर गए जो; जिनके भीतर कोई संशय की हवाएं अब नहीं बहतीं; कोई तूफान, आंधियां नहीं उठतीं संशय की; निःसंशय होकर सम हो गए हैं।
हममें से बहुत-से लोग समझते हैं कि समता में रहते हैं। जब हमें लगता है कि हम समता में भी हैं--तब भी--तब भी हम समता में होते नहीं। हमारी समता करीब-करीब वैसी होती है, जैसा एक दिन एक अदालत में लोगों को पता चला।
मजिस्ट्रेट सुबह-सुबह आया और उसने अदालत में खड़े होकर कहा कि जैसा कि आप सब जानते हैं--जूरी, वकील, और अदालत के सारे लोग--कि मैं सदा ही न्याय और समता में प्रतिष्ठित रहता हूं। आज तक मैंने कभी किसी का पक्ष नहीं लिया। कानून एकमात्र मेरी दृष्टि है। लेकिन आज जिस मुकदमे का मुझे फैसला करना है, उस मुकदमे के एक पक्ष ने कल रात मेरे घर एक लिफाफा भेजा, उसमें चार हजार रुपए भेजे। उसके आधी घड़ी बाद दूसरे पक्ष ने भी एक लिफाफा भेजा और उसमें पांच हजार रुपए भेजे। अब मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। लेकिन जैसा कि मेरी सदा की आदत है, मैं कोई समता का मार्ग निकाल लेता हूं। वह मैंने निकाल लिया है। जिसने पांच हजार भेजे हैं, वह हजार रुपए वापस ले जाए। चार-चार हजार दोनों के बराबर रह गए। अब समता से अदालत का काम आगे चल सकता है!
हमारी समताएं ऐसी ही हैं। अगर हम दूसरे दो व्यक्तियों के प्रति समता भी रख लें, तो भी अपने प्रति और दूसरों के बीच समता नहीं रख पाते। असली समता दूसरे दो व्यक्तियों के बीच निर्मित नहीं होती, अपने और दूसरे के बीच निर्मित होती है!
उस मजिस्ट्रेट ने ठीक कहा। जहां तक दोनों पक्षों का सवाल है, बात समान हो गई। दोनों के चार-चार हजार रिश्वत में मिल गए। अब बात शुरू हो सकती है, जैसे कि न मिले हों। चार हजार ने चार हजार काट दिए। लेकिन जहां तक मजिस्ट्रेट का संबंध है, उसके पास आठ हजार रुपए हो गए। समता उसने दो अन्यों के बीच में खोज ली, अपने और अन्य के बीच में नहीं।
गहरी समता दो के बीच नहीं होती। गहरी समता सदा अपने और दूसरे के बीच होती है। दूसरे के बीच तटस्थ हो जाना बहुत आसान है। बहुत आसान है। सवाल तो तब उठते हैं, जब अपने और दूसरे के बीच तटस्थ होने की बात उठती है।
बर्ट्रेंड रसेल ने पंडित नेहरू की बहुत गहरी आलोचना की है, कीमती आलोचना की है। कहा है कि जब तक दूसरे दो मुल्कों के बीच झगड़े थे, पंडित नेहरू सदा तटस्थता की बात करते रहे। लेकिन जब वे खुद, उनका राष्ट्र किसी मुल्क के साथ झगड़े में पड़ा, तब सारी तटस्थता खो गई। तब उन्होंने वही काम किया, जो उस मजिस्ट्रेट ने किया। आसान है सदा।
दो लोग लड़ रहे हों रास्ते पर, आप किनारे खड़े होकर कह सकते हैं कि हम तटस्थ हैं, न्यूट्रल हैं, हम किसी के पक्ष में नहीं हैं। असली सवाल तो यह है कि जब कोई आपकी छाती पर छुरा लेकर खड़ा हो जाए, तब आप तटस्थ रह पाएं।
समता दो के बीच नहीं, अपने और अन्य के बीच समता है। और निःसंशय, शांत, सम वही होता है, जो अपने प्रति भी तटस्थ हो जाता है; जो अपने प्रति भी साक्षी हो जाता है; जो अपने को भी अन्य की भांति देखने लगता है।
अगर आपने मुझे गाली दी और मैंने गाली सुनी, और इस गाली की घटना में दो ही व्यक्ति रहे, आप देने वाले और मैं सुनने वाला, तो तटस्थता निर्मित न हो पाएगी। तटस्थता तब निर्मित होगी, जब मैं जानूं कि आपने मुझे गाली दी, तीन व्यक्ति हैं यहां, एक गाली देने वाला, एक गाली सुनने वाला, और एक मैं--दोनों से भिन्न, दोनों के पार--तब तटस्थता निर्मित हो पाएगी।
तटस्थ केवल वे ही हो सकते हैं, जो द्वंद्व के बाहर तीसरे बिंदु पर खड़े हो जाते हैं; जो द्वंद्वातीत हैं।
ध्यान रहे, द्वंद्व के जो बाहर है, वह शांत है। द्वंद्व के भीतर जो है, वह अशांत है। दो के बीच जो चुनाव कर रहा है, वह अशांत है। दो के बीच जो च्वाइसलेस अवेयरनेस को--कृष्णमूर्ति कहते हैं जिस शब्द को बार-बार--कि जो चुनावरहित, विकल्परहित चैतन्य को उपलब्ध हो गया है, वैसा व्यक्ति शांत हो जाता है।
ऐसे शांत व्यक्ति का शांत ब्रह्म से संबंध निर्मित होता है। ऐसी शांति ही मंदिर है, तीर्थ है। जो ऐसी शांति में प्रवेश करता है, उसके लिए प्रभु के द्वार खुल जाते हैं।


कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्।। २६।।
और काम-क्रोध से रहित, जीते हुए चित्त वाले परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार किए हुए ज्ञानी पुरुषों के लिए, सब ओर से शांत परब्रह्म परमात्मा ही प्राप्त है।


काम और क्रोध के बाहर हुए पुरुष को सब ओर से परमात्मा ही प्राप्त है। काम और क्रोध से मुक्त हुई चेतना को!
काम के संबंध में सदा ऐसे लगता है कि मैं कभी-कभी कामी होता हूं, सदा नहीं। क्रोध के संबंध में भी ऐसा लगता है कि मैं कभी-कभी क्रोधी होता हूं, सदा नहीं। इससे बहुत ही भ्रांत निर्णय हम अपने बाबत लेते हैं। स्वभावतः, यह निर्णय बहुत स्टेटिस्टिकल है। अंकगणित इसका समर्थन करता है।
चौबीस घंटे में आप चौबीस घंटे क्रोध में नहीं होते। चौबीस घंटे में कभी किसी क्षण क्रोध आता है, फिर क्रोध चला जाता है। स्वभावतः, हम सोचते हैं कि जब क्रोध नहीं रहता, तब तो हम अक्रोधी हो जाते हैं। ऐसा ही काम भी कभी आता है चौबीस घंटे में; वासना कभी पकड़ती है। फिर हम दूसरे काम में लीन हो जाते हैं, और खो जाती है। तो मन को ऐसा लगता है कि कभी-कभी वासना होती है, बाकी तो हम निर्वासना में ही होते हैं। दो-चार क्षणों के लिए वासना पकड़ती है, बाकी चौबीस घंटे तो हम वासना के बाहर हैं। क्षण दो क्षण को क्रोध पकड़ता है, वैसे तो हम अक्रोधी हैं। लेकिन इस भ्रांति को समझ लेना। यह बहुत खतरनाक भ्रांति है।
जो आदमी चौबीस घंटे क्रोध की अंडर करेंट, अंतर्धारा में नहीं है, वह क्षणभर को भी क्रोध नहीं कर सकता है। और जो आदमी चौबीस घंटे काम से भीतर घिरा हुआ नहीं है, वह क्षणभर को भी कामवासना में ग्रसित नहीं हो सकता है।
हमारी स्थिति ऐसी है, जैसे एक कुआं है। जब हम बाल्टी डालते हैं, पानी बाहर निकल आता है। कुआं सोच सकता है कि पानी मुझ में नहीं है। कभी-कभी चौबीस घंटे में जब कोई बाल्टी डालता है, तो क्षणभर को निकल आता है। लेकिन अगर कुएं में पानी न हो, तो क्षणभर को बाल्टी डालने से निकलेगा नहीं। सूखे कुएं में बाल्टी डालें और प्रयोग करें, तो पता चलेगा। बाल्टी खाली लौट आती है। चौबीस घंटे कुएं से कोई पानी नहीं भरता। जितनी देर भरता है, कुएं को लगता होगा कि पानी है। और जब कोई नहीं भरता, तब कुएं को लगता होगा कि पानी नहीं है।
जब कोई आपको गाली देता है, तो क्रोध निकल आता। जब कोई गाली नहीं देता, तो क्रोध नहीं निकलता। गाली सिर्फ बाल्टी का काम करती है। क्रोध आप में चौबीस घंटे भरा हुआ है।
जब कोई विषय, वासना का कोई आकर्षक बिंदु आपके आस-पास घूम आता है, तब आप एकदम आकर्षित हो जाते हैं। बाल्टी पड़ गई; वासना बाहर आ गई!
