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सोमवार, 2 अक्टूबर 2017

गीता दर्शन-(भाग-02)-प्रवचन-020



 गीता दर्शन-भाग-(02) प्रवचन-020

अध्याय ३
दूसरा प्रवचन
कर्ता का भ्रम

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म प्रकृतिजैर्गुणैः।। ५।।
सर्वथा कर्मों का स्वरूप से त्याग हो भी नहीं सकता है, क्योंकि कोई भी पुरुष किसी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता है। निःसंदेह सभी पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए गुणों द्वारा परवश हुए कर्म करते हैं।

जीवन ही कर्म है। मृत्यु कर्म का अभाव है। जन्म कर्म का प्रारंभ है, मृत्यु कर्म का अंत है। जीवन में कर्म को रोकना असंभव है। ठीक से समझें, तो जीवन और कर्म पर्यायवाची हैं। एक ही अर्थ है उनका। इसलिए जीते-जी कर्म चलेगा ही। इस संबंध में मनुष्य की कोई स्वतंत्रता नहीं है।
सार्त्र ने अपने एक बहुत प्रसिद्ध वचन में कहा है, मैन इज कंडेम्ड टु बी फ्री--आदमी स्वतंत्र होने के लिए परवश है। लेकिन सार्त्र को शायद पता नहीं है कि आदमी कुछ बातों में परतंत्र होने के लिए भी परवश है, जैसे कर्म।
कर्म के संबंध में जीते-जी छुटकारा असंभव है। जीने की प्रत्येक क्रिया कर्म है। श्वास भी लूंगा, तो भी कर्म होगा। उठूंगा तो भी, बैठूंगा तो भी कर्म होगा। जीना कर्म की प्रोसेस, कर्म की प्रक्रिया का ही नाम है।

इसलिए जो लोग सोचते हैं कि जीते-जी कर्मत्याग कर दें, वे सिर्फ असंभव बातें सोच रहे हैं। वह संभव नहीं हो सकता है। संभव इतना ही हो सकता है कि वे एक कर्म को छोड़कर दूसरे कर्म को करना शुरू कर दें।
जिसे हम गृहस्थ कहते हैं, वह एक तरह के कर्म करता है। और जिसे संन्यासी कहते हैं, वह दूसरे तरह के कर्म करता है। संन्यासी कर्म नहीं छोड़ पाता। इसमें संन्यासी का कोई कसूर नहीं है। जीवन का स्वभाव ऐसा है। इसलिए जो कर्म छोड़ने की असंभव आकांक्षा करेगा, वह पाखंड में और हिपोक्रेसी में गिर जाएगा।
इस देश में वैसी दुर्घटना घटी। कृष्ण की बात नहीं सुनी गई। यद्यपि आप कहेंगे, गीता से ज्यादा कुछ भी नहीं पढ़ा गया है। लेकिन साथ ही मैं यह भी कहूंगा कि गीता से कम कुछ भी नहीं समझा गया है। अक्सर ऐसा होता है कि जो बहुत पढ़ा जाता है, उसे हम समझना बंद कर देते हैं। बहुत बार पढ़ने से ऐसा लगता है, बात समझ में आ गई। स्मरण हो जाने से लगता है, समझ में आ गई। स्मृति ही ज्ञान मालूम होने लगती है। गीता कंठस्थ है और पृथ्वी पर सर्वाधिक पढ़ी गई किताबों में से एक है, लेकिन सबसे कम समझी गई किताबों में से भी एक है।
जैसे यही बात, कर्म नहीं छोड़ा जा सकता; फिर भी इस देश का संन्यासी हजारों साल से कर्म छोड़ने की असंभव चेष्टा कर रहा है। कर्म नहीं छूटा, सिर्फ निठल्लापन पैदा हुआ है। कर्म नहीं छूटा, सिर्फ निष्क्रियता पैदा हुई है। और निष्क्रियता का अर्थ है, व्यर्थ कर्मों का जाल, जिनसे कुछ फलित भी नहीं होता। लेकिन कर्म जारी रहते हैं। पाखंड उपलब्ध हुआ है। जो कर्म को छोड़कर भागेगा, उसकी कर्म की ऊर्जा व्यर्थ के कामों में सक्रिय हो जाती है।
दो तरह से लोग कर्म को छोड़ने की कोशिश करते हैं। दोनों ही एक-सी भ्रांतियां हैं। एक कोशिश संन्यासी ने की है कर्म को छोड़ने की--सब छोड़ दे, कुछ न करे। लेकिन कुछ न करने का मतलब सिर्फ आत्मघात हो सकता है। और आत्मघात भी करना पड़ेगा; वह भी अंतिम कर्म होगा। एक और रास्ता है, जिससे कर्म छोड़ने की आकांक्षा की जाती रही है। वह भी समझ लेना जरूरी है।
पूरब ने संन्यासी के रास्ते से कर्मत्याग की कोशिश की है और असफल हुआ है। कृष्ण की बात नहीं सुनी गई। पश्चिम ने दूसरे ढंग से कर्म को छोड़ने की कोशिश की है और वह यह है कि यदि यंत्र सारे काम कर दें, तो आदमी कर्म से मुक्त हो जाए! अगर सारा काम यंत्र कर सके, तो आदमी काम से मुक्त हो जाए, कर्म से मुक्त हो जाए, तो परम आनंद को उपलब्ध हो जाएगा। लेकिन पश्चिम दूसरी मुश्किल में पड़ गया है। और वह मुश्किल यह है कि जितना कम काम आदमी के हाथ में है, उतना आदमी ज्यादा उपद्रव हाथ में लेता चला जा रहा है। वह जो कर्म की ऊर्जा है, वह प्रकट होना मांगती है। वह कर्म की ऊर्जा कहीं से प्रकट होगी।
इसलिए पश्चिम में छुट्टी के दिन ज्यादा दुर्घटनाएं होंगी, ज्यादा हत्याएं होंगी, ज्यादा चोरियां होंगी, ज्यादा बलात्कार होंगे। क्योंकि छुट्टी के दिन कर्म की ऊर्जा क्या करे? अगर एक महीने के लिए पूरी छुट्टी दे दी जाए पश्चिम को, तो सारी सभ्यता एक महीने में नष्ट हो जाएगी और नीचे गिर जाएगी।
इसलिए पश्चिम के विचारक अब परेशान हैं कि आज नहीं कल यंत्र के हाथ में सारा काम चला जाएगा, फिर हम आदमी को कौन-सा काम देंगे! और अगर आदमी को काम न मिला, तो आदमी कुछ तो करेगा ही। और वह कुछ खतरनाक हो सकता है; अगर वह काम का न हुआ, तो आत्मघाती हो सकता है।
कृष्ण की बात पश्चिम में भी नहीं सुनी गई। असल में कृष्ण की बात किसी ने भी नहीं सुनी कि कर्म से छुटकारा नहीं है, क्योंकि जीवन और कर्म एक ही चीज के दो नाम हैं। सिर्फ एक बात हो सकती है। इसका यह मतलब नहीं है कि हम जैसे जी रहे हैं और जो कर रहे हैं, वैसे ही जीते रहें और वैसे ही करते चले जाएं। अगर ऐसा कोई समझता है, तो उसे भी कृष्ण की बात सुनाई नहीं पड़ी।
कृष्ण यह कह रहे हैं कि कर्म को बदलने की उतनी फिक्र मत करो, कर्ता को बदलने की फिक्र करो। असली सवाल यह नहीं है कि क्या तुम कर रहे हो, क्या नहीं कर रहे हो! असली सवाल यह है कि तुम क्या हो और क्या नहीं हो! असली सवाल डूइंग का नहीं, बीइंग का है। असली सवाल यह है कि भीतर तुम क्या हो! अगर तुम भीतर गलत हो, तो तुम जो भी करोगे, उससे गलत फलित होगा। और अगर तुम भीतर सही हो, तो तुम जो भी करोगे, उससे सही फलित होगा।
कर्म का प्रश्न नहीं है। वह भीतर जो व्यक्ति है, चेतना है, आत्मा है, कर्म उससे ही निकलते हैं, उससे ही फलते-फूलते हैं। उस चेतना, उस आत्मा का सवाल है। और वह आत्मा बीमार है एक बहुत बड़ी बीमारी से। लेकिन वह बड़ी बीमारी, हमें लगता है कि हमारा बड़ा स्वास्थ्य है। वह आत्मा बीमार है मैं के भाव से, ईगोइज्म से। मैं हूं--यही आत्मा की बीमारी है।
कभी शायद आपने खयाल न किया हो, अगर शरीर पूरा स्वस्थ हो, तो आपको शरीर का पता नहीं चलता। ठीक से समझा जाए, तो स्वास्थ्य का एक ही प्रमाण होता है कि शरीर का पता न चलता हो, बाडीलेसनेस हो जाए। आपके सिर में दर्द होता है, तो सिर का पता चलता है। अगर सिर में दर्द न हो, तो सिर का पता नहीं चलता। और अगर सिर का थोड़ा भी पता चलता हो, तो समझना कि थोड़ा न थोड़ा सिर बीमार है। अगर पैर में पीड़ा हो, तो पैर का पता चलता है; पांव में कांटा गड़ा हो, तो पांव का पता चलता है। जहां भी वेदना है, वहीं बोध है। जहां वेदना नहीं, वहां बोध नहीं। जहां वेदना है, वहीं चेतना सघन हो जाती है। और जहां वेदना नहीं है, वहां चेतना विदा हो जाती है।
यह वेदना शब्द भी बहुत अदभुत है। इसके दो अर्थ होते हैं। इसका अर्थ ज्ञान भी होता है और दुख भी होता है। हमारे पास शब्द है, वेद। वेद का अर्थ होता है ज्ञान। वेद से ही वेदना बना है। वेदना का एक अर्थ तो होता है: ज्ञान, बोध, कांशसनेस; और एक अर्थ होता है: पीड़ा, दुख। यह अकारण अर्थ नहीं होता है इस शब्द का। असल में जहां पीड़ा है, वहीं बोध टिक जाता है। अगर पैर में कांटा गड़ा है, तो सारा बोध, सारी अटेंशन वहीं, उसी कांटे पर पहुंच जाती है। अगर शरीर में कहीं भी कोई पीड़ा नहीं है, तो शरीर का बोध मिट जाता है। बाडी कांशसनेस चली जाती है। शरीर का पता ही नहीं चलता है। विदेह हो जाता है आदमी, अगर शरीर स्वस्थ हो।
ठीक ऐसे ही अगर आत्मा स्वस्थ हो, तो मैं का पता नहीं चलता। मैं का पता चलता है तभी तक, जब तक आत्मा बीमार है। इसलिए जो आत्मा के तल पर स्वस्थ हो जाते हैं, वे होते तो हैं, लेकिन उन्हें ऐसा नहीं लगता है कि मैं हूं। उन्हें ऐसा ही लगता है--हूं। हूं काफी हो जाता है, मैं विदा हो जाता है।
वह मैं भी एक कांटे की तरह चुभता है चौबीस घंटे। रास्ते पर चलते, उठते-बैठते, कोई देखे तो, कोई न देखे तो, वह मैं का कांटा चुभता रहता है। उस मैं के घाव से भरे हुए हम कर्ता से घिर जाते हैं।
वह अर्जुन भी उसी पीड़ा में पड़ा है। उसका मैं सघन होकर उसे पीड़ा दे रहा है। वह कह क्या रहा है? वह यह नहीं कहता है, युद्ध में हिंसा होगी, इसलिए मैं युद्ध नहीं करना चाहता हूं। नहीं, वह यह नहीं कहता। वह कहता है, युद्ध में मेरे लोग मर जाएंगे, इसलिए मैं युद्ध नहीं करना चाहता हूं। कहता है, मेरे प्रियजन, मेरे संबंधी, मेरे मित्र दोनों तरफ युद्ध के लिए आतुर खड़े हैं। सब मेरे हैं, और मर जाएंगे।
कभी आपने सोचा है कि जब मेरा मरता है, तो पीड़ा क्यों होती है? क्या इसलिए पीड़ा होती है कि जो मेरा था, वह मर गया! या इसलिए पीड़ा होती है कि मेरा होने की वजह से मेरे मैं का एक हिस्सा था, जो मर गया! ठीक से समझेंगे, तो किसी दूसरे के मरने से किसी को कभी कोई पीड़ा नहीं होती है। लेकिन मेरा है, तो पीड़ा होती है। क्योंकि जब भी मेरा कोई मरता है, तो मेरे ईगो का एक हिस्सा, मेरे अहंकार का एक हिस्सा बिखर जाता है भीतर, जो मैंने उसके सहारे सम्हाला था।
इसीलिए तो हम मेरे को बढ़ाते हैं--मेरा मकान हो, मेरी जमीन हो, मेरा राज्य हो, मेरा पद हो, मेरी पदवी हो, मेरा ज्ञान हो, मेरे मित्र हों--जितना मेरा मेरे का विस्तार होता है, उतना मेरा मैं मजबूत और बीच में सघन होकर सिंहासन पर बैठ जाता है। अगर मेरा सब विदा हो जाए, तो मेरे मैं को खड़े होने के लिए कोई सहारा न रह जाएगा और वह भूमि पर गिरकर टूट जाएगा, बिखर जाएगा।
अर्जुन की पीड़ा क्या है? अर्जुन की पीड़ा यह है कि सब मेरे हैं। इसलिए वह बार-बार कहता है कि जिनके लिए राज्य जीता जाता है, जिनके लिए धन कमाया जाता है, जिनके लिए यश की कामना की जाती है, वे सब मेरे मर जाएंगे युद्ध में, तो मैं इस राज्य का, इस धन का, इस साम्राज्य का, इस वैभव को पाकर करूंगा भी क्या? जब मेरे ही मर जाएंगे...!
लेकिन उसे भी साफ नहीं है कि मेरे के मरने का इतना डर मैं के मरने का डर है। जब पत्नी मरती है, तो पति भी एक हिस्सा मर जाता है। उतना ही जितना जुड़ा था, उतना ही जितना पत्नी उसके भीतर प्रवेश कर गई थी और उसके मैं का हिस्सा बन गई थी। एकदम से खयाल में नहीं आता कि हम सब एक-दूसरे से अपने मैं के लिए भोजन जुटाते हैं।
एक बच्चा हो रहा है एक मां को। एक स्त्री को बच्चा हो रहा है। जिस दिन बच्चा पैदा होता है, उस दिन अकेला बच्चा ही पैदा नहीं होता है, उस दिन मां भी पैदा होती है। उसके पहले सिर्फ स्त्री है, बच्चे के जन्म के बाद वह मां है। यह जो मां होना उसमें आया, यह बच्चे के होने से आया है। अब उसके मैं में मां होना भी जुड़ गया। कल यह बच्चा मर जाए, तो उसका मां होना फिर मरेगा, अब उसके मैं से फिर मां होना गिरेगा। बच्चे का मरना नहीं अखरता; गहरे में अखरता है, मेरे भीतर कुछ मरता है, मेरे मैं की कोई संपदा छिनती है, मेरे मैं का कोई आधार टूटता है।
उपनिषदों ने कहा है, कोई किसी दूसरे के लिए दुखी नहीं होता, सब अपने लिए दुखी होते हैं। कोई किसी दूसरे के लिए आनंदित नहीं होता, सब अपने लिए आनंदित होते हैं। कोई किसी दूसरे के लिए जीता नहीं, सब अपने मैं के लिए जीते हैं। हां, जिन-जिन से हमारे मैं को सहारा मिलता है, वे अपने मालूम पड़ते हैं; और जिन-जिन से हमारे मैं को विरोध मिलता है, वे पराए मालूम पड़ते हैं। जो मेरे मैं को आसरा देते हैं, वे मित्र हो जाते हैं; और जो मेरे मैं को खंडित करना चाहते हैं, वे शत्रु हो जाते हैं।
इसलिए जिसका मैं गिर जाता है, उसका मित्र और शत्रु भी पृथ्वी से विदा हो जाता है। उसका फिर कोई मित्र नहीं और फिर कोई शत्रु नहीं। क्योंकि शत्रु और मित्र सभी मैं के आधार पर निर्मित होते हैं।
यह जो कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि कर्म से भागने का कोई उपाय नहीं, मनुष्य परवश है; कर्म तो करना ही होगा, क्योंकि कर्म जीवन है। इस पर इतना जोर इसीलिए दे रहे हैं कि अर्जुन को दिखाई पड़ जाए कि असली बदलाहट, असली म्यूटेशन, असली क्रांति कर्म में नहीं, कर्ता में करनी है। कर्म नहीं मिटा डालना, कर्ता को विदा कर देना है। वह भीतर से कर्ता विदा हो जाए, तो कर्म चलता रहेगा, लेकिन तब, तब कर्म परमात्मा के हाथ में समर्पित होकर चलता है। तब मेरा कोई भी दायित्व, तब मेरा कोई भी बोझ नहीं रह जाता। इस बात को ही कृष्ण आगे और स्पष्ट करेंगे।


