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मंगलवार, 24 अक्टूबर 2017

एक एक कदम-प्रवचन-04



एक एक कदम (विविध)-ओशो

संगठन और धर्म—प्रवचन-चौथा

सुबह मैंने आपकी बातें सुनीं। उस संबंध में पहली बात तो यह जान लेनी जरूरी है कि धर्म का कोई भी संगठन नहीं होता है; न हो सकता है। और धर्म के कोई भी संगठन बनाने का परिणाम धर्म को नष्ट करना ही होगा। धर्म नितांत वैयक्तिक बात है, एक-एक व्यक्ति के जीवन में घटित होती है; संगठन और भीड़ से उसका कोई भी संबंध नहीं है।
लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि और तरह के संगठन नहीं हो सकते हैं। सामाजिक संगठन हो सकते हैं, शैक्षणिक संगठन हो सकते हैं, नैतिक-सांस्कृतिक संगठन हो सकते हैं, राजनैतिक संगठन हो सकते हैं। सिर्फ धार्मिक संगठन नहीं हो सकता है।

यह बात ध्यान में रख लेनी जरूरी है कि अगर मेरे आस-पास इकट्ठे हुए मित्र कोई संगठन करना चाहते हैं, तो वह संगठन धार्मिक नहीं होगा। और उस संगठन में सम्मिलित हो जाने से कोई मनुष्य धार्मिक नहीं हो जाएगा। जैसे एक आदमी हिंदू होने से धार्मिक हो जाता है, मुसलमान होने से धार्मिक हो जाता है, वैसे जीवन जागृति केंद्र का सदस्य होने से कोई धार्मिक नहीं हो जाता।
धार्मिक होना दूसरी ही बात है। उसके लिए किसी संगठन का सदस्य होने की जरूरत नहीं है। बल्कि सच तो यह है कि जो किसी संगठन का--धार्मिक संगठन का--सदस्य है, वह धार्मिक संगठन की सदस्यता उसके धार्मिक होने में निश्चित ही बाधा बनेगी। जो आदमी हिंदू है वह धार्मिक नहीं हो सकता। जो जैन है वह भी धार्मिक नहीं हो सकता। जो मुसलमान है वह भी धार्मिक नहीं हो सकता। क्योंकि संगठन में होने का अर्थ संप्रदाय में होना है। संप्रदाय और धर्म विरोधी बातें हैं। संप्रदाय तोड़ता है, धर्म जोड़ता है।
इसलिए पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि मेरे आस-पास अगर कोई भी संगठन खड़ा किया जाए तो वह संगठन धार्मिक नहीं है। उसे धार्मिक समझ कर खड़ा करना गलत होगा। इसलिए जिन मित्रों ने कहा कि धार्मिक संगठन नहीं हो सकता, उन्होंने बिलकुल ही ठीक कहा है, कभी भी नहीं हो सकता है। लेकिन उनको शायद भ्रांति है कि और तरह के संगठन नहीं हो सकते।
और तरह के संगठन हो सकते हैं। जीवन जागृति केंद्र भी और तरह का संगठन है, धार्मिक संगठन नहीं। इस समाज में इतनी बीमारियां हैं, इतने रोग हैं, इतना उपद्रव है, इतनी कुरूपता है कि जो मनुष्य भी धार्मिक है, वह मनुष्य चुपचाप इस कुरूपता, इस गंदगी, इस समाज की मूर्खता को सहने को तैयार नहीं हो सकता। जो मनुष्य धार्मिक है वह बरदाश्त करने को तैयार नहीं होगा कि यह कुरूप समाज जिंदा रहे और चलता रहे। जिस मनुष्य के जीवन में भी थोड़ी धर्म की किरण आई है वह इस समाज को आमूल बदल देना चाहेगा।
जीवन जागृति केंद्र धार्मिक संगठन नहीं है, लेकिन धार्मिक लोगों का संगठन है सामाजिक परिवर्तन और क्रांति के लिए। इसकी सदस्यता से कोई धार्मिक नहीं हो जाएगा; लेकिन जो लोग चाहते हैं कि समाज को, जीवन को, नीति को, चलती हुई व्यवस्था को, परंपरा को बदला जाए, वे लोग इस संगठन के सदस्य हो सकते हैं और इस संगठन को मजबूत बना सकते हैं। यह संगठन सामाजिक क्रांति का संगठन होगा, धार्मिक नहीं; सोशल रिफॉर्म के लिए; धार्मिक शांति के लिए नहीं, सामाजिक क्रांति के लिए।
यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि यह सामाजिक क्रांति का आंदोलन है। और जो व्यक्ति भी थोड़ा-सा प्रबुद्ध होगा, शांत होगा, जीवन को देखेगा और समझेगा, यह हिंसा होगी उसकी तरफ से कि वह इस समाज को जैसा यह है वैसा ही चलने दे। कोई धार्मिक मनुष्य इस समाज की मौजूदा स्थिति को बरदाश्त नहीं कर सकता है, सिर्फ अधार्मिक लोग ही बरदाश्त कर सकते हैं। वे, जिनके प्राणों में कोई करुणा नहीं है, वे ही समाज में चलती हुई कुरूपता को देख सकते हैं। वे, जिनके जीवन में प्रेम की कोई किरण नहीं है, वे ही घृणा के इतने अंधकार को सह सकते हैं। वे, जिनके भीतर मनुष्यता मर गई है, वे ही अपने चारों तरफ मनुष्यता के मरे हुए रूप के बीच रहने को राजी हो सकते हैं। या तो धार्मिक आदमी इस समाज को बदलेगा, बदलने की कोशिश करेगा, या अपने को मिटा देगा, लेकिन इसी समाज में रहने की तैयारी उसकी नहीं हो सकती है। तो जीवन जागृति केंद्र एक संगठन होगा--धार्मिक संगठन नहीं, सामाजिक क्रांति, उथल-पुथल के लिए एक संगठन। वह एक आंदोलन होगा।
लेकिन वह आंदोलन इस अर्थों में नहीं, जिस तरह कि मोहम्मद का आंदोलन है कि आदमी मुसलमान हो जाए तो सब हो गया। जो मुसलमान है वह मोक्ष पहुंच जाएगा और जो नहीं है उसके द्वार बंद हो गए। इस तरह का वह संगठन नहीं होगा। उसका मोक्ष से कोई भी संबंध नहीं है। मोक्ष से संबंध संगठन का कभी होता ही नहीं, वह व्यक्ति की निजी बात है।
लेकिन जिन लोगों के जीवन में भी थोड़ी-सी शांति फलित होगी, जिनके जीवन में भी प्रभु का थोड़ा-सा प्रकाश आएगा, क्या वे समाज को ऐसा ही देखते रहेंगे जैसा कि समाज है? यह बरदाश्त के बाहर है। धार्मिक मनुष्य बुनियादी रूप से विद्रोही होगा। और अगर आज तक दुनिया में धार्मिक मनुष्य विद्रोही नहीं हुआ तो उसका एक ही कारण है कि वह मनुष्य धार्मिक ही न रहा होगा। धार्मिक आदमी रिबेलियस होगा ही। उसके जीवन में क्रांति होगी ही।
लेकिन क्रांति तो अकेले नहीं हो सकती, क्रांति के लिए तो संगठन चाहिए; क्योंकि जब हम क्रांति करने चलते हैं तो क्रांति को रोकने वाली जो शक्तियां हैं वे संगठित हैं। उनके खिलाफ एक आदमी का क्या अर्थ है? क्रांति के विरोध में जो प्रतिगामी, जो रिएक्शनरी फोर्सेज हैं वे सब संगठित हैं। उनके खिलाफ एक आदमी का क्या प्रयोजन है? क्या अर्थ है?
जिंदगी में जो लोग गलत हैं वे संगठित खड़े हुए हैं और अच्छा आदमी यह सोच कर कि संगठन की क्या जरूरत है, बुरे आदमियों का साथी और सहयोगी बनता है। यह ध्यान रखना चाहिए, चोर और बदमाश सब संगठित हैं। राजनीतिज्ञ संगठित हैं। जिंदगी को खराब करने वाले सारे लोग संगठित हैं। और अच्छा आदमी सोचता है, संगठन की क्या जरूरत है!
तो फिर इसका एक ही फल होगा कि यह अच्छा आदमी भी--चाहे जानते हुए, चाहे न जानते हुए--बुरे आदमियों का एजेंट सिद्ध होगा। क्योंकि बुरे आदमियों के संगठित रूप को बदलने के लिए अच्छे आदमियों के भी संगठन की अत्यंत अनिवार्य जरूरत है। पर एक बात ध्यान में रखते हुए कि वह संगठन धार्मिक नहीं है, उस संगठन का धर्म से सीधा संबंध नहीं है। धार्मिक लोग उस संगठन में हो सकते हैं, लेकिन उस संगठन की सदस्यता से कोई धार्मिक नहीं होता है। सामाजिक क्रांति की दृष्टि को ध्यान में लेकर एक संगठन अत्यंत जरूरी है।
यह हमेशा से दुर्भाग्य रहा है कि बुरे आदमी सदा से संगठित रहे हैं, अच्छा आदमी हमेशा अकेला खड़ा रहा है। और इसीलिए अच्छा आदमी हार गया, अच्छा आदमी जीत नहीं सका। अच्छा आदमी आगे भी नहीं जीत सकेगा। अच्छे आदमी को भी संगठित होना जरूरी है। बुराई की ताकतें इकट्ठी हैं। उन ताकतों के खिलाफ उतनी ही बड़ी ताकतें खड़ा करना आवश्यक है।
तो मैं धार्मिक संगठन के एकदम विरोध में हूं, लेकिन संगठन के विरोध में नहीं हूं--इस भेद को समझ लेना जरूरी है।
दूसरी बात, यह संगठन क्या चाहेगा? क्या करना चाहता है? क्या इसकी प्रवृत्ति होगी?
