कुल पेज दृश्य

सोमवार, 2 अक्तूबर 2017

गीता दर्शन-(भाग-02)-प्रवचन-023



गीता दर्शन-भाग-(02) प्रवचन-023
अध्याय ३
पांचवां प्रवचन
पूर्व की जीवन-कला: आश्रम प्रणाली

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।। १६।।
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।। १७।।
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।। १८।।
हे पार्थ, जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार चलाए हुए सृष्टि-चक्र के अनुसार नहीं बर्तता है (अर्थात शास्त्र के अनुसार कर्मों को नहीं करता है), वह इंद्रियों के सुख को भोगने वाला पाप-आयु पुरुष व्यर्थ ही जीता है।
परंतु, जो मनुष्य आत्मा ही में प्रीति वाला
और आत्मा ही में तृप्त तथा आत्मा में ही संतुष्ट होवे,
उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है।
क्योंकि, इस संसार में उस पुरुष का किए जाने से भी
कोई प्रयोजन नहीं है और न किए जाने से भी कोई प्रयोजन नहीं है तथा इसका संपूर्ण भूतों में कुछ भी स्वार्थ का संबंध नहीं है। तो भी उसके द्वारा केवल लोकहितार्थ
कर्म किए जाते हैं।


सृष्टि के क्रम के अनुसार! कृष्ण पहली बात इस सूत्र में कह रहे हैं, सृष्टि के क्रम के अनुसार...। इसे समझ लें, तो बाकी बात भी समझ में आ सकेगी।
जीवन दो ढंग से जीया जा सकता है। एक तो सृष्टि के क्रम के प्रतिकूल--विरोध में, बगावत में, विद्रोह में। और एक सृष्टि के क्रम के अनुसार--सहज, सरल, प्रवाह में। एक तो जीवन की धारा के प्रतिकूल तैरा जा सकता है और एक धारा में बहा जा सकता है। संक्षिप्त में कहें तो ऐसा कह सकते हैं कि दो तरह के लोग हैं। एक, जो जीवन में धारा से लड़ते हैं, उलटे तैरते हैं। और एक वे, जो धारा के साथ बहते हैं, धारा के साथ एक हो जाते हैं।
सृष्टि-क्रम के अनुसार दूसरी तरह का व्यक्ति जीता है, जीवन की धारा के साथ--जीवन से लड़ता हुआ नहीं--जीवन के साथ बहता हुआ। धार्मिक व्यक्ति का वही लक्षण है। अधार्मिक व्यक्ति का उसके प्रतिकूल लक्षण है।
अधार्मिक व्यक्ति अगर कहता है कि ईश्वर नहीं है, तो इसलिए नहीं कि उसे पता चल गया है कि ईश्वर नहीं है। ईश्वर के न होने का पता तो किसी को भी नहीं चल सकता है। ईश्वर के न होने का पता तो तभी चल सकता है, जब कि कुछ भी जानने को शेष न रह जाए। जब तक कुछ भी जानने को शेष है, तब तक कोई आदमी हकदार नहीं कि कहे कि ईश्वर नहीं है। क्योंकि जो शेष है, उसमें ईश्वर हो सकता है। ईश्वर के न होने का पता इसलिए किसी को भी नहीं चल सकता है। लेकिन ढेर लोग हैं, जो कहेंगे, ईश्वर नहीं है। बिना पता चले वे क्यों कहते होंगे कि ईश्वर नहीं है?
असल में, वे चाहते हैं कि ईश्वर न हो। ईश्वर न हो, तो फिर जीवन के क्रम के साथ बहने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। ईश्वर न हो, तो फिर जीवन से लड़ा जा सकता है। ईश्वर हो, तो जीवन से लड़ा नहीं जा सकता। ईश्वर हो, तो जीवन के साथ एक ही हुआ जा सकता है। ईश्वर नहीं है, ऐसा कोई अनुभव में किसी के कभी नहीं आता। लेकिन जो लोग जीवन से लड़ना चाहते हैं, वे ईश्वर नहीं है, ऐसा बिना माने लड़ नहीं सकते। इसलिए जीवन से लड़ने वाले सभी शास्त्र, जीवन से लड़ने वाले सभी वाद ईश्वर को इनकार करने से शुरू होते हैं।
आश्चर्यजनक लगती है कभी यह बात कि माक्र्स या एंजिल्स या लेनिन या स्टैलिन या माओ, जो लोग जीवन से लड़ने की धारणा मन में लिए हुए हैं, उनको अपने वाद का प्रारंभ, ईश्वर नहीं है, इस बात से करना पड़ता है। असल में लड़ना हो, तो ईश्वर को अस्वीकार कर देना जरूरी है। ईश्वर से लड़ा नहीं जा सकता; उससे तो सिर्फ प्रेम ही किया जा सकता है; उससे तो प्रार्थना ही की जा सकती है।
इस सूत्र में जीवन के क्रम के अनुसार का अर्थ है कि सारा जगत हमसे भिन्न नहीं है, हमसे अलग नहीं है। हम उसमें ही पैदा होते हैं और उसी में लीन हो जाते हैं। इसलिए जो व्यक्ति भी इस जगत की जीवन-धारा से लड़ता है, वह रुग्ण और डिसीज्ड हो जाता है; वह बीमार हो जाता है। जो व्यक्ति भी परिपूर्ण स्वस्थ होना चाहता है, उसे जीवन के क्रम के साथ बिलकुल एक हो जाना चाहिए। इस जीवन के क्रम के आधार पर ही भारत ने जीवन की एक सहज धारणा विकसित की थी। वह मैं आपको कहना चाहूंगा।
वर्ण के संबंध में मैंने कुछ आपसे कहा। आज आश्रम के संबंध में कुछ आपसे कहना चाहूंगा। तभी आप समझ सकेंगे कि सृष्टि के क्रम के अनुसार का मौलिक अर्थ क्या है। और शास्त्र-सम्मत कर्म करने का अर्थ क्या है।
कृष्ण जब शास्त्र शब्द का प्रयोग करते हैं, तो वे ठीक वैसे ही करते हैं, जैसे आज हम साइंस, विज्ञान शब्द का प्रयोग करते हैं। अगर आप एलोपैथिक चिकित्सक के पास जाते हैं, तो हम कहेंगे, आप विज्ञान-सम्मत चिकित्सा करवा रहे हैं। और अगर आप किसी नीमहकीम से इलाज करवाने जाते हैं, तो हम कहेंगे, आप विज्ञान-सम्मत चिकित्सा नहीं करवा रहे हैं। कृष्ण जब भी कहते हैं शास्त्र-सम्मत, तो कृष्ण का अर्थ शास्त्र से यही है। शास्त्र का अर्थ भी गहरे में यही है। उस दिन तक जो भी जानी गई साइंस थी, उस दिन तक जो भी जाना गया विज्ञान था, उसके द्वारा जो सम्मत कर्म हैं, उस कर्म की ओर वे इशारा कर रहे हैं।
और जितना विज्ञान हम आज जानते हैं, वह एक अर्थ में आंशिक है, टोटल नहीं है, खंडित है। हम सिर्फ पदार्थ के संबंध में विज्ञान को जानते हैं, जीवन के संबंध में हमारे पास अभी कोई विज्ञान नहीं है। कृष्ण के सामने एक पूर्ण विज्ञान था। पदार्थ और जीवन को खंड-खंड में बांटने वाला नहीं, अखंड इकाई में स्वीकार करने वाला। उस विज्ञान ने जीवन को चार हिस्सों में बांट दिया था। जैसे व्यक्तियों को चार टाइप, प्रकार में बांट दिया था, ऐसे एक-एक व्यक्ति की जिंदगी को चार हिस्सों में बांट दिया था। वे हिस्से जीवन की धारा के साथ थे।
पहले हिस्से को हम कहते थे, ब्रह्मचर्य--पच्चीस वर्ष। यदि सौ वर्ष आदमी की उम्र स्वीकार करें, तो पच्चीस वर्ष का काल ब्रह्मचर्य आश्रम का था। दूसरे पच्चीस वर्ष गृहस्थ आश्रम के थे, तीसरे पच्चीस वर्ष वानप्रस्थ आश्रम के थे और चौथे पच्चीस वर्ष संन्यास आश्रम के थे। पहले पच्चीस वर्ष जीवन-प्रभात के हैं, जब कि ऊर्जा जगती है, शरीर सशक्त होता है, इंद्रियां बलशाली होती हैं, बुद्धि तेजस्वी होती है, जीवन उगता है--सुबह। इस पच्चीस वर्ष के जीवन को हमने ब्रह्मचर्य आश्रम कहा था।
इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है। पहले पच्चीस वर्ष संयम के। क्यों? क्योंकि जिसके पास शक्ति है, जीवन के भोग में वही उतर सकेगा। जो अशक्त है, वह जीवन के भोग से वंचित रह जाएगा। जिसके पास जितनी शरीर संपदा, मन की संपदा है, संरक्षित शक्ति है, वह जीवन के रस में उतने ही गहरे जा सकेगा। इसलिए पहले पच्चीस वर्ष शक्ति-संचय के वर्ष हैं, जीवन की तैयारी के।
और यह बहुत मजे की बात है कि जो ठीक से भोग सकेगा, वही ठीक से त्याग को उपलब्ध होता है। कमजोर भोग नहीं पाता, इसलिए कभी त्याग को उपलब्ध नहीं हो पाता। असल में कमजोर जान ही नहीं पाता कि भोग क्या है, इसलिए उसके पार कभी नहीं हो पाता। जीवन का एक अनिवार्य नियम है, हम जिसे ठीक से जान लेते हैं, उससे मुक्त हो जाते हैं। जिसे हम ठीक से नहीं जानते, उससे हम कभी मुक्त नहीं हो पाते।
अब यह बड़ी उलटी बात मालूम पड़ेगी कि पच्चीस वर्ष तक हम व्यक्ति को ब्रह्मचर्य की साधना में से गुजारते थे, ताकि वह कामवासना से किसी दिन मुक्त हो सके। पच्चीस वर्ष हम उसे ब्रह्मचर्य साधना में रखते थे, ताकि वह पच्चीस वर्ष काम-उपभोग की गहराई में उतर सके; वह सेक्स की जो गहरी से गहरी अनुभूतियां हैं, उनमें जा सके। क्योंकि वही सेक्स के बाहर जा सकेगा, जो उसमें गहरा गया है। जो उसमें गहरा नहीं गया है, वह कभी बाहर नहीं जा सकेगा।
आज बूढ़े आदमी भी कामवासना के बाहर नहीं जा पाते हैं। क्योंकि कामवासना में जाने के लिए जितनी शक्ति की जरूरत है, वही हम कभी नहीं जुटा पाते। जितनी प्रगाढ़ और जितनी इंटेंस और तीव्र शक्ति चाहिए कि हम अनुभव कर सकें और अनुभव के बाहर जा सकें। उतनी शक्ति ही कभी इकट्ठी नहीं हो पाती। इसलिए ये पच्चीस वर्ष दोहरे अर्थ के थे।
एक तो जिन व्यक्तियों को कल संसार के अनुभव में जाना है, इंद्रियों के अनुभव में--कृष्ण इस वचन में कहते हैं, इंद्रियों का सुख भोगते हैं जो--उनके लिए भी जीवन के क्रम से ही जाना उचित है। जीवन का अगर क्रम खंडित, टूटता, केआटिक हो जाए, अराजक हो जाए, तो कोई भी जीवन के चरम शिखर को उपलब्ध नहीं होता है। इसलिए पहले पच्चीस वर्ष शक्ति के संचय के। कल फिर शक्ति के व्यय के क्षण आएंगे।
कभी आपने सोचा कि कमजोर आदमी कभी भी कामवासना से मुक्त नहीं हो पाता। जितना कमजोर, उतना काम में गिर जाता है। यह उलटी बात लगती है। लेकिन यही सच है। जितना शक्तिशाली, उतना कामवासना के शीघ्र बाहर हो जाता है। इसलिए जितने शक्तिशाली युग थे, वे कामुक युग नहीं थे। और जितने कमजोर युग होते हैं, उतने सेक्सुअल और कामुक युग होते हैं। कामवासना कमजोर करती है और कमजोरी कामवासना को बढ़ाती है। शक्ति कामवासना से मुक्त करती है और कामवासना से मुक्ति आती है, तो शक्ति बढ़ती है। ये दोनों जुड़ी हुई बातें हैं। कमजोर आदमी वासना के बाहर कभी नहीं जा पाता।