प्रश्न: भगवान श्री, पांचवें श्लोक पर प्रश्न करने के पहले कल की चर्चा के संबंध में तीन छोटे प्रश्न रह गए हैं। कल आपने कहा कि क्षत्रिय बहिर्मुखी है और ब्राह्मण अंतर्मुखी है और तदनुरूप उनकी साधना में भेद है। कृपया बताएं कि वैश्य और शूद्र को आप किस चित्त-कोटि में रखेंगे?


क्षत्रिय बहिर्मुखता का प्रतीक है, ब्राह्मण अंतर्मुखता का प्रतीक है। फिर शूद्र और वैश्य किस कोटि में हैं? दोत्तीन बातें समझनी होंगी।
अंतर्मुखता अगर पूरी खिल जाए, तो ब्राह्मण फलित होता है; अंतर्मुखता अगर खिले ही नहीं, तो शूद्र फलित होता है। बहिर्मुखता पूरी खिल जाए, तो क्षत्रिय फलित होता है; बहिर्मुखता खिले ही नहीं, तो वैश्य फलित होता है। इसे ऐसा समझें। एक रेंज है अंतर्मुखी का, एक शृंखला है, एक सीढ़ी है। अंतर्मुखता की सीढ़ी के पहले पायदान पर जो खड़ा है, वह शूद्र है; और अंतिम पायदान पर जो खड़ा है, वह ब्राह्मण है। बहिर्मुखता भी एक सीढ़ी है। उसके प्रथम पायदान पर जो खड़ा है, वह वैश्य है; और उसके अंतिम पायदान पर जो खड़ा है, वह क्षत्रिय है।
यहां जन्म से क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की मैं बात नहीं कर रहा हूं। मैं व्यक्तियों के टाइप की बात कर रहा हूं। ब्राह्मणों में शूद्र पैदा होते हैं, शूद्रों में ब्राह्मण पैदा होते हैं। क्षत्रियों में वैश्य पैदा हो जाते हैं, वैश्यों में क्षत्रिय पैदा हो जाते हैं। यहां मैं जन्मजात वर्ण की बात नहीं कर रहा हूं। यहां मैं वर्ण के मनोवैज्ञानिक तथ्य की बात कर रहा हूं।
इसलिए यह भी ध्यान में रखने जैसा है कि ब्राह्मण जब भी नाराज होगा किसी पर, तो कहेगा, शूद्र है तू! और क्षत्रिय जब भी नाराज होगा, तो कहेगा, बनिया है तू! कभी सोचा है? क्षत्रिय की कल्पना में बनिया होना नीचे से नीची बात है। ब्राह्मण की कल्पना में शूद्र होना नीचे से नीची बात है। क्षत्रिय की कल्पना अपनी ही बहिर्मुखता में जो निम्नतम सीढ़ी देखती है, वह वैश्य की है। इसलिए अगर क्षत्रिय पतित हो तो वैश्य हो जाता है; और अगर वैश्य विकसित हो तो क्षत्रिय हो जाता है।
इसकी बहुत घटनाएं घटीं। और कभी-कभी जब कोई व्यक्ति समझ नहीं पाता अपने टाइप को, अपने व्यक्तित्व को, अपने स्वधर्म को, तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है। महावीर क्षत्रिय घर में पैदा हुए, लेकिन वे व्यक्ति अंतर्मुखी थे और उनकी यात्रा ब्राह्मण की थी। बुद्ध क्षत्रिय घर में पैदा हुए, लेकिन वे व्यक्ति ब्राह्मण थे और उनकी यात्रा ब्राह्मण की थी। इसलिए बुद्ध ने बहुत जगह कहा है कि मुझसे बड़ा ब्राह्मण और कोई भी नहीं है। लेकिन बुद्ध ने ब्राह्मण की परिभाषा और की है। बुद्ध ने कहा, जो ब्रह्म को जाने, वह ब्राह्मण है।
बुद्ध और महावीर क्षत्रिय हैं और ब्राह्मण उनका व्यक्तित्व है। जन्म से वे क्षत्रिय हैं। जब महावीर जैसा क्षत्रिय ब्राह्मण की यात्रा पर गया, इंट्रोवर्शन की, अंतर्यात्रा पर गया, सारे बाहर के जगत को छोड़कर भीतर ध्यान और समाधि में डूबा। स्वभावतः, महावीर के आस-पास क्षत्रियों के ही संबंध थे--मित्र थे, प्रियजन थे--वे भी महावीर से प्रभावित हुए और महावीर के पीछे यात्रा पर गए। यह बड़े मजे की बात है कि महावीर के पीछे जो क्षत्रिय यात्रा पर गए, अंत में वे वैश्य होकर रह गए। सारा जैन समाज वैश्यों का हो गया।
असल में महावीर से प्रभावित होकर जो क्षत्रिय महावीर के पीछे गया था, वह इंट्रोवर्ट नहीं था। वह ब्राह्मण हो नहीं सकता था। था तो वह क्षत्रिय, महावीर से प्रभावित होकर पीछे चला गया। ब्राह्मण हो नहीं पाया, क्षत्रिय होना मुश्किल हो गया, वैश्य होने का एकमात्र मार्ग रह गया। वह क्षत्रिय होने से नीचे गिरा और वैश्य हो गया।
यह होने ही वाला था। ब्राह्मण अंतर्मुखता की श्रेष्ठतम स्थिति है। सभी ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं हैं। अगर ठीक से समझें, तो हम सब पैदा तो होते हैं या शूद्र की तरह या वैश्य की तरह, विकसित हो सकते हैं ब्राह्मण की तरह या क्षत्रिय की तरह। पैदा तो हम होते हैं नीचे पायदान पर, विकसित हो सकते हैं। बीज में तो हम या तो होते हैं शूद्र, या होते हैं वैश्य। फिर अगर बीज खिल जाए, तो बन सकते हैं क्षत्रिय, या बन सकते हैं ब्राह्मण।
मेरे देखे, जन्म से सारे लोग दो तरह के होते हैं--शूद्र और वैश्य। उपलब्धि से, एचीवमेंट से दो तरह के हो जाते हैं--ब्राह्मण और क्षत्रिय। जो विकसित नहीं हो पाते, वे पिछली दो कोटियों में रह जाते हैं। वर्ण तो दो ही हैं।
अगर सारे लोग विकसित हों, तो जगत में दो ही वर्ण होंगे-- बहिर्मुखी और अंतर्मुखी। लेकिन जो विकसित नहीं हो पाते, वे भी दो वर्ण निर्मित कर जाते हैं। इसलिए चार वर्ण निर्मित हुए: दो, जो विकसित हो जाते हैं; दो, जो विकसित नहीं हो पाते और पीछे छूट जाते हैं।
क्षत्रिय की आकांक्षा शक्ति की आकांक्षा है, ब्राह्मण की आकांक्षा शांति की आकांक्षा है। क्षत्रिय की आकांक्षा शक्ति की है। और अगर क्षत्रिय न हो पाए कोई वैश्य रह जाए। तो बहुत भयभीत, डरा हुआ, कायर व्यक्तित्व होता है वैश्य का, लेकिन बीज उसके पास क्षत्रिय के हैं, इसलिए शक्ति की आकांक्षा भी नहीं छूटती। लेकिन क्षत्रिय होकर शक्ति को पा भी नहीं सकता। इसलिए वैश्य फिर धन के द्वारा शक्ति को खोजता है। वह धन के द्वारा शक्ति को निर्मित करने की कोशिश करता है। लड़ तो नहीं सकता, युद्ध के मैदान पर नहीं हो सकता, हाथ में तलवार नहीं ले सकता, लेकिन तिजोरी तो ली जा सकती है और तलवारें खरीदी जा सकती हैं। इसलिए इनडाइरेक्टली धन की आकांक्षा, शक्ति की आकांक्षा है--परोक्ष, पीछे के रास्ते से, भयभीत रास्ते से।
ब्राह्मण होने की आकांक्षा शूद्र में भी है। होगी ही। बीज उसके भीतर है अंतर्मुखता का। अगर वह विकसित हो, तो वह पूर्ण अंतर्मुखी यात्रा पर निकल जाएगा। अगर विकसित न हो, तो सिर्फ आलस्य में खड़ा रह जाएगा। बहिर्मुखी हो न पाएगा, अंतर्मुखी होगा नहीं। तब बीच में खड़ा रह जाएगा। आलस्य, तमस, प्रमाद उसकी जिंदगी हो जाएगी। बाहर की यात्रा पर जाएगा नहीं, भीतर की यात्रा पर जा सकता था, जा नहीं रहा है। यात्रा ठहर जाएगी। दोनों यात्राएं ठहर जाएंगी। शूद्र का अर्थ है, प्रमादी। शूद्र का अर्थ है, सोया हुआ। शूद्र का अर्थ है, आलस्य, तमस से घिरा हुआ। शूद्र का अर्थ है, जो कुछ भी नहीं कर रहा है; न बाहर जा रहा है, न भीतर जा रहा है; जो प्रमाद में, अंधेरे में सोया रह गया है।
यह जो मैं कह रहा हूं--यह ध्यान रख लेंगे--यह किसी शूद्र, किसी ब्राह्मण, किसी वैश्य, किसी क्षत्रिय के लिए नहीं कह रहा हूं। यह मनोवैज्ञानिक टाइप के लिए कह रहा हूं।
इसलिए शूद्र निरंतर ही ब्राह्मण के विपरीत अनुभव करेगा। और अगर आज सारी दुनिया में और विशेषकर इस मुल्क में, जिसने कि यह टाइप की मनोवैज्ञानिक व्यवस्था सबसे पहले खोजी थी, शूद्र ने ब्राह्मण के खिलाफ बगावत कर दी है। बगावत करने का एक ढंग और भी था; वह ढंग यह था कि शूद्र ब्राह्मण होने की यात्रा पर निकल जाए। वह नहीं हो सका। और अब राममोहन राय, गांधी और उन सारे लोगों के आधार पर, जिनकी कोई मनोवैज्ञानिक समझ नहीं है, शूद्र एक दूसरी यात्रा पर निकला है। वह कह रहा है कि हम ब्राह्मण को भी शूद्र बनाकर रहेंगे। अब हम तो ब्राह्मण नहीं बन सकते। वह बात छोड़ें। लेकिन अब हम ब्राह्मण को भी शूद्र बनाकर रहेंगे।
शूद्र ब्राह्मण बने, यह हितकर है। लेकिन वह यात्रा आंतरिक यात्रा है। लेकिन शूद्र सिर्फ ब्राह्मण को खींचकर शूद्र बनाने की चेष्टा में लग जाए, तो वह सिर्फ आत्मघाती बात है। शूद्र आतुर है कि ब्राह्मण और उसके बीच का फासला टूट जाए। फासला टूटना चाहिए। लेकिन वह एक मनोवैज्ञानिक साधना है; वह एक सामाजिक व्यवस्था मात्र नहीं है।
और यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि उसी तरह ब्राह्मण भी बहुत बेचैन है कि कहीं फासला न टूट जाए। शंकराचार्य पुरी के बहुत बेचैन हैं कि कहीं फासला न टूट जाए! कहीं ब्राह्मण और शूद्र का फासला न टूट जाए! यह डर भी इसी बात की सूचना है कि अब ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं है, अन्यथा फासला टूटने से वह डरने वाला नहीं था। फासला टूट नहीं सकता। शूद्र बगल में बैठ जाए ब्राह्मण के, इससे फासला नहीं टूटता। शूद्र ब्राह्मण की थाली में बैठकर खा ले, इससे फासला नहीं टूटता। अगर ब्राह्मण असली है, तो फासला ऐसे टूटता नहीं। लेकिन अगर ब्राह्मण खुद ही शूद्र है, तो फासला तत्काल टूट जाता है। ब्राह्मण डरा हुआ है, क्योंकि वह शूद्र हो चुका है करीब-करीब। और शूद्र आतुर है कि ब्राह्मण को शूद्र बनाकर रहे।
यह मैं जो कह रहा हूं, वह इसलिए कह रहा हूं, ताकि यह खयाल आ सके कि भारत की वर्ण की धारणा के पीछे बड़े मनोवैज्ञानिक खयाल थे। मनोवैज्ञानिक खयाल यह था कि प्रत्येक व्यक्ति ठीक से पहचान ले कि उसका टाइप क्या है, ताकि उसकी आगे जीवन की यात्रा व्यर्थ यहां-वहां न भटक जाए; वह यहां-वहां न डोल जाए। वह समझ ले कि वह अंतर्मुखी है कि बहिर्मुखी है, और उस यात्रा पर चुपचाप निकल जाए। एक क्षण भी खोने के योग्य नहीं है। और जीवन का अवसर एक बार खोया जाए, तो न मालूम कितने जन्मों के लिए खो जाता है। व्यक्तित्व ठीक से पहचानकर साधना में उतरे, यह जरूरी है।
इसलिए मैंने कहा, अगर आप बहिर्मुखी हैं, तो या तो आप वैश्य हो सकते हैं या क्षत्रिय हो सकते हैं। अंतर्मुखी हैं, तो या शूद्र हो सकते हैं या ब्राह्मण हो सकते हैं। ये पोलेरिटीज हैं, ये ध्रुवताएं हैं। लेकिन शूद्र होना तो प्रकृति से ही हो जाता है; ब्राह्मण होना उपलब्धि है। वैश्य होना प्रकृति से ही हो जाता है; क्षत्रिय होना उपलब्धि है।