समाज की जो जरूरतें हैं उनको ध्यान में लेंगे तो इसकी प्रवृत्ति खयाल में आ सकती है। समाज की पूरी जीवन-व्यवस्था ही रुग्ण है; उसमें आमूल क्रांति की जरूरत है, उसमें बुनियाद से ही पत्थर बदल देने की जरूरत है। जैसे हम आदमी को आज तक ढालते रहे हैं, वह ढालने का ढांचा ही गलत सिद्ध हुआ है। उस ढांचे से अनिवार्यरूपेण बीमारियां पैदा होती हैं। फिर हम एक-एक आदमी को जिम्मेवार ठहराते हैं कि तुम जिम्मेवार हो, जब कि वह आदमी विक्टिम होता है, शिकार होता है, जिम्मेवार नहीं होता। और उस पर हम जिम्मेवारी थोपते रहे हैं पिछले पांच हजार वर्षों से। यह बिलकुल ही आदमी के साथ अन्याय हुआ है।
आदमी गरीब होगा, चोर हो जाना बहुत संभव है। आदमी दीन-हीन होगा, उसका पापी हो जाना बहुत संभव है। जब तक दुनिया में दरिद्रता है, दीन-हीनता है, तब तक हम मनुष्य को सच्चे अर्थों में नैतिक बनाने में समर्थ नहीं हो सकते। इतनी दरिद्रता होगी कि प्राण ही दरिद्रता में डूबे हों तो नीति का स्मरण रखना बहुत मुश्किल है। एक तरफ समाज का सारा धन इकट्ठा हो जाए और समाज के अधिक लोग निर्धन हों और फिर हम उन्हें समझाएं कि तुम धन का लोभ मत करना, तुम धन का मोह मत करना, तुम किसी दूसरे के धन को प्रतिस्पर्धा से मत देखना...।
हम कुछ ऐसी बातें सिखा रहे हैं कि एक घर के एक कोने में सुस्वादु भोजन का ढेर लगा है और भूखे लोग घर के चारों तरफ इकट्ठे हुए हैं, उनकी नाकों में उस भोजन की सुगंध जा रही है, उनकी आंखें उस भोजन को देख रही हैं, और वे भूखे हैं, और उनके पूरे प्राण रोटी मांग रहे हैं और हम उन्हें समझा रहे हैं कि देखो, भूल कर भी कभी भोजन का खयाल मत करना, भोजन का विचार मत करना; दूसरे के भोजन की तरफ देखना भी मत; यह बड़ा पाप है।
समाज की पूरी की पूरी व्यवस्था ऐसी है कि उससे अनीति पैदा होती है। अगर समाज के व्यापक पैमाने पर एक नैतिक जीवन विकसित करना हो--धार्मिक मैं नहीं कह रहा हूं--नैतिक जीवन विकसित करना हो, तो हमें समाज की सारी आमूल धारणा को सोचना-विचारना पड़ेगा। हमें सोचना पड़ेगा सब तरफ।
तो जीवन जागृति केंद्र समाज की आर्थिक व्यवस्था पर भी स्पष्ट दृष्टिकोण लेना चाहेगा। और उस दृष्टिकोण को गांव-गांव, कोने-कोने तक पहुंचाना चाहेगा। समाज की शिक्षा दूषित है, समाज की सारी शिक्षा दूषित है; शिक्षा के नाम पर सिर्फ धोखा होता है। न तो मनुष्य का व्यक्तित्व निर्मित होता है, न उसकी आत्मा विकसित होती है, न उसके प्राणों में कुछ ऐसा फलित होता है जिसे हम जीवन का अर्थ, जीवन की कला, कुछ कह सकें। आदमी बिना कुछ जाने हाथ में डिग्रियां लेकर वापस चला आता है। बिना कुछ हुए घर वापस लौट आता है और जिंदगी का सबसे बहुमूल्य समय शिक्षा के नाम पर नष्ट हो जाता है। जिस समय में कुछ हो सकता था वह बिलकुल ही व्यर्थ नष्ट हो जाता है। जीवन जागृति केंद्र को नई शिक्षा के संबंध में एक स्पष्ट दृष्टि विकसित करनी होगी कि नई शिक्षा कैसी हो।
हमारा परिवार बिलकुल सड़-गल गया है, लेकिन हम उसमें इतने दिन से रह रहे हैं कि हमें पता भी नहीं चल रहा है कि उसकी सब चीजें सड़ गई हैं। कोई दंपति सुखी नहीं है। कोई पिता सुखी नहीं है बेटे से। कोई बेटा सुखी नहीं है बाप से। कोई मां अपने बच्चों से सुखी नहीं है। कोई गुरु खुश नहीं है अपने शिष्यों से। कोई शिष्य अपने गुरुओं से खुश नहीं है। सारा का सारा समाज कुछ ऐसा मालूम पड़ता है कि एक-दूसरे को दुख देने के लिए ही निर्मित हुआ है।
परिवार की आमूल धारणा बदलनी जरूरी है। नए तरह का परिवार विकसित होना चाहिए जहां पिता और बेटे, मां और बेटे, पति और पत्नी जीवन में अधिकतम संतोष उपलब्ध कर सकें। और ऐसा समाज निर्मित हो सकता है, ऐसा परिवार निर्मित हो सकता है। सिर्फ हमने उस संबंध में सोचा नहीं है, विचारा नहीं है। उदाहरण के लिए मैंने कहा कि जीवन की सारी व्यवस्था पर जीवन जागृति केंद्र एक आंदोलन फैलाना चाहेगा। मेरी उस सब संबंध में दृष्टि है।
धर्म के संबंध में मेरी दृष्टि है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि जीवन के और पहलुओं पर मैं नहीं सोचता हूं। मेरी तो अपनी समझ यह है कि जिस व्यक्ति के जीवन में धर्म का थोड़ा-सा भी प्रकाश होगा वह उस प्रकाश के सहारे जीवन के सारे पहलुओं को देखने में समर्थ हो जाता है। धर्म का दीया हाथ में हो तो हम जीवन की सारी समस्याओं को देखने में समर्थ हो जाते हैं। जीवन के प्रत्येक पहलू पर मेरी दृष्टि है। वह मैं आपसे कहना चाहता हूं, पूरे समाज से कह देना चाहता हूं। जीवन जागृति केंद्र उस सारी बात को पहुंचाने का ध्यान लेगा।
जीवन का ऐसा कोई पहलू नहीं है जिसमें बदलाहट की जरूरत न आ गई हो। सच तो यह है कि वह सिर्फ ऐतिहासिक जरूरतों से पैदा हो गया है हमारा जीवन, सक्रिय और सचेतन रूप से मनुष्य का समाज निर्मित नहीं हुआ है। अब तक जो समाज निर्मित हुआ है वह बिलकुल अचेतन, ऐतिहासिक प्रक्रिया से निर्मित हो गया है; सचेष्ट रूप से, विचार करके समाज की कोई भी चीज निर्मित नहीं हुई है। जरूरत है कि हम सचेष्ट होकर जीवन के एक-एक पहलू पर पुनर्विचार करके निर्मित करने का विचार करें। और सब कुछ बदला जा सकता है।
अभी इजरायल में उन्होंने पंद्रह वर्षों से एक छोटा-सा प्रयोग किया है। प्रयोग का नाम है किबुत्ज। यह परिवार में एक अत्यंत क्रांतिकारी प्रयोग है। मैं चाहता हूं कि हिंदुस्तान के गांव-गांव में भी वह प्रयोग हो। आने वाले दो सौ वर्षों में जो बच्चे किबुत्ज के प्रयोग से विकसित होंगे वे बिलकुल नए तरह के बच्चे होंगे। किबुत्ज एक व्यवस्था है जहां तीन महीने के बाद बच्चे को गांव के सामूहिक आश्रम में प्रवेश दे दिया जाता है--तीन महीने के बच्चे को। उसे मां-बाप से दूर ही पाला जाता है। मां-बाप मिल सकते हैं--महीने में, पंद्रह दिन में, सप्ताह में, रोज--जब उन्हें सुविधा हो वे जाकर बच्चे को प्यार कर सकते हैं, लेकिन बच्चे का सारा पालन-पोषण सामूहिक कर दिया गया है।
सामूहिक पालन-पोषण के अदभुत परिणाम हुए हैं। सामान्यतया सोचा गया था कि बच्चों का प्रेम इस भांति मां-बाप के प्रति कम हो जाएगा। लेकिन परिणाम यह हुआ है कि किबुत्ज के बच्चे अपने मां-बाप को जितना प्रेम करते हैं, दुनिया का कोई बच्चा कभी नहीं कर सकता। उसका कारण यह है कि उन बच्चों को मां-बाप का प्रेम ही देखने का मौका मिलता है, और तो कुछ भी देखने का मौका नहीं मिलता। मां-बाप जब भी जाते हैं उन बच्चों के पास तो उन्हें हृदय से लगाते हैं, प्रेम करते हैं। जब वे बच्चे घंटे, दो घंटे को घर आते हैं तो मां-बाप प्रेम करते हैं। न मां-बाप को उन पर नाराज होने का मौका है, न क्रोध करने का, न गाली देने का। न उन बच्चों को मौका मिलता है कि बाप मेरी मां के साथ कैसा व्यवहार करता है, मां मेरे बाप के साथ किस तरह के वचन बोलती है--इस सबका उन्हें कुछ भी पता नहीं है।
मां-बाप उन्हें एकदम देवता मालूम होते हैं, क्योंकि जब भी वे आते हैं तब उनको देवता पाते हैं। वे घड़ी, आधा घड़ी को आते हैं। मां-बाप घड़ी, आधा घड़ी को अपने बच्चों से मिलने जाते हैं। बीस वर्ष की उम्र में जब वे वापस लौटेंगे पूरी शिक्षा लेकर तो मां-बाप के संबंध में उनके मन में कोई भी घृणा, कोई भी रोष, कोई भी प्रतिक्रिया, कोई भी रिबेलियन नहीं हो सकता है। उनका जितना प्रेम पाया गया...।
अब तक सोचा जाता था कि मां-बाप से दूर रखने में बच्चों का प्रेम कम हो जाएगा, लेकिन किबुत्ज के प्रयोग ने सिद्ध कर दिया है कि मां-बाप और बच्चों के बीच प्रेम अदभुत रूप से विकसित हुआ। वहां जो बच्चे सामूहिक रहे...।
इसका हमें खयाल ही नहीं है कि छोटे बच्चों को बूढ़ों के साथ पालना एकदम अनैतिक है। छोटे बच्चों की बुद्धि छोटे बच्चों की है, बूढ़ों की बुद्धि बूढ़ों की है। बूढ़ों को जीवन भर का अनुभव है, वे और ढंग से सोचते हैं, बच्चे और ढंग से। और हमारे सभी बच्चों को बूढ़ों के साथ पलना पड़ता है। इसमें कितना अनाचार हो जाता है बच्चों के साथ, इसका हमें हिसाब लगाना बहुत मुश्किल है। न बूढ़े बच्चों को समझ सकते हैं, न बच्चे बूढ़ों को समझ सकते हैं। बूढ़े दुखी होते हैं कि बच्चे हमें परेशान कर रहे हैं। और बच्चों को हम कितना परेशान करते हैं, इसका हमें कोई हिसाब नहीं है।
किबुत्ज ने कहा कि बूढ़ों और बच्चों को साथ-साथ पालना बच्चे को बचपन से ही पागल बनाने की चेष्टा है। क्योंकि बूढ़े का अपना सोचने का ढंग है। उसका ढंग गलत है, यह नहीं; उसका अपना जीवन का अनुभव है; उसका अपने सोचने का ढंग है; उसकी उम्र के देखने का अपना रास्ता है; छोटे बच्चे की जिंदगी से उसका क्या संबंध है?
