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गुरुवार, 12 अक्टूबर 2017

गीता दर्शन-(भाग-03)-प्रवचन-055



गीता दर्शन-(भाग-03)-प्रवचन-055 

अध्याय ५
आठवां प्रवचन
तीन सूत्र--आत्म-ज्ञान के लिए

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्।। १६।।
परंतु जिनका वह अंतःकरण का अज्ञान, आत्मज्ञान द्वारा नाश हो गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस सच्चिदानंदघन परमात्मा को प्रकाशता है।

जगत एक रहस्य है। रहस्य इसलिए कि इस जगत में अंधकार, जो कि नहीं है, प्रकाश को ढंक लेता है, जो कि है। इस जगत में मृत्यु, जो कि नहीं है, जीवन को धोखा दे देती है, कि है।
जीवन है, और मृत्यु नहीं है। प्रकाश है, और अंधकार नहीं है। फिर भी, अंधकार प्रकाश को ढंके हुए मालूम पड़ता है। फिर भी रोज-रोज जीवन मरता हुआ दिखाई पड़ता है। इसलिए कहता हूं, जीवन एक रहस्य, एक मिस्ट्री है। और उस रहस्य का मूल इसी पहेली में है।

रोज देखते हैं अंधेरे को आप। कभी सोचा भी नहीं होगा कि अंधेरे का कोई अस्तित्व नहीं है। अंधेरा एक्झिस्टेंशियल नहीं है। फिर भी होता है। रास्ता भटक जाते हैं अंधेरे में। गङ्ढे में गिर सकते हैं अंधेरे में। चोर लूट ले सकते हैं अंधेरे में। छुरा भोंका जा सकता है अंधेरे में। अंधेरे में सब कुछ हो सकता है--और अंधेरा नहीं है! टकरा सकते हैं, सिर फूट सकता है--और अंधेरा नहीं है। पर अंधेरे में यह सब हो सकता है।
जब मैं कहता हूं, अंधेरा नहीं है, तो थोड़ा ठीक से समझ लें।
प्रकाश तो है, इसलिए प्रकाश को बुझा सकते हैं, जला सकते हैं। लेकिन अंधेरे को बुझा भी नहीं सकते, जला भी नहीं सकते। चाहें कि दुश्मन के घर पर अंधेरा फेंक दें, तो फेंक भी नहीं सकते। कभी आपने सोचा है कि अंधेरे के साथ कुछ भी करना संभव नहीं है!
और जब रात आप चाहते हैं कि कमरे में अंधेरा भर जाए, तो आप अंधेरे को नहीं बुलाते, केवल प्रकाश को बुझाते हैं। प्रकाश बुझा नहीं कि अंधेरा है। और जब सुबह आप अंधेरे को अलग करना चाहते हैं, या रात अंधेरे को अलग करना चाहते हैं, तो अंधेरे को धक्का नहीं देते, प्रकाश को जलाते हैं। और प्रकाश जला कि अंधेरा नहीं है।
अंधेरा सिर्फ प्रकाश की अनुपस्थिति है, गैर-मौजूदगी है, एब्सेंस है। अंधेरे का अपना कोई विधायक अस्तित्व नहीं है। अस्तित्व तो प्रकाश का है। या प्रकाश का अस्तित्व नहीं है। जहां प्रकाश नहीं है, वहां अंधेरा मालूम पड़ता है। अंधेरा कोई वस्तु नहीं है। अंधेरे में कोई थिंगहुड, कोई वस्तुगत पदार्थ अंधेरे में नहीं है। फिर भी अंधेरा है तो।
ठीक ऐसे ही आत्म-ज्ञान है। और आत्म-अज्ञान का कोई अस्तित्व नहीं है। लेकिन फिर भी आत्म-अज्ञान से हम भरे हुए हैं। और आत्म-अज्ञान में चिंतित हैं, पीड़ित हैं, परेशान हैं, दुखी हैं, नर्क भोग रहे हैं। जब कि आत्म-अज्ञान का वैसा ही कोई अस्तित्व नहीं है, जैसे अंधेरे का कोई अस्तित्व नहीं है।
आत्मा स्वयं ज्ञान है, इसलिए आत्म-अज्ञान का कोई अस्तित्व हो नहीं सकता। आत्मा ही ज्ञान है। ज्ञान आत्मा का आंतरिक स्वभाव है। इसलिए आत्मा बिना ज्ञान के कभी हो नहीं सकती। और अगर आत्मा बिना ज्ञान के होगी, तो पदार्थ में और आत्मा में फर्क क्या होगा? आत्मा का अर्थ ही यह है कि जो ज्ञान है। आत्मा कभी भी ज्ञान के बिना नहीं हो सकती। ज्ञान और आत्मा पर्यायवाची हैं, सिनानिम। एक ही मतलब है दोनों बात का।
फिर आत्म-अज्ञान का क्या मतलब होगा? ये शब्द तो विरोधी हैं! आत्म-अज्ञान हो ही नहीं सकता। जहां आत्मा है, वहां अज्ञान कैसे होगा? क्योंकि आत्मा ज्ञान है। लेकिन फिर भी आत्म-अज्ञान है। क्या, हुआ क्या है? जो ज्ञान है आत्मा, वह किस चीज से ढंक गई है?