सुंदर स्त्री पास से निकली, सुंदर पुरुष पास से निकला, कि सुंदर कार गुजरी, कुछ भी हुआ, जिसने मन को खींचा। वासना बाहर निकल आई। आप सोचते हैं, कभी-कभी आ जाती है। यह कोई बीमारी नहीं है। एक्सिडेंट है। कभी-कभी हो जाती है। घटना है, कोई स्वभाव नहीं है।
लेकिन सूखे कुएं में जैसे बाल्टी डालने से कुछ भी नहीं निकलता, ऐसे ही जिनके भीतर वासना से मुक्ति हो गई है, कुछ भी डालने से वासना नहीं निकलती है।
तो पहली तो यह भ्रांति छोड़ देना जरूरी है, तो ही इस सूत्र को समझ पाएंगे, काम-क्रोध से मुक्त! नहीं तो सभी लोग समझते हैं कि हम तो मुक्त हैं ही। कभी-कभी स्थितियां मजबूर कर देती हैं, इसलिए क्रोध से भर जाते हैं! जो जानते हैं, वे कहेंगे, एक क्षण को भी क्रोध से भर जाते हों, तो जानना कि सदा क्रोध से भरे हुए हैं। एक क्षण को भी वासना पकड़ती हो, तो जानना कि सदा वासना से भरे हुए हैं। उस एक क्षण को एक क्षण मत मान लेना, नहीं तो एक क्षण के मुकाबले सैकड़ों घंटे वासनारहित मालूम पड़ेंगे और आपको भ्रम पैदा होगा अपने बाबत कि मैं तो वासना से मुक्त ही हूं। और हर आदमी इस जगत में जो सबसे बड़ा धोखा दे सकता है, वह अपनी ही गलत इमेज, अपनी ही गलत प्रतिमा बनाकर दे पाता है।
हम सब अपनी गलत प्रतिमाएं बनाए रखते हैं। और जो प्रतिमा हम बना लेते हैं, उसके लिए जस्टीफिकेशंस खोजते रहते हैं।
अरस्तू ने कहा है कि आदमी बुद्धिमान प्राणी है। रेशनल एनिमल कहा है। लेकिन अब? अब जो जानते हैं, वे कहते हैं, आदमी रेशनल एनिमल है, यह कहना तो मुश्किल है; रेशनलाइजिंग एनिमल है। बुद्धिमान तो नहीं मालूम पड़ता, लेकिन हर चीज को बुद्धिमानी के ढंग से बताने की चेष्टा में रत जरूर रहता है। हर चीज को बुद्धियुक्त ठहरा लेता है।
एक आदमी एक मनोचिकित्सक के पास गया है और उसने जाकर उसको कहा कि मैं बहुत परेशान हूं। मुझे कुछ सहायता करें। क्या आप सोचते हैं, यह कुछ गलत बात है कि कोई आदमी किसी जानवर को प्रेम करने लगे? मनोवैज्ञानिक ने कहा, इसमें कोई गलती नहीं है। सैकड़ों लोग जानवरों को प्रेम करते हैं। मैं खुद ही मेरे कुत्ते को प्रेम करता हूं।
वह आदमी कुर्सी पर आगे झुककर बैठा था। अब आराम से कुर्सी पर बैठ गया। रेशनलाइजेशन मिल गया उसे। जानवर को प्रेम करने में कोई बात नहीं है। जब मनोवैज्ञानिक खुद प्रेम करता है, तो हम तो साधारण आदमी हैं। पर उसने पूछा कि फिर भी एक बात मैं पूछना चाहता हूं, यह प्रेम साधारण नहीं है; बहुत रोमांटिक हो गया है, रूमानी हो गया है। मनोवैज्ञानिक ने कहा, मैं समझा नहीं! तुम्हारा क्या मतलब? उसने कहा, यह प्रेम ऐसा हो गया है कि उस जानवर को दिन में दो-चार-दस दफे देखे बिना मुझे बड़ी बेचैनी रहती है। उस जानवर की तस्वीर मैं अपने हृदय के पास रखता हूं।
तब जरा मनोवैज्ञानिक भी चौंका। उसने कहा कि यह जरा सीमा से बाहर चले जाना है। एबनार्मल है। यह थोड़ा असाधारण हो गया है। फिर भी मैं जानना चाहूंगा कि वह जानवर कौन है?
उस आदमी ने अपनी छाती के पास के खीसे से एक तस्वीर निकाली। ठीक वैसे ही जैसे अगर मजनू लैला की तस्वीर निकालता, या रोमियो जूलियट की तस्वीर निकालता, या फरिहाद शीरी की तस्वीर निकालता, वैसे ही रोमांच, मंत्रमुग्ध! हैरान हुआ मनोवैज्ञानिक भी कि कौन-सा जानवर है! हाथ में तस्वीर देखी, तो एक घोड़े की तस्वीर है।
उस मनोवैज्ञानिक ने कहा, आप घोड़े के प्रेम में पड़ गए हैं! उस आदमी ने कहा, क्या तुम मुझे पागल समझते हो? यह घोड़ा नहीं है। उस मनोवैज्ञानिक ने कहा, तस्वीर तो घोड़े की है! उस आदमी ने कहा, मैं और घोड़े को प्रेम करूं! यह घोड़ा नहीं है, घोड़ी है। मैं कोई पागल हूं!
अब यह जो आदमी है, उस सीमा पर भी रेशनलाइजेशन खोज रहा है। वह यह खोज रहा है कि घोड़े को जो प्रेम करे, वह पागल। घोड़ी को करे, तो उतना पागल नहीं है। विपरीत लिंगीय, हेट्रो-सेक्सुअल है, इसलिए उतना पागल नहीं है!