तो किबुत्ज कहता है कि एक उम्र के लोगों को एक ही उम्र के लोगों के साथ पालना ही मनोवैज्ञानिक है। तो जिस उम्र के बच्चे हैं वे उसी उम्र के बच्चों के साथ पाले जाएं। और इसका परिणाम यह हुआ है कि किबुत्ज से आए हुए बच्चों में एक ताजगी, एक नयापन, बात ही और, खुशी ही और।
हमारे बच्चे तो बूढ़ों के साथ रह-रह कर उदास हो जाते हैं। इसके पहले कि वे खुश होना सीखें, चारों तरफ उदासी उनको पकड़ लेती है। वे एकदम भयभीत हो जाते हैं, क्योंकि हर चीज में उन्हें लगता है कि वे गलत हैं। पिता किताब पढ़ रहे हैं, गीता पढ़ रहे हैं, और बच्चे को लगता है कि वह शोर कर रहा है तो गलत कर रहा है।
अब बच्चे को कभी खयाल में भी नहीं आता कि गीता पढ़ना क्या इतना उपयोगी हो सकता है कि मेरा शोर करना फिजूल हो! बच्चे के लिए कूदना और शोर करना इतना सार्थक है कि उसकी कल्पना के बाहर है कि आप एक किताब लेकर बैठे हैं तो कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं कि हम शोर न करें। हर चीज धीरे-धीरे उसको पता चल जाती है कि वह गलत है।
तो हम हर बच्चे को गिल्टी और अपराधी बना देते हैं। बचपन से ही उसे लगने लगता है कि जो मैं करता हूं वह गलत है। शोर करता हूं, गलत है; खेलता हूं, गलत है; दौड़ता हूं, गलत है; झाड़ पर चढ़ता हूं, गलत है; नदी में कूदता हूं, गलत है; कपड़े पहने हुए वर्षा में खड़ा होता हूं, गलत है। मैं जो भी करता हूं, गलत है। इसका इकट्ठा परिणाम होता है कि मैं गलत आदमी हूं।
हम अपराध ही पैदा कर रहे हैं बचपन से। और उसका कुल कारण यह है कि बच्चों को उनकी भिन्न उम्र के लोगों के साथ पाला जा रहा है। किबुत्ज में उन्होंने व्यवस्था की है कि बच्चे एक उम्र के बच्चों के साथ पलें। उनको संभालने के लिए भी उनसे थोड़ी ही ज्यादा उम्र के बच्चे हों, बहुत बड़ी उम्र के लोग नहीं। बड़ी उम्र के लोग कोनों में और दूर खड़े रहें। वे इतना ही ध्यान रखें तो काफी है कि बच्चे कोई अपने को आत्म-हानि न पहुंचा लें। बस इससे ज्यादा ध्यान रखने की कोई जरूरत नहीं है।
मेरे एक मित्र एक किबुत्ज स्कूल में गए और वह देख कर दंग रह गए! बच्चों का खाना हो रहा था, और उन्होंने कहा कि मैंने जिंदगी में पहली दफा अनुभव किया कि खाना बच्चों का ऐसा होना चाहिए। पचास बच्चे थे। कुछ बच्चे मेज पर नाच रहे हैं--उसी पर जिस पर कि खाना चल रहा है, कुछ बच्चे तंबूरा बजा रहे हैं, एक बच्चा टि्वस्ट करके डांस कर रहा है, एक लड़की गीत गा रही है। सारा खेल चल रहा है, बीच में खाना भी चल रहा है, नाच भी चल रहा है। उन्होंने कहा कि वह दो-ढाई घंटे तक चलता रहा, वह खाना और वह नाच। मैंने पूछा, क्या यह रोज होता है? उन्होंने कहा, खाना और बिना नाचे और बिना गाए कैसे हो सकता है! उन्होंने कहा कि मैं दो घंटे तक देख कर दंग रह गया! वे बच्चे इतने खुश थे!
लेकिन यह बूढ़ों के साथ तो खाने में नहीं हो सकता। यह असंभव है। हमारे बच्चे के खुशी जानने के पहले उनकी खुशी नष्ट हो जाती है। उनको बच्चे की तरह पाला ही नहीं गया।
तो मेरी दृष्टि है, बच्चे से लेकर बूढ़े तक, आर्थिक व्यवस्था से लेकर राजनीति तक, शिक्षा, समाज, परिवार, इस सारे को कैसे रूपांतरित किया जाए। और उसके लिए एक संगठन की जरूरत है। वह धार्मिक संगठन नहीं है।
इस पर तो विस्तार में आपसे बात नहीं कर सकूंगा। इस पर तो एक अलग कैंप लेने का विचार चलता है जहां मैं समाज के सारे अंगों को कैसे बदला जाए, उस पर अलग से आपसे पूरी बात कर सकूं।
दूसरी बात, कुछ बातें हमें मान कर चलनी चाहिए। जैसे, जिस समाज में हम हैं वह रुग्ण है। इसलिए हम अगर किसी संगठन में यह शर्त बना देते हैं कि स्वस्थ लोग ही उस संगठन के सदस्य हो सकेंगे तो वह संगठन कभी बनेगा नहीं। यह वैसे ही है जैसे कोई अस्पताल एक तख्ती लगा दे दरवाजे पर कि सिर्फ वे ही लोग अस्पताल में भर्ती हो सकते हैं जो स्वस्थ होंगे। तो उस अस्पताल में कोई भर्ती नहीं होगा, क्योंकि पहली तो बात यह कि अस्पताल की जरूरत ही नहीं रह जाती। दूसरी बात यह कि अस्पताल में आदमी तभी जाता है जब वह बीमार है।
तो अगर हम इस तरह की शर्तें और कंडीशंस बनाएं कि निरहंकारी लोग संगठन में आएं, जिन्हें मान, पद-प्रतिष्ठा का कोई सवाल नहीं है वे संगठन में आएं, जिन्हें धनी और निर्धन के बीच कोई फर्क नहीं है वे संगठन में आएं, तो आप गलत शर्तें लगा रहे हैं। मैं यह मानता हूं कि लोग संगठन में रह जाने के बाद इस भांति के हो जाने चाहिए, लेकिन यह संगठन में आने की शर्त नहीं हो सकती। जो आदमी संगठन में रह जाए वह ऐसा हो जाना चाहिए, लेकिन ऐसा हो तब संगठन हम खड़ा करेंगे या संगठन बनाएंगे, तो हम पागल हैं! फिर संगठन बनाने की कोई जरूरत नहीं रह जाती।
यह हमें मान कर चलना पड़ेगा कि संगठन खड़ा होगा तो आदमी की बीमारियों के साथ शुरू होगा। इस बात को स्वीकार करके चलना पड़ेगा कि आदमी में बीमारियां हैं। अब उन बीमारियों को कितना बचाया जा सकता है, उसका ध्यान रखना जरूरी है; कितना दूर किया जा सकता है, उसके उपाय करने जरूरी हैं। और अंतिम लक्ष्य ध्यान में होना चाहिए कि वह दूर हो जाए।
कैसे दूर होगा? सामान्य मनुष्य की सारी क्रियाएं अहंकार से प्रेरित होती हैं। यह तो परम धर्म की अनुभूति पर उपलब्ध होता है कि अहंकार खो जाता है। तब सारी क्रियाएं निरहंकार हो जाती हैं। लेकिन उसके पहले यह नहीं होता।
तब क्या रास्ता है? लेकिन अहंकारग्रस्त मनुष्य भी अच्छा काम कर सकता है और अहंकारग्रस्त मनुष्य बुरा काम भी कर सकता है। अच्छे काम के साथ उसके अहंकार को जोड़ा जा सकता है और बुरे काम के साथ भी जोड़ा जा सकता है। निश्चित ही, परम अर्थों में अच्छा काम तभी होता है जब अहंकार शून्य हो जाता है। लेकिन वह पहली शर्त नहीं हो सकती किसी संगठन की। जब भी कोई सामाजिक जीवन और संगठना खड़ी करनी हो तो यह मान कर चलना होता है कि आदमी के रोग को हम स्वीकार करते हैं। उस रोग का अधिकतम शुभ के लिए हम प्रयोग करने की कोशिश करेंगे।
अब जैसे यही सवाल है--कुछ लोग पचास रुपए में ठहरे हुए हैं, कुछ लोग तीस रुपए में ठहरे हुए हैं। इसमें कई कारण हो सकते हैं। और जैसा समाज है, वर्ग विभाजित, उसमें यह असंभव है कि इस पूरे वर्ग विभाजित समाज में आप एक छोटा-सा ओएसिस बनाना चाहें जहां कि वर्ग विभाजन न हो। क्योंकि यहां जो लोग आएंगे वे वर्ग विभाजित समाज से आएंगे। उनके सारे जीवन का सोचने का ढांचा वर्ग विभाजन का है। इस ढांचे से वे लोग यहां आएंगे तीन दिन के लिए। अगर हम यह शर्त रख लें कि यहां वर्ग विभाजित भाव छोड़ देना पड़ेगा तो ही प्रवेश पा सकते हैं, तो प्रवेश ही नहीं पाया जा सकता है।
