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रविवार, 1 अक्टूबर 2017

गीता दर्शन-(भाग-01)-प्रवचन-014



अध्याय १-२

चौदहवां प्रवचन
फलाकांक्षारहित कर्म, जीवंत समता और परम पद

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।। ४७।।
इससे तेरा कर्म करने मात्र में ही अधिकार होवे, फल में कभी नहीं, और तू कर्मों के फल की वासना वाला भी मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी प्रीति न होवे।


कर्मयोग का आधार-सूत्र: अधिकार है कर्म में, फल में नहीं; करने की स्वतंत्रता है, पाने की नहीं। क्योंकि करना एक व्यक्ति से निकलता है, और फल समष्टि से निकलता है। मैं जो करता हूं, वह मुझसे बहता है; लेकिन जो होता है, उसमें समस्त का हाथ है। करने की धारा तो व्यक्ति की है, लेकिन फल का सार समष्टि का है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, करने का अधिकार है तुम्हारा, फल की आकांक्षा अनधिकृत है।

लेकिन हम उलटे चलते हैं, फल की आकांक्षा पहले और कर्म पीछे। हम बैलगाड़ी को आगे और बैलों को पीछे बांधते हैं। कृष्ण कह रहे हैं, कर्म पहले, फल पीछे आता है--लाया नहीं जाता। लाने की कोई सामर्थ्य मनुष्य की नहीं है; करने की सामर्थ्य मनुष्य की है। क्यों? ऐसा क्यों है? क्योंकि मैं अकेला नहीं हूं, विराट है।
मैं सोचता हूं, कल सुबह उठूंगा, आपसे मिलूंगा। लेकिन कल सुबह सूरज भी उगेगा? कल सुबह भी होगी? जरूरी नहीं है कि कल सुबह हो ही। मेरे हाथ में नहीं है कि कल सूरज उगे ही। एक दिन तो ऐसा जरूर आएगा कि सूरज डूबेगा और उगेगा नहीं। वह दिन कल भी हो सकता है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि अब यह सूरज चार हजार साल से ज्यादा नहीं चलेगा। इसकी उम्र चुकती है। यह भी बूढ़ा हो गया है। इसकी किरणें भी बिखर चुकी हैं। रोज बिखरती जा रही हैं न मालूम कितने अरबों वर्षों से! अब उसके भीतर की भट्ठी चुक रही है, अब उसका ईंधन चुक रहा है। चार हजार साल हमारे लिए बहुत बड़े हैं, सूरज के लिए ना-कुछ। चार हजार साल में सूरज ठंडा पड? जाएगा--किसी भी दिन। जिस दिन ठंडा पड़ जाएगा, उस दिन उगेगा नहीं; उस दिन सुबह नहीं होगी। उसकी पहली रात भी लोगों ने वचन दिए होंगे कि कल सुबह आते हैं--निश्चित।
लेकिन छोड़ें! सूरज चार हजार साल बाद डूबेगा और नहीं उगेगा। हमारा क्या पक्का भरोसा है कि कल सुबह हम ही उगेंगे! कल सुबह होगी, पर हम होंगे? जरूरी नहीं है। और कल सुबह भी होगी, सूरज भी उगेगा, हम भी होंगे, लेकिन वचन को पूरा करने की आकांक्षा होगी? जरूरी नहीं है। एक छोटी-सी कहानी कहूं।
सुना है मैंने कि चीन में एक सम्राट ने अपने मुख्य वजीर को, बड़े वजीर को फांसी की सजा दे दी। कुछ नाराजगी थी। लेकिन नियम था उस राज्य का कि फांसी के एक दिन पहले स्वयं सम्राट फांसी पर लटकने वाले कैदी से मिले, और उसकी कोई आखिरी आकांक्षा हो तो पूरी कर दे। निश्चित ही, आखिरी आकांक्षा जीवन को बचाने की नहीं हो सकती थी। वह बंदिश थी। उतनी भर आकांक्षा नहीं हो सकती थी।
सम्राट पहुंचा--कल सुबह फांसी होगी--आज संध्या, और अपने वजीर से पूछा कि क्या तुम्हारी इच्छा है? पूरी करूं! क्योंकि कल तुम्हारा अंतिम दिन है। वजीर एकदम दरवाजे के बाहर की तरफ देखकर रोने लगा। सम्राट ने कहा, तुम और रोते हो? कभी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता, तुम्हारी आंखें और आंसुओं से भरी!
बहुत बहादुर आदमी था। नाराज सम्राट कितना ही हो, उसकी बहादुरी पर कभी शक न था। तुम और रोते हो! क्या मौत से डरते हो? उस वजीर ने कहा, मौत! मौत से नहीं रोता, रोता किसी और बात से हूं। सम्राट ने कहा, बोलो, मैं पूरा कर दूं। वजीर ने कहा, नहीं, वह पूरा नहीं हो सकेगा, इसलिए जाने दें। सम्राट जिद्द पर अड़ गया कि क्यों नहीं हो सकेगा? आखिरी इच्छा मुझे पूरी ही करनी है।
तो उस वजीर ने कहा, नहीं मानते हैं तो सुन लें, कि आप जिस घोड़े पर बैठकर आए हैं, उसे देखकर रोता हूं। सम्राट ने कहा, पागल हो गए? उस घोड़े को देखकर रोने जैसा क्या है? वजीर ने कहा, मैंने एक कला सीखी थी; तीस वर्ष लगाए उस कला को सीखने में। वह कला थी कि घोड़ों को आकाश में उड़ना सिखाया जा सकता है, लेकिन एक विशेष जाति के घोड़े को। उसे खोजता रहा, वह नहीं मिला। और कल सुबह मैं मर रहा हूं, जो सामने घोड़ा खड़ा है, वह उसी जाति का है, जिस पर आप सवार होकर आए हैं।
सम्राट के मन को लोभ पकड़ा। आकाश में घोड़ा उड़ सके, तो उस सम्राट की कीर्ति का कोई अंत न रहे पृथ्वी पर। उसने कहा, फिक्र छोड़ो मौत की! कितने दिन लगेंगे, घोड़ा आकाश में उड़ना सीख सके? कितना समय लगेगा? उस वजीर ने कहा, एक वर्ष। सम्राट ने कहा, बहुत ज्यादा समय नहीं है। अगर घोड़ा उड़ सका तो ठीक, अन्यथा मौत एक साल बाद। फांसी एक साल बाद भी लग सकती है, अगर घोड़ा नहीं उड़ा। अगर उड़ा तो फांसी से भी बच जाओगे, आधा राज्य भी तुम्हें भेंट कर दूंगा।
वजीर घोड़े पर बैठकर घर आ गया। पत्नी-बच्चे रो रहे थे, बिलख रहे थे। आखिरी रात थी। घर आए वजीर को देखकर सब चकित हुए। कहा, कैसे आ गए? वजीर ने कहानी बताई। पत्नी और जोर से रोने लगी। उसने कहा, तुम पागल तो नहीं हो? क्योंकि मैं भलीभांति जानती हूं, तुम कोई कला नहीं जानते, जिससे घोड़ा उड़ना सीख सके। व्यर्थ ही झूठ बोले। अब यह साल तो हमें मौत से भी बदतर हो जाएगा। और अगर मांगा ही था समय, तो इतनी कंजूसी क्या की? बीस, पच्चीस, तीस वर्ष मांग सकते थे! एक वर्ष तो ऐसे चुक जाएगा कि अभी आया अभी गया, रोते-रोते चुक जाएगा।
उस वजीर ने कहा, फिक्र मत कर; एक वर्ष बहुत लंबी बात है। शायद, शायद बुद्धिमानी के बुनियादी सूत्र का उसे पता था। और ऐसा ही हुआ। वर्ष बड़ा लंबा शुरू हुआ। पत्नी ने कहा, कैसा लंबा! अभी चुक जाएगा। वजीर ने कहा, क्या भरोसा है कि मैं बचूं वर्ष में? क्या भरोसा है, घोड़ा बचे? क्या भरोसा है, राजा बचे? बहुत-सी कंडीशंस पूरी हों, तब वर्ष पूरा होगा। और ऐसा हुआ कि न वजीर बचा, न घोड़ा बचा, न राजा बचा। वह वर्ष के पहले तीनों ही मर गए।
कल की कोई भी अपेक्षा नहीं की जा सकती। फल सदा कल है, फल सदा भविष्य में है। कर्म सदा अभी है, यहीं। कर्म किया जा सकता है। कर्म वर्तमान है, फल भविष्य है। इसलिए भविष्य के लिए आशा बांधनी, निराशा बांधनी है। कर्म अभी किया जा सकता है, अधिकार है। वर्तमान में हम हैं। भविष्य में हम होंगे, यह भी तय नहीं। भविष्य में क्या होगा, कुछ भी तय नहीं। हम अपनी ओर से कर लें, इतना काफी है। हम मांगें न, हम अपेक्षा न रखें, हम फल की प्रतीक्षा न करें, हम कर्म करें और फल प्रभु पर छोड़ दें--यही बुद्धिमानी का गहरे से गहरा सूत्र है।