असल में कमजोर आदमी वासना में ही नहीं जा पाता, सिर्फ वासना का चिंतन करता है। सेरिब्रल, मानसिक हो जाता है उसका सारा काम। शक्ति न होने से मन में ही सोचता है। स्वस्थ युग कामवासना को कभी मन में नहीं ले जाते। अस्वस्थ युग कामवासना को मन में ले जाते हैं। जितना युग अस्वस्थ होता है, उतनी कामवासना काम के केंद्र से हटकर मस्तिष्क के केंद्र पर गतिमान हो जाती है। यह वैसा ही पागलपन है, जैसे कोई आदमी पेट में भोजन न पचाए और मस्तिष्क में पचाने की सोचने लगे। जैसे कोई आदमी पैर से न चले और मस्तिष्क में चलने की योजनाएं, कल्पनाएं और स्वप्न देखता रहे। विक्षिप्त हो जाएगा। मस्तिष्क से चला नहीं जा सकता, मस्तिष्क से सिर्फ सोचा जा सकता है। पैर से सोचा नहीं जा सकता, पैर से सिर्फ चला जा सकता है। मस्तिष्क अपना काम करे, पैर अपना काम करे। लेकिन अगर पैर कमजोर हों, तो आदमी दौड़ने के सपने देखने लगता है। अगर पेट कमजोर हो, तो आदमी भोजन की योजनाएं बनाने लगता है, भोजन नहीं करता। सेक्स कमजोर हो, सेक्स की ऊर्जा कमजोर हो, तो आदमी सेक्स का चिंतन करने लगता है।
पच्चीस वर्ष, हमारे पहले पच्चीस वर्ष हमने व्यक्ति के जीवन में शक्ति-संचय के वर्ष निर्मित किए थे। जितनी शक्ति इकट्ठी करनी है, कर लो। क्योंकि जितनी तुम्हारे पास शक्ति होगी, उतने गहरे तुम इंद्रियों के अनुभव में जा सकोगे। और जितने गहरे जाओगे, उतने इंद्रियों से मुक्त हो जाओगे। जब इंद्रियों के सब अनुभव जान लिए जाते हैं, तो आदमी जानता है, उनमें कुछ भी पाने योग्य नहीं है। बात समाप्त हो जाती है। लेकिन हम इंद्रियों के अनुभव को ही उपलब्ध नहीं हो पाते। इसलिए पढ़ते रहते हैं शास्त्र में कि इंद्रियों में कुछ भी नहीं है; और सोचते रहते हैं कि इंद्रियों में ही सब कुछ है। सुनते रहते हैं, इंद्रियां दुश्मन हैं; और मानते रहते हैं कि इंद्रियों के सिवाय और कुछ भी प्रीतिकर नहीं है। इंद्रियों के खिलाफ प्रवचन सुनते हैं, इंद्रियों के पक्ष में चित्र, फिल्म, उपन्यास, कविता देखते हैं। वही आदमी प्रवचन सुनता है इंद्रियों के विपरीत, सुखों के विपरीत; वही जाकर नाटक देखता है, वही नृत्य देखता है, वही वेश्या के घर भी दिखाई पड़ता है। क्या बात क्या हो गई है?
जीवन के क्रम के साथ व्यक्ति नहीं है। जीवन का पहला क्रम है, शक्ति-संचय। और इसमें एक दूसरी बात और खयाल में ले लेनी जरूरी है। इस ब्रह्मचर्य के पच्चीस वर्ष के आश्रम में हमने एक दूसरी और अत्यधिक गहरी मनोवैज्ञानिक बात जोड़ी थी, जो आज नहीं कल जगत को वापस लौटा लेनी पड़ेगी, अन्यथा जगत का बचना असंभव है। और वह थी कि पच्चीस वर्ष हार्डशिप के, कठिन श्रम का समय था।
अब यह बड़े मजे की बात है कि जिस व्यक्ति का बचपन जितना ही श्रम का हो, उसकी शेष जिंदगी उतने ही सुख की होती है। और जिसका बचपन जितना सुख का हो, उसकी शेष जिंदगी उतनी ही विषाद और दुख की होती है। बचपन में जो चटाई पर सोया, बचपन में जिसने रूखी-सूखी रोटी खाई, बचपन में जिसने कुदाली चलाई, लकड़ी चीरी, गाएं चराईं, जिंदगी उसे जो भी देगी, वह इससे सदा ज्यादा होगा। और सुख सदा तुलना में है, कंपेरिजन में है। जिंदगी जो भी देगी, वह सदा इससे ज्यादा होगा।
आज हम ठीक उलटा पागलपन करते हैं। बाप को जो सुख नहीं है, वह बेटे को मिल जाता है। घर में जो सुख नहीं है, वह हास्टल में, छात्रावास में मिल जाता है। पच्चीस वर्ष बीतते हैं बिलकुल बिना श्रम के, बिना काम के, बिना हार्डशिप के, बिना स्ट्रगल के। और पच्चीस साल के बाद जिंदगी में आता है संघर्ष, आता है श्रम। और फिर इसलिए जो भी मिलता है, वह कोई भी तृप्त नहीं कर पाता। कंपेरेटिव, जो भी मिलता है, वह सब बेकार लगता है। जो भी मिलता है, वह आशाओं के प्रतिकूल लगता है।
पच्चीस वर्ष का पहला आश्रम श्रम का, साधना का, संकल्प का आश्रम था। इसलिए जिंदगी जो भी देती थी, रूखी-सूखी रोटी भी देती थी, तो इतनी स्वादिष्ट थी, जिसका कोई हिसाब नहीं। रोटी अब उतनी स्वादिष्ट नहीं है। सच बात, रोटी तो बहुत स्वादिष्ट है, लेकिन खाने वाला स्वाद लेने की कला भूल गया है। रोटी आज दुनिया में पहले से बहुत ज्यादा स्वादिष्ट है। लेकिन स्वाद लेने वाला पहले से बहुत कमजोर है, स्वाद लेने वाला बिलकुल बीमार है। मकान दुनिया में आज जैसे हैं, ऐसे कभी भी न थे। सम्राटों को, अकबर को और अशोक को जो मकान नहीं थे, वे आज एक साधारण आदमी को भी मिल सकते हैं, मिल गए हैं। लेकिन आज मकानों में रहने का कोई सुख नहीं है; क्योंकि रहने वाले के पास सुख को तौलने का कोई मापदंड नहीं है, सुख को अनुभव करने की कोई क्षमता नहीं है।
पच्चीस वर्ष ब्रह्मचर्य के कठिन श्रम के वर्ष थे। बाद की जिंदगी प्रतिपल पर कम श्रम की होती चली जाती थी। यह ठीक क्रम है। अधिक शक्ति जब है हाथ में, तो अधिक श्रम कर लेना चाहिए। आज बच्चे कम श्रम कर रहे हैं और बूढ़े ज्यादा श्रम कर रहे हैं। यह बिलकुल उलटा क्रम है। बच्चों के पास शक्ति है, बूढ़ों की शक्ति क्षीण हो रही है। लेकिन बूढ़े जुते हैं बैलों की तरह और बच्चे आराम कर रहे हैं। फिर ये आराम करते बच्चे अगर युनिवर्सिटीज में आग लगाएं, अगर ये आराम करते बच्चे पत्थर फेंकें, कांच फोड़ें, तो कुछ आश्चर्य नहीं है। इनके पास काम नहीं है। ये बिलकुल बेकाम हैं। इन्हें कुछ काम चाहिए। इन्हें कुछ तोड़ने को चाहिए। ये जंगल की लकड़ी काट लेते थे, तब ये गुरु के झोपड़े पर पत्थर नहीं फेंकते थे। लकड़ी काटने में ही इनकी इतनी शक्ति लग जाती थी, इतने हलके हो जाते थे। अब काटने-पीटने, ठोंकने जैसा कुछ भी उनके हाथ में नहीं है, अब वे पत्थर फेंक रहे हैं।
पहला आश्रम, जब कि व्यक्ति के जीवन में प्रभात है शक्ति का, शक्ति के संचय, प्रयोग, क्षमता के विकास का समय है, विश्राम का नहीं। विश्राम का समय धीरे-धीरे आएगा। आखिरी क्षण, जिंदगी के सूर्यास्त के समय विश्राम का क्षण होगा। तो हम पचहत्तर साल के बाद आखिरी संन्यास के आश्रम में पूर्ण विश्राम की व्यवस्था किए थे--पूर्ण विश्राम। पहला पूर्ण श्रम, अंतिम पूर्ण विश्राम। बीच में दो सीढ़ियां थीं।
इस पहले को एक तरफ से और समझ लें, कि व्यक्ति का जो भी विकास है, वह करीब-करीब पच्चीस वर्ष में पूरा हो जाता है। मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं, और जल्दी पूरा हो जाता है। इसलिए विकास इसके पहले कि पूरा हो जाए, व्यक्ति की पूरी पोटेंशियलिटी को जगा लेने की कोशिश की जानी चाहिए। इसके पहले कि विकास का क्षण बीत जाए, व्यक्ति के भीतर जो भी शक्ति छिपी है बीजरूप, वह सब वृक्षरूप बन जानी चाहिए, वह वास्तविक हो जानी चाहिए। इसलिए रत्तीभर विश्राम का मौका पच्चीस वर्ष में नहीं था। सतत श्रम था। कठोर श्रम था। अथक श्रम था। और इसके दो परिणाम होते थे। एक तो वह व्यक्ति अपनी पूरी शक्तियों को जगाकर जीवन में जाने के योग्य हो जाता। और दूसरा, इसके बाद जीवन उसे जो भी देता, वह उसके लिए संतोष और आनंद बनता।
आज की दुनिया में कोई भी चीज संतोष नहीं बन सकती। आज हमारी सारी व्यवस्था ऐसी है कि हर चीज असंतोष ही बनेगी। उसे असंतोष बनना ही पड़ेगा। क्योंकि संतोष की एक कला थी, वह जीवन के क्रम के साथ थी। जब वृक्ष पर फूल आते हैं, तभी आने चाहिए। और जब वृक्ष के पत्ते झड़ते हैं, तभी झड़ने चाहिए। जब वृक्ष बूढ़ा हो जाए, तब हमें उससे वैसी आशा नहीं रखी चाहिए, जैसे जब वृक्ष जवान था, तब हमने आशा रखी थी। आज बड़ी हैरानी की बात है कि आज जवान से हम कोई आशा ही नहीं रखते, जिससे सर्वाधिक आशा रखी जानी चाहिए।
इस ब्रह्मचर्य के काल में एक तीसरी और प्रक्रिया थी, जो आपको खयाल दिला दूं, वह भी जीवन का हिस्सा थी। इस ब्रह्मचर्य के काल में चाहे किसी परिवार से कोई व्यक्ति आए, जीवन साम्यवादी था, कम्यून का था। गरीब का हो, अमीर का हो, सम्राट का लड़का हो, कोई भी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। ब्रह्मचर्य के पच्चीस वर्ष सहजीवन के वर्ष थे और समान जीवन के वर्ष थे। सम्राट का लड़का भी लकड़ियां चीरता, वह भी गाय-बैल को चराने जाता, वह भी गोबर से सफाई करता, वह भी गुरु के पैर दबाता। ये पच्चीस वर्ष कम्यून के, समानता के वर्ष थे। और इन पच्चीस वर्ष में जो भी हृदय में प्रविष्ट हो जाता है, वह जीवनभर साथ रहता है। इसलिए चाहे समाज में असमानता दिखाई पड़ती रही हो, व्यक्तियों के चित्तों में कभी असमानता नहीं थी। और समानता की कोई पागल प्यास भी नहीं थी। जिसको स्पर्धा कहें दूसरे से, वह पच्चीस वर्ष में इस अर्थों में पैदा ही नहीं हो पाती थी, क्योंकि सब समान था। इसलिए हमने एक नान-कांपिटीटिव, एक स्पर्धामुक्त, महत्वाकांक्षा-शून्य समाज के निर्माण का प्राथमिक आधार रखा था।
दूसरा आश्रम था गृहस्थ का। शायद इस पृथ्वी पर इस देश ने मनुष्य को जितनी वैज्ञानिकता से स्वीकार किया है, इतनी वैज्ञानिकता से किसी ने कभी स्वीकार नहीं किया है। अब कैसी हैरानी की बात है कि पच्चीस वर्ष तक हम उसे ब्रह्मचर्य का पाठ देते और पच्चीस साल के बाद उसे गृहस्थ जीवन में भेज देते--विवाहित, कामवासना, इंद्रियों के सुख में प्रवेश का मौका देते।
कोई कहेगा, यह क्या पागलपन है! पच्चीस वर्ष तक जब ब्रह्मचर्य सिखाया, तो अब क्यों उसे भेज रहे हैं? ब्रह्मचर्य उसे सिखाया ही इसलिए कि अब वह तौल भी सकेगा कि आनंद ब्रह्मचर्य में है कि वासना में! और जो आनंद उसने ब्रह्मचर्य में जाना, वह आनंद वासना से कभी नहीं उसे मिल सकेगा। इसलिए वासना सिर्फ कर्तव्य रह जाएगी। इसलिए वासना कभी भोग की तृष्णा नहीं बनेगी, मात्र कर्तव्य रह जाएगी। और उसके प्राणों का पंछी निरंतर इसी आशा में रहेगा कि कब पचास वर्ष पूरे हो जाएं और मैं ब्रह्मचर्य की दुनिया में वापस लौट जाऊं। इसलिए कामवासना का जितना सुख हम सोचते हैं, इतना सुख...!
