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रविवार, 29 अक्टूबर 2017

पोनी-(एक कुत्ते की आत्म क्था)-अध्याय-19



अध्‍याय—19 मम्‍मी पापा के बिछोह की पीड़ा

म्‍मी—पापा से बिछुड़ने का अनुभव मेरे लिए नया था। इससे कुछ भय और असुरक्षा का भाव भी मेरे अंदर प्रवेश कर गया था। आज जिन मनुष्‍य के संग मैं अपने को सुरक्षित महसूस करता था। वे दोनों नहीं थे। एक नया खाली पन उस में समा गया था। जो मुझे गहरे  मोत के सन्‍नाटे जैसा मालुम होता था। हालाकि खाना तो मिल जाता था। पर मन में एक भय समाया रहता था। एक अंजान सा भय। पर क्‍योंकि ये सब मेरी समझ के बहार की बात थी। सभी तो यहां पर अपने थे, एक मम्‍मी पापा ही तो चले गये थे। और वो भी शायद कुछ दिनों के लिए, फिर शायद लोट आये।
क्‍योंकि छोटी—छोटी विदाई एक दो दिन की तो पहले भी चलती रहती थी। पर इस बार मेरे सब्र के भी पार की बिदाई हो गई। परन्‍तु फिर न जाने क्‍यों सब बिखरा—बिखरा लग रहा था। मेरी चेतना जो मुझे ऊपर की और धक्‍के मार रही थी। और मेरा शरीर जो मुझे बांधे हुए थे, अपने पास में। इन दोनों के कारण मेरा मन अति अशांत रहता था। मैं अपने को एक कैद में बंधा महसूस कर रहा था। लगता था इस सब को फाड़ कर निकल भागू। परंतु शायद हम इसे कभी नहीं तोड़ सकते। ये मुक्‍ति हमारे भाग्‍य में नहीं है। इस पाने के लिए हमें  मनुष्‍य जन्‍म तक की यात्रा करनी ही होगी। 

शायद तभी हम को पशु नाम दिया गया है। हम प्रकृति के हाथों बंधे है,शरीर के ज़रिये। एक लाचारी थी, एक मजबूरी थी। मुझे वो सीढ़ियाँ दिखाई दे रही थी। जिस में चढ़ कर उपर जा सकता था। और मुझे उपर जाने में सहयोग भी मिल रहा था। पर मेरा शारीरिक विकास इसमें  बहुत बड़ी बाधा थी। पर इस शरीर को में छोड़ या तोड़ भी नहीं सकता था, तब मेरा होना ही कहां रहता, इस सब के कारण तो मैं था। पर आप समझ सकते है, मेरी लाचारी, जो भाषा के साथ प्रत्येक कदम पर हमारी लाचारी दर्श रही थी। एक प्रकार से बेल गाड़ी के पीछे मैं आपने आप को बंधा हुआ पा रहा था। जो मेरी गति से अधिक तेज चल रही हो और में चल कम रहा हूं और घिसट अधिक रहा हूं।
ऐसा मुझ प्रतीत हो रहा था। पर मैं लाचार था, इस घिसटने में एक पीड़ा के साथ—साथ सुखद एहसास भी था। आप एक ऐसी आग में खड़े है जो जलाने के अलावा एक सीतलता एक आनंद भी प्रदान कर रही हो। तब आपको उस आग में जलना अति सुख दाई लगेगा। उसमें एक तृप्ति एक शांति पीड़ा से अधिक सूख दाई महसूस होगी। मैं अपने आप को बहुत अधिक भाग्‍य शाली समझता हूं। कि में इस विकास क्रम में ऐसे मनुष्‍यों का संग साथ मिला, जो मनुष्‍य नहीं देवता है। नहीं तो इतना भाग्य ले कर मैं कहां से आया। एक जंगली मां की गोद में जन्‍म लिया।
फिर एक कुरूर हाथों ने उठ लिया, और पहुंच गया स्‍वर्ग तुल्‍य घर में। मेरे साथ जो मेरी बहन आई थी। वह तो उन पापियों के हाथ मारी गई। अगर मैं वहां रह जाता तो मैं भी मर जाता। फिर प्रकृति का वो कौन सा अंजान खेल है। जिसमें सब हम एक ही स्‍थान, और समय में रह कर भी भिन्‍न–भिन्‍न जीवन जी लेते है। जिसे भाग्‍य के नाम से जाना जाता है। इसी को हिन्‍दू प्रारारभ कहते है। होना तो चाहिए, कुछ कर्म का सिद्धांत वरना एक ही गर्भ में मैं और मेरे दूसरे भाई बहन रहे, एक ही मां का दूध पिया, एक ही खून से हमे सींचते गए, फिर भी सब का भाग्‍य अलग—अलग है।
शायद प्रकृति कि गोद या उसके संग में रहकर जो विकास में हजारों जन्‍म में करता। उसे मनुष के संग में एक जन्‍म में कर गया। जैसे भोंकने वाली बात को ही ले लजीज, जब में गली के आपने साथियों को भोंकते सुनता था तो संग भोंकने लग जाता था। पर कुछ ही दिन में समझ गया कि ये सब मेरे बूते के बहार की बात है। मैं क्‍यों भोंकु, ये क्‍यों जैसे ही जब आपके जीवन में प्रवेश कर जाता है। तब आपकी सारी की सारी अवधारणा चकना चुर हो कर गिरने लग जाती है।
अब में घर की घंटी के बजाने के अंदाज से ही समझ जाता है कि कौन आया। कोई परिचित है या अंजान जिसे भोंकना है या नहीं। ये नहीं की मैं पंडित हो गया और ज्ञानी बन गया जिस ने भोंकना ही बंद कर दिया हो। भला हम भोंकना कैसे बंद कर सकते है, पर इसमे एक लय आ गई एक तहजीब समा गई। ये नहीं की पगलों की तरह बस भोंकना ही है। कारण हो या न हो। इसके साथ खाने की भूख इतनी कम हो गई थी, कि मैं बस एक ही समय भोजन करता था। सब वह भी श्‍याम को सुबह दूध वगैरह पी लेता था। जंगल में घूमने जाते समय जब किसी कुत्‍ते को किसी मरे जानवर को खोते देखता तो मेरा जी मिचलाने लग जाता था।
सोचता था इतनी बदबू वाली गंदी सी चीज ये क्‍यों खा रहा है। क्‍या इस सड़ी चीज को खाकर ये बीमार नहीं हो जायेगे। तालाब का गंदा पानी भी अब मुझे नहीं भाता था। ये सब मेरा पतन था या उत्‍थान में समझ नहीं पा रहा था। पर एक सुख था मेरे अंदर, एक शांति की छाया मुझे अपने में घेरे रहती थी। पहले जितना क्रोध मुझे आता था, वह अब कम हो गया था। पापा जी जब कोई प्रवचन लगा कर सुनते तो वह मेरे लिए एक लोरी का काम करता। शब्‍द तो मुझे समझ नहीं आते थे। पर वो धवनि मुझे बहुत मधुर लगती थी। वो गुंज मुझे एक पंखों पर बिठा कर कही लिए जाती थी। जहां से लोट कर जब आता तो ये दुनियां कुछ नई महसूस होती। उस नींद में और साधारण नींद में दिन रात का अंतर होता था। वो एक चमत्‍कारी नींद थी। जिस में सदा इंतजार करता रहता था। और चाहता था कि जब मैं मरू तो मैं उसी धवनि की तरंग पर बैठ कर मरू (भाग्‍य से ऐसा ही हुआ) पर ये मेरे बस की बात नहीं थी। पर ये सच मेरी तमन्‍ना थी।
अगर में मनुष्‍य के संग साथ नहीं रहता तो उतनी गहरी नींद कभी नहीं सो पाता। क्‍योंकि जीवन का खतरा हर क्षण घेरे रहता था। पर वो परम सुखद एहसास तो अपने में पूर्णता ही समेटे हुए था। मैं मनुष्‍य के स्‍वभाव और समझ से परिचित हो गया था। वो सुरक्षा जब अंदर एक निश्चिंतता बन गई तो बाद में वह एक जागरण बननी शुरू हो गई। एक चमक जो जागरण और नींद के बीच पतली से धारा बन कर बहता है। जो हमें कुदरत ने अनजाने में दिया है। और मनुष्‍य उस से शायद अनभिग रह गया है।
धीरे—धीर अंदर की तमस एक जागरण में रूपांतरित होने लगी। अंदर की बेहोशी जो अंधकार मय थी, धीरे—धीरे वो मेरे शरीर के माध्‍यम से जीवन पर छानें लग गई थी। जिसे में खेलते हुए, देखते हुए, चलते हुए, भी महसूस करने लग गया था। एक तृप्‍ति जो गहरे से गहरे तल को कुरेद रही थी। मेरे अंतस की सुप्‍त दरारों को छेद रही थी। उस सब के बीच मेरे जीवन के साथ—साथ मधुरता मेरे मुख में भी समा रही थी।
      दिन पर दिन बीतते जा रहे थे। एक—एक दिन काटे नहीं कर रहा था। हालाकि मैं जानता था कोई दिनों की लम्‍बाई अधिक नहीं हुई है। वह तो अपनी ही गति से चल रहे थे। पर हमारे जीवन के बहाव में ही कहीं ठहराव आ गया था। जैसे किसी झरने को बीच से अवरोध कर के एक अंजान मार्ग पर मोड़ दिया हो। ये किसी कविता के छंदो में परिवर्तन कर उसे ताल रही कर दिया गया हो। कुछ अजीब सा सुना पन कुरेद और  खाये जा रहा था। ये सब मुझ अकेला पर ही नहीं गुजर रही था, इसमें घर की चारों चौकड़ी शामिल थी। जैसे—जैसे दिन बित रहे थे उदासी और धनी होती जा रही थी।
कभी—कभी तो उदासी का वो छोर आ जाता था कि लगता था इस का अब कोई अंत नहीं है। हम पूरी उम्र ऐसे ही मम्‍मी पापा के बीना ही जीना होगा। लेकिन अंदर एक आस थी नहीं ऐसा नहीं हो सकता जरूर हमारे फिर वही पुराने दिन आयेंगे। जब हम किसी से दूर हो जाते है तब हमें उस कि कीमत क्‍यों पता चलती है। शायद एक गहरा खाली पन हो जाता है हमारे अंदर।   और उसे हम नहीं भर पाते किसी दुसरी चीजों से। इस बिछोह में पीड़ा ही नहीं एक भय भी मेरे अंदर भर गया था, एक असुरक्षित का, एक काला शाह अँधेरा और पता नहीं उस के पार कोई प्रकाश है या नहीं। न तो भूख ही लगती थी, बस किसी तरह से खा लेते थे मन मान कर, पर उसमें पहले जैसा कोई चाव नहीं था। वरना तो खाने का मुझे इतना शोक था कि जब भी घर में कोई नई या मेरी पसंद की चींजे बनती थी।
तब उस का इंतजार करना मेरे लिए बहुत मुश्किल हो जाता था। एक बार याद है मुझे जब मैं छोटा था, शायद शरद् के दिन थे, उस दिन गाजर का हलवा बन रहा था। मैं बार—बार किचन में भाग—भाग कर जा रहा था। उन दिनों आँगन में लकड़ी जलाने का एक चुल्हा भी होता था। अब मेरे इस तरह से घुसने से मम्‍मी बार—बार परेशान हो रहे थे कि कहीं में जलते चूल्हे की आग में न जल जाऊँ, आखिर कार मुझे चैन से बाँध कर एक चार पाई के पाए से बाँध दिया गया। पर मुझे कहां सब्र था, नहीं रहा जा रहा था कि इसे बनने में इतनी देर क्‍यों लग रही है, इसे जल्‍दी बनाओ जो भी बना रहे है उसकी सुगंध बहुत सुस्‍वाद है। उसकी खुशबु मेरे नाक में घुस रही थी।
उसी से पता चल रहा था की वो कितनी सुस्‍वाद खाने की चीज बन रही थी। तब मैं उस चारपाई को भी खींच कर उस चूल्‍हे के पास ले गया था। और रो भी रहा था कि मुझे इतनी दूर क्‍यों बांध दिया और आप सब लोग न जाने क्‍या मजे से खा रहे हो। और मुझे देखने से भी महरूम कर दिया गया। तब मेरे इस तरह से रोने से सब लोगो ने मेरा कैसा मजाक बनाया था।
और कछ क्षण के लिए में उस मधुर सुगंध को भर कर झेप गया था। और सब को भौंकने लगा, फिर भी सब हंस रहे थे।
      पर अब तो खाना अंदर जाता ही नहीं था। लगता था गला किसी ने बंद कर दिया है। न ही खेलने को मन करता था। कुछ देर हम सब खेलते और बाद में उदास हो जाते। ज्‍यादातर में एक कोने में उदास पडा रहता था। पर अचानक एक दिन इतने दिन की उदासी के बाद कही कोई बिजली कोंधी कुछ नये पन का बहाव महसूस हुआ। ये सब मेरे सोचने से नहीं हो रहा था। एक ऐसा झोंका अचानक उठा जैसे मेरे जलते शरीर में कहीं से शीतलता ने आकर घेर लिया हो। एक ऐसा आयोजन जो शांत और उदास झील में अचानक तरंगों को जगा दे। ये सब अपने आप ही हुआ था। किसी अंजान शक्‍ति के सहारे। पूरे मन और तन पर जो उदासी फैली थी वह न जाने प्रकाश की एक किरण के आगे काफूर हो गई।
मैंने दीदी—भैया के पास जाकर उनके चेहरों को देखना चाहा। पर वह तो अभी भी उदास थे। मैं उनके पास जा कर पंजा मारने लगा। और कुं...कुं....कुं कर के रोने लगा। तब भी उनका ध्‍यान मेरी और नहीं हुआ। तब मैं समझ गया की ये सब मेरे ही साथ हो रहा है। इस घर के बाकी लोग उसे महसूस नहीं कर रहे। लेकिन मैने उस अंजान से झोंके को रूकने नहीं दिया। अपने को खुला छोड़ दिया। और उसे बहने दिया। वो मेरे रोंए—रेशे में फैलने लगा। कुछ ही देर में सब बात मेरी समझ में आने लग गई। लगता की अभी घर की घंटी बजेगी और मम्‍मी—पापा सामने आकर खड़े हो जायेगे।
      अब मेरे शरीर की उर्जा मुझे लेटा नहीं रहने दे रही थी। लगता था कोई मुझे उठा रहा है। मेरे न चाहने पर भी वह अंजान शक्‍ति मुझे धकेल रही है। मेरे शरीर में एक प्रकार की खुशी की तरंग फैल रही थी। लगता था की मैं जोर से भौकू और भागू। मुझे लग रहा था अभी मुझे पंख उग जायेगे और में उड़ कर चाँद सितारों को तोड़ कर पल में नीचे ले आऊँगा। मुझसे जब सहा नहीं गया तो फिर भैया—दीदी के पास भागा गया और जोर—जोर से भोंकने लगा। अब कि बार उन्‍होंने मेरी और देखा। उनको मेरी आंखों में खुशी नजर आई। मैं दीदी के कंधे पर पैर रख कर खड़ा हो गया। शायद वह कुछ पढ़ रही थी। और मैंने उनका मुख चाट लिया। और भोंकता हुआ दुर निकल गया। मेरे इस तरह के व्यवहार से घर का तनाव कुछ कम हुआ। उन लोगो को भी लगा कि जरूर कोर्इ बात है। वरना तो पोनी ने इतने दिन से कभी ऐसा व्‍यवहार नहीं किया। उस रात मैने तो भर पेट खाना खाया। रात को नींद तो नहीं आई बार—बार रह—रह कर ऐसा लगता की घर की घंटी बजी।
      और जिसे में सपने में सपना सोच रहा था वह सुबह सच हो गया। अचानक घर की घंटी बजी। हम सब इस के लिए तैयार थे। मैं जोर से भाग। मेरे साथ दीदी—भैया भी भागे। मैं दरवाजे के पास पहुंच कर पंजे मारने लगा। पर उसे खोल नहीं सका। दीदी ने आकर दरवाजा खोला। सामने मम्‍मी पापा खड़े थे। मैं दोनों पैरो के सहारे खड़ा हुआ और मम्‍मी जी के मुख में मैने आनी जीब डाल दी। बस फिर क्‍या था, मैं तेजी से आँगन में भाग रहा था। रो रहा था, अपनी खुशी को किसी तरह से निकालने कि कोशिश कर रहा था।
लगता था मेरा ह्रदय इसे बरदाश्त नहीं कर सकता कही ये गुब्‍बारे की तरह से फट न जाये। सब मुझे छूने की कोशिश कर रह थे। पर मैं अनछुआ से सब के बीच से भाग रहा था। इस तरह के व्‍यवहार के कारण पापा जी की आंखों में आंसू आ गये वह खड़े होकर जोर से ताली बजा कर मुझे उत्साहित कर रहे थे। इसके बाद सब ताली बजा कर मुझे शाबाशी दे  रहे थे। आखिर मुझे पापा जी ने पकड़ कर अपने सिने से लगा लिया, मैं रो रहा था। और लग रहा था कि कहीं समा जाऊँ जहां मुझे कोई छू न सके। पापा जी चूम कर मुझे प्‍यार करने लगे। मैंने आंखे उठा कर देखा तो सभी मेरे साथ रो रहे थे। एक दूसरे के गले लग रहे थे।
      उस रात पापा जी ने हम सब को जब परी की कहानी सुनाई तब मैं भी पापा जी के पैरो  घुटनों पर सर रख कर लेटा था। पापा जी मेरी गर्दन पर प्‍यार से हाथ फेर रहे थे। इस सब के बीच मुझे नींद आ गई। तब मैंने एक सपना देखा, एक बहुत बड़ा बादल है। एक दम सफेद झक्‍क, रूई के फोहो की तरह। पापा जी उस पर महरून रंग के कपड़े पहने बैठे है। उस बादल के चारो और काले और सफेद रंग के कपड़े पहले बहुत से लोग नाच रहे है। एक बहुत बड़ा सा वृक्ष है, जिस का तना और पत्‍ते तो दिखाई दे रहे है। पर उस का उपरी हिस्सा हमें दिखाई नहीं दे रहा। ऊपर बैठे हुए पापा जी के उपर पीले रंग के फूल गिर रहे है।
अब उस वृक्ष पर फूल कहीं दिखाई नहीं दे रहे है। फिर क्‍या देखता हूं, जिस बादल पर पापा जी बैठे थे। वह अचानक उपर की और उठने लग जाता है। सब नाचने वाले और मैं नीचे रह जाते है। गुब्‍बारे नुमा बादल और—और छोटा होता जा रहा था। अचानक सब का नाच बंद हो जाता है। सब उस उड़ते बादल को अचरज से देख रहे है। मधुर संगीत की धवनि बज रही है। पर उस बादल को कोई रोकने की या पकड़ने की कोशिश नहीं कर रहा है। सब के चेहरे पर एक अद्भुत सी खुशी है। अचानक इस बीच एक बहुत बड़ा आदमी जो काले रंग के कपड़े पहने हुआ था। हाथ में उसके एक मोटा सा सोटा था। वह बीच में आ कर खड़ा हो जाता है।
वह आदमी इतना बड़ा था, कि हम उसके नाखुन से भी छोटे दिखाई देते हे। उसकी आंखे बीजली की तरह चमक रही थी। उसकी सफेद दाढ़ी लंबी और बहुत बड़ी थी। जो हवा में झूल रही थी। वह बादल पर बैठे पापा जी को एक बार देखते है। पापा जी इतने छोटे से दिखाई दे रहे थे एक दम से चींटी की तरह। मानों अभी आंखों से ओझल हुए। तभी अचानक वह आदमी अपने छड़ी वाले हाथ को उपर की और उठाता है। और पापा जी जिस बादल पर बैठ कर कहीं दूर आंखों से ओझल होते जा रहे थे। अचानक रूक जाते है और वापस हमारी और लोटना शुरू कर देते है।
जैसे—जैसे बादल नीचे की और आता है, सब लोग मस्‍त झूम कर नाचना शुरू कर देते है। चारों और आनंद उत्‍सव का माहोल बन जाता है। आसमान से अब लाल फूलों की वर्षो होने लग जाती है। उस में वहां नाचते हुए सब लोग सराबोर हो जाते है। नीचे आते—आते बादल बहुत बड़ा हो जाता है, और उस पर बैठे पापा जी जो लाल रंग के कपड़े पहने थे अब एक दम से सफेद रंग के कपड़े पहने वापस आते है, अब आंखों को भ्रम होता है कि बादल खाली है या उस पर पापा जी बैठे है या नही। और अचानक बहुत जोर से प्रकाश होता है। और आसमान से मोतियों की वर्षो होनी शुरू हो जाती है। सब लोग मोतियों से अपनी खाली झोल भर रहे है, पापा जी के घने काले बालों में मोती झूम रहे है। पर उनकी आंखें बंद है, वो हमें देख नहीं रहे है। मैं भोंक कर उनका ध्‍यान अपनी और खीचना चाहता हूं।
क्‍योंकि वहाँ और कोई आदमी मेरा परिचित नहीं हे। मैं वहां पर बिलकुल अकेला हूं। और तभी अचानक वह काले चोगे वाला महान पुरूष मेरी और वह जादू की छड़ी करता है और मैं भी उन्‍हीं सब जैसा मानव बन जाता है। इस बात की मुझे इतनी खुशी होती है की मैं मोती चुनना नहीं चाह कर केवल आनंद से नाचने लग जाता हूं मुझे लगता है अब मैं पापा जी के पास जा कर उन्‍हें कहूं की तुम आंखे खोल कर मुझे देखो क्‍या तुम मुझे पहचान सकते हो कि मैं कौन हु, नहीं वह तो अपने पोनी को ही खोजेंगे और मेरा रूप रंग बदल गया है.....ओर मैंने भाग कर पापा जी को आवाज लगानी चाही। पर मेरे मुख से कोई आवज नहीं निकली। पर देखता हूं पापा जी आंखे खोल कर मुझे देख रहे थे और मंद—मंद मुस्‍कुरा रहे है। जैसे उन्‍होंने मुझे पहचान लिया।
और यहां मेरा शरीर जा पापा जी की गोद में है, डर रहा है, और हिचकियाँ ले रहा है। और सब लोगो का ध्‍यान मेरी और होता है। कहानी सुनाना कुछ देर के लिए बंद हो जाता है। और पापा जी मेरी आंखों में देख कर मेरे सर और गर्दन पर हाथ फैर कर मेरी आंखों देख रहे है। कि जैसे मैं सब समझ गया हूं जो तुम सपना देख रहे है। और फिर हंसने लग जाते है

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