अगर मनोवैज्ञानिक के दफ्तर में बैठ जाएं, तो दिनभर ऐसे लोग आते हुए मालूम पड़ेंगे, जो रेशनलाइजेशन की तलाश में आए हुए हैं। इस तलाश में आए हुए हैं कि किसी तरह कोई सिद्ध कर दे कि वे ठीक हैं; ज्यादा गलत नहीं हैं। हम सब...।
जब आप क्रोध करते हैं, तो खयाल करना, सच में ही क्रोध करने योग्य कारण होता है या क्रोध आपको करना होता है, इसलिए कारण खोजते हैं? क्रोध करने योग्य कारण शायद ही जिंदगी में मौजूद होते हैं। और क्रोध करने योग्य कारण उन्हें ही मिल सकते हैं, जो अकारण क्रोध नहीं करते हैं। लेकिन हम कारण खोजते हैं।
छोटे-छोटे बच्चे भी जानते हैं कि अगर माता और पिता में कोई झगड़ा हो गया है, तो आज उनकी पिटाई हो जाएगी। कोई भी कारण मिल जाएगा। वे उस दिन जरा मां से सचेत, दूर रहेंगे। ऐसा नहीं है, कल भी यही था। कल भी वे स्कूल से लौटे थे, तो किताब फट गई थी। और कल भी स्कूल से आए थे, तो कपड़े गंदे हो गए थे। और कल भी पड़ोस के गंदे लड़के के साथ खेल खेला था। कल पिटाई नहीं हुई थी; आज हो जाएगी। क्यों? कल सब कारण मौजूद थे, पिटाई नहीं हुई थी। आज भी वही कारण है, कोई फर्क नहीं पड़ गया है, लेकिन पिटाई हो जाएगी। क्योंकि मां तैयार है। कोई भी कारण खोजेगी।
क्रोध के कारण होते कम, खोजे ज्यादा जाते हैं। और हमारे भीतर क्रोध इकट्ठा होता रहता है पीरियाडिकल। अगर आप अपनी डायरी रखें, तो बहुत हैरान हो जाएंगे। आप डायरी रखें कि ठीक कल आपने कब क्रोध किया; परसों कब क्रोध किया। एक छः महीने की डायरी रखें और ग्राफ बनाएं। तब आप बहुत हैरान हो जाएंगे। आप प्रेडिक्ट कर सकते हैं कि कल कितने बजे आप क्रोध करेंगे। करीब-करीब पीरियाडिकल दौड़ता है। आप अपनी कामवासना की डायरी रखें, तो आप बराबर प्रेडिक्ट कर सकते हैं कि किस दिन, किस रात, आपके मन को कामवासना पकड़ लेगी।
शक्ति रोज इकट्ठी करते चले जाते हैं आप, फिर मौका पाकर वह फूटती है। अगर मौका न मिले, तो मौका बनाकर फूटती है। और अगर बिलकुल मौका न मिले, तो फ्रस्ट्रेशन में बदल जाती है। भीतर बड़े विषाद और पीड़ा में बदल जाती है।
क्रोध और काम हमारी स्थितियां हैं, घटनाएं नहीं। चौबीस घंटे हम उनके साथ हैं। इसे जो स्वीकार कर ले, उसकी जिंदगी में बदलाहट आ सकती है। जो ऐसा समझे कि कभी-कभी क्रोध होता है, वह अपने से बचाव कर रहा है। वह खुद को समझाने के लिए धोखेधड़ी के उपाय कर रहा है। जो स्वीकार कर ले, वह बच सकता है।
फ्रेडरिक महान ने अपनी डायरी में एक संस्मरण लिखा है। लिखा है उसने कि मैं अपनी राजधानी के बड़े कारागृह में गया। सम्राट स्वयं आ रहा है, स्वभावतः हर अपराधी ने उसके पैर पकड़े, हाथ जोड़े और कहा कि अपराध हमने बिलकुल नहीं किया है। यह तो कुछ शरारती लोगों ने हमें फंसा दिया। किसी ने कहा कि हम तो होश में ही न थे, हमसे करवा लिया किन्हीं षडयंत्रकारियों ने। किन्हीं ने कहा कि यह सिर्फ कानून--हम गरीब थे, हम बचा न सके अपने को; बड़ा वकील न कर सके, इसलिए हम फंस गए हैं। अमीर आदमी थे हमारे खिलाफ, वे तो बच गए, और हम सजा काट रहे हैं।
पूरे जेल में सैकड़ों अपराधियों के पास फ्रेडरिक गया। हरेक ने कहा कि उससे ज्यादा निर्दोष आदमी खोजना मुश्किल है! अंततः सिर्फ एक आदमी सिर झुकाए बैठा था। फ्रेडरिक ने कहा, तुम्हें कुछ नहीं कहना है? उस आदमी ने कहा कि माफ करें! मैं बहुत अपराधी आदमी हूं। जो भी मैंने किया है, सजा मुझे उससे कम मिली है।
फ्रेडरिक ने अपने जेलर को कहा, इस आदमी को इसी वक्त जेल से मुक्त कर दो; कहीं ऐसा न हो कि बाकी निर्दोष और भले लोग इसके साथ रहकर बिगड़ जाएं! इसे फौरन जेल के बाहर कर दो। कहीं ऐसा न हो कि बाकी इनोसेंट लोग, बाकी पूरा जेलखाना तो निर्दोष लोगों से भरा हुआ है, कहीं इसके साथ रहकर वे बिगड़ न जाएं, इसे इसी वक्त मुक्त कर दो।
वह आदमी बहुत हैरान हुआ। उसने कहा कि आप क्या कह रहे हैं? मैं अपराधी हूं। फ्रेडरिक महान ने कहा कि कोई आदमी अपने अपराध को स्वीकार कर ले, इससे बड़ी निर्दोषता, इससे बड़ी इनोसेंस और कोई भी नहीं है। तुम बाहर जाओ।
परमात्मा के जगत में भी केवल वे ही लोग संसार के बाहर जा पाते हैं, जो अपनी वास्तविक स्थिति को स्वीकार करने में समर्थ हैं। अपने को जो धोखा देगा, देता रहे। परमात्मा को धोखा नहीं दिया जा सकता है।
काम और क्रोध हमारे पास चौबीस घंटे मौजूद हैं। उनकी अंतर्धारा बह रही है। जैसे नील नदी बहती है सैकड़ों मील तक जमीन के नीचे, खो जाती है। पता ही नहीं चलता, कहां गई! नीचे बहती रहती है। लेकिन बहती रहती है। ऐसे ही चौबीस घंटे नदी आपके क्रोध की, काम की, नीचे बहती रहती है। जरा भीतर डुबकी लेंगे, तो फौरन पाएंगे कि मौजूद है। कभी-कभी उभरकर दिखती है, नहीं तो अंडरग्राउंड है। जमीन के अंदर चलती रहती है। जब प्रकट होती है, उसको आप मत समझना कि यही क्रोध है। अगर उतना ही क्रोध होता, तो हर आदमी मुक्त हो सकता था। वह तो सिर्फ क्रोध की एक झलक है। जब प्रकट होती है, तब मत समझना कि इतना ही काम है। उतना ही काम होता, तो बच्चों का खेल था। भीतर बड़ी अंतर्धारा बह रही है।
कृष्ण कहते हैं, इन दोनों से जो मुक्त हो जाता है, इनके जो पार हो जाता है, वही केवल शांत ब्रह्म को उपलब्ध होता है।


स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तर चारिणौ।। २७।।
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः।। २८।।
और हे अर्जुन! बाहर के विषय भोगों को न चिंतन करता हुआ बाहर ही त्यागकर और नेत्रों को भृकुटी के बीच में स्थित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपान वायु को सम करके जीती हुई हैं इंद्रियां, मन और बुद्धि जिसकी, ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित है, वह सदा मुक्त ही है।


इस सूत्र में कृष्ण ने विधि बताई है। कहा पहले सूत्र में, काम-क्रोध से जो मुक्त है! इस सूत्र में काम-क्रोध से मुक्त होने की वैज्ञानिक विधि की बात कही है। इसे और भी ठीक से समझ लेना जरूरी है।
इतना जानना पर्याप्त नहीं है कि काम-क्रोध से मुक्त हो जाएंगे, तो ब्रह्म में प्रवेश मिल जाएगा। इतना हम सब शायद जानते ही हैं। कैसे मुक्त हो जाएंगे? मेथडॉलाजी क्या है? विधि क्या है? वही महत्वपूर्ण है।
कृष्ण ने कहीं तीन बातें। एक, दोनों आंखों के ऊपर भ्रू-मध्य में, भृकुटी के बीच ध्यान को जो एकाग्र करे। दूसरा, नासिका से जाते हुए श्वास और आते हुए श्वास को जो सम कर ले; इन दोनों का जहां मिलन हो जाए। ध्यान हो भृकुटी मध्य में; श्वास हो जाए सम; जिस क्षण यह घटना घटती है, उसी क्षण व्यक्ति, वह जो क्रोध और काम की अंतर्धारा है, उसके पार निकल जाता है।
इसे थोड़ा समझना होगा।
हम सब जानते हैं कि हमारे शरीर के पास इंद्रियां हैं, जो बाहर के जगत से संबंध बनाती हैं। इंद्रियां न हों, संबंध छूट जाता है। आंख है। आंख न हो, तो प्रकाशित जगत से संबंध छूट जाता है। आंख के न होने से प्रकाश नहीं खोता, लेकिन प्रकाश दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। कान न हो, तो ध्वनि का लोक तिरोहित हो जाता है। नाक न हो, तो गंध का जगत नहीं है। इंद्रियां हमारी बाहर के जगत से हमें जोड़ती हैं।