जिन लोगों के जीवन में ब्रह्मचर्य की किरण उतरी, उन्हें हैरानी होती है कि पागल हैं आप! लेकिन आपके पास तुलना का कोई उपाय भी तो नहीं है। ब्रह्मचर्य का तो कोई आनंद कभी जाना नहीं, इसलिए तौलें किससे! तौलने का कोई उपाय नहीं है। हां, एक ही उपाय है। एक आदमी एक स्त्री के साथ संबंधित होता है; नहीं सुख पाता, तो सोचता है कि शायद दूसरी स्त्री से संबंधित होने में सुख मिले। तौलने का एक ही उपाय है, इस स्त्री से नहीं मिलता, तो दूसरी से मिले; दूसरी से नहीं मिलता, तीसरी से मिले। इस पुरुष से नहीं मिलता, दूसरे पुरुष से मिले; दूसरे से नहीं मिलता, तीसरे से मिले। तौलने का और कोई उपाय नहीं है। व्यक्ति बदलो, तो शायद मिल जाए। लेकिन अवस्था बदलो, तो शायद मिल जाए, इसकी हमारे मन में कोई कल्पना पैदा नहीं होती। क्योंकि और किसी अवस्था का हमें पता ही नहीं है।
इसलिए वासना के जगत में यात्रा करने के पहले ब्रह्मचर्य का अनुभव अनिवार्य है, अन्यथा वासना मरने तक, कब्र तक नहीं छोड़ेगी पीछा। क्योंकि तुलना का कोई उपाय नहीं रह जाएगा। और ब्रह्मचर्य के सुख को, शांति को, आनंद को जिसने जाना; ब्रह्मचर्य की शक्ति को, ब्रह्मचर्य की ऊर्जा को, ब्रह्मचर्य के आह्लाद को जिसने जाना और ब्रह्मचर्य जिसके प्राणों में नृत्य किया, संगीत बजा ब्रह्मचर्य का, उसके सामने जब वासना की दुनिया आएगी, तो वह तौल सकेगा कि बहुत फीकी है। फीकी भी कहना बेकार है, उसमें कुछ बहुत स्वाद नहीं है। अत्यंत साधारण है। तब वह इसे कर्तव्य की भांति निभा पाएगा। ठीक है; जगत, परमात्मा, जीवन का क्रम, ठीक है। वह पैदा किया गया है, वह किसी को पैदा कर जाए। वह जगह भर दे। लेकिन विक्षिप्त होकर कामवासना उसे पकड़ने वाली नहीं है।
इसलिए इस देश के शास्त्र कह सके कि जो व्यक्ति संतान के लिए ही संभोग में उतरता है, वह यद्यपि पुराने अर्थ में ब्रह्मचारी नहीं रहा, लेकिन फिर भी ब्रह्मचारी है। संतान के लिए ही जो काम-संभोग में उतरता है, वह भी ब्रह्मचारी है, यह इस देश के शास्त्र कह सके। यह कह सके इसीलिए कि कामवासना के लिए सीधा कोई कामवासना में नहीं उतरता, जो एक बार ब्रह्मचर्य को जान ले। उसके लिए कामवासना सिर्फ कर्तव्य, एक डयूटी है, जिसे निभा देना और मुक्त हो जाना है--पच्चीस वर्ष। पचास वर्ष की उम्र में उसके बच्चे आश्रम से लौटने के योग्य होने लगेंगे। पचास वर्ष में उसके बच्चे आश्रम से लौटने के योग्य होने लगेंगे। उसके बच्चे पच्चीस वर्ष के होने के करीब आ जाएंगे।
इस देश ने एक और गहरी बात खोजी और वह यह कि एक ही घर में बाप भी संभोग करे और बेटा भी संभोग करे, यह बहुत अनैतिक है। है भी, क्योंकि बाप भी फिर बचकाना है। बेटा शादी करके आ जाए, वह बच्चे पैदा करे और बाप भी बच्चे पैदा कर रहा हो उस घर में, बहुत शर्म की बात है। बेटा क्या सोचेगा? बाप चाइल्डिश है, बाप बचकाना है, प्रौ?ढ़ नहीं है। अभी तक वासना से, काम से मुक्त नहीं हो पाया!
इसलिए इस मुल्क का एक खयाल था कि जिस घर में बेटा विवाहित हो जाए, उसी दिन बाप समझे कि वानप्रस्थ हो गया, मां समझे कि वानप्रस्थ हो गया। वानप्रस्थ का मतलब समझते हैं? जिसका मुंह जंगल की तरफ हो गया। अभी जंगल चले नहीं जाना है। सिर्फ टुवर्ड्स दि फारेस्ट, अभी सिर्फ मुंह हो गया जंगल की तरफ--वानप्रस्थ। जंगल की तरफ प्रस्थान की तैयारी अब उसे कर लेनी है। अभी अगर वह जंगल चला जाए, तो क्रम में बाधा पड़ेगी। बच्चे अभी ब्रह्मचर्य के आश्रम से घर लौट रहे हैं। इस बाप ने पच्चीस साल में जिंदगी का जो अनुभव लिया है, वह उन बच्चों को देना जरूरी है। अन्यथा वह अनुभव उन्हें कहां से मिलेगा! इसने जिंदगी से जो जाना है, वह बच्चों को संभाल देना जरूरी है। इसने जिंदगी से जो पाया है, वह बच्चों को सौंप देना जरूरी है। घर की, ज्ञान की, अनुभव की सारी चाबियां बच्चों को दे देनी हैं। अब यह वानप्रस्थ हो जाएगा, बच्चों को देता जाएगा।
और पचहत्तर साल की उम्र में तो इसके बच्चों के बच्चे जंगल से आने शुरू हो जाएंगे। तब तक इसके बच्चे पचास साल के हो गए होंगे। अब तो वे भी वानप्रस्थ होने के करीब आ गए। अब यह उनसे नमस्कार ले लेगा और जंगल चला जाएगा। अब यह संन्यासी हो जाएगा। यह जीवन की संध्या आ गई। संसार को देखने की यात्रा पूरी हुई। सुबह हुई, दोपहर हुई, अब सांझ होने लगी। सूरज लौटने लगा अपने घर वापस। अब ये पच्चीस साल इसके प्रभु-स्मरण के हैं।
और बड़े मजे की बात, ये पच्चीस साल, ये वानप्रस्थ के बाद संन्यास के आश्रम में गया हुआ व्यक्ति ही, जो बच्चे समाज से आएंगे, उनके लिए गुरु का काम कर देगा। और जिस समाज में बूढ़े गुरु न हों, उस समाज में गुरु होते ही नहीं। आज विद्यार्थी और गुरु के बीच दो-चार साल का भी फासला होता है। कभी-कभी नहीं भी होता, और कभी-कभी विद्यार्थी भी उम्र में ज्यादा हो जाता है। अब अगर विद्यार्थी उम्र में ज्यादा हो गुरु से, तो वे संबंध निर्मित नहीं हो सकते, जो पचहत्तर साल जीवन की सारी अनुभूतियों को लिए गए आदमी के साथ छोटे बच्चों के हो सकते थे।
जीवन का शिखर था वह आदमी। उसके रोएं-रोएं में जीवन अपनी छाप छोड़ गया। उसकी श्वास-श्वास में जीवन अपना अनुभव छोड़ गया। उसकी धड़कन-धड़कन में जीवन सारी संपत्ति छोड़ गया। उसके चेहरे की झुर्री-झुर्री में जीवन की प्रौढ़ता और जीवन का सब कुछ छिपा है। जब छोटे बच्चे जंगल आते और इस पचहत्तर साल, अस्सी साल, सौ साल के बूढ़े के पास बैठते, तो स्वाभाविक था कि उनके मन में आदर और पूज्य का भाव उठता। न इस आदमी में कोई वासना होती, निर्वासना हो जाता। यह पूज्य मालूम पड़ता, यह भगवान मालूम पड़ता।
तो अगर ये बच्चे कह सके कि गुरु ब्रह्मा, तो आज के गुरु को नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यह बिलकुल परमात्मा जैसा ही लगता, जिसमें वासना विलीन हो गई, जिसकी कोई इच्छा न रही, जिसको चीजों पर कोई मोह न रहा; घटनाएं कुछ भी घट जाएं, जो उनको एक-सा ही लेने लगा; जिसका चित्त अनासक्त हुआ; जो सब छोड़े तो, सब बचे तो, न बचे तो, सब बराबर हो गया, ऐसे जीवन के शिखर पर बैठे हुए वृद्ध के पास अगर बच्चे अनुभव करते कि वह परमात्मा है, तो आश्चर्य तो नहीं है।
लेकिन आज का गुरु सोचे कि उसे कोई परमात्मा माने, तो वह पागल है। उसे परमात्मा मानने का कारण ही नहीं रह गया है, सारी बुनियाद गिर गई है। और हम कहते ही उसे थे कि गुरु होने के योग्य ही वही हुआ, जो सारे जीवन को जानकर आ गया, अन्यथा गुरु नहीं हो सकता था। आज जो गुरु है, वह सिर्फ इनफार्मेटिव है; उसके पास कुछ सूचनाएं हैं, जो विद्यार्थी के पास नहीं हैं। लेकिन जहां तक जीवन का, एक्झिस्टेंस का, अस्तित्व का संबंध है, उसमें और विद्यार्थी में कोई बुनियादी फर्क नहीं है।
अक्सर ऐसा हो जाता है कि युनिवर्सिटी में लड़के भी उसी लड़की को प्रेम करने लगते हैं और शिक्षक भी। कांपिटीटिव हो जाता है। एक ही लड़की के लिए स्पर्धा हो सकती है कक्षा में। तब इस बच्चे के मन में इस गुरु के प्रति कौन-सा आदर हो सकता है? यह गुरु भी उसी पान की दुकान पर पान खाता है, यह लड़का भी उसी पान की दुकान पर पान खाता है। यह गुरु भी उसी फिल्म को देखता है, उसी की बगल में बैठकर उसका विद्यार्थी भी देखता है! और जब फिल्म में नंगा चित्र आता है, तो गुरु की भी रीढ़ सीधी हो जाती है और लड़के की भी रीढ़ सीधी हो जाती है। इन दोनों के बीच कोई जीवनगत भेद नहीं है।
लेकिन हमने सोचा यह था कि जब तक जीवनगत भेद न हो, तब तक गुरु-शिष्य का संबंध निर्मित नहीं हो सकता। गुरु-शिष्य का संबंध सिर्फ इनफार्मेटिव नहीं है, एक्झिस्टेंशियल है। और सिर्फ इस पृथ्वी के इस हिस्से पर ही हमने एक्झिस्टेंशियल, अस्तित्वगत भेद पैदा किया था, कि गुरु होना चाहिए जीवन का अस्त और विद्यार्थी होना चाहिए जीवन का उदय। इन दोनों के बीच पचास, साठ, सत्तर साल का फासला; साठ साल, सत्तर साल के अनुभव का फासला। और सिर्फ अनुभव ज्ञान नहीं देता, अनुभव वासनाओं से भी मुक्ति दिला देता है। और अनुभव, वे सब क्षुद्रताएं जो कल बड़ी महत्वपूर्ण थीं, उनका अंत बन जाता है। और अनुभव, कल तक के वे सब विकार--क्रोध, काम, लोभ--उन सबसे छुटकारा बन जाता है। और जब ऐसे व्यक्ति के पास बच्चे इकट्ठे होते, तो वे जीवन का दान लेकर वापस लौटते थे, चिर-ऋणी होकर वापस लौटते थे। यह चौथा आश्रम संन्यास का आश्रम था। शास्त्र-सम्मत ऐसी जीवन के क्रम की व्यवस्था थी।