वर्ग विभाजित समाज है। समाज क्लासेस में बंटा हुआ है। वह जो आदमी यहां आ रहा है वह उस समाज से आ रहा है। उसके प्राणों में गहरे वह वर्ग बैठ गया है। उस वर्ग को निकालना है। वर्ग को निकालने की चेष्टा करनी है। लेकिन वर्ग न हो, यह योग्यता नहीं बनाई जा सकती, पहली क्वालीफिकेशन, कि तब उसे प्रवेश मिलेगा।
पचास रुपए वाला आदमी है, वह पचास रुपए वाला आदमी पचास रुपए की सुविधा मांगता है; उसकी अपनी आदतें हैं। पचास रुपए की सुविधा उसे न दी जाए तो वह नहीं आएगा। मुझे पता चला कि बंबई से और दो-चार सौ लोग आने वाले थे, लेकिन पचास रुपए वाला हिस्सा खत्म हो गया, वे नहीं आ सके। अब यह जो आदमी है, यह पचास रुपए में ठहरता है।
मैं नहीं कहता कि यह विभाजन खत्म कर दिया जाए, मैं तो यह कहता हूं विभाजन और थोड़ा बड़ा किया जाए। सौ रुपए का भी वर्ग हो, अस्सी का भी हो, सत्तर का भी हो, दस का भी हो, पांच का भी हो, शून्य का भी हो। जैसा एक मित्र ने कहा कि कुछ लोग हैं जो कुछ भी नहीं दे सकते। जो कुछ भी नहीं दे सकते उनको लाने का एक ही उपाय है कि जिन्हें डेढ़ सौ रुपया देने में मजा हो सकता है उनके लिए डेढ़ सौ का वर्ग भी हो। इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है। तो शून्य वाला भी लाया जा सकता है।
कुछ को सिर्फ डेढ़ सौ रुपए देने में ही सुख उपलब्ध होता है कि वे डेढ़ सौ वाले वर्ग में ठहरे हुए हैं। उनको इतना सुख लेने दिया जाए। यह तो पीछे की बात होगी कि हमारी यहां की व्यवस्था और विचार और चिंतना और व्यवहार से उनको पता चले कि वे बेवकूफ थे, उन्होंने भूल की। यह तो यहां केंद्र का जो व्यवहार होगा शून्य रुपया देने वाले से, वह वही होगा जो डेढ़ सौ रुपए देने वाले से होगा।
व्यवहार मैं कह रहा हूं--खाट नहीं कह रहा हूं, तकिया नहीं कह रहा हूं। क्योंकि ठीक है कि डेढ़ सौ रुपए वाले के लिए आपको दो अच्छे तकिए देने पड़ेंगे; वे देने चाहिए। लेकिन व्यवहार! यहां केंद्र का जो कार्यकर्ता है वह डेढ़ सौ रुपये वाले से ज्यादा सम्मान से बोलेगा, तो गलती होती है, तो भूल होती है। जिसने एक भी पैसा नहीं दिया है उससे अगर वह असम्मान से बोलता है तो भूल होती है। तो हम वर्ग पैदा कर रहे हैं फिर। ये तो वर्ग हैं--सौ रुपए, डेढ़ सौ रुपए वाले--हम पैदा नहीं कर रहे; उसी वर्ग से यह समाज आ रहा है। हम वर्ग मिटाने के लिए एक नया समाज खड़ा करना चाहते हैं। यहां जो व्यवहार होगा, उस तल पर रत्ती भर का फासला नहीं होना चाहिए।
लेकिन यह फासला होगा कि डेढ़ सौ रुपए वाला मेरे बंगले के पास ठहरेगा। यह व्यवहार का फासला नहीं है। वह डेढ़ सौ रुपए भी दे और गांव में भी ठहरे, और जो कुछ भी न दे वह मेरे पास ठहरे, तो यह किस अर्थ में न्यायपूर्ण होगा? उसे ठहरने दें यहां। उसके यहां ठहरने से कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि जब वह मुझसे मिलने आएगा तब उसको पता चलेगा कि मुझसे मिलने जो सौ कदम पैदल चल कर आया है उसमें और वह जो दो कदम चल कर आया है, मुझसे मिलने में कोई फर्क नहीं है।
और फिर हमें नई धारणा विकसित करनी चाहिए कि डेढ़ सौ रुपए वाले बंगले में वे लोग ठहरे हुए हैं जो उतने स्वस्थ नहीं हैं कि दस रुपए वाली जगह में ठहर सकें। वह हमें विकसित करनी चाहिए धारणा। वह जो पचास रुपए वाले में ठहरा हुआ है वह अस्वस्थ आदमी है, तीस रुपए वाला आदमी ज्यादा स्वस्थ है, वह तीस रुपए में भी गुजारा करता है। हमें धारणा, वैल्यूज बदलनी है। डेढ़ सौ रुपए, सौ रुपए से आप नहीं छुटकारा पा सकते हैं। हमें यह धारणा बनानी चाहिए कि तीस रुपए वाले में जो ठहरा है वह ज्यादा स्वस्थ आदमी है, पचास में जो ठहरा है वह बीमार है। डेढ़ सौ वाला और भी बीमार है, उसके लिए ज्यादा सुविधा की व्यवस्था के आयोजन की जरूरत है। और बीमार आदमी के प्रति हमारी दया होनी चाहिए, घृणा नहीं होनी चाहिए। स्वभावतः, बीमार आदमी के प्रति दया ही होती है, घृणा का क्या कारण है! हमें धारणा बदलनी चाहिए, वैल्युएशन। हमारे सोचने और वैल्यूज का फर्क होना चाहिए।
इसलिए मुझे खयाल आता है कि केंद्र के मित्रों ने जो वर्ग के नाम रखे हैं वह '' क्लास तो तीस रुपए वालों के लिए शायद रखिए, 'सी' क्लास पचास रुपए वालों के लिए रखिए। वह थर्ड क्लास में पचास रुपए वाला है, वह फर्स्ट क्लास में है नहीं। होना भी यह चाहिए। होना भी यह चाहिए कि हम दृष्टिकोण बदलें कि पचास रुपए वाले को भी खयाल हो कि पचास रुपए वाले में ठहरना थोड़ा दया के पात्र बनना है। तीस रुपए में ठहरने वाले को लगता हो कि वह ज्यादा स्वस्थ आदमी है। सौ आदमी के साथ जो ठहर सकता है वह आदमी ज्यादा सामाजिक है। जो कहता है कि मैं अकेले ही ठहरूंगा, दूसरे के साथ सो भी नहीं सकता रात, यह आदमी रुग्ण है। इसकी व्यवस्था हमें करनी चाहिए। और हम उपाय करेंगे कि धीरे-धीरे यह सौ के साथ ठहर सके। लेकिन हम यह शर्त लगा दें कि नहीं, यहां तो एक ही वर्ग होगा, तो हम सिर्फ इसको रुकावट डाल रहे हैं।
और बड़े मजे की बात यह है कि जिसको हम रुकावट डाल रहे हैं वह उसके लिए भी सहारा बनता जो कि नहीं आ सक रहा है। आपको शायद अंदाज नहीं, जिन लोगों से तीस रुपए की व्यवस्था की गई है, तीस रुपए में उनका खर्च हो नहीं रहा है। उनका खर्च कोई पैंतीस और सैंतीस के करीब पड़ेगा। वे सात रुपए पचास रुपए वाला चुका रहा है। पचास का खर्च नहीं है। खर्च कोई चालीस के करीब है। वे दस रुपए जो ज्यादा हैं पचास रुपए वाले पर, वे चालीस वाले को तीस किए जा सकें इसलिए हैं। लेकिन आदमी की बुद्धि बड़ी अजीब है। उसके लिए इंतजाम किया जाए तो वह परेशान होता है कि मुझे तीस का हिस्सा बना दिया। न इंतजाम किया जाए तो चालीस देने की उसकी तैयारी नहीं है। और जो आदमी उसके लिए दस रुपए चुका रहा है वह आदमी घृणा का पात्र हो रहा है।
फिर यह समाज आपका, इसका जिम्मा न तो जीवन जागृति केंद्र पर है न मुझ पर है। यह आपके सारे बाप-दादों पर है; पांच हजार साल में जो समाज उन्होंने पैदा किया है वह बेवकूफी से भरा हुआ है। आज तो समाज को स्वीकार करके चलना पड़ेगा--उसमें बदलाहट करनी है तो भी।
लेकिन यहां केंद्र के मित्रों को व्यवहार में जरूर बहुत ध्यान रखने की जरूरत है। उस तल पर हमारे मन में धन की कोई स्वीकृति नहीं होनी चाहिए, जरा भी नहीं होनी चाहिए। इसका मतलब यह नहीं कि धन का अपमान होना चाहिए। क्योंकि हमारी बुद्धि इसी तरह काम करती है, या तो हम धन को आदर देते हैं या अपमान करते हैं। बस दो के बीच हम डोलते हैं। धन की सहज स्वीकृति होनी चाहिए। धन का मूल्य है। धन की शक्ति है। और गलत हैं वे लोग जो समझते हों कि धन का कोई मूल्य नहीं है और कोई शक्ति नहीं है। धन का बहुत मूल्य है और बहुत शक्ति है। लेकिन उस कारण कोई मनुष्य सम्मानित नहीं होता। मनुष्यता धन से बहुत बड़ी बात है। खाट धन से मिलती है, और तकिए भी धन से मिलते हैं, और मकान भी धन से मिलता है, और भोजन भी धन से मिलता है। मनुष्यता धन से नहीं मिलती। तो तकियों, खटियों और गद्दियों में तो फर्क होगा, लेकिन मनुष्यता के आदर में फर्क नहीं होना चाहिए।