प्रश्न: भगवान श्री, दूसरी बात, कल आपने बताया कि अंतर्मुखी, इंट्रोवर्ट व्यक्ति ज्ञान से शून्यत्व को अर्थात निर्वाण को प्राप्त होता है; उसी तरह बहिर्मुखी, एक्सट्रोवर्ट व्यक्ति साधना से पूर्णत्व अर्थात ब्रह्म को प्राप्त करता है। तो फिर गीता के द्वितीय अध्याय के अंतिम श्लोक में श्रीकृष्ण ने बताया है, ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति। यह क्या है? क्या यह दोनों का समन्वय है?


समन्वय की जरूरत सत्य को कभी नहीं होती, सिर्फ असत्यों को होती है। सत्य समन्वित है। ब्रह्म-निर्वाण, ऐसे शब्द के प्रयोग का एक ही मतलब होता है कि कुछ लोग जिसे ब्रह्म कहते हैं, कुछ लोग उसी को निर्वाण कहते हैं। जो शून्य से चलते हैं, वे निर्वाण कहते हैं; जो पूर्ण से चलते हैं, वे ब्रह्म कहते हैं। लेकिन जिस अनुभूति के लिए ये शब्द प्रयोग किए जा रहे हैं, वह एक ही है। ब्रह्म-निर्वाण, ब्रह्म की अनुभूति और निर्वाण की अनुभूतियों के बीच समन्वय नहीं है, क्योंकि समन्वय के लिए दो का होना जरूरी है। ब्रह्म-निर्वाण एक ही अनुभूति के लिए दिए गए दो नामों का इकट्ठा उच्चार है। सिर्फ इस बात को बताने के लिए कि कुछ लोग उसे निर्वाण कहते हैं और कुछ लोग उसे ब्रह्म कहते हैं। लेकिन वह जो है, वह एक ही है। जो लोग विधायक हैं, पाजिटिव हैं, वे उसे ब्रह्म कहते हैं; जो लोग निगेटिव हैं, नकारात्मक हैं, वे उसे निर्वाण कहते हैं। लेकिन वे जिसे कहते हैं, वह एक्स, वह अज्ञात, वह एक ही है।
इसलिए कृष्ण ब्रह्म-निर्वाण दोनों का एक साथ प्रयोग कर रहे हैं, समन्वय के लिए नहीं, सिर्फ इस बात की सूचना के लिए कि सत्य एक ही है, जिसे जानने वाले बहुत तरह से कहते हैं। और बड़े से बड़े जो भेद हो सकते हैं उनके कहने के, वे दो हो सकते हैं: या तो वे कह दें कि वह शून्य है या वे कह दें कि वह पूर्ण है। यह अपनी रुचि की, व्यक्तित्व की बात है। यह अपने देखने के ढंग की बात है।
और हम जब भी कुछ कहते हैं, तो हम उस संबंध में कम कहते हैं जिस संबंध में कह रहे हैं, अपने संबंध में ज्यादा कहते हैं। जब भी हम कुछ कहते हैं, तो वह खबर हमारे बाबत होती है कि हम किस तरह के व्यक्ति हैं। हमें जो दिखाई पड़ता है, वह गेस्टाल्ट है। उसमें हम भी जुड़ जाते हैं।
अब जैसे उदाहरण के लिए, कहीं एक गिलास में आधा पानी भरा रखा हो और एक व्यक्ति कमरे के बाहर आकर कहे कि गिलास आधा खाली है और दूसरा आदमी बाहर आकर कहे कि गिलास आधा भरा है। इन दोनों ने दो चीजें नहीं देखीं। इन दोनों ने दो चीजें कही भी नहीं। लेकिन फिर भी इन दो व्यक्तियों के देखने का ढंग बिलकुल प्रतिकूल है।
एक ने देखा कि आधा खाली है। खाली पर उसकी नजर गई है, भरे पर उसकी नजर नहीं गई। एंफेटिकली खाली उसे दिखाई पड़ा है, भरा किनारे पर रहा है। खाली बीच में रहा है, सेंटर में, भरा परिधि पर रहा है। खाली ने उसको पकड़ा है; भरे ने उसे नहीं पकड़ा है। दूसरा व्यक्ति कहता है, आधा भरा है। भरा उसके बीच में है ध्यान के, खाली बाहर है, परिधि पर है। खाली उसे दिखाई नहीं पड़ा, दिखाई उसे भरा पड़ा है, खाली ने सिर्फ भरे की सीमा बनाई है। भरा है असली, खाली पड़ोस में है, सिर्फ सीमांत है। तो वह कह रहा है, आधा भरा है।
और गिलास, गिलास से पूछें कि गिलास आधा भरा है या आधा खाली है? गिलास कुछ भी नहीं कहेगा। क्योंकि गिलास कहेगा, यह विवाद पागलपन का है। मैं दोनों हूं। मैं एक साथ दोनों हूं। लेकिन यह दो भी इसलिए कहना पड़ रहा है, क्योंकि दो लोगों ने मुझे देखा है। असल में मैं तो जो हूं, हूं। यहां तक पानी है और यहां से पानी नहीं है। बीच तक पानी है और बीच तक पानी नहीं है। एक रेखा है, जहां मेरा आधा खालीपन और आधा भरापन मिलते हैं।
दो आदमियों ने दो तरह से देखा है। ये दो आदमी दो तरह से कहते हैं। और अगर ये दोनों आदमी बाजार में चले जाएं और ऐसे लोगों के बीच में पहुंच जाएं जिन्होंने कभी आधी भरी और आधी खाली चीज न देखी हो, तो दो संप्रदाय बन जाएंगे उस बाजार में। एक आधे खाली वालों का संप्रदाय होगा, एक आधे भरे वालों का संप्रदाय होगा। और उनमें भारी विवाद चलेगा; और उनके पंडित बड़ा तर्क करेंगे और विश्वविजय की यात्राएं निकालेंगे और झंडे फहराएंगे और शास्त्रों से सिद्ध करेंगे कि सत्य बात क्या है। दूसरा असत्य है।
ठीक भी है। जिनको पता न हो, उनके लिए दोनों वक्तव्य एकदम कंट्राडिक्टरी हैं। कि गिलास आधा खाली है; खाली है, इस पर ध्यान जाता है। गिलास आधा भरा है; भरा है, इस पर ध्यान जाता है। एक कहता है, खाली है। एक कहता है, भरा है। और जिन्होंने देखा नहीं, जिन्हें कुछ पता नहीं, वे कहेंगे, इससे ज्यादा विरोधी वक्तव्य क्या हो सकते हैं! ये दोनों अलग-अलग बातें हैं। दो में से कोई एक ही सही हो सकता है। इसलिए निर्णय करो कि सही कौन है।
यह निर्णय हजारों साल तक चलेगा और कभी नहीं हो पाएगा। क्योंकि वहां सिर्फ एक ही गिलास है, जो आधा खाली है और आधा भरा है। दो आदमियों ने देखा है। बस, वक्तव्य इसीलिए भिन्न हो गए हैं।
ब्रह्म-निर्वाण दो बातों का समन्वय नहीं है। एक सत्य के लिए उपयोग किए गए दो शब्दों का समवेत प्रयोग है। समन्वय सिर्फ असत्यों में करना पड़ता है। सत्य में समन्वय नहीं हो सकता, क्योंकि सत्य एक है। दूसरा है नहीं, जिससे समन्वय करना पड़े।
इसलिए जितने लोग समन्वय की बातें करते हैं, इन्हें सत्य का कोई भी पता नहीं है। सत्य को समन्वय की कोई भी जरूरत नहीं है। सत्य है ही एक। किससे समन्वय करना है? असत्य से! हां, असत्य से करना हो तो हो सकता है। लेकिन सत्य से असत्य का समन्वय कैसे होगा? कोई उपाय नहीं है। और दो सत्य नहीं हैं कि जिनका समन्वय करना हो। हां, एक ही सत्य को बहुत लोगों ने देखा है, बहुत शब्दों में कहा है। भेद शब्दों के हैं, सत्यों के नहीं।


