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सोमवार, 2 अक्टूबर 2017

गीता दर्शन-(भाग-02)-प्रवचन-021



 गीता दर्शन-भाग-(02) प्रवचन-021

अध्याय ३
तीसरा प्रवचन
परमात्म समर्पित कर्म

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽनर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।। ७।।
और हे अर्जुन, जो पुरुष मन से इंद्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ कर्मेंद्रियों से कर्मयोग का आचरण करता है, वह श्रेष्ठ है।

मनुष्य के मन में वासना है, कामना है। उस कामना का परिणाम सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं है। उस वासना से सिवाय विषाद के, फ्रस्ट्रेशन के और कभी कुछ मिलता नहीं है। लगता है, मिलेगा सुख, मिलता है सदा दुख। लगता है, मिलेगी शांति, मिलती है सदा अशांति। लगता है, उपलब्ध होगी स्वतंत्रता, लेकिन आदमी और भी गहरे बंधन में बंधता चला जाता है। कामना मनुष्य का दुख है, तृष्णा मनुष्य की पीड़ा है।
निश्चित ही, वासना से उठे बिना, वासना के पार हुए बिना, कोई व्यक्ति कभी आनंद को उपलब्ध नहीं हुआ है। पर इस वासना से ऊपर उठने के लिए दो काम किए जा सकते हैं; क्योंकि इस वासना के दो हिस्से हैं। एक तो वासना से भरा हुआ चित्त है, मन है; और एक वासना के उपयोग में आने वाली इंद्रियां हैं। जो आदमी ऊपर से पकड़ेगा; उसे इंद्रियां पकड़ में आती हैं और वह इंद्रियों की शत्रुता में पड़ जाता है।

कृष्ण ने कहा, वैसा आदमी नासमझ है, अज्ञानी है, मूढ़ है। दूसरी बात अब वे कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, लेकिन वह मनुष्य श्रेष्ठ है, जो मन को ही रूपांतरित करके इंद्रियों को वश में कर लेता है। इंद्रियों का वश में होना, इंद्रियों का मर जाना नहीं है। इंद्रियों का वश में होना, इंद्रियों का निर्वीर्य हो जाना नहीं है। इंद्रियों का वश में होना, इंद्रियों का अशक्त हो जाना नहीं है। क्योंकि अशक्त को वश में भी किया, तो क्या वश किया? निर्बल को जीत भी लिया, तो क्या जीता?
कृष्ण कहते हैं, श्रेष्ठ है वह पुरुष, जो इंद्रियों से लड़ता ही नहीं, बल्कि मन को ही रूपांतरित करता है और इंद्रियों को वश में कर लेता है। मारता नहीं, लड़ता नहीं, वश में कर लेता है।
निश्चित ही, लड़ने की कला बिलकुल ही नासमझी से भरी है। कहना चाहिए, कला नहीं है, कला का धोखा है। वश में करने की कला बहुत ही भिन्न है। इंद्रियां किसके वश में होती हैं? साधारणतः तो हम प्रतीत होता है कि इंद्रियों के वश में हैं। इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है।
साधारणतः तो ऐसा प्रतीत होता है कि हम इंद्रियों के गुलाम हैं। साधारणतः तो जिंदगी ऐसी ही है, जहां इंद्रियां आगे चलती मालूम पड़ती हैं और हम पीछे चलते मालूम पड़ते हैं। जब मैं कह रहा हूं, इंद्रियां आगे चलती मालूम पड़ती हैं, तो उसका मतलब है कि वासनाएं आगे चलती मालूम पड़ती हैं। वासनाएं हमें दिखाई नहीं पड़ती हैं, जब तक कि वे इंद्रियों में प्रविष्ट न हो जाएं। वासनाएं तब तक अदृश्य होती हैं, जब तक इंद्रियों पर हावी न हो जाएं। इसलिए हमें तो इंद्रियां ही दिखाई पड़ती हैं। वासनाओं का जो सूक्ष्मतम रूप है, अतींद्रिय, वह हमें दिखाई नहीं पड़ता है।
आपके मन में कोई भी वासना उठे, तो वासना दिखाई नहीं पड़ती, जब तक उस वासना से संबंधित इंद्रिय आविष्ट न हो जाए। अगर आपके मन में किसी को छूने की वासना उठी है, तो तब तक उसका स्पष्ट बोध नहीं होता, जब तक छूने के लिए शरीर आतुर न हो जाए। जब तक वासना शरीर नहीं लेती, आकार नहीं लेती, जब तक वासना इंद्रियों में गति नहीं बन जाती, तब तक हमें पता नहीं चलता। इसलिए बहुत बार ऐसा होता है कि क्रोध का हमें तभी पता चलता है, जब हम कर चुके होते हैं। काम का हमें तभी पता होता है, जब वासना हम पर आविष्ट हो गई होती है। हम पजेस्ड हो गए होते हैं, तभी पता चलता है। और शायद तब तक लौटना मुश्किल हो गया होता है, तब तक शायद वापसी असंभव हो गई होती है।
वासना हमारे आगे चलती है और हम छाया की तरह पीछे चलते हैं। मनुष्य की गुलामी यही है। और जो मनुष्य ऐसी गुलामी में है, उसे कृष्ण कहेंगे, वह निकृष्ट है, उसे अभी मनुष्य कहे जाने का हक नहीं है। मनुष्य का हक तो उसे है, जिसकी वासनाएं उसके पीछे चलती हैं। लेकिन इधर फ्रायड के बाद सारी दुनिया को यह समझाया गया है कि वासनाएं कभी पीछे चल ही नहीं सकतीं; वासनाएं आगे ही चलेंगी। और यह भी समझाया गया है कि वासनाओं को वश में किया ही नहीं जा सकता। आदमी को ही वासना के वश में रहना होगा। और यह भी समझाया गया है कि विल पावर या संकल्प की शक्ति की जितनी बातें हैं, वे सब झूठी हैं। आदमी के पास कोई संकल्प नहीं है।
इसके परिणाम हुए हैं। इसके परिणाम ये हुए हैं कि आदमी ने इंद्रियों की गुलामी को परिपूर्ण रूप से स्वीकार कर लिया है। आदमी राजी हो गया है कि हम तो वासनाओं के गुलाम रहेंगे ही। और जब गुलाम ही रहना है, तो फिर ठीक तरह से, पूरी तरह से ही गुलाम हो जाना उचित है; जब मालिक होने का कोई उपाय ही नहीं है।
शरीरवादी सदा से यही कहते रहे हैं। इस देश में भी शरीरवादी थे। सच तो यह है, अधिक लोग शरीरवादी ही हैं। अधिक लोग चार्वाक से सहमत ही हैं। अधिक लोग माक्र्स से सहमत ही हैं। अधिक लोग फ्रायड से सहमत ही हैं। अधिक लोग इस बात से राजी ही हैं कि हम शरीर से ज्यादा कुछ भी नहीं हैं। इसलिए शरीर की मांग ही हमारी जिंदगी है और शरीर की वासना ही हमारी आत्मा है। इसलिए जहां ले जाएं अंधी इंद्रियां और जहां ले जाएं अंधी वासनाएं, हमें वहीं भागते चले जाना है। आदमी का कोई वश नहीं है।
यह बात अगर एक बार कोई मानने को राजी हो जाए, तो वह सदा के लिए अपनी आत्मा खो देता है। क्योंकि आत्मा पैदा ही तब होती है, जब वासना पीछे हो और स्वयं का होना आगे हो। आत्मा का जन्म ही तब होता है, जब वासना छाया बन जाए। जब तक वासना आगे होती है और हम छाया होते हैं, तब तक हममें आत्मा पैदा नहीं होती है। सिर्फ संभावना होती है, पोटेंशियलिटी होती है, एक्चुएलिटी नहीं होती है। तब तक आत्मा हमारे लिए बीज की तरह होती है, वृक्ष की तरह नहीं होती है।
कृष्ण कह रहे हैं, वह आदमी श्रेष्ठ है अर्जुन, जो अपनी इंद्रियों को मन के वश में कर लेता है।
मन के वश में इंद्रियों को करिएगा कैसे? हमें तो एक ही रास्ता दिखाई पड़ता है कि लड़ो, इंद्रियों को दबा दो, तो इंद्रियां वश में हो जाएंगी। दबाने से कोई इंद्रिय वश में नहीं होती। दबाने से सिर्फ इंद्रियां परवर्ट होती हैं, विकृत होती हैं और सीधी मांगें तिरछी मांगें बन जाती हैं; और हम सीधे न चलकर पीछे के दरवाजों से पहुंचने लगते हैं; और पाखंड फलित होता है। दबाना मार्ग नहीं है। फिर क्या मार्ग है?
मनुष्य की वासनाएं तब तक उसे पकड़े रहती हैं, जब तक उसके पास संकल्प, विल न हो, जब तक उसके पास संकल्प जैसी सत्ता का जन्म न हो। इस संकल्प के संबंध में थोड़ा गहरे उतरना आवश्यक है, क्योंकि इसके बिना कोई आदमी कभी वासनाओं पर वश नहीं पा सकता है।
संकल्प का क्या अर्थ है? संकल्प का अर्थ इंद्रियों का दमन नहीं, संकल्प का अर्थ स्वयं के होने का अनुभव है। संकल्प का अर्थ है, स्वयं की मौजूदगी का अनुभव।
आपको भूख लगी है, शरीर कहता है कि भूख लगी है; आप कहते हैं कि सुन ली मैंने आवाज, लेकिन अभी, अभी मैं भोजन करने को राजी नहीं हूं। और अगर आप पूरे मन से यह बात कह सकें कि अभी मैं भोजन करने को राजी नहीं हूं, तो शरीर तत्काल मांग बंद कर देता है। तत्काल मांग बंद कर देता है। जैसे ही शरीर को पता चल जाए कि आपके पास शरीर से ऊपर भी संकल्प है, वैसे ही शरीर तत्काल मांग बंद कर देता है। आपकी कमजोरी ही शरीर की ताकत बन जाती है। आपकी ताकत ही शरीर की कमजोरी बन जाती है।
लेकिन हम कभी शरीर से भिन्न अपनी कोई घोषणा नहीं करते हैं।
कभी छोटे-छोटे प्रयोग करके देखना जरूरी है। बहुत छोटे प्रयोग, जिनमें आप शरीर से भिन्न अपने होने की घोषणा करते हैं। सारे धर्मों ने इस तरह के प्रयोग विकसित किए हैं। लेकिन करीब-करीब सभी प्रयोग नासमझ लोगों के हाथ में पड़कर व्यर्थ हो जाते हैं। उपवास इसी तरह का प्रयोग था, जो मनुष्य के संकल्प को जन्माने के लिए था।
आदमी अगर कह सके कि नहीं, भोजन नहीं, पूरे मन से, तो शरीर मांग बंद कर देता है। और जब पहली दफा यह पता चलता है कि शरीर के अतिरिक्त भी मेरी कोई स्थिति है, तो आपके भीतर एक नई ऊर्जा, एक नई शक्ति जन्मने लगती है, अंकुरित होने लगती है। नींद आ रही है और आपने कहा कि नहीं, मैं नहीं सोना चाहता हूं। और अगर यह टोटल है, अगर यह बात पूरी है, अगर यह पूरे मन से कही गई है, तो शरीर तत्काल नींद की आकांक्षा छोड़ देगा। आप अचानक पाएंगे कि नींद खो गई है और जागरण पूरा आ गया है। लेकिन हम जिंदगी में कभी इसका प्रयोग नहीं करते हैं। हम कभी शरीर से भिन्न होने का कोई भी प्रयोग नहीं करते हैं। शरीर जो कहता है, हम चुपचाप उसको पूरा करते चले जाते हैं।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि शरीर जो कहे, उसे आप पूरा न करें। लेकिन कभी-कभी किन्हीं क्षणों में अपने अलग होने का अनुभव भी करना जरूरी है। और एक बार आपको यह अनुभव होने लगे कि आप, शरीर से भिन्न भी आपका कुछ होना है, तो आप हैरान हो जाएंगे, उसी दिन से आपके मन की ताकत आपकी इंद्रियों पर फैलनी शुरू हो जाएगी।
गुरजिएफ, एक अदभुत फकीर, अभी कुछ दिन पहले था। जैसा मैंने पिछली चर्चा में आपसे कहा कि अगर इस युग में हम सांख्य का कोई ठीक-ठीक व्यक्तित्व खोजना चाहें, तो कृष्णमूर्ति हैं। और अगर हम योग का कोई ठीक-ठीक व्यक्तित्व खोजना चाहें, तो वह जार्ज गुरजिएफ है। गुरजिएफ एक छोटा-सा प्रयोग अपने साधकों को कराता था। बहुत छोटा। कभी आप भी करें, तो बहुत हैरान होंगे और आपको पता चलेगा कि संकल्प का अनुभव क्या है।
उस प्रयोग को वह कहता था, स्टाप एक्सरसाइज। वह अपने साधकों को बिठा लेता और वह कहता कि मैं अचानक कहूंगा, स्टाप! तो तुम जहां हो, वहीं रुक जाना। अगर किसी ने हाथ उठाया था, तो वह हाथ यहीं रुक जाए; अगर किसी की आंख खुली थी, तो वह खुली रह जाए; अगर किसी ने बोलने को ओंठ खोले थे, तो वे खुले रह जाएं; अगर किसी ने चलने के लिए कदम उठाया था एक और एक जमीन पर था, तो वहीं रह जाए। स्टाप! ठहर जाओ! तो जो जहां है, वह वहीं ठहर जाए; वैसा ही ठहर जाए।
और जिन साधकों पर वह दोत्तीन महीने प्रयोग करता इस छोटे-से अभ्यास का, उन साधकों को पता चलता कि जैसे ही वे ठहरते हैं, शरीर तो कहता है, पैर नीचे रखो; आंख तो कहती है, पलक झपकाओ; ओंठ तो कहते हैं, बंद कर लो; लेकिन वे रुक गए हैं--न आंख झपकेंगे, न पैर हटाएंगे, न हाथ हिलाएंगे--अब मूर्ति की तरह रह गए हैं। तीन महीने के थोड़े-से अभ्यास में ही उन्हें पता चलना शुरू होता है कि उनके भीतर कोई एक और भी है, जो शरीर को जहां चाहे वहां आज्ञा दे सकता है।
कभी आपने अपने शरीर को आज्ञा दी है? कभी भी आपने आदेश दिया है? आपने सिर्फ आदेश लिए हैं; आपने कभी भी आदेश दिया नहीं है। वन वे ट्रैफिक है अभी। शरीर की तरफ से आदेश आते हैं, शरीर की तरफ कोई आदेश जाता नहीं है; कभी नहीं जाता है। उसके परिणाम खतरनाक हैं। उसका बड़े से बड़ा परिणाम है वह यह है कि हमें कल्पना ही मिट गई है कि हमारे भीतर विल जैसी, संकल्प जैसी भी कोई चीज है! और जिस व्यक्ति के पास संकल्प नहीं है, वह व्यक्ति श्रेष्ठ नहीं हो सकता। संकल्पहीनता ही निकृष्टता है। संकल्पवान होना ही आत्मवान होना है।
कृष्ण कह रहे हैं, अर्जुन! वह मनुष्य श्रेष्ठ है, जो अपनी इंद्रियों पर वश पा लेता है। जो इंद्रियों का मालिक हो जाता है। जो इंद्रियों को आज्ञा दे सकता है। जो कह सकता है, ऐसा करो।
हम सिर्फ इंद्रियों से पूछते हैं, क्या करें? हम जिंदगीभर, जन्म से लेकर मृत्यु तक इंद्रियों से पूछते चले जाते हैं, क्या करें? इंद्रियां बताए चली जाती हैं और हम करते चले जाते हैं। इसलिए हम शरीर से ज्यादा कभी कोई अनुभव नहीं कर पाते।
आत्म-अनुभव संकल्प से शुरू होता है। और मनुष्य की श्रेष्ठता संकल्प के जन्म के साथ ही यात्रा पर निकलती है।