कृष्ण कहते हैं, संसार माया से ढंका; आत्मा आत्म-अज्ञान से ढंकी; ज्ञान अविद्या से ढंका।
क्या इसका अर्थ है? क्या समझें इससे?
इससे सिर्फ एक बात समझ लेने जैसी है। आत्मा तो ज्ञान है, लेकिन ज्ञान यदि चाहे तो सो सकता है; ज्ञान यदि चाहे तो जाग सकता है। सोया हुआ ज्ञान भी ज्ञान है; जागा हुआ ज्ञान भी ज्ञान है। लेकिन सोए हुए ज्ञान के चारों तरफ अज्ञान इकट्ठा हो जाता है। सोया हुआ ज्ञान ऐसे है, जैसे कि आपके खीसे में लाइटर पड़ा हुआ है अनजला; जलने की पूरी क्षमता लिए हुए है। माचिस की काड़ी रखी है अनजली, प्रज्वलित होने को किसी भी क्षण तत्पर। आग छिपी है, सोई है। चारों तरफ अंधेरा है, माचिस रखी है। चारों तरफ अंधेरा है। माचिस से कोई रोशनी निकलती नहीं है। लेकिन माचिस से रोशनी निकल सकती है। और जब निकलती है, तब अंधेरा टूट जाता है। और जब निकलती है, तो इसका यह मतलब नहीं कि आसमान से आ गई। माचिस में थी, तो ही निकली, अन्यथा निकल न सकती। फिर क्या, फर्क क्या है?
आत्म-अज्ञान और आत्म-ज्ञान में फर्क? आत्म-अज्ञान और आत्म-ज्ञान सिर्फ नींद के और जागने का फर्क है। इसलिए हम बुद्ध को कहते हैं, बुद्ध। नाम उनका नहीं है। नाम तो उनका था, सिद्धार्थ गौतम। बुद्ध का मतलब होता है, दि अवेकंड, जो जाग गया। गौतम सिद्धार्थ को हम कहते हैं, बुद्ध। इसलिए कहते हैं कि जो जाग गया। महावीर को हम कहते हैं, जिन। जिन का अर्थ है, जिसने अपने को जीत लिया।
जागना जीतना बन जाता है और सोना हार बन जाती है। जागने में विजय है और निद्रा में पराजय है। बड़ी से बड़ी शक्ति भी सोई हो, तो छोटी से छोटी शक्ति से पराजित हो जाती है। एक पहलवान सोया हो, एक छोटा बच्चा उसकी छाती में छुरा भोंक सकता है। एक हाथी सोया हो, एक छोटी-सी चींटी उसकी नाक में चली जाए, तो मौत हो सकती है।
आत्मा बड़ी विराट शक्ति है, बड़ी प्रज्वलित अग्नि है। लेकिन सोई हो, तो क्रोध जैसी ना-कुछ चीज हावी हो जाती है। काम जैसी ना-कुछ शक्ति हावी हो जाती है। अंधेरा जो बिलकुल नहीं है, घेर लेता है उसको, जो बहुत है, गहरे में है, सदा है, कभी खोती नहीं है। विराट से विराट शक्ति सोई हो, तो क्षुद्र से क्षुद्र शक्ति से हार जाती है।
हमारी हार हमारी नींद है। हमारा आत्म-अज्ञान हमारी तंद्रा है, स्लीपीनेस। हम सब नींद में चलते हुए लोग हैं। इसलिए आत्मा, जो कि कभी अज्ञानी नहीं है, वह भी अज्ञान से ढंकी हुई है। दीया है बुझा हुआ, सोया हुआ। तेल भी है, बाती भी है, माचिस भी है, आग भी जल सकती है। पर सब अंधकार है।
आदमी में वह सब मौजूद है, जो रोशनी बन जाए। सब मौजूद है। कोई भी कमी नहीं। परमात्मा प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण ही भेजता है। और हम सब अपूर्ण जीते हैं और अपूर्ण ही मरते हैं। बल्कि और हैरानी की बात है, जितने पूर्ण पैदा होते हैं, उससे भी ज्यादा अपूर्ण होकर मरते हैं। बच्चा जो संपदा लेकर आता है, बूढ़ा उसे भी गंवाकर विदा हो जाता है। क्या होता है?