प्रश्न: भगवान श्री, कल आपने कहा कि कर्ता तो प्रभु है, मनुष्य तो केवल निमित्त-मात्र है। तो कोई व्यक्ति जब दुष्कर्म की ओर प्रवृत्त होता है, तो क्या दुष्कर्म का कर्ता और प्रेरक भी प्रभु है? और कर्तापन के अभाव से बुरे कर्म का अभिनय करना कहां तक उचित है?


अच्छे और बुरे का फासला आदमी का है, परमात्मा का नहीं है। और जो अच्छे-बुरे में फर्क करता है, उससे कभी न कभी बुरा होगा; वह बुरे से बच नहीं सकता है। सिर्फ बुरे से वही बच सकता है, जिसने सभी परमात्मा पर छोड़ दिया हो।
लेकिन हम कहेंगे कि एक आदमी चोरी कर सकता है और कह सकता है कि मैं तो निमित्त-मात्र हूं; चोरी मैं नहीं करता हूं, परमात्मा करता है। कहे; अड़चन अभी नहीं है, अड़चन जब घर के लोग पकड़कर उसे मारने लगते हैं, तब पता चलेगी। क्योंकि अगर वह तब भी यही कहे कि परमात्मा ही मार रहा है और ये घर के लोग कर्ता नहीं हैं, निमित्त-मात्र हैं, तभी पता चलेगा।
और ध्यान रहे, जो आदमी, कोई दूसरा उसे मार रहा हो और फिर भी जानता हो कि परमात्मा ही मार रहा है, निमित्त-मात्र हैं दूसरे, ऐसा आदमी चोरी करने जाएगा, इसकी संभावना नहीं है। असंभव है, यह बिलकुल असंभव है।
हम बुरा करते ही अहंकार से भरकर हैं। बिना अहंकार के बुरा हम कर नहीं सकते। और जिस क्षण हम परमात्मा को सब कर्तृत्व दे देते हैं, अहंकार छूट जाता है; बुरे को करने की बुनियादी आधारशिला गिर जाती है। बुरा करिएगा कैसे?
कभी आपने खयाल किया है कि बुरे कर्म को करके तो कोई भी अपने को कर्ता नहीं बताना चाहता है। कभी आपने यह खयाल किया है! एक आदमी चोरी भी करता है, तो वह कहता है, मैंने नहीं की। फंस जाए, हम सिद्ध कर दें, बात अलग। लेकिन अपनी तरफ से वह इनकार ही करता चला जाता है कि मैंने नहीं की। बुरे का कर्ता तो कोई भी होने को राजी नहीं है। और मजा यह है कि बुरा बिना कर्ता के होता नहीं है।
उलटी बात भी खयाल में ले लें, कोई आदमी दो पैसे दान दे, तो दो लाख जैसे दान दिया हो, ऐसी खबरें उड़ाना चाहता है! न भी खबर उड़ा पाए, दो पैसा दान दे, तो भी दो लाख दिया है, इतनी अकड़ से चलना तो चाहता ही है। भिखारी भी जानते हैं, अगर आप अकेले मिल जाएं रास्ते पर, तो उनको भरोसा कम होता है कि दान मिलेगा। चार आदमी आपके साथ हों, तब उनका भरोसा बढ़ जाता है। तब वे आपका पैर पकड़ लेते हैं। तब आप पर भरोसा नहीं होता, चार आदमियों की मौजूदगी पर भरोसा होता है। ये चार आदमियों के सामने यह आदमी इतनी दीनता प्रकट न कर पाएगा कि कह दे कि नहीं देते। इसलिए भिखारी को अकेला कोई मिल जाए, तो काम नहीं सधता। उसे भीड़ में पकड़ना पड़ता है।
अच्छा काम आदमी न भी किया हो, तो भी घोषणा करना चाहता है कि मैं कर्ता हूं। और मजा यह है कि जब तक कर्ता होता है, तब तक अच्छा काम होता नहीं है। अब इस मिस्ट्री को, इस रहस्य को ठीक से समझ लेना चाहिए।
कर्ता की मौजूदगी, अहंकार की मौजूदगी ही जीवन में पाप का जन्म है। अहंकार की अनुपस्थिति, गैर-मौजूदगी ही जीवन में पुण्य की सुगंध का फैलाव है। इसलिए अगर कोई कर्ता रहकर पुण्य भी करे, तो पाप हो जाता है। कर नहीं सकता, इसीलिए हो जाता है। हो ही नहीं सकता। दूसरी बात भी नहीं हो सकती। कोई कर्ता मिट जाए और पाप करे, यह भी नहीं हो सकता।
हमने जो फर्क किया है पाप और पुण्य का, अच्छे और बुरे का, वह उन लोगों ने किया है, जिनके पास कर्ता मौजूद है, जिनका अहंकार मौजूद है। और इस अहंकार के मौजूद रहते हमें ऐसा इंतजाम करना पड़ा है कि हम बुरे आदमी को बहुत बुरा कहते हैं, ताकि अहंकार को चोट लगे। हम अहंकार से ही बुराई को रोकने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए बुराई रुक नहीं पाई, सिर्फ अहंकार बढ़ा है। सारी मारेलिटी, सारा नीतिशास्त्र क्या करता है? वह इतना ही करता है कि आपके अहंकार को ही उपयोग में लाता है बुराई से रोकने के लिए।
बाप अपने बेटे से कहता है, ऐसा करोगे तो गांव के लोग क्या कहेंगे? बात गलत है या सही है, यह सवाल नहीं है बड़ा। बड़ा सवाल यह है कि गांव के लोग क्या कहेंगे! कोई आदमी किसी के घर में चोरी करने जाता है, तो सोचता है--यह नहीं कि चोरी बुरी है--यह कि पकड़ तो न जाऊंगा! अगर पक्का विश्वास दिला दिया जाए कि नहीं पकड़े जा सकोगे, तो कितने लोग हैं जो अचोर रह पाएंगे! पुलिस वाला चौरस्ते पर न हो चौबीस घंटे के लिए, अदालत चौबीस घंटे के लिए छुट्टी पर चली जाएं, कानून चौबीस घंटे के लिए स्थगित कर दिया जाए, कितने भले लोग भले रह जाएंगे? और चौबीस घंटे के लिए यह भी तय कर लिया जाए कि जो बुरा करेगा, उसे सम्मान मिलेगा और जो अच्छा करेगा, उसे अपमान मिलेगा, तब तो और मुश्किल हो जाएगी।
नहीं, हम बुरे से नहीं रुके हैं। बुरे से रोकने के लिए भी हमने अहंकार का ही उपयोग किया है कि लोग क्या कहेंगे? इज्जत का क्या होगा? कुल का क्या होगा? वंश का क्या होगा? प्रतिष्ठा, सम्मान, आदर--इसका क्या होगा? इससे हम रोके हुए हैं आदमी को।
लेकिन जिस चीज का हम उपयोग कर रहे हैं रोकने के लिए, वही पाप की जड़ है। हम जहर सींचकर ही बुराई को मिटाने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए हजारों साल हो गए, बुराई मिटती नहीं है। सिर्फ जहर सिंचता है और बुराई नए रास्तों से निकलकर प्रकट होती है।
अच्छे आदमी से भी हम क्या करवाते हैं? उसके भी अहंकार को बल देते हैं। हम कहते हैं, तुम्हारे नाम की तख्ती लगा देंगे मंदिर पर, तुम्हारा संगमरमर पर नाम खोद देंगे। काम अच्छा है, यह सवाल नहीं है; हम तुम्हारे अहंकार के लिए सील-मोहर दे देंगे। अच्छा आदमी भी मंदिर बनाने के लिए मंदिर नहीं बनाता, मंदिर में नाम का पत्थर लगाने के लिए मंदिर बनाता है। अच्छे काम के लिए भी हमें जहर को ही सींचना पड़ता है। इसलिए सब मंदिर, मस्जिद अगर जहरीले हो गए हैं, तो कोई आश्चर्य नहीं है। उनकी जड़ में जहर है, वहां अहंकार खड़ा हुआ है। अच्छाई करवानी हो तो भी अहंकार, बुराई रोकनी हो तो भी अहंकार!
कृष्ण कुछ और ही सूत्र कह रहे हैं; वह बहुत अदभुत है। वह एक अर्थ में, कहें कि धर्म का बुनियादी सूत्र है। वे यह कह रहे हैं कि नीति से काम नहीं चलेगा अर्जुन, क्योंकि नीति तो अहंकार पर ही खड़ी होती है। धर्म से काम चलेगा, क्योंकि धर्म कहता है, छोड़ो तुम मैं को, परमात्मा को करने दो जो कर रहा है, तुम निमित्त-मात्र हो जाओ।
हमें डर लगता है कि अगर हम निमित्त-मात्र हुए, तो अभी चोरी पर निकल जाएंगे। हमें डर लगता है कि अगर हम निमित्त-मात्र हुए और हमने कहा कि अब हम कर्ता नहीं हैं, तो हम अभी चोरी पर निकल जाएंगे।
मैंने सुना है कि एक दफ्तर में एक मैनेजर को एक बुद्धिमानी की बात सूझी। वैसे आमतौर से मैनेजर्स को बुद्धिमानी की बात नहीं सूझती। या ऐसा हो सकता है कि मैनेजर होते-होते तक आदमी को बुद्धि खो देनी पड़ती है। या ऐसा हो सकता है कि मैनेजर तक पहुंचने के लिए बुद्धि बिलकुल ही गैरजरूरी तत्व है, या बाधा है। लेकिन एक मैनेजर को बुद्धिमानी सूझी और उसने अपने दफ्तर में एक तख्ती लगा दी। लोग काम नहीं करते थे, टालते थे, पोस्टपोन करते थे, तो उसने एक तख्ती लगा दी। एक वचन किसी संत का लगा दिया। लगा दिया: काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। जो कल करना चाहता था, वह आज कर; जो आज करना चाहता था, वह अभी कर, क्योंकि समय का कोई भरोसा नहीं है कि कल आएगा कि नहीं आएगा।
सात दिन बाद उसके मित्रों ने पूछा, तख्ती का क्या परिणाम हुआ? उसने कहा, बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। मेरा सेक्रेटरी टाइपिस्ट को लेकर भाग गया। एकाउंटेंट सारा पैसा लेकर नदारत हो गया। सब गड़बड़ हो गई है। पत्नी का सात दिन से कोई पता नहीं चल रहा है, चपरासी के साथ भाग गई है। दफ्तर में अकेला ही रह गया हूं। क्योंकि उन लोगों ने, जो-जो उन्हें कल करना था, आज ही कर लिया है; और जो आज करना था, वह अभी कर लिया है।
हमें भी ऐसा लगता है कि अगर हम परमात्मा पर सब छोड़ दें, तो फिर तो छूट मिल जाएगी। फिर तो हमें जो भी करना है, वह हम अभी कर लेंगे। हां, अगर उसको करने के लिए ही निमित्त बन रहे हैं, अगर उसे करने के लिए ही परमात्मा को कर्ता बना रहे हैं, तो जरूर ऐसा हो जाएगा।
लेकिन जो कुछ करने के लिए निमित्त बन रहा है, वह निमित्त बन ही नहीं रहा है। और जो कुछ करने के लिए परमात्मा को कर्ता बना रहा है, वह परमात्मा को कर्ता बना ही नहीं रहा है। योजना तो उसकी अपनी ही है, अहंकार तो अपना ही है, परमात्मा का भी शोषण करना चाह रहा है।
नहीं, कृष्ण उसके लिए नहीं कह रहे हैं। कृष्ण कह रहे हैं कि अगर तुम परमात्मा में अपने को छोड़ दो, तो छोड़ने के साथ ही अपनी योजनाएं भी छूट जाती हैं; छोड़ने के साथ ही अपनी कामनाएं भी छूट जाती हैं; छोड़ने के साथ ही अपनी वासनाएं भी छूट जाती हैं; छोड़ने के साथ ही अपना भविष्य भी छूट जाता है; छोड़ने के साथ ही हम ही छूट जाते हैं। फिर हम बचते ही नहीं। फिर जो हो। फिर जो हो!
लेकिन हमें डर लगेगा। क्योंकि जो-जो होने की, हमें करने की इच्छा है, वह फौरन दिखाई पड़ेगी कि यह-यह होगा। तब हम कृष्ण को नहीं समझ पा रहे हैं। तब कृष्ण को समझना मुश्किल होगा।
जिस दिन कोई व्यक्ति स्वयं को समर्पित करने का साहस जुटाता है--और स्वयं को समर्पित करना बड़े से बड़ा साहस है। उससे बड़ा कोई साहस नहीं, कोई एडवेंचर नहीं, उससे बड़ा कोई दुस्साहस नहीं। स्वयं को छोड़ना परमात्मा के चरणों में, आसान बात नहीं है। और जो आदमी स्वयं को छोड़ सकता है, वह चोरी नहीं छोड़ पाएगा, यह सोचना भी मुश्किल है। जो स्वयं को ही छोड़ सकता है, वह चोरी किसके लिए करेगा? जो स्वयं को छोड़ सकता है, हत्या किसके लिए करेगा? जो स्वयं को छोड़ सकता है, बेईमानी किसके लिए करेगा? उसका कोई उपाय नहीं है। स्वयं को छोड़ते ही, सब छूट जाता है। फिर जो भी हो--कृष्ण कहते हैं--वह परमात्मा का है। तू निमित्त भर है। निमित्त भर जो है, उसे योजना नहीं बनानी है। निमित्त भर जो है, उसे कामना नहीं करनी है। निमित्त की क्या कामना? निमित्त की क्या वासना?
कृष्ण का संदेश धार्मिक है, नैतिक नहीं। और नैतिक संदेश भी कोई संदेश होता है! कामचलाऊ, कनवीनिएंट होता है। अनीति को किसी तरह रोकने का उपाय हम करते रहते हैं। रुकती नहीं। किसी तरह इंतजाम करते रहते हैं, काम चलाते हैं। धर्म का संदेश कामचलाऊ नहीं है। धर्म का संदेश तो जीवन की आमूल क्रांति का संदेश है। जो स्वयं को सब भांति छोड़ देता है, उसके जीवन से सब कुछ गिर जाता है, जो कल तक था। न बुरा, न अच्छा--दोनों गिर जाते हैं। फिर तो परमात्मा ही शेष रह जाता है। फिर जो भी हो, उससे अंतर नहीं पड़ता, वह सभी कुछ परमात्मा के लिए समर्पित है।
चौबीस घंटे के लिए भी कभी प्रयोग करके देखें। फिर वासना को उठाना मुश्किल होगा। क्योंकि वासना केवल कर्ता ही उठा सकता है। निमित्त वासना कैसे उठाएगा? फिर यह सोचना मुश्किल होगा कि मैं करोड़ रुपया इकट्ठा कर लूं, क्योंकि मैं हूं कौन? मैं हूं कहां? यह करोड़ रुपया इकट्ठा करने की वासना निमित्त-मात्र व्यक्ति में नहीं उठ सकती। सारी वासना का आधार, मूल स्रोत अहंकार है।