कृष्ण कहते हैं अर्जुन से, जो इस भांति शास्त्र-सम्मत जीवन की कर्म-व्यवस्था में प्रवेश करता है, अनुकूल जीवन के बहता है, वह इंद्रियों के सुखों को तो उपलब्ध हो ही जाता है, अंततः आत्मा के आनंद को भी उपलब्ध हो जाता है। और इस जीवन के क्रम में प्रवाहित होकर अंत में जरूर वह ऐसी जगह पहुंच जाता है, जब करने और न-करने में कोई फर्क नहीं रहता अर्जुन।
क्यों, अर्जुन से कृष्ण यह क्यों कह रहे हैं? अर्जुन से वे यह कह रहे हैं कि अभी, अभी तू उस जगह नहीं है, जहां से तू संन्यस्त हो सके। अभी तू उस जगह नहीं है, जहां से संन्यास फलित हो सके। अभी तू उस जगह नहीं है जीवन के क्रम में, जहां से तू मुक्त हो सके कर्म से। अभी तुझे करने और न-करने में समानता नहीं हो सकती। अभी तू अगर न-करने को चुनेगा, तो भी चुनेगा, वह तेरी च्वाइस होगी। लेकिन एक ऐसी घड़ी भी आती है जीवन के प्रवाह में, जब करना और न-करना बराबर हो जाता है; चुनाव नहीं होता, च्वाइसलेस हो जाता है, चुनावरहित हो जाता है।
तो कृष्ण उससे यह कह रहे हैं...पहले उन्होंने जोर दिया कि तू क्षत्रिय है। वह इस मुल्क के द्वारा खोजे गए विज्ञान का एक हिस्सा था--वर्ण। और अब वे एक दूसरे विज्ञान के हिस्से पर जोर दे रहे हैं--आश्रम। वर्णाश्रम, मनुष्य के जीवन के संबंध में इस मुल्क का बड़ा से बड़ा कांट्रिब्यूशन है, बड़ा से बड़ा दान जो हम जगत को दे सके हैं, वह वर्ण और आश्रम की धारणा है।
अब वे दूसरी बात कह रहे हैं; अब वे यह कह रहे हैं कि अगर तू शास्त्र-सम्मत...। इसका यह मतलब नहीं है कि वेद में लिखा है, इसलिए। इसका कुल मतलब इतना कि उस दिन तक जितने भी समझदार लोग हुए थे, सब ने यही कहा, इसलिए। सब ने निरपवाद रूप से यही कहा, इसलिए। जो भी जाना गया है, वह इसकी सहमति देता है कि तू ऐसे जीवन के साथ बह और एक दिन वह घड़ी आएगी जिस दिन करना और न-करना बराबर हो जाएगा। लेकिन उसे आने दे, उसके लिए दौड़-धूप मत कर। भागकर उसे नहीं पाया जा सकता। जिंदगी से बचकर तू उसे नहीं ला सकता। जिंदगी में उतर गहरा और जिंदगी को ही तुझे पार निकालने दे, जिंदगी ही तुझे पार कर दे।
पानी का एक नियम--और फिर हम दूसरा सूत्र लें--अगर कभी आप पानी में गिर गए हों और तैरना न जानते हों, या तैरना जानते हों और कभी पानी में भंवर पड़ते हैं, उसमें आप फंस गए हों, तो कृष्ण के इस सूत्र को याद रखना। यह जीवन के भंवर का सूत्र नदी के भंवर में भी काम आता है। अगर नदी के भंवर में फंस गए हैं, तो हम साधारणतः क्या करेंगे? लड़ेंगे भंवर से। लड़ेंगे कि डूबेंगे, लड़े कि डूबे। क्योंकि जितने जोर से भंवर से आप लड़ेंगे, आपकी शक्ति कम होगी, भंवर की कम नहीं होगी। और जितनी आपकी कमजोर होगी शक्ति, भंवर की ताकत उतनी ही ज्यादा हो जाएगी--तुलनात्मक, रिलेटिवली। और थोड़ी देर में आप थक गए होंगे, भंवर अपनी ताकत में होगा। उतनी ही ताकत में, जितना तब था, जब लड़ाई शुरू हुई। फिर वह आप, कमजोर आदमी को नीचे डुबा लेगा।
इसलिए जो लोग तैरने का शास्त्र जानते हैं, वे कहते हैं कि अगर भंवर में फंस जाओ, तो लड़ना मत। अपनी तरफ से भंवर में डूब जाना। भंवर के साथ ही डूब जाना। भंवर के साथ खूबी यह है कि भंवर नदी की सतह पर बड़ा होता है और नीचे छोटा होता जाता है; उसके वर्तुल छोटे होते जाते हैं नीचे। उसका स्क्रू छोटा होता जाता है नीचे। ऊपर से निकलना बहुत मुश्किल है। नीचे वह इतना छोटा हो जाता है कि उसके भीतर रहना मुश्किल है, आप एकदम बाहर हो जाते हैं। और अगर लड़े, तो बहुत मुश्किल है। अगर नहीं लड़े, उसके साथ डूब गए, तो खुद भंवर ही आपको अपने बाहर कर देता है।
जीवन का भंवर भी अगर हम उससे लड़ें, तो उलझ जाते हैं। कृष्ण कहते हैं कि जीवन का, सृष्टि का जो क्रम है, उसके साथ ही बह, जल्दी मत कर। जल्दी हो नहीं सकती; जल्दी मत कर, धैर्य से उसके साथ बह। अपने आप वह घड़ी आ जाती है--जीवन के समस्त कर्मों को करते हुए, अपने को कर्ता भर मत मान और वह घड़ी आ जाती है--जिस दिन करना और न-करना, हार और जीत, जीवन और मृत्यु, सुख और दुख सब बराबर हो जाते हैं।


तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचार।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः।। १९।।
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि।। २०।।
इससे तू अनासक्त हुआ निरंतर कर्तव्य-कर्म का अच्छी प्रकार आचरण कर, क्योंकि अनासक्त पुरुष कर्म करता हुआ परमात्मा को प्राप्त होता है।
जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्तिरहित कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं, इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखता हुआ भी तू कर्म करने को ही योग्य है।


अनासक्तिपूर्वक--कृष्ण कह रहे हैं कि इस भांति तू कर्म से मत भाग; भागने की मत सोच। न तो वह संभव है, न उपादेय। संभव भी यही है, उपादेय भी यही कि तू अनासक्त कर्म में प्रवृत्त हो।
इस अनासक्त शब्द को थोड़ा समझें। साधारणतः हमारे जीवन में अनासक्त होने का कोई अनुभव नहीं होता। इसलिए यह शब्द बहुत विजातीय, फारेन है। यह हमारे अनुभव में कहीं होता नहीं। इसलिए इसे और भी ठीक से समझना पड़ेगा।
हमारे अनुभव में दो शब्द आते हैं, आसक्त और विरक्त; अनासक्त कभी नहीं आता। या तो हम किसी चीज की तरफ आकर्षित होते हैं और या किसी चीज से विकर्षित होते हैं, या तो अट्रैक्ट होते हैं या रिपेल्ड होते हैं। सुंदर हुआ कुछ, तो आकर्षित होते हैं; कुरूप हुआ कुछ, तो विकर्षित होते हैं। सुंदर हुआ, तो आसक्ति बनती है मन में पाने की। सुंदर नहीं हुआ, तो विरक्ति बनती है मन में छोड़ने की। या तो हम दौड़ते हैं किसी चीज को पाने के लिए और या हम दौड़ते हैं किसी चीज से बचने के लिए। ये दो हमारे अनुभव हैं। या तो हम किसी चीज की तरफ जाते हैं या किसी चीज की तरफ से जाते हैं। बाकी अनासक्ति बड़ी और बात है, इन दोनों से अलग।
अनासक्ति इन दोनों का मध्यबिंदु है, दि मिडिल प्वाइंट। ठीक इन दोनों के बीच में, जहां न तो अट्रैक्शन काम करता और न रिपल्सन काम करता है। बहुत अदभुत बिंदु है अनासक्ति का, जहां से न तो हम किसी चीज के लिए आतुर होकर पागल होते हैं और न आतुर होकर बचने के लिए पागल होते हैं। नहीं, जहां हम किसी चीज के प्रति कोई रुख ही नहीं लेते; जहां किसी चीज के प्रति हमारी कोई दृष्टि ही नहीं रहती; हम बस साक्षी ही होते हैं। अनासक्त का अर्थ है, विरक्त भी नहीं, आसक्त भी नहीं।
विरक्त होना बहुत आसान है, आसक्ति का ही दूसरा हिस्सा है, इसलिए। और जिस चीज में भी हमारी आसक्ति होती है, उसमें ही आज नहीं कल हमारी विरक्ति अपने आप हो जाती है। आज एक मकान में बहुत आसक्ति है, कल वह मिल जाएगा, परसों उसमें रहेंगे, दस दिन बाद भूल जाएगा, आसक्ति खो जाएगी। फिर धीरे-धीरे विरक्ति आ जाएगी। जिस दिन आपको कोई दूसरा मकान दिख जाएगा आसक्ति को पकड़ने के लिए, उसी दिन इस मकान से विरक्ति हो जाएगी। जिस चीज से भी हम आकर्षित होते हैं, किसी न किसी दिन उससे विकर्षित होते हैं। जो चीज भी हमें खींचती है, किसी दिन हम उससे हटते हैं। आकर्षण और विकर्षण, अट्रैक्शन और रिपल्सन एक ही प्रक्रिया के दो हिस्से हैं। अनासक्ति इस पूरी प्रक्रिया के पार है, ट्रांसेंडेंट है। इन दोनों प्रक्रियाओं के ऊपर, अलग, अतीत है।
अनासक्त का मतलब कि न हमें अब खींचती है चीज, न हमें हटाती है; न हमें बुलाती है, न हमें भगाती है। हम खड़े रह गए। बुद्ध ने इस अनासक्ति के लिए उपेक्षा शब्द का प्रयोग किया है। अर्थ यही है, न इस तरफ, न उस तरफ; दोनों तरफ से उपेक्षा है। न आसक्ति, न विरक्ति, दोनों तरफ से इंडिफरेंस है। न तो धन खींचता, न धन भगाता। कृष्ण ने अनासक्ति का प्रयोग किया है, महावीर ने वीतराग शब्द का प्रयोग किया है। राग, विराग, वीतराग। महावीर ने वीतराग शब्द का प्रयोग किया है, जहां न राग हो, न विराग हो, वीतराग हो। दोनों के पार हो जाए। बुद्ध कहते हैं, जहां न आकर्षण, न जहां विकर्षण; उपेक्षा हो, इंडिफरेंस हो; दोनों बराबर हो जाएं। कृष्ण कहते हैं, अनासक्ति, जहां न आसक्ति हो, न विरक्ति हो; दोनों ही न रह जाएं।
लेकिन आसक्त भी कर्म करता और विरक्त भी कर्म करता। अनासक्त क्या करेगा? आसक्त भी कर्म करता, विरक्त भी कर्म करता; यद्यपि जो कर्म आसक्त करता, विरक्त उससे उलटे कर्म करता। अगर आसक्त धन कमाने का काम करता, तो विरक्त धन छोड़ने का, त्यागने का काम करता। अगर आसक्त पदों का लोलुप होता और पदों की सीढ़ियां चढ़ने के लिए दीवाना होता, तो विरक्त पदों से भागने के लिए आतुर और उत्सुक होता, सीढ़ियां उतरने को। आसक्त और विरक्त दोनों कर्म में रत होते, लेकिन दोनों के रत होने का ढंग विपरीत होता, एक-दूसरे की तरफ पीठ किए होते। अनासक्त क्या करेगा?