हमारी नींद और गहरी होती चली जाती है। जीवन में हमारी तंद्रा और बढ़ती चली जाती है। बचपन में हम जितने होश में होते हैं, जवानी में उतने होश में नहीं होते। जवानी में बड़ी तंद्रा पकड़ लेती है। वह तंद्रा है काम की, सेक्स की। मूर्च्छा है, वासना है, वह पकड़ लेती है।
बुढ़ापे में हम और भी डूब जाते हैं। बुढ़ापे में कौन सी तंद्रा पकड़ती है? जवानी में कामवासना गहरा अंधकार बनकर व्यक्ति को पकड़ लेती है। फिर वह जो भी करता है, उसी वासना के लिए करता है। धन कमाए, पद कमाए, यश कमाए, वह सब समर्पित है काम के लिए, सेक्स के लिए, वासना के लिए।
जवानी में आदमी काम की तंद्रा में डूबा और सोया रहता है। बुढ़ापे में काम तो विदा हो जाता है, क्योंकि इंद्रियां शिथिल होने लगती हैं। शरीर मरने के करीब आने लगता है। इसलिए बुढ़ापे में जीवन का मोह पकड़ता है; लस्ट फार लाइफ पकड़ती है। जीवेषणा पकड़ती है कि मैं मर न जाऊं; मैं बचा रहूं; मैं किसी भी तरह बचा रहूं।
इसलिए बूढ़ा आदमी, जिस तरह जवान आदमी दूसरे को जन्म देने के लिए लालायित होता है, बूढ़ा आदमी अपने को बचाने के लिए लालायित रहता है। दूसरे को जन्म देने की वासना काम बन जाती है; और अपने को बचाने की वासना लोभ बन जाती है। जवानी की बीमारी, काम; बुढ़ापे की बीमारी, लोभ। और अगर बूढ़ा आदमी किसी जवान को समझाता भी है कि काम से बचो, तो जो कारण बताता है, वे लोभ के होते हैं--कि बर्बाद हो जाएगा; धन खो जाएगा; स्वास्थ्य खो जाएगा। जो भी कारण बूढ़े आदमी देते हैं जवानों को, वह लोभ उनके पीछे बुनियाद होती है। काम है पीड़ा, जवानी का अंधकार; और लोभ है, बुढ़ापे की पीड़ा। बूढ़ा आदमी लोभी से लोभी होता चला जाता है।
मैंने सुना है कि किसी एक महानगरी के एक बड़े राजपथ पर एक भिखारी भीख मांगता रहता था। सुबह जब वह आता, तब वह कुछ अपने बगल में छिपाए रहता। दोपहर तक नहीं निकालता था। एक तख्ती छिपाए रखता था अपने कपड़ों में। दोपहर तक मांगता रहता लोगों से चिल्ला-चिल्लाकर; फिर दोपहर तक थक जाता। तो वह तख्ती निकालकर अपने सामने रखकर पीछे चुप बैठ जाता। तख्ती पर लिखा होता था, आई एम डेफ एंड डंब, मैं गूंगा और बहरा हूं। थक जाता दोपहर तक। फिर चिल्लाने की ताकत न रहती, तो गूंगा और बहरा हो जाता। शराब पीने की उसे आदत थी।
सभी भिखारियों को होती है। सिर्फ सम्राट बच सकते हैं। और अगर सम्राट भी पीते हों, तो जानना कि भिखारी हैं। और अगर भिखारी भी न पीते हों, तो जानना कि सम्राट हैं। असल में जो आदमी दुखी है, वह अपने को बेहोश करने से नहीं बच सकता। और दुखी कौन होता है इस जगत में? दुखी वही होता है, जिसकी आकांक्षाएं बहुत हैं। आकांक्षाएं तृप्त नहीं होतीं; दुख आता है।
भिखारी की बड़ी आकांक्षाएं हैं। दोपहर तक बहुत मांगता। रोज इरादे करके आता था कि आज करोड़ मांग लूंगा, कि अरब रुपए मांग लूंगा। कि आज तो कोई सम्राट निकलेगा, और सोने-चांदी की बरसा हो जाएगी। लेकिन कुछ न होता, वही तांबे के ठीकरे दो-चार गिरते। परेशान हो जाता दोपहर तक; शराब पीना शुरू कर देता। सांझ होते-होते, सूरज ढलते-ढलते तक, वह इतना बेहोश होने लगता कि आखिरी होश में, आखिरी वक्त वह अपनी तख्ती उलटी करके रख देता।
रिवर्सिबल साइनबोर्ड था वह! उस पर दोनों तरफ लिखा हुआ था। दूसरी तरफ लिखा हुआ था, आई एम पैरालाइज्ड, मुझे लकवा लग गया है। बेहोश होकर गिर जाता। सुबह मांगता रहता; दोपहर गूंगा-बहरा हो जाता; सांझ नशे में डूब जाता। आखिरी काम वह इतना कर देता नशे में गिरने के पहले, तख्ती उलटकर रख देता।
करीब-करीब जिंदगी ऐसी ही बीतती है। बचपन बड़ी आशाओं से भरा हुआ है। बड़ी आशाओं से भरा हुआ है, सब मिल जाएगा। बड़े कल्पना के फूल और सपनों के गीत। और फिर जवानी आती है। और तब एक-एक चीज डिसइलूजन होने लगती है, एक-एक चीज का भ्रम टूटने लगता है। बुढ़ापा आने के पहले-पहले आदमी की सारी इंद्रियां गूंगी और बहरी हो जाती हैं। फिर बेहोशी और तंद्रा पकड़नी शुरू कर देती है। मरने के पहले अधिकतम लोग पैरालाइज्ड हो जाते हैं, पैरालाइज्ड सब अर्थों में। बहुत गहरे अर्थों में लकवा लग जाता है।