प्रश्न: भगवान श्री, कल की चर्चा पर एक छोटा-सा प्रश्न और आया है। आपने कहा कि तीन बार किसी बात का संकल्प करना कमजोर संकल्प घोषित करता है। आपके ध्यान में संकल्प तीन बार किया जाता है, तो यह क्या है? और ध्यान-साधना से ज्ञान होगा कि ध्यान-साधना स्वयं में कर्म है?


ध्यान के प्रयोग में तीन बार संकल्प किया जाता है, वह भी कम पड़ता है। तीन सौ बार किया जाए, तब पूरा पड़े! क्योंकि आप अर्जुन नहीं हैं। आप अर्जुन नहीं हैं। आपको तीन सौ बार कहने पर भी एक बार सुनाई पड़ जाए तो बहुत है। तीन बार इसीलिए कहा जाता है कि शायद एकाध बार सुनाई पड़ जाए। बहरों के बीच मेहनत अलग तरह की होती है।
कृष्ण भीड़ को नहीं बता रहे हैं। और जब मैं ध्यान करवा रहा हूं, तो भीड़ को। कृष्ण एक आदमी से बात कर रहे हैं--सीधे, आमने-सामने। जब मैं हजारों लोगों से कुछ बात कर रहा हूं, तो आमने-सामने कोई भी नहीं है। दिखाई पड़ते हैं आमने-सामने, है कोई भी नहीं। तीन सौ बार भी कहा जाए, तो थोड़ा पड़ेगा। आशा यही है कि तीन सौ बार कहने में शायद एकाध बार आपको सुनाई पड़ जाए। काम तो एक ही बार में हो जाता है, लेकिन वह एक बार सुनाई पड़ना चाहिए न!
और पूछ रहे हैं कि ध्यान से क्या फलित होगा?
अगर बहिर्मुखी व्यक्तित्व है, तो ध्यान से वह ब्रह्म की यात्रा पर निकल जाता है। अगर अंतर्मुखी व्यक्तित्व है, तो ध्यान से निर्वाण की यात्रा पर निकल जाता है। ध्यान दोनों यात्राओं पर वाहन का काम करता है। इसलिए ध्यान किसी व्यक्ति विशेष के टाइप से संबंधित नहीं है। ध्यान तो ऐसा है, जैसे कि आप ट्रेन पर पश्चिम जाना चाहें, तो पश्चिम चले जाएं; और पूर्व जाना चाहें, तो पूर्व चले जाएं। ट्रेन नहीं कहती कि कहां जाएं। ट्रेन कहीं भी जा सकती है।
ध्यान सिर्फ एक वाहन है। बहिर्मुखी व्यक्ति अगर ध्यान में उतरे, तो वह ब्रह्म की यात्रा पर, बहिर्यात्रा पर निकल जाएगा, कास्मिक जर्नी पर निकल जाएगा--जहां सारा अखंड जगत उसे अपना ही स्वरूप मालूम होने लगेगा। अगर अंतर्मुखी व्यक्ति ध्यान के वाहन पर सवार हो, तो अंतर्यात्रा पर निकल जाएगा, शून्य में, और शून्य में, और महाशून्य में--जहां सब बबूले फूटकर मिट जाते हैं और महासागर अस्तित्व का, शून्य का ही शेष रह जाता है। ध्यान दोनों के काम आ सकता है। ध्यान का टाइप से संबंध नहीं है। ध्यान का संबंध यात्रा के वाहन से है!


कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसास्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।। ६।।
इसलिए जो मूढ़बुद्धि पुरुष कर्मेंद्रियों को हठ से रोककर इंद्रियों के भोगों का मन से चिंतन करता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दंभी कहा जाता है।