अनासक्त न तो आसक्त की तरह कर्म करता और न विरक्त की तरह। अनासक्त के कर्म करने की क्वालिटी बदल जाती है। इसे समझ लें।
विरक्त का काम करने का रुख, दिशा बदल जाती है, उलटी हो जाती है। भीतरी चित्त जरा भी नहीं बदलता, कर्म की दिशा प्रतिकूल हो जाती है। अगर आसक्त सीधा खड़ा है, तो विरक्त शीर्षासन लगाकर खड़ा हो जाता है। और कोई फर्क नहीं होता, भीतर आदमी वही का वही होता है। क्वालिटी जरा भी नहीं बदलती, गुण जरा भी नहीं बदलता, भीतर आदमी वही का वही होता है।
एक आदमी है, उसके सामने रुपया ले जाओ, तो उसके मुंह में पानी आने लगता है। एक दूसरा आदमी है, उसके पास रुपया ले जाओ, तो वह आंख बंद कर लेता है और राम-राम जपने लगता है। ये दोनों एक-से आदमी हैं। रुपया दोनों के लिए सिग्नीफिकेंट है, महत्वपूर्ण है। हां, एक के लिए महत्वपूर्ण है, लार टपकती है। एक के लिए महत्वपूर्ण है, घबड़ाकर आंख बंद हो जाती है। लेकिन दोनों शीर्षासन एक-दूसरे के प्रति कर रहे हैं। लेकिन रुपए के मामले में दोनों का गुणधर्म एक है। दोनों रुपए में बहुत उत्सुक हैं--एक पक्ष में, एक विपक्ष में; एक मित्र की तरह, एक शत्रु की तरह--लेकिन रुपये के प्रति उपेक्षा नहीं है।
एक है, जो स्त्री के पीछे भागता; एक है कि स्त्री दिखी कि भागा। इन दोनों में बुनियादी गुणात्मक फर्क नहीं है। इनके कृत्य में फर्क है दिशा का। इनके चित्त में फर्क नहीं है। इनके चित्त का बिंदु, इनके चित्त का आब्जेक्ट, इनके चित्त का विषय एक ही है, वही कामवासना है। एक पक्ष में, एक विपक्ष में।
अनासक्त का गुणधर्म बदलता है। अनासक्त दोनों काम कर सकता है। जो विरक्त करता है, वह भी कर सकता है; जो आसक्त करता है, वह भी कर सकता है। लेकिन करने वाला चित्त बिलकुल और ढंग का होता है। उस चित्त का क्या फर्क है, वह खयाल में ले लें।
न तो आसक्त साक्षी हो सकता है, विटनेस हो सकता है, न विरक्त साक्षी हो सकता है, क्योंकि दोनों का राग है। राग शब्द आपने कभी खयाल किया कि इसका क्या मतलब होता है? इसका मतलब होता है, रंग, कलर। राग का मतलब होता है, रंग। दोनों के चित्त रंगे हुए हैं उसी से, जिस पर उनकी नजर है। आसक्त का चित्त रंगा हुआ है रुपए से मित्र की तरह। विरक्त का चित्त रंगा हुआ है रुपए से शत्रु की तरह। अनासक्त का चित्त रंगा हुआ नहीं है। रुपया उस पर कोई प्रतिबिंब ही नहीं बनाता; रुपया उसको रंगता ही नहीं। रुपया वहां और अनासक्त यहां। उन दोनों के बीच डिस्टेंस होता है। अर्थात अनासक्त साक्षी होता है। वह देखता है कि यह स्त्री है, यह रुपया है; बात खतम हो गई। मैं मैं हूं; यह रुपया है; यह मकान है; यह स्त्री है; यह पुरुष है।
बुद्ध एक जंगल में बैठे हैं। रात है पूर्णिमा की। गांव से कुछ मनचले युवक एक वेश्या को लेकर चले आए हैं। पूर्णिमा की रात, झील का तट। उन्होंने आकर खूब शराब पी ली। उस वेश्या को नग्न कर दिया, उसके वस्त्र छिपा दिए। जब वे शराब में काफी बेहोश हो गए, तो वह वेश्या निकल भागी। लेकिन नग्न, कपड़े तो उसे मिले नहीं। जब आधी रात बीते उन्हें थोड़ा होश आया, तब उन्हें खयाल हुआ कि हम जिसको मानकर कि है, राग-रंग कर रहे हैं, वह नदारद है। वे उस वेश्या को मानकर बातें किए जा रहे थे, गीत गाए जा रहे थे, नाचे चले जा रहे थे! आधी रात गए उन्हें पता चला कि हम बड़ी भूल में पड़े हैं, वह स्त्री तो नदारद है। वह यहां है नहीं। बड़ी मुश्किल में पड़े, अब उसे कहां खोजें! निकले।
थोड़ी ही दूर एक वृक्ष के नीचे बुद्ध बैठे हैं। रात है, पूर्णिमा का चांद है। वह देख रहे हैं चांद को। यहां तक रास्ता एक ही है, इसलिए स्त्री यहां से तो निकली ही है। तो उन्होंने जाकर हिलाया और कहा कि सुनो, एक नग्न स्त्री, सुंदर वेश्या यहां से भागती हुई गई है, जरूर तुमने देखी होगी। बुद्ध ने कहा, तुम मुझे बड़ी मुश्किल में डालते हो, क्योंकि आदमी को वही दिखाई पड़ता है, जो वह देखना चाहता है। उन्होंने कहा, अंधे तो हो नहीं। आंख तो है ही। यहां से एक सुंदर स्त्री निकली है, हजारों की भीड़ में भी दिखाई पड़ जाए, ऐसी स्त्री है। यहां तो जंगल का सन्नाटा है।
उन्होंने कहा, कोई निकला जरूर। कोई निकला जरूर, क्योंकि मैं देखता था चांद को, तो कोई छाया बीच से गुजरी। लेकिन स्त्री थी या पुरुष था, कहना मुश्किल है। क्योंकि जब तक मेरा पुरुष बहुत आतुर था स्त्रियों के लिए, तभी तक फर्क भी कर पाता था। अब फर्क करने का कोई कारण भी तो नहीं रहा है। और सुंदर थी या असुंदर, यह तो और भी कठिन सवाल है। क्योंकि जब से अपने को जाना, तब से न कुछ सुंदर रहा, न कुछ असुंदर रहा। चीजें जैसी हैं, हैं। कुछ को लोग सुंदर कहते, कुछ को लोग असुंदर कहते। वह उनकी अपनी पसंदगियों के ढंग हैं। क्योंकि एक ही चीज को कोई सुंदर कहता है और कोई असुंदर कहता है। जब से अपनी कोई पसंदगी ही न रही, कोई नापसंदगी न रही, तो न कुछ सुंदर रहा, न कुछ असुंदर रहा।
उन्होंने कहा, हम भी कहां के पागल से उलझ गए हैं। हम खोजें। इस आदमी से कुछ सहारा न मिलेगा। बुद्ध खूब हंसने लगे और उन्होंने कहा, कब तक उसे खोजते रहोगे? अच्छा हो कि इतनी अच्छी रात है, अपने को ही खोजो। और वह मिल भी जाएगी, तो क्या मिलेगा? अपने को खोज लो, तो शायद कुछ मिल भी जाए।
पता नहीं, उन्होंने सुना या नहीं सुना! नहीं सुना होगा। आदमी बहुत बहरा है। दिखाई पड़ता है, सुनता हुआ, सुनता नहीं है। दिखाई पड़ता है, देखता हुआ, देखता नहीं है। दिखाई पड़ता है, समझता हुआ, समझता नहीं है। यह जो बुद्ध ने कहा, यह अनासक्त की चित्तदशा का गुण है। देखते हुए भी भेद नहीं करता, क्या सुंदर है, क्या असुंदर है। करते हुआ भी भेद नहीं करता, जीते हुए भी भेद नहीं करता, क्या पकडूं, क्या छोडूं! क्या लाभ है, क्या हानि है! साक्षी की तरह, एक विटनेस की तरह, एक गवाह की तरह जिंदगी में चलता है।
राम अमेरिका गए। एक जगह से निकल रहे थे, कुछ लोगों ने पत्थर फेंके और गालियां दीं। लौटकर--बहुत हंसते हुए वापस लौटे--मित्रों से कहने लगे, आज तो बड़ा मजा आ गया। राम को आज बड़ी गालियां पड़ीं! कुछ लोगों ने पत्थर भी मारे। पिटोगे, गालियां खाओगे। लोग कहने लगे, किस की बात कर रहे हैं आप! तो उन्होंने कहा, इस राम की बात कर रहा हूं। इस राम की, अपनी छाती की तरफ हाथ करके कहा, इस राम की बात कर रहा हूं। आज इन पर काफी गालियां पड़ीं, आज इन पर काफी पत्थर पड़े। लोगों ने कहा, आप पर ही पड़े न? राम ने कहा, नहीं, हम तो देखते थे। हम पर पड़े नहीं, हम देखते थे। हम साक्षी थे, हम सिर्फ गवाह थे। हमने देखा कि पड़ रहे हैं। हमने देखा कि गालियां दी जा रही हैं। तीन थे वहां--गाली देने वाले थे; जिसको गाली दी जा रही थीं, वह था; और एक और भी था, मैं भी था वहां, जो देख रहा था।