प्रश्न: भगवान श्री, कृष्ण यहां मन से इंद्रियों को वश में करने को कह रहे हैं; लेकिन आप तो मन को ही विसर्जित करने को कहते हैं! यह कैसी बात है?


कृष्ण भी यही कहेंगे, मन को विसर्जित करने को कहेंगे। लेकिन मन विसर्जित करने के लिए होना भी तो चाहिए! अभी तो मन है ही नहीं। इंद्रियां और इंद्रियों के पीछे दौड़ना हमारा अस्तित्व है। हमारे पास मन जैसी कोई, संकल्प जैसी चीज नहीं है। पहले चरण पर संकल्प पैदा करना पड़ेगा और दूसरे चरण पर संकल्प को भी समर्पित कर देना होगा। लेकिन समर्पित तो वही कर पाएंगे, जिनके पास होगा। जिनके पास नहीं है, वे समर्पित क्या करेंगे!
हम एक आदमी से कहते हैं, धन का त्याग कर दो। लेकिन त्याग के लिए धन तो होना चाहिए न! जब हम कहते हैं, धन का त्याग कर दो, धन हो ही न, तो त्याग क्या करेगा?
मन आपके पास है या सिर्फ इंद्रियों की आकांक्षाओं के जोड़ का नाम आपने मन समझा हुआ है? तो जब हमसे कोई कहेगा कि समर्पण कर दो मन को परमात्मा के चरणों में, तो हमारे पास कुछ होता ही नहीं, जिसको हम समर्पण कर दें। हमारे पास केवल दौड़ती हुई वासनाओं का समूह होता है, जिनको समर्पित नहीं किया जा सकता। किसी ने कभी कहा है कि वासनाओं को परमात्मा को समर्पित कर दो? किसी ने कभी नहीं कहा। मन को समर्पित किया जा सकता है। एक इंटिग्रेटेड विल हो, तो समर्पित की जा सकती है। और समर्पण सबसे बड़ा संकल्प है। बड़े से बड़ा, अंतिम संकल्प जो है, वह समर्पण है।
समर्पण दूसरे चरण में संभव है। पहले चरण में तो संकल्प ही निर्मित करना पड़ेगा। आत्मा भी तो चाहिए! परमात्मा के चरणों में नैवेद्य चढ़ाना हो, तो वासनाओं को लेकर पहुंच जाइएगा? आत्मा चाहिए उसके पास चढ़ाने को। आप भी तो होने चाहिए! आप हैं? अगर बहुत खोजेंगे, तो आप कहीं न पाएंगे कि आप हैं। आप पाएंगे कि यह इच्छा है, वह इच्छा है, यह वासना है, वह वासना है। आप कहां हैं?
डेविड ह्यूम ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मैंने डेल्फी के मंदिर पर लिखा हुआ वचन पढ़ा--नो दाई सेल्फ--अपने को जानो, और तब से मैं अपने भीतर जाकर कोशिश करता हूं कि अपने को जानूं। लेकिन मैं तो स्वयं को कहीं मिलता ही नहीं हूं; जब भी मिलता है भीतर तो कोई इच्छा मिलती है, कोई विचार मिलता है, कोई वासना मिलती है, कोई कामना मिलती है। मैं तो कभी भीतर मिलता ही नहीं हूं। मैं थक गया खोज-खोजकर। जब भी मिलती है--कोई वासना, कोई कामना, कोई इच्छा, कोई विचार, कोई स्वप्न--मैं तो कहीं मिलता ही नहीं हूं।
मिलेगा भी नहीं। क्योंकि स्वयं को जानने के पहले वासनाओं के बीच में स्वयं की सत्ता को भी तो अंकुरित करना पड़ेगा। वह डेविड ह्यूम ठीक कहता है। आप भी भीतर जाएंगे, तो आत्मा नहीं मिलेगी, विचार मिलेंगे, वासनाएं मिलेंगी, इच्छाएं मिलेंगी। आत्मा तो संकल्प के द्वार से ही मिल सकती है।
इसलिए निश्चित ही धर्म का पहला चरण है, संकल्प को निर्मित करो, क्रिएट दि विल फोर्स। और दूसरा चरण है, निर्मित संकल्प को सरेंडर करो, समर्पण करो। पहला चरण है, आत्मवान बनो; दूसरा चरण है, आत्मा को परमात्मा के चरणों में फूल की तरह चढ़ा दो। पहला चरण है, आत्मा को पाओ; दूसरा चरण है, परमात्मा को पाओ। आत्मा को पाना हो तो वासनाओं से ऊपर उठना पड़ेगा। और परमात्मा को पाना हो तो आत्मा से भी ऊपर उठना पड़ेगा। आत्मा को पाना हो तो वासनाओं पर वश चाहिए; और परमात्मा को पाना हो तो आत्मा पर भी वश चाहिए। वह लेकिन दूसरा चरण है। वह इसके विपरीत नहीं है। वह इसी का आगे का कदम है। जिसके पास है, वही तो समर्पित कर सकेगा।
जीसस का एक बहुत अदभुत वचन है, वह मैं आपको याद दिलाऊं, वह कृष्ण की बात के बहुत करीब है। जीसस ने कहा है, जो अपने को बचाएगा, वह अपने को खो देगा; और जो अपने को खो देगा, वह अपने को बचा लेगा। लेकिन खोने या बचाने के पहले होना भी तो चाहिए। आप हैं?
गुरजिएफ के पास कोई जाता था और पूछता था कि मैं स्वयं को जानना चाहता हूं, तो वह गुरजिएफ कहता था, आप हो? आर यू? आप भी चौंकेंगे, अगर आप जाएं ऐसे आदमी के पास और वह पूछे, आप हो? तो आप कहेंगे, हूं तो! लेकिन आपका होना सिर्फ एक जोड़ है। आपमें से सारी वासनाएं निकाल ली जाएं, और सारी इच्छाएं और सारे विचार, तो आप एकदम खो जाएंगे शून्य की भांति। आपके पास ऐसा कोई संकल्प नहीं है, जो विचार के पार हो, वासना से अलग हो, इच्छाओं से भिन्न हो। आपके पास आत्मा का कोई भी अनुभव नहीं है। आप सिर्फ एक जोड़ हैं, एक एक्युमुलेशन, एक संग्रह। इस संग्रह को कहां समर्पित करिएगा? कौन समर्पित करेगा? समर्पित करने वाला भी भीतर नहीं है।
इसलिए कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, पहले तू श्रेष्ठ बन। श्रेष्ठ बनने का अर्थ, पहले तू आत्मवान बन, पहले तू मनस्वी हो, पहले तू संकल्प को उपलब्ध हो। फिर पीछे वे कहेंगे कृष्ण अर्जुन से, सब छोड़ दे और शरण में आ जा। लेकिन छोड़ तो वही सकता है सब, जिसके पास संकल्प हो। लेकिन जो जरा-सा कुछ भी नहीं छोड़ सकता, वह सब कैसे छोड़ सकेगा! जो एक पैसा नहीं छोड़ सकता, वह स्वयं को कैसे छोड़ सकेगा! जो एक मकान नहीं छोड़ सकता, वह स्वयं की आत्मा को कैसे छोड़ सकेगा? स्वयं को छोड़ने के पहले स्वयं का परिपूर्ण शक्ति से होना जरूरी है।
इसलिए संकल्प धर्मों की पहली साधना है; समर्पण अंतिम साधना है। कहें कि धर्म के दो ही कदम हैं। पहले कदम का नाम है, संकल्प, विल; और दूसरे कदम का नाम है, समर्पण, सरेंडर। इन दो कदमों में यात्रा पूरी हो जाती है। जो संकल्प पर रुक जाएंगे, उनको आत्मा का पता चलेगा, लेकिन परमात्मा का कोई पता नहीं चलेगा। जो वासना पर ही रुक जाएंगे, उनको वासना का पता चलेगा, आत्मा का कोई पता नहीं चलेगा। लेकिन जो आत्मा को भी समर्पित कर देंगे, उन्हें परमात्मा का पता चलता है। वह अंतिम घटना है, वह अल्टिमेट है। वह चरम, परम अनुभूति है। और उसके लिए कृष्ण अर्जुन को अ, , स से शुरू कर रहे हैं। वे उससे कह रहे हैं, पहले तू संकल्पवान बन। फिर पीछे जब देखेंगे कि उसके भीतर संकल्प पैदा हुआ है, तो वे उससे कहेंगे, अब तू सब छोड़ दे--सर्व धर्मान् परित्यज्य, मामेकं शरणं व्रज--अब तू सब छोड़ और मेरी शरण में आ जा।
लेकिन शरण में कमजोर लोग कभी नहीं आ सकते। यह सुनकर आपको कठिनाई होगी। आमतौर से कमजोर लोग शरण में जाते हैं। कमजोर आदमी कभी शरण में नहीं जा सकता। कमजोर आदमी के पास इतनी शक्ति ही नहीं होती कि दूसरे के चरणों में अपने को पूरा समर्पित कर दे। समर्पण बड़ी से बड़ी शक्ति है--बहुत कठिन, बहुत आरडुअस। आसान बात मत समझ लेना आप समर्पण। आमतौर से लोग समझते हैं कि हम कमजोर हैं, हम तो समर्पण में ही भगवान को पा लेंगे। लेकिन कमजोर समर्पण कर नहीं सकता। कमजोर इतना कमजोर होता है...कमजोर होता ही नहीं; समर्पण करेगा किसका? हां, वह सिर चरणों में रख देता है। स्वयं को रखना बिलकुल और बात है। सिर रखना, बच्चे भी रख सकते हैं। स्वयं को चरणों में रखना और ही बात है।
स्वयं को चरणों में रखने की एक घटना कीर्कगार्ड ने...ईसाइयत में एक कहानी है। कहानी है कि एक व्यक्ति को परमात्मा ने कहा कि तू अपने इकलौते बेटे को आकर और मेरे मंदिर में गरदन काटकर चढ़ा दे। ऐसी उसे आवाज आई कि वह जाए और अपने बेटे को मंदिर में काटकर चढ़ा दे। वह उठा, उसने अपने बेटे को लिया और मंदिर में पहुंच गया। उसने तलवार पर धार रखी। बेटे की गरदन मंदिर में रखी, तलवार उठाई और गरदन काटने को था, तब आवाज आई कि बस, रुक जा! मैं तो सिर्फ यही जानना चाहता था कि तू समर्पण की बातें करता है, लेकिन समर्पण के योग्य शक्ति तुझमें है?
बेटे की गरदन काटने में भी लेकिन उतनी शक्ति नहीं पड़ती, जितनी अपनी गरदन काटने में पड़ती है। समर्पण का मतलब है, अपनी ही गरदन चढ़ा देना, सिर झुकाना नहीं। क्योंकि वह तो क्षण झुकाया और उठा लिया। समर्पण का मतलब है, झुके तो झुके रहे, झुके तो झुक गए। समर्पण का मतलब है, अब यह गरदन न उठेगी। समर्पण का मतलब है, अब हम गए चरणों में; अब वे चरण ही सब कुछ हैं, अब हम नहीं हैं। लेकिन कौन करेगा यह? यह वही कर सकता है, जिसने पहले संकल्प को संगृहीत कर लिया हो, जिसके भीतर एक इंटिग्रेटेड इंडिविजुएशन घटित हो गया हो, जिसके भीतर आत्मा क्रिस्टलाइज्ड हो गई हो। जिसके भीतर आत्मा निर्मित हो गई हो, वह आदमी आत्मा से आखिरी काम भी कर सकता है कि समर्पण कर दे।
इसलिए कृष्ण अर्जुन को पहला पाठ दे रहे हैं। वे कह रहे हैं, श्रेष्ठ पुरुष वह है, जिसका मन वासनाओं पर, इंद्रियों पर वश पा लेता है।


