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सोमवार, 2 अक्टूबर 2017

गीता दर्शन-(भाग-02)-प्रवचन-022



गीता दर्शन-भाग-(02) प्रवचन-022

अध्याय ३
चौथा प्रवचन
समर्पित जीवन का विज्ञान

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्तेस्तेन एव सः।। १२।।
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुग्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।। १३।।
तथा यज्ञ द्वारा प्रेरित हुए देवता लोग तुम्हारे लिए, बिना मांगे ही प्रिय भोगों को देंगे। उनके द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष उनके लिए बिना दिए ही भोगता है,
वह निश्चय चोर है।
यज्ञ से शेष बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से छूटते हैं और जो पापी लोग अपने शरीर पोषण के लिए ही पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं।


आध्यात्मिक विवाद का इस सूत्र को हम जन्मदाता कह सकते हैं। इस सूत्र में दो बातें कही गई हैं। एक तो सबसे पहली बात और बहुत महत्वपूर्ण, यज्ञरूपी कर्म से दिव्य शक्तियां प्रसन्न होकर बिना मांगे ही सब कुछ देती हैं।
जीवन के रहस्यात्मक नियमों में से एक नियम यह है कि जो मांगा जाएगा, वह नहीं मिलेगा; जो नहीं मांगा जाएगा, वही मिलता है। जिसके पीछे हम दौड़ते हैं, उसे ही खो देते हैं; और जिसको हम दौड़ना छोड़ देते हैं जिसके पीछे, वह हमारे पीछे छाया की तरह चला आता है। इस नियम को न समझ पाने से जीवन में बड़ा दुख और बड़ी पीड़ा है।
और साधारण जीवन में शायद कभी हमें ऐसा भ्रम भी हो जाए कि मांगने से भी कुछ मिल जाता है, लेकिन दिव्य शक्तियों से तो कभी भी मांगने से कुछ नहीं मिलता है। दिव्य शक्तियों के लिए जो अपने हृदय में द्वार खोल देता है, उसे सब मिल जाता है, लेकिन बिना मांगे ही।
जीसस का एक वचन है, जिसमें जीसस ने कहा है, सीक यी फर्स्ट दि किंगडम आफ गॉड, देन आल एल्स शैल बी एडेड अनटु यू--तुम पहले प्रभु के राज्य को खोज लो और शेष सब फिर तुम्हें अपने आप ही मिल जाएगा। लेकिन हम शेष सबको खोजते हैं, प्रभु के राज्य को नहीं। और शेष सब तो हमें मिलता ही नहीं, प्रभु का राज्य भी खो जाता है। जिसे जीसस ने किंगडम आफ गॉड कहा है, प्रभु का राज्य कहा है, उसे ही कृष्ण दिव्य शक्ति, देवता कह रहे हैं।
जैसे ही हम मांगते हैं...मांगने में होता क्या है? कामना करने में होता क्या है? इच्छा करने में होता क्या है? जैसे ही हम मांगते हैं, हमारा हृदय सिकुड़ जाता है मांग के आस-पास, और चेतना के द्वार तत्काल बंद हो जाते हैं। मांगें और देखें। भिखारी कभी भी फूल की तरह खिला हुआ नहीं होता; हो नहीं सकता। भिखारी सदा सिकुड़ा हुआ, अपने में बंद, क्लोज्ड। जब भी हम कुछ मांगते हैं, तो मन एकदम बंद हो जाता है। जब हम कुछ देते हैं, तब मन खुलता है। दान से तो मन खुलता है और मांग से मन बंद होता है। तो जब कोई परमात्मा के सामने भी, दिव्य शक्तियों के सामने भी मांगने खड़ा हो जाता है, तो उसे पता नहीं कि मांगने के कारण ही उसके हृदय के द्वार बंद हो जाते हैं, वह पाने से वंचित रह जाता है।
जीसस का एक और वचन मुझे स्मरण आता है, जिसमें उन्होंने कहा है, भिखारियों के लिए नहीं, सम्राटों के लिए है। जीसस ने कहा है, जिनके पास है, उन्हें और दे दिया जाएगा; और जिनके पास नहीं है, उनसे और भी छीन लिया जाएगा। बड़ी उलटी बात है। जिनके पास है, उन्हें और भी दे दिया जाएगा; और जिनके पास नहीं है, उनसे और भी छीन लिया जाएगा। और जब भी आप मांगते हैं, तब आप खबर देते हैं, मेरे पास नहीं है। और जब भी आप देते हैं, तब आप खबर देते हैं, मेरे पास है। असल में इस सूत्र का भी अर्थ यही है कि जो बांटता है, उसे मिल जाएगा; और जो बटोरता है, वह खो देगा।
भिखारी बटोर रहा है। भिखारी के चित्त की दो-चार बातें और खयाल में ले लेनी चाहिए, क्योंकि एक अर्थ में हम सब भिखारी हैं। दानी होना बड़ा असंभव है। भिखारी होना बिलकुल आसान है। लेकिन कठिनाई यही है कि भिखारियों को कभी कुछ नहीं मिल पाता और देने वालों को सदा सब कुछ मिल जाता है।
जैसे ही कोई मांगता है--वैसे ही उसका मन तो सिकुड़ता ही है, चित्त के द्वार तो बंद हो ही जाते हैं--जैसे ही कोई मांगता है, वैसे ही भीतर डर भी समा जाता है कि पता नहीं मिलेगा या नहीं मिलेगा! मांगने वाला कभी निर्भय नहीं हो सकता। मांग के साथ भय, फिअर हमेशा मौजूद होता है। मांगा कि भय खड़ा है। और परमात्मा से केवल वे ही जुड़ सकते हैं, जो निर्भय हैं; जो भयभीत हैं, वे नहीं जुड़ सकते।
जब भी आप मांगेंगे, तभी प्राण कंप जाएंगे और भयभीत हो जाएंगे और डर पकड़ जाएगा, पता नहीं मिलेगा या नहीं! यह जो डर है, यह भी मन को बंद कर देगा। और यह जो डर है, यह परमात्मा और स्वयं के बीच फासला पैदा कर देता है। परमात्मा के पास इसलिए जो मांगने जाता है, वह अपने हाथ से ही खोने का कारण बन जाता है।
तीसरी बात भी खयाल रखें, जब भी हम मांगते हैं, तो हम गलत ही मांगते हैं। हम सही मांग ही नहीं सकते। हम सही इसलिए नहीं मांग सकते कि हमें सही का कुछ पता ही नहीं है। हम सही इसलिए नहीं मांग सकते कि हम खुद सही नहीं हैं। और यह और मजे की बात है कि जो सही है, उसे मांगना नहीं पड़ता है; क्योंकि जो सही है, उसे तत्काल मिलना शुरू हो जाता है। जो ठीक है, उस पर संपदा बरसने लगती है जीवन के सब रूपों में। जो गलत है, वही वंचित रह जाता है; और वही मांगता है। और उसकी मांग भी गलत ही होगी; वह सही मांग नहीं सकता है। गलत आदमी गलत ही मांग सकता है।
एक छोटी-सी घटना से आपको समझाऊं। विवेकानंद के पिता मर गए। कर्ज छोड़ गए बहुत। चुकाने का कोई उपाय नहीं। खाने-पीने तक की सुविधा नहीं। घर में इतना मुश्किल से जुटा पाते कि एक बार एक जन का भोजन हो पाए। और दो थे घर में; मां थी और विवेकानंद थे। तो मां उन्हें खिला दे और खुद भूखी रह जाए, पानी पीकर। तो विवेकानंद उससे कहते कि आज फलां मित्र के घर निमंत्रण है, मैं वहां जा रहा हूं; सिर्फ इसलिए कि वह खाना खा लेगी। और वे सड़कों पर चक्कर लगाकर वापस बड़ी खुशी से घर लौटें और उन भोजन की चर्चा करें, जो उन्होंने किए नहीं हैं। कोई मित्र के घर निमंत्रण था नहीं। लेकिन यह कितने दिन चलता!
रामकृष्ण को खबर लगी, तो रामकृष्ण ने कहा, तू कैसा पागल है! तू जा और काली से मांग ले। मांग क्यों नहीं लेता है! जो चाहिए, मिल जाएगा; मांग ले। विवेकानंद को रामकृष्ण ने वस्तुतः धक्का दे दिया मंदिर में कि तू जा और मां से मांग ले। क्षण बीते, घड़ी बीती। रामकृष्ण बार-बार झांककर भीतर देखें; विवेकानंद खड़े हैं। वे बड़े हैरान हुए कि इतनी-सी बात मांगनी है, इतनी देर! फिर विवेकानंद लौटे, तो रामकृष्ण ने कहा, मांगा? तो विवेकानंद ने कहा, अरे! काली के सामने पहुंचा, तो मांग की बात ही भूल गई! तो रामकृष्ण ने कहा, पागल, भेजा तुझे मांगने को था; फिर से जा। विवेकानंद फिर गए, और फिर घड़ी बीती, रामकृष्ण दरवाजे पर बैठे राह देखते रहे और विवेकानंद फिर वहां से आनंदित लौटे। रामकृष्ण ने कहा, लगता है कि मांग पूरी हो गई! मिल गया? मांग लिया? विवेकानंद ने कहा, कौन-सी मांग? रामकृष्ण ने कहा, तू पागल तो नहीं है! तुझे मांगने भेजा था। विवेकानंद ने कहा, बड़ी मुश्किल मालूम होती है। जब तक मैं बाहर रहता हूं, तब तक तो मांग का खयाल रहता है। जैसे ही मंदिर में प्रविष्ट होता हूं और काली की मूर्ति सामने आती है, तो खुद ही सम्राट हो जाता हूं। उनकी मौजूदगी में मांगने का सवाल ही नहीं उठता; गुंजाइश भी नहीं रह जाती। तीसरी बार, और तीसरी बार भी यही हुआ। और रामकृष्ण ने कहा, कैसा है तू! विवेकानंद ने कहा कि आप क्यों मेरी नाहक परीक्षा ले रहे हैं! मैं जानता हूं कि अगर मांग लूं, तो ये द्वार मेरे लिए सदा के लिए बंद हो जाएंगे।
ये द्वार तो उन्हीं के लिए खुले हैं, जो मांगते नहीं हैं। और फिर जो उसकी मर्जी! जो ठीक है, वही हो रहा है। जो होना चाहिए, वही हो रहा है। उससे अन्यथा चाहने का कोई कारण भी नहीं है।
कृष्ण इस सूत्र में कहते हैं कि बिना मांगे, बिना मांगे यज्ञ की भांति जो जीवन को जीता, यज्ञरूपी कर्म में जो प्रविष्ट होता, दिव्य शक्तियां उसे बिना मांगे सब दे जाती हैं। लेकिन हमें अपने पर भरोसा ज्यादा, जरूरत से ज्यादा, खतरनाक भरोसा है। या तो हम कोशिश करते हैं, पा लें, तब हमारा कर्म यज्ञरूपी नहीं हो पाता। और या फिर हम मांगते हैं कि मिल जाए, तब आकांक्षा से दूषित हो जाता है और दिव्य शक्तियों से हमारे संबंध टूट जाते हैं।
इसलिए ध्यान रखें, जो प्रार्थना भी मांग के साथ जुड़ी है, वह प्रार्थना नहीं रह जाती। जिस प्रार्थना में भी रंचमात्र मांग है, वह प्रार्थना प्रार्थना नहीं रह गई। जो प्रार्थना निस्पृह, निपट प्रार्थना है, जिसमें कोई मांग नहीं, सिर्फ धन्यवाद है उसका, जो मिला है; उसकी मांग नहीं, जो मिलना चाहिए। इसलिए ठीक प्रार्थना सदा ही धन्यवाद होती है। और गलत प्रार्थना सदा ही मांग होती है। मंदिर में ठीक आदमी वही है प्रार्थना करने गया, जो धन्यवाद देने गया है कि परमात्मा कितना दिया है! गलत आदमी वह है, जो मांगने गया है कि फलां चीज नहीं दी, फलां चीज नहीं दी, यह और मिलनी चाहिए। मांग प्रार्थना में जहर हो जाती है, धन्यवाद प्रार्थना में अमृत बन जाता है।