अनासक्त का यह गुणधर्म है। अनासक्त देखता है जिंदगी को; न इस तरफ भागता, न उस तरफ भागता। और परमात्मा जो ले आता है जिंदगी में, उसमें से चुपचाप साक्षी की भांति गुजर जाता है। इसलिए कृष्ण ने उल्लेख किया जनक का। और कृष्ण जब उल्लेख करें, तो सोचने जैसा है। कृष्ण ने उल्लेख किया जनक का कि जनक जैसे ज्ञानी। और अर्जुन तू तो इतना ज्ञानी नहीं है। उनका मतलब साफ है। वे यह कह रहे हैं कि तू तो इतना ज्ञानी नहीं है कि तू वैराग्य की बात करे। जनक जैसा ज्ञानी भी छोड़ने को, भागने को आतुर न हुआ! जनक जैसा ज्ञानी चुपचाप वहीं जीए चला गया, जहां था।
तो क्या था सूत्र जनक का? सूत्र था, अनासक्तियोग। सूत्र था, जहां हमें दो दिखाई पड़ते हैं, वहां तीसरा भी दिखाई पड़ने लगे, दि थर्ड फोर्स। दो तो हमें सदा दिखाई पड़ते हैं, तीसरा दिखाई नहीं पड़ता है। विरक्त को भी दो दिखाई पड़ते हैं। आसक्त को भी दो दिखाई पड़ते हैं--मैं, और वह, जिस पर मैं आसक्त हूं। विरक्त को भी दो दिखाई पड़ते हैं--मैं, और वह, जिससे मैं विरक्त हूं। अनासक्त को तीन दिखाई पड़ते हैं--वह जो आकर्षण का केंद्र है या विकर्षण का, और वह जो आकर्षित हो रहा या विकर्षित हो रहा, और एक और भी, जो दोनों को देख रहा है।
यह जो दोनों को देख रहा है--अर्जुन से कृष्ण कहते हैं--तू इसी में प्रतिष्ठित हो जा। इसमें तेरा हित तो है ही, तेरा मंगल तो है ही, इसमें लोकमंगल भी है। क्यों, इसमें क्या लोकमंगल है? यह तो मेरी समझ में पड़ता है, आपकी भी समझ में पड़ता है कि अर्जुन का मंगल है। अनासक्त कोई हो जाए, तो जीवन के परम आनंद के द्वार खुल जाते हैं। आसक्त भी दुखी होता है, विरक्त भी दुखी होता है। आसक्त भी सुखी होता है, विरक्त भी सुखी होता है। बुद्ध ने कहा है, जिसे हम प्रेम करते हैं, वह आ जाए, तो सुख देता है; जिसे हम घृणा करते हैं, वह चला जाए, तो सुख देता है। जिसे हम घृणा करते हैं, वह आ जाए, तो दुख देता है; जिसे हम प्रेम करते हैं, वह चला जाए, तो दुख देता है। फर्क क्या है? बुद्ध ने पूछा है। दोनों ही दोनों काम करते हैं। हां, किसी के आने से सुख होता है, किसी के जाने से। किसी के जाने से सुख होता है, किसी के आने से--बस इतना ही फर्क है।
मित्र भी सुख देते हैं, मित्र भी दुख देते हैं। शत्रु भी सुख देते हैं, शत्रु भी दुख देते हैं। असल में जो भी सुख देता है, वह दुख भी देगा। और जो भी दुख देता है, वह सुख भी देगा। क्योंकि सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो ऊपर होता है, वह हमें दिखाई पड़ता है; जो नीचे होता है, वह छिप जाता है। थोड़ी देर बाद, जब एक पहलू से ऊब जाते हैं और उलटते हैं, तब दूसरा पहलू दिखाई पड़ता है।
लेकिन कृष्ण कह रहे हैं, तेरा तो मंगल होगा ही, लोकमंगल भी होगा। लोकमंगल क्या होगा? सबका मंगल क्या होगा?
असल में जो आसक्त हैं, वे भी; और जो विरक्त हैं, वे भी, जगत को आनंद के मार्ग पर ले जाने वाले नहीं बनते। नहीं बनते हैं दो कारणों से। एक तो जो स्वयं ही आनंद के मार्ग पर नहीं है, उसके जीवन से किसी को भी आनंद नहीं मिल सकता। क्योंकि हम वही दे सकते हैं, जो हमारे पास है। हम वह नहीं दे सकते, जो हमारे पास नहीं है। दूसरा, जो व्यक्ति जितना आसक्त या विरक्त होकर कर्म में लगता है, उतना ही तनाव, उतना ही टेंस उसका व्यक्तित्व होता है।
और ध्यान रहे, हम करीब-करीब ऐसे ही हैं, जैसे कोई पानी में एक पत्थर फेंके। झील है, एक पत्थर फेंक दिया। तो पत्थर तो झील में थोड़ी देर में नीचे बैठ जाता है तलहटी में, भूमि में बैठ जाता है। लेकिन पत्थर से उठी लहरें फैलती चली जाती हैं; दूर अनंत किनारों तक फैलती चली जाती हैं। ठीक वैसे ही, जब भी हमारे चित्त में जरा-सा तनाव उठता है, तो हम मनुष्य के जीवन के सरोवर में तरंगें पैदा करते हैं। फिर चाहे हमारा तनाव चला भी जाए, वे तरंगें फैलती चली जाती हैं। वे न मालूम कितने लोगों को स्पर्श करती हैं और न मालूम कितने लोगों के जीवन में अमंगल बन जाती हैं।
सिर्फ अनासक्त व्यक्ति के भीतर से तनाव की, चिंता की, दुख की, पीड़ा की विकृत तरंगें नहीं उठती हैं। सिर्फ अनासक्त व्यक्ति से जो तरंगें उठती हैं, वे सदा मंगलकारी हैं। इसलिए लोकमंगल है। लोकमंगल यहां बहुत ही गहरे अर्थों में कहा है।
हम चौबीस घंटे अपने चारों तरफ रेडिएट कर रहे हैं। जो भी हमारे भीतर है, वह रेडिएट हो रहा है, वह विकीर्णित हो रहा है, उसकी किरणें हमारे चारों तरफ फैल रही हैं। हर आदमी अपने चारों ओर प्रतिपल उसी तरह लहरें उठा रहा है, जैसे पत्थर फेंका गया झील में उठाता है। हम कल समाप्त हो जाएंगे। लेकिन हमारे द्वारा उठाई गई लहरें अनंत हैं; वे कभी समाप्त न होंगी; वे चलती ही रहेंगी; वे कभी दूर तारों के निवासियों को भी छुएंगी। अब वैज्ञानिक कहते हैं, कोई पचास हजार तारों पर जीवन है। अभी तक उन्होंने कोई चार अरब तारे खोज निकाले हैं। जीवन वहां समाप्त नहीं होता मालूम पड़ता, हमारी सामर्थ्य चुक जाती है--उसके आगे, उसके आगे, उसके आगे।
एक-एक व्यक्ति से जो तरंग उठती है, वह उठती ही चली जाती है। व्यक्ति कभी का समाप्त हो जाएगा, उसके द्वारा उठाई गई तरंगें अनंतकाल तक उठती रहती हैं--अनादि, अनंत।
कृष्ण कह रहे हैं कि जो अनासक्त चित्त है, उसके भीतर जो गुण परिवर्तन होता है, उससे जो तरंगें उठती हैं, वे बिलकुल बिना जाने, परोक्ष, चुपचाप लोगों के जीवन में मंगल की वर्षा कर जाती हैं। तो तू लोकमंगल के लिए भी अनासक्त हो जा। अपने लिए तो अनासक्त होना उचित ही है, आनंदपूर्ण ही है, औरों के लिए भी आनंदपूर्ण है। इसलिए जैसे जनक और सब जानने वालों ने जीवन से भागने की कोई चेष्टा न की, तू भी मत भाग। भागने से कभी कोई कहीं पहुंचा भी नहीं है। भागने से कभी कोई रूपांतरित भी नहीं हुआ है। भागने से कभी कोई क्रांति भी घटित नहीं होती। क्योंकि भागते केवल वे ही हैं, जो नहीं जानते हैं। जो जानते हैं, वे भागते नहीं हैं, रूपांतरित करते हैं, स्वयं को बदल डालते हैं। विरक्ति भागना है आसक्ति से।
और एक बात और इस संबंध में, फिर हम दूसरा सूत्र लें।
जो आदमी आसक्ति में जीएगा, उसके मन में सदा ही विरक्ति के खयाल आते रहेंगे, आते ही रहेंगे। क्योंकि जिंदगी पोलर है, ध्रुवीय है। यहां हर चीज का दूसरा ध्रुव है। यहां बिजली का अगर पाजिटिव पोल है, तो निगेटिव पोल भी है। यहां अगर अंधेरा है, तो उजाला भी है। यहां अगर सर्दी है, तो गर्मी भी है। यहां अगर जन्म है, तो मृत्यु भी है। यहां जीवन में हर चीज का दूसरा विरोधी हिस्सा है। तो जो व्यक्ति आसक्ति में जीएगा, उसको जिंदगी में हजारों बार विरक्ति के दौरे पड़ते रहेंगे, उसको विरक्ति का फिट आता रहेगा। आप सबको आता है। कभी ऐसा लगता है, सब बेकार है, सब छोड़ दो। घड़ीभर बाद दौरा चला जाता है, सब सार्थक, फिर सबमें लग जाता है।
जो लोग विरक्त हो जाते हैं, उनको आसक्ति के दौरे पड़ते रहते हैं, उनको भी पड़ते रहते हैं, उनको भी फिट आते हैं। जो आश्रम में बैठ जाते हैं, उनको भी एकदम से खयाल आ जाता है, सारी दुनिया सिनेमागृह में बैठी होगी और हम यहां बैठे हैं! जो मंदिर में बैठते हैं, उनको भी खयाल आ जाता है कि पड़ोसी दुकान पर पहुंच गया होगा, हम यहां क्या कर रहे हैं?