और जब धीरे-धीरे इस केंद्र के मित्र एक हवा पैदा कर लेंगे कि यहां मनुष्यता में कोई फर्क नहीं है तो हम वह वक्त भी ले आएंगे कि हम कहेंगे कि जो जितना दे सके वह उतना दे--तीस और सौ के बीच जो जितना दे सके वह उतना दे दे या दस और सौ के बीच जितना दे सके उतना दे दे। जो जितना दे सके उतना दे और जो जितनी सुविधा में रहना चाहे उतनी सुविधा लिख कर दे दे। वह एक धीरे से विकास की बात है, कि आज से पांच साल के बाद हम यह कर सकेंगे कि दस से और सौ तक जिसको जितना देना हो उतना दे दे, और जितनी उसकी जरूरत हो उतनी मांग कर ले। हो सकता है दस रुपए देने वाला बीमार हो और उसे सौ रुपए की व्यवस्था की जरूरत हो, लेकिन वह सौ न दे सकता हो। और यह भी हो सकता है कि सौ देने वाला सौ दे सकता हो और बीमार न हो और दस रुपए की व्यवस्था में रह सकता हो। वह प्रेमपूर्ण हवा हम धीरे-धीरे पैदा कर सकते हैं, लेकिन वह बुनियादी शर्त नहीं बनाई जा सकती, वह पहली योग्यता नहीं बनाई जा सकती। वह हमारे हवा और निर्माण की बात है।
इसी भांति जीवन जागृति केंद्र के मित्र और कार्यकर्ता एकदम से आज प्रतियोगिता से मुक्त नहीं हो जाएंगे। लेकिन प्रतियोगिता से मुक्त हो सकते हैं, यह लक्ष्य रखा जा सकता है। लेकिन इसे भी सीधा लक्ष्य बनाने की जरूरत नहीं है। मेरी दृष्टि में, नकारात्मक लक्ष्य कभी भी नहीं बनाने चाहिए। ध्यान होना चाहिए कि हमारा प्रेम विकसित हो। जितना प्रेम विकसित होगा, प्रतियोगिता उतनी ही कम हो जाती है।
शायद आपको यह पता ही न हो कि जो आदमी प्रतियोगिता की मांग करता है, वह क्यों मांग करता है। यह आपको पता है? एक आदमी कहता है कि मुझे पहला स्थान चाहिए, मैं दूसरे स्थान पर खड़ा होने को राजी नहीं हूं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा कि कोई आदमी पहले स्थान पर खड़ा क्यों होना चाहता है?
शायद आपने खयाल भी न किया होगा, जिस आदमी को जीवन में प्रेम नहीं मिलता वही आदमी प्रथम होने की दौड़ में पड़ता है। क्योंकि प्रेम में तो प्रत्येक व्यक्ति तत्काल प्रथम हो जाता है। जिसको भी मैं प्रेम दूंगा वह प्रथम हो गया। अगर आपने मुझे प्रेम दिया तो मैं प्रथम हो गया, इस जगत में मैं द्वितीय नहीं रहा। जिस आदमी को प्रेम नहीं मिलता जीवन में और जो न प्रेम दे पाता है और न ले पाता है, वह आदमी प्रेम की कमी प्रतियोगिता से पूरी करता है। काम्पिटीशन जो है वह सब्स्टीटयूट है, प्रतियोगिता जो है वह पूरक है। जिसको प्रेम नहीं मिला वह फिर प्रतियोगी बन जाता है। फिर वह कहता है, मुझे किसी तरह प्रथम होना है।
अगर मैं एक लड़की को प्रेम करूं तो अनजाने वह लड़की यह अनुभव करेगी कि उससे ज्यादा सुंदर इस पृथ्वी पर कोई स्त्री नहीं है। बस मेरा प्रेम उसको यह खयाल दिला देगा कि उससे सुंदर, उससे श्रेष्ठ कोई स्त्री नहीं है। अगर मुझे कोई प्रेम करे तो मुझे यह खयाल पैदा हो जाएगा उसके प्रेम के कारण, उसकी आंखों के कारण, उसके हाथ के स्पर्श से कि मेरे जैसा पुरुष इस जगत में कोई भी नहीं है। प्रेम प्रत्येक व्यक्ति को प्रथम बना देता है। जिस पर प्रेम की नजर गिरती है वह प्रथम हो जाता है।
तो जिनके जीवन में प्रेम नहीं हो पाता, वे बेचारे प्रथम होने की कोशिश करते हैं। इसलिए प्रतियोगिता प्रश्न नहीं है, प्रश्न हमेशा प्रेम है। जिस आदमी के जीवन में प्रेम फलित होता है उसे खयाल ही भूल जाता है कि वह प्रथम आए। प्रथम आने का सवाल ही समाप्त हो जाता है। प्रेम प्रथम बना देता है प्रत्येक को।
तो यह सवाल नहीं है कि प्रतियोगिता छोड़ें। वह मेरी दृष्टि नहीं है। मेरी दृष्टि यह है कि केंद्र के मित्र कितने प्रेमपूर्ण हो सकें, उस दिशा में प्रयास करना है। वे जितने प्रेमपूर्ण होते चले जाएंगे उतनी ही प्रतियोगिता क्षीण होती चली जाएगी। प्रतियोगिता केवल बीमारी है; प्रेम के अभाव से पैदा होती है। इसलिए प्रतियोगिता मिटानी है, यह बात ही गलत है। प्रतियोगिता कभी नहीं मिटती जब तक प्रेम नहीं बढ़ता।
इस दुनिया में इतनी प्रतियोगिता है, क्योंकि प्रेम बिलकुल नहीं है। और यह रहेगी प्रतियोगिता। एक कोने से मिटाइएगा, दूसरे कोने से शुरू हो जाएगी। इधर से दबाइएगा, वहां से निकलने लगेगी। क्योंकि बुनियादी सवाल प्रतियोगिता नहीं है; प्रेम कैसे विकसित हो, उस पर जोर देना है। और इस पूरी संगठना को प्रेम पर ही खड़ा करना है। प्रेम के सूत्र हैं, वह मैं आपसे धीरे-धीरे बात करता हूं अनेक बार कि प्रेम कैसे विकसित हो। इसी में छोटी-मोटी थोड़ी-सी बातें और मुझसे सुबह हुई हैं, वे भी मैं आपसे कहूं।
ऐसा रोज होता है। मेरे आस-पास कार्यकर्ताओं का एक वर्ग इकट्ठा होगा ही। जरूरी भी है कि इकट्ठा हो। न इकट्ठा हो तो मेरा जीना ही मुश्किल हो जाए। सुबह से उठता हूं--उठा और रात सोया, तब तक एक क्षण का भी विश्राम मुझे नहीं है। नहीं हो सकता, मैं भी जानता हूं कि विश्राम लेने जैसा समय भी नहीं है। इतनी परेशानी में आदमी है कि विश्राम क्या लेना! लेकिन अगर काम भी करना हो तो विश्राम जरूरी है, और किसी अर्थ में नहीं। जो मित्र मुझे मिलने आते हैं उनको तो पता भी नहीं होता।
अभी बनारस में एक दिन बोल कर मैं लौटा--रात को कोई दस बजे। और घर पर आठ-दस आदमी इकट्ठे हैं। सुबह से मैं बोल रहा हूं, रात दस बजे लौटा हूं कि अब जाकर सो जाऊंगा, कमरे पर आठ-दस लोग इकट्ठे हैं। उनको पता भी नहीं। उनका कोई कसूर भी नहीं। उन्हें कुछ बातें पूछनी हैं। वे बहुत प्रेम से मिलने आए हैं। वह अपनी बातें उन्होंने शुरू कर दीं। वे साढ़े बारह बजे तक बात किए चले जा रहे हैं।
अब घर के जो मेरे होस्ट हैं, वे परेशान इधर-उधर घूम रहे हैं। वे बार-बार इशारा करते हैं कि अब इनको उठाऊं, लेकिन वे तो बातचीत में इतने तल्लीन हैं। और उनकी बातचीत उपयोगी है; अर्थपूर्ण है; उनके जीवन की समस्या है। कहां वे खयाल रखें कि अब मुझे सो जाना चाहिए। एक बजे जाकर उनको आखिर कहना पड़ा। कहा तो वे दुखी हुए, और कहा कि हम छह महीने से राह देख रहे हैं आपके आने की। और कल सुबह तो आप चले जाएंगे। क्या यह नहीं हो सकता कि आज आप हमारे लिए न सोएं? मैंने कहा कि यह हो सकता है; लेकिन यह कितने दिन चल सकेगा? यह हो सकता है, आज मैं नहीं सोऊंगा, कल मैं नहीं सोऊंगा, लेकिन यह कितने दिन चल सकता है?