सात इंद्रियां हैं। साधारणतः पांच इंद्रियों की बात होती है। लेकिन दो इंद्रियां, साधारणतः उनकी बात नहीं होती, लेकिन अब विज्ञान स्वीकार करता है। जिन दिनों पांच इंद्रियों की बात होती थी, उन दिनों दो इंद्रियों का ठीक-ठीक बोध नहीं था। कुछ, जिन्हें समझ में और गहरी बात आई थी, उन्होंने छः इंद्रियों की बात की थी। लेकिन सात इंद्रियों की बात, पिछले पचास वर्षों में विज्ञान ने एक नई इंद्रिय को खोजा, तब से शुरू हुई। सात ही इंद्रियां हैं।
हमारे कान में दो इंद्रियां हैं, एक नहीं। कान सुनता भी है, और कान में वह हिस्सा भी है, जो शरीर को संतुलित रखता है, बैलेंस रखता है। वह एक गुप्त इंद्रिय है, जो कान में छिपी हुई है। इसलिए अगर कोई जोर से आपके कान पर चांटा मार दे, तो आप चक्कर खाकर गिर जाएंगे। वह चक्कर खाकर आप इसलिए गिरते हैं कि जो इंद्रिय आपके शरीर के संतुलन को सम्हालती है, वह डगमगा जाती है। अगर आप जोर से चक्कर लगाएं, तो चक्कर खत्म हो जाएगा, फिर भी भीतर ऐसा लगेगा कि चक्कर लग रहे हैं। क्योंकि वह जो कान की इंद्रिय है, इतनी सक्रिय हो जाती है। शराबी जब सड़क पर डांवाडोल चलने लगता है, तो और किसी कारण से नहीं। शराब कान की उस इंद्रिय को प्रभावित कर देती है और उसके पैरों का संतुलन खो जाता है। कान में दो इंद्रियों का निवास है।
छठवीं इंद्रिय का खयाल तो बहुत पहले भी आ गया था--अंतःकरण, हृदय। साधारणतः हम सबको पता है, ऐसा आदमी आप न खोज पाएंगे, जो कहे कि मुझे प्रेम हो गया है किसी से और सिर पर हाथ रखे। ऐसा आदमी खोजना बहुत मुश्किल है। जब भी कोई प्रेम की बात करेगा, तो हृदय पर हाथ रखेगा। और यह भी आश्चर्य की बात है कि सारी जमीन पर, दुनिया के किसी भी कोने में एक ही जगह हाथ रखा जाएगा। भाषाएं अलग हैं, संस्कृतियां अलग हैं। किसी का एक-दूसरे से परिचय भी नहीं था, तब भी कहीं अनजाना खयाल होता है कि हृदय के पास कोई जगह है, जहां से भाव का संवेदन है।
ऐसी सात इंद्रियां हैं--पांच, एक भाव-इंद्रिय, और एक कान के भीतर संतुलन की इंद्रिय। ये सात इंद्रियां हमें बाहर के जगत से जोड़ती हैं। इनमें से कोई भी इंद्रिय नष्ट हो जाए, तो बाहर से हमारा उतना संबंध टूट जाता है। नष्ट न भी हो, आवृत हो जाए, तो भी संबंध टूट जाता है। मेरी आंख बिलकुल ठीक है, लेकिन मैं बंद कर लूं, तो भी संबंध टूट जाता है।
जैसे सात इंद्रियां बाहर के जगत से संबंधित होने के लिए हैं, यह मैंने जानकर आपसे कहा। ठीक वैसे ही सात केंद्र या सात इंद्रियां अंतर्जगत से संबंधित होने के लिए हैं। योग उन्हें चक्र कहता है। वे सात चक्र, ठीक इन सात इंद्रियों की तरह अंतर्जगत के द्वार हैं। कृष्ण ने उनमें से सबसे महत्वपूर्ण चक्र, जो अर्जुन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो सकता था, उसकी बात इस सूत्र में कही है। कहा है कि दोनों आंखों के मध्य में, माथे के बीच में ध्यान को केंद्रित कर।
माथे के बीच में जो चक्र है, योग की दृष्टि से, योग के नामानुसार, उसका नाम है, आज्ञा-चक्र। वह संकल्प का और विल का केंद्र है। जिस व्यक्ति को भी अपने जीवन में संकल्प लाना है, उसे उस चक्र पर ध्यान करने से संकल्प की गति शुरू हो जाती है। संकल्प डायनेमिक हो जाता है, गतिमान हो जाता है। इस चक्र पर ध्यान करने वाले व्यक्ति की संकल्प की शक्ति अपराजेय हो जाती है।
कृष्ण ने जानकर अर्जुन से कहा है। यह विशेषकर अर्जुन के लिए कहा गया सूत्र है। क्योंकि क्षत्रिय के लिए ध्यान आज्ञा-चक्र पर ही करने की व्यवस्था है। क्षत्रिय की सारी जीवन-धारणा संकल्प की धारणा है। वही उसका सर्वाधिक विकसित हिस्सा है। उस पर ही वह ध्यान कर सकता है। इस चक्र पर ध्यान करने से क्या होगा? एक बात और खयाल में ले लें, तो समझ में आ सकेगी।
आपके घर में आग लग गई हो। अभी कोई खबर देने आ जाए कि घर में आग लग गई। आप भागेंगे। रास्ते पर कोई नमस्कार करेगा, आपकी आंख बराबर देखेगी; फिर भी, फिर भी आप नहीं देख पाएंगे। और कल वह आदमी मिलेगा और कहेगा कि कल क्या हो गया था; बदहवास भागे जाते थे! नमस्कार की, उत्तर भी न दिया! आप कहेंगे, मुझे कुछ होश नहीं। मैं देख नहीं पाया। वह आदमी कहेगा, आंख आपकी बिलकुल मुझे देख रही थी। मैं बिलकुल आंख के सामने था। आप कहेंगे, जरूर आप आंख के सामने रहे होंगे। लेकिन मेरा ध्यान आंख पर नहीं था।
शरीर की भी वही इंद्रिय काम करती है, जिस पर ध्यान हो, नहीं तो काम नहीं करती। शरीर की इंद्रियों को भी सक्रिय करना हो, तो ध्यान से ही सक्रिय होती हैं वे, अन्यथा सक्रिय नहीं होतीं। आंख तभी देखती है, जब भीतर ध्यान आंख से जुड़ता है, अटेंशन आंख से जुड़ती है। कान तभी सुनते हैं, जब ध्यान कान से जुड़ता है। शरीर की इंद्रियां भी ध्यान के बिना चेतना तक खबर नहीं पहुंचा पातीं। ठीक ऐसे ही भीतर के जो सात चक्र हैं, वे भी तभी सक्रिय होते हैं, जब ध्यान उनसे जुड़ता है।
संकल्प का चक्र है आज्ञा। अर्जुन से वे कह रहे हैं, तू उस पर ध्यान कर। कर्मयोगी के लिए वही उचित है। कर्म का चक्र है वह, विराट ऊर्जा का, उस पर तू ध्यान कर। लेकिन ध्यान तभी घटित होगा, जब बाहर आती श्वास और भीतर जाती श्वास सम स्थिति में हों।
आपको खयाल में नहीं होगा कि सम स्थिति कब होती है। आपको पता होता है कि श्वास भीतर गई, तो आपको पता होता है। श्वास बाहर गई, तो आपको पता होता है। लेकिन एक क्षण ऐसा आता है, जब श्वास भीतर होती है, बाहर नहीं जा रही--एक गैप का क्षण। एक क्षण ऐसा भी होता है, जब श्वास बाहर चली गई और अभी भीतर नहीं आ रही; एक छोटा-सा अंतराल। उस अंतराल में चेतना बिलकुल ठहरी हुई होती है। उसी अंतराल में अगर ध्यान ठीक से किया गया, तो आज्ञा-चक्र शुरू हो जाता है, सक्रिय हो जाता है।
और जब ऊर्जा आज्ञा-चक्र को सक्रिय कर दे, तो आज्ञा-चक्र की हालत वैसी हो जाती है, जैसे कभी आपने सूर्यमुखी के फूल देखे हों सुबह; सूरज नहीं निकला, ऐसे लटके रहते हैं जमीन की तरफ--उदास, मुर्झाए हुए, पंखुड़ियां बंद, जमीन की तरफ लटके हुए। फिर सूर्य निकला और सूर्यमुखी का फूल उठना शुरू हुआ, खिलना शुरू हुआ, पंखुड़ियां फैलने लगीं, मुस्कुराहट छा गई, नृत्य फूल पर आ गया। रौनक, ताजगी। फूल जैसे जिंदा हो गया; उठकर खड़ा हो गया।
जिस चक्र पर ध्यान नहीं है, वह चक्र उलटे फूल की तरह मुर्झाया हुआ पड़ा रहता है। जैसे ही ध्यान जाता है, जैसे सूर्य ने फूल पर चमत्कार किया हो, ऐसे ही ध्यान की किरणें चक्र के फूल को ऊपर उठा देती हैं। और एक बार किसी चक्र का फूल ऊपर उठ जाए, तो आपके जीवन में एक नई इंद्रिय सक्रिय हो गई। आपने भीतर की दुनिया से संबंध जोड़ना शुरू कर दिया।