यज्ञरूपी कर्म, धन्यवादपूर्वक परमात्मा जो कर रहा है, जो करा रहा है, उसकी परम स्वीकृति, टोटल एक्सेप्टिबिलिटी है। और तब बड़े रहस्य की बात है कि सब मिल जाता है। सीक यी फर्स्ट दि किंगडम आफ गॉड, देन आल एल्स शैल बी एडेड अनटु यू, पहले खोज लो परमात्मा का राज्य और फिर सब उसके पीछे चला आता है। जिसे कभी नहीं मांगा, वह मिल जाता है। जिसे मांग-मांगकर भी कभी नहीं पाया था, वह बिन मांगे मिल जाता है। यह तो पहला हिस्सा, प्रार्थना करते समय खयाल में रखें, मंदिर में प्रवेश करते समय खयाल में रखें, साधु-संत के पास जाते समय खयाल में रखें।
और यह भी खयाल में रखें कि जो साधु-संत प्रलोभन देता हो कि आओ, मैं यह दे दूंगा, वहां भूलकर मत जाना। क्योंकि वहां प्रार्थना घटित ही नहीं हो सकती। वहां प्रार्थना असंभव है। और चूंकि लोग मांगते हैं, इसलिए साधु देने वाले पैदा हो गए हैं। वे आपने पैदा किए हैं। आप नौकरी मांगते हैं, तो नौकरी देने वाले साधु हैं। धन मांगते हैं, तो धन देने वाले साधु हैं। स्वास्थ्य मांगते हैं, तो स्वास्थ्य देने वाले साधु हैं। राख मांगते हैं, तो राख देने वाले साधु हैं। ताबीज मांगते हैं, तो ताबीज देने वाले साधु हैं। जो-जो बेवकूफी हम मांगते हैं, उसको सप्लाई कोई तो करना चाहिए। परमात्मा नहीं करता, तो दूसरे लोग करते हैं। लेकिन ध्यान रखें, वहां धर्म का फूल कभी नहीं खिलेगा, वहां प्रार्थना प्राणों से कभी नहीं निकलेगी और गूंजेगी। बाजार है, वह भी बाजार का ही हिस्सा है। धर्म का उससे कोई लेना-देना नहीं है। यह पहला सूत्र है।
इस सूत्र का दूसरा हिस्सा है, जिसमें कृष्ण और भी गहरी बात कहते हैं। वे यह कहते हैं कि यज्ञरूपी कर्म से जो मिले, उसे बांट दो, उसमें दूसरों को साझीदार बना लो! क्यों? उसे शेयर करो! क्यों? यह भी एक नियम है जीवन का--परम नियमों में से एक--कि जितना हम अपने आनंद को बांटते हैं, उतना वह बढ़ता है; और जितना उसे रोकते हैं, उतना सड़ता है। जितना हम अपने आनंद में दूसरों को सहभागी बनाते हैं, शेयरिंग करते हैं, उतना वह अनंत गुना होता चला जाता है। और जितना हम कंजूस की तरह अपने आनंद को तिजोरी में बंद कर लेते हैं, आखिर में हम पाते हैं कि वहां सिर्फ सड़ांध और बदबू रह गई और कुछ भी नहीं बचा है। आनंद का जीवन विस्तार में है, फैलाव में है।
और खयाल रखें, जब आप दुख में होते हैं, तो सिकुड़ जाते हैं। दुख में मन करता है कि किसी कोने में दबकर बैठ जाएं, कोई मिले न, कोई देखे न, कोई बात न करे। बहुत दुखी होते हैं, तो मन होता है, मर ही जाएं। उसका मतलब यह है कि ऐसे कोने में चले जाएं, जहां से कोई संबंध जिंदगी से न रह जाए। लेकिन जब भी आप आनंद में होते हैं, तब आप कोने में नहीं बैठना चाहते हैं, तब आप चाहते हैं, मित्र के पास, प्रियजनों के पास जाएं।
कभी आपने खयाल किया कि बुद्ध जब दुखी थे, तो जंगल में गए; और जब आनंद से भर गए, तो शहर में वापस लौट आए! महावीर जब दुखी थे, तो पहाड़ों में गए; और जब आनंद भर गया जीवन में, तो वापस भीड़ में लौट आए। मोहम्मद जब दुखी हैं, तो पहाड़ पर; और जब आनंद से भर गए, तो जिंदगी में, बाजार में। जहां भी आनंद घटित होगा, आनंद को बांटना पड़ेगा। वैसे ही जैसे जब बादल पानी से भर जाते हैं, तो बरसते हैं; ऐसे ही जब आनंद प्राणों में भरता है, तो बरसता है। बरसना ही चाहिए। अगर न बरसा, तो रोग बन जाएगा।
इसलिए कृष्ण दूसरा सूत्र कहते हैं कि अर्जुन! जब यज्ञरूपी कर्म से दिव्य शक्तियां वह सब देने लगें जिसकी कि प्राणों में सदा से प्यास और मांग रही, लेकिन कभी मिला नहीं और अब बिना मांगे मिल गया है, तो कंजूस मत हो जाना। उसे रोक मत लेना, उसे बांट देना। क्योंकि जितना तुम बांटोगे, उतना ही वह बढ़ता चला जाता है।
आनंद का यह नियम अगर खयाल में आ जाए कि बांटने से बढ़ता है...। कबीर ने कहा है, दोनों हाथ उलीचिए। आनंद को ऐसे ही उलीचना चाहिए जैसे नाव चलती हो और पानी नाव में भर जाए, तब दोनों हाथ आदमी उलीचने लगता है। आनंद को भी ऐसे ही दोनों हाथ उलीचिए। उसे बांट दीजिए, उसे रोकिए मत। उसे रोका कि वह सड़ा। वही नहीं सड़ेगा, उसे रोकने से वह जो द्वार खुला था--अन-मांगा मिलने का--वह भी बंद हो जाएगा। क्योंकि वह द्वार उसी के लिए खुला रह सकता है, जो बिना मांगे खुद भी दे।
आप जानते हैं कि घर में अगर दो खिड़कियां हों, तो आप एक नहीं खोलते। एक खोलने से कुछ मतलब नहीं होता। क्रास वेंटिलेशन चाहिए। एक खिड़की खोलते हैं, उससे हवा नहीं आती, जब तक कि दूसरी खिड़की न खुले, जिससे हवा बाहर जाए। एक खिड़की खोले बैठे रहें, तो कमरे में हवा नहीं आएगी। खिड़की तो खुली है, लेकिन हवा नहीं आएगी कमरे में। ताजी हवाएं कमरे में नहीं भरेंगी, क्योंकि कमरे से हवाओं को निकलने का कोई मार्ग ही नहीं है। इसलिए इसके पहले कि आप हवाओं को निमंत्रित करें, उस द्वार को भी खोल दें, जहां से हवाएं आएं और जा भी सकें।
आनंद भी क्रास वेंटिलेशन है। इधर से परमात्मा की तरफ से आनंद मिलना शुरू हो, तो दूसरी तरफ से बांट दें। और जितना बांटेंगे, उतना ही परमात्मा की तरफ से आनंद बढ़ता चला जाता है। जितने रिक्त होंगे, खाली होंगे, उतने भर दिए जाएंगे।
इसलिए जीसस कहते हैं, जिसके पास भी हिम्मत नहीं है देने की, वह पाने का पात्र भी नहीं है। जिसमें देने की हिम्मत है, वह पाने का भी पात्र है। हम सिर्फ पाना चाहते हैं और देना कभी नहीं चाहते। इसलिए कृष्ण ऐसे आदमी को कहते हैं, वह चोर है।
कृष्ण ने यह बात जो कही कि वह आदमी चोर है, जो परमात्मा से, जीवन से, जगत से जो भी मिल रहा है, उसे रोक लेता है। अपने तईं, निजी अहंकार के आस-पास, इर्द-गिर्द इकट्ठा कर लेता है, वह चोर है। प्रूधो ने तो बहुत बाद में कहा कि लोग चोर हैं। माक्र्स ने तो बहुत बाद में कहा कि लोग चोर हैं। कृष्ण ने सबसे पहले कहा कि लोग चोर हैं। अगर वे शेयर नहीं करते, अगर वे बांटते नहीं, अगर वे आनंद में दूसरे को साझीदार नहीं बनाते, तो वे चोर हैं।
लेकिन कृष्ण जब लोगों को चोर कहते हैं, तो बहुत और मतलब है। और जब माक्र्स और प्रूधो लोगों को चोर कहते हैं, तो मतलब और है। जब माक्र्स और प्रूधो लोगों को कहते हैं कि लोग चोर हैं, तो उनका मतलब यह है कि उनकी गरदन दबा दो; छीन लो, जो उनके पास है; बांट दो, जो उनके पास है। लेकिन कृष्ण जब कहते हैं कि चोर हो तुम, तो वे यह नहीं कहते कि कोई तुम्हारी गरदन दबा दे और छीन ले। वे यह कहते हैं कि तुम ही जानो कि तुम अपने ही दुश्मन हो। तुम्हें और बहुत मिल सकता था, लेकिन तुम रोककर बैठ गए हो और उस बड़े मिलने से वंचित रह गए हो। इसे तुम बांट दो, ताकि तुम्हें और बड़ा मिलता चला जाए। तुम जितना बांट सकोगे, उतने बड़े को पाने के निरंतर अधिकारी और हकदार होते चले जाओगे।
और अगर कृष्ण कहते हैं कि ऐसा आदमी गलत कर रहा है, तो उनका मतलब यही है कि वह दूसरों के लिए तो गलत कर रहा है, वह ठीक ही है, लेकिन वह गौण है, वह अपने लिए ही गलत कर रहा है। वह आदमी आत्मघाती है। उसको एक किरण मिली थी, और उसने दरवाजा बंद कर लिया कि कहीं वह निकल न जाए। एक किरण उतरी आपके घर में, आपने जल्दी से दरवाजा बंद कर लिया कि कहीं वह किरण निकलकर पड़ोसी के घर में न चली जाए। लेकिन आपको पता नहीं कि जब आप दरवाजा बंद कर रहे हैं, तभी वह किरण मर गई! और जिस दरवाजे से वह आई थी, उसको ही आपने बंद कर दिया। अब आने का भी द्वार बंद हो गया। और किरणें बचती नहीं, आती रहें, तो ही बचती हैं।
यह बात भी खयाल में ले लें कि आनंद कोई ऐसी चीज नहीं है कि मिल गया, और मिल गया। आनंद ऐसी चीज है कि आता ही रहे, तो ही रहता है। आनंद एक बहाव है, प्रवाह है, एक धारा है। ऐसा नहीं कि गंगा आ गई, और आ गई। आती ही रहे रोज, तो ही। अगर एक दिन आए और फिर बस आ गई; और दूसरे दिन से धारा बंद हो जाए, तो सिर्फ डबरा बन जाएगा, गंगा नहीं होगी। उस डबरे में गंदगी होगी, बास उठेगी, उसके पास रहना मुश्किल हो जाएगा। गंगा आए और जाए, आती रहे और जाती रहे। रुके न, ठहरे न। ऐसे ही जिस दिन कोई व्यक्ति अपने पूरे जीवन को परमात्मा को समर्पित करके जीता है, उसके जीवन में आनंद की गंगा आती रहती है और बढ़ती रहती है, आती रहती है और बढ़ती रहती है। उसकी जिंदगी एक बहाव, एक सरिता की भांति है, जीवित; रुके हुए सरोवर की भांति नहीं, घेरों में बंद नहीं, बहती हुई।
और कभी आपने खयाल किया कि जब गंगा आती है, कहां से लाती है यह गंगा पानी? और कहां ले जाती है? कभी आपने इस वर्तुल का खयाल किया, इस सर्कल का खयाल किया कि गंगा जहां से लाती है, वहीं लौटा देती है! सागर की तरफ भागी चली जा रही है। सागर में गिरेगी, सूरज की किरणों पर चढ़ेगी, बादलों में उठेगी, हिमालय पर बरसेगी, फिर भागेगी। फिर सागर, फिर सूरज की किरणों पर चढ़ना, फिर बादल, फिर पहाड़, फिर मैदान, फिर सागर। एक वर्तुल है, एक सर्कल है।
जीवन की सभी गतियां सरक्युलर हैं। आनंद की भी वैसी ही गति है। परमात्मा से ही आता है, परमात्मा में ही जाता है। आप में आए, तत्काल उसे आस-पास जो भी परमात्मा का रूप फैला है, उसे बांट दें, ताकि वह सागर तक फिर पहुंच जाए। फिर बादलों में उठे, फिर आप में गिरे। अगर आपने कहा कि नहीं, पता नहीं, फिर आया कि नहीं आया। रोक लें। बस, उस रोकने से आदमी चोर हो जाता है।
सब तरह के आनंद में जब भी रोकने का खयाल पैदा होता है, तभी थेफ्ट, चोरी पैदा हो जाती है। और यह चोरी परमात्मा के खिलाफ है। जहां से आया है, वहां जाने दें। आप से गुजरा, यही क्या कम है! आप से गुजरता रहेगा, यही क्या कम है! और सतत गुजरता रहे, यही जीवन की धन्यता है।