इस संबंध में यह बहुत मजेदार बात है कि जो लोग जितनी ज्यादा फल की आकांक्षा करते हैं, उतना ही कम कर्म करते हैं। असल में फल की आकांक्षा में इतनी शक्ति लग जाती है कि कर्म करने योग्य बचती नहीं। असल में फल की आकांक्षा में मन इतना उलझ जाता है, भविष्य की यात्रा पर इतना निकल जाता है कि वर्तमान में होता ही नहीं। असल में फल की आकांक्षा में चित्त ऐसा रस से भर जाता है कि कर्म विरस हो जाता है, रसहीन हो जाता है।
इसलिए यह बहुत मजे का दूसरा सूत्र आपसे कहता हूं कि जितना फलाकांक्षा से भरा चित्त, उतना ही कर्महीन होता है। और जितना फलाकांक्षा से मुक्त चित्त, उतना ही पूर्णकर्मी होता है। क्योंकि उसके पास कर्म ही बचता है, फल तो होता नहीं, जिसमें बंटवारा कर सके। सारी चेतना, सारा मन, सारी शक्ति, सब कुछ इसी क्षण, अभी कर्म पर लग जाती है।
स्वभावतः, जिसका सब कुछ कर्म पर लग जाता है, उसके फल के आने की संभावना बढ़ जाती है। स्वभावतः, जिसका सब कुछ कर्म पर नहीं लगता, उसके फल के आने की संभावना कम हो जाती है।
इसलिए तीसरा सूत्र आपसे कहता हूं कि जो जितनी फलाकांक्षा से भरा है, उतनी ही फल के आने की उम्मीद कम है। और जिसने जितनी फल की आकांक्षा छोड़ दी है, उतनी ही फल के आने की उम्मीद ज्यादा है। यह जगत बहुत उलटा है। और परमात्मा का गणित साधारण गणित नहीं है, बहुत असाधारण गणित है।
जीसस का एक वचन है कि जो बचाएगा, उससे छीन लिया जाएगा। जो दे देगा, उसे सब कुछ दे दिया जाएगा। जीसस ने कहा है, जो अपने को बचाता है, व्यर्थ ही अपने को खोता है। क्योंकि उसे परमात्मा के गणित का पता नहीं है। जो अपने को खोता है, वह पूरे परमात्मा को ही पा लेता है।
तो जब कर्म का अधिकार है और फल की आकांक्षा व्यर्थ है, ऐसा कृष्ण कहते हैं, तो यह मत समझ लेना कि फल मिलता नहीं; ऐसा भी मत समझ लेना कि फल का कोई मार्ग नहीं है। कर्म ही फल का मार्ग है; आकांक्षा, फल की आकांक्षा, फल का मार्ग नहीं है। इसलिए कृष्ण जो कहते हैं, उससे फल की अधिकतम, आप्टिमम संभावना है मिलने की। और हम जो करते हैं, उससे फल के खोने की मैक्सिमम, अधिकतम संभावना है और लघुतम, मिनिमम मिलने की संभावना है।
जो फल की सारी ही चिंता छोड़ देता है, अगर धर्म की भाषा में कहें, तो कहना होगा, परमात्मा उसके फल की चिंता कर लेता है। असल में छोड़ने का भरोसा इतना बड़ा है, छोड़ने का संकल्प इतना बड़ा है, छोड़ने की श्रद्धा इतनी बड़ी है कि अगर इतनी बड़ी श्रद्धा के लिए भी परमात्मा से कोई प्रत्युत्तर नहीं है, तो फिर परमात्मा नहीं हो सकता है। इतनी बड़ी श्रद्धा के लिए--कि कोई कर्म करता है और फल की बात ही नहीं करता, कर्म करता है और सो जाता है और फल का स्वप्न भी नहीं देखता--इतनी बड़ी श्रद्धा से भरे हुए चित्त को भी अगर फल न मिलता हो, तो फिर परमात्मा के होने का कोई कारण नहीं है। इतनी श्रद्धा से भरे चित्त के चारों ओर से समस्त शक्तियां दौड़ पड़ती हैं।
और जब आप फलाकांक्षा करते हैं, तब आपको पता है, आप अश्रद्धा कर रहे हैं! शायद इसको कभी सोचा न हो कि फलाकांक्षा अश्रद्धा, गहरी से गहरी अनास्था, और गहरी से गहरी नास्तिकता है। जब आप कहते हैं, फल भी मिले, तो आप यह कह रहे हैं कि अकेले कर्म से निश्चय नहीं है फल का; मुझे फल की आकांक्षा भी करनी पड़ेगी। आप कहते हैं, दो और दो चार जोड़ता तो हूं, जुड़कर चार हों भी। इसका मतलब यह है कि दो और दो जुड़कर चार होते हैं, ऐसे नियम की कोई भी श्रद्धा नहीं है। हों भी, न भी हों!
जितना अश्रद्धालु चित्त है, उतना फलातुर होता है। जितना श्रद्धा से परिपूर्ण चित्त है, उतना फल को फेंक देता है--जाने समष्टि, जाने जगत, जाने विश्व की चेतना। मेरा काम पूरा हुआ, अब शेष काम उसका है।
फल की आकांक्षा वही छोड़ सकता है, जो इतना स्वयं पर, स्वयं के कर्म पर श्रद्धा से भरा है। और स्वभावतः जो इतनी श्रद्धा से भरा है, उसका कर्म पूर्ण हो जाता है, टोटल हो जाता है--टोटल एक्ट। और जब कर्म पूर्ण होता है, तो फल सुनिश्चित है। लेकिन जब चित्त बंटा होता है फल के लिए और कर्म के लिए, तब जिस मात्रा में फल की आकांक्षा ज्यादा है, कर्म का फल उतना ही अनिश्चित है।
सुबह एक मित्र आए। उन्होंने एक बहुत बढ़िया सवाल उठाया। मैं तो चला गया। शायद परसों मैंने कहीं कहा कि एक छोटे-से मजाक से महाभारत पैदा हुआ। एक छोटे-से व्यंग्य से द्रौपदी के, महाभारत पैदा हुआ। छोटा-सा व्यंग्य द्रौपदी का ही, दुर्योधन के मन में तीर की तरह चुभ गया और द्रौपदी नग्न की गई, ऐसा मैंने कहा। मैं तो चला गया। उन मित्र के मन में बहुत तूफान आ गया होगा। हमारे मन भी तो बहुत छोटे-छोटे प्यालियों जैसे हैं, जिनमें बहुत छोटे-से हवा के झोंके से तूफान आ जाता है--चाय की प्याली से ज्यादा नहीं! तूफान आ गया होगा। मैं तो चला गया, मंच पर वे चढ़ आए होंगे। उन्होंने कहा, तद्दन खोटी बात छे, बिलकुल झूठी बात है; द्रौपदी कभी नग्न नहीं की गई।
द्रौपदी नग्न की गई; हुई नहीं--यह दूसरी बात है। द्रौपदी पूरी तरह नग्न की गई; हुई नहीं--यह बिलकुल दूसरी बात है। करने वालों ने कोई कोर-कसर न छोड़ी थी। करने वालों ने सारी ताकत लगा दी थी। लेकिन फल आया नहीं, किए हुए के अनुकूल नहीं आया फल--यह दूसरी बात है।
असल में, जो द्रौपदी को नग्न करना चाहते थे, उन्होंने क्या रख छोड़ा था! उनकी तरफ से कोई कोर-कसर न थी। लेकिन हम सभी कर्म करने वालों को, अज्ञात भी बीच में उतर आता है, इसका कभी कोई पता नहीं है। वह जो कृष्ण की कथा है, वह अज्ञात के उतरने की कथा है। अज्ञात के भी हाथ हैं, जो हमें दिखाई नहीं पड़ते।
हम ही नहीं हैं इस पृथ्वी पर। मैं अकेला नहीं हूं। मेरी अकेली आकांक्षा नहीं है, अनंत आकांक्षाएं हैं। और अनंत की भी आकांक्षा है। और उन सब के गणित पर अंततः तय होगा कि क्या हुआ। अकेला दुर्योधन ही नहीं है नग्न करने में, द्रौपदी भी तो है जो नग्न की जा रही है। द्रौपदी की भी तो चेतना है, द्रौपदी का भी तो अस्तित्व है। और अन्याय होगा यह कि द्रौपदी वस्तु की तरह प्रयोग की जाए। उसके पास भी चेतना है और व्यक्ति है; उसके पास भी संकल्प है। साधारण स्त्री नहीं है द्रौपदी।
सच तो यह है कि द्रौपदी के मुकाबले की स्त्री पूरे विश्व के इतिहास में दूसरी नहीं है। कठिन लगेगी बात। क्योंकि याद आती है सीता की, याद आती है सावित्री की। और भी बहुत यादें हैं। फिर भी मैं कहता हूं, द्रौपदी का कोई मुकाबला ही नहीं है। द्रौपदी बहुत ही अद्वितीय है। उसमें सीता की मिठास तो है ही, उसमें क्लियोपेट्रा का नमक भी है। उसमें क्लियोपेट्रा का सौंदर्य तो है ही, उसमें गार्गी का तर्क भी है। असल में पूरे महाभारत की धुरी द्रौपदी है। वह सारा युद्ध उसके आस-पास हुआ है।
लेकिन चूंकि पुरुष कथाएं लिखते हैं, इसलिए कथाओं में पुरुष-पात्र बहुत उभरकर दिखाई पड़ते हैं। असल में दुनिया की कोई महाकथा स्त्री की धुरी के बिना नहीं चलती। सब महाकथाएं स्त्री की धुरी पर घटित होती हैं। वह बड़ी रामायण सीता की धुरी पर घटित हुई है; उसमें केंद्र में सीता है। राम और रावण तो ट्राएंगल के दो छोर हैं; धुरी पर सीता है।