मरने के बहुत पहले बहुत लोग मर जाते हैं। मरने तक जिंदा रहने वाले बहुत कम लोग हैं जमीन पर। मरने तक जिंदा रहने वाले बहुत कम लोग हैं, मरने के बहुत पहले मर जाते हैं! कुछ लोग तीस साल की उम्र में मर जाते हैं, कुछ लोग चालीस साल की उम्र में। यह बात दूसरी है कि दफनाया जाता है कोई सत्तर साल में, कोई अस्सी साल में। दफनाने में और मरने में अक्सर फासला होता है। और जो आदमी मरने तक जिंदा है--उतना ही ताजा, जैसा बचपन में ताजा था, उतना ही प्रफुल्लित--उसे मौत भी न मार पाएगी। मौत आकर गुजर जाएगी और वह मौत के पार भी जिंदा खड़ा रह जाएगा।
लेकिन नींद रोज बढ़ती है। ठीक सुबह जब हम उठते हैं, तो ताजे होते हैं; दोपहर थक गए होते हैं, तंद्रा उतरनी शुरू हो जाती है; सांझ थक जाते हैं, गिर जाते हैं, सो जाते हैं। हर बार, हर जिंदगी में यही सुबह, यही दोपहर, यही सांझ। अंतहीन यही चलता है। बचपन, जवानी, बुढ़ापा; फिर डूबा सूरज; फिर गिर गए बेहोश होकर मिट्टी में। फिर उठेंगे; फिर गिरेंगे। और इस नींद से जागने का हमें कोई खयाल नहीं आता।
कृष्ण कहते हैं, जो जाग जाता है, उसकी आत्मा का ज्ञान अभिव्यक्त हो उठता है; आत्म-अज्ञान गिर जाता है। और ऐसा व्यक्ति ही केवल इस अस्तित्व में परमात्मा को देख पा सकता है। ऐसे ही व्यक्ति को केवल परमात्मा का अनुभव हो सकता है।
सोए हुए आदमी को अपना ही अनुभव नहीं होता, परमात्मा का अनुभव तो बहुत दूर की बात है। नींद में दबे हुए आदमी को अपना ही पता नहीं, परमात्मा का पता तो बहुत कठिन है। लेकिन बहुत लोग हैं, जिन्हें अपना पता नहीं और जो परमात्मा को खोजने निकल जाते हैं। उनकी खोज कभी पूरी नहीं होगी।
आत्म-ज्ञान परमात्म-ज्ञान का द्वार है। और जिसे स्वयं का पता चल गया, दूर नहीं है परमात्मा अब; अब बिलकुल निकट है। अब दर्पण तो मिल ही गया; अब परमात्मा की झलक को पकड़ लेना कठिन नहीं है; पकड़ ही जाएगी। परमात्मा तो सब तरफ मौजूद है। एक दफा हृदय का दर्पण साफ, स्वच्छ...।
अंतःकरण शुद्ध हो जिसका, कृष्ण कहते हैं। शुद्ध और साफ--परमात्मा की झलक पकड़नी शुरू हो जाती है। और फिर ऐसा नहीं है कि उसे देखने कहीं बद्री-केदार या काबा या मक्का या जेरूसलम जाना पड़ता है। जहां हैं आप, वहीं उसकी तस्वीर है। जो भी आप देखते हैं, उसमें वही है। न देखें, आंख बंद कर लें, तो भी वही है। सो जाएं, तो बाहर से शरीर ही सोता है फिर। भीतर तो वह जागकर जानता ही रहता है, देखता ही रहता है। हम जागकर भी सोते हैं, आत्म-ज्ञानी सोया हुआ भी जागता ही रहता है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, आत्म-अज्ञान की जो तंद्रा है, जिसने घेर लिया है, उसे हटा देना पड़े, तोड़ देना पड़े।
कैसे तोड़ें उसे? अगर अंधेरे को हटाना हो, तो क्या करें? अंधेरे को काटें तलवार लाकर? नहीं कटेगा। होता तो कट जाता। अंधेरा नहीं कटेगा तलवार से। दीए को जलाएं; दीए की ज्योति को बड़ा करें। अगर आत्म-अज्ञान मिटाना है, तो आत्म-अज्ञान की फिक्र ही न करें। आत्म-ज्ञान को जगाएं और बढ़ाएं। किन चीजों से आत्म-ज्ञान बढ़ता है?
एक, दोत्तीन सूत्र आपसे कहना चाहूंगा। एक--संकल्प, विल। जिस व्यक्ति को भी आत्म-ज्ञान की ज्योति को जगाना है, उसे संकल्प के सूत्र को पकड़ लेना चाहिए। संकल्प तेल है, उसके बिना दीया नहीं जलेगा भीतर का। संकल्प के बिना आत्म-ज्ञान का दीया नहीं जलेगा। और संकल्प हममें बिलकुल भी नहीं है। है ही नहीं।
एक मित्र परसों आए और उन्होंने कहा, संन्यास तो मैं लेना चाहता हूं, लेकिन ये गेरुए वस्त्र मैं सिर्फ घर में ही पहनूंगा, बाहर नहीं। बाहर क्यों नहीं पहनिएगा! उन्होंने कहा, लोग क्या कहेंगे!
लोग क्या कहेंगे! पब्लिक ओपीनियन हमारी आत्मा बन गई है। लोग क्या कहेंगे! घर में छिपकर कोई संन्यासी हो सकता है? कि घर में दरवाजा बंद करके हम गेरुए कपड़े पहन लें। काफी बहादुरी है! तो फिर ऐसा क्यों नहीं करते कि मरते वक्त पहन लेना और कब्र में चले जाना! तो दुबारा लौटकर कोई कुछ कह नहीं सकेगा।
इतनी संकल्पहीनता! इतनी कमजोरी! इतना मन हीन, इतना दीन कि कोई क्या कहेगा! इतनी परतंत्रता कि लोग क्या कहेंगे इस पर! तो फिर आत्मा को जगाना बहुत कठिन हो जाएगा। बहुत कठिन हो जाएगा। यह तो बड़ी छोटी-सी बात है। कपड़े तो आपकी मौज है अपनी। इतनी भी स्वतंत्रता नहीं मनुष्य को कि कपड़े खुद पहन ले जो उसे पहनने हैं? इसके लिए भी दूसरे से पूछने जाना पड़ेगा? तो फिर आप हैं या नहीं? और बड़े मजे की बात यह है कि जिनसे आप डर रहे हैं, वे आपसे डर रहे हैं। जिनसे आप डर रहे हैं, वे आपसे डर रहे हैं!