अलग-अलग तरह के व्यक्तियों को अलग-अलग चक्रों से भीतर जाने में आसानी होगी। अब जैसे कि साधारणतः सौ में से नब्बे स्त्रियां इस सूत्र को मानें, तो कठिनाई में पड़ जाएंगी। स्त्रियों के लिए उचित होगा कि वे भ्रू-मध्य पर कभी ध्यान न करें। हृदय पर ध्यान करें, नाभि पर ध्यान करें। स्त्री का व्यक्तित्व नान-एग्रेसिव है; रिसेप्टिव है; ग्राहक है; आक्रामक नहीं है।
जिनका व्यक्तित्व बहुत आक्रामक है, वे ही; जैसा कि मैंने कहा, क्षत्रिय के लिए कृष्ण ने कहा, आज्ञा-चक्र पर ध्यान करे। सभी पुरुषों के लिए भी उचित नहीं होगा कि आज्ञा-चक्र पर ध्यान करें। जिसका व्यक्तित्व पाजिटिवली एग्रेसिव है, जिसको पक्का पता है कि आक्रमणशील उसका व्यक्तित्व है, वही आज्ञा-चक्र पर प्रयोग करे, तो उसकी ऊर्जा तत्काल अंतस-लोक से संबंधित हो जाएगी।
जिसको लगता हो, उसका व्यक्तित्व रिसेप्टिव है, ग्राहक है, आक्रामक नहीं है, वह किसी चीज को अपने में समा सकता है, हमला नहीं कर सकता--जैसे कि स्त्रियां। स्त्री का पूरा बायोलाजिकल, पूरा जैविक व्यक्तित्व ग्राहक है। उसे गर्भ ग्रहण करना है। उसे चुपचाप कोई चीज अपने में समाकर और बड़ी करनी है।
इसलिए अगर कोई स्त्री आज्ञा-चक्र पर प्रयोग करे, तो दो में से एक घटना घटेगी। या तो वह सफल नहीं होगी; परेशान होगी। और अगर सफल हो गई, तो उसकी स्त्रैणता कम होने लगेगी। वह नान-रिसेप्टिव हो जाएगी। उसका प्रेम क्षीण होने लगेगा और उसमें पुरुषगत वृत्तियां प्रकट होने लगेंगी। अगर बहुत तीव्रता से उस पर प्रयोग किया जाए, तो यह भी पूरी संभावना है कि उसमें पुरुष के लक्षण आने शुरू हो जाएं।
अगर कोई पुरुष हृदय के चक्र पर बहुत ध्यान करे, तो उसमें स्त्री के लक्षण आने शुरू हो सकते हैं। रामकृष्ण ने छः महीने तक इस तरह का प्रयोग किया और तब बड़ी अदभुत घटना घटी। और वह घटना यह थी कि रामकृष्ण के स्तन बड़े हो गए, स्त्रैण। रामकृष्ण की आवाज स्त्रियों जैसी हो गई। और यह तो ठीक था; एक बहुत अदभुत घटना घटी कि रामकृष्ण को छः महीने के प्रयोग के बाद मासिक-धर्म शुरू हो गया, मैंसेस शुरू हो गया। एक बहुत चमत्कार की बात थी। यह सोचा भी नहीं जा सकता था कि यह कैसे संभव है! और जब इस प्रयोग को उन्होंने बंद किया, तो कोई दो साल में धीरे-धीरे, धीरे-धीरे लक्षण खोए। अन्यथा वे बढ़ते ही रहे। मुश्किल से खो सके। उनकी चाल स्त्रियों जैसी हो गई!
हमारे व्यक्तित्व का जो निर्माण है, वह हमारे चक्रों से संबंधित है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अलग-अलग चक्रों की व्यवस्था है ध्यान करने के लिए। अर्जुन के लिए--इसलिए मैंने स्पेसिफिकली, आपको यह कह रहा हूं कि यह जो सूत्र है, अर्जुन से कहा गया है। अर्जुन के व्यक्तित्व के लिए उचित है कि वह आज्ञा-चक्र पर ध्यान को थिर कर ले।
और ध्यान उसी समय प्रवेश कर जाएगा, जब श्वास सम होती है, न बाहर, न भीतर; बीच में ठहरी होती है। न तो आप ले रहे होते, न छोड़ रहे होते। जब श्वास दोनों जगह नहीं होती, ठहरी होती है, उस क्षण आप करीब-करीब उस हालत में होते हैं, जैसी हालत में मृत्यु के समय होते हैं या जैसी हालत में जन्म के समय होते हैं।
क्या आपको पता है कि अगर बच्चा न रोए जन्म के बाद, तो चिंता फैल जाती है! चेष्टा की जाती है उसे रुलाने की। क्या कारण है? मां के पेट में बच्चा श्वास नहीं लेता; सम रहता है। मां के पेट में बच्चे को श्वास लेने की जरूरत नहीं पड़ती; सम रहता है। जिस सम की बात कृष्ण कर रहे हैं। नौ महीने सम रहता है; न श्वास बाहर आती है, न भीतर जाती है। श्वास चलती ही नहीं।
इसलिए बच्चा पैदा होते से जो रोता है, चिल्लाता है, वह केवल श्वास का यंत्र काम करने की कोशिश कर रहा है, और कुछ भी नहीं। रो-चिल्लाकर उसके फेफड़े काम शुरू कर रहे हैं तेजी से। अगर वह थोड़ी देर चूक जाए, तो कठिनाई होगी। कठिनाई हो सकती है। इसलिए रोए बच्चा, तो खुशी की बात है। क्योंकि मतलब हुआ कि वह स्वस्थ है, और काम शुरू हो जाएगा।
सम स्थिति में होता है उस समय, जब बच्चा पैदा होता है। ठीक वही स्थिति पुनः हो जाती है, जब श्वास न भीतर जा रही, न बाहर जा रही, बीच का क्षण होता है; तब आपका पुनर्जन्म हो सकता है, रिबॉर्न। आप भीतर की तरफ यात्रा कर सकते हैं। मरते वक्त भी फिर वही सम स्थिति आ जाती है।
तीन बार सम स्थिति आती है--जन्म के समय, मरते समय, समाधि के समय। जितनी बार समाधि आएगी, उतनी बार सम स्थिति आएगी। लेकिन बस, तीन वक्त सम स्थिति होती है, जब कि श्वास न बाहर है, न भीतर।
इस स्थिति में क्यों चेतना भीतर जा सकती है? क्योंकि जैसे ही श्वास बाहर-भीतर नहीं होती, जगत से सारा संबंध थिर हो जाता है, ठहर जाता है। अभी आप रूपांतरण कर सकते हैं। यह गियर बदलने का मौका है। न्यूट्रल में पहुंच गया गियर। आप गाड़ी चलाते हैं, तो आप सीधे एक गियर से दूसरे गियर में नहीं बदल सकते। न्यूट्रल में डाल देते हैं गियर को पहले, फिर दूसरे गियर में बदलते हैं।
अगर श्वास को आप गियर समझें, तो भीतर जाती श्वास जीवन की श्वास है, बाहर जाती श्वास मृत्यु की श्वास है। दोनों के बीच में न्यूट्रल गियर है, जहां सम है; जहां न भीतर, न बाहर; अस्तित्व है जहां, न मृत्यु, न जीवन। उसी क्षण में आपका रूपांतरण होता है।
इसलिए कृष्ण दो बातों पर जोर देते हैं, श्वास हो सम अर्जुन, और ध्यान तेरा भ्रू-मध्य पर, आज्ञा-चक्र पर हो, तो फूल ऊपर उठ जाएगा, चक्र खुल जाएगा। और जैसे ही वह चक्र खुलेगा, वैसे ही तू अचानक पाएगा कि वह सारी शक्ति जो पहले काम बनती थी, क्रोध बनती थी, वह सारी की सारी शक्ति आज्ञा-चक्र पी गया। वह सारी शक्ति संकल्प बन गई।
इसलिए ध्यान रखें, अगर आप बहुत क्रोधी हैं या बहुत कामी हैं, तो एक लिहाज से दुर्भाग्य है, लेकिन एक लिहाज से सौभाग्य भी है। क्योंकि इस जगत में जो बहुत कामी हैं और बहुत क्रोधी हैं, वे ही बड़े संकल्पवान हो सकते हैं। दुर्भाग्य है कि काम और क्रोध आपको परेशान करेंगे। सौभाग्य है कि अगर आप ध्यान कर लें, तो आपके पास जितना संकल्प होगा, उतना उन लोगों के पास नहीं होगा, जिनके पास न काम है, न क्रोध है।
इसलिए इस जगत में जिन लोगों ने बहुत महान शक्ति पाई, वे वे ही लोग हैं, जो बहुत कामी थे, बहुत सेक्सुअल थे। यह बहुत हैरानी की बात है। इस जगत में जो लोग बहुत महान ऊर्जा को उपलब्ध हुए, वे वे ही लोग हैं, जो ओवर सेक्सुअल थे। साधारण रूप से कामी नहीं थे; बहुत कामी थे। लेकिन जब शक्ति बदली, तो यही बड़ी शक्ति जो काम में प्रकट होती थी, संकल्प बन गई।
अर्जुन अगर रूपांतरित हो जाए, तो जैसा महाक्षत्रिय है वह बाहर के जगत में, ऐसा ही भीतर के जगत में महावीर हो जाएगा। इतनी ही ऊर्जा जो क्रोध और काम में बहती है, संकल्प को मिल जाए, तो संकल्प महान होगा।
इस जगत में वरदानों को अभिशाप बनाने वाले लोग हैं; इस जगत में अभिशापों को वरदान बना लेने वाले लोग भी हैं। अगर काम-क्रोध बहुत हो, तो भी परमात्मा को धन्यवाद देना कि शक्ति पास में है। अब रूपांतरित करना अपने हाथ में है। काम-क्रोध बिलकुल न हो, तो बहुत कठिनाई है। बहुत कठिनाई है। शक्ति ही पास में नहीं है, रूपांतरित क्या होगा!