अभी एक दिन एक मीटिंग थी आठ बजे। सात बजे मैं थका-मांदा लौटा और सो गया आकर, कि आठ बजे की मीटिंग में जाना है। एक मित्र मिलने आए, वह मित्र यहां हैं। तो मेरे छोटे भाई ने उनको कह दिया कि नहीं, वह तो नहीं मिल सकेंगे, आप आठ बजे मीटिंग में आ जाएं। वह बेचारे महीनों से आने के खयाल में होंगे। उनको बहुत दुख हुआ। वह रोते हुए घर लौटे। मुझे कल ही पता चला। उनकी तरफ से कोई भी कसूर नहीं है। उनको कुछ भी पता नहीं, वह इतने प्रेम से छह महीने में साहस जुटा कर मिलने आए। न मालूम कितना भाव लेकर आए होंगे! न मालूम क्या कहने आए होंगे! और किसी ने कह दिया कि नहीं, अभी नहीं मिल सकते। इसमें गलती किसकी है?
मैं मानता हूं, कार्यकर्ता की ही गलती है सदा। क्योंकि जो आया है, उसकी तो गलती नहीं है। कार्यकर्ता की सदा गलती है, क्योंकि इसी बात को थोड़े भिन्न ढंग से कहा जा सकता था, यह बात थोड़ी प्रेमपूर्ण हो सकती थी। इस बात के कहने में कि अभी नहीं मिल सकते हैं, आप मीटिंग में आठ बजे पहुंच जाएं, मेरा तो ध्यान रखा गया, लेकिन जो मिलने आया था उसका कोई भी ध्यान नहीं रखा गया। यह भूल हो गई। यह एकदम भूल हो गई। मुझसे भी ज्यादा ध्यान उसका रखा जाना जरूरी है जो मुझसे मिलने आया है; क्योंकि न मालूम कितनी आकांक्षा, न मालूम कितने खयाल, न मालूम कितना विचार लेकर वह आया है। इस बात को ऐसा भी तो कहा जा सकता था कि मैं दिन भर से थका हुआ आया हूं, अभी लेट गया हूं। अगर आप कहें तो उठा दूं। आप सोच लें!
मैं नहीं सोचता कि जो आदमी मुझसे नहीं मिलने के कारण रोता हुआ घर लौटा वह मुझे उठाने के लिए राजी होता, यह नहीं हो सकता। यह असंभव था। यह असंभव था, अगर जिन्होंने उनको कहा था, यह कहा होता कि वे सोए हैं दिन भर से थके हुए आकर और आठ बजे मीटिंग में फिर जाना है, थोड़ी तकलीफ होगी; आप कहें तो मैं उठा दूं। तो मैं नहीं मानता हूं कि वह मित्र जो रोते हुए लौटे थे, इतने भाव से भरे आए थे, वह इतनी भी कृपा मुझ पर न दिखाते। वह मुझे...तब लेकिन वह रोते हुए नहीं लौटते, तब वह खुश लौट सकते थे।
लेकिन कार्यकर्ता की धीरे-धीरे स्थिति एक रूटीन की हो जाती है। उसको समझाने-बुझाने का खयाल भी नहीं रह जाता। उसकी भी तकलीफ है। एक को हो तो वह समझाए, उसे दिन में कई लोगों को यही बात कहनी है। लेकिन कार्य करने का अर्थ ही यह है कि हम बृहत्तर मनुष्य समाज से संबंधित हो रहे हैं, हम अनेक लोगों से संबंधित हो रहे हैं। और हम अनेक लोगों के प्रति प्रति बार प्रेमपूर्ण हो सकें तो ही हमारे कार्य करने की कुशलता, कला और सफलता है।
तो जीवन जागृति केंद्र के मित्रों को मेरा ध्यान तो रखना ही है, लेकिन मुझसे भी ज्यादा ध्यान उन मित्रों का रखना है जो मुझसे मिलने आएंगे। अगर कभी रोकना भी पड़े तो उस रोकने में सदा उन पर ही छोड़ देना चाहिए। और अगर वह छोड़ने को राजी न हों तो मेरी फिक्र छोड़ देनी चाहिए। मुझे थोड़ी तकलीफ होगी, उसकी चिंता नहीं लेनी चाहिए, लेकिन किसी आदमी को दुखी करके लौटाना एकदम गलत है। अगर उसे खुशी से लौटा सकते हों तो ठीक, नहीं तो मत लौटाइए। मेरी तकलीफ का उतना सवाल नहीं है, उसकी खुशी ज्यादा कीमती है। आखिर मैं जो श्रम भी कर रहा हूं वह इसीलिए कि कोई खुश हो सके। अगर उसकी खुशी ही खोती हो तो मेरे श्रम का कोई अर्थ नहीं रह जाता। एक भी आदमी अगर असंतुष्ट लौटता है मेरे पास से, तो उसका पाप मेरे ऊपर ही लगता है। यह मेरे मित्रों को ध्यान में ले लेना चाहिए।
उनकी तकलीफ मैं समझता हूं, उनकी अड़चन मैं समझता हूं। हर आदमी आकर प्रवेश करना चाहता है, बात करना चाहता है, घंटों समय लेना चाहता है। वे कहां से इतना समय लाएं, समय सीमित है। उनको दो मिनट में किसी को कहना पड़ता है कि अब आप जाइए, क्योंकि पचास लोग और मिलने वाले बैठे हुए हैं। और समय तो सीमित है। दो मिनट में किसी को भी मिल कर जाने में कष्ट होता है। लेकिन मेरी अपनी समझ यह है कि दो मिनट में भी खुशी से कोई मिल कर जा सकता है। और उसकी पूरी की पूरी साइंस व्यवहार की कार्यकर्ता को सीख लेनी जरूरी है। तो इधर मैं सोच रहा हूं कि कार्यकर्ताओं का एक छोटा शिविर तीन-चार दिन के लिए लूं, जहां उनसे इस संबंध में सारी बात कर सकूं। एक छोटे-से शब्द से सब कुछ फर्क पड़ जाता है। छोटे-से व्यवहार से सब कुछ फर्क पड़ जाता है। एक हाथ के छोटे-से स्पर्श से सब कुछ फर्क पड़ जाता है।
हमने कैसे...मेरे मित्र एक मेरे साथ थे किसी गांव में। उनके जाने पर पीछे कुछ मित्रों ने मुझे आकर शिकायत की कि वह हमारा हाथ पकड़ कर हमको ऐसा ले जाते हैं कि जैसे हमें निकाल रहे हों। किसी को हम इस ढंग से भी ले जा सकते हैं कि निकाल रहे हैं! और इस ढंग से तो चोट पहुंच जाएगी। हम इस ढंग से भी बोल सकते हैं...।
अभी दो लोग बंबई से सिर्फ इसलिए गए, परसों जबलपुर पहुंचे मुझसे मिलने, सिर्फ शिकायत करने। पति और पत्नी जबलपुर पहुंचे बंबई से कि हमको मिलने नहीं दिया गया बंबई में, और हमें धक्के देकर कहा कि जाओ-जाओ अभी नहीं मिल सकते। तो हमें भारी सदमा पहुंचा कि हम मनुष्य नहीं हैं क्या कि हमें बिलकुल जानवर की तरह धक्का देते हैं!