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन सांझ एक कब्र के पास कब्रगाह की दीवाल पर बैठा हुआ था। उसने किताब पढ़ी थी, डान क्विक्जोट के संबंध की किताब पढ़ी थी। किताब में उसने पढ़ा था कि कई बार अकेले में दुश्मन हमला कर देता है। और-और बातें पढ़ी थीं। सांझ ढल रही थी, सूरज उतर रहा था नीचे। देखा उसने कि गांव के बाहर कुछ लोग बैंड-बाजा बजाते हुए, तलवारें लिए चले आ रहे हैं। उसने समझा कि हुआ खतरा; दिखता है, दुश्मन आ रहे हैं! अभी किताब से भरा हुआ था। सोच लिया कि दुश्मन आ रहे हैं। भागकर कब्रगाह के अंदर चला गया। देखा, कहां छिपूं? एक नई कब्र किसी ने खोदी थी। मुर्दे को लेने गए होंगे। सोचा उसने कि इसी में लेट जाऊं, जब तक ये लोग निकल जाएंगे। वह उस गङ्ढे में लेट गया।
उसे कूदते और भागते उन लोगों ने भी देखा, जो आ रहे थे। वे कोई दुश्मन न थे, न कोई शत्रु थे। वह एक बरात थी, दूसरे गांव जा रही थी। वे भी हैरान हुए कि यह आदमी इतनी तेजी से भागा! क्या हुआ! वे लोग दीवाल पर चढ़कर झांके। नसरुद्दीन पक्का समझ गया कि समझ ठीक थी! आ गए वे लोग। अंदर भी आ रहे हैं! वह आंख बंद करके पड़ रहा।
जब उन लोगों ने देखा कि यह आदमी जाग रहा है, जिंदा है और कब्र में लेटा है और हमें देखकर आंख भी बंद कर ली, तो बेचारे दीवाल से उतरकर अंदर आए। जब वे अंदर आए, तो उसने कहा, हो गया फैसला! उसने श्वास भी रोक ली।
उन्होंने उसे आकर हिलाया और कहा कि यह क्या कर रहे हैं आप? जिंदा होकर कब्र में क्यों पड़े हैं? क्या है कारण आपके भागने का? आप भागे क्यों? डरे क्यों? इतने घबड़ा क्यों रहे हैं? कंप क्यों रहे हैं? नसरुद्दीन ने कहा, अब यह मत पूछो। मैं तुमसे पूछना चाहता हूं कि तुम मेरे पीछे क्यों पड़े हो? तुम यहां क्यों आए? उन्होंने कहा, यही तो हम तुमसे पूछना चाहते हैं कि तुम यहां क्यों कब्र में छिपे हो? नसरुद्दीन ने कहा, खतम करो बात को। आई एम हियर बिकाज आफ यू, एंड यू आर हियर बिकाज आफ मी। छोड़ो। जाने दो। मैं तुम्हारी वजह से यहां हूं, तुम मेरी वजह से यहां हो। और बेवजह है सारा मामला!
हम दूसरों से डर रहे हैं, दूसरे हमसे डर रहे हैं! सब एक-दूसरे से डरे हैं।
नहीं; ऐसे आत्मा पैदा न होगी। संकल्प का पहला लक्षण यह है कि मुझे जो ठीक लगता है, वह मैं करूंगा। जो मुझे गलत लगता है, वह मैं नहीं करूंगा। चाहे सारी दुनिया कहती हो, करो, तो नहीं करूंगा। और जो मुझे ठीक लगता है, वह मैं करूंगा; चाहे सारी दुनिया कहती हो कि मत करो, तो भी मैं करूंगा।
इस जगत में केवल उन्हीं लोगों की आत्माएं विकसित होती हैं, जो भीड़ के व्यर्थ भय से मुक्त हो जाते हैं।
संकल्प पहला सूत्र है आत्म-ज्ञान को बढ़ाने के लिए, विल पावर।
दूसरा सूत्र है, साहस। हम रोज टालते रहते हैं। रोज टालते रहते हैं, कल करेंगे, परसों करेंगे। सोचते हैं, अभी ठीक समय नहीं आया। असली बात दूसरी होती है। साहस नहीं जुटा पाते हैं, तो अपने को धोखा देते हैं। यह भी समझने की तैयारी नहीं होती कि मैं दुस्साहसी नहीं हूं, साहसी नहीं हूं; कमजोर हूं। यह भी कोई समझ ले, तो मैं कहता हूं, बड़ा साहस है। जो आदमी यह समझ ले कि मैं साहसी नहीं हूं, उसने भी बहुत बड़ा साहस किया। लेकिन हम अपने को साहसी भी समझे जाते हैं और कल पर छोड़े जाते हैं; कल करेंगे, परसों करेंगे। इस आशा में कि नहीं, कर तो हम सकते ही हैं; कल कर लेंगे, परसों कर लेंगे। पोस्टपोनमेंट करते जाते हैं।
साहस का मतलब है, जो ठीक लगे, उसे अभी और आज और यहीं करना शुरू कर देना, क्योंकि कल का कोई भी भरोसा नहीं है। कल आएगा भी, इसका भी कुछ पक्का नहीं है। और साहस का मतलब इतना ही नहीं होता है कि अंधेरे में आप चले जाते हैं, तो बड़े साहसी हैं। साहस का मतलब यह भी नहीं होता है कि किसी से जूझ जाते हैं, लड़ जाते हैं, तो बड़े साहसी हैं। साहस का गहरा आध्यात्मिक अर्थ होता है, अज्ञात में छलांग, अननोन में उतर जाने का साहस।
जो जाना-माना है, उसमें तो हम बड़े मजे से चले जाते हैं। अज्ञात, अननोन में नहीं जा पाते। और ध्यान रहे, परमात्मा अज्ञात है। और ध्यान रहे, आत्मा बिलकुल अज्ञात है, अननोन है। अनजान मार्ग है। अनजान राह है। अपरिचित सागर है। नक्शा पास में नहीं। अकेले जाना है। साथ कोई जा नहीं सकता।
ध्यान रहे, साहस का यह भी मतलब है, दि करेज टु बी अलोन, अकेले होने की हिम्मत। क्योंकि बाहर तो हम सबके साथ हो सकते हैं, भीतर हमें अकेला ही होना पड़ेगा।
अगर इतना साहस नहीं है अकेले होने का, तो आप कभी भी आत्म-ज्ञान को उपलब्ध न हो सकेंगे। क्योंकि आत्म-ज्ञान में कंपनी, साथी-संगी नहीं हो सकते। अकेले ही होना पड़ेगा। जो आदमी कहता है कि हम तो अकेले न हो सकेंगे, कोई न कोई साथ चाहिए, वह सारी दुनिया की यात्रा कर सकता है, चांद पर भी जा सकता है, कल मंगल पर भी चला जाएगा, लेकिन अपने भीतर नहीं जा सकेगा। क्योंकि वहां अकेले ही जाया जा सकता है, दूसरे के साथ का कोई उपाय नहीं है। साहस का यही अर्थ है।
और तीसरी बात। जो लोग जिंदगी की क्षुद्रतम, अति क्षुद्रतम बातों में ऊर्जा को गंवाते रहते हैं, वे कभी भी आत्म-ज्ञान को उपलब्ध न हो सकेंगे। पहला सूत्र, संकल्प; दूसरा सूत्र, साहस; और तीसरा सूत्र, संयम।
जो लोग जीवन की ऊर्जा को व्यर्थ गंवाते रहते हैं, दिन में इतना गंवा देते हैं कि उनके पास कुछ बचता नहीं कि उस शक्ति पर सवार होकर भीतर जा सकें। जिस दीए में छेद हो, और तेल टपक जाता हो। जिस नाव में छेद हो, और पानी भर जाता हो। जिस बाल्टी में छेद हो, और कुएं में डालकर पानी खींचना चाहते हों। वैसी फिर आपकी हालत है। चौबीस घंटे गंवाते हैं। फिर इतना बचता नहीं!
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम ध्यान को बैठते हैं, तो नींद आ जाती है। आ ही जाएगी। ताकत भी तो बचनी चाहिए थोड़ी-बहुत। लास्ट आइटम समझा हुआ है ध्यान को! जब सब कर चुके, सब तरह की बेवकूफियां निपटा चुके--लड़ चुके, झगड़ चुके, क्रोध कर चुके; प्रेम-घृणा, मित्रता-शत्रुता--सब कर चुके, कौड़ी-कौड़ी पर सब गंवा चुके। जब कुछ भी नहीं बचता करने को, रद्दी में दो पैसे का खरीदा हुआ अखबार भी दिन में दस दफे चढ़ चुके। रेडियो का नाब कई दफा खोल चुके, बंद कर चुके। वही बकवास पत्नी से, बेटे से, जो हजार दफा हो चुकी है, कर चुके। जब कुछ भी नहीं बचता है करने को, तब एक आदमी सोचता है कि चलो, अब ध्यान कर लें। तब वह आंख बंद करके बैठ जाता है!