जो आसक्त है, उसकी जिंदगी में विरक्ति बीच-बीच में प्रवेश करती रहेगी। जो विरक्त है, उसकी जिंदगी में आसक्ति बीच-बीच में प्रवेश करती रहेगी। असल में जिस हिस्से को हमने दबाया और छोड़ा है, वह असर्ट करता रहेगा, वह हमला करता रहेगा। वह कहेगा, मैं भी हूं, मुझे भी थोड़ा ध्यान दो। लेकिन सिर्फ अनासक्त व्यक्ति ऐसा है, जिसकी जिंदगी में दौरे नहीं पड़ते। क्योंकि न वहां विरक्ति है, न वहां आसक्ति है, इसलिए दौरे पड़ने का कोई उपाय नहीं है। दौरा विपरीत का पड़ता है। वहां अब कोई विपरीत ही नहीं है; नान-पोलर है।
अब इसको समझ लेना आप। अनासक्ति जो है, नान-पोलर है, अध्रुवीय है। इसलिए अनासक्त जो हुआ, वह ध्रुवीय जगत के बाहर हो जाता है--जहां ऋण और धन चलता है, जहां स्त्री और पुरुष चलते हैं, जहां हानि और लाभ चलता है। वे जितने द्वंद्व हैं, सब ध्रुवीय हैं, पोलर हैं। जो व्यक्ति अनासक्त हुआ, वह अद्वैत में प्रवेश कर जाता है; क्योंकि अनासक्ति नान-पोलर है।
ब्रह्म में केवल वे ही प्रवेश करते हैं, जो अनासक्त हैं। जो आसक्त हैं या विरक्त हैं, वे द्वैत में ही भटकते रहते हैं। असल में जिसने भी पक्ष लिया, विपक्ष लिया, वह पोलर में गया, वह ध्रुवीय जगत में प्रवेश कर गया; वह ब्रह्म को कभी स्पर्श नहीं कर पाता। ब्रह्म को वही स्पर्श करता है, जो दो की जगह एक में उठता है।
आसक्ति और विरक्ति दोनों से उठना पड़े। और इन दोनों से उठने की जो स्थिति है, वह कर्म में साक्षी बन जाना है।


प्रश्न: भगवान श्री, अनासक्त कर्म साधना है या सिद्धि का सहज प्रतिफलन है? इसे स्पष्ट करें।


मनुष्य के पास जितने शब्द हैं, वे सभी शब्द कुछ बताते हैं, कुछ समझाते हैं, और कुछ नासमझी भी पैदा कर देते हैं, और कुछ उलझा भी देते हैं। अब जैसे एक रास्ता है, मंजिल तक पहुंचता है। जो आदमी रास्ते पर है, वह एक अर्थ में मंजिल से जुड़ गया, क्योंकि रास्ता मंजिल से जुड़ा है। जो आदमी रास्ते पर एक कदम चला, वह मंजिल पर भी एक कदम पहुंच गया, क्योंकि रास्ता मंजिल से जुड़ा है। लेकिन एक अर्थ में अभी मंजिल पर कहां पहुंचा? अभी तो सिर्फ रास्ते पर है, अभी तो बहुत चलना है। अगर सौ कदम मंजिल दूर है, तो निन्यानबे कदम भी चल ले, तो भी रास्ते पर ही है। अभी मंजिल पर कहां पहुंचा? अभी तो रास्ते पर ही है। अभी मंजिल कहां आई? तो एक अर्थ में तो निन्यानबे कदम पर खड़ा हुआ आदमी भी रास्ते पर है, मंजिल पर नहीं है। और एक अर्थ में पहले कदम पर खड़ा हुआ आदमी भी मंजिल पर है, क्योंकि एक कदम तो मंजिल पा ही ली। एक कदम तो कम हुआ।
तो साधना और सिद्धि, रास्ते और मंजिल की तरह हैं, अनासक्ति दोनों है। जब आप शुरू करेंगे, तब वह साधना है; और जब पूर्ण होगी, तब वह सिद्धि है। जब आप शुरू करेंगे, पहला कदम रखेंगे, तब तो साधना ही है, तब तो साधना ही रहेगी वह। चूकेंगे, भूलेंगे, भटकेंगे, गिरेंगे। कभी चित्त विरक्त हो जाएगा, कभी आसक्त हो जाएगा। फिर संभलेंगे, फिर पहचानेंगे कि यह तो विरक्ति हो गई, यह तो आसक्ति हो गई।
और ध्यान रहे, आसक्ति उतना धोखा न देगी अनासक्ति का, जितना विरक्ति देती है। क्योंकि विरक्ति में ऐसा लगता है, यह तो अनासक्ति हो गई। विरक्ति जल्दी धोखा देती है। आसक्ति तो इतना धोखा नहीं देती; क्योंकि आसक्ति हमारा अनुभव है। विरक्ति अपरिचित है। तो अनेक लोग वैराग्य को ही अनासक्त-भाव समझ लेते हैं। धोखे पड़ेंगे, भूल होगी, कई दफा लगेगा कि पहुंचे-पहुंचे और एकदम फिसल जाएंगे और पाएंगे कि वहीं खड़े हैं; पोलेरिटी में वापस आ गए, ध्रुव में वापस गिर गए।
अनासक्ति का पहला कदम तो साधना ही बनेगा। साधना का मतलब, अभी आश्वस्त नहीं हुए कि पहुंच गए; चल रहे हैं। लेकिन चलना ही तो पहुंचने के लिए पहला चरण है। जो चलेगा नहीं, वह तो पहुंचेगा ही नहीं। चलना तो पड़ेगा ही। लेकिन चलना ही पहुंच जाना नहीं है। यह भी खयाल रख लेना जरूरी है। जिस दिन चलने का अंत होगा, उस दिन पहुंचना होगा। अब इसमें बड़ी उलटी बातें कह रहा हूं मैं। जो चलेगा, वही पहुंच सकता है। जो चलता ही रहेगा, वह कभी नहीं पहुंचेगा। जो नहीं चलेगा, वह कभी नहीं पहुंचेगा और जो नहीं-चलने में पहुंच जाता है, वही पहुंच गया है। लेकिन यह बिलकुल अलग-अलग तल पर बात है, लेवल्स अलग हैं।
नीचे खड़ा है एक आदमी सीढ़ियों के, वह भी खड़ा है। सीढ़ियां पार करके जो आदमी छत पर खड़ा हो गया है, वह भी खड़ा है। दोनों सीढ़ियों पर नहीं हैं। लेकिन एक सीढ़ियों के नीचे है, एक सीढ़ियों के ऊपर है। जो सीढ़ियों के बीच में है, वह दोनों जगह नहीं है। वह खड़ा नहीं है, वह चल रहा है। न तो वह नीचे की भूमि पर है, न अभी ऊपर पहुंच गया है। अभी वह गिर सकता है वापस; अभी वह सीढ़ियों पर ही रुक सकता है; अभी वह पहुंच भी सकता है। सब संभावनाएं खुली हैं।
अनासक्ति का प्राथमिक कदम तो साधना का होगा, अंतिम कदम सिद्धि का होगा। लेकिन पहचान क्या होगी? जब तक आपको स्मरण रखना पड़े अनासक्ति का, तब तक साधना है; और जब स्मरण की कोई जरूरत न रह जाए, तब सिद्धि है। जब तक आपको खयाल रखना पड़े कि अनासक्त रहना है, तब तक साधना है। जब आपको खयाल न रखना पड़े, आप कैसे भी रहें, अनासक्ति ही पाएं, तब समझना सिद्धि है।
एक जापानी गुड्डा देखा होगा आपने; बाजार में मिलता है; उसे खरीदकर रख लेना चाहिए। दारुमा डाल्स कहलाते हैं वे गुड्डे। नीचे चौड़े होते हैं और उनके पैरों में सीसा भरा होता है। कैसे ही फेंको उसको, वह सदा पालथी मारकर बैठ जाता है सिद्धासन में। कहीं भी पटको, कुछ भी करो; वह वापस अपनी जगह बैठ जाता है। यह सिद्ध है। यह दारुमा डाल जो है न, यह सिद्ध है। इसको तुम कुछ भी करो, यह अपनी पालथी मारकर अपनी जगह बैठ जाता है।
यह दारुमा शब्द बड़ा अदभुत है। हिंदुस्तान से एक फकीर चौदह सौ साल पहले चीन गया, उसका नाम था बोधिधर्म। वह एक अनासक्त व्यक्ति था; थोड़े से फूलों में से एक, जो मनुष्य जाति में खिले। बोधिधर्म का जापानी नाम दारुमा है। बोधिधर्म को देखकर वह गुड़िया बनाई गई। क्योंकि बोधिधर्म को कुछ भी करो--सोता है, तो अनासक्त; जागता है, तो अनासक्त; कुछ भी करे, अनासक्त--उसको कहीं से पटको, कुछ भी करो, वह वापस अपनी अनासक्ति में ही रहता है। इसलिए फिर यह गुड़िया बनाई गई। यह दारुमा डाल जो है, यह एक बहुत बड़े सिद्धपुरुष के रूप में बनाई गई।
वह गुड़िया अपने घर में रखनी चाहिए। उसे लुढ़काकर देखते रहना चाहिए। वह वापस अपनी पोजीशन में आ जाती है। आप कुछ भी उपाय करें, उसकी पोजीशन नहीं मिटा सकते। जब आपको अपने भीतर ऐसा लगे, कुछ भी हो जाए--दुख आए, सुख आए, सफलता, असफलता, कोई जीए, कोई मरे, तूफान टूट जाए, बैंक्रप्ट हो जाएं, दिवालिया हो जाएं, मौत आ जाए--कुछ भी हो जाए, आपके भीतर का दारुमा डाल जो है, आपकी चेतना जो है, वह हमेशा सिद्धासन लगाकर बैठी रहती है, उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता है, तब आप जानना कि सिद्धि हो गई है। जब तक ऐसा न हो जाए, जब तक स्मरण रखना पड़े, जब तक होश रखना पड़े, और अगर होश चूके, तो या तो आसक्ति आ जाए या विरक्ति आ जाए, तब तक जानना कि साधना है।


यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।। २१।।
श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी उस-उस के ही अनुसार बर्तते हैं। वह पुरुष जो कुछ प्रमाण कर देता है, लोग भी उसके अनुसार बर्तते हैं।


अंतिम श्लोक की बात और कर लें; बहुत कीमती बात इसमें कृष्ण ने कही है। मनुष्य के चित्त का एक बहुत बुनियादी लक्षण इमिटेशन है, नकल है। सौ में से निन्यानबे आदमी आथेंटिक नहीं होते, प्रामाणिक नहीं होते, इमिटेटिव होते हैं, सिर्फ नकल कर रहे होते हैं। सौ में से निन्यानबे लोग वही नहीं होते, जो उन्हें होना चाहिए; वही होते हैं, जो वे अपने चारों तरफ लोगों को देखते हैं कि लोग हैं। छोटे बच्चे नकल करते हैं, अनुकरण करते हैं; सब कुछ नकल से ही छोटे बच्चे सीखते हैं। लेकिन हममें से बहुत कम लोग हैं, जो छोटे बच्चों की सीमा पार कर पाते हैं। हममें से अधिक लोग जीवनभर ही छोटे बच्चे रह जाते हैं। हम सिर्फ नकल ही करते हैं। हम देख लेते हैं, वही करने लगते हैं।
अगर आज से हम हजार साल पहले भारत के गांव में जाते, तो बच्चे ओंकार की ध्वनि करते मिलते। ऐसा नहीं कि बच्चे कोई बहुत पवित्र थे। अभी उसी गांव में जाएं, बच्चे फिल्मी गाना गाते मिलते हैं। ऐसा नहीं कि बच्चे अपवित्र हो गए हैं। नहीं, बच्चे तो वही करते हैं, जो चारों तरफ हो रहा है। जो बच्चे ओंकार की ध्वनि कर रहे थे, वे कोई बहुत पवित्र थे, ऐसा नहीं है। लेकिन ओंकार की ध्वनि से पवित्रता के आने का द्वार खुलता था। और जो बच्चे फिल्म का गीत गा रहे हैं, वे कोई अपवित्र हैं, ऐसा नहीं है। लेकिन फिल्म के गीत से पवित्रता का द्वार बंद होता है। लेकिन वे तो इमिटेट कर रहे हैं।