इसलिए काम-क्रोध बहुत होने से परेशान न हो जाना, सिर्फ विचारमग्न होना। और काम-क्रोध को रूपांतरित करने की यह बहुत वैज्ञानिक विधि है। कहनी चाहिए जितनी वैज्ञानिक हो सकती है उतनी कृष्ण ने कही है, श्वास सम, ध्यान आज्ञा-चक्र पर। इसका अभ्यास करते रहें। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे जो मैंने कहा है, वह आपके खयाल में आना शुरू हो जाएगा। धीरे-धीरे एक दिन वह आ जाएगा कि भीतर की सारी ऊर्जा रूपांतरित हो जाएगी।
ऐसा भी नहीं है कि...लोग मुझसे पूछते हैं कि अगर ऐसा हो गया कि सारा क्रोध खो गया, सारा काम खो गया, सारी ऊर्जा संकल्प बन गई, तो इस जगत में जीएंगे कैसे? इस जगत में क्रोध की भी कभी जरूरत पड़ती है।
निश्चित पड़ती है। लेकिन ऐसा व्यक्ति भी क्रोध कर सकता है, पर ऐसा व्यक्ति क्रोधित नहीं होता। ऐसा व्यक्ति क्रोध कर सकता है, लेकिन ऐसा व्यक्ति क्रोधित नहीं होता। ऐसा व्यक्ति क्रोध का भी उपयोग कर सकता है; लेकिन वह उपयोग है। जैसे आप अपने हाथ को ऊपर उठाते हैं, नीचे गिराते हैं। यह बीमारी नहीं है। लेकिन हाथ ऊपर-नीचे होने लगे, और आप कहें कि मैं रोकने में असमर्थ हूं; यह तो होता ही रहता है; यह मेरे वश के बाहर है--तब बीमारी है।
क्रोध उपयोग किया जा सकता है। लेकिन केवल वे ही उपयोग कर सकते हैं, जो क्रोध के बाहर हैं। हमारा तो क्रोध ही उपयोग करता है; हम क्रोध का उपयोग नहीं करते। हमारे ऊपर तो हमारी इंद्रियां ही हावी हो जाती हैं।
क्या काम का उपयोग नहीं हो सकता? इस मुल्क ने तो बहुत वैज्ञानिक प्रयोग किए हैं इस दिशा में भी। बहुत सैकड़ों वर्षों तक, अगर किसी को पुत्र न हो, तो ऋषि-मुनि से भी पुत्र मांगा जा सकता था अपनी पत्नी के लिए। ऋषि-मुनि से भी प्रार्थना की जा सकती थी कि एक पुत्र दान दे दो। बहुत हैरानी की बात है!
जब पश्चिम के लोगों को पहली दफा पता चला, तो उन्होंने कहा, कैसे अजीब लोग रहे होंगे! पहली तो बात कि वे ऋषि-मुनि, वे क्या संभोग के लिए राजी हुए होंगे? और दूसरी बात, यह कैसा अनैतिक कृत्य कि कोई आदमी अपनी पत्नी के लिए पुत्र मांगने जाए! उनकी समझ के बाहर पड़ी बात। मिस मियो ने और जिन लोगों ने भारत के खिलाफ बहुत कुछ लिखा, इस तरह की सारी बातें इकट्ठी कीं। पर उन्हें कुछ पता नहीं। अब मिस मियो अगर जिंदा होती, तो उसको पता चलता कि अब पश्चिम भी सोच रहा है।
पश्चिम सोच रहा है कि सभी लोग अगर बच्चे पैदा न करें, तो बेहतर है। क्योंकि पश्चिम कह रहा है कि जब हम बीज चुनकर बेहतर फूल, बेहतर फल पैदा कर सकते हैं, तो हम वीर्य चुनकर भी बेहतर व्यक्ति क्यों पैदा नहीं कर सकते हैं! आज नहीं कल पश्चिम में वीर्य भी चुना हुआ होगा। उनके रास्ते टेक्नोलाजिकल होंगे।
लेकिन एक ऋषि के पास जाकर कोई प्रार्थना करे, तो ऋषि का तो काम विसर्जित हो गया है। इसीलिए ऋषि से प्रार्थना की जा सकती थी। जिसकी कोई कामना नहीं रही, जिसकी कोई वासना नहीं रही, उसी से तो पवित्रतम वीर्य की उपलब्धि हो सकती है। जिसकी कोई इच्छा नहीं है, शरीर को भोगने का जिसका कोई खयाल नहीं है, वह भी अपने शरीर को दान कर सकता है।
ध्यान रहे, वीर्य कोई आध्यात्मिक चीज नहीं है, शारीरिक, फिजियोलाजिकल घटना है। और जब आप मरेंगे, तो आपका सारा वीर्य आपके शरीर के साथ नष्ट हो जाएगा। वह कोई आत्मिक चीज नहीं है कि आपके साथ चली जाएगी। शरीर का दान है।
ऋषि-मुनि जानते हैं कि उनका शरीर तो खो जाएगा, लेकिन अगर उनके शरीर से कुछ भी उपयोग हो सकता है, तो उतना उपयोग भी किया जा सकता है। ये बहुत हिम्मतवर लोग रहे होंगे। साधारण हिम्मत से यह काम होने वाला नहीं था।
इस संकल्प की स्थिति के बाद भी काम और क्रोध का उपयोग किया जा सकता है, इंस्ट्रूमेंट की तरह। न किया जाए, तो कोई मजबूरी नहीं है। फिर व्यक्तियों पर निर्भर करता है कि उपयोग करेंगे, नहीं करेंगे। एक बात पक्की है कि काम और क्रोध आपका उपयोग नहीं कर सकते।
इसीलिए इस चक्र को आज्ञा-चक्र नाम दिया गया कि जिस व्यक्ति का इस चक्र पर कब्जा हो जाता है, उसकी इंद्रियां उसकी आज्ञा मानने लगती हैं। और जिस व्यक्ति का इस चक्र पर अधिकार नहीं है, उसे अपनी इंद्रियों की आज्ञा माननी पड़ती है। इस चक्र के इस पार इंद्रियों की आज्ञा है; उस पार अपनी मालकियत शुरू होती है। इसलिए उस चक्र को दि आर्डर, आज्ञा ही नाम दे दिया गया। इस तरफ रहोगे, तो इंद्रियों की आज्ञा माननी पड़ेगी। उस तरफ रहोगे, तो इंद्रियों को आज्ञा दे सकते हो।
यह बहुत वैज्ञानिक सूत्र है। समझने का कम, करने का ज्यादा। शब्दों से पहचानने का कम, प्रयोग में उतरने का ज्यादा। इसे थोड़ा प्रयोग करेंगे, तो धीरे-धीरे खयाल में आ सकता है।


भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्
सुहृदं सर्व भूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।। २९।।
और हे अर्जुन! मेरा भक्त मेरे को यज्ञ और तपों का भोगने वाला, और संपूर्ण लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर तथा संपूर्ण भूत प्राणियों का सुहृद अर्थात स्वार्थरहित प्रेमी, ऐसा तत्व से जानकर शांति को प्राप्त होता है।


कृष्ण कहते हैं, मुझे जो प्रेम करता है सर्व लोकों के परमात्मा की भांति! मुझे, कृष्ण कहते हैं, मुझे जो प्रेम करता है। जब हम पढ़ेंगे और कृष्ण कहते हैं, सब लोकों के परमात्मा की भांति! परमात्माओं का भी परमात्मा! जब हम पढ़ते हैं, तो हमें थोड़ी कठिनाई होगी कि कृष्ण स्वयं को सब परमात्माओं का परमात्मा कहते हैं! बड़े अहंकार की बात मालूम पड़ती है! बहुत ईगोइस्ट मालूम पड़ती है। क्योंकि हम मैं का एक ही अर्थ जानते हैं।
हमारा मैं सदा ही तू के विपरीत है। हमारे मैं का एक ही अनुभव है--तू के खिलाफ, तू से भिन्न, तू से अलग। हमारे मैं में तू इनक्लूडेड नहीं है, एक्सक्लूडेड है। कृष्ण जैसे व्यक्ति जब कहते हैं, मैं, तो उनके मैं में सब तू इनक्लूडेड हैं, सब तू सम्मिलित हैं। सब तू इकट्ठे उनके मैं में सम्मिलित हैं।
यह आयाम हमारे लिए नहीं है। इसका हमें कोई परिचय नहीं है। इसलिए कृष्ण पर अनेक लोगों को आपत्ति लगती है कि क्या बात कहते हैं! कहते हैं कि मुझे जो प्रेम करता है सब परमात्माओं के परमात्मा की भांति, वही उपलब्ध होता है मुक्ति को, आनंद को! वही उपलब्ध होता है मोक्ष को, मुझे!