प्रश्न: भगवान श्री, तेरहवें श्लोक के पहले हिस्से में कहा गया है, यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाला श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाता है। कृपया यज्ञ से बचे हुए अन्न का अर्थ स्पष्ट करें।


साधारणतः, साधारणतः तो यज्ञ से बचे हुए अन्न को अगर हम शाब्दिक अर्थों में लें, जैसा कि भूल से लिया जाता रहा है, तो जो यज्ञ की प्रक्रिया है, सबको बांट देने के बाद; यज्ञ में जो भी है सबको बांट देने के बाद, जो बच रहा, उसे लेने वाला श्रेष्ठ पुरुष है। सबको बांट देने के बाद जो बच रहा!
जो पहले ही ले ले और फिर जो बच रहे उसे बांट दे, वह निकृष्ट पुरुष है। घर में मेहमान आए, तो पहले घर के लोग खा लें और फिर मेहमान को जो बच रहे, दे दें, तो वह निकृष्ट परिवार है। मेहमान को पहले दे दें, फिर जो बच रहे, जो बच रहे; अगर कुछ भी न बच रहे, तो उसी को भोजन मानकर सो जाएं, तो वह श्रेष्ठ पुरुष है, वह श्रेष्ठ परिवार है।
सामान्य अर्थ तो यह है। लेकिन और गहरे में जिस यज्ञ का मैं अर्थ कर रहा हूं, ऐसा कर्म, जो परमात्मा को समर्पित है। ऐसे कर्म से जो भी उपलब्ध हो, पहले बांट देना; और जब कोई लेने वाला न बचे, तो जो बच रहे, उसको अपने लिए स्वीकार कर लेना, तो ऐसा पुरुष श्रेष्ठ है। जो भी मिले, उसे पहले बांट देना।
मोहम्मद की जिंदगी में इस सूत्र की सीधी व्याख्या है। और कई बार बड़ा मजेदार...कि कृष्ण का सूत्र और मोहम्मद के जीवन में व्याख्या होती है। जिंदगी इतनी ही रहस्यपूर्ण है। लेकिन हिंदू- मुसलमान, जो पागलों के गिरोह हैं, वे नहीं समझ पाते। मोहम्मद ने कह रखा था अपनी पत्नी को, अपने परिवार के लोगों को, अपने मित्रों को, प्रेम करने वालों को कि अगर तुम घर में भोजन बनाओ, तो जहां तक उसकी सुगंध पहुंचे, समझो वहां तक निमंत्रण हो गया। निमंत्रण देने तुम गए नहीं, लेकिन तुम्हारे घर में बने हुए भोजन की सुगंध जहां तक पहुंच गई, वहां तक निमंत्रण हो गया। उन सबको खबर कर आना कि आ जाओ।
यह जो सुगंध भी पहुंचे, तो निमंत्रण हो जाए! तो पहले उन सबको खिला देना, फिर बच रहे, तो खुद खा लेना। सारे जीवन के लिए। जीवन में जो भी मिले, जिसने अपने जीवन को ही यज्ञ बना लिया, जीवन में जो भी मिले--चाहे ज्ञान, चाहे धन, चाहे अन्न, चाहे शक्ति--जो भी जीवन में मिले, उसे पहले बांट देना। और जब कोई और लेने वाला न बचे, तो जो आखिरी हिस्सा बच जाए--यदि बच जाए--तो वह अपने लिए उपयोग कर लेना। ऐसा व्यक्तित्व श्रेष्ठ है।
लेकिन हमारा सारा व्यक्तित्व निकृष्ट है। अगर कभी हम बांटते हैं, तो तभी बांटते हैं, जब वह हमारे काम का नहीं होता। अगर कभी देते हैं, तो तभी देते हैं, जब वह व्यर्थ होता है हमारे लिए। जब वह हमारे लिए किसी अर्थ का नहीं होता और सिर्फ बोझ बनता है, तब हम देते हैं। ठीक है, न देने से तो अच्छा ही है; लेकिन निकृष्ट दान है। न देने से तो अच्छा है, अदान से तो बेहतर है; क्योंकि हो सकता है, किसी के काम पड़ जाए। लेकिन दान से जो व्यक्तित्व का फूल खिलता है, वह इससे खिलने वाला नहीं है। क्योंकि आप सिर्फ कचरा फेंक रहे हैं। आप कुछ भी मूल्यवान नहीं दे रहे हैं। देने में आपके भीतर कहीं भी आपको अपने लिए कोई कटौती नहीं करनी पड़ रही है। देने में आपके भीतर कहीं भी कोई प्रेम, कहीं भी कोई प्रेम नहीं है। यह अर्थ है।
और अगर कोई व्यक्ति इसका स्मरण रखे, तो धीरे-धीरे हैरान होगा कि जो हम सोचते हैं कि बचा लेंगे और उससे आनंद पाएंगे, हमें पता ही नहीं है। एक बार उसे देकर भी देखें और हैरान होंगे कि चीजें बचाने से उतना आनंद कभी भी नहीं देतीं, जितना देने से दे जाती हैं। मगर वह हमें पता नहीं चलता, क्योंकि हमने कभी उसका कोई प्रयोग नहीं किया है जीवन में। वह हमारे लिए अपरिचित गली है, उस रास्ते हम कभी गुजरे नहीं।
इस जीवन में जो भी श्रेष्ठतम अनुभव हैं, वे सभी किसी न किसी अर्थों में देने से पैदा होते हैं। प्रेम का अनुभव है, वह देने का अनुभव है। केवल वे ही लोग प्रेम अनुभव कर पाते हैं, जो दे सकते हैं। अन्यथा अनुभव नहीं कर पाते। प्रार्थना का अनुभव है, वह देने का अनुभव है। वे ही लोग अनुभव कर पाते हैं, जो चरणों में अपने को परमात्मा के दे पाते हैं। एक वैज्ञानिक को एक आनंद की प्रतीति होती है, क्योंकि वह अपने समस्त जीवन को विज्ञान के लिए दे पाता है। एक चित्रकार को एक आनंद का अनुभव होता है, क्योंकि वह अपने समस्त जीवन को कला को दे पाता है। एक संगीतज्ञ को आनंद अनुभव होता है, क्योंकि वह अपना समस्त, सब कुछ संगीत को दे पाता है। जहां भी इस जगत में आनंद का अनुभव है, वहां पीछे सदा दान खड़ा ही रहता है, चाहे वह दान दिखाई पड़ता हो या न दिखाई पड़ता हो।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, श्रेष्ठ है वह पुरुष, जो पहले बांट देता, फिर जो बचता है, उसे ही अपना भाग, उसे ही अपना भाग मान लेता है। जो बच जाता है, उसे ही अपना भाग मान लेता है। लेकिन सदा ही बहुत बच जाता है उनके पास, जो बहुत देने में समर्थ हैं। और जो बहुत रोकने में समर्थ हैं, उनके पास कभी कुछ भी नहीं बचता है।
असल में, वे रोकने में इतने समर्थ हैं कि जब खुद को भी देने का वक्त आता है, वे नहीं दे पाते। जो आदमी रोकने में इतना समर्थ है कि कभी किसी को कुछ नहीं दिया, पक्का समझना कि यह आदमी अपने को भी उसमें से नहीं दे पाएगा। इसको देने की आदत ही नहीं है। यह अपने को भी वंचित रख लेगा, दूसरों को भी वंचित रख देगा। यह सिर्फ चीजों को सम्हाले हुए मर जाएगा। यह पागल है, यह विक्षिप्त है, आब्सेस्ड है।
इस तरह के व्यक्ति के लिए वे कह रहे हैं कि ऐसा व्यक्ति श्रेष्ठ की, श्रेष्ठत्व की, गरिमापूर्ण जीवन की यात्रा पर नहीं निकल पाता है। ऐसे व्यक्ति का जीवन यज्ञ नहीं बन पाता।


प्रश्न: भगवान श्री, एक मित्र पूछते हैं कि आपने अभी कहा कि आनंद आदि जो मिले, उसे बांट देना चाहिए। तो उसी तरह क्या दुख को भी बांट देना चाहिए? इस पर आपका क्या खयाल है?


दुख बांटा नहीं जा सकता। दुख बांटा ही नहीं जा सकता। जैसे आनंद रोकने से रोका नहीं जा सकता, सिर्फ चेष्टा की जा सकती है; दुख बांटा नहीं जा सकता। लेकिन हम दुख को बांटने की कोशिश करते हैं। और आनंद, जो कि बांटा ही जा सकता है, उसे हम रोकने की कोशिश करते हैं। हम दुख को बांटने की बहुत कोशिश करते हैं। कैसे करते हैं?
एक तो दुखी आदमी दूसरों को दुखी करना शुरू कर देता है। हजार तरकीबें निकालता है दूसरे को दुखी करने की। असल में उसे किसी को सुखी देखकर बड़ी बेचैनी और तकलीफ होने लगती है। अगर दुनिया सुखी है, तो उसकी पीड़ा हजार गुनी ज्यादा हो जाती है; उसका दुख भारी हो जाता है। तो दुखी आदमी दूसरे को दुखी करना शुरू कर देता है, दुखी देखने की आकांक्षा शुरू कर देता है, दुखी देखकर थोड़ा प्रसन्न होने लगता है। और दुखी आदमी दूसरों से निरंतर अपने दुख की बात करके भी उनको उदास करना चाहता है, दुखी करना चाहता है। व्यवहार भी करता है, अगर एक आदमी दुखी है, तो वह दूसरों के साथ ज्यादा क्रोधित होगा; अगर आनंदित है, तो ज्यादा क्रोधित नहीं होगा। आनंदित आदमी क्रोधित हो नहीं सकता, दुखी आदमी ही हो सकता है।
दुखी आदमी दूसरों को दबाने, सताने के हजार उपाय करने लगेगा। और दुख की चर्चा तो करेगा ही, जो भी मिलेगा, उससे दुख की चर्चा करेगा। और अगर आपके चेहरे पर उसकी दुख की चर्चा से कोई कालिमा नहीं आई, तो दुखी होगा। अगर कालिमा आई और आप भी उदास हुए, तो उसका चित्त हलका होगा। दुखी आदमी दुख बांटने की कोशिश करता है। लेकिन दुख बांटा नहीं जा सकता। और जो बांटता है, उसका भी उसी तरह दुख बढ़ जाता है, जैसा आनंद बांटने से आनंद बढ़ जाता है।
इसको भी समझ लेना जरूरी है। बांटना बहुत मुश्किल प्रक्रिया है। क्यों मुश्किल प्रक्रिया है? इंट्रिंजिकली मुश्किल है, आंतरिक स्वभाव से मुश्किल है। आनंद इसलिए बांटा जा सकता है कि दूसरे आनंद लेने को तैयार हैं। दुख लेने को कोई तैयार नहीं है, इसलिए नहीं बांटा जा सकता। आखिर बांटिएगा न किसी को, तो वह तैयार भी होना चाहिए लेने को! तभी बांट सकते हैं न? बांटने में दूसरा भी तो मौजूद है, आप अकेले नहीं हैं।
आनंद बांटा जा सकता है, क्योंकि दूसरे उसे लेने को तैयार हैं। दुख बांटा नहीं जा सकता, क्योंकि कोई उसे लेने को तैयार नहीं है। जिसके दरवाजे पर जाएंगे, वही दरवाजा बंद कर लेगा। आप और दुखी होकर वापस लौटेंगे कि हम गए थे दान करने और दरवाजा बंद कर लिया! जिसके भिक्षापात्र में डालेंगे, वह भिक्षापात्र छिपाकर और भाग खड़ा होगा। आप और दुखी होकर लौटेंगे।
दुख बांटा नहीं जा सकता, क्योंकि कोई दुख लेने को तैयार नहीं है। दुख ऐसे ही इतना ज्यादा है कि अब और आपसे कौन लेने को तैयार होगा! लोग आनंद लेने को तैयार हैं, क्योंकि लोग दुखी हैं। लोग दुख लेने को तैयार नहीं हैं, क्योंकि लोग दुखी पहले से ही काफी हैं। लेकिन दुख देने की कोशिश चलती है। और देने में आपका दुख उसी तरह बढ़ेगा, जिस तरह आनंद भी देने में बढ़ता है। लेकिन बढ़ने की प्रक्रिया दोनों की अलग होगी, परिणाम एक होगा। आनंद इसलिए बढ़ेगा कि जैसे ही आप किसी को आनंद देते हैं, आपकी आत्मा विस्तीर्ण होती है। असल में दूसरे को आनंद देने की कल्पना करने से भी आप बड़े होते हैं, छोटे नहीं रह जाते। असल में दूसरे को आनंदित देखना ही आत्मा का फैलाव है।
बहुत कठिन है। दूसरे के आनंद में आनंदित होना बड़ी कठिन बात है। दूसरे के दुख में दुखी होना उतनी कठिन बात नहीं है, दूसरे के आनंद में आनंदित होना बड़ी कठिन बात है। किसी के घर में आग लग गई है, तो आप दुखी हो पाते हैं; लेकिन आपके बगल में किसी ने एक महल खड़ा कर लिया, तो सुखी नहीं हो पाते। किसी की पत्नी मर गई है, तो आप दुखी हो पाते हैं; लेकिन किसी को सुंदर पत्नी मिल गई है, तो आप फिर भी दुखी होते हैं, सुखी नहीं हो पाते।
दूसरे के सुख में सुख अनुभव करना बहुत बड़ा आत्मिक फैलाव है। लेकिन इससे भी बड़ा फैलाव तो तब होगा, जब हम दूसरे को आनंद देने में भी समर्थ होंगे। यह तो दूसरे का अपना आनंद है, उसमें हम आनंदित हों, तो भी आत्मा बड़ी होती है; दूसरे को आनंद देना तो और भी बड़ी घटना है। बड़ी, जिसको कहें, एक्सपैंशन आफ कांशसनेस, चेतना का विस्तार है।
चेतना का विस्तार होता है आनंद को देने से। और जब चेतना का विस्तार होता है, तो आपका परमात्मा से आनंद लेने का आयतन बढ़ जाता है। जितनी बड़ी आत्मा है आपके पास, उतनी ही परमात्मा की वर्षा आप पर हो सकती है। छोटी-सी आत्मा है, छोटा-सा पात्र है, तो उतनी वर्षा होती है। आत्मा बड़ी हो जाती है, तो उतना बड़ा। जिस दिन किसी के पास पूरे ब्रह्मांड जैसी आत्मा हो जाती है, तो ब्रह्म का सारा आनंद उस पर बरस पड़ता है। पात्रता चाहिए।
लेकिन ध्यान रहे, दुख में उलटा होता है। जब आप किसी को दुख देना चाहते हैं, तो आप और छोटे हो जाते हैं। आपने कभी दुख दिया हो, तो आपको पता चलेगा, कि एक संकोच का, फिजिकल संकोच का पता चलता है; भीतर कुछ सिकुड़ जाता है। किसी को मारें एक चांटा, तो आपको पता लगेगा कि कोई चीज भीतर सिकुड़ गई है। किसी के घाव पर मलहम-पट्टी रखें, और आपको-- फिजिकली मैं कह रहा हूं--भौतिक रूप से आपको अनुभव होगा कि भीतर कोई चीज फैल गई, समथिंग एक्सपैंडिंग। रास्ते पर गिर पड़े किसी को उठाएं और भीतर देखें, तो आपको पता लगेगा, कोई चीज बड़ी हो गई। किसी की छाती में छुरा भोंक दें, तो आपको पता लगेगा, भीतर कोई चीज एकदम छोटी हो गई। दुख जब आप दूसरे को देते हैं, तब आप एकदम सिकुड़ जाते हैं। और जितने सिकुड़ जाते हैं, तो उतना ही आनंद पाने में असमर्थ हो जाते हैं।
अब यह बड़े मजे की बात है कि आनंद के लिए बड़ा हृदय चाहिए और दुख के लिए छोटा हृदय चाहिए। दुख छोटे हृदय को पात्र बनाता है और आनंद बड़े हृदय को पात्र बनाता है। दुख चूहों जैसा है, छोटी-छोटी पोलों में प्रवेश करता है। जितना छोटा हृदय होता है, दुख उतने जल्दी प्रवेश करता है। क्योंकि जितना छोटा हृदय रहता है, उतना ही कम प्रकाशित है। वहां प्रकाश मुश्किल है पहुंचना। अंधेरा, गंदगी, वह सब वहां होगी।
और जब आप दूसरे को दुख देते चले जाते हैं, तो धीरे-धीरे हृदय सिकुड़कर पत्थर की भांति कड़ा हो जाता है। हम ऐसे ही नहीं कहते हैं भाषा में कि फलां आदमी पाषाण-हृदय है; हम ऐसे ही नहीं कहते कि पत्थर जैसा उसका हृदय है! क्यों? पत्थर जैसे हृदय में क्या बात होती है? पत्थर में बिलकुल भी जगह नहीं होती प्रवेश की। ठोस, उसमें कहीं से कोई चीज प्रवेश नहीं कर सकती। जितना हृदय पत्थर जैसा हो जाता है--और दूसरे को दुख देने में पत्थर जैसा हो ही जाता है। दूसरे को दुख देने के लिए पत्थर जैसा होना जरूरी है, अन्यथा दूसरे को दुख नहीं दे सकते। और जितने पथरीले हो जाएंगे, उतने ही आनंद को पाने की क्षमता क्षीण हो जाएगी।
दुख है क्या? आनंद को पाने की जो अक्षमता है, आनंद को पाने की जो इनकैपेसिटी है, जो अपात्रता है, वही दुख है। जितना हम कम आनंद को पा सकते हैं, उतने दुखी हो जाते हैं। और जितना हम दुख बांटते हैं, उतने दुखी होते चले जाते हैं। क्योंकि कोई दुख तो लेता नहीं, दुख लौट-लौटकर आ जाता है। हर जगह द्वार बंद मिलते हैं। और हृदय क्रोधित होता है, और दुख लौट आता है। और हृदय क्रोधित होता है, और हम बांटने जाते हैं, और दरवाजे बंद होते चले जाते हैं। आखिर में दुखी आदमी पाता है, आइलैंड बन गया, अकेला रह गया, लोनली हो गया, कोई नहीं है उसका संगी-साथी। दुख में कोई मित्र होता है? दुख में कोई संगी-साथी होता है? दुख में आप अकेले हो जाते हैं।
एक पंक्ति मुझे याद आती है बचपन में पढ़ी हुई। एक आंग्ल कवि की पंक्ति है, रोओ और तुम अकेले रोते हो, वीप एंड यू वीप एलोन; हंसो और सारा जगत तुम्हारे साथ हंसता है, लाफ एंड दि होल वर्ल्ड लाफ्स विद यू। देखें करके: रोओ और तुम अकेले रोते हो, हंसो और सारा जगत तुम्हारे साथ हंसता है।
जितना दुखी आदमी, उतना अकेला रह जाता है। जितना आनंदित आदमी, उतना ही सबके साथ एक हो जाता है। इसलिए दुख बांटा नहीं जा सकता, बांटा जाता है। आनंद बांटा जा सकता है, बांटा नहीं जाता है। आनंद जो बांटता है, उसका आनंद बढ़ जाता है। दुख जो बांटता है, उसका दुख बढ़ जाता है।


अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।। १४।।
संपूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं और अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है। और वृष्टि यज्ञ से होती है। और यह यज्ञ कर्मों से उत्पन्न होने वाला है।


इस सूत्र को समझने के लिए कुछ और बातें भी भूमिका के रूप में समझनी जरूरी हैं।
पूर्व और पश्चिम के दृष्टिकोण में एक बुनियादी फर्क है। और चूंकि आज सारी दुनिया ही पश्चिम के दृष्टिकोण से प्रभावित है--पूर्व भी--इसलिए इस सूत्र को समझना बहुत कठिन हो गया है।
पूर्व ने सदा ही प्रकृति को और मनुष्य को दुश्मन की तरह नहीं लिया, मित्र की तरह लिया। प्रकृति को हमने कहा मां, पृथ्वी को हमने कहा माता, आकाश को हमने कहा पिता। यह सिर्फ काव्य नहीं है, यह एक दृष्टि है, जिसमें हम जीवन को समग्रीभूत एक परिवार मानते हैं, इस सारे विश्व को एक परिवार मानते हैं। इसलिए हमने कभी प्रकृति को जीतने की भाषा नहीं सोची। कांकरिंग दि नेचर! पश्चिम में प्रकृति और आदमी के बीच बुनियादी शत्रुता की दृष्टि है। इसलिए वे कहते हैं, जीतना है प्रकृति को। अब मां को कोई जीतता नहीं! लेकिन पश्चिम में प्रकृति और जीवन और जगत और मनुष्य के बीच एक शत्रुता का भाव है--जीतना है, लड़ना है, हराना है।
बर्ट्रेंड रसेल की एक किताब है, कांक्वेस्ट आफ नेचर। पश्चिम का कोई दार्शनिक लिख सकता है, प्रकृति की विजय। लेकिन कोई कणाद, कोई कपिल, कोई महावीर, कोई बुद्ध, कोई कृष्ण, पूर्व का कोई भी दार्शनिक नहीं कह सकता, प्रकृति की विजय। क्योंकि हम प्रकृति के ही तो हिस्से हैं, अंश हैं। उसकी विजय हम कैसे करेंगे? वह विजय वैसा ही पागलपन है, जैसे मेरा हाथ सोचे, शरीर की विजय कर ले। पागलपन है। मेरा हाथ शरीर की विजय कैसे करेगा? मेरा हाथ मेरे शरीर का एक हिस्सा है। मेरा हाथ मेरा शरीर ही है। हाथ लड़ेगा किससे? जीतेगा किससे? जीतने की भाषा ही खतरनाक है।
लेकिन पश्चिम कांफ्लिक्ट, द्वंद्व की भाषा में सोचता है। वह सोचता है, प्रकृति और हम दुश्मन हैं। यह बड़े आश्चर्य की बात है। और इसलिए पश्चिम में अगर बेटा बाप का दुश्मन हुआ जा रहा है, तो ठीक कोरोलरी है। उसका परिणाम होने वाला है। क्योंकि प्रकृति मां है अगर, और आदमी उसका दुश्मन है, तो अपनी मां से दोस्ती कितने दिन चलेगी? उस मां से भी दुश्मनी हो ही जाने वाली है।
इस सूत्र के लिए मैं यह क्यों कह रहा हूं कि यह समझ लेना जरूरी है? यह समझ लेना इसलिए जरूरी है कि जब लोग अत्यंत सरल भाव से भरते हैं और जीवन को और अपने को तोड़कर नहीं देखते--कोई गल्फ, कोई खाई नहीं देखते--तो फिर उस स्थिति में सब कुछ परिवर्तित होता है और ढंग से।
जैसे कृष्ण कहते हैं, अन्न से बनता है मनुष्य। अन्न से बनता है मनुष्य। हम कहेंगे, अन्न से? बड़ी मैटीरियलिस्ट, बड़ी भौतिकवादी बात कहते हैं कृष्ण। और कृष्ण जैसे आध्यात्मिक व्यक्ति से ऐसी बात! फिर वह पश्चिम का दृष्टिकोण दिक्कत देता है। असल में पश्चिम कहता है कि यह सब पदार्थ है। पूर्व तो कहता ही नहीं कि पदार्थ कुछ है। पूर्व तो कहता है, सभी परमात्मा है। अन्न भी। अन्न भी पदार्थ नहीं है, वह भी जीवंत परमात्मा है।
इसलिए कृष्ण जब कहते हैं, अन्न से निर्मित होता है मनुष्य, तो कोई इस भूल में न पड़े कि वे वही कह रहे हैं जैसा कि भौतिकवादी कहता है कि बस खाना-पीना, इसी से निर्मित होता है; मिट्टी, पदार्थ, तत्व, इन्हीं से निर्मित होता है। वे यह नहीं कह रहे हैं। यहां मामला बिलकुल उलटा है। यहां वे यह कह रहे हैं कि अन्न से निर्मित होता है मनुष्य; और जब अन्न से मनुष्य निर्मित होता है, तो अन्न भी जीवंत है, जीवन है। अन्न भी पदार्थ नहीं है। और अन्न आता है वृष्टि से। वह आता है वर्षा से। वर्षा न हो, तो अन्न न हो। यहां वे जोड़ रहे हैं, जीवन और प्रकृति को गहरे में।
वे कहते हैं, अन्न आता है वर्षा से। और वर्षा कहां से आती है? अब वर्षा कहां से आती है? कृष्ण कहते हैं, यज्ञ से। वैज्ञानिक कहेगा, बेकार की बात कर रहे हैं! वर्षा और यज्ञ से? पागल हैं! वैज्ञानिक कहेगा, वर्षा! वर्षा यज्ञ से नहीं आती, वर्षा बादलों से आती है। लेकिन कृष्ण पूछना चाहेंगे कि बादल कहां से आते हैं? विज्ञान उत्तर देता चला जाएगा, समुद्र से आता है, नदी से आता है। लेकिन अंततः सवाल यह है कि क्या मनुष्य में और आकाश में चलने वाले बादलों के बीच कोई आत्मिक संबंध है या नहीं है?
कृष्ण जब कहते हैं कि वर्षा आती है यज्ञ से, तो वे यह कह रहे हैं कि वर्षा और हमारे बीच भी संबंध है। वर्षा हमारे लिए आती है; हमारी कामनाओं, हमारी आकांक्षाओं, हमारी भूख, हमारी प्यास को पूरा करने आती है। वे यह कह रहे हैं कि हमारी प्रार्थनाएं सुनकर आती है। समझने की बात सिर्फ इतनी है कि प्रकृति और मनुष्य के बीच कोई लेन-देन है, कोई कम्यूनिकेशन है या नहीं है? पश्चिम कहता है, कोई कम्यूनिकेशन नहीं है; प्रकृति बिलकुल अंधी है; उसे मनुष्य से कोई मतलब नहीं है। लेकिन ऐसा दिखाई नहीं पड़ता। वैज्ञानिक खोजों से भी दिखाई नहीं पड़ता। दो-चार उदाहरण मैं देना चाहूंगा, ताकि खयाल में बात आ सके।
शायद आपको पता न हो, जब भी युद्ध होते हैं, जब भी युद्ध होते हैं, तो युद्ध के बाद बच्चे जो पैदा होते हैं, उनमें पुरुष बच्चों की संख्या एकदम से बढ़ जाती है और स्त्री बच्चों की संख्या कम हो जाती है। बड़ी हैरानी की बात है। अब वैज्ञानिक मुश्किल में पड़ा है दो युद्धों के बाद। क्योंकि कोई अर्थ समझ में नहीं आता। युद्ध से क्या मतलब कि पुरुष ज्यादा पैदा हों कि स्त्रियां ज्यादा पैदा हों! युद्ध से क्या संबंध! लेकिन युद्ध के बाद...और आमतौर से सौ लड़कियां पैदा होती हैं, तो एक सौ सोलह लड़के पैदा होते हैं। और पंद्रह साल के होते-होते सौ लड़कियां रह जाती हैं और सौ लड़के रह जाते हैं, सोलह लड़के मर जाते हैं। लड़के का शरीर, स्त्री के शरीर से रेजिस्टेंस में कमजोर है। इसलिए लड़कियां सोलह कम पैदा होती हैं; लड़के सोलह ज्यादा पैदा होते हैं; क्योंकि विवाह की उम्र आते-आते तक बराबर संख्या रह जानी चाहिए। अगर बराबर लड़के-लड़कियां पैदा हों, तो लड़के कम पड़ जाएंगे। लेकिन युद्ध के बाद अनुपात बहुत हैरानी का हो जाता है, अनुपात एकदम बढ़ जाता है। पुरुष बहुत बड़ी संख्या में पैदा होते हैं। क्योंकि युद्ध पुरुषों को मार डालता है।
अगर प्रकृति और मनुष्य के बीच कोई बहुत आंतरिक संबंध नहीं है, तो यह घटना नहीं घटनी चाहिए। अगर आंतरिक संबंध नहीं है, तो इसकी भी कोई जरूरत नहीं है कि कितनी लड़कियां पैदा हों और कितने लड़के पैदा हों! कितने ही हों। कभी ऐसा भी हो सकता है कि किसी जमाने में पुरुष इतने ज्यादा हो जाएं कि स्त्रियां बहुत कम पड़ जाएं। कभी ऐसा हो सकता है कि स्त्रियां बहुत ज्यादा हो जाएं और पुरुष कम पड़ जाएं। लेकिन ऐसा कभी नहीं होता। जरूर स्त्री और पुरुष के पैदा होने के पीछे प्रकृति कोई हार्मनी बनाए रखती है, कोई व्यवस्था बनाए रखती है। जीवन और हम जुड़े हैं, गहरे में जुड़े हैं।
अभी एक नई साइंस है, इकोलाजी; अभी नई विकसित होती है। आज नहीं कल इकोलाजी जब बहुत विकसित हो जाएगी, तो कृष्ण का वचन पूरी तरह समझ में आ सकेगा। यह इकोलाजी नया विज्ञान है, जो पश्चिम में विकसित हो रहा है; क्योंकि वहां मुश्किल खड़ी हो गई, क्योंकि उन्होंने सारी की सारी प्रकृति को अस्तव्यस्त कर दिया है।
पिछली बार तिब्बत में एक गांव में ऐसा हुआ कि डी.डी.टी. छिड़का गया। तिब्बत के ग्रामीण, उन्होंने बहुत कहा कि मत छिड़किए, मच्छड़ चलते हैं, कोई हर्जा नहीं; हमारे साथी हैं। और हम भी हैं, वे भी हैं। और हम सदा से साथ रह रहे हैं। ऐसी कोई ज्यादा अड़चन भी नहीं है। लेकिन एक्सपर्ट तो मान नहीं सकता! तो उसने डी.डी.टी. छिड़ककर सारे मच्छड़ मार डाले। गांव के बूढ़े प्रधान ने, लामा ने कहा भी कि भई, मच्छड़ तो मर जाएंगे, वह तो ठीक है। लेकिन मच्छड़ों के साथ, उनके मरने के साथ कोई और दिक्कत तो हमें खड़ी नहीं हो जाएगी? क्योंकि वे सदा से थे और हमारे जीवन के हिस्से थे; उनके गिरने से कहीं और ईंटें तो नहीं गिर जाएंगी? लेकिन उन्होंने कहा, क्या पागलपन की बातें करते हैं!
लेकिन हुआ यही। मच्छड़ तो मरे सो मरे, बिल्लियां भी मर गईं। वह डी.डी.टी. में बिल्लियां मर गईं। बिल्लियां मर गईं, तो चूहे बढ़ गए। चूहे बढ़ गए तो मलेरिया तो गांव के बाहर हुआ, प्लेग गांव के भीतर आ गई। गांव के प्रधान लामा ने कहा कि अब बड़ी मुश्किल में हमको डाल दिया! मलेरिया फिर भी ठीक था, यह प्लेग और मुसीबत है। और फिर मलेरिया से तो हम लड़ ही लेते थे, अब यह प्लेग हमारे लिए बिलकुल नई घटना है। अब इसके लिए हम क्या करें?
तो उन्होंने कहा, ठहरो; एक्सपर्ट्स ने कहा, ठहरो, हम दूसरा पाउडर लाते हैं, जिससे हम चूहों को मार डालेंगे। लेकिन उस बूढ़े ने कहा, अब हम तुम्हारी न मानेंगे। क्योंकि पहले ही हमने तुमसे पूछा था कि मच्छड़ मर जाएं, तो कोई और दिक्कत तो न आएगी! लेकिन तुमने कहा, कोई दिक्कत न आएगी। अब हम तुमसे पूछते हैं कि अगर चूहे मर जाएं और प्लेग गांव के बाहर हो, कोई महाप्लेग गांव के भीतर आ जाए, तो जिम्मेदार कौन होगा? और अब हम तुम पर भरोसा नहीं कर सकते।
उस एक्सपर्ट ने कहा, फिर तुम क्या करोगे? तो उस बूढ़े आदमी ने कहा, हम पुरानी व्यवस्था फिर से निर्मित कर देंगे। कैसे करोगे? तो उसने आस-पास के गांवों से बिल्लियां उधार बुलवाईं और गांव में छोड़ीं। बिल्लियां आईं, चूहे कम हुए, मच्छड़ वापस लौट आए।
इकोलाजी का मतलब है, जिंदगी एक परिवार है, उस परिवार में सब चीजें जुड़ी हैं; सब संयुक्त है, एक ज्वाइंट फैमिली है। सड़क के किनारे पड़ा हुआ पत्थर भी आपकी जिंदगी का हिस्सा है। अब सारी दुनिया में हमने वृक्ष काट डाले। जब हमने वृक्ष काट डाले, तब हमको पता चला कि हम मुश्किल में पड़ गए। क्योंकि वृक्ष कट गए, तो बादल अब वर्षा नहीं करते। लेकिन हमें पहले पता नहीं था कि वृक्ष काटने से बादल वर्षा नहीं करेंगे। हमने कहा, क्या करना है! जमीन साफ करो। लेकिन वे वृक्ष बादलों को निमंत्रित करते थे। अब वे वृक्ष निमंत्रण नहीं भेजते बादलों को। अब बादल चले जाते हैं, उनको कोई रोकता नहीं।
अभी हमने जब चांद पर पहली दफा अपना अंतरिक्ष यान भेजा, तो हमें पता नहीं कि हमने क्या-क्या किया है। वह पता चलने में शायद पचास वर्ष लगेंगे। क्योंकि पृथ्वी के दो सौ मील के बाद, जहां हवा समाप्त होती है, वहां एक बड़ी पर्त--अनेक-अनेक गैसेस की बनी हुई पर्त, जो सदा से पृथ्वी को घेरे हुए है--उसकी एक मोटी पर्त, एक दीवार की तरह मोटी पर्त पूरी पृथ्वी को घेरे हुए है। उस पर्त के कारण सूरज की वही किरणें पृथ्वी तक आ पाती हैं, जो जीवन के लिए हितकर हैं। और वे किरणें बाहर रह जाती हैं, जो हितकर नहीं हैं। लेकिन अब वैज्ञानिकों को पता चला है कि जितने हमने अंतरिक्ष यान भेजे हैं, जहां-जहां से हमने भेजे हैं, वहां-वहां विंडोज पैदा हो गई हैं। जहां-जहां से वह पर्त तोड़कर यान गया है, वहां खिड़कियां पैदा हो गई हैं। उन खिड़कियों से सूरज की वे किरणें भी भीतर आने लगीं, जो कि जीवन के लिए अत्यंत खतरनाक हैं।
कृष्ण यह कह रहे हैं इस छोटे-से सूत्र में कि जीवन एक संयुक्त घटना है। आकाश में बादल भी चलता है, तो वह भी हमारे प्राणों की धड़कन से जुड़ा है। सूरज भी चलता है, तो वह भी हमारे हृदय के किसी हिस्से से संयुक्त है। अभी सूरज ठंडा हो जाए, तो हम यहीं सब ठंडे हो जाएंगे। दस करोड़ मील दूर है सूरज। हमको पता ही नहीं चलेगा कि कब ठंडा हो गया। क्योंकि वहां से कोई अखबार भी नहीं निकलता! वहां से कोई सूचना भी नहीं आएगी। पर हमको यह भी पता नहीं चलेगा कि वह ठंडा हो गया, क्योंकि उसके ठंडे होने के ठीक आठ मिनट बाद हम भी ठंडे हो जाएंगे। ठीक आठ मिनट बाद। आठ मिनट बाद--इसलिए इतनी देर लगेगी--कि आठ मिनट तक उसकी पुरानी किरणें हमारे काम आती रहेंगी, जो चल चुकी हैं उसके ठंडे होने के पहले। आठ मिनट बाद हम ठंडे हो जाएंगे।
इससे उलटा भी सच है। अगर सूरज से हम जुड़े हैं और अगर सूरज के बिना हम ठंडे हो जाएंगे, तब दूसरी बात आपसे कहता हूं--जो इस मुल्क ने अकेले हिम्मत की है कहने की--वह यह है कि अगर हम भी ठंडे हो जाएं, तो सूरज भी कुछ गवां देगा। अब यह जरा कठिन पड़ता है समझना। लेकिन यह भी समझ में आ सकेगा। अगर जीवन इंटररिलेटेड है, अगर पति के मरने से पत्नी में कुछ कम हो जाता है, तो पत्नी के मरने से पति में भी कुछ कम होगा। अगर सूरज के मिटने से पृथ्वी ठंडी हो जाती है, तो पृथ्वी के ठंडे होने से सूरज में भी कुछ टूटेगा और बिखरेगा। जीवन संयुक्त है, जुड़ा हुआ है।
तो जब कृष्ण कहते हैं, अन्न से बनता है मनुष्य, तो वे यह कह रहे हैं कि पदार्थ और चेतना में कोई बुनियादी भेद नहीं है, दोनों एक ही चीज हैं। पदार्थ से ही बनती है आत्मा। इसका मतलब सिर्फ इतना है कि पदार्थ भी पदार्थ नहीं है। वह भी छिपी हुई, लेटेंट आत्मा है। वह भी गुप्त आत्मा है। आप अन्न खाते हैं, वह खून बनता है, हड्डियां बनता है, चेतना बनता है, होश बनता है, बुद्धि बनता है। निश्चित ही जो अन्न बनता है, वह उसमें छिपा है। वह भी जीवन है। कहना चाहिए, वह भी बिल्ट इन जीवन है उसके भीतर, जो आपमें आकर फैल जाता और खिल जाता है।
अन्न आता है वर्षा से, वर्षा आती है यज्ञ से। क्यों? यज्ञ का यहां क्या अर्थ है?
यहां कृष्ण यह कह रहे हैं कि जब मनुष्य अच्छे काम करता है और जब मनुष्य परमात्मा पर समर्पित होकर जीता है, तो परमात्मा उसकी फिक्र करता है सब तरफ से। पूरी प्रकृति उसकी चिंता करती है सब तरफ से। बादल वर्षा डालते हैं, वृक्ष फलों से भर जाते हैं, नदियां बहती हैं, सूरज चमकता है, जीवन में एक मौज और एक खुशी और एक रंग और एक सुगंध होती है। और जब आदमी बुरा होना शुरू होता है और आदमी जब अहंकार से भरता है और आदमी कहने लगता है, मैं ही सब कुछ हूं, कोई परमात्मा नहीं, तब जीवन सब तरफ से विकृत होना शुरू हो जाता है।
यज्ञ का अर्थ है, परमात्मा को समर्पित लोग, परमात्मा को समर्पित कर्मी जीवन को ऐसा सामंजस्य, ऐसी हार्मनी देते हैं कि सारी प्रकृति उनके लिए अपना सब कुछ लुटाने को तैयार हो जाती है। अब इसको भी मैं एक छोटा-सा उदाहरण देकर आपके खयाल में लाना चाहूं, तो आए, शायद आ जाए।
आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में एक छोटी-सी प्रयोगशाला है, डिलाबार। वहां वे कुछ बहुत गहरे प्रयोग कर रहे हैं। उसमें से एक प्रयोग मैं आपको याद दिलाना चाहता हूं। वह प्रयोग है कि उन्होंने दो क्यारियों में बीज बोए। एक-से बीज, एक-सी खाद, एक-सी क्यारी, एक-सा सूरज का रुख। लेकिन एक क्यारी के ऊपर उन्होंने पॉप म्यूजिक बजाया। पॉप म्यूजिक, जो आज सारी दुनिया की नई जेनरेशन का संगीत है। संगीत कम है, विसंगीत ज्यादा है। लेकिन उसका नाम तो संगीत ही है। तो पॉप म्यूजिक बजाया रोज एक घंटे। और दूसरी क्यारी पर क्लासिकल, शास्त्रीय संगीत बजाया-- बिथोवन, मोझर्ट, वेजनर--इनका संगीत बजाया। शास्त्रीय संगीत, जो कि सही अर्थों में स्वरों का संगम और सामंजस्य है। बड़ी हैरानी का अनुभव हुआ। और यह प्रयोग वैज्ञानिकों के द्वारा किया गया।
जिस क्यारी पर पॉप म्यूजिक बजाया गया, उस क्यारी के बीजों ने फूटने से इनकार कर दिया। और जिस क्यारी पर शास्त्रीय संगीत बजाया गया, उसके बीज जल्दी फूट गए, समय के पहले। बामुश्किल पॉप वाली क्यारी के बीज टूटे भी, तो उनमें जो अंकुर आए, अर्द्धमृत, पहले से ही मरे हुए। उनमें फूल तो लग ही नहीं सके। और शास्त्रीय संगीत वाली क्यारी पर, जैसे फूल साधारणतः उन बीजों से आने चाहिए थे, उससे डेढ़ गुने बड़े फूल आए और डेढ़ गुने ज्यादा बड़ी संख्या में आए।
अब डिलाबार लेबोरेटरी के वैज्ञानिकों का कहना है कि संगीत की जो तरंगें पैदा हुईं, उन्होंने अंतर पैदा किया है। क्या संगीत से जब तरंगें पैदा होती हैं, तो आदमियों के कर्मों से तरंगें पैदा नहीं होती हैं? और अगर संगीत से तरंगें पैदा होती हैं, तो क्या आदमी की चेतना, चित्त की अवस्थाओं से तरंगें पैदा नहीं होती हैं? क्या अहंकार से भरा हुआ आदमी अपने चारों तरफ विसंगीत नहीं फैलाता है? क्या अहंकार से शून्य, विनम्र आदमी अपने चारों ओर शास्त्रीय संगीत को नहीं फैलाता है?
कृष्ण जब कह रहे हैं, यज्ञ से होती है वर्षा, तो वे यह कह रहे हैं कि जब निरहंकारी लोग इस पृथ्वी पर जीते हैं, तो सारा जीवन उनके लिए सब कुछ करने के लिए तैयार हो जाता है। बादल भी वर्षा करते हैं, पौधे भी अन्न से भर जाते हैं, अन्न भी प्राण को लेकर आता है। और जब व्यक्ति गलत तरंगें अपने चारों ओर फैलाने लगते हैं...।
और यह भी मैं आपको कहना चाहूं कि आप कहेंगे कि संगीत से व्यक्ति की तरंगों का क्या संबंध? व्यक्ति से कोई तरंगें उठती हैं? तो आपमें से बहुतों को निरंतर अनुभव हुआ होगा कि जब आप किसी एक व्यक्ति के पास जाते हैं, तो अचानक रिपल्सिव मालूम होता है कि हट जाएं; जैसे कि कोई चीज आपको धक्का देती है। किसी के पास जाते हैं, तो लगता है कि आलिंगन भर लें, कोई जैसे पास बुलाता है; कोई चीज खींचती है, अट्रैक्ट करती है।
लेकिन ये तो खैर मनोभाव हैं, हो सकता है, कल्पना हो। फ्रांस के एक वैज्ञानिक ने एक यंत्र विकसित किया है, जो यंत्र बताता है कि व्यक्ति से जो तरंगें निकल रही हैं, वे रिपल्सिव हैं या अट्रैक्टिव हैं। उस यंत्र के पास, जैसे आप वजन तौलने की मशीन पर खड़े होते हैं और कांटा घूमकर बताता है, ऐसा ही उस मशीन के सामने खड़े हो जाते हैं और कांटा घूमकर बताना शुरू कर देता है कि इस व्यक्ति से जो किरणें निकल रही हैं, वे लोगों को दूर हटाने वाली होंगी कि पास खींचने वाली होंगी।
आज नहीं कल, जब हम मनुष्य के जीवन में और थोड़ी गहराई से समझ पाएंगे, तो हमें इन सत्यों का पता चलेगा। और अगर आज वर्षा खो गई है, और आज अगर अन्न खो गया है, और आज अगर सब कुछ खो गया है, और सब दुर्दिन और दुख से भर गया है, तो उसका कुल कारण इतना ही नहीं है, कुल कारण इतना ही नहीं है कि संख्या बढ़ गई है; उसका कुल कारण इतना ही नहीं है कि पृथ्वी की पैदा करने की क्षमता कम हो गई है; उसका कुल कारण इतना ही नहीं है कि हम वैज्ञानिक खाद नहीं डाल पा रहे हैं। नहीं, उसके और गहरे कारण भी हैं। मनुष्य से जो तरंगें निकलती थीं और सारी प्रकृति से उन तरंगों का जो तालमेल था, वह टूट गया है; जो इनर हार्मनी थी, वह टूट गई है। मनुष्य ने अपने हाथ से ही सब तालमेल तोड़ डाला है। वह अकेला खड़ा हो गया है दुश्मन की तरह। न बादलों से कोई दोस्ती है, न नदियों से कोई प्रेम है।
वे लोग आज हमें पागल ही मालूम पड़ते हैं, जो किसी नदी को नमस्कार करते हैं। पागल हैं; नदी को और नमस्कार कर रहे हैं! ऐसे तो पागलपन लगता ही है कि नदी को नमस्कार कर रहे हैं। लेकिन जिन लोगों ने पहली बार नदी को नमस्कार किया था, उनके भाव का आपको कुछ खयाल है? जिन्होंने पहली बार नदी के चरणों में सिर रखा था, उनके भाव का कुछ खयाल है? जरूर उन्होंने नदी से एक मैत्री, एक हार्मनी का अनुभव किया था। जो पहाड़ों पर चढ़कर नमस्कार करने गए थे, उनके भाव का कोई खयाल है? लेकिन आज की दुनिया में भाव सिर्फ बिना भाव की चीज है; उसका कोई भाव नहीं रह गया है, उसका कोई मूल्य ही नहीं है। उसका कोई मूल्य ही नहीं है। भावपूर्ण होना मूर्खतापूर्ण होना हो गया है। इससे बड़ी हालांकि मूर्खता नहीं हो सकती है।
यह जो कृष्ण कह रहे हैं, यज्ञपूर्ण कर्मों से, यज्ञपूर्ण प्रार्थनाओं से...। तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप आग जलाकर, उसमें गेहूं डालकर वर्षा कर लेंगे। यह मैं नहीं कह रहा हूं। आग जलाकर, गेहूं डालकर आप वर्षा कर लेंगे, यह मैं नहीं कह रहा हूं। मैं उससे कहीं ज्यादा गहरी बात कह रहा हूं। मैं आपसे यह कह रहा हूं कि यह तभी संभव हो पाएगा, जब प्रकृति और मनुष्य दुश्मन की तरह नहीं, मित्रों की तरह, प्रेमियों की तरह, एक ही चीज के हिस्से की तरह जीते हैं। तब हमारा पूरा जीवन यज्ञ हो जाता है। और उस क्षण में अगर हम आग जलाकर भी बादलों से बात करते हैं, तो उसका कोई अर्थ होता है। आज नहीं हो सकता। उस दिन जब इतने भाव से भरकर अगर हम यज्ञ की वेदी बनाते हैं और उसके चारों तरफ नाचकर बादलों से प्रार्थना करते हैं...। लेकिन आज नहीं हो सकता।
मैंने सुना है, एक गांव में बहुत दिनों से वर्षा नहीं हुई है। गांव के बाहर यज्ञ हो रहा है। सारे गांव के लोग प्रार्थना करने जा रहे हैं। एक छोटा बच्चा छाता लगाकर निकल आया घर से, बगल में छाता दबाकर। लोगों ने, बड़े-बूढ़ों ने कहा, पागल! छाता घर फेंककर आ। वर्षा तो हो नहीं रही है दो साल से, छाते का क्या करेगा? तो उसने कहा कि आप सब लोग यज्ञ में जा रहे हैं, मैंने सोचा कि आपको भरोसा होगा कि आपकी प्रार्थना सुनी जाएगी। इसलिए मैं छाता लेकर चल रहा हूं।
आपको ही भरोसा नहीं है, तो जलाओ आग, डालो गेहूं उसमें। और जो पास में है, वह और खराब करो। उससे कुछ होने वाला नहीं है।
वह एक छोटा बच्चा भर उस गांव में यज्ञ करने का अधिकारी था; बाकी सब पूरा गांव अधिकारी नहीं था। और यह बच्चा अगर सच में ही...। लेकिन घर के बड़े-बूढ़ों ने डांटा-डपटा और छाता रखवा दिया कि रख छाता, पागल कहीं का। कोई छीन ले, छुड़ा ले, भीड़-भाड़ में टूट जाए। पानी दो साल से नहीं गिर रहा है। गिर गया ऐसे पानी! यह एक ही बच्चा यज्ञ का अधिकारी हो सकता था। और यह एक बच्चा भी अगर पूरे प्राणों से प्रार्थना करे, तो बादल भी आ सकते हैं। क्योंकि हम सब जुड़े हैं। हम इतने अलग नहीं हैं, जितने बादल और हम दिखाई पड़ते हैं।
इस जगत में कुछ भी अलग-अलग नहीं है, सब संयुक्त है। इस जगत में दूर से दूर का तारा भी मेरे हाथों से जुड़ा है। दूर से दूर का तारा भी आपके हाथों से जुड़ा है। अनंत-अनंत दूरी पर जो है, वह भी मेरे शब्दों की ध्वनि से प्रतिध्वनित होता है। अनंत दूरी पर जो है, वह भी मेरे हृदय की झंकार से झंकृत होता है, मेरा हृदय भी उसकी झंकार से झंकृत होता है। जीवन एक इकोलाजी है, एक परिवार है। इस बात को खयाल में रखें, तो कृष्ण का वह सूत्र समझ में आ सकता है।
एक श्लोक और ले लें।