ये कौरव और पांडव और यह सारा पूरा महाभारत और यह सारा युद्ध द्रौपदी की धुरी पर घटा है। उस युग की और सारे युगों की सुंदरतम स्त्री है वह। नहीं, आश्चर्य नहीं है कि दुर्योधन ने भी उसे चाहा हो। असल में, उस युग में कौन पुरुष होगा जिसने उसे न चाहा हो! उसका अस्तित्व उसके प्रति चाह पैदा करने वाला था। दुर्योधन ने भी उसे चाहा है और फिर वह चली गई अर्जुन के हाथ।
और यह भी बड़े मजे की बात है कि द्रौपदी को पांच भाइयों में बांटना पड़ा। कहानी बड़ी सरल है, उतनी सरल घटना नहीं हो सकती। कहानी तो इतनी ही सरल है कि अर्जुन ने आकर बाहर से कहा कि मां देखो, हम क्या ले आए हैं! और मां ने कहा, जो भी ले आए हो, वह पांचों भाई बांट लो। लेकिन इतनी सरल घटना हो नहीं सकती। क्योंकि जब बाद में मां को भी तो पता चला होगा कि यह मामला वस्तु का नहीं, स्त्री का है। यह कैसे बांटी जा सकती है! तो कौन-सी कठिनाई थी कि कुंती कह देती कि भूल हुई। मुझे क्या पता कि तुम पत्नी ले आए हो!
नहीं, लेकिन मैं जानता हूं कि जो संघर्ष दुर्योधन और अर्जुन के बीच होता, वह संघर्ष पांच भाइयों के बीच भी हो सकता था। द्रौपदी ऐसी थी; वे पांच भाई भी कट-मर सकते थे उसके लिए। उसे बांट देना ही सुगमतम राजनीति थी। वह घर भी कट सकता था। वह महायुद्ध, जो पीछे कौरवों-पांडवों में हुआ, वह पांडवों-पांडवों में भी हो सकता था।
इसलिए कहानी मेरे लिए उतनी सरल नहीं है। कहानी बहुत प्रतीकात्मक है और गहरी है। वह यह खबर देती है कि स्त्री वह ऐसी थी कि पांच भाई भी लड़ जाते। इतनी गुणी थी, साधारण नहीं थी, असाधारण थी। उसको नग्न करना आसान बात नहीं थी, आग से खेलना था। तो अकेला दुर्योधन नहीं है कि नग्न कर ले। द्रौपदी भी है।
और ध्यान रहे, बहुत बातें हैं इसमें, जो खयाल में ले लेने जैसी हैं। जब तक कोई स्त्री स्वयं नग्न न होना चाहे, तब तक इस जगत में कोई पुरुष किसी स्त्री को नग्न नहीं कर सकता है, नहीं कर पाता है। वस्त्र उतार भी ले, तो भी नग्न नहीं कर सकता है। नग्न होना बड़ी घटना है वस्त्र उतरने से, निर्वस्त्र होने से नग्न होना बहुत भिन्न घटना है। निर्वस्त्र करना बहुत कठिन बात नहीं है, कोई भी कर सकता है, लेकिन नग्न करना बहुत दूसरी बात है। नग्न तो कोई स्त्री तभी होती है, जब वह किसी के प्रति खुलती है स्वयं। अन्यथा नहीं होती; वह ढंकी ही रह जाती है। उसके वस्त्र छीने जा सकते हैं, लेकिन वस्त्र छीनना स्त्री को नग्न करना नहीं है। यह भी।
और यह भी कि द्रौपदी जैसी स्त्री को नहीं पा सका दुर्योधन। उसके व्यंग्य तीखे पड़ गए उसके मन पर। बड़ा हारा हुआ है। हारे हुए व्यक्ति--जैसे कि क्रोध में आई हुई बिल्लियां खंभे नोचने लगती हैं--वैसा करने लगते हैं। और स्त्री के सामने जब भी पुरुष हारता है--और इससे बड़ी हार पुरुष को कभी नहीं होती। पुरुष पुरुष से लड़ ले, हार-जीत होती है। लेकिन पुरुष जब स्त्री से हारता है किसी भी क्षण में, तो इससे बड़ी कोई हार नहीं होती।
तो दुर्योधन उस दिन उसे नग्न करने का जितना आयोजन करके बैठा है, वह सारा आयोजन भी हारे हुए पुरुष-मन का है। और उस तरफ जो स्त्री खड़ी है हंसने वाली, वह कोई साधारण स्त्री नहीं है। उसका भी अपना संकल्प है, अपना विल है। उसकी भी अपनी सामर्थ्य है; उसकी भी अपनी श्रद्धा है; उसका भी अपना होना है। उसकी उस श्रद्धा में, वह जो कथा है, वह कथा तो काव्य है कि कृष्ण उसकी साड़ी को बढ़ाए चले जाते हैं। लेकिन मतलब सिर्फ इतना है कि जिसके पास अपना संकल्प है, उसे परमात्मा का सारा संकल्प तत्काल उपलब्ध हो जाता है। तो अगर परमात्मा के हाथ उसे मिल जाते हैं, तो कोई आश्चर्य नहीं।
तो मैंने कहा, और मैं फिर से कहता हूं, द्रौपदी नग्न की गई, लेकिन हुई नहीं। नग्न करना बहुत आसान है, उसका हो जाना बहुत और बात है। बीच में अज्ञात विधि आ गई, बीच में अज्ञात कारण आ गए। दुर्योधन ने जो चाहा, वह हुआ नहीं। कर्म का अधिकार था, फल का अधिकार नहीं था।
यह द्रौपदी बहुत अनूठी है। यह पूरा युद्ध हो गया। भीष्म पड़े हैं शय्या पर--बाणों की शय्या पर--और कृष्ण कहते हैं पांडवों को कि पूछ लो धर्म का राज! और वह द्रौपदी हंसती है। उसकी हंसी पूरे महाभारत पर छाई है। वह हंसती है कि इनसे पूछते हैं धर्म का रहस्य! जब मैं नग्न की जा रही थी, तब ये सिर झुकाए बैठे थे। उसका व्यंग्य गहरा है। वह स्त्री बहुत असाधारण है।
काश! हिंदुस्तान की स्त्रियों ने सीता को आदर्श न बनाकर द्रौपदी को आदर्श बनाया होता, तो हिंदुस्तान की स्त्री की शान और होती।
लेकिन नहीं, द्रौपदी खो गई है। उसका कोई पता नहीं है। खो गई। एक तो पांच पतियों की पत्नी है, इसलिए मन को पीड़ा होती है। लेकिन एक पति की पत्नी होना भी कितना मुश्किल है, उसका पता नहीं है। और जो पांच पतियों को निभा सकी है, वह साधारण स्त्री नहीं है, असाधारण है, सुपर ह्यूमन है। सीता भी अतिमानवीय है, लेकिन टू ह्यूमन के अर्थों में। और द्रौपदी भी अतिमानवीय है, लेकिन सुपर ह्यूमन के अर्थों में।
पूरे भारत के इतिहास में द्रौपदी को सिर्फ एक आदमी ने प्रशंसा दी है। और एक ऐसे आदमी ने जो बिलकुल अनपेक्षित है। पूरे भारत के इतिहास में डाक्टर राम मनोहर लोहिया को छोड़कर किसी आदमी ने द्रौपदी को सम्मान नहीं दिया है, हैरानी की बात है। मेरा तो लोहिया से प्रेम इस बात से हो गया कि पांच हजार साल के इतिहास में एक आदमी, जो द्रौपदी को सीता के ऊपर रखने को तैयार है।
यह जो मैंने कहा, आदमी करता है कर्म फल की अति आकांक्षा से, कर्म भी नहीं हो पाता और फल की अति आकांक्षा से दुराशा और निराशा ही हाथ लगती है। कृष्ण ने यह बहुत बहुमूल्य सूत्र कहा है। इसे हृदय के बहुत कोने में सम्हालकर रख लेने जैसा है।
करें कर्म, वह हाथ में है; अभी है, यहीं है। फल को छोड़ें। फल को छोड़ने का साहस दिखलाएं। कर्म को करने का संकल्प, फल को छोड़ने का साहस, फिर कर्म निश्चित ही फल ले आता है। लेकिन आप उस फल को मत लाएं, वह तो कर्म के पीछे छाया की तरह चला आता है। और जिसने छोड़ा भरोसे से, उसके छोड़ने में ही, उसके भरोसे में ही, जगत की सारी ऊर्जा सहयोगी हो जाती है।
जैसे ही हम मांग करते हैं, ऐसा हो, वैसे ही हम जगत-ऊर्जा के विपरीत खड़े हो जाते हैं और शत्रु हो जाते हैं। जैसे ही हम कहते हैं, जो तेरी मर्जी; जो हमें करना था, वह हमने कर लिया, अब तेरी मर्जी पूरी हो; हम जगत-ऊर्जा के प्रति मैत्री से भर जाते हैं। और जगत और हमारे बीच, जीवन-ऊर्जा और हमारे बीच, परमात्मा और हमारे बीच एक हार्मनी, एक संगीत फलित हो जाता है। जैसे ही हमने कहा कि नहीं, किया भी मैंने, जो चाहता हूं वह हो भी, वैसे ही हम जगत के विपरीत खड़े हो गए हैं। और जगत के विपरीत खड़े होकर सिवाय निराशा के, असफलता के कभी कुछ हाथ नहीं लगता है। इसलिए कर्मयोगी के लिए कर्म ही अधिकार है। फल! फल परमात्मा का प्रसाद है।


योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। ४८।।
हे धनंजय, आसक्ति को त्यागकर, सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर, योग में स्थित हुआ कर्मों को कर। यह समत्वभाव ही योग नाम से कहा जाता है।


समता ही योग है--इक्विलिब्रियम, संतुलन, संगीत। दो के बीच चुनाव नहीं, दो के बीच समभाव; विरोधों के बीच चुनाव नहीं, अविरोध; दो अतियों के बीच, दो पोलेरिटीज के बीच, दो ध्रुवों के बीच पसंद-नापसंद नहीं, राग-द्वेष नहीं, साक्षीभाव। समता का अर्थ ठीक से समझ लेना जरूरी है, क्योंकि कृष्ण कहते हैं, वही योग है।
समत्व कठिन है बहुत। चुनाव सदा आसान है। मन कहता है, इसे चुन लो, जिसे चुनते हो, उससे विपरीत को छोड़ दो। कृष्ण कहते हैं, चुनो ही मत। दोनों समान हैं, ऐसा जानो। और जब दोनों समान हैं, तो चुनेंगे कैसे? चुनाव तभी तक हो सकता है, जब असमान हों। एक हो श्रेष्ठ, एक हो अश्रेष्ठ; एक में दिखती हो सिद्धि, एक में दिखती हो असिद्धि; एक में दिखता हो शुभ, एक में दिखता हो अशुभ। कहीं न कहीं कोई तुलना का उपाय हो, कंपेरिजन हो, तभी चुनाव है। अगर दोनों ही समान हैं, तो चुनाव कहां?
चौराहे पर खड़े हैं। अगर सभी रास्ते समान हैं, तो जाना कहां? जाएंगे कैसे? चुनेंगे कैसे? खड़े हो जाएंगे। लेकिन अगर एक रास्ता ठीक है और एक गलत, तो जाएंगे, गति होगी। जहां भी असमान दिखा, तत्काल चित्त यात्रा पर निकल जाता है--दि वेरी मोमेंट। यहां पता चला कि वह ठीक, पता नहीं चला कि चित्त गया। पता चला कि वह गलत, पता नहीं चला कि चित्त लौटा। पता लगा प्रीतिकर, पता लगा अप्रीतिकर; पता लगा श्रेयस, पता लगा अश्रेयस--यहां पता लगा मन को, कि मन गया। पता लगना ही मन के लिए तत्काल रूपांतरण हो जाता है। और समता उसे उपलब्ध होती है, जो बीच में खड़ा हो जाता है।
कभी रस्सी पर चलते हुए नट को देखा? नट चुन सकता है, किसी भी ओर गिर सकता है। गिर जाए, झंझट के बाहर हो जाए। लेकिन दोनों गिराव के बीच में सम्हालता है। अगर वह झुकता भी दिखाई पड़ता है आपको, तो सिर्फ अपने को सम्हालने के लिए, झुकने के लिए नहीं। और आप अगर सम्हले भी दिखते हैं, तो सिर्फ झुकने के लिए। आप अगर एक क्षण चौरस्ते पर खड़े भी होते हैं, तो चुनने के लिए, कि कौन-से रास्ते से जाऊं! अगर एक क्षण विचार भी करते हैं, तो चुनाव के लिए, कि क्या ठीक है! क्या करूं, क्या न करूं! क्या अच्छा है, क्या बुरा है! किससे सफलता मिलेगी, किससे असफलता मिलेगी! क्या होगा लाभ, क्या होगी हानि! अगर चिंतन भी करते हैं कभी, तो चुनाव के लिए।
नट को देखा है रस्सी पर! झुकता भी दिखता है, लेकिन झुकने के लिए नहीं। जब वह बाएं झुकता है, तब आपने कभी खयाल किया है, कि बाएं वह तभी झुकता है, जब दाएं गिरने का डर पैदा होता है। दाएं तब झुकता है, जब बाएं गिरने का डर पैदा होता है। वह दाएं गिरने के डर को बाएं झुककर बैलेंस करता है। बाएं और दाएं के बीच, राइट और लेफ्ट के बीच वह पूरे वक्त अपने को सम कर रहा है।
निश्चित ही, यह समता जड़ नहीं है, जैसा कि पत्थर पड़ा हो। जीवन में भी समता जड़ नहीं है, जैसा पत्थर पड़ा हो। जीवन की समता भी नट जैसी समता ही है--प्रतिपल जीवित है, सचेतन है, गतिमान है।
दो तरह की समता हो सकती है। एक आदमी सोया पड़ा है गहरी सुषुप्ति में, वह भी समता को उपलब्ध है। क्योंकि वहां भी कोई चुनाव नहीं है। लेकिन सुषुप्ति योग नहीं है। एक आदमी शराब पीकर रास्ते पर पड़ा है; उसे भी सिद्धि और असिद्धि में कोई फर्क नहीं है। लेकिन शराब पी लेना समता नहीं है, न योग है। यद्यपि कई लोग शराब पीकर भी योग की भूल में पड़ते हैं।
तो गांजा पीने वाले योगी भी हैं, चरस पीने वाले योगी भी हैं। और आज ही हैं, ऐसा नहीं है, अति प्राचीन हैं। और अभी तो उनका प्रभाव पश्चिम में बहुत बढ़ता जाता है। अभी तो बस्तियां बस गई हैं अमेरिका में, जहां लोग चरस पी रहे हैं। मैस्कलीन, लिसर्जिक एसिड, मारिजुआना, सब चल रहा है। वे भी इस खयाल में हैं कि जब नशे में धुत होते हैं, तो समता सध जाती है, क्योंकि चुनाव नहीं रहता।
कृष्ण अर्जुन को ऐसी समता को नहीं कह रहे हैं कि तू बेहोश हो जा! बेहोशी में भी चुनाव नहीं रहता, क्योंकि चुनाव करने वाला नहीं रहता। लेकिन जब चुनाव करने वाला ही न रहा, तो चुनाव के न रहने का क्या प्रयोजन है? क्या अर्थ है? क्या उपलब्धि है?
नहीं, चुनाव करने वाला है; चाहे तो चुनाव कर सकता है; नहीं करता है। और जब चाहते हुए चुनाव नहीं करता कोई, जानते हुए जब दो विरोधों से अपने को बचा लेता है, बीच में खड़ा हो जाता है, तो योग को उपलब्ध होता है, समाधि को उपलब्ध होता है।
सुषुप्ति और समाधि में बड़ी समानता है। चाहें तो हम ऐसी परिभाषा कर सकते हैं कि सुषुप्ति मूर्च्छित समाधि है। और ऐसी भी कि समाधि जाग्रत सुषुप्ति है। बड़ी समानता है। सुषुप्ति में आदमी प्रकृति की समता को उपलब्ध हो जाता है, समाधि में व्यक्ति परमात्मा की समता को उपलब्ध होता है।
इसलिए दुनिया में बेहोशी का जो इतना आकर्षण है, उसका मौलिक कारण धर्म है। शराब का जो इतना आकर्षण है, उसका मौलिक कारण धार्मिक इच्छा है।
आप कहेंगे, क्या मैं यह कह रहा हूं कि धार्मिक आदमी को शराब पीनी चाहिए? नहीं, मैं यही कह रहा हूं कि धार्मिक आदमी को शराब नहीं पीनी चाहिए, क्योंकि शराब धर्म का सब्स्टीटयूट बन सकती है। नशा धर्म का परिपूरक बन सकता है। क्योंकि वहां भी एक तरह की समता, जड़ समता उपलब्ध होती है।
कृष्ण जिस समता की बात कर रहे हैं, वह सचेतन समता की बात है। उस युद्ध के क्षण में तो बहुत सचेतन होना पड़ेगा न! युद्ध के क्षण में तो बेहोश नहीं हुआ जा सकता, मारिजुआना और एल एस डी नहीं लिया जा सकता, न चरस पी जा सकती है। युद्ध के क्षण में तो पूरा जागना होगा।
कभी आपने खयाल किया हो, न किया हो! जितने खतरे का क्षण होता है, आप उतने ही जागे हुए होते हो।
अगर हम यहां बैठे हैं, और यहां जमीन पर मैं एक फीट चौड़ी और सौ फीट लंबी लकड़ी की पट्टी बिछा दूं और आपसे उस पर चलने को कहूं, तो कोई गिरेगा उस पट्टी पर से? कोई भी नहीं गिरेगा। बच्चे भी निकल जाएंगे, बूढ़े भी निकल जाएंगे, बीमार भी निकल जाएंगे; कोई नहीं गिरेगा। लेकिन फिर उस पट्टी को इस मकान की छत पर और दूसरे मकान की छत पर रख दें। वही पट्टी है, एक फीट चौड़ी है। ज्यादा चौड़ी नहीं हो गई, कम चौड़ी नहीं की, उतनी ही लंबी है। फिर हमसे कहा जाए, चलें इस पर! तब कितने लोग चलने को राजी होंगे?
गणित और विज्ञान के हिसाब से कुछ भी फर्क नहीं पड़ा है। पट्टी वही है, आप भी वही हैं। खतरा क्या है? डर क्या है? और जब आप नीचे निकल गए थे चलकर और नहीं गिरे थे, तो अभी गिर जाएंगे, इसकी संभावना क्या है?
नहीं, लेकिन आप कहेंगे, अब नहीं चल सकते। क्यों? क्योंकि जमीन पर चलते वक्त जागने की कोई भी जरूरत न थी, सोए-सोए भी चल सकते थे। अब इस पर जागकर चलना पड़ेगा; खतरा नीचे खड़ा है। इतना जागकर चलने का भरोसा नहीं है कि सौ फीट तक जागे रह सकेंगे। एक-दो फीट चलेंगे, होश खो जाएगा। कोई फिल्मी गाना बीच में आ जाएगा, कुछ और आ जाएगा; जमीन पर हो जाएंगे। नीचे एक कुत्ता ही भौंक देगा, तो सब समता समाप्त हो जाएगी। तो आप कहेंगे, नहीं, अब नहीं चल सकते। अब क्यों नहीं चल सकते हैं? अब एक नई जरूरत--खतरे में जागरण चाहिए।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि युद्ध का इतना आकर्षण भी खतरे का आकर्षण है। इसलिए कभी आपने खयाल किया, जब दुनिया में युद्ध चलता है, तो लोगों के चेहरों की रौनक बढ़ जाती है, घटती नहीं। और जो आदमी कभी आठ बजे नहीं उठा था, वह पांच बजे उठकर रेडियो खोल लेता है। पांच बजे से पूछता है, अखबार कहां है? जिंदगी में एक पुलक आ जाती है! बात क्या है? युद्ध के क्षण में इतनी पुलक?
युद्ध का खतरा हमारी नींद को थोड़ा कम करता है। हम थोड़े जागते हैं। जागने का अपना रस है। इसलिए दस-पंद्रह साल में सोई हुई मनुष्यता को एक युद्ध पैदा करना पड़ता है, क्योंकि और कोई रास्ता नहीं है। और किसी तरह जागने का उपाय नहीं है। और जब युद्ध पैदा हो जाता है, तो रौनक छा जाती है। जिंदगी में रस, पुलक और गति आ जाती है।
युद्ध के इस क्षण में कृष्ण बेहोशी की बात तो कह ही नहीं सकते हैं, वह वर्जित है; उसका कोई सवाल ही नहीं उठता है। फिर कृष्ण जिस समता की बात कर रहे हैं, जिस योग की, वह क्या है? वह है, दो के बीच, द्वंद्व के बीच निर्द्वंद्व, अचुनाव, च्वाइसलेसनेस। कैसे होगा यह? अगर आपने द्वंद्व के बीच निर्द्वंद्व होना भी चुना, तो वह भी चुनाव है।
इसे समझ लें। यह जरा थोड़ा कठिन पड़ेगा।
अगर आपने दो द्वंद्व के बीच निर्द्वंद्व होने को चुना, तो दैट टू इज़ ए च्वाइस, वह भी एक चुनाव है। निर्द्वंद्व आप नहीं हो सकते। अब आप नए द्वंद्व में जुड़ रहे हैं--द्वंद्व में रहना कि निर्द्वंद्व रहना। अब यह द्वंद्व है, अब यह कांफ्लिक्ट है। अगर आप इसका चुनाव करते हैं कि निर्द्वंद्व रहेंगे हम, हम द्वंद्व में नहीं पड़ते, तो यह फिर चुनाव हो गया। अब जरा बारीक और नाजुक बात हो गई। लेकिन निर्द्वंद्व को कोई चुन ही नहीं सकता। निर्द्वंद्व अचुनाव में खिलता है; वह आपका चुनाव नहीं है। अचुनाव में निर्द्वंद्व का फूल खिलता है; आप चुन नहीं सकते। तो आपको द्वंद्व और निर्द्वंद्व में नहीं चुनना है।
गीता के इस सूत्र को पढ़कर अनेक लोग मेरे पास आकर कहते हैं कि हम कैसे समतावान हों? यानी मतलब, हम समता को कैसे चुनें? कृष्ण तो कहते हैं कि समता योग है, तो हम समता को कैसे पा लें?
वे समता को चुनने की तैयारी दिखला रहे हैं। कृष्ण कहते हैं, चुना कि समता खोई। फिर तुमने द्वंद्व बनाया--असमता और समता का द्वंद्व बना लिया। असमता छोड़नी है, समता चुननी है! इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम द्वंद्व का पेयर कैसा बनाते हो? बादशाह और गुलाम का बनाते हो, कि बेगम और बादशाह का बनाते हो--इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आप द्वंद्व बनाए बिना रह नहीं सकते। और जो द्वंद्व बनाता है, वह समता को उपलब्ध नहीं होता है। फिर कैसे? क्या है रास्ता?
रास्ता एक ही है कि द्वंद्व के प्रति जागें; कुछ करें मत, जस्ट बी अवेयर। जानें कि एक रास्ता यह और एक रास्ता यह और यह मैं, तीन हैं यहां। यह रही सफलता, यह रही विफलता और यह रहा मैं। यह तीसरा मैं जो हूं, इसके प्रति जागें। और जैसे ही इस तीसरे के प्रति जागेंगे, जैसे ही यह थर्ड फोर्स, यह तीसरा तत्व नजर में आएगा, कि न तो मैं सफलता हूं, न मैं विफलता हूं। विफलता भी मुझ पर आती है, सफलता भी मुझ पर आती है। सफलता भी चली जाती है, विफलता भी चली जाती है। सुबह होती है, सूरज खिलता है, रोशनी फैलती है। मैं रोशनी में खड़ा हो जाता हूं। फिर सांझ होती, अंधेरा आता है, फिर अंधेरा मेरे ऊपर छा जाता है। लेकिन न तो मैं प्रकाश हूं, न मैं अंधेरा हूं। न तो मैं दिन हूं, न मैं रात हूं। क्योंकि दिन भी मुझ पर आकर निकल जाता है और फिर भी मैं होता हूं। रात भी मुझ पर होकर निकल जाती है, फिर भी मैं होता हूं। निश्चित ही, रात और दिन से मैं अलग हूं, पृथक हूं, अन्य हूं।
यह बोध कि मैं भिन्न हूं द्वंद्व से, द्वंद्व को तत्काल गिरा देता है और निर्द्वंद्व फूल खिल जाता है। वह समता का फूल योग है। और जो समता को उपलब्ध हो जाता है, उसे कुछ भी और उपलब्ध करने को बाकी नहीं बचता है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तू समत्व को उपलब्ध हो। छोड़ फिक्र सिद्धि की, असिद्धि की; सफलता, असफलता की; हिंसा-अहिंसा की; धर्म की, अधर्म की; क्या होगा, क्या नहीं होगा; ईदर आर छोड़! तू अपने में खड़ा हो। तू जाग। तू जागकर द्वंद्व को देख। तू समता में प्रवेश कर। क्योंकि समता ही योग है।


दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।। ४९।।
इस समत्व रूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यंत तुच्छ है, इसलिए हे धनंजय, समत्वबुद्धियोग का आश्रय ग्रहण कर, क्योंकि फल की वासना वाले अत्यंत दीन हैं।


कृष्ण कहते हैं, धनंजय, बुद्धियोग को खोजो। मैंने जो अभी कहा, द्वंद्व को छोड़ो, स्वयं को खोजो; उसी को कृष्ण कहते हैं, बुद्धि को खोजो। क्योंकि स्वयं का जो पहला परिचय है, वह बुद्धि है। स्वयं का जो पहला परिचय है। अपने से परिचित होने चलेंगे, तो द्वार पर ही जिससे परिचय होगा, वह बुद्धि है। स्वयं का द्वार बुद्धि है। और स्वयं के इस द्वार में से प्रवेश किए बिना कोई भी न आत्मवान होता है, न ज्ञानवान होता है। यह बुद्धि का द्वार है। लेकिन बुद्धि के द्वार पर हमारी दृष्टि नहीं जाती, क्योंकि बुद्धि से हमेशा हम कर्मों के चुनाव का काम करते रहते हैं।
बुद्धि के दो उपयोग हो सकते हैं। सब दरवाजों के दो उपयोग होते हैं। प्रत्येक दरवाजे के दो उपयोग हैं। होंगे ही। सब दरवाजे इसीलिए बनाए जाते हैं; उनसे बाहर भी जाया जा सकता है, उनसे भीतर भी जाया जा सकता है। दरवाजे का मतलब ही यह होता है कि उससे बाहर भी जाया जा सकता है, उससे भीतर भी जाया जा सकता है। जिससे भी बाहर जा सकते हैं, उससे ही भीतर भी जा सकते हैं। लेकिन हमने अब तक बुद्धि के दरवाजे का एक ही उपयोग किया है--बाहर जाने का। हमने अब तक उसका एक्जिट का उपयोग किया है, एंट्रेंस का उपयोग नहीं किया। जिस दिन आदमी बुद्धि का एंट्रेंस की तरह, प्रवेश की तरह उपयोग करता है, उसी दिन--उसी दिन--जीवन में क्रांति फलित हो जाती है।
अर्जुन भी बुद्धि का उपयोग कर रहा है। ऐसा नहीं कि नहीं कर रहा है; कहना चाहिए, जरूरत से ज्यादा ही कर रहा है। इतना ज्यादा कर रहा है कि कृष्ण को भी उसने दिक्कत में डाला हुआ है। बुद्धि का भलीभांति उपयोग कर रहा है। निर्बुद्धि नहीं है, बुद्धि काफी है। वह काफी बुद्धि ही उसे कठिनाई में डाले हुए है। निर्बुद्धि वहां और भी बहुत हैं, वे परेशान नहीं हैं।
लेकिन बुद्धि का वह एक ही उपयोग जानता है। वह बुद्धि का उपयोग कर रहा है कि यह करूं तो ठीक, कि वह करूं तो ठीक? ऐसा होगा, तो क्या होगा? वैसा होगा, तो क्या होगा? वह बुद्धि का उपयोग कर रहा है बहिर्जगत के संबंध में; वह बुद्धि का उपयोग कर रहा है फलों के लिए; वह बुद्धि का उपयोग कर रहा है कि कल क्या होगा? परसों क्या होगा? संतति कैसी होगी? कुल नाश होगा? क्या होगा? क्या नहीं होगा? वह बुद्धि का सारा उपयोग कर रहा है। सिर्फ एक उपयोग नहीं कर रहा है--भीतर प्रवेश का।
कृष्ण उससे कहते हैं, धनंजय, कर्म के संबंध में ही सोचते रहना बड़ी निकृष्ट उपयोगिता है बुद्धि की। उसके संबंध में भी सोचो, जो कर्म के संबंध में सोच रहा है। कर्म को ही देखते रहना, बाहर ही देखते रहना, बुद्धि का अत्यल्प उपयोग है--निकृष्टतम!
अगर इसे ऐसा कहें कि व्यवहार के लिए ही बुद्धि का उपयोग करना--क्या करना, क्या नहीं करना--बुद्धि की क्षमता का न्यूनतम उपयोग है। और इसलिए हमारी बुद्धि पूरी काम में नहीं आती, क्योंकि उतनी बुद्धि की जरूरत नहीं है। जहां सुई से काम चल जाता है, वहां तलवार की जरूरत ही नहीं पड़ती।
अगर वैज्ञानिक से पूछें, तो वह कहता है कि श्रेष्ठतम मनुष्य भी अपनी बुद्धि के पंद्रह प्रतिशत से ज्यादा का उपयोग नहीं करते हैं; कुल पंद्रह प्रतिशत, वह भी श्रेष्ठतम! श्रेष्ठतम यानी कोई आइंस्टीन या कोई बर्ट्रेंड रसेल। तो जो दुकान पर बैठा है, वह आदमी कितनी करता है? जो दफ्तर में काम कर रहा है, वह आदमी कितनी करता है? जो स्कूल में पढ़ा रहा है, वह आदमी कितना काम करता है बुद्धि से? दो-ढाई परसेंट, इससे ज्यादा नहीं। दो-ढाई परसेंट भी पूरी जिंदगी नहीं करता आदमी उपयोग, केवल अठारह साल की उम्र तक। अठारह साल की उम्र के बाद तो मुश्किल से ही कोई उपयोग करता है। क्योंकि कई बातें बुद्धि सीख लेती है, कामचलाऊ सब बातें बुद्धि सीख लेती है, फिर उन्हीं से काम चलाती रहती है जिंदगीभर।
अठारह साल के बाद मुश्किल से आदमी मिलेगा, जिसकी बुद्धि बढ़ती है। आप कहेंगे, गलत। सत्तर साल के आदमी के पास अठारह साल के आदमी से ज्यादा अनुभव होता है। अनुभव ज्यादा होता है, बुद्धि ज्यादा नहीं होती; अठारह साल की ही बुद्धि होती है। उसी बुद्धि से वह, उसी चम्मच से वह अनुभव को इकट्ठा करता चला जाता है। चम्मच बड़ी नहीं करता; चम्मच वही रहती है; बस उससे अनुभव को इकट्ठा करता चला जाता है। अनुभव का ढेर बढ़ जाता है उसके पास; बाकी चम्मच जो उसकी बुद्धि की होती है, वह अठारह साल वाली ही होती है।
दूसरे महायुद्ध में तो बड़ी कठिनाई हुई। कठिनाई यह हुई कि दूसरे महायुद्ध में अमेरिका को जांच-पड़ताल करनी पड़ी कि हम जिन सैनिकों को भेजते हैं, उनका आई.क्यू. कितना है, उनका बुद्धि-माप कितना है। युद्ध में भेज रहे हैं, तो उनकी बुद्धि की जांच भी तो होनी चाहिए! शरीर की जांच तो हो जाती है कि यह आदमी ताकतवर है, लड़ सकता है, सब ठीक। लेकिन अब युद्ध जो है, वह शरीर से नहीं चल रहा है, मस्कुलर नहीं रह गया है। अब युद्ध बहुत कुछ मानसिक हो गया है। बुद्धि कितनी है?
तो बड़ी हैरानी हुई। युद्ध के मैदान के लिए जो सैनिक भर्ती हो रहे थे, उनकी जांच करने से पता चला कि उन सभी सैनिकों की जो औसत बुद्धि की उम्र है, वह तेरह साल से ज्यादा की नहीं है। तेरह साल! उसमें युनिवर्सिटी के ग्रेजुएट हैं, उसमें मैट्रिक से कम पढ़ा-लिखा तो कोई भी नहीं है। कहना चाहिए, पढ़े-लिखे से पढ़ा-लिखा वर्ग है। उसकी उम्र भी उतनी ही है जितनी तेरह साल के बच्चे की होनी चाहिए--बुद्धि की। बड़ी चौंकाने वाली, बड़ी घबराने वाली बात है। मगर कारण है। और कारण यह है कि बाहर की दुनिया में जरूरत ही नहीं है बुद्धि की इतनी।
इसलिए जब कृष्ण कहते हैं तो बहुत मनोवैज्ञानिक सत्य कह रहे हैं वह कि निकृष्टतम उपयोग है कर्म के लिए बुद्धि का। निकृष्टतम! बुद्धि के योग्य ही नहीं है वह। वह बिना बुद्धि के भी हो सकता है। मशीनें आदमी से अच्छा काम कर लेती हैं।
सच तो यह है कि आदमी रोज मशीनों से हारता जा रहा है, और धीरे-धीरे आदमियों को कारखाने, दफ्तर के बाहर होना पड़ेगा। मशीनें उनकी जगह लेती चली जाएंगी। क्योंकि आदमी उतना अच्छा काम नहीं कर पाता, जितना ज्यादा अच्छा मशीनें कर लेती हैं। उसका कारण सिर्फ एक ही है कि मशीनों के पास बिलकुल बुद्धि नहीं है। भूल-चूक के लिए भी बुद्धि होनी जरूरी है। गलती करने के लिए भी बुद्धि होनी जरूरी है। मशीनें गलती करती ही नहीं। करती चली जाती हैं, जो कर रही हैं।
हम भी सत्रह-अठारह साल की उम्र होते-होते तक मेकेनिकल हो जाते हैं। दिमाग सीख जाता है क्या करना है, फिर उसको करता चला जाता है।
एक और बुद्धि का महत उपयोग है--बुद्धियोग--बुद्धिमानी नहीं, बुद्धिमत्ता नहीं, इंटलेक्चुअलिज्म नहीं, सिर्फ बौद्धिकता नहीं। बुद्धियोग का क्या मतलब है कृष्ण का? बुद्धियोग का मतलब है, जिस दिन हम बुद्धि के द्वार का बाहर के जगत के लिए नहीं, बल्कि स्वयं को जानने की यात्रा के लिए प्रयोग करते हैं। तब सौ प्रतिशत बुद्धि की जरूरत पड़ती है। तब स्वयं-प्रवेश के लिए समस्त बुद्धिमत्ता पुकारी जाती है।
अगर बायोलाजिस्ट से पूछें, तो वह कहता है, आदमी की आधी खोपड़ी बिलकुल बेकाम पड़ी है; आधी खोपड़ी का कोई भी हिस्सा काम नहीं कर रहा है। बड़ी चिंता की बात है जीव-शास्त्र के लिए कि बात क्या है? इसकी शरीर में जरूरत क्या है? यह जो सिर का बड़ा हिस्सा बेकार पड़ा है, कुछ करता ही नहीं; इसको काट भी दें तो चल सकता है; आदमी में कोई फर्क नहीं पड़ेगा; पर यह है क्यों? क्योंकि प्रकृति कुछ भी व्यर्थ तो बनाती नहीं। या तो यह हो सकता है कि पहले कभी आदमी पूरी खोपड़ी का उपयोग करता रहा हो, फिर भूल-चूक हो गई हो कुछ, आधी खोपड़ी के द्वार-दरवाजे बंद हो गए हैं। या यह हो सकता है कि आगे संभावना है कि आदमी के मस्तिष्क में और बहुत कुछ पोटेंशियल है, बीजरूप है, जो सक्रिय हो और काम करे।
दोनों ही बातें थोड़ी दूर तक सच हैं। ऐसे लोग पृथ्वी पर हो चुके हैं, बुद्ध या कृष्ण या कपिल या कणाद, जिन्होंने पूरी-पूरी बुद्धि का उपयोग किया। ऐसे लोग भविष्य में भी होंगे, जो इसका पूरा-पूरा उपयोग करें। लेकिन बाहर के काम के लिए थोड़ी-सी ही बुद्धि से काम चल जाता है। वह न्यूनतम उपयोग है--निकृष्टतम।
अर्जुन को कृष्ण कहते हैं, धनंजय, तू बुद्धियोग को उपलब्ध हो। तू बुद्धि का भीतर जाने के लिए, स्वयं को जानने के लिए, उसे जानने के लिए जो सब चुनावों के बीच में चुनने वाला है, जो सब करने के बीच में करने वाला है, जो सब घटनाओं के बीच में साक्षी है, जो सब घटनाओं के पीछे खड़ा है दूर, देखने वाला द्रष्टा है, उसे तू खोज। और जैसे ही उसे तू खोज लेगा, तू समता को उपलब्ध हो जाएगा। फिर ये बाहर की चिंताएं--ऐसा ठीक, वैसा गलत--तुझे पीड़ित और परेशान नहीं करेंगी। तब तू निश्चिंत भाव से जी सकता है। और वह निश्चिंतता तेरी समता से आएगी, तेरी बेहोशी से नहीं।


बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।। ५०।।
बुद्धियुक्त पुरुष पुण्य-पाप दोनों को इस लोक में ही त्याग देता है अर्थात उनसे लिपायमान नहीं होता। इससे बुद्धियोग के लिए ही चेष्टा कर। यह बुद्धिरूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात कर्म बंधन से छूटने का उपाय है।