जीसस भी ठीक इसी भाषा में बोलते हैं। जीसस भी कहते हैं, आई एम दि ट्रुथ, आई एम दि वे। और जिसे भी पहुंचना हो प्रभु तक, आओ मेरे द्वारा।
बुद्ध भी कहते हैं।
निश्चित ही, हमारे मैं और उनके मैं के उपयोग में कोई अंतर होना चाहिए। हम जब भी कहते हैं मैं, तब वह तू के विपरीत एक शब्द है। जब कृष्ण और क्राइस्ट जैसे लोग कहते हैं मैं, तब तू से उसका कोई संबंध नहीं, अनरिलेटेड है। उससे तू से कोई लेना-देना ही नहीं है। इसीलिए इतनी सरलता से कह पाते हैं कि तू छोड़ सब मुझ पर। मुझे कर प्रेम परमात्माओं के परमात्मा की तरह।
अर्जुन संदेह भी नहीं उठाता। अर्जुन के मन में भी तो सवाल उठा होगा। अपना सखा, अपना साथी, सारथी बना हुआ बैठा है! निश्चित ही, स्थिति तो अर्जुन की ही ऊपर थी। रथ में तो वही विराजमान था। कृष्ण तो सिर्फ सारथी थे, अर्जुन के रथ चलाने वाले थे। जहां तक संसार की हैसियत का संबंध है, उस घड़ी में कृष्ण की हैसियत अर्जुन से बड़ी न थी।
अब यह बहुत मजेदार घटना है। जो अपने को कहता है कि मैं परमात्माओं का परमात्मा, वह एक साधारण से अज्ञानी आदमी का सारथी बन जाता है! अहंकारी होता, तो कभी न बनता। एक साधारण से आदमी के रथ के घोड़ों को निकालकर सांझ नदी पर पानी पिला लाता है; सफाई कर लाता है। अहंकारी होता, तो यह संभव न था। अहंकारी कहीं सारथी बने हैं! अहंकारी रथ पर विराजमान होते हैं। अर्जुन भलीभांति जानता है कि अहंकार का तो कोई सवाल ही नहीं है। क्योंकि जो आदमी सारथी की तरह घोड़ों की लगाम लेकर बैठ गया है, उससे ज्यादा निरहंकारी आदमी और कहां खोजने से मिलेगा!
फिर वह सारथी बना हुआ आदमी कह रहा है कि तू मुझे जान कि मैं परमात्माओं का परमात्मा हूं! अर्जुन पहचानता है। कृष्ण की विनम्रता को पहचानता है। इसलिए कृष्ण के अहंकार जैसे शब्द के उपयोग को भी समझ पाता है।
हमें बहुत कठिनाई हो जाएगी। इसलिए कृष्ण पर बहुत लोगों ने आपत्ति की है कि कृष्ण घोषणा करते हैं, सर्व धर्मान परित्यज्य, सब धर्म छोड़कर तू मेरी शरण में आ जा--मामेकं शरणं व्रज--आ जा मेरी शरण। यह बात ठीक नहीं मालूम पड़ती है।
जिन्हें ठीक नहीं मालूम पड़ती, वे फिर पुनर्विचार करें। कहीं उन्हें इसलिए तो ठीक नहीं मालूम पड़ती कि उनके अहंकार को बेचैनी होती है--कि हम किसी की शरण में चले जाएं? कृष्ण की शरण में मैं चला जाऊं? नहीं; यह नहीं हो सकता। यह कृष्ण अहंकारी मालूम होता है।
ध्यान रखना, हमारे अहंकार को लगी चोट, हमसे कहलवाती है, रेशनलाइज करवाती है कि कृष्ण अहंकारी हैं। मैं मान लूं इस कृष्ण को कि सारे जगत का परमात्मा है, मैं! यह हम स्वीकार न करेंगे। हम कहेंगे, यह बात नहीं मानी जा सकती। कोई आदमी यह कहे कि मैं परमात्मा हूं, यह तो निपट अहंकार हुआ। अपने अहंकार का खयाल न लेंगे कि अपने अहंकार को चोट लगती है।
इसलिए एक बहुत मजेदार घटना घटी। कृष्णमूर्ति ने लोगों से पिछले चालीस वर्षों में सैकड़ों-हजारों बार कहा, मैं तुम्हारा गुरु नहीं, मैं तुम्हारा परमात्मा नहीं, मैं तुम्हारा शिक्षक नहीं। मैं कोई भी नहीं हूं। जितने अहंकारी लोग थे, उनको यह बात बहुत अपील हुई। उन्होंने कहा, बिलकुल ठीक! एकदम ठीक।
इधर जानकर मैं बहुत हैरान हुआ कि कृष्णमूर्ति को सुनने वाला वर्ग बहुत गहरे अर्थों में अहंकारियों का वर्ग है। उसे प्रीतिकर लगी। इसलिए नहीं कि वह समझा कि कृष्णमूर्ति क्या कह रहे हैं। वह समझना तो बहुत मुश्किल है। उतना ही मुश्किल, जितना कृष्ण की यह बात समझनी मुश्किल है कि मैं परमात्मा हूं। उतना ही मुश्किल। लेकिन उसे एक बात जरूर समझ में आ गई कि ठीक है; एक आदमी तो ऐसा है, जिसके सामने हमें शिष्य बनने की जरूरत नहीं है। जिसके सामने हमें झुकने की जरूरत नहीं है।
लेकिन बड़े मजे की बात है कि कृष्णमूर्ति इसलिए इनकार करते हैं कि मैं तुम्हारा गुरु नहीं, क्योंकि अगर आज कोई भी आदमी इस जगत में कहे कि मैं गुरु हूं; कृष्ण जैसी हिम्मत की बात कोई कहे; कृष्ण भी लौट आएं और वापस कहें कि मैं हूं परमात्माओं का परमात्मा, तो हम स्वीकार न करेंगे। क्योंकि जगत का अहंकार बहुत विकसित हुआ है।
यह जिस दिन उन्होंने कहा था, उस दिन जगत का अहंकार बहुत अविकसित था। लोग भोले थे, लोग सरल थे। लोगों के पास अहंकार घना नहीं था। अगर कोई आदमी कहता था कि मैं परमात्मा हूं, तो लोग सोचते थे कि सोचें; शायद होगा! आज अगर कोई कहेगा, मैं परमात्मा! तो लोग कहेंगे, बंद करो पागलखाने में। इलाज करवाना चाहिए।
इसलिए कृष्णमूर्ति कहते हैं, मैं कोई परमात्मा नहीं, मैं कोई गुरु नहीं। लेकिन तब दूसरी भूल शुरू होती है। और अच्छा था कि कृष्ण ही भूल करें, क्योंकि उनसे भूल नहीं हो सकती, बजाय इसके कि अर्जुन भूल करें; उनसे तो भूल सुनिश्चित है।
दूसरी भूल शुरू होती है। सुनने वाला कहता है कि यह आदमी बिलकुल ठीक है। यहां झुकने की कोई जरूरत नहीं है। सुनो भी, समझो भी, शिष्य भी मत बनो, पैर छूने की कोई जरूरत नहीं। कोई सवाल नहीं है। अपनी अकड़ कायम रखी जा सकती है!