अदभुत वचन है। कृष्ण कह रहे हैं कि जो मूढ़ व्यक्ति-- मूढ़ खयाल रखना--जो नासमझ, जो अज्ञानी इंद्रियों को हठपूर्वक रोककर मन में काम के चिंतन को चलाए चला जाता है, वह दंभ में, पाखंड में, अहंकार में पतित होता है। मूढ़ कहेंगे! कह रहे हैं, ऐसा व्यक्ति मूढ़ है, जो इंद्रियों को दमन करता है, सप्रेस करता है!
काश! फ्रायड को यह वचन गीता का पढ़ने मिल जाता, तो फ्रायड के मन में धर्म का जो विरोध था, वह न रहता। लेकिन फ्रायड को केवल ईसाई दमनवादी संतों के वचन पढ़ने को मिले। उसे केवल उन्हीं धार्मिक लोगों की खबर मिली, जिन्होंने जननेंद्रियां काट दीं, ताकि कामवासना से मुक्ति हो जाए। फ्रायड को उन सूरदासों की खबर मिली, जिन्होंने आंखें फोड़ दीं, ताकि कोई सौंदर्य आकर्षित न कर सके। उन विक्षिप्त, न्यूरोटिक लोगों की खबर मिली, जिन्होंने अपने शरीर को कोड़े मारे, लहू बहाया, ताकि शरीर कोई मांग न करे। जो रात-रात सोए नहीं, कि कहीं कोई सपना मन को वासना में न डाल दे। जो भूखे रहे, कि कहीं शरीर में शक्ति आए, तो कहीं इंद्रियां बगावत न कर दें।
स्वभावतः, अगर फ्रायड को लगा कि इस तरह का सब धर्म न्यूरोटिक है, पागल है और मनुष्य जाति को विक्षिप्त करने वाला है, तो आश्चर्य नहीं। लेकिन कृष्ण का एक वचन भी फ्रायड के मन की सारी ग्रंथियों को खोल देता।
कृष्ण कह रहे हैं, मूढ़ है वह व्यक्ति--फ्रायड से पांच हजार साल पहले--जो अपनी इंद्रियों को दबाता है। क्योंकि इंद्रियों को दबाने से मन नहीं दबता, बल्कि इंद्रियों को दबाने से मन और प्रबल होता है। इसलिए मूढ़ है वह व्यक्ति। क्योंकि इंद्रियों का कोई कसूर ही नहीं, इंद्रियों का कोई सवाल ही नहीं है। असली सवाल भीतर छिपे मन का है। वह मन मांग कर रहा है, इंद्रियां तो केवल उस मन के पीछे चलती हैं। वे तो मन की नौकर-चाकर, मन की सेविकाएं, इससे ज्यादा नहीं हैं।
मन कहता है, सौंदर्य देखो, तो आंख सौंदर्य देखती है। और मन कहता है, बंद कर लो आंख, तो आंख बंद हो जाती है। आंख की अपनी कोई इच्छा है? आंख ने कभी कहा कि मेरी यह इच्छा है? हाथ ने कभी कहा कि छुओ इसे? मन कहता है, छुओ, तो हाथ छूने चला जाता है। मन कहता है, मत छुओ, तो हाथ ठहर जाता है और रुक जाता है। इंद्रियों की अपनी कोई इच्छा ही नहीं है।
लेकिन कितनी इंद्रियों को गालियां दी गई हैं! इंद्रियों के खिलाफ कितने वक्तव्य दिए गए हैं! और इंद्रियां बिलकुल निष्पाप और निर्दोष और इनोसेंट हैं। इंद्रियों का कोई संबंध नहीं है। कोई इंद्रिय मनुष्य को किसी काम में नहीं ले जाती, मन ले जाता है। और जब कोई इंद्रियों को दबाता है, इंद्रियों को रोकता है और मन जब इंद्रियों का सहयोग नहीं पाता है, तो पागल होकर भीतर ही उन चीजों की रचना करने लगता है, जो उसने बाहर चाही थीं।
अगर दिनभर आप भूखे रहे हैं, तो रात सपने में आप राजमहल में आमंत्रित हो जाते हैं। मन ने इंतजाम किया, मन ने कहा कि ठीक है। मन ने जिस स्त्री, जिस पुरुष के प्रति दिन में अपने को रोका, रात सपने में मन नहीं रोक पाता।
खुद फ्रायड ने अपने एक पत्र में लिखा है--और फ्रायड जानता है--खुद लिखा है। कोई पैंतालीस साल की उम्र में लिखा गया पत्र है। एक मित्र को लिखा है कि आज मैं रास्ते पर चलते वक्त हैरान हुआ, एक सुंदर स्त्री को देखकर मेरे मन में उसे छूने की इच्छा जगी। फिर मैंने सोचा भी कि मैं कैसा पागल हूं। इस उम्र में! और फ्रायड जैसा आदमी, जिसने जिंदगीभर सेक्स को समझने की शायद मनुष्य जाति के इतिहास में सर्वाधिक कोशिश की है, जो जानता है कि सेक्स क्या है, जो जानता है वासना क्या है। उसने लिखा है कि मैंने अपने को रोकना चाहा, लेकिन मैं रोकता भी रहा और मैंने बढ़कर भीड़ में उस स्त्री को छू भी लिया, स्पर्श भी कर लिया। आधे मन से रोकता भी रहा, आधे मन से स्पर्श भी कर लिया। पछताता भी रहा, कामना भी करता रहा। फ्रायड ने लिखा है कि अब भी मेरे भीतर यह संभव है, यह मैंने सोचा न था।
मरते वक्त तक भी संभव है। मुर्दा भी, अगर थोड़ी-बहुत शक्ति बची हो, तो उठकर यही कर सकता है। मुर्दों ने तो कभी नहीं किया, लेकिन मुर्दों के साथ करने वाले लोग मिल गए हैं।
क्लियोपैट्रा जब मरी और उसकी लाश दफना दी गई कब्र में, तो उसकी लाश चोरी चली गई। सुंदर स्त्री! पंद्रह दिन बाद उसकी लाश मिली और चिकित्सकों ने कहा कि पंद्रह दिन में हजारों लोगों ने उसकी लाश से संभोग किया है। लाशों से भी संभोग होता है! अगर लाशें भी उठ आएं, तो वे भी कर सकती हैं।
कृष्ण कह रहे हैं कि बाहर से दबा लोगे इंद्रियों को--इंद्रियों का तो कोई कसूर नहीं, इंद्रियों का कोई हाथ नहीं। इररेलेवेंट हैं इंद्रियां, असंगत हैं, उनसे कोई वास्ता ही नहीं है। सवाल है मन का। रोक लोगे इंद्रियों को, न करो भोजन आज, कर लो उपवास। मन, मन दिनभर भोजन किए चला जाएगा। ऐसे मन दो ही बार भोजन कर लेता है दिन में, उपवास के दिन दिनभर करता रहता है। यह जो मन है, मूढ़ है वह व्यक्ति, जो इस मन को समझे बिना, इस मन को बदले बिना, केवल इंद्रियों के दबाने में लग जाता है। और उसका परिणाम क्या होगा? उसका परिणाम होगा कि वह दंभी हो जाएगा। वह दिखावा करेगा कि देखो, मैंने संयम साध लिया; देखो, मैंने संयम पा लिया; देखो, मैं तप को उपलब्ध हुआ; देखो, ऐसा हुआ, ऐसा हुआ। वह बाहर से सब दिखावा करेगा और भीतर, भीतर बिलकुल उलटा और विपरीत चलेगा।
अगर हम साधुओं के--तथाकथित साधुओं के, सो काल्ड साधुओं के; और उनकी ही संख्या बड़ी है, वही हैं निन्यानबे प्रतिशत--अगर उनकी खोपड़ियों को खोल सकें और उनके हृदय के द्वार खोल सकें, तो उनके भीतर से शैतान निकलते हुए दिखाई पड़ेंगे। अगर हम उनके मस्तिष्क के सेल्स को तोड़ सकें और उनसे पूछ सकें कि तुम्हारे भीतर क्या चलता है? तो जो चलता है, वह बहुत घबड़ाने वाला है। ठीक विपरीत है। जो बाहर दिखाई पड़ता है, उससे ठीक उलटा भीतर चलता चला जाता है।
कृष्ण इसे मूढ़ता कह रहे हैं। क्योंकि जो भीतर चलता है, वही असली है। जो बाहर चलता है, उसका कोई मूल्य नहीं है। धर्म का दिखावे से, एक्जीबिशन से कोई संबंध नहीं है। धर्म का प्रदर्शन से क्या संबंध है? धर्म का होने से संबंध है। हो सकता है, बाहर कुछ उलटा भी दिखाई पड़े, तो कोई फिक्र नहीं; भीतर ठीक चलना चाहिए। बाहर भोजन भी चले, तो कोई फिक्र नहीं, भीतर उपवास होना चाहिए। लेकिन होता उलटा है। बाहर उपवास चलता है, भीतर भोजन चलता है। बाहर स्त्री भी पास में बैठी रहे तो कोई हर्ज नहीं, पुरुष भी पास में बैठा रहे तो कोई हर्ज नहीं, भीतर--भीतर स्वयं के अतिरिक्त और कोई भी नहीं होना चाहिए। लेकिन होता उलटा है। बाहर आदमी मंदिर में बैठा है, मस्जिद में बैठा है, गुरुद्वारे में बैठा है; और भीतर उसके गुरुद्वारे में, खुद के गुरुद्वारे में कोई और बैठे हुए हैं; वे चल रहे हैं।
जिंदगी को बदलाहट देनी है, तो बाहर से नहीं दी जा सकती; जिंदगी को बदलाहट देनी है, तो वह भीतर से ही दी जा सकती है। और जो आदमी बाहर से देने में पड़ जाता है, वह भूल ही जाता है कि असली काम भीतर है। सवाल इंद्रियों का नहीं, सवाल मन का है। सवाल वृत्ति का है; सवाल वासना का है; सवाल शरीर का जरा भी नहीं है।
इसलिए शरीर को कोई कितना ही दबाए और नष्ट करे, मार ही डाले, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। उसकी प्रेतात्मा भटकेगी, उन्हीं वासनाओं में वह नए जन्म लेगा। नए शरीर ग्रहण करेगा उन्हीं वासनाओं के लिए, जिनको छोड़ दिया था पिछले शरीर में। उसकी यात्रा जारी रहेगी। वह अनंत-अनंत जन्मों तक वही खोजता रहेगा, जो उसका मन खोजना चाहता है।
दंभ, पाखंड, धोखा--किसको दे रहे हैं हम? दूसरे को? दूसरे को दिया भी जा सके, स्वयं को कैसे देंगे? और इसलिए प्रत्येक उस व्यक्ति को जो धर्म की दिशा में उत्सुक होता है, ठीक से समझ लेना चाहिए कि स्वयं को धोखा तो देने नहीं जा रहा है! सेल्फ डिसेप्शन, आत्मवंचना में तो नहीं पड़ रहा है! कृष्ण उसी के लिए कह रहे हैं--मूढ़!