नियतं कुरु कर्म त्वं ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्राऽपि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः।। ८।।
इसलिए शास्त्र-विधि से नियत किए हुए स्वधर्म कर्म को कर। कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।
कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। क्योंकि कर्म न करना, सिर्फ वंचना है, डिसेप्शन है। कर्म तो करना ही पड़ेगा। जो करना ही पड़ेगा, उसे होशपूर्वक करना श्रेष्ठ है। जो करना ही पड़ेगा, उसे जानते हुए करना श्रेष्ठ है। जो करना ही पड़ेगा, उसे स्पष्ट रूप से सामने के द्वार से करना श्रेष्ठ है। जब करना ही पड़ेगा, तो पीछे के द्वार से जाना उचित नहीं। जब करना ही पड़ेगा, तो अनजाने, बेहोशी में, अपने को धोखा देते हुए करना ठीक नहीं। क्योंकि तब करना गलत रास्तों पर ले जा सकता है। जो अनिवार्य है, वह जाग्रत, स्वीकृतिपूर्वक, समग्र चेष्टा से ही किया जाना उचित है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो करना ही है, उसे परिपूर्ण रूप से जानते हुए, होशपूर्वक, स्वधर्म की तरह करना उचित है। और एक दूसरी बात कहते हैं। वे कहते हैं, जो स्वधर्म है, और साथ में एक बात कहते हैं, शास्त्र-सम्मत। जो शास्त्र-सम्मत स्वधर्म है। शास्त्र का अर्थ है--किताब नहीं--शास्त्र का मौलिक, गहरा अर्थ है, आज तक जिन लोगों ने जाना, उनके द्वारा सम्मत; जो जानते हैं, उनके द्वारा सम्मत; जो पहचानते हैं, उनके द्वारा सम्मत।
एक लंबी यात्रा है मनुष्य की चेतना की, उसमें हम सौ-पचास वर्ष के लिए आते हैं और विदा हो जाते हैं। आदमी आता है, विदा हो जाता है, आदमीयत चलती चली जाती है। आदमी के अनुभव हैं करोड़ों वर्ष के, सार है अनुभव का। आदमी ने जाना है, उस जाने को निचोड़कर रखा है। कृष्ण कह रहे हैं कि वह जो अनादि से, सदा से जानने वाले लोगों ने जिस बात को कहा है, उससे सम्मत स्वधर्म।
इसमें दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं। एक तो इस देश में बहुत प्राचीन समय से हमने समाज को चार वर्णों में बांट रखा था। अर्जुन उसमें क्षत्रिय वर्ण से आता है। जन्म से ही हमने समाज को चार हिस्सों में बांट रखा था। कोई हाइरेरकी नहीं थी, कोई ऊंचा-नीचा नहीं था। सिर्फ गुण विभाजन था--वर्टिकल नहीं, हॉरिजांटल। दो तरह के विभाजन होते हैं, एक तो क्षैतिजिक विभाजन होता है कि मैं यहां मंच पर बैठा हूं, मेरे बगल में एक और आदमी बैठा है और मेरे पीछे एक और आदमी बैठा है। हम तीनों एक ही तल पर बैठे हैं, लेकिन फिर भी तीन हैं, विभाजन हॉरिजांटल है। एक विभाजन होता है कि मैं एक सीढ़ी पर खड़ा हूं, दूसरा उससे ऊंची सीढ़ी पर खड़ा है, तीसरा उससे ऊंची सीढ़ी पर खड़ा है। तब भी विभाजन होता है, तब विभाजन वर्टिकल है।
भारत में जो वर्ण का प्राथमिक विभाजन था, हॉरिजांटल था। उसमें शूद्र, ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय एक-दूसरे के ऊपर-नीचे हाइरेरकी में बंटे हुए नहीं थे। समाज में एक ही भूमि पर खड़े हुए चार विभाजन थे। बाद में हॉरिजांटल विभाजन वर्टिकल हो गया, ऊपर-नीचे हो गया। जिस दिन से ऊपर-नीचे हुआ, उस दिन से वर्ण की जो कीमती आधारशिला थी, वह गिर गई और वर्ण का सिद्धांत और वर्ण का मनसशास्त्र शोषण का आधार बन गया।
लेकिन कृष्ण के समय तक यह बात घटित न हुई थी। इसलिए कृष्ण कहते हैं कि जो तेरा स्वधर्म है, जिस वर्ण में तू जन्मा है और जिस वर्ण में तू बड़ा हुआ है और जिस वर्ण की तूने शिक्षा पाई है और जिस वर्ण की तेरी तैयारी है और जिस वर्ण से तेरा हड्डी, खून, मांस, तेरा मन, तेरे संस्कार, तेरी पूरी कंडीशनिंग हुई है, उस वर्ण को छोड़कर भागने से उस वर्ण के काम को करना ही श्रेयस्कर है। क्यों? अनेक कारण हैं। दोत्तीन गहरे कारणों पर खयाल कर लेना जरूरी है।
एक तो प्रत्येक व्यक्ति की अनंत संभावनाएं हैं। लेकिन उन अनंत संभावनाओं में से एक ही संभावना वास्तविक बन सकती है। सभी संभावनाएं वास्तविक नहीं बन सकतीं। एक व्यक्ति जब जन्मता है, तो उसके जीवन की बहुत यात्राएं हो सकती हैं, लेकिन अंततः एक ही यात्रा पर उसे जाना पड़ता है। जीवन की वास्तविकता हमेशा वन डायमेंशनल होती है, एक आयामी होती है; और जीवन की पोटेंशियलिटी मल्टी-डायमेंशनल होती है, जीवन की संभावना अनंत आयामी होती है।
हम एक बच्चे को डाक्टर भी बना सकते हैं, वकील भी बना सकते हैं, इंजीनियर भी बना सकते हैं। हम एक बच्चे को बहुत-बहुत रूपों में ढाल सकते हैं। बच्चे में बहुत लोच है, वह अनंत आयामों में जाने की संभावना रखता है। लेकिन जाएगा एक ही आयाम में। हम उसे अनंत आयामों में ले जा नहीं सकते। और अगर ले जाएंगे, तो हम सिर्फ उसको विक्षिप्त कर देंगे, पागल कर देंगे।
आज विज्ञान इस बात को स्वीकार करता है। वह कहता है, प्रत्येक व्यक्ति के जानने की क्षमता अनंत है। लेकिन जब भी कोई व्यक्ति जानने जाएगा, तो स्पेशलाइजेशन हो जाएगा। अगर एक व्यक्ति जानने निकलेगा, तो वह डाक्टर ही हो पाएगा। अब तो पूरा डाक्टर होना मुश्किल है, क्योंकि डाक्टर की भी बहुत शाखाएं हैं। वह कान का डाक्टर होगा कि आंख का डाक्टर होगा कि हृदय का डाक्टर होगा कि मस्तिष्क का डाक्टर होगा! ये भी शाखाएं हैं।
मैंने तो एक मजाक भी सुनी है कि आज से पचास साल बाद एक औरत एक डाक्टर के दरवाजे पर अंदर प्रवेश हुई है और उसने कहा कि मेरी आंख में बड़ी तकलीफ है। डाक्टर उसे भीतर ले गया और फिर पूछा कि कौन-सी आंख में? बाईं या दाईं? क्योंकि मैं सिर्फ दाईं आंख का डाक्टर हूं। बाईं आंख का डाक्टर पड़ोस में है।
असल में एक आंख भी इतना बड़ा फिनामिनन है, एक छोटी-सी आंख इतनी बड़ी घटना है कि उसे एक आदमी पूरी जिंदगी जानना चाहे, तो भी पूरा नहीं जान सकता है। इसलिए स्पेशलाइजेशन हो जाएगा, इसलिए विशेषज्ञ पैदा होगा ही; उससे बचा नहीं जा सकता है। आज पश्चिम में जिस तरह विशेषज्ञ ज्ञान के पैदा हुए हैं कि एक आदमी गणित को, तो गणित को ही जानता है; फिजिक्स के संबंध में वह उतना ही नासमझ है, जितना नासमझ कोई और आदमी है। और जो आदमी फिजिक्स को जानता है, वह केमिस्ट्री के संबंध में उतना ही अज्ञानी है, जितना गांव का कोई किसान। प्रत्येक व्यक्ति की जानने की एक सीमा है और उस सीमा में उसको यात्रा करनी पड़ती है। और रोज सीमा नैरो होती चली जाएगी, संकरी होती चली जाएगी।