सांख्यबुद्धि को उपलब्ध व्यक्ति पाप-पुण्य से निवृत्त हो जाता है। सांख्यबुद्धि को उपलब्ध व्यक्ति कर्म की कुशलता को उपलब्ध हो जाता है। और कर्म की कुशलता ही, कृष्ण कहते हैं, योग है।
इसमें बहुत-सी बातें हैं। एक तो, सांख्यबुद्धि। इसके पहले सूत्र में मैंने कहा कि बुद्धि का प्रयोग प्रवेश के लिए, बहिर्यात्रा के लिए नहीं, अंतर्यात्रा के लिए है। जिस दिन कोई व्यक्ति अपने विचार का उपयोग अंतर्यात्रा के लिए करता है, उस दिन सांख्य को उपलब्ध होता है। जिस दिन भीतर पहुंचता है, स्वयं में जब खड़ा हो जाता है--स्टैंडिंग इन वनसेल्फ--जब अपने में ही खड़ा हो जाता है, जब स्वयं में और स्वयं के खड़े होने में रत्तीभर का फासला नहीं होता; जब हम वहीं होते हैं जहां हमारा सब कुछ होना है, जब हम वही होते हैं जो हम हैं, जब हम ठीक अपने प्राणों की ज्योति के साथ एक होकर खड़े हो जाते हैं--इसे सांख्यबुद्धि कृष्ण कहते हैं।
मैंने पीछे आपसे कहा कि सांख्य परम ज्ञान है, दि सुप्रीम डॉक्ट्रिन। उससे बड़ा कोई सिद्धांत नहीं है। ह्यूबर्ट बेनॉयट ने एक किताब लिखी है। किताब का नाम है, दि सुप्रीम डॉक्ट्रिन। लेकिन उसे सांख्य का कोई पता नहीं है। उसने वह किताब झेन पर लिखी है। लेकिन जो भी लिखा है वह सांख्य है। परम सिद्धांत क्या है? सांख्य को परम ज्ञान कृष्ण कहते हैं, क्या बात है? ज्ञानों में श्रेष्ठतम ज्ञान सांख्य क्यों है?
दो तरह के ज्ञान हैं। एक ज्ञान, जिससे हम ज्ञेय को जानते हैं। और एक दूसरा ज्ञान, जिससे हम ज्ञाता को जानते हैं। एक ज्ञान, जिससे हम आब्जेक्ट को जानते हैं--वस्तु को, विषय को। और एक ज्ञान, जिससे हम सब्जेक्ट को जानते हैं, जानने वाले को ही जानते हैं जिससे। ज्ञान दो हैं। पहला ज्ञान साइंस बन जाता है, आब्जेक्टिव नालेज। दूसरा ज्ञान सांख्य बन जाता है, सब्जेक्टिव नालेज।
मैं आपको जान रहा हूं, यह भी एक जानना है। लेकिन मैं आपको कितना ही जानूं, तब भी पूरा न जान पाऊंगा। मैं आपको कितना ही जानूं, मेरा जानना राउंड अबाउट होगा; मैं आपके आस-पास घूमकर जानूंगा, आपके भीतर नहीं जा सकता। अगर मैं आपके शरीर की चीर-फाड़ भी कर लूं, तो भी बाहर ही जानूंगा, तो भी भीतर नहीं जा सकता। अगर मैं आपके मस्तिष्क के भी टुकड़े-टुकड़े कर लूं, तो भी बाहर ही रहूंगा, भीतर नहीं जा सकता। उन अर्थों में मैं आपके भीतर नहीं जा सकता, जिन अर्थों में आप अपने भीतर हैं। यह इंपासिबिलिटी है।
आपके पैर में दर्द हो रहा है। मैं समझ सकता हूं, क्या हो रहा है। मेरे पैर में भी दर्द हुआ है। नहीं हुआ है, तो मेरे सिर में दर्द हुआ है, तो भी मैं अनुमान कर सकता हूं कि आपको क्या हो रहा है। अगर कुछ भी नहीं हुआ है, तो भी आपके चेहरे को देखकर समझ सकता हूं कि कोई पीड़ा हो रही है। लेकिन सच में आपको क्या हो रहा है, इसे मैं बाहर से ही जान सकता हूं। वह इनफरेंस है, अनुमान है। मैं अनुमान कर रहा हूं कि ऐसा कुछ हो रहा है। लेकिन जैसे आप अपने दर्द को जान रहे हैं, वैसा जानने का मेरे लिए आपके बाहर से कोई भी उपाय नहीं है।
लीबनिज हुआ एक बहुत बड़ा गणितज्ञ और विचारक। उसने आदमी के लिए एक शब्द दिया है, मोनोड। वह कहता है, हर आदमी एक बंद मकान है, जिसमें कोई द्वार-दरवाजा-खिड़की भी नहीं है। मोनोड का मतलब है, विंडोलेस सेल--एक बंद मकान, जिसमें कोई खिड़की भी नहीं है, जिसमें से घुस जाओ और भीतर जाकर जान लो कि क्या हो रहा है!
आप प्रेम से भरे हैं। क्या करें कि हम आपके प्रेम को जान लें बाहर से? कोई उपाय नहीं है। कोई उपाय नहीं है। निर-उपाय है। हां, लेकिन कुछ-कुछ जान सकते हैं। पर वह जो जानना है, वह ठीक नहीं है कहना कि ज्ञान है।
तो बर्ट्रेंड रसेल ने दो शब्द बनाए हैं। एक को वह कहता है नालेज, और एक को कहता है एक्वेनटेंस। एक को वह कहता है ज्ञान, और एक को कहता है परिचय। तो दूसरे का हम ज्यादा से ज्यादा परिचय कर सकते हैं, एक्वेनटेंस कर सकते हैं; दूसरे का ज्ञान नहीं हो सकता। और दूसरे का जो परिचय है, उसमें भी इतने मीडियम हैं बीच में कि वह ठीक है, इसका कभी भरोसा नहीं हो सकता है।
आप वहां बैठे हैं बीस गज की दूरी पर। मैंने आपके चेहरे को कभी नहीं देखा, हालांकि अभी भी देख रहा हूं। फिर भी आपके चेहरे को नहीं देख रहा हूं। आपके पास से ये प्रकाश की किरणें, आपके चेहरे को लेकर मेरी आंखों के भीतर जा रही हैं। फिर आंखों के भीतर ये प्रकाश की किरणें मेरी आंखों के तंतुओं को हिला रही हैं। फिर वे आंखों के तंतु मेरे भीतर जाकर मस्तिष्क के किसी रासायनिक द्रव्य में कुछ कर रहे हैं, जिसको अभी वैज्ञानिक भी नहीं कहते कि क्या कर रहे हैं। वे कहते हैं, समथिंग। अभी पक्का नहीं होता कि वे वहां क्या कर रहे हैं! उनके कुछ करने से मुझे आप दिखाई पड़ रहे हैं। पता नहीं, आप वहां हैं भी या नहीं। क्योंकि सपने में भी आप मुझे दिखाई पड़ते हैं और नहीं होते हैं; सुबह पाता हूं, नहीं हैं। अभी आप दिखाई पड़ रहे हैं, पता नहीं, हैं या नहीं! क्योंकि कौन कह सकता है कि जो मैं देख रहा हूं, वह सपना नहीं है! कौन कह सकता है कि जो मैं देख रहा हूं, वह सपना नहीं है!
फिर पीलिया का मरीज है, उसे सब चीजें पीली दिखाई पड़ती हैं। कलर ब्लाइंड लोग होते हैं--दस में से एक होता है, यहां भी कई लोग होंगे--उनको खुद भी पता नहीं होता। कुछ लोग रंगों के प्रति अंधे होते हैं। कोई किसी रंग के प्रति अंधा होता है। पता नहीं चलता, बहुत मुश्किल है पता चलना। क्योंकि अभाव का पता चलना बहुत मुश्किल है।
बर्नार्ड शा हरे रंग के प्रति अंधा था--साठ साल की उम्र में पता चला। साठ साल तक उसे पता ही नहीं था कि हरा रंग उसे दिखाई ही नहीं पड़ता! उसे हरा और पीला एक-सा दिखाई पड़ता था। कभी कोई मौका ही नहीं आया कि जिसमें जांच-पड़ताल हो जाती। वह तो साठवीं वर्षगांठ पर किसी ने एक सूट उसे भेंट भेजा। हरे रंग का सूट था। टाई भेजना भूल गया होगा। तो बर्नार्ड शा न सोचा कि टाई भी खरीद लाएं, तो पूरा हो जाए। तो बाजार में टाई खरीदने गया; पीले रंग की टाई खरीद लाया।
सेक्रेटरी ने रास्ते में कहा कि आप यह क्या कर रहे हैं, बड़ी अजीब मालूम पड़ेगी! पीले रंग की टाई और हरे रंग के कोट पर? बर्नार्ड शा ने कहा, पीला और हरा! क्या दोनों बिलकुल मैच नहीं करते? दोनों बिलकुल एक जैसे नहीं हैं? उसने कहा कि आप मजाक तो नहीं कर रहे हैं? बर्नार्ड शा आदमी मजाक करने वाला था। पर उसने कहा कि नहीं, मजाक नहीं कर रहा। तुम क्या कह रहे हो! ये दोनों अलग हैं? ये दोनों एक ही रंग हैं! तब आंख की जांच करवाई, तो पता चला कि उसकी आंख को हरा रंग दिखाई ही नहीं पड़ता। वह ब्लाइंड है हरे रंग के प्रति।
तो जो मुझे दिखाई पड़ रहा है, वह सच में है? वैसा ही है जैसा दिखाई पड़ रहा है? कुछ पक्का नहीं है। जो हमें दिखाई पड़ रहा है, वह सिर्फ एज़म्शन है। हम मानकर चल सकते हैं कि है। एक बड़ी दूरबीन ले आएं, एक बड़ी खुर्दबीन ले आएं और आपके चेहरे पर लगाकर देखें।
ऐसी मजाक मैंने सुनी है। एक वैज्ञानिक ने एक बहुत सुंदर स्त्री से विवाह किया। और जाकर अपने मित्रों से, वैज्ञानिकों से कहा कि बहुत सुंदर स्त्री से प्रेम किया है। उन वैज्ञानिकों ने कहा, ठीक से देख भी लिया है? खुर्दबीन लगाई थी कि नहीं? क्योंकि भरोसा क्या है! उसने कहा, क्या पागलपन की बात करते हो? कहीं स्त्री के सौंदर्य को खुर्दबीन लगाकर देखा जाता है! उन्होंने कहा, तुम ले आना अपनी सुंदर स्त्री को।
मित्र, सिर्फ मजाक में, मिलाने ले आया। उन सबने एक बड़ी खुर्दबीन रखी, सुंदर स्त्री को दूसरी तरफ बिठाया। उसके पति को बुलाया कि जरा यहां से आकर देखो। देखा तो एक चीख निकल गई उसके मुंह से। क्योंकि उस तरफ तो खाई-खड्डे के सिवाय कुछ दिखाई नहीं पड़ता था। स्त्री के चेहरे पर इतने खाई-खड्डे!
लेकिन खुर्दबीन चाहिए; आदमी के चेहरे पर भी हैं। बड़ी खुर्दबीन से जब देखो तो ऐसा लगता है कि खाई-पहाड़, खाई-पहाड़, ऐसा दिखाई पड़ता है। सत्य क्या है? जो खुर्दबीन से दिखता है वह? या जो खाली आंख से दिखता है वह? अगर सत्य ही होगा, तो खुर्दबीन वाला ही ज्यादा होना चाहिए, खाली आंख की बजाय। उसको वैज्ञानिक बड़े इंतजाम से बनाते हैं।
जो हमें दिखाई पड़ रहा है, वह सिर्फ एक्वेनटेंस है, कामचलाऊ, यूटिलिटेरियन! उपयोगी है, सत्य नहीं है। इसलिए दूसरे से हम सिर्फ परिचित ही हो सकते हैं। उस परिचय को कभी ज्ञान मत समझ लेना।
इसलिए कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, परम-ज्ञान है सांख्य। सांख्य का मतलब है, दूसरे को नहीं, उसे जानो जो तुम हो। क्योंकि उसे ही तुम भीतर से, इंटिमेटली, आंतरिकता से, गहरे में जान सकते हो। उसको बाहर से जानने की जरूरत नहीं है। उसमें तुम उतर सकते हो, डूब सकते हो, एक हो सकते हो।