कठिन है यह बात। मैं जानता हूं कि कार्यकर्ता की कितनी तकलीफ है! वह दिन भर में घबड़ा जाता है सुबह से सांझ तक; वह भूल जाता है। लेकिन इस भूल जाने में फिर वह कार्यकर्ता नहीं रह जाता। उसे अत्यंत विनम्र होना पड़ेगा; अत्यंत प्रेमपूर्ण होना पड़ेगा। और एक बात ध्यान में ले लेनी चाहिए, दूसरे को दुख देकर अगर मेरा सुख बचाया जा रहा हो तो उस सुख को नहीं बचाना है। उसकी फिक्र छोड़ दें। उसकी बिलकुल फिक्र छोड़ दें। दूसरे के सुखी रहते हुए अगर मेरी सुविधा जुटाई जा सकती है तो ही जुटानी है; अन्यथा नहीं जुटानी है।
इसको ध्यान में रख लेंगे तो फर्क पड़ेगा। एक भी व्यक्ति...और एक-एक व्यक्ति की कितनी कीमत है, हमें कुछ पता नहीं है। एक-एक आदमी अनूठा है। एक अदना आदमी आता है, अपरिचित आदमी--वह क्या है, क्या हो सकता है, क्या कर सकता है, कुछ भी पता नहीं। उसके मन को चोट देकर लौटा देना एक बहुत पोटेंशियल फोर्स को लौटा देना है। तो गलती बात है, वह नहीं होना चाहिए।
पर कार्यकर्ता अभी विकसित भी नहीं हुए हैं। अभी तो कुछ मित्र आए हैं, वे अपना काम-धाम छोड़ कर थोड़ा मेरा काम कर देते हैं। वे तो तभी विकसित होंगे जब एक व्यापक संगठन खड़ा होगा और हम सारी चीजों के सारे मुद्दों पर धीरे-धीरे व्यवस्था कर सकेंगे। तो एक नया कार्यकर्ताओं का वर्ग निश्चित खड़ा करना है।
तीन बातें अंत में। एक तो मैं यूथ फोर्स का संगठन चाहता हूं; एक युवक क्रांति दल चाहता हूं पूरे मुल्क में--'युक्रांद' के नाम से एक संगठन चाहता हूं युवकों का। जो एक सैन्य ढंग का संगठन हो। जो युवक रोज मिलते हों--युवक और युवतियां दोनों उसमें सम्मिलित हैं--खेलते हों। और मेरी अभी धारणा विकसित होती चली जाती है कि बूढ़ों का, वृद्धों का जो ध्यान है वह विश्राम का होगा, युवकों का जो ध्यान है वह सक्रिय होगा, मेडिटेशन इन एक्शन होगा; खेलते हुए, परेड करते हुए ध्यान। तो युवकों के संगठन गांव-गांव में खड़े करने हैं जो खेलेंगे भी और खेल के साथ ध्यान का प्रयोग करेंगे; जो कवायद करेंगे, परेड करेंगे और उसके साथ ध्यान का प्रयोग करेंगे। और इन युवकों की शक्ति के आधार पर फिर जीवन की जिन-जिन चीजों को हमें बदलना है उनकी हम हवा और खबर और गांव-गांव तक वातावरण पैदा करें। एक तो युवकों का एक संगठन खड़ा करना है।
एक, सैकड़ों संन्यासी-संन्यासिनियां--हिंदू, जैन, मुसलमान--मुझे निरंतर मिलते हैं और वे चाहते हैं कि एक नए संन्यासियों का वर्ग भी मुल्क में खड़ा हो, जो न किसी धर्म का है, न किसी संप्रदाय का है, जो सिर्फ धर्म का है। अब तक दुनिया में ऐसा हुआ नहीं। कोई संन्यासी जैन है, कोई संन्यासी हिंदू है, कोई मुसलमान है। तो एक दूसरा संन्यासियों का एक आर्डर भी मैं खड़ा करना चाहता हूं। और करीब दो सौ संन्यासी और संन्यासिनियां मुझसे इस बात के लिए राजी हुए हैं कि मैं जिस दिन उन्हें आवाज दूं वे अपने-अपने पंथ छोड़ कर आ सकेंगे और एक नए संन्यासियों का एक वर्ग, जो किसी धर्म का नहीं है, जो सिर्फ धर्म का है, वह गांव-गांव जाए और जीवन को बदलने की सारी खबरें वहां तक पहुंचाए।
तो एक दूसरा संगठन संन्यासियों और संन्यासिनियों का। और वह भी, जब भी कोई चाहे कि संन्यासी से ऊब गया है तो तत्क्षण वह गृहस्थ हो जाए। और यह अपमानजनक नहीं होगा। इसकी कोई पाबंदी और बंदिश नहीं होनी चाहिए। तब कोई भी युवक युनिवर्सिटी से निकले और दो वर्ष संन्यासी रहना चाहे तो संन्यासी रहे। दो वर्ष संन्यास का जीवन देखे, पहचाने। वापस लौट आए। उसे कोई बाधा नहीं है। तो एक संन्यासियों का एक वर्ग।
और तीसरा, जगह-जगह छात्रावास खड़े करने की मेरी योजना है जहां विद्यार्थी रहें, पढ़ें वे कहीं भी, लेकिन उनकी जीवनचर्या को बदलने के लिए छात्रावास खड़े किए जाएं जहां उनकी जीवनचर्या बदली जा सके।
इन तीनों कामों को करने के लिए जीवन जागृति केंद्र का विराट संगठन, गांव-गांव में उसकी शाखा, जगह-जगह उसके केंद्र, तब वह इन तीन कामों को जीवन जागृति केंद्र कर सके।
तो इस दिशा में आप सोचें और ध्यान रखें कि मैं इसे कोई धार्मिक संगठन नहीं बता रहा हूं। और ध्यान रखें कि यह संगठन सामाजिक क्रांति का संगठन है और इसे हम किस तरह से बनाएं, किस तरह से विकसित करें कि दस या पंद्रह वर्ष में इस देश की सामाजिक चेतना में एक स्थायी परिवर्तन खड़ा किया जा सके, एक छाप जीवन में छोड़ी जा सके और जीवन को बदलने की दिशा में कुछ द्वार, कुछ खिड़कियां खोली जा सकें। ये खोली जा सकती हैं।
इस संबंध में जल्दी ही मैं चाहूंगा कि कार्यकर्ताओं का तीन दिन का एक शिविर, ताकि मैं प्रत्येक पहलू पर अपनी बात आपसे कह सकूं और आपकी बात सुन सकूं और फिर हम उसके बाबत व्यापक काम में जुट सकें।
कुछ और तो नहीं है बात? कुछ पूछने को हो तो पूछ लें आप।
प्रश्न: (रिकाघडग अस्पष्ट।)
अभी तक जो भी साहित्य का काम हुआ है वह ऐसा है कि नहीं होने से अच्छा है। वह कुछ ऐसा नहीं है कि जैसा होना चाहिए वैसा हो गया है। हो भी नहीं सकता था। जिन मित्रों को प्रेम पैदा हुआ उन्होंने कुछ करना शुरू किया। उनमें न तो साहित्यकार थे, न लेखक थे, जो भी आए प्रेम में उन्होंने कुछ अनुवाद भी किया। वह अनुवाद भी उनके प्रेम का ही प्रतीक था, उनकी कोई योग्यता थी, ऐसा नहीं था। लेकिन वह न करते तो होता भी नहीं। उन्होंने किया इसलिए आज खयाल भी पैदा होता है कि उससे अच्छा कुछ होना चाहिए। यह बिलकुल ठीक है, उससे अच्छा होना चाहिए।
और उस दिशा में हर केंद्र काम करे, क्योंकि मैं तो इतना बोल रहा हूं कि बंबई के केंद्र की सामर्थ्य के बाहर है कि वह छाप सके। मैं महीने भर में जितना बोलता हूं--जितने विषयों पर, जितनी विभिन्न बातों पर--उसको कोई एक केंद्र नहीं संभाल सकता। बंबई का केंद्र तो संभाल रहा है, सामर्थ्य से ज्यादा संभाल रहा है। और केंद्र क्या है, दो-चार मित्र हैं। केंद्र के नाम पर क्या है? बंबई देख कर बड़ा भारी नाम मालूम पड़ता है। दो-चार मित्र हैं वे संभाल रहे हैं। और इसलिए उनकी, वे जो भी कर रहे हैं, उनकी गलतियों की मैं बात ही नहीं करता हूं, क्योंकि वे इतना कर रहे हैं और इतनी मुश्किल में कर रहे हैं कि उनकी गलतियों की बात करना अन्याय हो जाता। वह मैं बात ही नहीं करता, क्योंकि एक-दो मित्र खींच रहे हैं सारा समय लगा कर, सारी शक्ति लगा कर।
यह बिलकुल ही ठीक है, गलतियां अनुवाद में बहुत हैं। फिक्र करें जगह-जगह से। हर केंद्र से फिक्र करें। जहां से भी प्रकाशन की व्यवस्था जुटा सकें वहां प्रकाशन करें। गुजरात में गुजराती का प्रकाशन हो, यह अच्छा है। महाराष्ट्र में मराठी का हो, यह अच्छा है। हिंदी का प्रकाशन हिंदी के क्षेत्र से हो तो ज्यादा अच्छा होगा। इसमें कोई बाधा नहीं है। जो भी मित्र अपनी तरफ से, निजी भी कुछ व्यक्तिगत करना चाहें, वह भी करें।
अभी तो मेरा खयाल यह है कि पांच वर्ष जिससे जो बन सके वह करे। पांच साल के बाद हम हिसाब लगाएंगे कि क्या ठीक हुआ, क्या गलत हुआ। उसके बाद फिर कैसे ठीक हो, उसका विचार करेंगे। अभी तो जिससे जो बने वह करता चला जाए। अभी तो मैं यह मानता हूं कि जो गलत कर रहा है वह भी ठीक कर रहा है। कर तो रहा है! और उसके करने से कम से कम चार लोगों को खयाल पैदा होगा कि यह गलत हुआ, तो कुछ ठीक किया जा सकता है। इसलिए मैं रोकता ही नहीं किसी को। जो मुझसे कहता है कि करना है, मैं कहता हूं करो। यह भी जानते हुए कि यह बेचारा क्या अनुवाद करेगा!
एक मित्र ने अंग्रेजी में अनुवाद किया। उनका अनुवाद ठीक नहीं हो सकता था। मुझसे दूसरे लोगों ने भी कहा कि यह अनुवाद तो ठीक नहीं है। मैंने कहा, लेकिन कोई ठीक करने वाला कहता नहीं मुझसे कि करूं। ये कहते हैं, इसलिए इनको करने देता हूं। जब कोई ठीक करने वाला आकर मुझसे कहेगा कि करेंगे, तो उनको कहूंगा। अभी तो जो आया है उसको मैं करने देता हूं। इस बेचारे की हिम्मत तो देखो कि वह ज्यादा अंग्रेजी नहीं जानता, फिर भी अनुवाद कर रहा है! उसने अनुवाद किया। अनुवाद छप गया तो बहुत-से लोगों ने कहा कि बड़ा गलत अनुवाद है। मैंने उनको पूछा कि सही तुम करो, फिर उन्होंने नहीं किया कुछ। वह अभी तक एक ने भी नहीं किया सही अनुवाद।
हमारी कठिनाई जो है वह यह है कि हो जाए कुछ काम...।
एक मुझे खयाल आता है, एक पेंटर था फ्रांस में। उसने एक चित्र बनाया और एक चौरस्ते पर अपनी पेंटिंग लगा दी और गांव भर के लोगों से सलाह ली कि इसमें क्या-क्या गलतियां हैं। किताब रख दी, उसमें सारे लोग लिख गए आ-आ कर कि इसमें यह गलती है, इसमें यह गलती है, इसमें यह गलती है। सारी किताब भर गई! उसकी समझ के बाहर हो गया कि इतनी गलतियां एक पेंटिंग में करना भी बड़ी मुश्किल बात है! एक पेंटिंग छोटी-सी, इसमें उतनी गलतियां करनी बड़ी प्रतिभा की जरूरत है, तब हो सकती हैं। उसने अपने गुरु से कहा। गुरु ने कहा, अब तू एक काम कर, इस पेंटिंग को टांग दे और नीचे लिख दे कि इसमें जहां गलती हो उसको सुधार दिया जाए। उसको कोई सुधारने नहीं आया। उस गांव में एक आदमी ने भी ब्रश उठाकर उसकी पेंटिंग में कोई सुधार नहीं किया।
हमारा जो माइंड है, हमारा जो काम करने का ढंग है, वह हमेशा गलत क्या है वह हमें दिखाई पड़ जाता है। लेकिन ठीक क्या करना है वह हमारे खयाल में नहीं आता। तो वह तो मैं कहता हूं बच्चू भाई, यह अच्छा है, आप वहां बड़ौदा में कुछ करें, कुछ अहमदाबाद में मित्र करें--जो आपको ठीक लगे वह करें। और मेरी तो वृत्ति यह है कि जो भी आप करेंगे, मैं कहूंगा अच्छा है। क्योंकि अभी मेरा मानना यह है कि कुछ हो, फिर पीछे सब हिसाब-किताब लगा लेंगे कि क्या ठीक हुआ और क्या गलत हुआ। एक दफा हो तो!
तो हर केंद्र पर जो भी काम बन सके, वह शुरू करें। और बंबई कोई अभी केंद्र नहीं है, बंबई क्या केंद्र है अभी! दो-चार मित्र हैं! लेकिन सारे मुल्क में ऐसा खयाल पैदा हो गया है कि बंबई कोई केंद्र है, उसके पास कोई धन है। न कोई धन है, न कोई पैसा है। वे निरंतर उधारी में और निरंतर परेशानी में हैं, कमाई-वमाई का सवाल नहीं है। वे हर बार गंवाते हैं। मेरे साथ दोस्ती गंवाने की हो सकती है, कमाने की हो भी नहीं सकती।
तो मुझे भी बड़ी परेशानी होती है। और वे भी बेचारे, उनका धीरज देख कर भी मैं हैरान होता हूं। कि जब वे ये बातें सुन लेते हैं कि कमा रहे हैं, फलां कर रहे हैं, तो मुझे भी हैरानी होती है। वह कमाने-वमाने का कहां सवाल है! अभी बंबई में उन्होंने कुर्सियां रखीं तो लोगों से कहा था कि चार-चार आने डाल जाओ। वह चार-चार आने भी लोग पूरे नहीं डाल गए। वह कुर्सियां भी उनको, पैसे खुद ही चुकाने पड़े। झोली लेकर खड़े हुए तो मेरे पास न मालूम कितनी चिट्ठियां पहुंचीं कि यह तो बात बहुत गलत है कि झोली लेकर खड़े हुए, लेकिन किसी ने यह नहीं पूछा कि झोली में मिला कितना? मिला कुछ भी नहीं, लेकिन चिट्ठियां मेरे पास इतनी पहुंचीं जिन्होंने लिखा कि झोली लेकर खड़ा होना बिलकुल गलत है। जिन्होंने लिखा वे एक रुपया भी नहीं डाल गए होंगे उस झोली में। झोली लेकर खड़ा होना गलत है, कुर्सी के वे पैसे चुका नहीं सकते हैं। काम अच्छा होना चाहिए, वह कहां से होगा?
तो मेरी अपनी दृष्टि है कि अगर काम करना है केंद्र को तो पांच साल आलोचना और क्रिटिसिज्म की बात ही नहीं करनी चाहिए; काम करो। पांच साल बाद फिर इकट्ठा हिसाब लगाएंगे कि क्या-क्या गलती हुई है, उसको ठीक कर लेंगे। एक दफा काम! और मेरी अपनी समझ यह है कि काम खुद गलतियां सुधारता चला जाता है। जैसे-जैसे काम आगे बढ़ता है, ज्यादा होशियार लोग आएंगे, ज्यादा समझदार लोग आएंगे, वे काम को ठीक करते चले जाएंगे। एक बार काम जरूरी है। और हर केंद्र करे। बंबई के केंद्र का कोई ठेका नहीं है। वे जितना कर रहे हैं, कर रहे हैं। मैं तो चाहता हूं कि दूसरे केंद्र करने लगें तो उनका भार थोड़ा कम हो जाए। तो वह तो आप संभाल लें, बनाएं जगह-जगह केंद्र और जगह-जगह काम को अपने हाथ में ले लें और बांटें काम को। तो ही काम हो सकता है।
प्रश्न: केंद्र के बारे में आप कुछ बताएं।
बंबई के केंद्र ने कुछ नियम बनाए हुए हैं, वह तो उनका विधान है, वह आपको मिल जाएगा। लेकिन आप अपने गांव का जो केंद्र बनाएं, आप अपने नियम बना सकते हैं। मेरी दृष्टि यह है कि अभी एक-एक केंद्र अपने-अपने नियम बना ले, अपने हिसाब से काम शुरू कर दे। पीछे जब सब केंद्र काम करने लगेंगे तो उनको इकट्ठा कर लेंगे--पीछे, बाद में। पहले से एक केंद्र सबके ऊपर थोपे और आर्डर दे और काम करवाए, वह गलत है। एक-एक यूनिट काम करना शुरू कर दे, आपकी अपनी सुविधा है।
अब बंबई केंद्र बनाए तो वह ढाई सौ रुपया सदस्य की फी रख ले, तो बंबई में ढाई सौ रुपया कुछ भी नहीं है। अब एक छोटे-से गांव में ढाई सौ रुपया फी रख लो तो एक भी सदस्य नहीं बनेगा। वे चार आना फी रखते हैं। अब बंबई के कांस्टीटयूशंस से अगर गाडरवारा में कोई बनाने लगे केंद्र तो मुश्किल का मामला है। अभी गाडरवारा में मैं था, उन्होंने केंद्र बनाया। तो उन्होंने कहा, बंबई के हिसाब से हम बनाएं? मैंने कहा, बनाने की झंझट में पड़ना ही मत। वे हजार रुपए का पैट्रन रखे हैं, हजार रुपए का पैट्रन ढूंढने में ही तुम्हारी जिंदगी खत्म हो जाएगी। वह तुम्हें यहां मिलेगा ही नहीं। तुम तो अगर पंद्रह रुपए का पैट्रन खोजोगे तो मिल सकता है। तो तुम अपनी फिक्र कर लो, अपने गांव का...।
मेरी अपनी दृष्टि यह है कि पहले सारे मुल्क में छोटे-छोटे यूनिट बन जाएं। वे अपना काम शुरू कर दें--अपनी व्यवस्था, अपनी सुविधा, अपनी जगह देख कर। फिर पीछे हम उनको कभी भी इकट्ठा कर ले सकते हैं। उसमें कोई कठिनाई नहीं है।
तो जीवन जागृति केंद्र की शाखाएं नहीं हैं जो जगह-जगह बन रही हैं, वे सब जीवन जागृति केंद्र हैं। वे ब्रांचेज नहीं हैं उसकी, वे सब इंडिपेन्डेंट यूनिट हैं। और उनके ऊपर कोई मालिक नहीं है ऊपर से आज्ञा देने को उनको। मैं मानता भी नहीं कि इस तरह की बात होनी चाहिए कि कोई ऊपर से आज्ञा दे कि ऐसा करो, वैसा करो। फिर वे पद खड़े होते हैं, फिर सारा चक्कर शुरू होता है। एक-एक यूनिट स्वतंत्र है; वह अपना बना ले, अपना काम शुरू करे। बंबई का यूनिट बहुत दिन से काम कर रहा है। उससे कोई सलाह मांगनी है, सलाह मांग ले; मार्ग-निर्देश चाहिए, मार्ग-निर्देश ले ले। लेकिन अपना काम शुरू करे अपने ढंग से। पीछे जब मुल्क में दो सौ यूनिट काम करने लगें तो हम इकट्ठे होकर उनको इकट्ठा कर लेंगे। उसमें कितनी देर लगनी है? उसमें कोई कठिनाई नहीं है। अभी किसी की तरफ मत देखें, अपना आप काम शुरू करें। उनके पास जो कांस्टीटयूशन है वह आप ले लें और देख लें। उससे कुछ फायदा मिलता हो तो उसको समझ लें।


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