गुरु भी अकड़ से भरे हुए हो सकते हैं, तब पागल हो जाते हैं। और जब शिष्य भी अकड़ से भरे हुए होते हैं, तो और भी ज्यादा महापागल हो जाते हैं। युग का परिवर्तन है।
लेकिन कृष्ण को अर्जुन समझ पाया। उसे अड़चन नहीं हुई है। उसने यह सवाल नहीं उठाया कि तुम सारथी होकर, मेरे सारथी हो और कहते हो, परमात्मा! वह समझ पाया कि कृष्ण क्या कह रहे हैं, किस गहरे अर्थ में कह रहे हैं। वह उनकी विनम्रता को जानता है, इसलिए उनके अहंकार का सवाल नहीं उठता।
लेकिन हमारी हालतें उलटी हैं। एक लड़की ने परसों मुझे आकर कहा कि आपको मैं वर्षों से जानती हूं। सदा मैंने आपको पाया कि आपसे प्रेम बरसता है। लेकिन एक दिन जरा-सा मैंने देखा कि आपमें क्रोध है, तो मेरा सारा प्रेम जो था, वह बेकार हो गया।
जरूरी नहीं है कि मुझ में क्रोध हो। क्योंकि उसे क्या दिखाई पड़ा, यह जरूरी नहीं कि मुझ में हो। पर बड़े मजे की बात है कि वर्षों का मेरा प्रेम बेकार हो गया, क्योंकि उसे खयाल में आया कि मुझ में जरा क्रोध है। मेरा वर्षों का प्रेम जरा-से क्रोध को गलत न कर पाया। मेरे जरा-से क्रोध ने मेरे वर्षों के प्रेम को गलत किया। यद्यपि जरूरी नहीं है कि मुझे क्रोध रहा हो, उसे दिखाई पड़ा। यह भी जरूरी नहीं कि मुझे वर्षों प्रेम रहा हो, उसे दिखाई पड़ा। बात उसी की है; मेरा कोई सवाल नहीं है। लेकिन वर्षों का प्रेम जरा-से क्रोध के सामने डूब गया। जरा-सा क्रोध वर्षों के प्रेम के सामने नहीं डूब पाया!
अगर आज का होता अर्जुन, तो वह कहता, बस; बंद करो बातचीत। तुम्हारी सब विनम्रता, तुम्हारा सारथी होना, तुम्हारा घोड़ों को पानी पिलाना, सब बेकार हो गया। तुम मुझसे कह रहे हो कि तुम परमात्मा हो! लेकिन वह जानता है कि जिसकी इतनी विनम्रता गहरी है, जल्दी नतीजे का कोई कारण नहीं है। और समझा जा सकता है। और अगर कृष्ण कहते हैं, तो उसमें कुछ अर्थ होगा।
जब कृष्ण जैसा व्यक्ति कहता है, मैं की उदघोषणा करता है, तो आपके मैं को विसर्जित करने के लिए; आपका मैं समर्पित हो सके, इसलिए। और जब तक कोई समर्पित न हो, तब तक मुक्त नहीं हो पाता है। समर्पण, सरेंडर मुक्ति है।
और यह बड़े मजे की बात है कि इसके पहले सूत्र में कृष्ण कहते हैं कि तू संकल्प को बड़ा कर, आज्ञा-चक्र को जगा। और ठीक उसके बाद के सूत्र में कहते हैं कि मैं परमात्मा हूं, ऐसा जान।
असल में, जो महा संकल्पवान है, वही समर्पण कर पाता है। जिसके पास संकल्प नहीं है, वह समर्पण भी नहीं कर पाएगा। कमजोरों के लिए संकल्प नहीं है। शक्ति समर्पण बनती है।
यह पांचवां अध्याय पूरा हुआ। इस पूरे अध्याय में कृष्ण ने अर्जुन को कर्म करते हुए, समस्त कर्म के जाल में डूबे रहते हुए मुक्त होने की सारी कीमिया, सारी केमिस्ट्री, सारी अल्केमी उपस्थित की है। गीता का एक-एक अध्याय अपने में पूर्ण है। गीता एक किताब नहीं, अनेक किताबें है। गीता का एक अध्याय अपने में पूर्ण है। जरूरी नहीं है कि इसके आगे गीता पढ़ें। जरूरी तभी है, जब पांचवां अध्याय न पढ़ पाएं, न समझ पाएं।
ध्यान रखें, जरूरी तभी है, जब पांचवां अध्याय बेकार चला जाए, तो फिर छठवां पढ़ें। अर्जुन पर बेकार चला गया, इसलिए छठवां कृष्ण को कहना पड़ा। बेकार इसलिए चला गया कि कृष्ण को दिखाई पड़ा कि अभी कुछ हुआ नहीं। फिर और बात करनी पड़ी। फिर और बात करनी पड़ी। फिर और बात करनी पड़ी।
अगर एक अध्याय भी गीता का ठीक से समझ में आ जाए--समझ का मतलब, जीवन में आ जाए, अनुभव में आ जाए। खून में, हड्डी में आ जाए; मज्जा में, मांस में आ जाए; छा जाए सारे भीतर प्राणों के पोर-पोर में--तो बाकी किताब फेंकी जा सकती है। फिर बाकी किताब में जो है, वह आपकी समझ में आ गया। न आए, तो फिर आगे बढ़ना पड़ता है।
लेकिन ध्यान रहे, अगर कोई भी व्यक्ति गीता या बाइबिल और कुरान जैसी किताबों को सिर्फ बौद्धिक रूप से समझने की चेष्टा में संलग्न होता है, तो गलती कर रहा है। वह ऐसी ही गलती कर रहा है, जैसे कोई व्यक्ति सड़क के किनारे, सीमेंट की सड़क के पास कांटा और आटा लगाकर बैठ जाए मछली पकड़ने को--सीमेंट की सड़क पर! वहां कोई मछली पकड़ में नहीं आएगी। ऐसी ही गलती है।
बुद्धि से कोई अगर अस्तित्व के जगत में खोजने निकल पड़े, कुछ पकड़ में नहीं आता। बुद्धि का वहां अर्थ नहीं है। इतना ही अर्थ है बुद्धि का कि आपकी जो पकड़ी हुई, जकड़ी हुई अबुद्धि है, उसे तोड़ पाए। आप हल्के हो पाएं।
समझ लें, ऐसा समझ लें, आपके हाथ-पैर में जंजीरें पड़ी हैं। आप हट नहीं पाते उस जगह से। मैं एक हथौड़ी लाकर आपकी जंजीरें तोड़ देता हूं। जंजीरें तोड़ सकता हूं हथौड़ी से, स्वतंत्र नहीं कर सकता आपको। फिर भी आप वहीं खड़े रहें, तो मैं क्या करूंगा? जंजीरें गिर जाएं जमीन पर, आप वहीं बैठे रहें, तो मैं क्या करूंगा!
सिर्फ नकारात्मक काम, निगेटिव काम बुद्धि से हो सकता है। आपके मन पर जो बहुत-सी अबौद्धिक धारणाएं जकड़ी हुई हैं, बुद्धि उनको काटकर तोड़ सकती है। लेकिन उतने से स्वतंत्रता नहीं सिद्ध होती। उससे सिर्फ गुलामी टूटती है। और अगर आप उठकर चल नहीं पड़ते, तो आपके आस-पास फिर जंजीरें इकट्ठी हो जाएंगी।
जो भी बैठा रहेगा, उसके आस-पास जंजीरें इकट्ठी हो जाती हैं। जो चलता रहेगा, वही स्वतंत्र होता है। नदी का पानी बहता रहे, तो स्वच्छ होता है। रुक जाए, सड़ जाता है। और जो व्यक्ति भी केवल सोचता रहता है, वह रुक जाता है। जीता है, वह बहता है और चलता है।
तो अंत में इतना ही कहूंगा, बहें। जो सुना, जो समझा, उसे कहीं करें। हजार मील की बात बेकार है एक कदम चलने के आगे। एक कदम काफी है। एक कदम चलें, तो हजार मील की बात करने की कोई जरूरत नहीं है। और एक-एक कदम चलकर हजारों मील का फासला पार हो जाता है।
अब पांच मिनट, अंतिम दिन हम कीर्तन में बैठेंगे। कोई जाएगा नहीं। एक भी व्यक्ति नहीं जाएगा। और साथ दें। आप भी गाएं। आप भी अपनी जगह डोलें; ताली बजाएं। एक पांच मिनट आनंद में, और फिर हम विदा हो जाएं।


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