सोचने जैसा है, कृष्ण जैसा आदमी मूढ़ जैसे शब्द का उपयोग करे! अगर मैं किसी को कह दूं कि तुम मूढ़ हो, तो वह लड़ने खड़ा हो जाएगा। कृष्ण ने अर्जुन को मूढ़ कहा। उन सब को मूढ़ कहा। एक आगे के सूत्र में तो अर्जुन को महामूढ़ कहा, कि तू बिलकुल महामूर्ख है। फिर भी अर्जुन लड़ने खड़ा नहीं हो गया। कृष्ण जो कह रहे हैं, वह फैक्चुअल है, कंडेमनेटरी नहीं है। कृष्ण जो कह रहे हैं, वह मूढ़ शब्द का उपयोग किसी की निंदा के लिए नहीं है, तथ्य की सूचना के लिए है।
मूढ़ हैं जगत में; कहना पड़ेगा, उन्हें मूढ़ ही कहना पड़ेगा। अगर सज्जनता और शिष्टाचार के कारण उन्हें कहा जाए कि हे बुद्धिमानो! तो बड़ा अहित होगा। लेकिन कृष्ण जैसे हिम्मत के धार्मिक लोग अब नहीं रह गए। अब तो धार्मिक आदमी के पास कोई भी जाए, तो उसको मूढ़ नहीं कह सकता। धार्मिक आदमी ही नहीं रहा।
झेन फकीर होते हैं जापान में, तो डंडा पास में रखते हैं। जरा गलत-सलत पूछा, तो सिर पर एक डंडा भी लगाते हैं। यहां तो किसी से अगर इतना भी कह दो कि गलत पूछ रहे हो, तो वह लड़ने को खड़ा हो जाएगा। चूंकि कोई पूछने की जिज्ञासा भी नहीं है और सैकड़ों वर्षों से उस हिम्मतवर धार्मिक आदमी का भी तिरोधान हो गया है, जो तथ्य जैसे थे उनको वैसा कहने की हिम्मत रखता था। तो आज किसी को मूढ़ कह दो, तो वह कहेगा कि अरे! उन्होंने मूढ़ कह दिया। तो वह आदमी ठीक नहीं है, जिसने मूढ़ कह दिया।
कृष्ण कह रहे हैं कि मूढ़ हैं वे, जो इंद्रियों को दबाते, दमन करते, रिप्रेस करते और परिणामतः भीतर जिनका चित्त उन्हीं-उन्हीं वासनाओं में परिभ्रमण करता है, तूफान लेता है, आंधियां बन जाता है; ऐसे व्यक्ति दंभ को, पाखंड को पतित हो जाते हैं। और इस जगत में अज्ञान से भी बुरी चीज पाखंड है। इसलिए उन्होंने कहा कि वे मिथ्या आचरण में, मिथ्यात्व में, फाल्सिटी में गिर जाते हैं।
इस शब्द को भी ठीक से समझ लेना उचित है। मिथ्या किसे कहें? एक तो होता है सत्य; एक होता है असत्य। मिथ्या क्या है? असत्य? मिथ्या का अर्थ असत्य नहीं है। मिथ्या का अर्थ है, दोनों के बीच में। जो है तो असत्य और सत्य जैसा दिखाई पड़ता है। मिथ्या मिडिल टर्म है।
कृष्ण कह रहे हैं--ऐसे लोग असत्य में पड़ते हैं, यह नहीं कह रहे हैं--वे कह रहे हैं, ऐसे लोग मिथ्या में पड़ जाते हैं। मिथ्या का मतलब? दिखाई पड़ते हैं, बिलकुल ठीक हैं; और बिलकुल ठीक होते नहीं हैं। ऐसे धोखे में पड़ जाते हैं। बाहर से दिखाई पड़ते हैं, बिलकुल सफेद हैं; और भीतर बिलकुल काले होते हैं। अगर बाहर भी काले हों, तो वह सत्य होगा; अगर भीतर भी सफेद हों, तो वह सत्य होगा। इसको क्या कहें? यह मिथ्या स्थिति है, यह इल्यूजरी स्थिति है। हम और तरह की शकल बाहर बना लेते हैं और भीतर कुछ और चलता चला जाता है।
इस मिथ्या में जो पड़ता है, वह अज्ञानी से भी गलत जगह पहुंच जाता है। क्योंकि अज्ञान में पीड़ा है। गलत का बोध हो और मुझे पता हो कि मैं गलत हूं, तो मैं अपने को बदलने में भी लगता हूं। मुझे पता हो कि मैं बीमार हूं, तो मैं चिकित्सा का भी इंतजाम करता हूं, मैं चिकित्सक को भी खोजता हूं, मैं निदान भी करवाता हूं। लेकिन मैं हूं बीमार और मैं घोषणा करता हूं कि मैं स्वस्थ हूं, तब कठिनाई और भी गहरी हो जाती है। अब मैं चिकित्सक को भी नहीं खोजता, अब मैं निदान भी नहीं करवाता, अब मैं डाइग्नोसिस्ट के पास भी नहीं फटकता। अब तो मैं स्वस्थ होने की घोषणा किए चला जाता हूं और भीतर बीमार होता चला जाता हूं। भीतर होती है बीमारी, बाहर होता है स्वास्थ्य का दिखावा। तब आदमी सबसे ज्यादा जटिल उलझाव में पड़ जाता है। मिथ्यात्व, मनुष्य के जीवन में सबसे बड़ी जटिलता पैदा कर देता है।
तो कृष्ण कहते हैं, ऐसा आदमी अंततः बहुत जटिल और कांप्लेक्स हो जाता है। करता कुछ, होता कुछ। जानता कुछ, मानता कुछ। दिखलाता कुछ, देखता कुछ। सब उसका अस्तव्यस्त हो जाता है। वह आदमी अपने ही भीतर दो हिस्सों में कट जाता है।
मनोविज्ञान की भाषा में कहें तो वैसा आदमी सीजोफ्रेनिक, सिजायड हो जाता है। दो हिस्से हो जाते हैं उसके और दो तरह जीने लगता है--डबल बाइंड। उसके दोनों दाएं-बाएं पैर उलटे चलने लगते हैं। उसकी एक आंख इधर और एक आंख उधर देखने लगती है। उसका सब इनर एलाइनमेंट टूट जाता है। बाईं आंख इस तरफ देखती है, दाईं आंख उस तरफ देखती है; बायां पैर इस तरफ चलता है, दायां पैर उस तरफ चलता है। सब उसके भीतर की हार्मनी, उसके भीतर का सामंजस्य, तारतम्य--सब टूट जाता है।
ऐसे व्यक्ति को मिथ्या में गिरा हुआ व्यक्ति कहते हैं, जिसका इनर एलाइनमेंट, जिसकी भीतरी टयूनिंग, जिसके भीतर का सब सुर-संगम अस्तव्यस्त हो जाता है। जिसके भीतर आग जलती है और बाहर से जो कंपकंपी दिखाता है कि मुझे सर्दी लग रही है। जिसके भीतर क्रोध जलता है, ओंठ पर मुस्कुराहट होती है कि मैं बड़ा प्रसन्न हूं। जिसके भीतर वासना होती, और बाहर त्याग होता कि मैं संन्यासी हूं। जिसके बाहर-भीतर ऐसा भेद पड़ जाता है, ऐसा व्यक्ति अपने जीवन के अवसर को, जिससे एक महासंगीत उपलब्ध हो सकता था, उसे गंवा देता है और मिथ्या में गिर जाता है। मिथ्या रोग है, सीजोफ्रेनिया। मिथ्या का मतलब, खंड-खंड चित्त, स्वविरोध में बंटा हुआ व्यक्तित्व, डिसइंटिग्रेटेड।
कृष्ण क्यों अर्जुन को ऐसा कह रहे हैं? इसकी चर्चा उठाने की क्या जरूरत है? लेकिन कृष्ण इसे सीधा नहीं कह रहे हैं। वे ऐसा नहीं कह रहे हैं कि अर्जुन, तू मिथ्या हो गया है। वे ऐसा नहीं कह रहे हैं। कृष्ण बहुत कुशल मनोवैज्ञानिक हैं, जैसा मैंने कल कहा। वे ऐसा नहीं कह रहे हैं कि अर्जुन, तू मिथ्या हो गया है। ऐसा कह रहे हैं कि ऐसा व्यक्ति मूढ़ है अर्जुन, जो इस भांति मिथ्या में पड़ जाता है।
वे अर्जुन को भलीभांति जानते हैं। वह व्यक्तित्व उसका भीतर से एक्सट्रोवर्ट है, बहिर्मुखी है; क्षत्रिय है। तलवार के अतिरिक्त उसने कुछ जाना नहीं। उसकी आत्मा अगर कभी भी चमकेगी, तो तलवार की झलक ही उससे निकलने वाली है। उसके प्राणों को अगर उघाड़ा जाएगा, तो उसके प्राणों में युद्ध का स्वर ही बजने वाला है। उसके प्राणों को अगर खोला जाएगा, तो उसके भीतर से हम एक योद्धा को ही पाएंगे। लेकिन बातें वह पेसिफिस्ट की कर रहा है, बर्ट्रेंड रसेल जैसी कर रहा है। आदमी है वह अर्जुन और बात कर रहा है बर्ट्रेंड रसेल जैसी। मिथ्या में पड़ रहा है अर्जुन। अगर यह अर्जुन भाग जाए छोड़कर, तो यह दिक्कत में पड़ेगा। इसको फिर अपनी इंद्रियों को दबाना पड़ेगा। और इसके मन में यही सब उपद्रव चलेगा।
इसलिए कृष्ण बड़े इशारे से, सीधा नहीं कह रहे हैं। और बहुत बार सीधी कही गई बात सुनी नहीं जाती। मैंने भी बहुत बार अनुभव किया। कोई व्यक्ति सीधा आ जाता है पूछने, साथ में उसके दो मित्र आ जाते हैं। तो मैं निरंतर जानकर हैरान हुआ हूं कि जो व्यक्ति सीधा सवाल पूछता है, वह कम समझ पाता है; और वे दो लोग जो साथ में चुपचाप बैठे रहते हैं, पूछने नहीं आते, वे ज्यादा समझकर जाते हैं। क्योंकि जो आदमी सीधा सवाल पूछता है, वह बहुत कांशस हो जाता है, बहुत ईगो से भर जाता है। उसका सवाल है। और जब उसे समझाया जा रहा होता है, तब वह समझने की कोशिश में कम और नए सवाल के चिंतन में ज्यादा होता है। जब उससे कहा जा रहा है, तब वह उसके खिलाफ और पक्ष-विपक्ष में सोचता हुआ होता है। वह पूरा का पूरा डूब नहीं पाता। लेकिन दो लोग शांत पास बैठे हैं, न उनका सवाल है, न ही उनका कोई सवाल है, वे बाहर हैं। वे परिधि पर हैं। वे चुपचाप मौजूद हैं, वे आब्जर्वर्स हैं। उनके मन में ज्यादा शीघ्रता से चली जाती है बात।
कृष्ण अर्जुन को सीधा नहीं कह रहे हैं कि तू मिथ्या में पड़ रहा है। क्योंकि हो सकता है, ऐसा कहने से अहंकार मजबूत हो जाए। और अर्जुन कहे, मिथ्या में? कभी नहीं; मैं और मिथ्या में! आप कैसी बात करते हैं? समझाना फिर मुश्किल होता चला जाएगा।
कृष्ण कहते हैं, मिथ्या में पड़ जाता है ऐसा व्यक्ति, जिसकी इंद्रियों को दबा लेता है जो और भीतर जिसका मन रूपांतरित नहीं होता। तो मन जाता है पश्चिम, इंद्रियां हो जाती हैं पूरब, फिर उसके भीतर का सब संगीत टूट जाता है। ऐसा व्यक्ति रुग्ण, डिसीज्ड हो जाता है। और करीब-करीब सारे लोग ऐसे हैं। इसीलिए जीवन में फिर कोई आनंद, फिर कोई सुवास, कोई संगीत अनुभव नहीं होता है।