जैसे आज पश्चिम में विज्ञान स्पेशलाइज्ड हुआ, ऐसे ही भारत में हजारों साल पहले हमने चार व्यक्तित्वों को स्पेशलाइज्ड कर दिया था। हमने कहा था, जब कुछ लोग क्षत्रिय ही होना चाहते हैं, तो उचित है कि उन्हें बचपन से ही क्षत्रिय होने का मौका मिले। हमने सोचा कि जब कुछ लोग ब्राह्मण ही हो सकते हैं और क्षत्रिय नहीं हो सकते, तो उचित है कि उन्हें बचपन के पहले क्षण से ही ब्राह्मण की हवा मिले, ब्राह्मण का वातावरण मिले। उनका एक क्षण भी व्यर्थ न जाए।
इसमें एक और गहरी बात आपसे कह दूं, जो कि साधारणतः आपके खयाल में नहीं होगी। और वह यह है कि जब हमने यह बिलकुल तय कर दिया कि जन्म से ही कोई व्यक्ति ब्राह्मण हो जाएगा और कोई व्यक्ति क्षत्रिय हो जाएगा, तब भी हमने यह उपाय रखा था कि कभी अपवाद हो, तो हम व्यक्तियों को दूसरे वर्णों में प्रवेश दे सकते थे। लेकिन वह एक्सेप्शन की बात थी। वह नियम नहीं था, नियम की जरूरत न थी। कभी-कभी ऐसा होता था कि कोई विश्वामित्र वर्ण बदल लेता था। लेकिन वह अपवाद था, वह नियम नहीं था। साधारणतः जो व्यक्ति जिस दिशा में दीक्षित होता था, जिस दिशा में निर्मित होता था, साधारणतः वह उसी दिशा में आनंदित होता था, उसी दिशा में यात्रा करता था।
कृष्ण भी अर्जुन को कह सकते थे कि तू वर्ण बदल ले, लेकिन कृष्ण बहुत भलीभांति अर्जुन को जानते हैं। वह क्षत्रिय होने के अतिरिक्त कुछ और हो नहीं सकता। उसका रोआं-रोआं क्षत्रिय का है, उसकी श्वास-श्वास क्षत्रिय की है। सच तो यह है कि अर्जुन जैसा क्षत्रिय फिर दुबारा हम पैदा नहीं कर पाए। इसके स्वधर्म के बदलने का कोई उपाय नहीं है। इसका व्यक्तित्व वन डायमेंशनल हो गया है। सारी तैयारी उसकी जिस काम के लिए है, उसी को वह छोड़कर भागने की बात कर रहा है।
जब हमने यह तय कर लिया था कि लोग जन्म से ही, चार वर्गों में हमने उन्हें बांट दिया था, तो हमने आत्माओं को भी जन्म लेने के चयन की सुविधा दे दी थी। यह जरा खयाल में ले लेना जरूरी है और इस पर ही वर्णों का जन्मगत आधार टिका था। आज जो लोग भी वर्ण के विरोध में बात करते हैं, उन्हें इस संबंध का जरा भी कोई पता नहीं है। जैसे ही एक व्यक्ति मरता है, उसकी आत्मा नया जीवन खोजती है। नया जीवन, पिछले जन्मों में उसने जो कुछ किया है, सोचा है, पिछले जन्म में वह जो कुछ बना है, पिछले जन्म में उसकी जो-जो निर्मिति हुई है, उसके आधार पर वह नया गर्भ खोजता है। वर्ण की व्यवस्था ने उस गर्भ खोजने में आत्माओं को बड़ी सुविधा बना दी थी।
एक ब्राह्मण मरते ही ब्राह्मण-गर्भ को खोज पाता था। वह सरल था। इतनी कठिन नहीं रह गई थी वह बात; वह बहुत आसान बात हो गई थी। वह उतनी ही आसान बात थी, जैसे हमने दरवाजों पर आंख के स्पेशलिस्ट की तख्ती लगा रखी है, तो बीमार को खोजने में आसानी है। हमने हृदय की जांच करने वाले डाक्टर की तख्ती लगा रखी है, तो बीमार को खोजने में आसानी है। ठीक हमने आत्मा को भी, उसके अपने इंट्रोवर्ट या एक्सट्रोवर्ट होने की जो भी सुविधा और संभावना है, उसके अनुसार गर्भ खोजने के लिए सील लगा रखी थी। इसलिए आमतौर से यह होता था कि ब्राह्मण अनंत-अनंत जन्मों तक ब्राह्मण के गर्भ में प्रवेश कर जाता था। क्षत्रिय अनंत जन्मों तक क्षत्रिय का गर्भ खोज लेता था। इसके परिणाम बहुत कीमती थे।
इसका मतलब यह हुआ कि हम एक जन्म में ही स्पेशलाइजेशन नहीं देते थे, हम अनंत जन्मों की शृंखला में स्पेशलाइजेशन दे देते थे। अगर किसी दिन यह हो सके कि आइंस्टीन फिर एक ऐसे बाप के घर में पैदा हो जाए जो फिजिसिस्ट हो, अगर यह संभव हो सके कि आइंस्टीन फिर एक ऐसी मां को मिल जाए जो गणितज्ञ हो, अगर यह संभव हो सके कि आइंस्टीन फिर नए जन्म के साथ ही, जहां उसका पिछला जन्म समाप्त हुआ था, वहां से उसे जो-जो उसने विकसित किया था, उसको विकास करने का मौका मिल जाए, तो हम दुनिया में बहुत-बहुत विकास करने की संभावनाएं पैदा कर पाएंगे। लेकिन आइंस्टीन को फिर नया गर्भ खोजना पड़ेगा। हो सकता है, वह एक घर में पैदा हो, जो दुकानदार का घर है। और तब उसकी पिछले जन्म की यात्रा और नई यात्रा में बहुत व्याघात पड़ जाएगा।
यह आज हमारी कल्पना में भी आना मुश्किल है कि अनेक जन्मों की शृंखला में भी व्यक्ति को हमने चैनेलाइज करने की कोशिश की थी। इसलिए कृष्ण कहते हैं कि शास्त्र-सम्मत, वह जो अनंत-अनंत दिनों से अनंत-अनंत लोगों के द्वारा जाना हुआ विज्ञान है! तो तेरी आत्मा आज ही कोई क्षत्रिय हो, ऐसा भी नहीं है। क्षत्रिय होना तेरा बहुत जन्मों का स्वधर्म है। उसे लेकर तू पैदा हुआ है। आज तू अचानक उससे मुकरने की बात करेगा, तो तू सिर्फ एक असफलता बन जाएगा, एक विषाद, एक फ्रस्ट्रेशन। तेरी जिंदगी एक भटकाव हो जाएगी। लेकिन तेरी जिंदगी अनुभव की उस चरम सीमा को, उस पीक एक्सपीरिएंस को नहीं पा सकती, जो तू क्षत्रिय होकर ही पा सकता है।
वर्ण के संबंध में जब भी लोग वर्ण के विरोध में या पक्ष में बोलते हैं, तो उन्हें कोई भी अंदाज नहीं है कि वर्ण के पीछे अनंत जन्मों का विज्ञान है। ध्यान इस बात का है कि हम व्यक्ति की आत्मा को दिशा दे सकें, वह अपने योग्य गर्भ खोज सके, अपने स्वधर्म के अनुकूल घर खोज सके। आज धीरे-धीरे कनफ्यूजन पैदा हुआ है। आज धीरे-धीरे सारी व्यवस्था टूट गई, क्योंकि सारा विज्ञान खो गया। और आज हालत यह है कि आत्माओं को निर्णय करना अत्यंत कठिन होता चला जाता है कि वे कहां जन्म लें! और जहां भी जन्म लें, वहां से उनकी पिछली यात्रा का तारतम्य ठीक से जुड़ेगा या नहीं जुड़ेगा, यह बिलकुल सांयोगिक हो गई है बात। इसको हमने वैज्ञानिक विधि बनाई थी।
ऐसे तो नदियां भी बहती हैं, लेकिन जब विज्ञान विकसित होता है, तो हम नहर पैदा कर लेते हैं। नदियां भी बहती हैं, लेकिन नहर सुनियोजित बहती है। वर्ण की व्यवस्था आत्माओं के लिए नहर का काम करती थी। वर्ण की व्यवस्था जिस दिन टूट गई, उस दिन से आत्माएं नदियों की तरह बह रही हैं। अब उनकी यात्रा का कोई सुसम्मत मार्ग नहीं है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, शास्त्र-सम्मत। शास्त्र-सम्मत अर्थात उस दिन तक जानी गई आत्माओं का जो विज्ञान था, उससे सम्मत जो बात है अर्जुन, तू उस स्वधर्म को कर। वही श्रेयस्कर है। और वैसे भी न-करने से, सदा करना श्रेयस्कर है, क्योंकि करने से बचने का कोई उपाय नहीं है।


प्रश्न: भगवान श्री, पिछले श्लोक में आपने कहा, संकल्प की बात की, तो संकल्प में और इंद्रियों के दमन में क्या फर्क है? यह जानना चाहते हैं।


संकल्प में और इंद्रियों के दमन में बुनियादी फर्क है। संकल्प पाजिटिव एक्ट है, विधायक कृत्य है और इंद्रियों का दमन निगेटिव एक्ट है, नकारात्मक कृत्य है। इसे ऐसा समझें, एक आदमी को भूख लगी है। वह भूख को दबा रहा है--नकारात्मक। वह यह नहीं कह रहा है कि मैं खाना नहीं खाऊंगा, भूख अब मत लग। नहीं, वह यह नहीं कह रहा है। मन में तो वह सोच रहा है कि खाना खाना है, भूख लगी है। उसे उभार रहा है और दबा भी रहा है। लेकिन उसका कोई पाजिटिव विल नहीं है कि जो कहे कि नहीं, खाना नहीं खाना है; बात बंद! ऐसा कोई विधायक कृत्य नहीं है। भूख लगी है, वह उसको दबाए जा रहा है, भूख से लड़ रहा है। लेकिन भूख से अन्यथा उसके पास कोई संकल्प का जन्म नहीं हो रहा है।
इसे ऐसा समझें, एक आदमी, अपने भीतर कोई भी कामना उठी है, समझें कि कामवासना उठी है; जिसके प्रति उठी है, उसके साथ काम का संबंध संभव नहीं है। सामाजिक होगी परिस्थिति, और कोई परिस्थिति होगी, संभव नहीं है। वासना को उकसा रहा है और दबा भी रहा है। वासना को उकसा रहा है, अगर संभव हो, तो वासना को पूरा करना चाहेगा। लेकिन संभव नहीं है। असुविधापूर्ण है, खतरनाक है, सुरक्षा नहीं है, मर्यादा के बाहर है, समाज के नियम के विपरीत है, प्रतिष्ठा को धक्का लगेगा, अहंकार के पक्ष में नहीं पड़ता है; पत्नी क्या कहेगी? पिता क्या कहेगा? भाई क्या कहेगा? लोग क्या कहेंगे? ये सारी बातें नकारात्मक हैं। इसलिए वह अपनी कामवासना को दबा रहा है। हालांकि साथ में ही वह कामवासना से बंधे हुए चित्रों को भी उभारता चला जा रहा है। रस भी ले रहा है, दबा भी रहा है। इससे विल पैदा नहीं होगी, इससे विल थोड़ी-बहुत होगी, तो वह भी नष्ट हो जाएगी।
नहीं, वह आदमी न इसकी फिक्र कर रहा है कि कौन क्या कहेगा, न वह फिक्र कर रहा है कि पत्नी क्या कहेगी, पति क्या कहेगा, भाई क्या कहेगा, समाज क्या कहेगा, यह कोई सवाल नहीं है। वह आदमी यह कह रहा है कि मेरे भीतर ऐसी कोई वासना उठ आए, जिसमें मेरा वश न हो, तो यह गलत है। कोई और डर नहीं है। कोई और कारण नहीं है। सिर्फ मैं अपने भीतर वासनाओं के पीछे नहीं चलना चाहता हूं। मैं मालिक होना चाहता हूं। इसलिए वह कहता है, चुप! तब फिर वह कल्पनाएं नहीं करता, इमेजिनेशन नहीं करता, सेक्सुअल इमेज नहीं पैदा करता, प्रतिमाएं नहीं बनाता, सपने नहीं देखता। वह कहता है, बस। और यह जो बस है, यह किसी चीज को दबाने में कम लगता है, किसी चीज को जगाने में ज्यादा लगता है। अब वह अपने को जगा रहा है। अब वह कह रहा है कि इतनी ताकत मुझमें होनी चाहिए कि मैं जब कहूं, बस! तो बात समाप्त हो जाए। तब उसके भीतर संकल्प पैदा होगा।
संकल्प एक क्रिएटिव एक्ट है। संकल्प अपने भीतर किसी नई शक्ति को जगाना है। और दमन अपने भीतर पुरानी वासनाओं की शक्तियों को ही दबाना है। दबाने में पुरानी शक्तियां ही नजर में होंगी, उठाने में नई शक्ति का आविर्भाव होगा। अब इस नई शक्ति के आविर्भाव के लिए, इसीलिए सीधा वासनाओं से प्रयोग करना शुभ नहीं होता। ज्यादा शुभ होता है और तरह की चीजों से करना। जैसे कि आप, सर्दी चल रही है और आप सर्दी में बैठे हैं। और आप अपने भीतर उस शक्ति को जगा रहे हैं, जो इस सर्दी को झेलेगी, लेकिन भागेगी नहीं। आप कहते हैं, मैं इस सर्दी में घंटेभर बैठूंगा, भागूंगा नहीं। अब इसमें कोई समाज का डर नहीं है, कोई सामाजिक नियम-नैतिकता नहीं है, कोई बात नहीं है। आप कहते हैं, मैं भागूंगा नहीं। एक घंटा मैं सर्दी को झेलने की तैयारी रखकर बैठा हूं और देखूंगा कि मेरे भीतर कोई शक्ति जगती है जो सर्दी को घंटेभर झेल पाए! आप कुछ दबा नहीं रहे हैं, आप कुछ जगा रहे हैं।
तिब्बत में तो एक पूरा प्रयोग ही है, जिसको वे हीट योग कहते हैं, जिसको संकल्प से गर्मी पैदा करना कहते हैं। और ल्हासा युनिवर्सिटी में प्रत्येक विद्यार्थी को परीक्षा के साथ वह प्रयोग में से भी गुजरना पड़ता था। वह परीक्षा भी बड़ी अजीब थी। सर्द बर्फ से भरी रात में विद्यार्थियों को नग्न खड़ा रहना पड़ेगा और उनके शरीर से पसीना चूना चाहिए, तब वे परीक्षा उत्तीर्ण हो सकेंगे। न केवल पसीना, क्योंकि पसीना तो सबसे चू जाएगा। वह तो प्रयोग है कि अगर संकल्पपूर्वक आप कहें कि सर्दी नहीं है और गर्मी है, तो शरीर पसीना छोड़ता है।
हिप्नोसिस में किसी को भी छूट जाता है। अगर किसी को बेहोश कर दें, सम्मोहित कर दें और कहें कि तेज धूप पड़ रही है और गर्मी सख्त है, तो उस आदमी के माथे से, शरीर से पसीना बहना शुरू हो जाएगा। गर्मी पड़ रही हो, आप पसीने से भरे हों। और हिप्नोटाइज्ड आदमी बेहोश पड़ा है। हिप्नोटिस्ट उससे कहे कि सर्दी बहुत जोर की है, बर्फ पड़ रही है बाहर, और ठंडी हवाएं आ रही हैं, हाथ-पैर कंप रहे हैं, उस गर्मी की हालत में उसके हाथ-पैर कंपने शुरू हो जाएंगे। अगर बेहोशी की, सम्मोहन की हालत में आपके हाथ में एक साधारण रुपया रख दिया जाए और आपसे कहा जाए कि हाथ पर अंगारा रखा है, तो आप इस तरह चीखकर उसको फेंकेंगे, जैसे हाथ पर अंगारा हो। यहां तक तो ठीक है। लेकिन हाथ पर फफोला भी आ जाएगा! क्योंकि जब संकल्प ने स्वीकार कर लिया कि अंगारा है, तो शरीर को स्वीकार करना ही पड़ता है। अगर हाथ ने मान लिया कि अंगारा है, तो शरीर को जलना ही पड़ेगा, फफोला उठ ही आएगा।
उस युनिवर्सिटी में, ल्हासा युनिवर्सिटी में, तिब्बती लामा जब अपनी पूरी शिक्षा करके बाहर निकलेगा, तो उसे यह भी प्रमाण देना पड़ेगा। यह संकल्प की परीक्षा होगी। पसीना तो सभी को आ जाएगा, लेकिन यह कैसे पता चलेगा कि पहला कौन आया? दूसरा कौन आया? तो सबके पास पानी में डुबाए हुए गीले कपड़े रखे रहेंगे। उन कपड़ों को पहनो और शरीर को इतना गरमा लो कि कपड़े सूख जाएं! तो जो जितने कपड़े रातभर में सुखा देगा, वह प्रथम। जो उससे कम सुखा पाएगा, वह द्वितीय। जो उससे कम सुखा पाएगा, वह तृतीय। और अब यह कोई तिब्बत की ही बात नहीं रह गई है, आज तो पश्चिम की भी बहुत-सी प्रयोगशालाओं में सम्मोहन के द्वारा यह बात सिद्ध हो चुकी है कि मनुष्य के मन का संकल्प जो स्वीकार कर ले, वही घटित होना शुरू हो जाता है।
संकल्प को जगाएं, तब आपको वासनाओं से लड़ना न पड़ेगा। वासनाओं को दबाना ही इसलिए पड़ता है कि संकल्प पास में नहीं है। संकल्प पास में होगा, तो दबाना नहीं पड़ेगा।
बर्ट्रेंड रसेल ने कहीं अपने एक संस्मरण में लिखा है। बर्ट्रेंड रसेल तो काफी जिंदा रहा न! बहुत, एक सदी के करीब जिंदा रहा; तो उसने दुनिया बहुत रंगों में देखी। उसने लिखा है कि अब जब मैं आक्सफोर्ड जाता हूं या कैंब्रिज जाता हूं, तो बड़ा माइक से शोरगुल मचाना पड़ता है कि चुप हो जाओ, चुप हो जाओ। उपकुलपति आ रहे हैं, वाइस चांसलर आ रहे हैं, चुप हो जाओ। फिर भी कोई चुप नहीं होता। और जब शुरू-शुरू में युनिवर्सिटी में गया था, तो उसने लिखा है, जैसे ही भीड़ चुप होने लगती थी विद्यार्थियों की, हम समझते थे कि वाइस चांसलर आ रहे हैं। जैसे ही चुप्पी छाने लगती थी, वैसे ही हम समझते थे कि उपकुलपति आ रहे हैं। लोगों का चुप हो जाना बताता था कि गुरु आ रहा है। अब चिल्लाना पड़ता है कि चुप हो जाओ, क्योंकि गुरु आ रहे हैं। फिर भी कोई चुप नहीं होता। जब चिल्लाना पड़ेगा, तो चुप कौन होगा?
जब संकल्प होता है भीतर, तो वासनाएं चुप हो जाती हैं। जब संकल्प नहीं होता, तो वासनाओं को जबर्दस्ती चुप करना पड़ता है। वह संकल्प के अभाव के कारण मुखर है।
पुरानी परिभाषा आपसे कहूं। अब साधारणतः हम कहते हैं, गुरु के पैर छूने चाहिए। पुरानी परिभाषा और है। वह यह कहती है कि जिसके चरण के पास पहुंचकर छूना ही पड़े, वह आदमी गुरु है। अब हम कहते हैं, पिता को आदर करना चाहिए। पुरानी परिभाषा और है। जिसको आदर दिया ही जाता है, वह पिता है। आज नहीं कल हम माताओं को सिखाएंगे कि बच्चों को प्रेम करना ही चाहिए; सिखाएंगे ही, सिखाना ही पड़ेगा। लेकिन बच्चे को जो प्रेम देती है, वही मां है। करना चाहिए, तो बात ही फिजूल हो गई।
संकल्प जब भीतर होता है, पाजिटिव शक्ति जब भीतर होती है, तो वासनाओं को दबाना नहीं पड़ता। इशारा काफी है। इधर संकल्प खड़ा हुआ, उधर वासना विदा हुई। वासना दबानी पड़ती है, क्योंकि संकल्प भीतर नहीं है। वासनाओं को दबाकर संकल्प पैदा नहीं होगा। संकल्प पैदा होगा, तो वासनाओं से छुटकारा होता है। और उस संकल्प की दिशा में आपको...सिर्फ वासनाओं से मत लड़ते रहें। क्योंकि एक नियम खयाल में ले लें कि आप जिस चीज से लड़ते हैं, उस चीज को आप जरूरत से ज्यादा ध्यान दे देते हैं। और जिसको भी ध्यान मिल जाता है, वह मजबूत हो जाता है।
वासनाओं के लिए ध्यान भोजन है। अगर कोई आदमी सेक्स से लड़ेगा, तो उसका सेक्स बढ़ेगा, कम नहीं होगा। क्योंकि सेक्स पर जितना ध्यान दिया जाएगा, उतना ही सेक्स शक्तिशाली होता चला जाता है। ध्यान भोजन है। आपने ध्यान दिया कि और शक्ति पकड़ेगी। नहीं, सेक्स की फिक्र छोड़ें। इसलिए हम, हमने जो शब्द खोजा है, वह है ब्रह्मचर्य। ब्रह्मचर्य का मतलब आपने सोचा है कभी! उसका मतलब होता है, ब्रह्म में चर्या, ब्रह्म में डूबना। हम कहते हैं, कामवासना की फिक्र छोड़ो, तुम तो ब्रह्म में डूबने की फिक्र करो। इधर तुम ब्रह्म में डूबोगे, उधर कामवासना विदा होने लगेगी। कामवासना से लड़े कि मुश्किल में पड़े। फिर वह विदा नहीं होगी, फिर वह पीछा करेगी।
और एक ला आफ रिवर्स इफेक्ट का एक नियम है। जिसको पीछे पश्चिम में फ्रांस के एक विचारक इमाइल कुए ने खोजा। उसका कहना है, विपरीत परिणाम का नियम। आप जो भी करना चाहते हैं, अगर बहुत ज्यादा कोशिश की, तो उससे विपरीत परिणाम आ जाता है।
जैसे एक नया आदमी साइकिल चलाना सीखता है। साठ फीट चौड़े रास्ते पर साइकिल चलाता है। और किनारे पर मील का पत्थर लगा है जरा-सी जगह में। नया सिक्खड़ है; एकदम से पत्थर उसको पहले दिखाई पड़ता है। इतना बड़ा रास्ता दिखाई नहीं पड़ता, साठ फीट चौड़ा। उसे पत्थर दिखाई पड़ता है कि मरे, अब कहीं यह पत्थर से टकराहट न हो जाए। और जैसे ही उसकी पत्थर से टकराहट न हो जाए, यह निगेटिव खयाल उसको पकड़ा, रास्ता मिटा और पत्थर ही उसको अब दिखाई पड़ेगा। अब उसकी साइकिल चली पत्थर की तरफ। अब वह घबड़ाया। जितनी साइकिल चली पत्थर की तरफ, उतना वह घबड़ाया; और उतना उसने ध्यान दिया पत्थर को कि बचना है इस पत्थर से।
लेकिन जिससे बचना है, उस पर ध्यान देना पड़ेगा। और जिस पर ध्यान देना पड़ेगा, उससे बचना मुश्किल है। वह जाकर टकराएगा। अंधा आदमी भी साइकिल चलाए, तो सौ में एक मौका है पत्थर से टकराने का। क्योंकि रास्ता साठ फीट चौड़ा है। लेकिन यह आंख वाला पत्थर पर पहुंच जाता है एकदम। क्या, मामला क्या है? यह पत्थर पर हिप्नोटाइज्ड होकर जाता है। इसको पत्थर से बचना है, बस यही इसकी मुश्किल हो जाती है। इसी में उलझ जाता है। और जो चाहता है कि न हो, चाहने के कारण, वही हो जाता है।
आपने अगर तय किया कि क्रोध न करेंगे, तो आपसे क्रोध जल्दी होने लगेगा। नहीं, आप क्रोध की फिक्र छोड़ें, आप क्षमा करने की फिक्र करें। आप पाजिटिवली क्षमा की तरफ देखें, क्रोध की फिक्र छोड़ें। आप क्षमा करेंगे, इसकी फिक्र करें। आप क्रोध नहीं करेंगे, ऐसी नकारात्मक फिक्र मत करें। आप कामवासना से बचेंगे, ऐसी नकारात्मक दृष्टि मत लें। आप ब्रह्मचर्य में प्रवेश करेंगे, ऐसी विधायक दृष्टि लें। नहीं तो आप ला आफ रिवर्स इफेक्ट में फंस जाएंगे। अधिक लोग फंसे हुए हैं। इसलिए जो वे चाहते हैं कि न हो, रोज-रोज वही होता है। और जब वही होता है, तो संकल्प और कमजोर होता है कि इतना तो चाहा कि न हो, फिर भी वही हुआ। अब अपने से कुछ भी न हो सकेगा। संकल्प और कमजोर होता चला जाता है। संकल्प बढ़ता है विधायक मार्ग से। वासनाओं का दबाना नकारात्मक है। यह अंतर है।


यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्म बन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।। ९।।
और हे अर्जुन, बंधन के भय से भी कर्मों का त्याग करना योग्य नहीं है। क्योंकि यज्ञ-कर्म के सिवाय अन्य कर्म में लगा हुआ ही यह मनुष्य कर्मों द्वारा बंधता है। इसलिए हे अर्जुन, आसक्ति से रहित हुआ उस परमेश्वर के निमित्त कर्म का भली प्रकार आचरण कर।