इसलिए इस मुल्क में, हमारे मुल्क में तो हम ज्ञान कहते ही सिर्फ आत्मज्ञान को हैं। बाकी सब परिचय है। साइंस ज्ञान नहीं है इन अर्थों में। साइंस का जो शब्द है अंग्रेजी में, उसका मतलब होता है ज्ञान, उसका मतलब भी टु नो है। साइंस का मतलब अंग्रेजी में होता है ज्ञान। लेकिन हम अपने मुल्क में साइंस को ज्ञान नहीं कहते, हम उसे विज्ञान कहते हैं; हम कहते हैं, विशेष ज्ञान। ज्ञान नहीं, स्पेसिफिक नालेज। ज्ञान नहीं, क्योंकि ज्ञान तो है वह जो स्वयं को जानता है। यह विशेष ज्ञान है, जिससे जिंदगी में काम चलता है। एक स्पेसिफिक नालेज है, एक्वेनटेंस है, परिचय है।
इसलिए हमारा विज्ञान शब्द अंग्रेजी के साइंस शब्द से ज्यादा मौजूं है, वह ठीक है। क्योंकि वह एक--वि--विशेषता जोड़कर यह कह देता है कि ज्ञान नहीं है, एक तरह का ज्ञान है। एक तरह का ज्ञान है, ए टाइप आफ नालेज। लेकिन सच में ज्ञान तो एक ही है। और वह है उसे जानना, जो सबको जानता है।
यह भी स्मरण रखना जरूरी है कि जब मैं उसे ही नहीं जानता, जो सबको जानता है, तो मैं सबको कैसे जान सकता हूं! जब मैं अपने को ही नहीं जानता कि मैं कौन हूं, तो मैं आपको कैसे जान सकता हूं कि आप कौन हैं! अभी जब मैंने इस निकटतम सत्य को नहीं जाना--दि मोस्ट इंटिमेट, दि नियरेस्ट--जिसमें इंचभर का फासला नहीं है, उस तक को भी नहीं जान पाया, तो आप तो मुझसे बहुत दूर हैं, अनंत दूरी पर हैं। और अनंत दूरी पर हैं। कितने ही पास बैठ जाएं, घुटने से घुटना लगा लें, छाती से छाती लगा लें, दूरी अनंत है--इनफिनिट इज़ दि डिस्टेंस। कितने ही करीब बैठ जाएं, दूरी अनंत है। क्योंकि भीतर प्रवेश नहीं हो सकता; फासला बहुत है, उसे पूरा नहीं किया जा सकता। सभी प्रेमियों की तकलीफ यही है। प्रेम की पीड़ा ही यही है कि जिसको पास लेना चाहते हैं, न ले पाएं, तो मन दुखता रहता है कि पास नहीं ले पाए। और पास ले लेते हैं, तो मन दुखता है कि पास तो आ गए, लेकिन फिर भी पास कहां आ पाए! दूरी बनी ही रही। वे प्रेमी भी दुखी होते हैं, जो दूर रह जाते हैं; और उनसे भी ज्यादा दुखी वे होते हैं, जो निकट आ जाते हैं। क्योंकि कम से कम दूर रहने में एक भरोसा तो रहता है कि अगर पास आ जाते, तो आनंद आ जाता। पास आकर पता चलता है कि डिसइलूजनमेंट हुआ। पास आ ही नहीं सकते। तीस साल पति-पत्नी साथ रहें, पास आते हैं? विवाह के दिन से दूरी रोज बड़ी होती है, कम नहीं होती। क्योंकि जैसे-जैसे समझ आती है, वैसे-वैसे पता चलता है, पास आने का कोई उपाय नहीं मालूम होता।
हर आदमी एक मोनोड है--अपने में बंद, आईलैंड; कहीं से खुलता ही नहीं। जितने निकट रहते हैं, उतना ही पता चलता है कि परिचय नहीं है, अपरिचित हैं बिलकुल। कोई पहचान नहीं हो पाई। मरते दम तक भी पहचान नहीं हो पाती। असल में जो आदमी दूसरे की पहचान को निकला है अपने को बिना जाने, वह गलत है; वह गलत यात्रा कर रहा है, जो कभी सफल नहीं हो सकती।
सांख्य स्वयं को जानने वाला ज्ञान है। इसलिए मैं कहता हूं, दि सुप्रीम साइंस, परम ज्ञान। और कृष्ण कहते हैं, धनंजय, अगर तू इस परम ज्ञान को उपलब्ध होता है, तो योग सध गया समझ; फिर कुछ और साधने को नहीं बचता। सब सध गया, जिसने स्वयं को जाना। सब मिल गया, जिसने स्वयं को पाया। सब खुल गया, जिसने स्वयं को खोला। तो अर्जुन से वे कहते हैं, सब मिल जाता है; सब योग सांख्यबुद्धि को उपलब्ध व्यक्ति को उपलब्ध है। और योग कर्म की कुशलता बन जाती है।
योग कर्म की कुशलता क्यों है? व्हाय? क्यों? क्यों कहते हैं, योग कर्म की कुशलता है? क्योंकि हम तो योगियों को सिर्फ कर्म से भागते देखते हैं। कृष्ण बड़ी उलटी बात कहते हैं। असल में उलटी बात कहने के लिए कृष्ण जैसी हिम्मत ही चाहिए, नहीं तो उलटी बात कहना बहुत मुश्किल है। लोग सीधी-सीधी बातें कहते रहते हैं। सीधी बातें अक्सर गलत होती हैं। अक्सर गलत होती हैं। क्योंकि सीधी बातें सभी लोग मानते हैं। और सभी लोग सत्य को नहीं मानते हैं। सभी लोग, जो कनवीनिएंट है, सुविधापूर्ण है, उसको मानते हैं।
कृष्ण बड़ी उलटी बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं , योगी कर्म की कुशलता को उपलब्ध हो जाता है। योग ही कर्म की कुशलता है।
हम तो योगी को भागते देखते हैं। एक ही कुशलता देखते हैं--भागने की। एक ही एफिशिएंसी है उसके पास, कि वह एकदम रफू हो जाता है कहीं से भी। रफू शब्द तो आप समझते हैं न? कंबल में या शाल में छेद हो जाता है न। तो उसको रफू करने वाला ठीक कर देता है। छेद एकदम रफू हो जाता है। रफू मतलब, पता ही नहीं चलता कि कहां है। ऐसे ही संन्यासी रफू होना जानता है। बस एक ही कुशलता है--रफू होने की। और तो कोई कुशलता संन्यासी में, योगी में दिखाई नहीं पड़ती।
तो फिर ये कृष्ण क्या कहते हैं? ये किस योगी की बात कर रहे हैं? निश्चित ही, ये जिस योगी की बात कर रहे हैं, वह पैदा नहीं हो पाया है। जिस योगी की ये बात कर रहे हैं, वह योगी चूक गया।
असल में योगी तो वह पैदा हो पाया है, जो अर्जुन को मानता है, कृष्ण को नहीं। अर्जुन भी रफू होने के लिए बड़ी उत्सुकता दिखला रहे हैं। वह भी कहते हैं, रफू करो भगवान! कहीं से रास्ता दे दो, मैं निकल जाऊं। फिर लौटकर न देखूं। बड़े उपद्रव में उलझाया हुआ है। यह सब क्या देख रहा हूं! मुझे बाहर निकलने का रास्ता बता दो।
कृष्ण उसे बाहर ले जाने का उपाय नहीं, और भी अपने भीतर ले जाने का उपाय बता रहे हैं। इस युद्ध के तो बाहर ले जा नहीं रहे। वह इस युद्ध के भी बाहर जाना चाहता है। इस युद्ध के तो भीतर ही खड़ा रखे हुए हैं, और उससे उलटा कह रहे हैं कि जरा और भीतर चल--युद्ध से भी भीतर, अपने भीतर चल। और अगर तू अपने भीतर चला जाता है, तो फिर भागने की कोई जरूरत नहीं। फिर तू जो भी करेगा, वही कुशल हो जाएगा--तू जो भी करेगा, वही।
क्योंकि जो व्यक्ति भीतर शांत है, और जिसके भीतर का दीया जल गया, और जिसके भीतर प्रकाश है, और जिसके भीतर मृत्यु न रही, और जिसके भीतर अहंकार न रहा, और जिसके भीतर असंतुलन न रहा, और जिसके भीतर सब समता हो गई, और जिसके भीतर सब ठहर गया; सब मौन, सब शांत हो गया--उस व्यक्ति के कर्म में कुशलता न होगी, तो किसके होगी?
अशांत है हृदय, तो कर्म कैसे कुशल हो सकता है? कंपता है, डोलता है मन, तो हाथ भी डोलता है। कंपता है, डोलता है चित्त, तो कर्म भी डोलता है। सब विकृत हो जाता है। क्योंकि भीतर ही सब डोल रहा है, भीतर ही कुछ थिर नहीं है। शराबी के पैर जैसे कंप रहे, ऐसा भीतर सब कंप रहा है। बाहर भी सब कंप जाता है। कंप जाता है, अकुशल हो जाता है।
भीतर जब सब शांत है, सब मौन है, तो अकुशलता आएगी कहां से? अकुशलता आती है--भीतर की अशांति, भीतर के तनाव, टेंशन, एंग्जाइटी, भीतर की चिंता, भीतर के विषाद, भीतर गड़े हैं जो कांटे दुख के, पीड़ा के, चिंता के--वे सब कंपा डालते हैं। उनसे जो आह उठती है, वह बाहर सब अकुशल कर जाती है। लेकिन भीतर अगर वीणा बजने लगे मौन की, समता की, तो अकुशलता के आने का उपाय कहां है? बाहर सब कुशल हो जाता है। फिर तब ऐसा आदमी जो भी करता है, वह मिडास जैसा हो जाता है।
कहानी है यूनान में कि मिडास जो भी छूता, वह सोने का हो जाता। जो भी छू लेता, वह सोने का हो जाता। मिडास तो बड़ी मुश्किल में पड़ा इससे, क्योंकि सोना पास में न हो तो ही ठीक। थोड़ा हो, तो भी चल जाए। मिडास जैसा हो जाए, तो मुश्किल हो गई। क्योंकि सोना न तो खाया जा सकता, न पीया जा सकता। पानी छुए मिडास, तो सोना हो जाए; खाना छुए, तो सोना हो जाए। पत्नी उससे दूर भागे, बच्चे उससे दूर बचें। सभी सोने वालों की पत्नियां और बच्चे दूर भागते हैं। छुएं, तो सोना हो जाएं। मिडास का टच--पत्नी को अगर गले लगा ले प्रेम से, तो वह मरी, सोना हो गई।
तो जहां भी सोने का संस्पर्श है, वहां प्रेम मर जाता है; सब सोना हो जाता है, सब पैसा हो जाता है। मिडास तो बड़ी मुश्किल में पड़ा। क्योंकि वह जो छूता था, वह जीवित भी हो, तो मुर्दा सोना हो जाए।
लेकिन मैं यह कह रहा हूं कि कृष्ण एक और तरह की कीमिया, और तरह की अल्केमी बता रहे हैं। वे यह बता रहे हैं कि भीतर अगर समता है, और भीतर अगर सांख्य है, और भीतर अगर सब मौन और शांत हो गया है, तो हाथ जो भी छूते हैं, वह कुशल हो जाता है; जो भी करते हैं, वह कुशल हो जाता है। फिर जो होता है, वह सभी सफल है। सफल ही नहीं, कहना चाहिए, सुफल भी है।
सुफल और बात है। सफल तो चोर भी होता है, लेकिन सुफल नहीं होता। सफल का तो इतना ही मतलब है कि काम करते हैं, फल लग जाता है। लेकिन कड़वा लगता है, जहरीला भी लगता है। सुफल का मतलब है, अमृत का फल लगता है। भीतर जब सब ठीक है, तो बाहर सब ठीक हो जाता है। इसे कृष्ण ने योग की कुशलता कहा है।
और यह पृथ्वी तब तक दीनता, दुख और पीड़ा से भरी रहेगी, जब तक अयोगी कुशलता की कोशिश कर रहे हैं कर्म की; और योगी पलायन की कोशिश कर रहे हैं। जब तक योगी भागेंगे और अयोगी जमकर खड़े रहेंगे, तब तक यह दुनिया उपद्रव बनी रहे, तो आश्चर्य नहीं है। इससे उलटा हो, तो ज्यादा स्वागत योग्य है। अयोगी भागें तो भाग जाएं, योगी टिकें और खड़े हों और जीवन के युद्ध को स्वीकार करें।
जीवन के युद्ध में नहीं है प्रश्न। युद्ध भीतर है, वह है कष्ट। द्वंद्व भीतर है, वह है कष्ट। वहां निर्द्वंद्वता, वहां मौन, वहां शांति, तो बाहर सब कुशल हो जाता है।
एक श्लोक और।


कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्य नामयम्।। ५१।।
क्योंकि बुद्धियोगयुक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर, जन्मरूप बंधन से छूटे हुए निर्दोष, अर्थात अमृतमय परमपद को प्राप्त होते हैं।


जो भी ऐसे ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है, जो भी ऐसी निष्ठा को, ऐसी श्रद्धा को, ऐसे अनुभव को उपलब्ध हो जाता है जहां द्वंद्व नहीं है, वैसा व्यक्ति जन्म के, मृत्यु के घेरे से मुक्त होकर परमपद को पा लेता है।
इसे थोड़ा-सा खोलना पड़ेगा।
एक तो, जन्म-मृत्यु से मुक्त हो जाता है, इसका ऐसा मतलब नहीं है कि अभी जन्म-मृत्यु में है। है तो अभी भी नहीं; ऐसा प्रतीत करता है कि है। जन्म-मृत्यु से मुक्त हो जाता है, इसका मतलब यह नहीं कि पहले बंधा था और अब मुक्त हो जाता है। नहीं, ऐसा बंधा तो पहले भी नहीं था, लेकिन मानता था कि बंधा हूं। और अब जानता है कि नहीं बंधा हूं। पहला तो यह खयाल ले लेना जरूरी है। जो घटना घटती है जन्म और मृत्यु से मुक्ति की, वह वास्तविक नहीं है, क्योंकि जन्म और मृत्यु ही वास्तविक नहीं हैं। जो घटना घटती है, वह एक असत्य का, एक अज्ञान का निराकरण है।
जैसे कि मैं एक गणित करता हूं, दो और दो पांच जोड़ लेता हूं। मैं कितना ही दो और दो पांच जोडूं, दो और दो पांच होते नहीं हैं। जब मैं दो और दो पांच जोड़ रहा हूं, तब भी दो और दो चार ही हैं। यानी मेरे जोड़ने से कोई दो और दो पांच नहीं हो जाते। एक कमरे में कुर्सियां रखी हैं दो और दो, और मैं जोड़कर बाहर आता हूं और कहता हूं कि पांच हैं, तो भी कमरे में पांच कुर्सियां नहीं हो जातीं। कमरे में कुर्सियां चार ही होती हैं। भूल जोड़ की है। जोड़ की भूल, अस्तित्व की भूल नहीं बनती।
तो सांख्य का कहना है कि जो गलती है, वह अस्तित्व में नहीं है। जो गलती है, वह हमारी समझ में है। वह जोड़ की भूल है। ऐसा नहीं है कि जन्म और मृत्यु हैं। ऐसा हमें दिखाई पड़ रहा है कि हैं। हमारे दिखाई पड़ने से हो नहीं जातीं।
फिर कल मुझे पता चलता है कि नहीं, दो और दो पांच नहीं होते, दो और दो चार होते हैं। मैं फिर लौटकर कमरे में जाता हूं और मैं देखता हूं कि ठीक, दो और दो चार ही हैं। और मैं बाहर आकर कहता हूं कि जब गणित ठीक आ जाता है किसी को, तो कुर्सियां पांच नहीं रह जातीं, चार हो जाती हैं। ऐसा ही--ठीक ऐसा ही--ऐसा ही समझना है। जो भूल है, वह ज्ञान की भूल है, इरर आफ नोइंग। वह भूल एक्झिस्टेंशियल नहीं है, अस्तित्वगत नहीं है। क्योंकि अस्तित्वगत अगर भूल हो, तो सिर्फ जानने से नहीं मिट सकती है।
अगर कुर्सियां पांच ही हो गई हों, तो फिर मैं दो और दो चार कर लूं, इससे चार नहीं हो जातीं। कुर्सियां दो और दो चार होने से चार तभी हो सकती हैं, जब वे चार रही ही हों उस समय भी, जब मैं पांच गिनता था। वह मेरे गिनने की भूल थी।
जीवन और मरण आत्मा का होता नहीं, प्रतीत होता है, एपियरेंस है, दिखाई पड़ता है, गणित की भूल है। मैंने पीछे आपसे बात कही, इसे थोड़ा और आगे ले जाना जरूरी है। हम दूसरे को मरते देख लेते हैं, तो सोचते हैं, मैं भी मरूंगा। यह इमिटेटिव मिसअंडरस्टैंडिंग है। और चूंकि जिंदगी में हम सब इमिटेशन से सीखते हैं, नकल से सीखते हैं, तो मृत्यु भी नकल से सीख लेते हैं। यह नकल है। नकल चोरी है बिलकुल। जैसे कि बच्चे स्कूल में दूसरे की कापी में से उतारकर उत्तर लिख लेते हैं। उनको हम चोर कहते हैं। हम सब चोर हैं, जिंदगी में हमारे अधिकतम अनुभव चोरी के हैं। मृत्यु जैसा बड़ा अनुभव भी चुराया हुआ है। किसी को मरते देखा, कहा कि अब हम भी मरेंगे।
आपने अपने को कभी मरते देखा है? किसी को मरते देखा; सोचा, हम भी मरेंगे। नकल कर ली। फिर रोज कोई न कोई मर रहा है--एक मरा, दो मरे, तीन मरे, चार मरे, पांच मरे। फिर पता चला कि सबको मरना ही पड़ता है। पहले जो भी हुए, सब मरे। तो फिर पक्का होता जाता है अनुमान, गणित तय होता जाता है कि नहीं, मरना ही है।
मृत्यु है, यह अनुभूत सत्य नहीं है। यह एक्सपीरिएंस्ड ट्रुथ नहीं है कि मृत्यु है। यह अनुमानजन्य, इनफरेंशियल है। यह हमने चारों तरफ देख लिया कि ऐसा होता है, इसलिए मृत्यु है।
आपने अपना जन्म देखा? यह बड़े मजे की बात है, आप जन्मे और आपको अपने जन्म का भी पता नहीं? छोड़ें, मृत्यु अभी आने वाली है, भविष्य में है, इसलिए भविष्य का अभी हम कैसे पक्का करें! लेकिन जन्म तो कम से कम अतीत में है। आप जन्मे हैं। आपको जन्म का भी पता नहीं है कि आप जन्मे हैं! बड़ी मजेदार बात है। मृत्यु का न पता हो, समझ में आता है। क्योंकि मृत्यु अभी भविष्य है, पता नहीं होगी कि नहीं होगी। लेकिन जन्म तो हो चुका है। पर आपको जन्म का भी कोई पता नहीं। और आप ही जन्मे और आपको ही अपने जन्म का पता नहीं है!
असल में आपको अपना ही पता नहीं है, जन्म वगैरह का पता कैसे हो! इतनी बड़ी घटना जन्म की घट गई, और आपको पता नहीं है! असल में आपको जीवन की किसी घटना का--गहरी घटना का--कोई भी पता नहीं है। आपको तो जो सिखा दिया गया है, वही पता है। स्कूल में गणित सिखा दिया गया, मां-बाप ने भाषा सिखा दी, फिर धर्म-मंदिर में धर्म की किताब सिखा दी, फिर किसी ने हिंदू-मुसलमान सिखा दिया, फिर किसी ने कुछ और सिखा दिया--वह सब सीखकर खड़े हो गए हैं। मगर आपको जिंदगी का कुछ भी गहरा अनुभव नहीं है, जन्म तक का कोई अनुभव नहीं है!
तो ध्यान रहे, जब जन्म से गुजरकर आपको जन्म का अनुभव नहीं मिला, तो पक्का समझना कि मृत्यु से भी आप गुजर जाओगे और आपको अनुभव नहीं मिलेगा। क्योंकि वह भी इतनी ही गहरी घटना है, जितनी जन्म है। वह दरवाजा वही है; जन्म से आप आए थे, मृत्यु से आप लौटेंगे--दि सेम डोर। दरवाजा अलग नहीं है; दरवाजा वही है। इधर आए थे, उधर जाएंगे। और दरवाजे को देखने की आपकी आदत नहीं है। आंख बंद करके निकल जाते हैं। अभी निकल आए हैं आंख बंद करके, अब फिर आंख बंद करके निकल जाएंगे।
तो ये जन्म और मृत्यु...जन्म भी, लोग हमसे कहते हैं कि आपका हुआ। वह भी कथन है। मृत्यु भी हम देखते हैं कि होती है, वह अनुमान है। जन्म किसी ने बताया, मृत्यु का अनुमान हमने किया है। लेकिन न हमें जन्म का कोई पता है, न हमें मृत्यु का कोई पता है। तो ये जन्म और मृत्यु होते हैं, ये बड़े इमिटेटिव कनक्लूजंस हैं; ये नकल से ली गई निष्पत्तियां हैं।
सांख्य कहता है कि काश! तुम एक बार जन्म लो जानते हुए। काश! तुम एक बार मरो जानते हुए। फिर तुम दुबारा न कहोगे कि जन्म और मरण होता है। और अभी मृत्यु को तो देर है, और जन्म हो चुका, लेकिन जीवित अभी आप हैं। सांख्य कहता है, अगर तुम जीवित रहो जानते हुए, तो भी छुटकारा हो जाएगा। छुटकारे का मतलब ही इतना है कि वह जो भ्रांति हो रही है, विचार से जो निष्कर्ष लिया जा रहा है, वह गलत सिद्ध होता है।
तो जो सांख्यबुद्धि को उपलब्ध हो जाते हैं, कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, वे जन्म-मृत्यु से मुक्त हो जाते हैं। ठीक होता कहना कि वे कहते कि वे जन्म-मृत्यु की गलती से मुक्त हो जाते हैं। परमपद को उपलब्ध होते हैं।
वह परमपद कहां है? जब भी हम परमपद की बात सोचते हैं, तो कहीं ऊपर आकाश में खयाल आता है। क्योंकि पद जो हैं हमारे, वे जमीन से जितने ऊंचे होते जाते हैं, उतने बड़े होते जाते हैं।
पट्टाभि सीतारमैया ने एक संस्मरण लिखा है। लिखा है कि मद्रास में एक मजिस्ट्रेट था अंग्रेज। वह अपनी अदालत में एक ही कुर्सी रखता था, खुद के बैठने के लिए। बाकी कुर्सियां थीं, लेकिन वह बगल के कमरे में रखता था। नंबर डाल रखे थे। क्योंकि वह कहता था, आदमी देखकर कुर्सी देनी चाहिए। तो एक नंबर का एक मोढ़ा था छोटा-सा, बिलकुल गरीब आदमी आ जाए--बहुत गरीब आ जाए, तब तो खड़े-खड़े चल जाए--बाकी थोड़ा, जिसको एकदम गरीब न भी कहा जा सके, उसको नंबर एक का मोढ़ा। फिर नंबर दो का मोढ़ा, फिर नंबर तीन की कुर्सी, फिर चार की--ऐसे सात नंबर की कुर्सियां थीं।
एक दिन एक आदमी आया--पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा है--कि एक दिन बड़ी मुश्किल हो गई। एक बड़ा धोखे से भरा आदमी आ गया। आदमी आया तो मजिस्ट्रेट ने देखा उसको, तो सोचा कि खड़े-खड़े चल जाएगा।
सोचना पड़ता है, कौन आदमी आया! आपको भी सोचना पड़ता है, कहां बिठाएं! क्या करें! क्या न करें! आदमी देखकर जगह बनानी पड़ती है। आदमी के लिए कोई जगह नहीं बनाता; जैसा दिखाई पड़ता है, उसके लिए जगह बनानी पड़ती है।
पर जैसे ही पास आया और जैसे ही उसने ऊपर आंख उठाई, तो देखा कि एक कीमती चश्मा लगाए हुए है। उसने कहा कि जाओ, नंबर एक; चपरासी को कहा कि नंबर एक। चपरासी भीतर भागा गया। वह बूढ़ा पास आकर खड़ा हुआ। जब उसने सिर ऊंचा किया--झुकी है कमर उसकी--तो देखा, गले में सोने की चेन है। तब तक मोढ़ा लिए चपरासी आता था। उसने कहा, रुक-रुक! नंबर दो ला। तब तक उस बूढ़े ने कोट उठाकर घड़ी देखी। तब तक चपरासी नंबर दो लाता था। मजिस्ट्रेट ने कहा, रुक-रुक...।
उस बूढ़े ने कहा, मैं बूढ़ा आदमी हूं, जो आखिरी नंबर हो, वही बुला लो। क्योंकि अभी और भी बहुत बातें हैं। तुम्हें शायद पता नहीं कि सरकार ने मुझे राय बहादुर की पदवी दी है। और तुम्हें शायद यह भी पता नहीं कि मैं यहां आया ही इसलिए हूं कि कुछ लाख रुपया सरकार को दान करना चाहता हूं। नंबर आखिरी कुर्सी जो हो, तू बुला ले। बार-बार चपरासी को दिक्कत दे रहे हो। और मैं बूढ़ा आदमी हूं।
तो हमारे पद जो हैं, वे जमीन से ऊंचे उठते हैं। ऐसा ऊपर उठते जाते हैं सिंहासन। तो उसी सिंहासन के आखिरी छोर पर कहीं आकाश में परमपद हमारे खयाल में है, कि परमपद जो है, वह कहीं समव्हेअर अप, ऊपर है।
जिस परमपद की कृष्ण बात कर रहे हैं, वह समव्हेअर इन-- ऊपर की बात नहीं है वह; वह कहीं भीतर--उस जगह, जिसके और भीतर नहीं जाया जा सकता; उस जगह, जो आंतरिकता का अंत है। जो इनरमोस्ट कोर, वह जो भीतरी से भीतरी जगह है, वह जो भीतरी से भीतरी मंदिर है चेतना का, वहीं परमपद है। सांख्य को उपलब्ध व्यक्ति उस परम मंदिर में प्रविष्ट हो जाते हैं।
शेष फिर कल।


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