इतनी इंपोटेंस से, इतने शक्ति-दौर्बल्य से कभी ध्यान नहीं होने वाला है। भीतर आप नहीं जाएंगे, नींद में चले जाएंगे। शक्ति चाहिए भीतर की यात्रा के लिए भी। इसलिए आत्म-ज्ञान की तरफ जाने वाले व्यक्ति को समझना चाहिए, एक-एक कण शक्ति का मूल्य चुका रहे हैं आप, और बहुत महंगा मूल्य चुका रहे हैं।
जब एक आदमी किसी पर क्रोध से भरकर आग से भर जाता है, तब उसे पता नहीं कि वह क्या गंवा रहा है! उसे कुछ भी पता नहीं कि वह क्या खो रहा है! इतनी शक्ति पर, जिसमें उसने सिर्फ चार गालियां फेंकीं, इतनी शक्ति को लेकर तो वह गहरे ध्यान में कूद सकता था।
एक आदमी ताश खेलकर क्या गंवा रहा है, उसे पता नहीं। एक आदमी शतरंज के घोड़ों पर, हाथियों पर लगा हुआ है। वह क्या गंवा रहा है, उसे पता नहीं। एक आदमी सिगरेट पीकर धुआं निकाल रहा है बाहर-भीतर। वह क्या गंवा रहा है, उसे पता नहीं। इतनी शक्ति से तो भीतर की यात्रा हो सकती थी।
और ध्यान रहे, बूंद-बूंद चुककर सागर चुक जाते हैं। और आदमी के पास, इस शरीर के कारण, सीमित शक्ति है। जीवन बहुत जल्दी रिक्त हो जाता है।
तीन सूत्र आपसे कहता हूं। इन तीन सूत्रों का यदि खयाल रहे--संकल्प, विल; साहस, करेज; संयम, कंजरवेशन--अगर ये तीन सूत्र खयाल में रह जाएं, ये तीन स अगर खयाल में रह जाएं, तो आपका आत्म-ज्ञान भभककर जल सकता है। और उस क्षण में आत्म-अज्ञान विलीन हो जाता है। और जो जानता है स्वयं को...।
ये तीन सूत्र खयाल में हों, तो आत्म-अज्ञान कट जाता है। जो शेष रह जाता है, वह आत्म-ज्ञान की ज्योति है। उस ज्योति की निर्मलता में, उस ज्योति के दर्पण में ही प्रभु की छवि पकड़ी जाती है, वही कृष्ण इस सूत्र में कहे हैं।


तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः।। १७।।
और हे अर्जुन, तद्रूप है बुद्धि जिनकी तथा तद्रूप है मन जिनका और उस सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही निरंतर एकीभाव से स्थिति है जिनकी, ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान के द्वारा पापरहित हुए अपुनरावृत्ति को अर्थात परमगति को प्राप्त होते हैं।


जिनकी वृत्ति, जिनकी चेतना परमात्मा से तदरूप हो गई, एक हो गई, तादात्म्य को पा गई है; जिनकी अपनी छोटी-सी ज्योति परमात्मा के परम सूर्य के साथ एक हो गई, एकतान हो गई है; जिनका अपना छोटा-सा वीणा का स्वर उसके परम नाद के साथ संयुक्त हो गया है--ऐसे पुरुष वापस नहीं लौटते हैं; उनका पुनरागमन नहीं होता है। ऐसे पुरुष प्वाइंट आफ नो रिटर्न, उस जगह पहुंच जाते हैं, जहां से वापसी नहीं है, जहां से पीछे नहीं गिरना पड़ता है, जहां से वापस अंधकार में और अज्ञान में नहीं डूब जाना पड़ता है।
इसमें दोत्तीन बातें खयाल में ले लेनी चाहिए।
एक तो, परमात्मा की झलक मिल जाती है बहुत बार, लेकिन तदरूपता नहीं मिलती। परमात्मा की झलक मिल जाती है बहुत बार, लेकिन परमात्मा से एकता नहीं सधती। झलक ऐसी मिल जाती है कि जैसे कोई व्यक्ति जमीन से छलांग लगाए, तो एक क्षण को जमीन के ग्रेविटेशन के बाहर हो जाता है, एक क्षण को जमीन की कशिश के बाहर हो जाता है। लेकिन क्षणभर को! हो भी नहीं पाता कि वापस जमीन उसे अपने पास बुला लेती है। फिर लौट आता है।
जैसे रात अंधेरे में बिजली कौंध जाए। अमावस की रात हो, भादों की रात हो, अंधेरा हो--बिजली कौंध जाए। एक क्षण को झलक में सब दिखाई पड़ जाता है; और दिखाई भी नहीं पड़ा कि घनघोर अंधकार छा जाता है। और ध्यान रहे, बिजली के बाद जब अंधकार छाता है, तो बिजली के पहले वाले अंधकार से ज्यादा घना होता है। आंखें और चौंधिया गई होती हैं।
बहुत बार परमात्मा की एक झलक मिल जाती है, लेकिन झलक से तदरूपता नहीं होती है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो तदरूप हो गया! ऐसा नहीं कि परमात्मा को जान लिया, बल्कि ऐसा कि जो परमात्मा हो गया। ऐसा नहीं है कि दूर से एक झलक ले ली, बल्कि ऐसा कि अब कोई फासला न बचा। अब वही हो गए, उसी के साथ एक हो गए। तब पुनरागमन नहीं है। फिर पुनरावर्तन नहीं होता। फिर लौटना नहीं होता।
साधक को बहुत बार झलक मिल जाती है! और झलक से सावधान रहने की जरूरत है, कि जो झलक को तदरूपता समझ लेगा, उसकी जिंदगी और गहन अंधकार में पड़ सकती है।
झलक और तदरूपता में क्या फर्क है? झलक में आप मौजूद होते हैं, और परमात्मा का अनुभव होता है। तदरूपता में आप मिट जाते हैं, और परमात्मा का अनुभव होता है। तदरूपता में परमात्मा ही होता है, आप नहीं होते। झलक में आप होते हैं, परमात्मा क्षणभर को दिखाई पड़ता है। यह क्षणभर को दिखाई कभी-कभी अनायास भी पड़ जाता है। अनायास!