एक और भी अदभुत बात कृष्ण कहते हैं। वे कहते हैं, कर्मों के बंधन से बचने के ही निमित्त जो आदमी कर्म से भागता है, वह उचित नहीं करता है। वह जो मैं कह रहा था वही बात, ला आफ रिवर्स इफेक्ट। जो आदमी कर्मों के बंधन से बचने के लिए ही कर्मों को छोड़कर भागता है, वह उलटे परिणाम को उपलब्ध होगा। वह और बंध जाएगा। और फिर कर्मों के बंधन से भागने की जो इच्छा है, वह स्वयं की स्वतंत्रता की घोषणा नहीं, स्वयं की परतंत्रता की ही घोषणा है। कर्म के बंधन से कोई भाग भी न सकेगा। क्योंकि कहीं भी जाए, कुछ भी करे, कर्म करना ही पड़ेगा। तब क्या करे आदमी?
कृष्ण कहते हैं, यज्ञरूपी कर्म। कृष्ण कहते हैं, ऐसा कर्म जो प्रभु को समर्पित है, ऐसा कर्म जो मैं अपने लिए नहीं कर रहा हूं। परमात्मा ने जीवन दिया, जन्म दिया, जगत दिया, उसने ही कर्म दिया। उसके लिए ही कर रहा हूं। ऐसे यज्ञरूपी कर्म को जो करता है, वह बंधन में नहीं पड़ता है।
इसमें दो बातें ध्यान देने योग्य हैं। एक तो सिर्फ बंधन से बचने के लिए जो भागता है, वह भाग नहीं पाएगा। वह नए बंधनों में घिर जाएगा। ध्यान रहे, बंधन से बचने के लिए भागने वाला शक्तिशाली व्यक्ति नहीं है। भागते सिर्फ कमजोर हैं। शक्तिशाली भागते नहीं, कमजोर ही भागता है। और जितना भागता है, उतना और कमजोर हो जाता है। भयभीत भागता है। और जो भयभीत है, वह यहां बंधन में है; जहां भी जाएगा, वहां बंधन में पड़ जाएगा। कमजोर बंधन से बचेगा कैसे!
एक आदमी गृहस्थी में है। वह कहता है, घर बंधन है। बड़े आश्चर्य की बात है। घर कहीं भी नहीं बांधता। दरवाजे खुले हैं। घर कहीं भी लोहे की शृंखला नहीं बना हुआ है! घर कहीं पैर में जंजीर की तरह अटका नहीं है। घर कहीं नहीं बांधता है। लेकिन वह आदमी कहता है, घर बांधता है। तो मैं घर छोड़ दूं। अब समझने जैसा जरूरी है कि उसको घर बांधता है? तब तो घर छोड़ने से वह मुक्त हो जाएगा। लेकिन घर किसको बांधेगा? घर तो बिलकुल जड़ है। वह न बांधता है, न स्वतंत्र करता है। जब यह छोड़कर जाने लगेगा, तब इतना भी नहीं कहेगा कि रुको, कहां जा रहे हो? वह इसकी फिक्र ही नहीं करेगा! लेकिन यह कहता है, घर बांधता है।
असल में, यह बात कहीं न कहीं गलत समझ रहा है। यह घर को अपना मानता है, इससे बंधता है। घर नहीं बांधता। मेरा है घर, मेरे से घर बंधता है। लेकिन मेरा तो इसके पास ही रहेगा। यह घर छोड़कर भाग जाएगा, तब मेरा आश्रम। फिर मेरा आश्रम बांध लेगा। वह मेरा इसके साथ चला जाएगा। वह मेरा इसकी कमजोरी है। घर तो छूट जाएगा। घर छोड़ने में क्या कठिनाई है! घर जरा भी नहीं रोकेगा कि रुकिए! बल्कि प्रसन्न ही होगा कि गए तो अच्छा हुआ, उपद्रव टला! लेकिन आप उस तरकीब को तो साथ ही ले जाएंगे, जो गुलामी बनेगी। मेरा आश्रम हो जाएगा, फिर वह बांध लेगा।
पत्नी नहीं बांधती। पत्नी को छोड़कर भाग जाएं। तो क्या कामवासना पत्नी को छोड़कर भागने के साथ पत्नी के पास छूट जाएगी? तो पत्नी नहीं थी आपके पास, तब कामवासना नहीं थी? जब यात्रा पर चले जाते हैं, पत्नी नहीं होती है, तब कामवासना नहीं होती है? और जब पत्नी को छोड़कर चले जाएंगे, तो कामवासना पत्नी के पास छूट जाएगी कि आपके साथ चली जाएगी? वह कामवासना आपके साथ चली जाएगी। और ध्यान रहे, पत्नी तो पुरानी पड़ गई थी, नई स्त्रियां दिखाई पड़ेंगी जो बिलकुल नई होंगी, वह वासना उन नई पर और भी ज्यादा लोलुप होकर बंध जाएगी। भागता हुआ आदमी यह भूल जाता है कि जिससे वह भाग रहा है, वह बांधने वाली चीज नहीं है। जो भाग रहा है, वही बंधने वाला है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, भागना व्यर्थ है, पलायन व्यर्थ है, एस्केप व्यर्थ है। और ध्यान रहे, इस पृथ्वी पर एस्केप के खिलाफ, पलायन के खिलाफ कृष्ण से ज्यादा बड़ी आवाज दूसरी पैदा नहीं हुई। पलायन व्यर्थ है, भागना व्यर्थ है। भागकर जाओगे कहां? अपने से भागोगे कैसे? सबसे भाग जाओगे, खुद तो साथ ही रहोगे। और उस खुद में ही सारी बीमारियां हैं। इसलिए कृष्ण कहते हैं, कर्म से कोई अगर बंधन से छूटने के लिए भागता है, तो नासमझ है। कर्म में कोई बंधन नहीं है। कर्म मेरा है, यही बंधन है। इसलिए अगर कर्म को परमात्मा का है, ऐसा कहने का कोई साहस जुटा ले, तो कर्म यज्ञ हो जाता है और उसका बंधन गिर जाता है। क्यों गिर जाता है? क्योंकि वह फिर मेरा नहीं रह जाता।
सार बात इतनी है कि मेरा ही बंधन है--चाहे वह मेरा मकान हो, चाहे मेरा धन हो, चाहे मेरा बेटा हो, चाहे मेरा धर्म हो, चाहे मेरा कर्म हो, चाहे मेरा संन्यास हो--जो भी मेरा है, वह बंधन बन जाएगा। सिर्फ एक तरह का कर्म बंधन नहीं बनता है, ऐसा कर्म जो मेरा नहीं, परमात्मा का है। ऐसे कर्म का नाम यज्ञ है।
यज्ञ बहुत पारिभाषिक शब्द है। इसका अनुवाद दुनिया की किसी भी भाषा में नहीं हो सकता है। असल में कर्म का एक बिलकुल ही नया रूप, जिसमें मैं कर्ता नहीं रहता, बल्कि परमात्मा कर्ता होता है। कर्म की एक बिलकुल नई अवधारणा, कर्म का एक बिलकुल नया कंसेप्शन कि जिसमें मैं कर्ता नहीं होता, मैं सिर्फ निमित्त होता हूं और कर्ता परमात्मा होता है। जिसमें मैं सिर्फ बांसुरी बन जाता हूं, गीत परमात्मा का, स्वर उसके।
यज्ञरूपी कर्म बंधन नहीं लाता है। इसलिए कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, तू कर्म से मत भाग, बल्कि कर्म को यज्ञ बना ले। यज्ञ बना ले अर्थात उसको तू परमात्मा को समर्पित कर दे। तू कह दे पूरे प्राणों से कि मैं सिर्फ निमित्त हूं और तुझे जो करवाना हो, करवा ले।
नानक की जिंदगी में एक घटना है, जिस घटना से नानक संत बने। उस दिन से नानक का कर्म यज्ञ हो गया। छोटी-मोटी जागीरदारी में वे नौकर हैं। और काम उनका है सिपाहियों को राशन बांटना। तो वे दिनभर सुबह से शाम तक गेहूं, दाल, चना, तौलते रहते हैं और सिपाहियों को देते रहते हैं।
पर एक दिन कुछ गड़बड़ हो गई। ऐसी गड़बड़ बड़ी सौभाग्यपूर्ण है। और जब किसी की जिंदगी में हो जाती है, तो परमात्मा प्रवेश हो जाता है। एक दिन सब अस्तव्यस्त हो गया, सब गणित टूट गया, सब नाप टूट गई। नापने बैठे थे; एक से गिनती शुरू की। बारह तक सब ठीक चला। लेकिन तेरह की जो गिनती आई, तो अचानक उन्हें तेरा से तेरे का खयाल आ गया, उसका, परमात्मा का। बारह तक तो सब ठीक चला, तेरहवें पल्ले को उलटते वक्त उनको आया खयाल, तेरा। वह जो तेरह शब्द है, वह तेरा। फिर चौदह नहीं निकल सका मुंह से। फिर दूसरा भी पलवा भरा और फिर भी कहा, तेरा। फिर तीसरा भी पलवा भरा...। फिर लोग समझे कि पागल हो गए। भीड़ इकट्ठी हो गई। उन्होंने कहा, यह क्या कर रहे हो, गिनती आगे नहीं बढ़ेगी? तो नानक ने कहा, उसके आगे अब और क्या गिनती हो सकती है! मालिक ने बुलाया और कहा, पागल हो गए! नानक ने कहा, अब तक पागल था। अब बस, इस गिनती के आगे कुछ नहीं है। अब सब तेरा।
फिर नौकरी तो छूट ही गई। लेकिन बड़ी नौकरी मिल गई, परमात्मा की नौकरी मिल गई। छोटे-मोटे मालिक की नौकरी छूटी, परम मालिक की नौकरी मिल गई। और जब भी कोई नानक से पूछता कि तुम्हारी जिंदगी में यह कहां से आई रोशनी? तो वे कहते, तेरे, तेरा, उस शब्द से यह रोशनी आई। जब भी कोई पूछता, कहां से आया यह नृत्य? कहां से आया यह संगीत? कहां से यह उठा नाद? तो वे कहते, बस एक दिन स्मरण आ गया कि तू ही है, तेरा ही है, मेरा नहीं है।
तो जो कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से, वह यही कह रहे हैं कि एक दफा हिम्मत करके, संकल्प करके अगर तू जान पाए कि तेरा नहीं है कृत्य, तो फिर कोई बंधन नहीं। क्यों बंधन नहीं? क्योंकि बंधने के लिए भी मैं का भाव चाहिए। बंधेगा कौन? मैं तो चाहिए ही, अगर बंधना है।
अब यह बड़े मजे की बात है कि मैं अगर नहीं हूं, तो बंधेगा कौन? बंधूंगा कैसे? मैं चाहिए बंधने के लिए और मेरा चाहिए बांधने के लिए। ये दो सूत्र खयाल में ले लें। मैं चाहिए बंधने के लिए और मेरा चाहिए बांधने के लिए। मैं बनेगा कैदी और मेरा बनेगा जंजीर। लेकिन जिस दिन कोई व्यक्ति कह पाता है, मैं नहीं, तू ही; मेरा नहीं, तेरा; उस दिन न तो बंधन बचता है और न बंधने वाला बचता है। ऐसे क्षण में व्यक्ति का जीवन यज्ञ हो जाता है। यज्ञ मुक्ति है। यज्ञ के भाव से किया गया कर्म स्वतंत्रता है।


सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।। १०।।
प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजा को रचकर कहा कि इस यज्ञ द्वारा तुम वृद्धि को प्राप्त होओ
और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित कामनाओं को
देने वाला होवे।