प्रश्न: भगवान श्री, एक छोटा-सा सवाल है। कुछ दिन पहले गुजरात में कोटिचंडी यज्ञ को आपने मूर्खतापूर्ण बताया था। इस पर दो शब्द कहें कि उसके क्या कारण थे?


वह तो मैं अभी भी कह रहा हूं। आपके कोई कोटिचंडी यज्ञ काम के नहीं हैं। क्योंकि यज्ञ करने के पीछे जो भाव, जो मनःस्थिति, जो मनुष्य चाहिए, वह मौजूद नहीं है। रिचुअल है--मुरदा, मरा हुआ। इसमें कोई अर्थ नहीं है। यज्ञ न भी करें, वह आदमी वापस लौटा लें, जो यज्ञ का अधिकारी है, तो बिना कोटिचंडी यज्ञ किए वर्षा शुरू हो सकती है। सवाल असल में कृत्य का नहीं है, सवाल गहरे में भाव का है। आप क्या करते हैं, यह सवाल नहीं है। वह करने वाला चित्त कौन है, उसका सवाल है। वह तो नहीं है। वह तो बिलकुल नहीं है।
वे जो वहां यज्ञ की वेदी पर जो इकट्ठे हुए हैं, उनका चित्त प्रार्थनापूर्ण जरा भी नहीं है। जब यज्ञ पूरा हो जाए, तब जिन ब्राह्मणों ने यज्ञ करवाया उनके झगड़े देखिए जाकर! किसी को फीस कम मिली, किसी को दक्षिणा कम मिली; कोई नीचे बैठ गया, कोई ऊपर बैठ गया। इन लोगों ने यज्ञ करवाया है! कोई दस रुपए की फीस पर आया है रोज, कोई पंद्रह रुपए की फीस पर आया है रोज। इनके द्वारा आप बादलों तक संदेश पहुंचाएंगे?
एक मित्र हैं मेरे। कुछ दिन हुए मिलने आए थे। पूरी जिंदगी उन्होंने जैन साधु-साध्वियों को शिक्षण देने में बिताई। साधु- साध्वियों को धर्म की शिक्षा देते पूरी जिंदगी बीत गई। न मालूम कितने साधु-साध्वी उन्होंने ट्रेंड किए। मैंने उनसे पूछा कि जिंदगी हो गई, आप अब तक साधु नहीं बने? उन्होंने कहा कि मेरा काम तो सिर्फ साधु-साध्वियों को शिक्षा देने का है। सिखाते क्या हैं? सिखाते हैं साधु होना। कि साधु ठीक से कैसे होना! साधु के नियम क्या! साधु की साधना क्या! मैंने कहा, चालीस वर्ष तक दूसरों को सिखाने के बाद भी अभी तक आपको ऐसा नहीं लगा कि आप साधु हो जाएं, तो जिनको आपने सिखाया उनको लगा होगा? कैसे लगेगा? कभी नहीं लगने वाला है।
अब भी कहता हूं, आपके कोटिचंडी यज्ञ नहीं कोई काम करेंगे, क्योंकि यज्ञ करने वाली चेतना नहीं है। वह होनी चाहिए। वही है अर्थपूर्ण। और वह हो, तो पूरा जीवन ही यज्ञ हो जाता है। और वह हो, तो ये यज्ञ जो आप करते हैं, ये भी सार्थक हो सकते हैं। मैं निरंतर इनके खिलाफ बोलता हूं। कई लोगों को भ्रम पैदा हो जाता है कि शायद मैं यज्ञ के खिलाफ हूं। मैं, और यज्ञ के खिलाफ कैसे हो सकता हूं? लेकिन जिसे आप यज्ञ कह रहे हैं, वह यज्ञ ही नहीं है। वह सिर्फ पाखंड है, दिखावा है, धोखा है, व्यर्थ का जाल है। कभी सार्थक रहा होगा। लेकिन जिन लोगों की वजह से वह सार्थक था, वे लोग अब नहीं हैं। उन लोगों को पैदा करें, फिर सार्थक हो सकता है।
मैंने एक छोटी-सी कहानी सुनी है। मैंने सुना है, एक घर में छोटे बच्चे थे। बाप बूढ़ा था। बच्चे छोटे ही थे, तभी बाप मर गया। लेकिन बच्चों ने देखा था कि बाप खाना खाने के बाद, उठकर चौके में से, दीवार पर जाता था। दीवार पर एक आला था। उस आले में कुछ उठाता, कुछ करता था। बच्चे बड़े हुए, तो उन्होंने उस आले को सम्हालकर रखा। बाप कुछ करता नहीं था विशेष। आले में उसने एक सींक रख छोड़ी थी दांत साफ करने के लिए। लड़के बड़े हुए और उन्होंने देखा था कि बाप खाना खाने के बाद रोज आले पर जाता था। अब बाप की याद में वे भी जाने लगे। उनको पता तो नहीं था कि सींक वहां रखी है, उससे दांत साफ करने। अभी उनके दांत भी इस योग्य न थे कि उन्हें साफ करने की जरूरत पड़े। तो उन्होंने सोचा, करना क्या वहां जाकर, तो वे नमस्कार कर लेते थे।
फिर बड़े हुए। फिर उन्हें बड़ा ऐसा लगा कि नमस्कार तो करते हैं, आले में कुछ है तो नहीं, सिर्फ एक सींक रखी है। पर उन्होंने सोचा कि बाप गरीब था, पैसे लड़कों ने काफी कमाए, तो उन्होंने सोचा कि हटाओ इस सींक को। उन्होंने एक चंदन की लकड़ी खुदवाकर रख ली। जब लकड़ी ही रखनी है, तो इस सींक को क्या रखना, चंदन की लकड़ी खुदवाकर रख ली।
फिर और पैसा कमाया, और बड़े हुए। फिर नया मकान बनाया, तो उन्होंने कहा, वह आला तो बनाना ही पड़ेगा। तो उन्होंने कहा, अब आला क्या बनाना, एक छोटा मंदिर ही बना लो। मंदिर बना लो। चंदन की लकड़ी छोटी पड़ी, मंदिर बड़ा हो गया, तो उन्होंने कहा, एक बड़ा स्तंभ ही बना लो। तो उन्होंने एक सोने का स्तंभ मंदिर के बीच में बनाकर रख दिया। रोज खाना खाकर उसको नमस्कार करके अपने काम पर चले जाते।
मैंने सुना है, अब भी उनके घर में वही हो रहा है। आपके घर में भी वही हो रहा है। सभी घरों में वही हो रहा है। कभी जो बातें सार्थक होती हैं, जब वे व्यक्तित्व खो जाते हैं और बोध खो जाते हैं उनके पीछे से, उनकी प्रक्रिया खो जाती है, तब कोरे रिचुअल, डेड रिचुअल, मरे हुए क्रियाकांड शेष रह जाते हैं। फिर हम उनको करते चले जाते हैं। और अगर उन क्रियाकांडों से कुछ नहीं होता, तो भी हम सजग नहीं होते। तो भी हम सजग नहीं होते कि बहुत मूल बात व्यक्तित्व, मनुष्य की चेतना है। वह चेतना वापस हो, तो यज्ञ आज भी संभव है।
लेकिन हम चेतना वापस लौटाने के लिए उत्सुक नहीं हैं, क्योंकि चेतना को वापस लौटाना कठिन काम है। हम यज्ञ करने को बिलकुल तैयार हैं कि ले जाओ दस रुपया, कर डालो। इसमें कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है। बहुत से बहुत दस रुपए का नुकसान होगा, करो। यज्ञ करने में उत्सुक हैं, यज्ञ की चेतना में हम उत्सुक नहीं हैं। मेरा जोर इस पर है कि वह यज्ञ करने वाली चेतना हो, तो सारा जीवन ही यज्ञ हो जाता है। फिर यह जो यज्ञ की वेदी बनती है, उस पर जो होता है, उसकी भी सार्थकता हो सकती है। वह हमेशा करने वाले आदमी पर निर्भर है, वह कभी भी की जाने वाली क्रिया पर निर्भर नहीं।


कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माऽक्षर समुद्भवम्।
तस्मात् सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।। १५।।
तथा उस कर्म को तू वेद से उत्पन्न हुआ जान और वेद अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ है। इससे सर्वव्यापी ब्रह्म सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है।


ऐसे कर्म को तू वेद से उत्पन्न हुआ जान। कृष्ण अर्जुन को कहते हैं, ऐसे कर्म को तू वेद से उत्पन्न हुआ जान। वेद शब्द का अर्थ होता है, ज्ञान। वेद शब्द का अर्थ सिर्फ वेद के नाम से चलती हुई संहिताएं नहीं है। जिस दिन हमने यह नासमझी की कि हमने वेद को सीमित किया संहिताओं पर, चार वेद पर वेद को सीमित किया, उसी दिन भारत के भाग्य में बड़ी से बड़ी दुर्घटना हो गई। वेद है ज्ञान। और ज्ञान सतत गतिमान है, डायनेमिक है, स्टैटिक नहीं है। करोड़ों संहिताओं में भी पूरा नहीं होता ज्ञान। अरबों संहिताओं में भी पूरा नहीं होता ज्ञान। संहिताएं सब चुक जाएंगी, तो भी ज्ञान नहीं चुकता, वह अनंत है। ऐसे ज्ञान से उत्पन्न हुआ जान।
दो तरह के कर्म हैं। एक अज्ञान से उत्पन्न हुआ कर्म, जो हम करते हैं। एक ज्ञान से उत्पन्न हुआ कर्म, जिसकी कृष्ण सूचना कर रहे हैं। अज्ञान से उत्पन्न हुआ कर्म, कौन-सा कर्म है? अज्ञान से उत्पन्न हुआ कर्म वह कर्म है, जिसमें कर्ता और अहंकार मौजूद है। जिसमें हम कहते हैं, मैं कर रहा हूं, वह अज्ञान से उत्पन्न हुआ कर्म है। जिसमें मैं कहता हूं, परमात्मा कर रहा है, वह ज्ञान से उत्पन्न हुआ कर्म है। उसमें अहंकार नहीं है। यह भी समझ लें कि अहंकार और अज्ञान संयुक्त घटना है। जहां अज्ञान है, वहीं अहंकार हो सकता है। और जहां अहंकार है, वहीं अज्ञान हो सकता है। ये दोनों अलग-अलग नहीं हो सकते। ऐसा नहीं हो सकता कि अहंकार चला जाए और अज्ञान रह जाए। और ऐसा भी नहीं हो सकता कि अज्ञान चला जाए और अहंकार रह जाए। अज्ञान और अहंकार संयुक्त घटना है। ज्ञान और निरहंकार संयुक्त घटना है।
तो कृष्ण जो कह रहे हैं कि यह ज्ञान से उत्पन्न हुआ कर्म है, यज्ञरूपी कर्म, ज्ञान से उत्पन्न हुआ कर्म है। और ज्ञान परमात्मा से उत्पन्न होता है।
जो हम यह कहते हैं कि वेद परमात्मा ने रचे, यह सिम्बालिक है। कोई किताब परमात्मा नहीं रचता; रच नहीं सकता। रचने का कोई कारण नहीं है। कोई किताब परमात्मा नहीं रचता, लेकिन परमात्मा बहुत-सी चेतनाओं में उतरता है, ज्ञान बनता है। जो चेतनाएं भी अपने अहंकार को विदा करने में समर्थ हैं, परमात्मा उनमें उतर आता है। हां, वे चेतनाएं किताब लिखती हैं। इसलिए उन चेतनाओं के द्वारा लिखी गई किताब को अगर हम परमात्मा के द्वारा लिखी हुई किताब कहें, तो एक अर्थ में सही है। इसी अर्थ में सही है कि उन्होंने वही लिखा है, जो परमात्मा ने उनके भीतर उतरकर उन्हें जनाया। अपौरुषेय हैं। वे किताबों के दावेदार, लिखने वाले यह नहीं कह रहे हैं कि हम इनके लेखक हैं। वे इतना कह रहे हैं कि हम सिर्फ मीडियम हैं, माध्यम हैं; लेखक परमात्मा ही है। लेकिन जब भी किसी व्यक्ति के भीतर ज्ञान उतरता है, तो वह परमात्मा से उतरता है। ज्ञान परमात्मा का स्वभाव है, प्रकाश की भांति। अंधेरा अहंकार का स्वभाव है।
हम अहंकार से भरे हों, तो जीवन में जो भी कर्म होता है, वह कर्म अज्ञान से ही निकला हुआ कर्म है। और अज्ञान से निकले हुए कर्म की पहचान और परख क्या है? जिस कर्म से बंधन पैदा हो, जिस कर्म से दुख पैदा हो, जिस कर्म से संताप पैदा हो, जिस कर्म से पीड़ा पैदा हो, वह कर्म अज्ञान से निकला हुआ जानना। वह उसका लक्षण है। जिस कर्म से बंधन पैदा न हो, जिस कर्म से आनंद पैदा हो; जिस कर्म से चिंता न आए, निश्चिंतता आए; जिस कर्म में गुलामी न हो, मुक्ति हो, उस कर्म को ज्ञान से निकला हुआ कर्म जानना। और ज्ञान से वह तभी निकलेगा, जब अहंकार भीतर न हो। और जब अहंकार नहीं है, तो परमात्मा है।
अहंकार की अनुपस्थिति परमात्मा की उपस्थिति बन जाती है। जिस दिन हम मिटते हैं, उसी दिन परमात्मा हमारे भीतर प्रकट हो जाता है। जब तक हम मजबूती से बने रहते हैं, तब तक परमात्मा को जगह ही नहीं मिलती हमारे भीतर प्रवेश की।
मैं एक छोटी-सी कहानी आपसे कहूं, फिर हम अपनी बात पूरी करें। सुना है मैंने, एक झेन फकीर हुआ, बांकेई। टोकियो युनिवर्सिटी का एक प्रोफेसर उससे मिलने गया; दर्शनशास्त्र का अध्यापक था। बांकेई का नाम सुना और सुना कि सत्य उसे पता चल गया है, तो पता लगाने गया। जाकर बैठा। दोपहर थी, थका था, पहाड़ चढ़ा था, झोपड़े तक बांकेई के आते-आते पसीना झर रहा था। बैठते ही उसने पूछा कि मैं जानने आया हूं, व्हाट इज़ ट्रुथ? सत्य क्या है? मैं जानने आया हूं, परमात्मा क्या है? व्हाट इज़ गॉड? मैं जानने आया हूं, धर्म क्या है? व्हाट इज़ रिलीजन?
बांकेई ने कहा, जरा धीरे, और जरा आहिस्ता। जरा बैठ जाएं, पसीना बहुत ज्यादा है माथे पर, थक गए हैं; श्वास चढ़ी है, जल्दी न करें। मैं एक कप बना लाऊं चाय का। चाय ले लें, थोड़ा विश्राम कर लें, फिर हम बात करें। और यह भी हो सकता है कि बात करने की जरूरत न पड़े, चाय पीने से ही आप जो पूछने आए हैं, उसका उत्तर भी मिल जाए।
प्रोफेसर ठनका, सोचा कि नाहक मेहनत की पहाड़ चढ़ने की। पागल है यह आदमी। कह रहा है, चाय पीने से और उत्तर मिल जाए! कोई मैंने ऐसा सवाल पूछा है कि चाय पीने से उत्तर मिल जाए? तो चाय तो हम घर ही पी लेते। घर पीते ही हैं। तो इस पहाड़ पर, इस दुपहरी में, इस श्रम को करने की जरूरत थी! निढाल होकर बैठ गया। लेकिन सोचा, अब चाय तो पी ही लें और तो कोई आशा नहीं है। चाय पीकर वापस लौट जाएं।
वह बांकेई भीतर से चाय बनाकर लाया। उसने प्रोफेसर के हाथ में कप और प्याली दी। केतली से चाय ढाली। भीतर का बर्तन पूरा भर गया, फिर भी वह चाय ढालता गया। फिर तो नीचे का बर्तन भी पूरा भर गया, फिर भी वह चाय ढालता गया। वह प्रोफेसर चिल्लाया कि रुकिए! मैं तो पहले ही समझ गया कि आपका दिमाग ठीक नहीं मालूम होता। यह चाय नीचे गिर जाएगी, अब एक बूंद चाय रखने की जगह प्याली में नहीं है!
बांकेई ने कहा, यही मैं आपसे कहना चाहता था। सत्य, परमात्मा, धर्म--एक बूंद भी जगह तुम्हारे भीतर रखने के लिए है? इतने-इतने बड़े लोगों को मेहमान बनाना चाहोगे--सत्य, परमात्मा, धर्म! जगह है? स्पेस है भीतर? लेकिन प्याली में एक बूंद जगह नहीं है, तुम्हें दिखाई पड़ता है! और तुम्हारे मन की प्याली में भी एक बूंद जगह नहीं है, यह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता! जाओ, जगह बनाकर आओ।
घबड़ाहट में प्रोफेसर चाय भी न पी सका। घबड़ाकर उठ गया। बात तो ठीक मालूम पड़ी। जाने लगा, सीढ़ियां उतरने लगा। सीढ़ियों पर से उसने कहा कि अच्छा, तो जब खाली कर लूंगा, तो आऊंगा। तो बांकेई खिलखिलाकर हंसने लगा। उसने कहा, पागल, जब तू खाली कर लेगा, तो परमात्मा खुद वहां आ जाएगा। तुझे यहां आने की कोई जरूरत नहीं है।
जहां अहंकार मिटा, जहां भीतर जगह खाली हुई, इनर स्पेस, वहीं ज्ञान उतर आता है, वहीं प्रभु उतर आता है।
यज्ञरूपी कर्म जो करता है, उसके भीतर ज्ञान से कर्म विकसित होते, निकलते। और ज्ञान से निकला हुआ कर्म मुक्तिदायी है।
शेष कल बात करेंगे।


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