प्रश्न: भगवान श्री, पिछले श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि क्षणमात्र भी बिना कर्म किए आदमी नहीं रह सकता है और सब लोग प्रकृति के गुणों द्वारा परवश हुए कर्म करते हैं। तो शरीर व इंद्रियों की प्राकृतिक क्रियाओं को कर्म क्यों कहा गया है? कर्म और क्रिया क्या अलग नहीं हैं? इसे समझाएं।


कर्म और क्रिया गहरे में अलग नहीं हैं। ऊपर से अलग दिखाई पड़ते हैं। अब जैसे मैं सो भी जाऊं, तो भी शरीर पचाने का काम करता रहेगा, खून बनाने का काम करता रहेगा; हड्डियां निर्मित होती रहेंगी, पुराने सेल मरते रहेंगे, निकलते रहेंगे, नए सेल बनते रहेंगे। रात मैं सोया रहूंगा, क्रिया जारी रहेगी। उसको हम कर्म न कह सकेंगे, क्योंकि मैं तो बिलकुल भी नहीं था, अहंकार को तो मौका नहीं था। असल में जिस क्रिया से हम अहंकार को जोड़ने में सफल हो जाते हैं, उसको कर्म कहने लगते हैं। और जिस क्रिया में हम अहंकार को नहीं जोड़ पाते, उसको हम क्रिया कहते हैं, उसको हम फिर कर्म नहीं कहते। लेकिन गहरे में कोई भी क्रिया मात्र क्रिया नहीं है; क्रिया भी कर्म है।
यह क्यों? ऐसा क्यों? क्योंकि रात जब मैं सो रहा हूं, या मुझे बेहोश कर दिया गया है--समझ लें कि मुझे मार्फिया दे दिया गया है, अब मैं बिलकुल बेहोश पड़ा हूं--तो भी तो खून अपना काम करेगा, हड्डियां अपना काम करेंगी, पेट अपना काम करेगा, श्वास चलती रहेगी, फेफड़े-फुफ्फस अपना काम करेंगे। सब काम जारी रहेगा। मैं तो बिलकुल बेहोश हूं। तो इसको कैसे कर्म से जोड़ा जा सकता है?
इसलिए जोड़ना पड़ेगा, इसलिए जोड़ना जरूरी है कि मेरे जीने की आकांक्षा, लस्ट फार लिविंग, जीवेषणा, मेरी गहरी से गहरी बेहोशी में भी मौजूद है। और मेरी जीवेषणा के कारण ही ये सारी क्रियाएं चलती हैं। अगर मेरी जीवेषणा छूट जाए, तो स्वस्थ शरीर भी इसी वक्त बंद हो जाएगा। अगर मेरे जीने की इच्छा तत्काल छूट जाए, तो सारी क्रियाएं तत्काल बंद हो जाएंगी। गहरे में, मेरा ही अचेतन, मेरा ही अनकांशस मेरी क्रियाओं को भी चला रहा है; मैं ही चला रहा हूं। लेकिन चूंकि अचेतन मन में अहंकार का कोई भाव नहीं है, इसलिए मैं उनको कर्म नहीं कहता।
आप रात सो रहे हैं; गहरी नींद में पड़े हैं। हम इतने लोग हैं यहां, हम सारे लोग यहीं सो जाएं। और फिर कोई आदमी जोर से आकर चिल्लाए, राम! तो हजारों लोगों में कोई नहीं सुनेगा, सब सोए रहेंगे। राम भर करवट लेगा और कहेगा कि कौन रात डिस्टर्ब कर रहा है? कौन परेशान कर रहा है? किसने नाम लिया?
इतने लोग सो रहे हैं, किसी ने नहीं सुना। लेकिन जिसका नाम राम था, चाहे नींद में भी हो, सुन रहा था कि मेरा नाम लिया जा रहा है; मेरा नाम राम है। नींद के गहरे में भी इतना उसे पता है कि मैं राम हूं। नींद में भी!
एक मां है। तूफान चल रहा हो बाहर, आंधी बह रही हो, बर्फ पड़ रही हो, वर्षा हो रही हो, बिजली कड़क रही हो, उसे पता नहीं चलता। उसका छोटा-सा बच्चा इतनी कड़कती बिजली में, गूंजते बादलों के बीच जरा-सा रोता है, करवट लेता है, वह जाग जाती है। जरूर कोई मन का हिस्सा पहरा दे रहा है रात के गहरे में भी। तूफान को नहीं सुनता, लेकिन बच्चे की आवाज सुनाई पड़ जाती है।
हिप्नोटिस्ट कहते हैं--जो लोग सम्मोहन की गहरी खोज करते हैं, वे कहते हैं--कि कितना ही किसी आदमी को सम्मोहित, हिप्नोटाइज कर दिया जाए, लेकिन उससे भी गहरे में उसकी इच्छा के विपरीत काम नहीं करवाया जा सकता है।
जैसे एक, एक सती स्त्री को, जिसके मन में एक पुरुष के अलावा दूसरे पुरुष का कभी कोई खयाल नहीं आया। कठिन है बहुत, अस्वाभाविक है बहुत, करीब-करीब असंभव है। इसीलिए तो सती का मूल्य भी है। अगर बहुत सरल, संभव और स्वाभाविक होता, तो इतना मूल्य नहीं हो सकता था। अगर उसे हिप्नोटाइज किया जाए, बेहोश कर दिया जाए, कोई मैक्स कोली या कोई उसे बेहोश कर दे पूरा और गहरी बेहोशी में उससे कहे कि नाचो--वह नाचे। उससे कहे, दूध दुहो--वह दूध दुहे। उससे कहे कि भागो--वह भागे। लेकिन उससे कहे कि इस पुरुष को आलिंगन करो--फौरन हिप्नोटिज्म टूट जाएगा, फौरन बेहोशी टूट जाएगी। वह स्त्री खड़ी हो जाएगी कि आप क्या बात कह रहे हैं! भागती थी, दौड़ती थी, रोती थी, हंसती थी, यह सब करती थी। लेकिन कहा, इस पुरुष का आलिंगन करो। आलिंगन नहीं होगा, सम्मोहन टूट जाएगा। क्यों? इतने गहरे में भी, इतने गहरे में भी, इतने अचेतन में भी, उसकी जो गहरी से गहरी मनोभावना है, वह मौजूद है। नहीं, यह नहीं हो सकता।
मनुष्य के भीतर जो भी चल रहा है, उसमें हमारा सहारा है। सहारे का मतलब, हमारी गहरी आकांक्षा है कि हम जीएं, इसलिए नींद में भी जीने का काम चलता है, बेहोशी में भी चलता है।
मैं एक स्त्री को देखने गया, जो नौ महीने से बेहोश है, कोमा में पड़ी है। और चिकित्सक कह रहे थे कि वह तीन साल तक बेहोश पड़ी रहेगी। ठीक नहीं हो सकेगी, लेकिन ऐसी ही बेहोश पड़ी रहेगी। ऐसे ही इंजेक्शंस से, दवाएं और भोजन और ये सब दिया जाता रहेगा। कभी मर जाएगी। बड़ी हैरानी की बात है कि वह नौ महीनों से बेहोश पड़ी है। तो मैंने कहा कि और जब जीने की अब कोई लौटने की आशा ही नहीं है, फिर क्या कारण होगा? उन्होंने कहा, हम कुछ भी नहीं कह सकते। लेकिन मनसविद कहेगा कि जीने की आकांक्षा अभी भी गहरे में है। जीवेषणा, अचेतन से अचेतन में जीवेषणा अभी भी है। वह जीवेषणा चलाए जा रही है।
अब पूछें कि यह जीवेषणा किसकी है? यह जीवेषणा अगर हमारी ही हो, तो शायद कभी-कभी हम चूक भी जाएं। यह जीवेषणा परमात्मा की ही है, अन्यथा हम चूक जाएं कभी-कभी। इसलिए जो भी गहरे हिस्से हैं जीवन के, वे हम पर नहीं छोड़े गए हैं। वे हमारे कर्म नहीं, हमारी क्रियाएं बन गए हैं। जैसे अगर श्वास लेना आपके ही हाथ में हो कि आप श्वास लें तो लें; न लें तो न लें--जैसे पैर का चलना, चलें तो चलें, न चलें तो न चलें--ऐसा अगर श्वास लेना भी आपके हाथ में हो, तो आदमी दिन में दस-बीस दफा मर जाए; जरा चूके और मरे।
तो आपके हाथ में जो बिलकुल व्यर्थ की बातें हैं, जिनके हेर-फेर से कोई खास फर्क नहीं पड़ता, वे ही दिखाई पड़ती हैं। बाकी सब महत्वपूर्ण गहरी जीवनधारा के हाथ में, परमात्मा के हाथ में हैं। वे आपके हाथ में नहीं हैं। नहीं तो आप तो कई दफे भूल-चूक कर जाएं। भूल गए, दो मिनट श्वास न ली। दस रुपए का नोट खो गया; दस मिनट भूल गए, श्वास न ली; पत्नी गुस्से में आ गई, भूल गए, दो मिनट हृदय न धड़काया--गए।
नहीं, आपके चेतन मन पर वह निर्भर नहीं है, अचेतन पर निर्भर है। और अचेतन एक तरफ आपसे जुड़ा है और एक तरफ परमात्मा से जुड़ा है। अचेतन एक तरफ आपसे जुड़ा है और दूसरी तरफ गहरे में परमात्मा से जुड़ा है।
इसलिए जब हम कहते हैं, परमात्मा स्रष्टा है, क्रिएटर है, तो उसका यह मतलब नहीं होता, जैसा कि लोग समझ लेते हैं। मानने वाले भी और न मानने वाले भी, दोनों ही गलत समझते हैं। उसका यह मतलब नहीं है कि किसी तिथित्तारीख में, किसी मुहूर्त को देखकर परमात्मा ने दुनिया बना दी। उसका यह मतलब नहीं है। मानने वाले भी ऐसा ही समझते हैं, विरोध करने वाले भी ऐसा ही समझते हैं। वे दोनों ही एक से नासमझ हैं।
परमात्मा स्रष्टा है, उसका मतलब केवल इतना ही है कि इस क्षण भी उसकी शक्ति ही सृजन कर रही है और जीवन को चला रही है। इस क्षण भी, अभी भी, वही है। गहरे में वही निर्मित करता है। अगर सागर में लहर उठती है, तो वह उसी की लहर है। अगर हवाओं में आंधी आती है, तो वह उसी की आंधी है। अगर प्राणों में जीवन आता है, तो वह उसी का जीवन है। अगर मस्तिष्क के जड़ सेल्स में बुद्धि चमकती है, तो वह उसी की बुद्धि है।
ऐसा नहीं है कि किसी इतिहास के किसी क्षण में--जैसा ईसाई कहते हैं कि जीसस से चार हजार चार वर्ष पहले--एक तिथि कैलेंडर में, परमात्मा ने सारी दुनिया बना दी। मामला खतम हो गया; तब से उसकी कोई जरूरत भी नहीं है। एक दफा आर्किटेक्ट मकान बना गया, फिर उसको विदा कर दिया। अब उसको बार-बार, उसकी क्या जरूरत है बीच में लाने की! वह गया। परमात्मा ऐसा कुछ निर्माण करके चला नहीं गया है। जीवन की सारी प्रक्रिया उसकी ही प्रक्रिया है। एक छोर पर हम यहां चेतन हो गए हैं, तो वहां हमको भ्रम पैदा हुआ है कि हम कर रहे हैं।
कृष्ण वही कह रहे हैं कि तू कर रहा है, ऐसा मानना भर छोड़। कर्म तो होता ही रहेगा, क्रिया तो चलती ही रहेगी, तू अपना भ्रम भर बीच से छोड़ दे कि तू कर रहा है। तब तुझे दिखाई पड़ेगा कि तेरे पीछे, तेरे पार, परमात्मा के ही हाथ तेरे हाथों में हैं; परमात्मा की ही आंख तेरी आंख में है; परमात्मा की ही धड़कन तेरी धड़कन में है; परमात्मा की ही श्वास तेरी श्वास में है। तब रोएं-रोएं में तू अनुभव करेगा, वही है। अपने ही नहीं, दूसरे के रोएं-रोएं में भी अनुभव करेगा कि वही है।
एक बार अहंकार का भ्रम टूटे, एक बार आदमी अहंकार की नींद से जागे, तो पाता है कि मैं तो था ही नहीं। जो था, वह बहुत गहरा है, मुझसे बहुत गहरा है। पहले है, मुझसे बहुत पहले है। बाद में भी होगा, मेरे बाद भी। मैं भी उसमें हूं। लेकिन मेरा मैं, लहर को आ गया अहंकार है। लेकिन अहंकार आ जाए, तो भी लहर सागर से अलग नहीं हो जाती, होती तो सागर में ही है। लहर अगर सोचने भी लगे कि मैं उठ रही हूं, तो भी लहर नहीं उठती; उठता तो सागर ही है। और लहर सोचने लगे कि मैं चल रही हूं, तब भी चलती नहीं; चलता तो सागर ही है। और लहर गिरती है और सोचने लगे, मैं गिर रही हूं, तब भी लहर गिरती नहीं है; गिरता तो सागर ही है। और इस पूरे वहम में, इस पूरे भ्रम में जब लहर होती है, तब भी वह होती सागर ही है।
इतना ही कृष्ण कह रहे हैं कि तू पीछे देख, गहरे देख, ठीक से देख! करना तेरा नहीं है, करना उसका है। तू नाहक बीच में मैं को खड़ा कर रहा है। उस, उस मैं को जाने दे।
एक छोटी-सी कहानी और अपनी बात, आज की बात मैं पूरी करूं।
मैंने सुना है कि एक आदमी परदेश में गया है। वहां की भाषा नहीं जानता, अपरिचित है, किसी को पहचानता नहीं। एक बहुत बड़े महल के द्वार पर खड़ा है। लोग भीतर जा रहे हैं, वह भी उनके पीछे भीतर चला गया है। वहां देखा कि बड़ा साज-सामान है, लोग भोजन के लिए बैठ रहे हैं, तो वह भी बैठ गया है। भूख उसे जोर से लगी है। बैठते ही थाली बहुत-बहुत भोजनों से भरी उसके सामने आ गई, तो उसने भोजन भी कर लिया है। उसने सोचा कि ऐसा मालूम पड़ता है, सम्राट का महल है और कोई भोज चल रहा है। अतिथि आ-जा रहे हैं।
वह उठकर धन्यवाद देने लगा है। जिस आदमी ने भोजन लाकर रखा है, उसे बहुत झुक-झुककर सलाम करता है। लेकिन वह आदमी उसके सामने बिल बढ़ाता है। वह एक होटल है। वह आदमी उसे बिल देता है कि पैसे चुकाओ। और वह सोचता है कि शायद मेरे धन्यवाद का प्रत्युत्तर दिया जा रहा है! वह बिल लेकर खीसे में रखकर और फिर धन्यवाद देता है कि बहुत-बहुत खुश हूं कि मेरे जैसे अजनबी आदमी को इतना स्वागत, इतना सम्मान दिया, इतना सुंदर भोजन दिया। मैं अपने देश में जाकर प्रशंसा करूंगा।
लेकिन वह बैरा कुछ समझ नहीं पाता, वह उसे पकड़कर मैनेजर के पास ले जाता है। वह आदमी सोचता है कि शायद मेरे धन्यवाद से सम्राट का प्रतिनिधि इतना प्रसन्न हो गया है कि शायद किसी बड़े अधिकारी से मिलने ले जा रहा है। जब वह मैनेजर भी उससे कहता है कि पैसे चुकाओ, तब भी वह यही समझता है कि धन्यवाद का उत्तर दिया जा रहा है। वह फिर धन्यवाद देता है। तब मैनेजर उसे अदालत में भेज देता है।
तब वह समझता है कि अब मैं सम्राट के सामने ही मौजूद हूं। मजिस्ट्रेट उससे बहुत कहता है कि तुम पैसे चुकाओ, तुम यह क्या बातें करते हो? या तो तुम पागल हो या किस तरह के आदमी हो? लेकिन वह धन्यवाद ही दिए जाता है, वह कहता है, मेरी खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं। तब वह मजिस्ट्रेट कहता है कि इस आदमी को गधे पर उलटा बिठाकर, इसके गले में एक तख्ती लगाकर कि यह आदमी बहुत चालबाज है, गांव में निकालो।
जब उसे गधे पर बिठाया जा रहा है, तो वह सोचता है कि अब मेरा प्रोसेशन, अब मेरी शोभायात्रा निकल रही है। निकलती है शोभायात्रा। दस-पांच बच्चे भी ढोल-ढमाल पीटते हुए पीछे हो लेते हैं। लोग हंसते हैं, खिलखिलाते हैं, भीड़ लग जाती है। वह सबको झुक-झुककर नमस्कार करता है। वह कहता है कि बड़े आनंद की बात है, परदेशी का इतना स्वागत!
फिर भीड़ में उसे एक आदमी दिखाई पड़ता है, जो उसके ही देश का है। उसे देखकर वह आनंद से भर जाता है। क्योंकि जब तक अपने देश का कोई देखने वाला न हो, तो मजा भी बहुत नहीं है। घर जाकर कहेंगे भी, तो कोई भरोसा भी करेगा कि नहीं करेगा! एक आदमी भीड़ में दिखाई पड़ता है, तो वह चिल्लाकर कहता है कि अरे भाई, ये लोग कितना स्वागत कर रहे हैं! लेकिन वह आदमी सिर झुकाकर भीड़ से भाग जाता है। क्योंकि उसे तो पता है कि यह क्या हो रहा है! लेकिन वह गधे पर सवार आदमी समझता है,र् ईष्या से जला जा रहा है।र् ईष्या से जला जा रहा है।
करीब-करीब अहंकार पर बैठे हुए हम इसी तरह की भ्रांतियों में जीते हैं। उनका जीवन के तथ्य से कोई संबंध नहीं होता, क्योंकि जीवन की भाषा हमें मालूम नहीं है। और हम जो अहंकार की भाषा बोलते हैं, उसका जीवन से कहीं कोई तालमेल नहीं होता।
शेष कल।


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