बच्चों की तो बात छोड़ दें। हम जानते हैं कि बच्चे तो नकल करेंगे, लेकिन कभी आपने सोचा कि आप इस उम्र तक भी नकल ही किए जा रहे हैं। हम कपड़े वैसे पहन लेते हैं, जैसे दूसरे लोग पहने हैं। हम मकान वैसा बना लेते हैं, जैसा दूसरे लोगों ने बनाया है। हम पर्दे वैसे लटका लेते हैं, जैसा पड़ोसियों ने लटकाया है। हम कार वैसी खरीद लेते हैं, जैसी पड़ोसी लोग खरीदते हैं। अमेरिका में तो कारों की वजह से मुहल्ले तक जाने जाते हैं। क्योंकि एक मुहल्ले में लोग एक-सी ही कारें खरीद लेते हैं, तो शेवरलेट नेबरहुड हो जाती है, शेवरलेट वालों का मुहल्ला। आदमी एक-दूसरे को देखकर करने लगता है।
तो कृष्ण एक और गहरी बात इसमें कह रहे हैं। वे अर्जुन से कह रहे हैं कि तू उन पुरुषों में से है, जिन पर लाखों लोगों की नजर होती है। तू जो करेगा, वही वे लोग भी करेंगे। अगर तू जीवन से भाग गया, तो वे भी भाग जाएंगे। और हो सकता है कि तेरे लिए जीवन से भागना बड़ा प्रामाणिक हो, तो भी वे लाखों लोग बिलकुल गैर-प्रामाणिक ढंग से जीवन से भाग जाएंगे।
जब बुद्ध ने संन्यास लिया, तो बुद्ध का संन्यास तो बहुत आथेंटिक है। बुद्ध का संन्यास तो उनके प्राणों की पूरी की पूरी प्यास और पुकार है। लेकिन लाखों लोग बुद्ध के पीछे संन्यासी हुए। उतने लाखों लोग बुद्ध की हैसियत के नहीं हैं। महावीर ने जब संन्यास लिया, तो महावीर तो, महावीर के लिए संन्यास नियति है, डेस्टिनी है; उससे अन्यथा नहीं हो सकता। लेकिन महावीर के पीछे लाखों लोग संन्यासी हुए। वे सारे लाखों लोग महावीर की हैसियत के नहीं हैं।
लेकिन फिर भी मैं कहूंगा कि अगर नकल ही करनी है, तो फिल्म स्टार की बजाय संन्यासी की ही करनी बेहतर है--अगर नकल ही करनी है। और नकल ही करनी है, तो फिर बेहतर है कि महावीर की नकल ही हो जाए। क्यों? क्योंकि अच्छे की नकल शायद कभी स्वयं के अच्छे का द्वार भी बन जाए। जैसे कि बुरे की नकल निश्चय ही कभी बुरे के आगमन का द्वार बन जाती है।
मैं बुरे के लिए निश्चित कहता हूं और अच्छे के लिए शायद कहता हूं। क्यों? क्योंकि अच्छा चढ़ाई है और बुरा ढलान है। ढलान बहुत निश्चित बन जाती है। उसमें कुछ भी नहीं करना पड़ता; सिर्फ छोड़ दिया और उतर जाते हैं। चढ़ाई पर कुछ करना पड़ता है श्रम। लेकिन अगर नकल में भी चढ़े, अगर कोई कैलाश पर किसी के पीछे नकल में भी चढ़ गया, तो भी कैलाश पर तो पहुंच ही जाएगा। और कैलाश पर पहुंचकर जो घटित होगा, वह सारी नकलें तोड़ देगा और उसके प्रामाणिक व्यक्तित्व के भी प्रकट होने का क्षण आ सकता है।
कृष्ण यह कह रहे हैं कि और हजारों-लाखों लोग अर्जुन, तुझे देखकर जीते हैं। अर्जुन साधारण व्यक्ति नहीं है। अर्जुन असाधारण व्यक्तियों में से है। उस सदी के असाधारण लोगों में से है। अर्जुन को लोग देखेंगे। अर्जुन जो करेगा, वह अनेकों के लिए प्रमाण हो जाएगा। अर्जुन जैसा जीएगा, वैसा करोड़ों के लिए अनुकरणीय हो जाएगा। तो कृष्ण कहते हैं, तुझे देखकर जो लाखों लोग जीते हैं, अगर तू भागता है, वे भी जीवन से भाग जाएंगे। अगर तू पलायन करता है, वे भी पलायन कर जाएंगे। अगर तू विरक्त होता है, वे भी विरक्त हो जाएंगे।
तो अर्जुन, उचित ही है कि तू अनासक्त हो जा, तो शायद उनमें भी अनासक्ति का खयाल पहुंचे। तेरी अनासक्ति की सुगंध उनके भी नासापुटों को पकड़ ले। तेरी अनासक्ति का संगीत, हो सकता है, उनके भी हृदय के किसी कोने की वीणा को झंकृत कर दे। तेरी अनासक्ति का आनंद, हो सकता है, उनके भीतर भी अनासक्ति के फूल के खिलने की संभावना बन जाए। तो तू उन पर ध्यान रख। यह सिर्फ तेरा ही सवाल नहीं है। क्योंकि तू सामान्यजन नहीं है, तू असामान्य है; तुझे देखकर न मालूम कितने लोग चलते, उठते और बैठते हैं। तू उनका भी खयाल कर। और अगर तू अनासक्त हो सके, तो उन सबके लिए भी तेरा जीवन मंगलदायी हो सकता है।
इस संबंध में दो बातें अंत में आपसे और कहूं। इधर पिछले पचास-साठ वर्षों में पश्चिम के मनोवैज्ञानिकों ने कुछ इस तरह की भ्रांति पैदा की--उनको भी अब भ्रांति मालूम पड़ने लगी--जिसमें उन्होंने मां-बाप को, शिक्षकों को, सबको समझाया कि बच्चों को इमिटेशन से बचाओ। यह बात थोड़ी दूर तक सच थी। और थोड़ी दूर तक जो बातें सच होती हैं, कभी-कभी खतरनाक होती हैं, क्योंकि थोड़ी दूर के बाद वे सच नहीं होतीं। इसमें थोड़ी दूर तक बात सच थी कि बच्चों को हम ढालें न, उनको पैटर्नाइज न करें। उनको ऐसा न करें कि एक ढांचा दे दें और जबर्दस्ती ढालकर रख दें। तो पश्चिम के मनोवैज्ञानिकों ने बहुत जोर से जोर दिया कि बच्चों को ढालो मत; बच्चों को कोई दिशा मत दो; बच्चों को कोई डिसिप्लिन, कोई अनुशासन मत दो; क्योंकि उससे बच्चों की आत्मा का जो प्रामाणिक रूप है, वह प्रकट नहीं हो सकेगा। बच्चे इमिटेटिव हो जाएंगे।
कृष्णमूर्ति ने भी इस पर भारी जोर दिया। लेकिन यह बात थोड़ी दूर तक ही सच है। क्योंकि अगर बच्चे न ढाले जाएं, तो भी बच्चे ढलते हैं। हां, तब बाप नहीं ढालता, तब सड़क की होटल ढाल देती है; तब मां नहीं ढालती, लेकिन फिल्म अभिनेत्री ढाल देती है; तब गीता नहीं ढालती, लेकिन सुबह का अखबार ढाल देता है। और हम किसी बच्चे को जिंदगी के सारे इंप्रेशन से, प्रभावों से मुक्त कैसे रख सकते हैं? पचास साल में मनोवैज्ञानिकों ने जो कहा, तो सारी दुनिया के मां-बाप, कम से कम शिक्षित मां-बाप, बहुत डर गए। जितनी जिस मुल्क में शिक्षा बढ़ी, मां-बाप बहुत डर गए।
एक जमाना था कि बच्चे घर में घुसते थे, तो डरते हुए घुसते थे। आज अमेरिका में बाप घर में घुसता है, तो बच्चों से डरा हुआ घुसता है कि कोई मनोवैज्ञानिक भूल न हो जाए; कि कहीं बच्चा बिगड़ न जाए, न्यूरोटिक न हो जाए, कहीं पागल न हो जाए, कहीं दिमाग खराब न हो जाए, कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाए, तो बाप डरा हुआ घुसता है घर में! मां डरती है अपने बच्चों से कुछ कहने में कि कहीं कोई ऐसी चीज न पैदा हो जाए कि कांप्लेक्स पैदा हो जाए दिमाग में, ग्रंथि हो जाए; कहीं बीमार न हो जाए। सब डरे हुए हैं।
लेकिन इससे हुआ क्या? अठारहवीं सदी और उन्नीसवीं सदी में जो बच्चे थे, उनसे बेहतर बच्चे हम पैदा नहीं कर पाए। बच्चे तो ढाले ही गए, लेकिन मां-बाप जो कि बहुत प्रेम से ढालते, मां-बाप जो कि बहुत केअर और कंसर्न से ढालते, उन्होंने नहीं ढाला। लेकिन बाजार ढाल रहा है उनको, अखबार ढाल रहे हैं, पत्रिकाएं ढाल रही हैं, डिटेक्टिव्स ढाल रहे हैं, फिल्में ढाल रही हैं।
सारी दुनिया, आज दुनिया का बाजार, एक जमाना था कि नब्बे प्रतिशत स्त्रियों से चलता था। आज दुनिया का बाजार पचास प्रतिशत बच्चों से चल रहा है। और बच्चों को परसुएड किया जा रहा है। क्योंकि कोई भी नई चीज पकड़ानी है, तो पिता को पकड़ाना जरा मुश्किल पड़ती है; बच्चे को पकड़ाना आसान पड़ती है; वह जल्दी पकड़ लेता है। और उसके घर में कोई शिष्ट, कोई अनुशासन नहीं है, इसलिए वह बाहर से जो भी सीखने मिलता है, उसे सीख लेता है। अगर आज सारी दुनिया में बच्चे बगावती हैं, तो उसका कुल कारण इतना है--केआटिक हैं, अराजक हैं, तो उसका कुल कारण इतना है--कि हम उनके लिए कोई भी आधार, कोई भी अनुशासन, कोई भी दृष्टि, कोई भी दिशा देने में समर्थ नहीं रहे हैं। और मां-बाप डरते हैं कि कहीं बच्चे उनकी नकल न करने लगें।
लेकिन बच्चे नकल करेंगे ही। कभी लाख में एकाध बच्चा होता है, जो नकल नहीं करता और खुद जीता है। लेकिन वह कभी होता है, वह अपवाद है; उसका कोई हिसाब नहीं रखा जा सकता। अधिकतर बच्चे तो नकल करके ही जीएंगे। बाप डरता है कि कहीं मेरी नकल न कर ले। मां डरती है कि लड़की कहीं मेरी नकल न कर ले, नहीं तो बिगड़ जाए, क्योंकि सारा मनोविज्ञान कह रहा है कि बिगाड़ मत देना। और मजा यह है कि वे बच्चे तो नकल करेंगे ही। तब वे किसी की भी नकल करते हैं। और वह नकल जो परिणाम ला रही है, वह हमारे सामने है।
कृष्ण ने जब यह कहा अर्जुन से, तो उस कहने का प्रयोजन इतना ही है कि तेरे ऊपर न मालूम कितने लोगों की आंखें हैं। तू ऐसा कुछ कर, तू कुछ ऐसा जी कि उनकी जिंदगी में तेरा अनुशासन, मार्ग, प्रकाश, ज्योति बन सके। उनका जीवन तेरे कारण अंधकारपूर्ण न हो जाए। इससे लोकमंगल सिद्ध होता है।
शेष कल बात करेंगे।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें