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मंगलवार, 3 अक्टूबर 2017

गीता दर्शन-(भाग-02)-प्रवचन-027



गीता दर्शन-(भाग-02)-प्रवचन-027

अध्याय १-२
आठवां प्रवचन
मरणधर्मा शरीर
और
अमृत, अरूप आत्मा

प्रश्न: भगवान श्री,
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।

इस श्लोक के बारे में सुबह जो चर्चा हुई, उसमें आत्मा यदि हननकर्ता नहीं या हनन्य भी नहीं है, तो जनरल डायर या नाजियों के कनसनट्रेशन कैंप की घटनाएं कैसे जस्टिफाई हो सकती हैं! टोटल एक्सेप्टिबिलिटी में इनकी क्या उपादेयता है?


न कोई मरता है और न कोई मारता है; जो है, उसके विनाश की कोई संभावना नहीं है। तब क्या इसका यह अर्थ लिया जाए कि हिंसा करने में कोई भी बुराई नहीं है? क्या इसका यह अर्थ लिया जाए कि जनरल डायर ने या आउश्वित्ज में जर्मनी में या हिरोशिमा में जो महान हिंसा हुई, वह निंदा योग्य नहीं है? स्वीकार योग्य है?
नहीं, कृष्ण का ऐसा अर्थ नहीं है। इसे समझ लेना उपयोगी है। हिंसा नहीं होती, इसका यह अर्थ नहीं है कि हिंसा करने की आकांक्षा बुरी नहीं है। हिंसा तो होती ही नहीं, लेकिन हिंसा की आकांक्षा होती है, हिंसा का अभिप्राय होता है, हिंसा की मनोदशा होती है।

जो हिंसा करने के लिए इच्छा रख रहा है, जो दूसरे को मारने में रस ले रहा है, जो दूसरे को मारकर प्रसन्न हो रहा है, जो दूसरे को मारकर समझ रहा है कि मैंने मारा--कोई नहीं मरेगा पीछे--लेकिन इस आदमी की यह समझ कि मैंने मारा, इस आदमी का यह रस कि मारने में मजा मिला, इस आदमी की यह मनोकांक्षा कि मारना संभव है, इस सबका पाप है।
पाप हिंसा होने में नहीं है, पाप हिंसा करने में है। होना तो असंभव है, करना संभव है। जब एक व्यक्ति हिंसा कर रहा है, तो दो चीजें हैं वहां। हिंसा की घटना तो, कृष्ण कहते हैं, असंभव है, लेकिन हिंसा की मनोभावना बिलकुल संभव है।
ठीक इससे उलटा भी सोच लें कि फिर क्या महावीर की अहिंसा और बुद्ध की अहिंसा का कोई अर्थ नहीं? अगर हिरोशिमा और आउश्वित्ज के कनसनट्रेशन कैंप्स में होने वाली हिंसा का कोई अर्थ नहीं है, तो बुद्ध और महावीर की अहिंसा का भी कोई अर्थ नहीं रह जाता। अगर आप समझते हों कि अहिंसा का अर्थ तभी है, जब हम किसी मरते और मिटते को बचा पाएं, तो कोई अर्थ नहीं है।
नहीं, महावीर और बुद्ध की अहिंसा का अर्थ और है। यह बचाने की आकांक्षा, यह न मारने की आकांक्षा! यह मारने में रस न लेने की स्थिति, यह बचाने में रस लेने का मनोभाव! जब महावीर एक चींटी को बचाकर निकलते हैं, तो ऐसा नहीं है कि महावीर के बचाने से चींटी बच जाती है। चींटी में जो बचने वाला है, बचा ही रहेगा; और जो नहीं बचने वाला है, वह महावीर के बचाने से नहीं बचता है। लेकिन महावीर का यह भाव बचाकर निकलने का बड़ा कीमती है। इस भाव से चींटी को कोई लाभ-हानि नहीं होती, लेकिन महावीर को जरूर होती है।
बहुत गहरे में प्रश्न भाव का है, घटना का नहीं है। बहुत गहरे में प्रश्न भावना का है, वह व्यक्ति क्या सोच रहा है। क्योंकि व्यक्ति जीता है अपने विचारों में घिरा हुआ। घटनाएं घटती हैं यथार्थ में, व्यक्ति जीता है विचार में, भाव में।
हिंसा बुरी है; कृष्ण के यह कहने के बाद भी बुरी है कि हिंसा नहीं होती। और कृष्ण का कहना जरा भी गलत नहीं है। असल में कृष्ण अस्तित्व से कह रहे हैं; अस्तित्व के बीच खोज रहे हैं।
हिटलर जब लोगों को मार रहा है, तो कृष्ण की मनोदशा में नहीं है। हिटलर को लोगों को मारने में रस और आनंद है--मिटाने में, विनाश करने में। विनाश होता है या नहीं होता है, यह बिलकुल दूसरी बात है। लेकिन हिटलर को विनाश में रस है। यह रस हिंसा है।
अगर ठीक से समझें, तो विनाश का रस हिंसा है, मारने की इच्छा हिंसा है। मरना होता है या नहीं होता है, यह बिलकुल दूसरी बात है। और यह जो रस हिटलर का है, यह एक डिसीज्ड, रुग्ण चित्त का रस है।
समझ लेना जरूरी है कि जब भी विनाश में रस मालूम पड़े, तो ऐसा आदमी भीतर विक्षिप्त है। जितना ही भीतर आदमी शांत और आनंदित होगा, उतना ही विनाश में रस असंभव है। जितना ही भीतर आनंदित होगा, उतना सृजन में रस होगा, उतना क्रिएटिविटी में रस होगा।
महावीर की अहिंसा एक क्रिएटिव फीलिंग है, जगत के प्रति एक सृजनात्मक भाव है। हिटलर की हिंसा जगत के प्रति एक विनाशात्मक भाव है, एक डिस्ट्रक्टिव भाव है। यह भाव महत्वपूर्ण है। और जहां हम जी रहे हैं, वहां अस्तित्व में क्या होता है, यह मूल्यवान नहीं है।
मैं एक छोटी-सी घटना से समझाने की कोशिश करूं।
कबीर के घर बहुत भक्त आते हैं। गीत, भजन...। और जब जाने लगते हैं, तो कबीर कहते हैं, भोजन करते जाएं। फिर कबीर का बेटा और पत्नी परेशान हो गए। बेटे ने एक दिन कहा कि अब बरदाश्त के बाहर है। हम कब तक कर्ज लेते जाएं! यह हम कहां से लोगों को खिलाएं! अब आप कहना बंद करें।
कबीर ने कहा कि मुझे याद ही नहीं रहती; जब घर कोई मेहमान आता है, तो मुझे खयाल ही नहीं रहता कि घर में कुछ नहीं है। और घर कोई आया हो तो कैसे खयाल रखा जाए कि घर में कुछ नहीं है! तो मैं कहे ही जाता हूं कि भोजन करते जाएं। फिर तो बेटे ने कहा, तो क्या हम चोरी करने लगें? व्यंग्य में कहा, क्रोध में कहा कि क्या हम चोरी करने लगें! कबीर ने कहा कि अरे, तुझे यह पहले खयाल क्यों न आया! वह बेटा तो हैरान हुआ, क्योंकि उसे आशा न थी कि कबीर और ऐसा कहेंगे। तो उसने कहा, तो फिर आज मैं चोरी करने जाऊं? वह बेटा भी साधारण नहीं था; कबीर का ही बेटा था। मैं आज चोरी करने जाऊं? कबीर ने कहा, बिलकुल। तो बेटे ने और परीक्षा लेने के लिए कहा, आप भी चलिएगा? कबीर ने कहा, चला चलूंगा।
रात हो गई, बेटे ने कहा, चलें। बेटा भी आखिरी तर्क की सीमा तक देखना चाहता था कि बात क्या है, क्या कबीर चोरी करने को राजी हैं? कबीर--और चोरी करने को राजी! बेटे की समझ के बिलकुल बाहर है। अर्जुन की समझ के भी बाहर है कि कृष्ण हिंसा करने को राजी हैं।
ले गया कबीर का बेटा कमाल कबीर को। फिर जाकर दीवार तोड़ी। दीवार तोड़कर बीच-बीच में देखता भी रहा। कबीर उससे कहते हैं, इतना घबड़ाता क्यों है? इतना कंपता क्यों है? उसने दीवार भी तोड़ ली। फिर उसने कहा, मैं भीतर जाऊं? कबीर ने कहा कि जरूर जा। वह भीतर भी गया। वह एक गेहूं का बोरा घसीटकर भी लाया। उसने सोचा, अब रोकेंगे, अब रोकेंगे। अब तो बहुत हो गया, हद्द हो गई। कबीर ने बोरा भी बाहर निकलवा लिया। फिर बेटे से कहा, भीतर जाकर, घर में लोग सोए होंगे, उनको कह आओ कि तुम्हारे घर चोरी हो गई है, हम एक बोरा ले जा रहे हैं। तो उस बेटे ने कहा, यह किस प्रकार की चोरी है? चोरी कहीं बताई जाती है? तो कबीर ने कहा कि जो चोरी बताई नहीं जा सकती, वह फिर पाप हो गई। खबर करो! तो बेटे ने कहा कि मैं इतनी देर से परेशान ही था कि यह किस तरह आप चोरी करवा रहे हैं! कबीर ने कहा, मुझे याद ही न रहा, क्योंकि जब से यह दिखाई पड़ने लगा कि सभी एक हैं, तब से कुछ अपना न रहा, कुछ पराया न रहा। वह दूसरे का है, तब चोरी पाप है। लेकिन वह याद ही न रहा, तूने ठीक याद दिला दिया। लेकिन तूने पहले याद क्यों न दिलाया!
कबीर कह रहे हैं, वह दूसरे का है, तब तक तो चोरी पाप है। लेकिन अगर दूसरे की कोई चीज नहीं रह गई, अगर सभी एक का ही है; और उस तरफ जो श्वास चलती है, वह भी मेरी है; और इस तरफ जो श्वास चलती है, वह भी मेरी है--तो इस तल पर चोरी के पाप होने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। लेकिन यह अस्तित्व के तल की बात हुई। यह ब्रह्मज्ञान में प्रविष्ट व्यक्ति की बात हुई।
तो कबीर ने कहा, अगर न जगा सकता हो तो वापस लौटा दे। क्योंकि अपने को ही अगर हम खबर करने में डरते हैं, तो चीज फिर अपनी नहीं है। तो फिर वापस लौटा दे। किससे बचकर ले जाना है?
अब यह बहुत दो तलों की बात हो गई, यह दो एक्झिस्टेंस की बात हो गई। इसे ठीक से खयाल में ले लें। एक तो अस्तित्व का जगत है, जहां सभी कुछ परमात्मा का है, वहां चोरी नहीं हो सकती। कबीर उसी जगत में जी रहे हैं। एक मनोभावों का जगत है, जहां दूसरा दूसरा है, मैं मैं हूं; मेरी चीज मेरी है, दूसरे की चीज दूसरे की है। वहां चोरी होती है, हो रही है, हो सकती है।
जब तक दूसरे की चीज दूसरे की है, तब तक चोरी पाप है। चोरी घटित होती नहीं, सिर्फ चीजें यहां से वहां रखी जाती हैं। चोरी की क्या घटना घट सकती है इस जमीन पर! कल न मैं रहूंगा, न आप रहेंगे। मेरी चीजें भी मेरी नहीं रह जाएंगी, आपकी चीजें भी आपकी नहीं रह जाएंगी। चीजें यहां पड़ी हैं--इस घर में या उस घर में, क्या फर्क पड़ेगा!
अस्तित्व के तल पर चोरी नहीं घटती, भाव के तल पर चोरी घटती है। अगर हिटलर यह कह सके कि मरने में हिंसा होती ही नहीं, तो हिटलर को फिर अपने आस-पास संतरी खड़े करने की जरूरत नहीं। फिर वह आउश्वित्ज में मारे लोगों को, तो हमें कोई एतराज न होगा। लेकिन खुद को बचाने के लिए जो तत्पर है, दूसरे को मारने को जो आतुर है, वह जानता है, मानता है कि हिंसा होती है। खुद को जो बचा रहा है।
अगर कृष्ण अर्जुन से यह कहें कि ये कोई मरने वाले नहीं हैं, बेफिक्री से मार, लेकिन तू मरने वाला है, जरा अपने को सम्हालना, बचाना। तब फिर बेईमानी हो जाएगी। लेकिन कृष्ण उससे कहते हैं कि न कोई मरता है, न कोई मारा जाता है। अगर ये भी तुझे मार डालें, तो भी कुछ मरता नहीं। अगर तू भी इन्हें मार डाले, तो भी कुछ मरता नहीं। वे बहुत अस्तित्व की गहरी बात कह रहे हैं। इतना स्मरण रखना जरूरी है।
हिरोशिमा में हिंसा हुई, क्योंकि जिन्होंने बम पटका, वे मारने के लिए पटके थे। हिटलर ने हिंसा की, क्योंकि वह मानकर चल रहा है कि दूसरे को मार रहे हैं। मरता है, नहीं मरता है, यह बहुत दूसरी बात है। इससे हिटलर का कोई लेना-देना नहीं है। जब तक मैं अपने को बचाने को उत्सुक हूं, तब तक मैं दूसरे को मारने को सिद्धांत नहीं बना सकता। जब तक मैं कहता हूं, यह मेरी चीज है, कोई चोरी न कर ले जाए, तब तक मैं दूसरे के घर चोरी करने जाऊं, तो वह चोरी कबीर की चोरी नहीं हो सकती। कबीर की चोरी चोरी ही नहीं है। कृष्ण की हिंसा हिंसा ही नहीं है।
इसलिए सवाल उचित है। कृष्ण की गीता और कृष्ण का संदेश समझकर कोई अगर ऐसा समझ ले कि दूसरे को मारना मारना ही नहीं है, बिलकुल झूठ है, समझे; लेकिन खुद का मारा जाना भी मारा जाना नहीं है, इस शर्त को ध्यान में रखकर; तब कोई हर्ज नहीं है। लेकिन अपने को बचाए और दूसरे को मारे--और मजा यह है कि हम अपने को बचाने के लिए ही दूसरे को मारते हैं--तब फिर कृष्ण को भूल ही जाएं तो अच्छा है।
खतरा हुआ है। इस मुल्क ने जीवन के इतने गहरे सत्यों को पहचाना था, उसकी वजह से यह मुल्क बुरी तरह पतित हुआ है। असल में बहुत गहरे सत्य बेईमान आदमियों के हाथों में पड़ जाएं, तो असत्यों से बदतर सिद्ध होते हैं। इस मुल्क ने इतने गहरे सत्यों को पहचाना था कि उन सत्यों को जब तक हम पूरा न जान लें, तब तक उनका आधा उपयोग नहीं कर सकते।
इस मुल्क ने भलीभांति जाना था कि व्यवहार तो माया है, वह तो सपना है। तो फिर ठीक है, बेईमानी में कौन-सी बुराई है! अगर यह मुल्क पांच हजार साल की निरंतर चिंतना के बाद आज पृथ्वी पर सर्वाधिक बेईमान है, तो उसका कारण है। अगर हम इतनी अच्छी बातें करने के बाद भी जीवन में एकदम विपरीत सिद्ध होते हैं, तो उसका कारण है। उसका कारण यही है कि जिस तल पर बातें हैं, उस तल पर हम नहीं उठते, बल्कि जिस तल पर हम हैं, उसी तल पर उन बातों को ले आते हैं।
कृष्ण के तल पर अर्जुन उतरे, उठे, तब तो ठीक। और अगर अर्जुन कृष्ण को अपने तल पर खींच लाए, तो खतरा होने वाला है। और अक्सर ऐसा होता है कि कृष्ण के तल तक उठना तो मुश्किल हो जाता है, कृष्ण को ही खींचकर हम अपने तल पर ले आते हैं। तब हम ऐट ईज़, सुविधा में हो जाते हैं। तब हम कह पाते हैं, सब माया है; सब माया है; बेईमानी कर पाते हैं, कह पाते हैं, माया है। अब बड़े मजे की बात है कि जिस आदमी को माया दिखाई पड़ रही है, वह आदमी बेईमानी करने में इतना रसलिप्त हो सकता है?
एक मित्र आए। कहने लगे, जब से ध्यान करने लगा हूं, तो मन सरल हो गया है। एक आदमी धोखा देकर मेरा झोला ले गया। ऐसे तो सब माया है--उन्होंने कहा--ऐसे तो सब माया है, लेकिन वह धोखा दे गया, झोला ले गया। अब आगे ध्यान करूं कि न करूं? ऐसे तो सब माया है--इसे वे बार-बार कहते हैं। मैंने कहा, ऐसे तो सब माया है, तो इतना झोले से क्यों परेशान हो रहे हैं? और ऐसे सब माया है, तो वह आदमी क्या धोखा दे गया? और ऐसे सब माया है, तो किसका झोला कौन ले गया है?
नहीं, उन्होंने कहा, ऐसे तो सब माया है, लेकिन पूछने मैं यह आया हूं कि अगर ऐसा ध्यान में सरल होता जाऊं, और हर कोई धोखा देने लगे!
अब ये दो तलों की बातें हैं। उनके खयाल में नहीं पड़तीं, कि वह ऐसे तो सब माया है, कृष्ण से सुन लिया, और वह जो झोला चोरी चला गया, वहां हम खड़े हैं। और यह जो बात है, यह किसी शिखर से कही गई है। हम जहां खड़े हैं, वहां यह बात बिलकुल नहीं है।
इस देश के पतन में, इस देश के चारित्रिक ह्रास में, इस देश के जीवन में एकदम अंधकार भर जाने में और गंदगी भर जाने में, हमारे ऊंचे से ऊंचे सिद्धांतों की हमने जो व्याख्या की है, वह कारण है।
यह सवाल ठीक है।
कृष्ण आपसे नहीं कह रहे हैं कि बेफिक्री से हिंसा करो। कृष्ण यह कह रहे हैं कि अगर यह तुम्हारी समझ में आ जाए कि कोई मरता नहीं, कोई मारा नहीं जाता; तब, तब जो होता है, होने दो। लेकिन दोहरा है यह तीर। डबल ऐरोड है। यह ऐसा नहीं है कि दूसरा मरता है तो मारो, क्योंकि कोई नहीं मरता। और जब खुद मरने लगो तो चिल्लाओ कि कहीं मुझे मार मत डालना। ऐसा ही हो गया है।
हम इस देश में सर्वाधिक मानते हैं कि आत्मा अमर है और सबसे ज्यादा मरने से डरते हैं जमीन पर। हमसे ज्यादा कोई भी मरने से नहीं डरता। जिनको हम नास्तिक कहते हैं, जिनको हम कहते हैं--ईश्वर को नहीं मानते, आत्मा को नहीं मानते, वे भी नहीं डरते हैं मरने से। वे भी कहते हैं कि ठीक है, मौका आ जाए, जिंदगी दांव पर लगा दें। लेकिन हम एक हजार साल तक गुलाम रह सके; क्योंकि जिंदगी दांव पर लगाने की हमारी हिम्मत ही नहीं रही। हां, घर में बैठकर हम बात करते हैं कि आत्मा अमर है। अगर आत्मा अमर है, तो इस मुल्क को एक सेकेंड के लिए गुलाम नहीं किया जा सकता था।
लेकिन आत्मा जरूर अमर है; लेकिन हम बेईमान हैं। आत्मा अमर है, वह हम कृष्ण से सुन लेते हैं; और हम मरने वाले हैं, यह हम भलीभांति जानते हैं। अपने को बचाए चले जाते हैं। बल्कि आत्मा अमर है, इसका पाठ रोज इसीलिए करते हैं, कि भरोसा आ जाए कि मरेंगे नहीं। कम से कम मैं तो नहीं मरूंगा, इसका भरोसा दिला रहे हैं, इससे अपने को समझा रहे हैं। इस दो तल पर--जहां कृष्ण खड़े हैं वहां, और जहां हम खड़े हैं वहां--वहां के फासले को ठीक से समझ लेना।
और कृष्ण की बात तभी पूरी सार्थक होगी, जब आप कृष्ण के तल पर उठें। और कृपा करके कृष्ण को अपने तल पर मत लाना। हालांकि वह आसान है, क्योंकि कृष्ण कुछ भी नहीं कर सकते। आप गीता को जिस तल पर ले जाना चाहें, वहीं ले जाएं। जहां कटघरे में रहते हों, गोडाउन में रहते हों, नर्क में रहते हों, वहीं ले जाएं गीता को, तो वहीं चली जाएगी। कृष्ण कुछ भी नहीं कर सकते।
कृपा करके जीवन के जो परम सत्य हैं, उन्हें जीवन की अंधेरी गुहाओं में मत ले जाना। वे जीवन के परम सत्य शिखरों पर जाने गए हैं। आप भी शिखरों पर चढ़ना, तभी उन परम सत्यों को समझ पाएंगे। वे परम सत्य सिर्फ पुकार हैं, आपके लिए चुनौतियां हैं कि आओ इस ऊंचाई पर, जहां प्रकाश ही प्रकाश है, जहां आत्मा ही आत्मा है, जहां अमृत ही अमृत है।
लेकिन जिन अंधेरी गलियों में हम जीते हैं, जहां अंधेरा ही अंधेरा है, जहां प्रकाश की कोई किरण नहीं पहुंचती मालूम पड़ती। वहां यह सुनकर कि प्रकाश ही प्रकाश है, अंधकार है ही नहीं, अपने हाथ के दीए को मत बुझा देना--कि जब प्रकाश ही प्रकाश है, तब इस दीए की क्या जरूरत है, फूंक दो। उस दीए को बुझाने से गली और अंधेरी हो जाएगी। जहां आदमी जी रहा है, वहां हिंसा और अहिंसा का भेद है। अंधेरा है वहां। जहां आदमी जी रहा है, वहां चोरी और अचोरी में भेद है। अंधेरा है वहां। वहां कृष्ण की बात सुनकर अपने इस भेद के छोटे-से दीए को मत फूंक देना। नहीं तो सिर्फ अंधेरा घना हो जाएगा, और कुछ भी नहीं होगा।
हां, कृष्ण की बात सुनकर सिर्फ समझना इतना, एक शिखर है चेतना का, जहां अंधेरा है ही नहीं, जहां दीया जलाना पागलपन है। पर उस शिखर की यात्रा करनी होती है। उस शिखर की यात्रा पर हम धीरे-धीरे बढ़ेंगे। कि वह शिखर कैसे, कैसे हम उस जगह पहुंच जाएं, जहां जीवन अमृत है, और जहां अहिंसा और हिंसा बचकानी बातें हैं, चाइल्डिश बातें हैं। लेकिन वहां नहीं जहां हम हैं, वहां बड़ी सार्थक हैं, वहां बड़ी महत्वपूर्ण हैं।


न जायते म्रियते वा कदाचिन्
नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे।। २०।।
यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मता है और न मरता है, अथवा न यह आत्मा, हो करके फिर होने वाला है, क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के नाश होने पर भी यह नष्ट नहीं होता है।


जहां हम हैं, जो हम हैं, वहां सभी कुछ जात है, जन्मता है। जिससे भी हम परिचित हैं, वहां अजात, अजन्मा, कुछ भी नहीं है। जो भी हमने देखा है, जो भी हमने पहचाना है, वह सब जन्मा है, सब मरता है। लेकिन जन्म और मरण की इस प्रक्रिया को भी संभव होने के लिए इसके पीछे कोई, इस सब मरने और जन्मने की शृंखला के पीछे--जैसे माला के गुरियों को कोई धागा पिरोता है; दिखाई नहीं पड़ता, गुरिए दिखाई पड़ते हैं--इस जन्म और मरण के गुरियों की लंबी माला को पिरोने वाला कोई अजात धागा भी चाहिए। अन्यथा गुरिए बिखर जाते हैं। टिक भी नहीं सकते, साथ खड़े भी नहीं हो सकते, उनमें कोई जोड़ भी नहीं हो सकता। दिखती है माला ऊपर से गुरियों की, होती नहीं है गुरियों की। गुरिए टिके होते हैं एक धागे पर, जो सब गुरियों के बीच से दौड़ता है।
जन्म है, मृत्यु है, आना है, जाना है, परिवर्तन है, इस सबके पीछे अजात सूत्र--अनबॉर्न, अनडाइंग; अजात, अमृत; न जो जन्मता, न जो मरता--ऐसा एक सूत्र चाहिए ही। वही अस्तित्व है, वही आत्मा है, वही परमात्मा है। सारे रूपांतरण के पीछे, सारे रूपों के पीछे, अरूप भी चाहिए। वह अरूप न हो, तो रूप टिक न सकेंगे।
फिल्म देखते हैं सिनेमागृह में बैठकर। प्रतिपल दौड़ते रहते हैं फिल्म के चित्र। चित्रों में कुछ होता नहीं बहुत। सिर्फ किरणों का जाल होता है। छाया-प्रकाश का जोड़ होता है। लेकिन पीछे एक परदा चाहिए। वह परदा बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता, जब तक फिल्म दौड़ती रहती है। उसे दिखाई पड़ना भी नहीं चाहिए। अगर वह दिखाई पड़े, तो फिल्म दिखाई न पड़ सके। जब तक फिल्म चलती रहती है, रूप आते और जाते रहते हैं, तब तक पीछे थिर खड़ा परदा दिखाई नहीं पड़ता।
लेकिन उस परदे को हटा दें, तो ये रूप कहीं भी प्रकट नहीं हो सकते, ये आकृतियां कहीं भी प्रकट नहीं हो सकतीं। इन आकृतियों की दौड़ती हुई परिवर्तन की इस लीला में पीछे कोई थिर परदा चाहिए, जो उन्हें सम्हाले। एक चित्र आएगा, तब भी परदा वही होगा। दूसरा चित्र आएगा, तब भी परदा वही होगा। तीसरा चित्र आएगा, तब भी परदा वही होगा। चित्र बदलते जाएंगे, परदा वही होगा। तभी इन चित्रों में एक संगति, तभी इन चित्रों में एक शृंखला, तभी इन चित्रों में एक संबंध दिखाई पड़ेगा। वह संबंध, पीछे जो थिर परदा है, उससे ही पैदा हो रहा है।
सारा जीवन चित्रों का फैलाव है। ये चित्र टिक नहीं सकते। जन्म भी एक चित्र है, मृत्यु भी एक चित्र है--जवानी भी, बुढ़ापा भी, सुख भी, दुख भी, सौंदर्य भी, कुरूपता भी, सफलता-असफलता भी--वह सब चित्रों की धारा है। उन चित्रों की धारा को सम्हालने के लिए कोई चाहिए, जो दिखाई नहीं पड़ेगा। उसको दिखाई पड़ने का उपाय नहीं है। जब तक चित्रों को आप देख रहे हैं, तब तक वह दिखाई नहीं पड़ेगा।
वह परदे की तरह जो पीछे खड़ा है, वही अस्तित्व है। उसे कृष्ण कहते हैं, वह अजात, अजन्मा; कभी जन्मता नहीं, कभी मरता नहीं। लेकिन भूलकर भी आप ऐसा मत समझ लेना कि यह आपके संबंध में कहा जा रहा है। आप तो जन्मते हैं और मरते हैं। और जिस आप के संबंध में यह कहा जा रहा है, उस आप का, आपको कोई भी पता नहीं है। जिस आप को आप जानते हैं, वह तो जन्मता है; उसकी तो जन्मत्तारीख है; उसकी तो मृत्यु की तिथि भी होगी। कब्र पर पत्थर लगेगा, तो उसमें जन्म और मृत्यु दोनों की तारीखें लग जाएंगी। लोग, जब आप जन्मे थे, तो बैंडबाजा बजाए थे, खुशी किए थे। जब मरेंगे, तो रोएंगे, दुखी होंगे। आप जितना अपने को जानते हैं, वह सिर्फ चित्रों का समूह है।
इसे थोड़ा वैज्ञानिक ढंग से भी समझना उपयोगी है कि क्या सच में ही जिसे आप जानते हैं, वह चित्रों का समूह है?
अब तो हम ब्रेनवाश कर सकते हैं। अब तो वैज्ञानिक रास्ते उपलब्ध हैं, जिनसे हम आपके चित्त की सारी स्मृति को पोंछ डाल सकते हैं। एक आदमी है पचास साल का, उसे पता है कि चार लड़कों का पिता है, पत्नी है, मकान है, यह उसका नाम है, यह उसकी वंशावली है। इस-इस पद पर रहा है, यह-यह काम किया है। सब पचास साल की कथा है। उसका ब्रेनवाश किया जा सकता है। उसके मस्तिष्क को हम साफ कर डाल सकते हैं। फिर भी वह होगा। लेकिन फिर वह यह भी न बता सकेगा कि मेरा नाम क्या है। और यह भी न बता सकेगा कि मेरे कितने लड़के हैं।
मेरे एक मित्र हैं डाक्टर। ट्रेन से गिर पड़े। चोट खाने से स्मृति चली गई। बचपन से मेरे साथी हैं, साथ मेरे पढ़े हैं। देखने उन्हें मैं उनके गांव गया। जाकर सामने बैठ गया; उन्होंने मुझे देखा और जैसे नहीं देखा। मैंने उनसे पूछा, पहचाना नहीं? उन्होंने कहा कि कौन हैं आप? उनके पिता ने कहा कि सारी स्मृति चली गई है; जब से ट्रेन से गिरे हैं, चोट लग गई, सारी स्मृति चली गई; कोई स्मरण नहीं है।
इस आदमी के पास इसका कोई अतीत नहीं है। चित्र खो गए। कल तक यह कहता था, मैं यह हूं, मेरा यह नाम है। अब वे सब चित्र खो गए। वह फिल्म वाश हो गई। वह सब धुल गया। अब यह खाली है--कोरा कागज। अब इस कोरे कागज पर फिर से लिखा जाएगा। अब उसकी नई स्मृति बननी शुरू हुई।
अभी जब दुबारा मैं मिलने गया, तो उसने कहा कि आपको पता ही होगा कि तीन साल पहले मैं गिर पड़ा, चोट लग गई। अब इस तीन साल की स्मृति फिर से निर्मित होनी शुरू हुई। लेकिन तीन साल के पहले वह कौन था, वह बात समाप्त हो गई। हां, उसे याद दिलाते हैं कि तुम डाक्टर थे, तो वह कहता है, आप लोग कहते हैं कि मैं डाक्टर था, लेकिन मुझे कुछ पता नहीं। मेरा इतिहास तो बस वहीं से समाप्त हो जाता है, जहां से वह घटना घट गई, जहां वह दुर्घटना घट गई।
आज चीन में तो कम्युनिस्ट ब्रेनवाश को एक पोलिटिकल, एक राजनैतिक उपाय बना लिए हैं। रूस में तो वह चल ही रहा है। अब आने वाली दुनिया में किसी राजनैतिक विरोधी को मारने की जरूरत नहीं होगी। क्योंकि इससे बड़ी हत्या और क्या हो सकती है कि उसके ब्रेन को वाश कर दो। विरोधी को पकड़ो और उसके मस्तिष्क को साफ कर दो। विद्युत के धक्कों से, और दूसरे केमिकल्स से, और दूसरी मानसिक प्रक्रियाओं से उसकी स्मृति को पोंछ डालो। फिर क्या बात है? समाप्त हो गई। अगर माक्र्स के दिमाग को साफ कर दो, तो कैपिटल साफ हो जाएगी। उसके दिमाग में जो है, वह मिट जाएगा। फिर उस आदमी की कोई आइडेंटिटी, उसका कोई तादात्म्य पीछे से नहीं रह जाएगा।
तो हम जिसे कहते हैं मैं, जो कभी पैदा हुआ, जो किसी का बेटा है, किसी का पिता है, किसी का पति है, यह सिर्फ चित्रों का संग्रह है, एलबम है; इससे ज्यादा नहीं है। अपना-अपना एलबम सम्हाले बैठे हैं। उसी को लौट-लौटकर देख लेते हैं; दूसरों को भी दिखा देते हैं, कोई घर में आता है, कि यह एलबम है। बाकी यह आप नहीं हैं।
अगर इस एलबम को आप समझते हों कि कृष्ण कह रहे हैं अजात, तो इस गलती में मत पड़ना। यह अजात नहीं है। यह तो जन्मा है। यह तो जात है। यह मरेगा भी। जो जन्मा है, वह मरेगा भी। जन्म एक छोर है, मृत्यु दूसरा अनिवार्य छोर है। आप तो मरेंगे ही।
इस बात को ठीक से समझ लें, तो शायद उस आप को खोजा जा सके, जो कि नहीं मरेगा। लेकिन हम इसी मैं को पकड़े रह जाते हैं, जो जन्मा है। यह मैं--यह मैं--मैं नहीं हूं। यह सिर्फ मेरे उस गहरे मैं पर इकट्ठे हो गए चित्र हैं, जिनसे मैं गुजरा हूं।
इसलिए जापान में झेन फकीर के पास जब कोई साधक जाता है और उससे पूछता है कि मैं क्या साधना करूं? तो वह कहता है कि तू यह साधना कर, अपना ओरिजनल फेस, जो जन्म के पहले तेरा चेहरा था, उसको खोजकर आ।
जन्म के पहले कहीं कोई चेहरा होता है! अब कोई आपसे कहने लगे, मरने के बाद जो आपकी शकल होगी, उसको खोजकर लाइए। कोई आपसे कहे कि जन्म के पहले जो आपकी शकल थी, वह खोजकर लाइए।
वे झेन फकीर ठीक कहते हैं। वे वही कहते हैं, जो कृष्ण कह रहे हैं। वे यह कहते हैं, उसका पता लगाओ, जो तुममें कभी जन्मा नहीं था। अगर ऐसे किसी सूत्र को तुम खोज सकते हो, जो जन्म के पहले भी था, तो विश्वास रखो फिर कि वह मृत्यु के बाद भी होगा। जो जन्म के पहले था, उसे मृत्यु नहीं पोंछ सकेगी। जो जन्म के पहले था, वह मृत्यु के बाद भी होगा। और जो जन्म के बाद ही हुआ है, वह मृत्यु के पहले तक ही साथी हो सकता है, उसके आगे साथी नहीं हो सकता है।
कृष्ण जब कह रहे हैं कि कोई है अजन्मा, नहीं जन्मता, नहीं मरता, जिसे शस्त्रों से छेदा नहीं जा सकता...।
आपको, मुझे छेदा जा सकता है। इसलिए ध्यान रखना, जिसे छेदा जा सकता है, कृष्ण उसके संबंध में बात नहीं कर रहे हैं। वे कहते हैं कि जिसे छेदा नहीं जा सकता शस्त्रों से, आग में जलाया नहीं जा सकता, पानी में डुबाया नहीं जा सकता।
हमें तो छेदा जा सकता है; कोई कठिनाई नहीं है छेदे जाने में। आग में जलाए जाने में कोई कठिनाई नहीं है। पानी में डुबाए जाने में कोई कठिनाई नहीं है।
तो जो पानी में डुबाया जा सकता, आग में जलाया जा सकता, शस्त्रों से छेदा जा सकता, उसकी यह चर्चा नहीं है। जिसके ऊपर सर्जन कुछ कर सकता है, उसकी यह चर्चा नहीं है। जिसके लिए डाक्टर कुछ कर सकता है, उसकी यह चर्चा नहीं है। डाक्टर जिससे उलझा है, वह मर्त्य है। और सर्जन जिस पर काम कर रहा है, वह मरणधर्मा है। विज्ञान की प्रयोगशाला में जिस पर खोज-बीन हो रही है, वह मरणधर्मा है। इससे उसका कोई लेना-देना नहीं है।
इसलिए अगर वैज्ञानिक सोचता हो कि अपनी प्रयोगशाला की टेबल पर किसी दिन वह कृष्ण के अजात को, अजन्मे को, अमृत को पकड़ लेगा, तो भूल में पड़ा है। वह कभी पकड़ नहीं पाएगा। उसके सब सूक्ष्मतम औजार उसको ही पकड़ पाएंगे, जो छेदा जा सकता है। लेकिन जो नहीं छेदा जा सकता, अगर वह दिखाई पड़ जाए...वह दिखाई पड़ सकता है। वह दिखाई पड़ सकता है।
सिकंदर हिंदुस्तान आया। जब हिंदुस्तान से वापस लौटता था, तो हिंदुस्तान की सीमा को छोड़ते वक्त उसके मित्रों ने याद दिलाया कि जब हम यूनान से चले थे, तो यूनान के दार्शनिकों ने कहा था कि हिंदुस्तान से एक संन्यासी को लेते आना।
अब संन्यासी जो है, वह सच यह है कि जगत को हिंदुस्तान की देन है, अकेली देन है। पर काफी है। सारे जगत की सारी देनें भी इकट्ठी कर ली जाएं, तो एक संन्यासी भी हमने जगत को दिया, तो हमने बैलेंस पूरा कर दिया है। और शायद जिस दिन दुनिया की सब देनें बेकार सिद्ध हो जाएंगी, उस दिन हमारा दिया संन्यास ही सारी दुनिया के लिए अर्थ का हो सकता है।
तो याद दिलाई मित्रों ने सिकंदर को कि एक संन्यासी को तो ले चलें। बहुत चीजें लूट ली हैं। धन लूट लिया, लेकिन धन वहां भी है। बहुमूल्य चीजें, हीरे-जवाहरात ले जा रहे हैं, लेकिन वे वहां भी हैं। एक संन्यासी को भी ले चलें, जो वहां नहीं है। सिकंदर ने सोचा कि जैसे और चीजें ले जाई जा सकती हैं, वैसे ही संन्यासी को ले जाने में क्या तकलीफ है! उसने कहा कि जाओ, पकड़ लाओ, कहीं कोई संन्यासी हो।
गांव में लोग गए, गांव में पूछा कि कोई संन्यासी है? लोगों ने कहा, संन्यासी तो है, लेकिन प्रयोजन क्या है? तुम्हारे ढंग संन्यासी के पास पहुंचने जैसे नहीं मालूम पड़ते! नंगी तलवारें हाथ में लिए हो, पागल मालूम पड़ते हो; क्या बात है? तो उन्होंने कहा कि पागल नहीं, हम सिकंदर के सिपाही हैं। और किसी संन्यासी को पकड़कर हम यूनान ले जाना चाहते हैं।
तो उन लोगों ने कहा कि जो संन्यासी तुम्हारी पकड़ में आ जाए, समझना कि संन्यासी नहीं है। जाओ, हालांकि गांव में एक संन्यासी है, हम तुम्हें उसका पता दिए देते हैं। नदी के किनारे तीस वर्षों से एक आदमी नग्न रहता है। जैसा हमने सुना है, जैसा हमने उसे देखा है, जैसा इन तीस वर्षों में हमने उसे जाना है, हम कह सकते हैं कि वह संन्यासी है। लेकिन तुम उसे पकड़ न पाओगे। पर, उन्होंने कहा, दिक्कत क्या है? तलवारें हमारे पास, जंजीरें हमारे पास! उन्होंने कहा, तुम जाओ, उसी से निपटो।
वे गए। उस संन्यासी से उन्होंने कहा कि महान सिकंदर की आज्ञा है कि हमारे साथ चलो। हम तुम्हें सम्मान देंगे, सत्कार देंगे, शाही व्यवस्था देंगे। यूनान तुम्हें ले जाना है। कोई पीड़ा नहीं, कोई दुख नहीं, कोई रास्ते में तकलीफ नहीं होने देंगे। वह संन्यासी हंसने लगा। उसने कहा कि अगर सत्कार ही मुझे चाहिए होता, अगर स्वागत ही मुझे चाहिए होता, अगर सुख ही मुझे चाहिए होता, तो मैं संन्यासी कैसे होता? छोड़ो! सपने की बातें मत करो। मतलब की बात कहो।
तो उन्होंने कहा कि मतलब की बात यह है कि अगर नहीं जाओगे, तो हम जबरदस्ती पकड़कर ले जाएंगे। तो उस संन्यासी ने कहा कि जिसे तुम पकड़कर ले जाओगे, वह संन्यासी नहीं है। संन्यासी परम स्वतंत्र है; उसे कोई पकड़कर नहीं ले जा सकता। उन्होंने कहा, हम मार डालेंगे। तो उस संन्यासी ने कहा, वह तुम कर सकते हो। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि तुम मारोगे, लेकिन भ्रम में रहोगे, क्योंकि तुम जिसे मारोगे, वह मैं नहीं हूं। तुम अपने सिकंदर को ही लिवा लाओ। शायद उसकी कुछ समझ में आ जाए।
वे सिपाही सिकंदर को बुलाने आए। सिकंदर से उन्होंने कहा कि अजीब आदमी है। वह कहता है, मार डालो, तो भी जिसे तुम मारोगे, वह मैं नहीं हूं। कौन है फिर वह, सिकंदर ने कहा, हमने तो ऐसा कोई आदमी नहीं देखा, जो मारने के बाद बचता हो। बचेगा कैसे? अब सिकंदर अनुभव से कहता था, हजारों लोग मारे थे उसने। उसने कहा, मैंने कभी किसी आदमी को मरने के बाद बचते नहीं देखा!
गया, नंगी तलवार उसके हाथ में है। संन्यासी से उसने कहा कि चलना पड़ेगा। अन्यथा यह तलवार गरदन और शरीर को अलग कर देगी। वह संन्यासी खिलखिलाकर हंसने लगा। और उसने कहा कि जिस गरदन और शरीर के अलग करने की तुम बात कर रहे हो, उसे मैं बहुत पहले, अलग है, ऐसा जान चुका हूं। इसलिए अब तुम और ज्यादा अलग न कर सकोगे। इतनी अलग जान चुका हूं कि तुम्हारी तलवार के लिए बीच में से गुजर जाने के लिए काफी फासला है, जगह है। काफी अलग जान चुका हूं, अब तुम और अलग न कर सकोगे।
सिकंदर को क्या समझ में आतीं ये बातें! उसने तलवार उठा ली। उसने कहा, मैं अभी काट दूंगा। देखो, सिद्धांतों की बातों में मत पड़ो। फिलासफी से मुझे बहुत लेना-देना नहीं है। मैं आदमी व्यावहारिक हूं, प्रैक्टिकल हूं। ये ऊंची बातें छोड़ो। एक झटका और गरदन अलग हो जाएगी। सिकंदर से उस संन्यासी ने कहा, तुम मारो तलवार। जिस तरह तुम देखोगे कि गरदन नीचे गिर गई, उसी तरह हम भी देखेंगे कि गरदन नीचे गिर गई।
अब यह जो आदमी है, यह कह रहा है वही, जो कृष्ण कह रहे हैं--छेदने से छिदता नहीं, काटने से कटता नहीं। इसलिए जब तक आप छेदने से छिद जाते हों और काटने से कट जाते हों, तब तक जानना, अभी अपने होने का पता नहीं चला। जब छेदने से शरीर छिद जाता हो और भीतर अनछिदा कुछ रह जाता हो; जब काटने से शरीर कट जाता हो और भीतर अनकटा कुछ शेष रह जाता हो; जब बीमार होने से शरीर बीमार हो जाता हो और भीतर बीमारी के बाहर कोई रह जाता हो; जब दुख आता हो तो शरीर दुख से भर जाता हो और भीतर दुख के पार कोई खड़ा देखता रह जाता हो--तब जानना कि कृष्ण जिस आप की बात कर रहे हैं, उस आप का अब तक आपको भी पता नहीं था।
अर्जुन वही बात कर रहा है, जो सिकंदर कर रहा है। टाइप भी उनका एक ही है। उनके टाइप में भी बहुत फर्क नहीं है--शरीर ही। लेकिन हम सबका भी टाइप वही है।
निरंतर खोजते रहना! कांटा तो चुभता है रोज पैर में, तब जरा देखना कि अनचुभा भी भीतर कोई रह गया? बीमारी तो आती है रोज, जरा भीतर देखना, बीमारी के बाहर कोई बचा? दुख आता है रोज; रोना, हंसना, सब आता है रोज। देखना, देखना, खोजना उसे, जो इनके बाहर बच जाता है।
धीरे-धीरे खोजने से वह दिखाई पड़ने लगता है। और जब एक बार दिखाई पड़ता है, तो पता चलता है कि जिसे हमने अब तक समझा था कि मैं हूं, वह सिर्फ छाया थी, सिर्फ शैडो थी। छाया को ही समझा था कि मैं हूं और उसका हमें कोई पता ही नहीं था, जिसकी छाया बन रही है। छाया के साथ ही एक होकर जीए थे। वह छाया हमारी स्मृतियों का जोड़ है, हमारे जन्म से लेकर मृत्यु तक बने हुए चित्रों का एलबम है।


वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्तिकम्।। २१।।
हे पृथापुत्र अर्जुन, जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है।


जानता है! कृष्ण कहते हैं, जो ऐसा जानता है--हू नोज लाइक दिस। नहीं कहते हैं कि जो ऐसा मानता है--हू बिलीव्स लाइक दिस। कह सकते थे कि जो पुरुष ऐसा मानता है कि न जन्म है, न मृत्यु है। तब तो हम सबको भी बहुत आसानी हो जाए। मानने से ज्यादा सरल कुछ भी नहीं है, क्योंकि मानने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता। जानने से ज्यादा कठिन कुछ भी नहीं है, क्योंकि जानने के लिए तो पूरी आत्म-क्रांति से गुजर जाना पड़ता है।
कृष्ण कहते हैं, जो पुरुष ऐसा जानता है। इस जानने शब्द को ठीक से पहचान लेना जरूरी है। क्योंकि सारा धर्म जानने शब्द को छोड़कर मानने शब्द के इर्द-गिर्द घूम रहा है। सारा धर्म, सारी पृथ्वी पर बहुत-बहुत नामों से जो धर्म प्रचलित है, वह सब मानने के आस-पास घूम रहा है। वह सारा धर्म कह रहा है, मानो ऐसा, मानोगे तो हो जाएगा। लेकिन कृष्ण कहते हैं, जो जानता है।
अब जानने का क्या मतलब? जानना भी दो तरह से हो सकता है। शास्त्र से कोई पढ़ ले, तो भी जान लेता है। अनुभव से कोई जाने, तो भी जान लेता है। क्या ये दोनों जानना एक ही अर्थ रखते हैं? शास्त्र से जानना तो बड़ा सरल है। लिखा है, पढ़ा और जाना। उसके लिए सिर्फ शिक्षित होना काफी है, पठित होना काफी है। उसके लिए धार्मिक होने की कोई जरूरत नहीं है। शास्त्र से पढ़कर जो जानना है, वह जानना नहीं है, जानने का धोखा है। वह सिर्फ इन्फर्मेशन है, सूचना है।
लेकिन सूचना से धोखे हो जाते हैं। पढ़ लेते हैं, अजर है, अमर है; नहीं जन्मता, नहीं मरता; पढ़ लेते हैं, दोहरा लेते हैं। बार-बार दोहरा लेने से भूल जाते हैं कि जानते नहीं हैं, सिर्फ दोहराते हैं। बहुत बार-बार दोहराने से, बहुत बार-बार दोहराने से बात ही भूल जाती है कि जो हम कह रहे हैं, वह अपना जानना नहीं है।
एक आदमी शास्त्र में पढ़ ले तैरने की कला; जान ले पूरा शास्त्र। चाहे तो तैरने पर बोल सके, बोले; लिख सके तो लिखे। चाहे तो कोई युनिवर्सिटी से पीएच.डी. ले ले। डाक्टर हो जाए तैरने के संबंध में। लेकिन फिर भी उस आदमी को भूलकर नदी में धक्का मत देना। क्योंकि उसकी पीएच.डी. तैरा न सकेगी। उसकी पीएच.डी. और जल्दी डुबा देगी, क्योंकि काफी वजनी होती है, पत्थर का काम करेगी।
तैरने के संबंध में जानना, तैरना जानना नहीं है। सत्य के संबंध में जानना, सत्य जानना नहीं है। टु नो अबाउट, संबंध में जानना, इज़ इक्वीवेलेंट, बिलकुल बराबर है न जानने के। सत्य के संबंध में जानना, सत्य को न जानने के बराबर है। लेकिन एकदम बराबर कहना ठीक नहीं है, थोड़ा खतरा है। सत्य को न जानना, ऐसा जानना, सत्य की तरफ जाने में राह बन जाती है। लेकिन सत्य को बिना जानते हुए जान लेना कि जानते हैं, सत्य की तरफ जाने में बाधा बन जाती है। नहीं, इक्वीवेलेंट भी नहीं है।
कृष्ण के इस शब्द को बहुत ठीक से समझ लेना चाहिए। क्योंकि इस एक शब्द के आस-पास ही आथेंटिक रिलीजन, वास्तविक धर्म का जन्म होता है--जानने। मानने के आस-पास नान-आथेंटिक, अप्रामाणिक धर्म का जन्म होता है। जानने से जो उपलब्ध होता है, उसका नाम श्रद्धा है। और मानने से जो उपलब्ध होता है, उसका नाम विश्वास है, बिलीफ है। और जो लोग विश्वासी हैं, वे धार्मिक नहीं हैं; वे बिना जाने मान रहे हैं।
यह शब्द बहुत छोटा नहीं है, बड़े से बड़ा शब्द है। लेकिन भ्रांति इसके साथ निरंतर होती रहती है। हमारे पास एक शब्द है, वेद; वेद का अर्थ है, जानना। लेकिन हम तो वेद से मतलब लेते हैं, संहिता, वह जो किताब है। हमने कहा है, वेद अपौरुषेय है, जानना अपौरुषेय है। लेकिन हम मतलब लेते हैं कि वह जो किताब है हमारे पास, वेद नाम की, वह परमात्मा की लिखी हुई है।
वेद किताब नहीं है, वेद जीवन है। लेकिन जानने को मानना बना लेना बड़ा आसान है, ज्ञान को किताब बना लेना बड़ा आसान है, जानने को शास्त्र पर निर्भर कर देना बहुत आसान है। क्योंकि तब बहुत कुछ करना नहीं पड़ता, जानने की जगह केवल स्मृति की जरूरत होती है। बस, याद कर लेना काफी होता है। तो बहुत लोग गीता याद कर रहे हैं!
मैं एक गांव में गया था अभी, तो वहां उन्होंने एक गीता-मंदिर बनाया है। मैंने पूछा, एक छोटी-सी गीता के लिए इतना बड़ा मंदिर? तो उन्होंने कहा कि नहीं, जगह कम पड़ रही है। मैंने कहा, क्या कर रहे हैं यहां आप? उन्होंने कहा कि अब तक हम यहां एक लाख गीता लिखवाकर हाथ से रखवा चुके हैं। अब जगह कम पड़ रही है। हिंदुस्तान भर में हजारों लोग गीता लिख-लिखकर भेज रहे हैं। मैंने कहा, लेकिन यह क्या हो रहा है? इससे क्या होगा? उन्होंने कहा कि कोई आदमी दस दफे लिख चुका, कोई पचास दफे लिख चुका, कोई सौ दफे लिख चुका--लिखने से ज्ञान होगा।
तो मैंने उनसे कहा, छापेखाने तो परम ज्ञानी हो गए होंगे। कंपोजिटरों के तो हमको चरण पकड़ लेना चाहिए, कंपोजिटर जहां मिल जाएं; क्योंकि कितनी गीताएं छाप चुके वे! अब महात्माओं की तलाश प्रेस में करनी चाहिए, मुद्रणशाला में करनी चाहिए, अब और कहीं नहीं करनी चाहिए।
यह पागलपन क्यों पैदा होता है? होने का कारण है। ऐसा लगता है, शास्त्र से जानना हो जाएगा। शास्त्र से सूचना मिल सकती है, इन्फर्मेशन मिल सकती है, इशारे मिल सकते हैं, ज्ञान नहीं मिल सकता। ज्ञान तो जीवन के अनुभव से ही मिलेगा। और जब तक जीवन के अनुभव से यह पता न चल जाए कि हमारे भीतर कोई अजन्मा है, तब तक रुकना मत, तब तक कृष्ण कितना ही कहें, मान मत लेना। कृष्ण के कहने से इतना ही जानना कि जब इतने जोर से यह आदमी कह रहा है, तो खोजें, तो लगाएं पता। जब इतने आश्वासन से यह आदमी भरा है, इतने सहज आश्वासन से कह रहा है; जाना है इसने, जीया है कुछ, देखा है कुछ। हम भी देखें, हम भी जानें, हम भी जीएं। काश! शास्त्र इशारा बन जाए और हम यात्रा पर निकल जाएं। लेकिन शास्त्र मंदिर बन जाता है और हम विश्राम को उपलब्ध हो जाते हैं।
इस जानने शब्द को स्मरण रखना, क्योंकि पीछे कृष्ण उस पर बार-बार, गहरे से गहरा जोर देते हैं।


वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।। २२।।
और यदि तू कहे कि मैं तो शरीरों के वियोग का शोक करता हूं, तो यह भी उचित नहीं है; क्योंकि जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर, दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।


वस्त्रों की भांति, जीर्ण हो गए वस्त्रों की भांति शरीर को छोड़ती है आत्मा, नए शरीरों को ग्रहण करती है। लेकिन वस्त्रों की भांति! हमने कभी अपने शरीर को वस्त्र की भांति अनुभव किया? ऐसा जिसे हमने ओढ़ा हो? ऐसा जिसे हमने पहना हो? ऐसा जो हमारे बाहर हो? ऐसा जिसके हम भीतर हों? कभी हमने वस्त्र की तरह शरीर को अनुभव किया?
नहीं, हमने तो अपने को शरीर की तरह ही अनुभव किया है। जब भूख लगती है, तो ऐसा नहीं लगता कि भूख लगी है--ऐसा मुझे पता चल रहा है। ऐसा लगता है, मुझे भूख लगी। जब सिर में दर्द होता है, तो ऐसा नहीं लगता है कि सिर में दर्द हो रहा है--ऐसा मुझे पता चल रहा है।
नहीं, ऐसा लगता है, मेरे सिर में दर्द हो रहा है, मुझे दर्द हो रहा है। तादात्म्य, आइडेंटिटी गहरी है। ऐसा नहीं लगता कि मैं और शरीर ऐसा कुछ दो हैं। ऐसा लगता है, शरीर ही मैं हूं।
कभी आंख बंद करके यह देखा, शरीर की उम्र पचास वर्ष हुई, मेरी कितनी उम्र है? कभी आंख बंद करके दो क्षण सोचा, शरीर की उम्र पचास साल हुई, मेरी कितनी उम्र है? कभी आंख बंद करके चिंतन किया कि शरीर का तो ऐसा चेहरा है, मेरा कैसा चेहरा है? कभी सिर में दर्द हो रहा हो तो आंख बंद करके खोज-बीन की कि यह दर्द मुझे हो रहा है या मुझसे कहीं दूर हो रहा है?
पिछले महायुद्ध में एक बहुत अदभुत घटना घटी। फ्रांस में एक अस्पताल में एक आदमी भरती हुआ--युद्ध में बहुत आहत, चोट खाकर। उसका पूरा का पूरा पैर जख्मी हो गया। अंगूठे में उसे भयंकर पीड़ा है। चीखता है, चिल्लाता है, बेहोश हो जाता है। होश आता है, फिर चीखता और चिल्लाता है। रात उसे डाक्टरों ने बेहोश करके घुटने से नीचे का पूरा पैर काट डाला। क्योंकि उसके पूरे शरीर के विषाक्त हो जाने का डर था।
चौबीस घंटे बाद वह होश में आया। होश में आते ही उसने चीख मारी। उसने कहा, मेरे अंगूठे में बहुत दर्द हो रहा है! अंगूठा अब था ही नहीं। पास खड़ी नर्स हंसी और उसने कहा, जरा सोचकर कहिए। सच, अंगूठे में दर्द हो रहा है? उसने कहा, क्या मजाक कर रहा हूं? अंगूठे में मुझे बहुत भयंकर दर्द हो रहा है। कंबल पड़ा है उसके पैर पर, उसे दिखाई तो पड़ता नहीं।
उस नर्स ने कहा, और जरा सोचिए, थोड़ा भीतर खोज-बीन करिए। उसने कहा, खोज-बीन की बात क्या है, दर्द इतना साफ है। नर्स ने कंबल उठाया और कहा, देखिए अंगूठा कहां है? अंगूठा तो नहीं था। आधा पैर ही नहीं था। पर उस आदमी ने कहा कि देख तो रहा हूं कि अंगूठा नहीं है, आधा पैर भी कट गया है, लेकिन दर्द फिर भी मुझे अंगूठे में हो रहा है।
तब तो एक मुश्किल की बात हो गई। चिकित्सक बुलाए गए। चिकित्सकों के सामने भी पहली दफा ऐसा सवाल आया था। जो अंगूठा नहीं है, उसमें दर्द कैसे हो सकता है? लेकिन फिर जांच-पड़ताल की, तो पता चला कि हो सकता है। जो अंगूठा नहीं है, उसमें भी दर्द हो सकता है। यह बड़ी मेटााफिजिकल बात हो गई, यह तो बड़ा अध्यात्म हो गया। डाक्टरों ने पूरी जांच-पड़ताल की, तो लिखा कि वह आदमी ठीक कह रहा है, दर्द उसे अंगूठे में हो रहा है।
तब तो उस आदमी ने भी कहा कि क्या मजाक कर रहे हैं! पहले उन्होंने उससे कहा था, क्या मजाक कर रहे हो? फिर उस आदमी ने कहा कि कैसी मजाक कर रहे हैं! मैं जरूर किसी भ्रम में पड़ गया होऊंगा। लेकिन आप भी कहते हैं कि दर्द हो सकता है उस अंगूठे में, जो नहीं है! तो डाक्टरों ने कहा, हो सकता है। क्योंकि दर्द अंगूठे में होता है, पता कहीं और चलता है। अंगूठे और पता चलने की जगह में बहुत फासला है। जहां पता चलता है, वह चेतना है। जहां दर्द होता है, वह अंगूठा है। दर्द से चेतना तक संदेश लाने के लिए जिन स्नायुओं का काम रहता है, भूल से वे स्नायु अभी तक खबर दे रहे हैं कि दर्द हो रहा है।
जब अंगूठे में दर्द होता है, तो उससे जुड़े हुए स्नायुओं के तंतु कंपने शुरू हो जाते हैं। कंपन से ही वे खबर पहुंचाते हैं। जैसे टिक-टिक, टिक-टिक से टेलिग्राफ में खबर पहुंचाई जाती है, ऐसा ही कंपित होकर वे स्नायु खबर पहुंचाते हैं। कई हेड आफिसेज से गुजरती है वह खबर आपके मस्तिष्क तक आने में। फिर मस्तिष्क चेतना तक खबर पहुंचाता है। इसमें कई ट्रांसफार्मेशन होते हैं। कई कोड लैंग्वेज बदलती हैं। कई बार कोड बदलता है, क्योंकि इन सबकी भाषा अलग-अलग है।
तो कुछ ऐसा हुआ कि अंगूठा तो कट गया, लेकिन जो संदेशवाहक नाड़ियां खबर ले जा रही थीं, वे कंपती ही रहीं। वे कंपती रहीं, तो संदेश पहुंचता रहा। संदेश पहुंचता रहा और मस्तिष्क कहता रहा कि अंगूठे में दर्द हो रहा है।
क्या ऐसा हो सकता है कि हम एक आदमी के पूरे शरीर को अलग कर लें और सिर्फ मस्तिष्क को निकाल लें? अब तो हो जाता है। पूरे शरीर को अलग किया जा सकता है। मस्तिष्क को बचाया जा सकता है, अकेले मस्तिष्क को। अगर एक आदमी को हम बेहोश करें और उसके पूरे शरीर को अलग करके उसके मस्तिष्क को प्रयोगशाला में रख लें और अगर मस्तिष्क से हम पूछ सकें कि तुम्हारा शरीर के बाबत क्या खयाल है? तो वह कहेगा कि सब ठीक है। कहीं कोई दर्द नहीं हो रहा है। शरीर है ही नहीं। वह कहेगा, सब ठीक है।
शरीर का जो बोध है, वह कृष्ण कहते हैं, वस्त्र की भांति है। लेकिन वस्त्र ऐसा, जिससे हम इतने चिपट गए हैं कि वह वस्त्र नहीं रहा, हमारी चमड़ी हो गया। इतने जोर से चिपट गए हैं, इतना तादात्म्य है जन्मों-जन्मों का, कि शरीर ही मैं हूं, ऐसी ही हमारी पकड़ हो गई है। जब तक यह शरीर और मेरे बीच डिस्टेंस, फासला पैदा नहीं होता, तब तक कृष्ण का यह सूत्र समझ में नहीं आएगा कि जीर्ण वस्त्रों की भांति...।
यह, थोड़े-से प्रयोग करें, तो खयाल में आने लगेगा। बहुत ज्यादा प्रयोग नहीं, बहुत थोड़े-से प्रयोग। सत्य तो यही है, जो कहा जा रहा है। असत्य वह है, जो हम माने हुए हैं। लेकिन माने हुए असत्य वास्तविक सत्यों को छिपा देते हैं। माना हुआ है हमने, वह हमारी मान्यता है। और बचपन से हम सिखाते हैं और मान्यताएं घर करती चली जाती हैं।
हमने माना हुआ है कि मैं शरीर हूं। शरीर सुंदर होता है, तो हम मानते हैं, मैं सुंदर हूं। शरीर स्वस्थ होता है, तो हम मानते हैं, मैं स्वस्थ हूं। शरीर को कुछ होता है, तो हम मैं के साथ एक करके मानते हैं। फिर यह प्रतीति गहरी होती चली जाती है, यह स्मृति सघन हो जाती है। फिर शरीर वस्त्र नहीं रह जाता, हम ही वस्त्र हो जाते हैं।
एक मेरे मित्र हैं। वृद्ध हैं, सीढ़ियों से पैर फिसल पड़ा उनका। पैर में बहुत चोट पहुंची। कोई पचहत्तर साल के वृद्ध हैं। गया उनके गांव तो लोगों ने कहा, तो मैं उन्हें देखने गया। बहुत कराहते थे और डाक्टरों ने तीन महीने के लिए उनको बिस्तर पर सीधा बांध रखा था। और कहा कि तीन महीने हिलना-डुलना नहीं। सक्रिय आदमी हैं, पचहत्तर साल की उम्र में भी बिना भागे-दौड़े उन्हें चैन नहीं। तीन महीने तो उनको ऐसा अनंत काल मालूम होने लगा।
मैं मिलने गया, तो कोई छह-सात दिन हुए थे। रोने लगे। हिम्मतवर आदमी हैं। कभी आंख उनकी आंसुओं से भरेगी, मैंने सोचा नहीं था। एकदम असहाय हो गए और कहा कि इससे तो बेहतर है, मैं मर जाता। ये तीन महीने इस तरह बंधे हुए! यह तो बिलकुल नर्क हो गया। यह मैं न गुजार सकूंगा। मुझसे बोले, मेरे लिए प्रार्थना करिए कि भगवान मुझे उठा ही ले। अब जरूरत भी क्या है। अब काफी जी भी लिया। अब ये तीन महीने इस खाट पर बंधे-बंधे ज्यादा कठिन हो जाएंगे। तकलीफ भी बहुत है, पीड़ा भी बहुत है।
मैंने उनसे कहा, छोटा-सा प्रयोग करें। आंख बंद कर लें और पहला तो यह काम करें कि तकलीफ कहां है, एक्जेक्ट पिन प्वाइंट करें कि तकलीफ कहां है। वे बोले, पूरे पैर में तकलीफ है। मैंने कहा कि थोड़ा आंख बंद करके खोज-बीन करें, सच में पूरे पैर में तकलीफ है?
क्योंकि आदमी को एग्जाजरेट करने की, बढ़ाने की आदत है। न तो इतनी तकलीफ होती है, न इतना सुख होता है। हम सब बढ़ाकर देखते हैं। आदमी के पास मैग्नीफाइंग माइंड है। उसके पास--जैसे कि कांच होता है न, चीजों को बड़ा करके बता देता है--ऐसी खोपड़ी है। हर चीज को बड़ा करके देखता है। कोई फूलमाला पहनाता है, तो वह समझता है कि भगवान हो गए। कोई जरा हंस देता है, तो वह समझता है कि गए, सब इज्जत पानी में मिल गई। मैग्नीफाइंग ग्लास का काम उसका दिमाग करता है।
मैंने कहा, जरा खोजें। मैं नहीं मानता कि पूरे पैर में दर्द हो सकता है। क्योंकि पूरे पैर में होता, तो पूरे शरीर में दिखाई पड़ता। जरा खोजें।
आंख बंद करके उन्होंने खोजना शुरू किया। पंद्रह मिनट बाद मुझसे कहा कि हैरानी की बात है। दर्द जितनी जगह फैला हुआ दिखाई पड़ता था, इतनी जगह है नहीं। बस, घुटने के ठीक पास मालूम पड़ता है। मैंने कहा, कितनी जगह घेरता होगा? उन्होंने कहा कि जैसे कोई एक बड़ी गेंद के बराबर जगह। मैंने कहा, और थोड़ा खोजें। और थोड़ा खोजें। उन्होंने फिर आंख बंद कर ली। और अब तो आश्वस्त थे, क्योंकि दर्द इतना सिकुड़ा कि सोचा भी नहीं था कि मन ने इतना फैलाया होगा। और खोजा। पंद्रह मिनट मैं बैठा रहा। वे खोजते चले गए।
फिर उन्होंने आंख नहीं खोली। चालीस मिनट, पैंतालीस मिनट--और उनका चेहरा मैं देख रहा हूं; और उनका चेहरा बदलता जा रहा है। कोई सत्तर मिनट बाद उन्होंने आंख खोली और कहा, आश्चर्य है कि वह तो ऐसा रह गया, जैसे कोई सुई चुभाता हो इतनी जगह में। फिर मैंने कहा, फिर क्या हुआ? आपको जवाब देना था; मुझे जल्दी जाना है; मैं सत्तर मिनट से बैठा हुआ हूं; आप आंख नहीं खोले। उन्होंने कहा कि जब वह इतना सिकुड़ गया कि ऐसा लगने लगा कि बस, एक जरा-सा बिंदु जहां पिन चुभाई जा रही हो, वहीं दर्द है, तो मैं उसे और गौर से देखने लगा। मैंने सोचा, जो इतना सिकुड़ सकता है, वह खो भी सकता है। और ऐसे क्षण आने लगे कि कभी मुझे लगे कि नहीं है। और कभी लगे कि है, कभी लगे कि खो गया। और एक क्षण लगे कि सब ठीक है, और एक क्षण लगे कि वापस आ गया।
फिर मैंने कहा कि फिर भी मुझे खबर कर देनी थी, तो मैं जाता। उन्होंने कहा, लेकिन एक और नई घटना घटी, जिसके लिए मैं सोच ही नहीं रहा था। वह घटना यह घटी कि जब मैंने इतने गौर से दर्द को देखा, तो मुझे लगा कि दर्द कहीं बहुत दूर है और मैं कहीं बहुत दूर हूं। दोनों के बीच बड़ा फासला है। तो मैंने कहा, अब ये तीन महीने इसका ही ध्यान करते रहें। जब भी दर्द हो, फौरन आंख बंद करें और ध्यान में लग जाएं।
तीन महीने बाद वे मुझे मिले तो उन्होंने पैर पकड़ लिए। फिर रोए, लेकिन अब आंसू आनंद के थे। और उन्होंने कहा, भगवान की कृपा है कि मरने के पहले तीन महीने खाट पर लगा दिया, अन्यथा मैं कभी आंख बंद करके बैठने वाला आदमी नहीं हूं। लेकिन इतना आनंद मुझे मिला है कि मैं जीवन में सिर्फ इसी घटना के लिए अनुगृहीत हूं परमात्मा का।
मैंने कहा, क्या हुआ आपको? उन्होंने कहा, यह दर्द को मिटाते-मिटाते मुझे पता चला कि दर्द तो जैसे दीवार पर हो रहा है घर की और मैं तो घर का मालिक हूं, बहुत अलग!
शरीर को भीतर से जानना पड़े, फ्राम दि इंटीरियर। हम अपने शरीर को बाहर से जानते हैं। जैसे कोई आदमी अपने घर को बाहर से जानता हो। हमने कभी शरीर को भीतर से फील नहीं किया है; बाहर से ही जानते हैं। यह हाथ हम देखते हैं, तो यह हम बाहर से ही देखते हैं। वैसे ही जैसे आप मेरे हाथ को देख रहे हैं बाहर से, ऐसे ही मैं भी अपने हाथ को बाहर से जानता हूं। हम सिर्फ फ्राम दि विदाउट, बाहर से ही परिचित हैं अपने शरीर से। हम अपने शरीर को भी भीतर से नहीं जानते। फर्क है दोनों बातों में। घर के बाहर से खड़े होकर देखें तो बाहर की दीवार दिखाई पड़ती है, घर के भीतर से खड़े होकर देखें तो घर का इंटीरियर, भीतर की दीवार दिखाई पड़ती है।
इस शरीर को जब तक बाहर से देखेंगे, तब तक जीर्ण वस्त्रों की तरह, वस्त्रों की तरह यह शरीर दिखाई नहीं पड़ सकता है। इसे भीतर से देखें, इसे आंख बंद करके भीतर से एहसास करें कि शरीर भीतर से कैसा है? इनर लाइनिंग कैसी है? कोट के भीतर की सिलाई कैसी है? बाहर से तो ठीक है, भीतर से कैसी है? इसकी भीतर की रेखाओं को पकड़ने की कोशिश करें। और जैसे-जैसे साफ होने लगेगा, वैसे-वैसे लगेगा कि जैसे एक दीया जल रहा है और उसके चारों तरफ एक कांच है। अब तक कांच से ही हमने देखा था, तो कांच ही मालूम पड़ता था कि ज्योति है। जब भीतर से देखा तो पता चला कि ज्योति अलग है, कांच तो केवल बाहरी आवरण है।
और एक बार एक क्षण को भी यह एहसास हो जाए कि ज्योति अलग है और शरीर बाहरी आवरण है, तो फिर सब मृत्यु वस्त्रों का बदलना है, फिर सब जन्म नए वस्त्रों का ग्रहण है, फिर सब मृत्यु पुराने वस्त्रों का छोड़ना है। तब जीर्ण वस्त्रों की तरह यह शरीर छोड़ा जाता है, नए वस्त्रों की तरह लिया जाता है। और आत्मा अपनी अनंत यात्रा पर अनंत वस्त्रों को ग्रहण करती और छोड़ती है। तब जन्म और मृत्यु, जन्म और मृत्यु नहीं हैं, केवल वस्त्रों का परिवर्तन है। तब सुख और दुख का कारण नहीं है।
लेकिन यह जो कृष्ण कहते हैं, यह गीता से समझ में न आएगा; यह अपने भीतर समझना पड़ेगा। धर्म के लिए प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं ही प्रयोगशाला बन जाना पड़ता है। यह कृष्ण जो कह रहे हैं, इसको पढ़कर मत समझना कि आप समझ लेंगे। मैं जो समझा रहा हूं, उसे समझकर समझ लेंगे, इस भ्रांति में मत पड़ जाना। इससे तो ज्यादा से ज्यादा चुनौती मिल सकती है। लौटकर घर प्रयोग करने लग जाना। लौटकर भी क्यों, यहां से चलते वक्त ही रास्ते पर जरा देखना कि यह जो चल रहा है शरीर, इसके भीतर कोई अचल भी है? और चलते-चलते भी भीतर अचल का अनुभव होना शुरू हो जाएगा। यह जो श्वास चल रही है, यही मैं हूं या श्वासों को भी देखने वाला पीछे कोई है? तब श्वास भी दिखाई पड़ने लगेगी कि यह रही। और जिसको दिखाई पड़ रही है, वह श्वास नहीं हो सकता, क्योंकि श्वास को श्वास दिखाई नहीं पड़ सकती।
तब विचारों को जरा भीतर देखने लगना, कि ये जो विचार चल रहे हैं मस्तिष्क में, यही मैं हूं? तब पता चलेगा कि जिसको विचार दिखाई पड़ रहे हैं, वह विचार कैसे हो सकता है! कोई एक विचार दूसरे विचार को देखने में समर्थ नहीं है। किसी एक विचार ने दूसरे विचार को कभी देखा नहीं है। जो देख रहा है साक्षी, वह अलग है। और जब शरीर, विचार, श्वास, चलना, खाना, भूख-प्यास, सुख-दुख अलग मालूम पड़ने लगें, तब पता चलेगा कि कृष्ण जो कह रहे हैं कि जीर्ण वस्त्रों की तरह यह शरीर छोड़ा जाता है, नए वस्त्रों की तरह लिया जाता है, उसका क्या अर्थ है। और अगर यह दिखाई पड़ जाए, तो फिर कैसा दुख, कैसा सुख? मरने में फिर मृत्यु नहीं, जन्म में फिर जन्म नहीं। जो था वह है, सिर्फ वस्त्र बदले जा रहे हैं।