यज्ञपूर्वक कर्म, इसे कहने के ठीक पीछे कृष्ण कहते हैं, सृष्टि के प्रथम क्षण में स्रष्टा ने भी ऐसे ही यज्ञरूपी कर्म का विस्तार किया है।
इसे भी थोड़ा समझ लेना उपयोगी है।
हम निरंतर परमात्मा को स्रष्टा कहते हैं। हम निरंतर परमात्मा को बनाने वाला, क्रिएटर कहते हैं। लेकिन बनाना, सृजन, निर्माण--किसी भी चीज का--दो ढंग से हो सकता है। अगर परमात्मा भी मैं के भाव से सृजन करे, तो वह यज्ञ नहीं रह जाएगा। परमात्मा के लिए यह सृजन बिलकुल ईगोलेस, मैं-भाव से रिक्त और शून्य है। कहना चाहिए, यह सारी सृष्टि परमात्मा के लिए सहज आविर्भाव है, स्पांटेनियस फ्लावरिंग है। मैं सृजन करूं, मैं बनाऊं, ऐसा कहीं कोई भाव नहीं है। हो भी नहीं सकता। क्योंकि मैं सिर्फ वहीं पैदा होता है, जहां तू की संभावना हो। परमात्मा के लिए कोई भी तू नहीं है, अकेला है। इसलिए मैं का कोई भाव परमात्मा में नहीं हो सकता। और जिस दिन हम में भी मैं का कोई भाव नहीं रह जाता, हम परमात्मा के हिस्से हो जाते हैं।
यह सारी सृष्टि परमात्मा के भीतर किसी वासना के कारण नहीं है, फल नहीं है। यह सारी सृष्टि, कहना चाहिए, परमात्मा का स्वभाव है। ऐसे ही जैसे बीज टूटकर अंकुर बन जाता है और जैसे अंकुर टूटकर वृक्ष बन जाता है और जैसे वृक्ष फूलों से भर जाता है, ठीक ऐसे ही परमात्मा के लिए सृष्टि अलग चीज नहीं है। परमात्मा का स्वभाव है।
इसलिए मैं निरंतर एक बात कहना पसंद करता हूं कि हम परमात्मा को क्रिएटर कहकर थोड़ी-सी गलती करते हैं, स्रष्टा कहकर थोड़ी-सी गलती करते हैं। क्योंकि जब हम परमात्मा को स्रष्टा कहते हैं, तो हम सृष्टि और स्रष्टा को अलग तोड़ देते हैं। ऐसा नहीं है। ज्यादा उचित होगा कि हम परमात्मा को स्रष्टा न कहकर, सृजन की प्रक्रिया कहें। ज्यादा उचित होगा कि हम क्रिएटर न कहकर, क्रिएटिविटी कहें। ज्यादा उचित होगा कि हम सृष्टि और स्रष्टा को दो में न तोड़ें, बल्कि एक में ही रखें। वही है।
प्रथम दिन--कहने के लिए प्रथम दिन, बात करने के लिए प्रथम दिन, अन्यथा सृष्टि के लिए कोई प्रथम दिन नहीं है और कोई अंतिम दिन नहीं है--कृष्ण कह रहे हैं, प्रथम दिन जगत का स्रष्टा जगत को जो जीवन, गति और सृजन देता, वह भी यज्ञ है। और जिस दिन कोई दूसरा व्यक्ति भी उसी तरह यज्ञरूपी कर्म में संयुक्त हो जाता है, वह भी स्रष्टा का हिस्सा हो जाता है, वह भी उसका अंग हो जाता है।
मीरा नाचती है। कोई अगर मीरा को पूछे, तू नाचती है? तो मीरा कहेगी, नहीं, वही नचाता है, वही नाचता है। अगर कोई कबीर को कहे कि तुम कपड़े बुनते हो, किसके लिए? तो कबीर कहते हैं, वही बुनता है, उसी के लिए बुनता है। इसलिए कबीर जब कपड़ा बुनते और गांव की तरफ कपड़े बेचने जाते, तो राह पर जो भी मिलता उससे कहते कि राम! देखो कितना अच्छा, तुम्हारे लिए बनाया है। कहते, राम! बाजार में बैठते, तो ग्राहकों को कहते कि राम, कहां चले जा रहे हो? कितनी मेहनत की है! ग्राहक भी मुश्किल में पड़ते। उनकी कल्पना में न होता यह कि उन्हें कोई राम पुकारेगा।
और जब कबीर के पास हजारों, सैकड़ों भक्त आने लगे, तो उन्होंने कहा, बंद करिए आप कपड़ा बुनना। आपको कपड़ा बुनने की क्या जरूरत है? तो कबीर ने कहा, जब परमात्मा को अभी बुनने की जरूरत है, तो मैं बुनने से कैसे बचूं! अभी परमात्मा ही बुने जा रहा है जीवन को और जगत को। तो मैंने तो अपने को उसी के हाथ में छोड़ दिया है। अब उसी की अंगुलियां मेरी अंगुलियों से बुनती हैं। उसी की आंखें मेरी आंखों से देखती हैं। अब वह चाहेगा, तो बंद हो जाएगा बुनना। और वह चाहेगा, तो जारी रहेगा। अब उसकी मरजी।
तो कबीर कपड़ा बुनना बंद नहीं करते, कपड़ा बुने चले जाते हैं। मेरे देखे कबीर ज्यादा गहरे साधु हैं, कपड़ा बुनना जारी रखते हैं। जो चलता था, चलता है। फर्क पड़ गया लेकिन। यज्ञ हो गया अब कर्म। अब वे कहते हैं, वही बुनता है, उसी के लिए बुनता है। मैं हूं ही नहीं। इसलिए ठीक है, जो उसकी मर्जी।
जीसस को जिस दिन सूली लगाई गई, उस दिन सूली पर जब उनके हाथ में कीले ठोंके गए, तो एक क्षण को जीसस भी कंप गए। एक क्षण को जीसस भी डांवाडोल हो गए। एक क्षण को जीसस के मुंह से निकल गया, हे परमात्मा! यह क्या कर रहा है? यह क्या दिखला रहा है? शिकायत हो गई। जीसस को खयाल में भी आ गई। और दूसरे ही वाक्य में उन्होंने कहा, क्षमा कर, माफ कर, भूल हो गई; जो तेरी मर्जी।
मेरे देखे, इन दो वाक्यों के बीच में क्रांति घटित हुई। जिस क्षण जीसस ने कहा, यह क्या कर रहा है? उस समय जीसस का मैं मौजूद है। अभी कर्म यज्ञ नहीं हुआ। दिखाई पड़ गया जीसस को कि भूल हो गई। क्योंकि जब कोई कहता है परमात्मा से कि यह क्या कर रहा है? तो उसका मतलब यह है कि कुछ गलत कर रहा है। उसका मतलब यह है कि जो होना चाहिए था, वह नहीं हो रहा है। उसका मतलब यह है कि मैं तुझसे ज्यादा समझदार था। मुझसे भी पूछ लेता, तो यह करने को न कहता! भूल हो रही है ईश्वर से कुछ। जब जीसस कहते हैं, यह क्या कर रहा है? गहरी शिकायत है। जीसस अभी कर्म में हैं। अभी यज्ञ नहीं हो पाया। लेकिन एक ही क्षण में सारी क्रांति घटित हो गई।
तो मैं तो निरंतर कहता हूं कि सूली पर जिस क्षण जीसस ने कहा कि परमात्मा, यह क्या दिखला रहा है? उस समय तक वे मरियम के बेटे जीसस थे। और एक क्षण बाद--एक क्षण, मोमेंट--जैसे ही उन्होंने कहा, जो तेरी मर्जी; माफ कर, जो तू चाहे; दाई विल बी डन, तेरी इच्छा पूरी हो, उसी क्षण वे क्राइस्ट हो गए। उसी क्षण क्रांति घटित हो गई। वे मरियम के बेटे नहीं रहे। उसी क्षण वे परमात्मा के हिस्से हो गए। उसी क्षण में यज्ञ हो गया कर्म। अब अपनी कोई मर्जी न रही; अपनी कोई बात न रही। जो उसकी मर्जी!
परमात्मा इस बड़े सृजन को फैलाकर भी निरंतर यही कह रहा है, इस बड़ी धारा को चलाकर निरंतर यही कह रहा है--पहले दिन, बीच के दिन, आखिरी दिन--एक ही बात है कि हम इस छोटे-से मैं को बीच में न ले आएं। उस मैं के कारण ही सारा उपद्रव, सारा विघ्न, सारा उत्पात खड़ा हो जाता है। उस मैं के आस-पास ही कर्म बंधन बन जाता है। जैसे परमात्मा मुक्त...।
कभी आपने खयाल किया कि परमात्मा कहीं दिखाई नहीं पड़ता। सृष्टि दिखाई पड़ती है और स्रष्टा दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन कभी सोचा आपने कि इसका कारण क्या होगा? अनेक लोग कहते हैं, ईश्वर कहां है? असल में जिसका मैं नहीं है, वह दिखाई कहां पड़े! असल में जिसको कभी खयाल ही नहीं आया कि मैंने सृष्टि की है, वह दिखाई कहां पड़े! जो किया है, वह दिखाई पड़ रहा है और करने वाला बिलकुल दिखाई नहीं पड़ रहा है! कर्ता बिलकुल अदृश्य है और कर्म बिलकुल दृश्य है।
ऐसे ही कृष्ण कह रहे हैं कि तू ऐसे कर्म में जूझ जा कि कर्म ही दिखाई पड़े और कर्ता बिलकुल दिखाई न पड़े; कर्ता रहे ही न।
परमात्मा को देखते हैं, कितना एब्सेंट है! जगत बहुत प्रेजेंट है। संसार बहुत मौजूद है और परमात्मा बिलकुल गैर-मौजूद है। असल में जिसके पास अहंकार नहीं, वह मौजूद हो भी कैसे सकता है! उसके मौजूद होने का कोई उपाय भी तो नहीं है, वह गैर-मौजूद ही हो सकता है। उसकी एब्सेंस ही उसकी प्रेजेंस है; उसकी अनुपस्थिति ही उसकी मौजूदगी है।
मैंने सुना है, एक ईसाई फकीर पर देवता प्रसन्न हो गए--कहानी है--और उन्होंने आकर उसके पैर पकड़ लिए, देवताओं ने, उन्होंने कहा कि हम तुझे कोई वरदान देने आए हैं। मांग ले, तुझे जो कुछ मांगना हो। तो उस फकीर ने कहा, बड़ी गलती की, बड़ी देर से आए। जब मेरे पास मांग थी, तब तुम्हारा कोई पता न चला; और अब जब मेरी कोई मांग नहीं रह गई, तब तुम आए हो! अब तो कुछ मांगने को नहीं बचा, क्योंकि मांगने वाला ही नहीं बचा। अब तुम व्यर्थ परेशान हो रहे हो। तुम किससे कह रहे हो? उन्होंने कहा, हम तुम से कह रहे हैं! उस फकीर ने कहा, लेकिन मैं तो अब हूं नहीं; तुम परमात्मा से ही पूछ लेना, अब तो वही है।
लेकिन ऐसे आदमी पर देवता और प्रसन्न हो गए। उन्होंने बिलकुल उसके पैर ही पकड़ लिए और कहा कि कुछ मांगना ही पड़ेगा। उसने कहा, लेकिन अब मांगे कौन? किससे मांगे? और अगर मैं मांगूंगा, तो वह सबूत होगा इस बात का कि परमात्मा पर मेरा भरोसा नहीं। जो उसे देना होगा, देगा; जो उसे नहीं देना होगा, नहीं देगा। जो उचित होगा, वह होगा। जो उचित नहीं होगा, वह नहीं होगा। असल में जो होगा, वह उचित होगा। और जो नहीं होगा, वह अनुचित होगा। इसलिए तुम जाओ। तुम गलत आदमी के पास आ गए हो।
लेकिन उन्होंने कहा कि हम ऐसे आदमी की तलाश में रहते हैं; जो मांगता है, उसके पास तो हम कभी नहीं जाते। जो नहीं मांगता, हम उसके पास आते हैं। जो होता है, उसके पास तो हम कभी नहीं जाते, क्योंकि उसके भीतर जगह ही नहीं होती हमारे आने लायक। जो नहीं हो जाता है, हम उसके भीतर आते हैं। हम आ गए हैं। तुम जरूर मांगो! उस फकीर ने कहा, अब तुम नहीं मानते, तुम्हें कुछ देना हो तो दे जाओ। मेरा मांगने का कोई सवाल नहीं है।
तो उन्होंने कहा, हम तुम्हें एक वरदान देते हैं कि तुम अगर मुरदे को छू दोगे, तो वह जिंदा हो जाएगा। अगर तुम बीमार पर हाथ रख दोगे, तो वह स्वस्थ हो जाएगा। अगर तुम मुरझाए फूल की तरफ देख दोगे, तो वह फिर से खिल जाएगा।
उस फकीर ने कहा, यह तो ठीक, लेकिन अब जब तुम दे ही रहे हो, तो थोड़ी बात और दे दो। और क्या? पहले तो तुमने कुछ भी न मांगा! उसने कहा, पहले मांगने की कोई जरूरत न थी। लेकिन एक चीज जहां मिले, वहां चीजों की शृंखला शुरू हो जाती है। एक चीज और दे जाओ। वह चीज क्या?
उस फकीर ने कहा, यह और जोड़ दो इसमें कि इसका मुझे पता न चले। मुरदा जिंदा हो, हो; लेकिन मुझे पता न चले कि जिंदा हो गया। बीमार ठीक हो, हो; लेकिन मुझे पता न चले। क्योंकि अब वापस मेरे मैं को बुलाने की पीड़ा और नर्क में मैं नहीं पड़ना चाहता हूं। अब तुम मुझे क्षमा कर दो। यह वरदान खतरनाक है। जब मुरदा जिंदा होगा, तो मुझे पता न चल जाए कि मैंने जिंदा किया है। तो तुम ऐसा करो कि यह वरदान मुझे मत दो, मेरी छाया को दे दो। मेरी छाया किसी मुरदे पर पड़ जाएगी, वह जिंदा हो जाएगा, तो मुझे पता ही नहीं चलेगा। छाया पीछे पड़ेगी, मुरदा ठीक हो जाएगा, फूल खिल जाएंगे; मुरझाए हुए पौधे ठीक हो जाएंगे, मैं भागता रहूंगा छाया से। कृपा करके तुम यह वरदान मेरी छाया को दे दो।
परमात्मा कहीं दिखाई नहीं पड़ता, सिर्फ उसकी छाया कभी-कभी कहीं-कहीं दिखाई पड़ती है। सिर्फ उसकी छाया। इतना सारा जगत उसकी छाया से चलता है।
कृष्ण अर्जुन से यही कह रहे हैं, तू छाया भर हो जा, इस मैं को जाने दे। तू जी, श्वास ले, कर्म कर। भाग मत। क्योंकि भागने में भी तेरा अहंकार तो बना ही रहेगा कि मैं बच निकला, मैं भाग निकला। मैं हूं। मैंने अपने को बंधन से बचा लिया, कर्म से बचा लिया। तेरा मैं तो जाएगा नहीं; बंधन मौजूद होगा। तू तो इतना ही भर कर कि मैं को छोड़ दे और यज्ञरूपी कर्म में प्रवृत्त हो जा। जैसे पूरा परमात्मा जगत को यज्ञरूपी कर्म में निर्मित कर रहा है, ऐसे ही तू भी उसका एक हिस्सा हो जा, तो तू मुक्त हो जाता है।


देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।। ११।।
तथा तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवता लोग तुम लोगों की उन्नति करें। इस प्रकार आपस में कर्तव्य समझकर उन्नति करते हुए परम कल्याण को प्राप्त होओगे।

अंतिम श्लोक। कृष्ण कह रहे हैं, इस भांति यज्ञरूपी कर्म करते हुए तुम देवताओं के सहयोगी बनो और वे देवता तुम्हारे सहयोगी बनें। इस भांति तुम कर्तव्य को उपलब्ध हो सकते हो।
यह देवता शब्द को थोड़ा समझना जरूरी है। इस शब्द से बड़ी भ्रांति हुई है। देवता शब्द बहुत पारिभाषिक शब्द है। देवता शब्द का अर्थ है...इस जगत में जो भी लोग हैं, जो भी आत्माएं हैं, उनके मरते ही साधारण व्यक्ति का जन्म तत्काल हो जाता है। उसके लिए गर्भ तत्काल उपलब्ध होता है। लेकिन बहुत असाधारण शुभ आत्मा के लिए तत्काल गर्भ उपलब्ध नहीं होता। उसे प्रतीक्षा करनी पड़ती है। उसके योग्य गर्भ के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। बहुत बुरी आत्मा, बहुत ही पापी आत्मा के लिए भी गर्भ तत्काल उपलब्ध नहीं होता। उसे भी बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ती है। साधारण आत्मा के लिए तत्काल गर्भ उपलब्ध हो जाता है। इसलिए साधारण आदमी इधर मरा और उधर जन्मा। इस जन्म और मृत्यु और मृत्यु और नए जन्म के बीच में बड़ा फासला नहीं होता। कभी क्षणों का भी फासला होता है। कभी क्षणों का भी नहीं होता। चौबीस घंटे गर्भ उपलब्ध हैं; तत्काल आत्मा गर्भ में प्रवेश कर जाती है।
लेकिन एक श्रेष्ठ आत्मा नए गर्भ में प्रवेश करने के लिए प्रतीक्षा में रहती है। इस तरह की श्रेष्ठ आत्माओं का नाम देवता है। निकृष्ट आत्माएं भी प्रतीक्षा में होती हैं। इस तरह की आत्माओं का नाम प्रेतात्माएं हैं। वे जो प्रेत हैं, ऐसी आत्माएं जो बुरा करते-करते मरी हैं; लेकिन इतना बुरा करके मरी हैं। अब जैसे कोई हिटलर, कोई एक करोड़ आदमियों की हत्या जिस आदमी के ऊपर है, इसके लिए कोई साधारण मां गर्भ नहीं बन सकती, और न कोई साधारण पिता गर्भ बन सकता है। ऐसे आदमी को तो गर्भ के लिए बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। लेकिन इसकी आत्मा इस बीच क्या करेगी? इसकी आत्मा इस बीच खाली नहीं बैठी रह सकती। भला आदमी तो कभी खाली भी बैठ जाए, बुरा आदमी बिलकुल खाली नहीं बैठ सकता। कुछ न कुछ करने की कोशिश जारी रहेगी।
तो जब भी आप कोई बुरा कर्म करते हैं, तब तत्काल ऐसी आत्माओं को आपके द्वारा सहारा मिलता है, जो बुरा करना चाहती हैं। आप वीहिकल बन जाते हो; आप साधन बन जाते हो। जब भी आप कोई बुरा कर्म करते हो, तो ऐसी कोई आत्मा अति प्रसन्न होती है और आपको सहयोग देती है, जिसे बुरा करना है, लेकिन उसके पास शरीर नहीं है। इसलिए कई बार आपको लगा होगा कि बुरा काम आपने कोई किया और पीछे आपको लगा होगा, बड़ी हैरानी की बात है, इतनी ताकत मुझमें कहां से आ गई कि मैं यह बुरा काम कर पाया! यह अनेक लोगों का अनुभव है।
आप क्रोध में इतना बड़ा पत्थर उठा सकते हो, जितना आप शांति में नहीं उठा सकते, तब आपको कल्पना भी नहीं हो सकती कि कोई बुरी आत्मा भी आपके लिए सहयोग देती है। जब एक आदमी किसी की हत्या करने जाता है, तो उसकी साधारण स्थिति नहीं रह जाती, असाधारण पजेस्ड हो जाता है। और अनेक हत्यारे अदालतों में यह कहते हैं कि हम मान नहीं सकते कि हमने हत्या की है, क्योंकि हमें तो खयाल ही नहीं आता कि हम कैसे हत्या कर सकते हैं! असल में आपमें हत्या की वृत्ति उठे, तो हत्या के लिए उत्सुक कोई आत्मा आपके ऊपर सवार हो सकती है, आपका सहयोग कर सकती है।
ठीक इससे उलटा, अर्जुन से कृष्ण कह रहे हैं कि अगर तू एक शुभ कर्म में कर्ता को छोड़कर संलग्न होता है, तो अनेक देवताओं का सहारा तुझे मिलता है। जब आप कोई अच्छा कर्म करते हैं, तब भी आप अकेले नहीं होते। तब भी वे अनेक आत्माएं, जो अच्छा करने के लिए आतुर, अभीप्सित होती हैं, तत्काल आपके आस-पास इकट्ठी और सक्रिय हो जाती हैं। तत्काल आपको उनका सहयोग मिलना शुरू हो जाता है। तत्काल आपके लिए अनंत मार्गों से शक्ति मिलनी शुरू हो जाती है, जो आपकी नहीं है।
इसलिए अच्छा आदमी भी अकेला नहीं है इस पृथ्वी पर और बुरा आदमी भी अकेला नहीं है इस पृथ्वी पर, सिर्फ बीच के आदमी अकेले होते हैं। सिर्फ बीच के आदमी अकेले होते हैं, जो न इतने अच्छे होते हैं कि अच्छों से सहयोग पा सकें, न इतने बुरे होते हैं कि बुरों से सहयोग पा सकें। सिर्फ साधारण, बीच के, मीडियाकर, मिडिल क्लास--पैसे के हिसाब से नहीं कह रहा--आत्मा के हिसाब से जो मध्यवर्गीय हैं, उनको, वे भर अकेले होते हैं, वे लोनली होते हैं। उनको कोई सहारा-वहारा ज्यादा नहीं मिलता। और कभी-कभी हो सकता है कि या तो वे बुराई में नीचे उतरें, तब उन्हें सहारा मिले; या भलाई में ऊपर उठें, तब उन्हें सहारा मिले। लेकिन इस जगत में अच्छे आदमी अकेले नहीं होते, बुरे आदमी अकेले नहीं होते।
जब महावीर जैसा आदमी पृथ्वी पर होता है या बुद्ध जैसा आदमी पृथ्वी पर होता है, तो चारों ओर से अच्छी आत्माएं इकट्ठी सक्रिय हो जाती हैं। इसलिए जो आपने कहानियां सुनी हैं, वे सिर्फ कहानियां नहीं हैं। यह बात सिर्फ कहानी नहीं है कि महावीर के आगे और पीछे देवता चलते हैं। यह बात कहानी नहीं है कि महावीर की सभा में देवता उपस्थित हैं। यह बात कहानी नहीं है कि जब बुद्ध गांव में प्रवेश करते हैं, तो देवता भी गांव में प्रवेश करते हैं। यह बात, यह बात माइथोलॉजी नहीं है, पुराण नहीं है।
इसलिए भी कहता हूं, पुराण नहीं है, क्योंकि अब तो वैज्ञानिक आधारों पर भी सिद्ध हो गया है कि शरीरहीन आत्माएं हैं। उनके चित्र भी, हजारों की तादात में चित्र लिए जा सके हैं। अब तो वैज्ञानिक भी अपनी प्रयोगशाला में चकित और हैरान हैं। अब तो उनकी भी हिम्मत टूट गई है यह कहने की कि भूत-प्रेत नहीं हैं। कोई सोच सकता था कि कैलिफोर्निया या इलेनाइस ऐसी युनिवर्सिटीज में भूत-प्रेत का अध्ययन करने के लिए भी कोई डिपार्टमेंट होगा! पश्चिम के विश्वविद्यालय भी कोई डिपार्टमेंट खोलेंगे, जिसमें भूत-प्रेत का अध्ययन चलता होगा! पचास साल पहले पश्चिम पूर्व पर हंसता था कि सुपरस्टीटस हो। हालांकि पूर्व में अभी भी ऐसे नासमझ हैं, जो पचास साल पुरानी पश्चिम की बात अभी दोहराए चले जा रहे हैं।
पचास साल में पश्चिम ने बहुत कुछ समझा है और पीछे लौट आया है। उसके कदम बहुत जगह से वापस लौटे हैं। उसे स्वीकार करना पड़ा है कि मनुष्य के मर जाने के बाद सब समाप्त नहीं हो जाता। स्वीकार कर लेना पड़ा है कि शरीर के बाहर कुछ शेष रह जाता है, जिसके चित्र भी लिए जा सकते हैं। स्वीकार करना पड़ा है कि अशरीरी अस्तित्व संभव है, असंभव नहीं है। और यह छोटे-मोटे लोगों ने नहीं, ओलिवर लाज जैसा नोबल प्राइज विनर गवाही देता है कि प्रेत हैं। सी.डी.ब्राड जैसा वैज्ञानिक चिंतक गवाही देता है कि प्रेत हैं। जे.बी.राइन और मायर्स जैसे जिंदगीभर वैज्ञानिक ढंग से प्रयोग करने वाले लोग कहते हैं कि अब हमारी हिम्मत उतनी नहीं है पूर्व को गलत कहने की, जितनी पचास साल पहले हमारी हिम्मत थी।
कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से कि अगर तू अपने कर्ता को भूलकर परमात्मा के दिए कर्म में प्रवृत्त होता है, तो देवताओं का तुझे साथ है, तुझे सहयोग है। और न केवल तू अपना कर्तव्य निभाने में पूर्ण हो पाएगा, बल्कि बहुत से देवता भी, जो अपना कर्तव्य निभाने के लिए आतुर हैं, तेरे माध्यम से वे भी अपने कर्तव्य को निभाने में पूर्ण हो जाएंगे।
अकेला नहीं है अच्छा आदमी। अकेला नहीं है बुरा आदमी। इसलिए बुरा आदमी भी बड़ा शक्तिशाली हो जाता है और अच्छा आदमी भी बड़ा शक्तिशाली हो जाता है। वह शक्ति चारों तरफ अशरीरी आत्माओं से उपलब्ध होनी शुरू होती है।
शेष कल।


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