प्रश्न: भगवान श्री, आत्मा व्यापक है, पूर्ण है, तो पूर्ण से पूर्ण कहां जाता है? आत्मा एक शरीर से छूटकर दूसरे कौन शरीर में जाता है? कहां से शरीर में आता भी है? आत्मा का उदर-प्रवेश हो, उससे पहले गर्भ जीता भी कैसे है?


आत्मा न तो आता है, न जाता है। आने-जाने की सारी बात शरीर की है। मोटे हिसाब से दो शरीर समझ लें। एक शरीर तो जो हमें दिखाई पड़ रहा है। यह शरीर माता-पिता से मिलता है, जन्मता है। और इसके पास अपनी सीमा है, अपनी सामर्थ्य है; उतने दिन चलता है और समाप्त हो जाता है। यंत्र है। माता-पिता से सिर्फ यंत्र मिलता है। गर्भ में माता-पिता सिर्फ यंत्र की सिचुएशन, स्थिति पैदा करते हैं। यह शरीर जो हमें दिखाई पड़ रहा है, यह जन्म के साथ शुरू होता है और मृत्यु के साथ समाप्त होता है। यह आता और जाता है।
एक और शरीर है जो आत्मा के लिए और भीतर का वस्त्र है, कहें कि अंडरवियर है। यह ऊपर का वस्त्र है यह शरीर, वह जरा भीतरी वस्त्र है। वह शरीर पिछले जन्म से साथ आता है। वह सूक्ष्म शरीर है। सूक्ष्म है, इसका अर्थ इतना ही कि यह शरीर बहुत पौदगलिक, मैटीरियल है, वह शरीर इलेक्ट्रानिक है। वह शरीर विद्युत-कणों से निर्मित है। वह जो विद्युत-कणों से निर्मित दूसरा शरीर है, वह आपके साथ पिछले जन्म से आता है। वही यात्रा करता है। वह भी यात्रा करता है।
वह शरीर, दूसरा सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर में प्रवेश कर जाता है, गर्भ में प्रवेश कर जाता है। उसका प्रवेश होना वैसा ही आटोमैटिक, स्वचालित है, जैसे पानी पहाड़ से उतरता है, नदियों से बहता है और सागर में चला जाता है। जैसे पानी का नीचे की तरफ बहना प्राकृतिक है, ऐसा ही सूक्ष्म शरीर का अपने योग्य अनुकूल शरीर में प्रवाहित होना एकदम प्राकृतिक घटना है।
इसलिए साधारण आदमी मरता है तो तत्काल जन्म मिल जाता है, क्योंकि चौबीस घंटे पृथ्वी पर लाखों गर्भ उपलब्ध हैं। असाधारण आदमी मरता है तो समय लगता है, जल्दी गर्भ नहीं मिलता। चाहे बुरा आदमी मरे असाधारण, चाहे अच्छा आदमी मरे असाधारण, दोनों के लिए बहुत प्रतीक्षा का समय है। दोनों के लिए तत्काल गर्भ उपलब्ध नहीं होता। रेडीमेड गर्भ सिर्फ बिलकुल मध्यवर्गीय लोगों को मिलते हैं। उनके लिए रोज गर्भ उपलब्ध हैं। इधर मरे नहीं कि उधर गर्भ ने पुकारा नहीं। इधर मरे नहीं कि गर्भ के गङ्ढे में बहे नहीं। इसमें देर नहीं लगती।
लेकिन बहुत बुरा आदमी, जैसे हिटलर जैसा आदमी, तो मुश्किल हो जाती है। हिटलर के लिए मां-बाप की प्रतीक्षा में काफी समय लग जाता है। गांधी जैसे आदमी को भी काफी समय लग जाता है। इनके लिए जल्दी गर्भ उपलब्ध नहीं हो सकता। हमारे हिसाब से कभी सैकड़ों वर्ष भी लग जाते हैं। उनके हिसाब से नहीं कह रहा हूं। उनके लिए टाइम-स्केल अलग है। हमारे हिसाब से कभी सैकड़ों वर्ष लग जाते हैं। जैसे ही योग्य गर्भ उपलब्ध हुआ कि वैसे ही योग्य सूक्ष्म शरीर उसमें प्रवेश कर जाता है। सारी यात्रा इन्हीं शरीरों की है। अब आत्मा किस भांति संबंधित होता है इस सब में?
असल में हमारे पास अब तक जो भी प्रतीक हैं, आदमी के पास, वे आने-जाने के हैं। घर में कोई आया और गया। तो आदमी तो प्रतीकों का उपयोग करेगा। प्रतीक कभी भी ठीक-ठीक नहीं होते। आने-जाने की बात बहुत ठीक नहीं है आत्मा के संबंध में। अब आत्मा को हम कैसा प्रतीक, किस प्रतीक से कहें! कृष्ण के वक्त में तो प्रतीक और भी नहीं हैं। प्रतीक तो बहुत क्रूड हैं। उनसे हमें काम चलाना पड़ता है। जैसे उदाहरण के लिए, एक-दो उदाहरण लेने से खयाल में आ जाए।
एक आदमी किसी समुद्र में एक छोटे-से द्वीप पर रहता है। वहां कोई फूल नहीं होते। पत्थर ही पत्थर हैं। रेत ही रेत है। वह आदमी यात्रा पर निकलता है और किसी महाद्वीप पर बहुत-से फूल देखकर लौटता है। उसके द्वीप के लोग उससे पूछते हैं कि क्या नई चीज देखी? वह कहता है, फूल। वे लोग कहते हैं, फूल यानी क्या? व्हाट डू यू मीन? तो उस द्वीप पर फूल नहीं होते, अब वह क्या करे! वह नदी के किनारे से चमकदार पत्थर उठा लाता है, रंगीन पत्थर उठा लाता है। वह कहता है, ऐसे होते हैं।
निश्चित ही, उस द्वीप का कोई आदमी इस पर सवाल नहीं उठाएगा। क्योंकि सवाल का कोई कारण नहीं है। लेकिन उस आदमी की--जो फूल देखकर आया है--बड़ी मुसीबत है। कोई प्रतीक उपलब्ध नहीं है, जिससे वह कहे।
हम जिस जगत में जीते हैं, वहां आना-जाना प्रतीक है। तो जन्म को हम कहते हैं आना, मृत्यु को हम कहते हैं जाना। लेकिन सच में ही आत्मा न आती है, न जाती है। तो इसके लिए एक प्रतीक मेरे खयाल में आता है, वह शायद और करीब है, वह आपके समझ में आ जाए।
अभी पश्चिम में उनका खयाल है कि पेट्रोल से ज्यादा दिन तक कार नहीं चलाई जा सकेगी। क्योंकि पेट्रोल ने इतना नुकसान कर दिया है। इकोलाजी का एक नया आंदोलन सारे योरोप और अमेरिका में चलता है। इतनी गंदी कर दी है हवा पेट्रोल ने कि आदमी के जीने योग्य नहीं रह गई है। तो अब पेट्रोल से कार नहीं चलाई जा सकती, तो बिजली से ही चलाई जाएगी। या तो बैटरी से चलाई जाए, तो थोड़ी महंगी होगी। या बिजली से चलाई जाए। लेकिन बिजली से चलाने के लिए--कैसे चलाई जाए? बिजली कार को कैसे मिलती रहे?
तो रूसी वैज्ञानिकों का एक सुझाव कीमती मालूम पड़ता है। उनका कहना है, इस सदी के पूरे होते-होते हम सारे रास्तों के नीचे बिजली के तार बिछा देंगे। सारे रास्तों के नीचे बिजली के तार बिछा देंगे। जो भी कार ऊपर से चलेगी रास्ते के, नीचे से उसे बिजली चलने के लिए उपलब्ध होती रहेगी।
जैसे ट्राम चलती है आपकी। ऊपर तार होता है, उससे बिजली मिलती रहती है। ट्राम चलती है, बिजली नहीं चलती। बिजली ऊपर से मिलती रहती है, नीचे से ट्राम दौड़ती रहती है। जितनी आगे बढ़ती है, उधर से बिजली मिल जाती है। जैसे ट्राम चलती है और बिजली नहीं चलती, लेकिन ऊपर से प्रतिपल मिलती रहती है। और जब बिजली न मिले, तो ट्राम तत्काल रुक जाए। बिजली के द्वारा चलती है, लेकिन बिजली नहीं चलती, ट्राम चलती है।
ठीक वैसे ही रूस का वैज्ञानिक कहता है, नीचे हम सड़कों के तार बिछा देंगे, कार ऊपर से दौड़ती रहेगी। बस, उसके दौड़ने से वह बिजली लेती रहेगी। कार का मीटर तय करता रहेगा, कितनी बिजली आपने ली। वह आप जमा करते रहेंगे। लेकिन बिजली नहीं चलेगी, चलेगी कार।
ठीक ऐसे ही, आत्मा व्यापक तत्व है; वह है ही सब जगह। सिर्फ हमारा सूक्ष्म शरीर बदलता रहता है, दौड़ता रहता है। और जहां भी जाता है, आत्मा से उसे जीवन मिलता रहता है।
जिस दिन सूक्ष्म शरीर बिखर जाता है, ट्राम टूट गई, बिजली अपनी जगह रह जाती है; ट्राम टूट जाती है, सूक्ष्म शरीर खो जाता है। तो जब सूक्ष्म शरीर खोता है, तो आत्मा परमात्मा से मिल जाती है, ऐसा नहीं। आत्मा परमात्मा से सदा मिली ही हुई थी, सूक्ष्म शरीर की दीवार के कारण अलग मालूम पड़ती थी, अब अलग नहीं मालूम पड़ती है।
आने-जाने की जो धारणा है--आवागमन की--वह बड़ी क्रूड सिमली है। वह बहुत ही दूर की है, लेकिन कोई उपाय नहीं है। जो मैं कह रहा हूं, मैं यह कह रहा हूं कि आत्मा तो चारों तरफ मौजूद है, हमारे भीतर भी, बाहर भी।
अब यहां बिजली के बल्ब जल रहे हैं। एक सौ कैंडिल का बल्ब जल रहा है, एक पचास कैंडिल का जल रहा है, एक बीस कैंडिल का जल रहा है, एक बिलकुल जुगनू की तरह पांच कैंडिल का जल रहा है। इन सबके भीतर एक सी बिजली दौड़ रही है। और प्रत्येक अपनी कैंडिल के आधार पर उतनी बिजली ले रहा है। यह माइक है, इसमें तो कोई बल्ब भी नहीं लगा हुआ है; यह माइक अपनी उपयोगिता के लिए बिजली ले रहा है। रेडियो अपनी उपयोगिता की बिजली ले रहा है, पंखा अपनी उपयोगिता की बिजली ले रहा है। बिजली में कोई फर्क नहीं है--पंखे के यंत्र में फर्क है, माइक के यंत्र में फर्क है, बल्ब के यंत्र में फर्क है।
परमात्मा चारों तरफ मौजूद है। सब तरफ वही है। हमारे पास एक सूक्ष्म यंत्र है, सूक्ष्म शरीर। उसके अनुसार हम उससे ताकत और जीवन ले रहे हैं। इसलिए अगर हमारे पास पांच कैंडिल का सूक्ष्म शरीर है, तो हम पांच कैंडिल की ताकत ले रहे हैं; पचास कैंडिल का है, तो पचास कैंडिल की ले रहे हैं। महावीर के पास हजार कैंडिल का है, तो हजार कैंडिल का ले रहे हैं। हम गरीब हैं बहुत, एक ही कैंडिल का सूक्ष्म शरीर है, तो एक ही कैंडिल की ले रहे हैं।
परमात्मा की कंजूसी नहीं है इसमें। हम जितना बड़ा पात्र लेकर आ गए हैं, उतना ही उपलब्ध हो रहा है। हम चाहें हम हजार कैंडिल के हो जाएं, तो ठीक महावीर से जैसी प्रतिभा प्रकट होती है, हमसे प्रकट हो जाए। और एक सीमा आती है कि महावीर कहते हैं, हजार से भी काम नहीं चलेगा, हम तो अनंत कैंडिल चाहते हैं! तो फिर कहते हैं कि बल्ब तोड़ दो, तो फिर अनंत कैंडिल के हो जाओ। क्योंकि बल्ब जब तक रहेगा, तो सीमा रहेगी ही कैंडिल की, हजार हो, दो हजार हो, लाख हो, दस लाख हो। लेकिन अगर अनंत प्रकाश चाहिए, तो बल्ब तोड़ दो। तो फिर महावीर कहते हैं, हम बल्ब तोड़ देते हैं, हम मुक्त हो जाते हैं।
मुक्त होने का कुल मतलब इतना है कि अब ले चुके यंत्रों से बहुत, लेकिन देखा कि हर यंत्र सीमा बन जाता है। और जहां सीमा है वहां दुख है। इसलिए तोड़ देते हैं यंत्र को, अब हम पूरे के साथ एक ही हुए जाते हैं।
यह भाषा की गलती है कि एक ही हुए जाते हैं, एक थे ही। यंत्र बीच में था, इसलिए कम मिलता था। यंत्र टूट गया, तो पूरा है।
आत्मा आती-जाती नहीं, सूक्ष्म शरीर आता है, जाता है। स्थूल शरीर आता है, जाता है। स्थूल शरीर मिलता है माता-पिता से, सूक्ष्म शरीर मिलता है पिछले जन्म से। और आत्मा सदा से है।
सूक्ष्म शरीर न हो, तो स्थूल शरीर ग्रहण नहीं किया जा सकता। सूक्ष्म शरीर टूट जाए, तो स्थूल शरीर ग्रहण करना असंभव है। इसलिए सूक्ष्म शरीर के टूटते ही दो घटनाएं घटती हैं। एक तरफ सूक्ष्म शरीर गिरा कि स्थूल शरीर की यात्रा बंद हो जाती है। और दूसरी तरफ परमात्मा से जो हमारी सीमा थी, वह मिट जाती है। सूक्ष्म शरीर का गिर जाना ही साधना है। बीच का सेतु, जो ब्रिज है बीच में हमें जोड़ने वाला--शरीर से इस तरफ और उस तरफ परमात्मा से--वह गिर जाता है। उसको गिरा देना ही समस्त साधना है।
वह सूक्ष्म शरीर जिन चीजों से बना है, उन्हें समझ लेना जरूरी है। वह हमारी इच्छाओं से, वासनाओं से, कामनाओं से, आकांक्षाओं से, अपेक्षाओं से, हमारे किए कर्मों से, हमारे न किए कर्मों से लेकिन चाहे गए कर्मों से, हमारे विचारों से, हमारे कामों से, हम जो भी रहे हैं--सोचा है, विचारा है, किया है, अनुभव किया है, भावना की है--उस सबका, उस सबके इलेक्ट्रानिक प्रभावों से, उस सबके वैद्युतिक प्रभावों से निर्मित हमारा सूक्ष्म शरीर है।
उस सूक्ष्म शरीर का विसर्जन ही दो परिणाम लाता है। इधर गर्भ की यात्रा बंद हो जाती है। जब ज्ञान हुआ तब बुद्ध ने कहा कि घोषणा करता हूं कि मेरे मन, तू, जिसने अब तक मेरे लिए बहुत शरीरों के घर बनाए, अब तू विश्राम को उपलब्ध हो सकता है। अब तुझे मेरे लिए कोई और घर बनाने की जरूरत नहीं। धन्यवाद देता हूं और तुझे छुट्टी देता हूं। अब तेरे लिए कोई काम नहीं बचा, क्योंकि मेरी कोई कामना नहीं बची। अब तक मेरे लिए अनेक-अनेक घर बनाने वाले मन, अब तुझे आगे घर बनाने की कोई जरूरत नहीं है।
मरते वक्त जब बुद्ध से लोगों ने पूछा कि अब, जब कि आपकी आत्मा परम में लीन हो जाएगी, तो आप कहां होंगे? तो बुद्ध ने कहा कि अगर मैं कहीं होऊंगा तो परम में लीन कैसे हो सकूंगा! क्योंकि जो समव्हेयर है, जो कहीं है, वह एवरीव्हेयर नहीं हो सकता, वह सब कहीं नहीं हो सकता। जो कहीं है, वह सब कहीं नहीं हो सकता। तो बुद्ध ने कहा, यह पूछो ही मत। अब मैं कहीं नहीं होऊंगा, क्योंकि सब कहीं होऊंगा। मगर फिर-फिर पूछते हैं भक्त, कि कुछ तो बताएं, अब आप कहां होंगे?
बूंद से पूछ रहे हैं कि सागर में गिरकर तू कहां होगी? बूंद कहती है, सागर ही हो जाऊंगी। लेकिन और बूंदें पूछना चाहेंगी कि वह तो ठीक है, लेकिन फिर भी कहां होगी? कभी मिलने आएं! तो बूंद, जो सागर हो रही है, वह कहती है, तुम सागर में ही आ जाना, तो मिलन हो जाएगा। लेकिन बूंद से मिलन नहीं होगा, सागर से ही मिलन होगा।
जिसे बुद्ध से मिलना हो, कृष्ण से मिलना हो, महावीर से मिलना हो, जीसस से, मोहम्मद से मिलना हो, तो अब बूंद से मिलना नहीं हो सकता। कितना ही मूर्ति बनाकर रखे रहें; अब बूंद से मिलना नहीं हो सकता। बूंद गई सागर में, इसीलिए तो मूर्ति बनाई। यही तो मजा है, पैराडाक्स है। मूर्ति इसीलिए बनाई कि बूंद सागर में गई। बनाने योग्य हो गई मूर्ति अब इसकी।
लेकिन अब मूर्ति में कुछ मतलब नहीं है। अब तो मिलना हो तो सागर में ही जाना पड़े।
माता-पिता से मिलता है बूंद का आकार, बाह्य। स्वयं के पिछले जन्मों से मिलती है बूंद की भीतरी व्यवस्था। और परमात्मा से मिलती है जीवन-ऊर्जा, वह है हमारी आत्मा। लेकिन जब तक इस बूंद की दोहरी परत को हम ठीक से न पहचान लें, तब तक उसको हम नहीं पहचान सकते, जो दोनों के बाहर है।
आज इतना ही। फिर कल सुबह बात करेंगे।


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