एडमंड बर्क ने लिखा है कि गुजर रहा था एक रास्ते से और बस अचानक--न कोई साधना, न कोई उपाय, न कोई प्रयास, बस अचानक--अचानक लगा कि चारों तरफ प्रकाश हो गया है। यह भी अचानक नहीं है। बर्क को लगा, अचानक हो गया है। यह भी पिछले जन्मों की चेष्टाओं का कहीं कोई छिपा हुआ कण है, जो भभक उठा किसी संगत स्थिति को पाकर।
कभी-कभी हिमालय की ऊंचाई पर गए हुए साधक को अचानक...। इसलिए हिमालय का इतना आकर्षण पैदा हो गया। उसका कारण है। हिमालय के शुभ्र, श्वेत शिखर दूर तक फैले हुए हैं। किसी क्षण में सूर्य की चमकती हुई किरणों में स्वर्ण हो जाते हैं। लोग छूट गए दूर। समाज छूट गया दूर। जमीन का गोरखधंधा, दिन-रात की बातचीत, दिन-रात की दुनिया, दैनंदिन व्यवहार छूट गया दूर। शीतल है सब। ठंडा है सब। क्रोधित हो सकें, इतना भी शरीर गर्म नहीं। रक्तचाप नीचे आ गया। चारों तरफ फैले हुए शुभ्र शिखर, सूर्य की चमकती हुई किरणों में स्वर्ण हो गए हैं। उस क्षण में कभी मन उस दशा में आ जाता है, प्राकृतिक कारण से ही, कि एक क्षण को ऐसा लगता है, चारों ओर परमात्मा है।
लेकिन इस झलक को तादात्म्य नहीं कहा जा सकता। और यह झलक और-और उपायों से भी मिल सकती है। लेकिन झलक सदा ही एक अनुभव की तरह, एक एक्सपीरिएंस की तरह मालूम होगी। लगेगा कि मेरे पास एक अनुभव और बढ़ गया। मैं नहीं मिटूंगा। मैं बना रहूंगा। मेरी पुरानी स्मृति बनी रहेगी। मेरी कंटिन्यूटी बनी रहेगी। मेरी पुरानी स्मृति में मैं एक स्मृति और जोड़ दूंगा कि मैंने परमात्मा की झलक भी पाई।
ऐसे आदमी का अहंकार और मजबूत हो जाएगा। वह कहता फिरेगा कि मैंने परमात्मा को जान लिया। लेकिन परमात्मा पर जोर कम, मैंने जान लिया, इस पर जोर उसका ज्यादा होगा। और अगर मैं पर ज्यादा जोर है, तो अंधेरा और बढ़ गया।
इसलिए कृष्ण ने बहुत स्पष्ट कहा, तदरूप हो जाता है जो!
वही केवल वापस नहीं लौटता। तदरूप का अर्थ है, परमात्मा से एक ही हो जाता है। इसलिए जिसने सच में ही परमात्मा के साथ तदरूपता पाई, वह यह नहीं कहेगा कि मैंने परमात्मा जाना। वह कहेगा, मैं तो मिट गया। अब परमात्मा ही है। मैं तो हूं ही नहीं। वह यह नहीं कहेगा, मुझे परमात्मा का अनुभव हुआ। वह कहेगा कि मैं जब तक था, तब तक तो अनुभव हुआ ही नहीं। जब मैं नहीं था, तब अनुभव हुआ। मुझे नहीं हुआ।
ध्यान रहे, मैं का और परमात्मा का वास्तविक मिलन कभी भी नहीं होता। मैं और परमात्मा वस्तुतः कभी आमने-सामने नहीं होते। एक झलक हो सकती है। लेकिन परमात्मा के सामने मैं तदरूप अगर हो जाए, पूर्ण रूप से खड़ा हो जाए, तो तत्काल गिर जाता है और विलीन हो जाता है।
कबीर ने कहा है कि जब तक खोजता था, तब तक वह मिला नहीं। क्योंकि मैं था खोजने वाला। फिर खोजते-खोजते मैं खो गया, तब वह मिला। जब मैं न बचा, तब वह मिला। और जब तक मैं था, तब तक वह मिला नहीं।
तदरूपता का अर्थ है, ईगोलेसनेस। खो जाए मेरा भाव कि मैं हूं। आ जाए यह स्थिति कि परमात्मा ही है। फिर लौटना नहीं है। क्योंकि लौटेंगे किसको लेकर अब? वह तो खो गया, जो लौट सकता था।
इस जगत की सारी यात्रा अहंकार की यात्रा है, आना और जाना। ध्यान रहे, जन्मों की लंबी कथा, आत्मा की नहीं, अहंकार की कथा है। अहंकार ही आता और जाता। आत्मा न तो आती और न जाती। एक बार भी जिसने यह जान लिया, उसका आवागमन गया। उसके लिए लौटने का कोई उपाय न रहा; सब सेतु गिर गए। खंडित हो गए मार्ग। लौटने वाला ही खो गया। इस स्थिति को परम मुक्ति कहा कृष्ण ने।
परम मुक्ति का अर्थ है, मैं की मुक्ति नहीं, मैं से मुक्ति। फिर से दोहराता हूं। परम मुक्ति का अर्थ है, मैं की मुक्ति नहीं, मैं से मुक्ति।
हम सबके मन में ऐसा ही होता है कि मुक्त हो जाएंगे, तो मोक्ष में बड़े आनंद से रहेंगे। मुक्त हो जाएंगे, तो कोई दुख न रहेगा; हम तो रहेंगे! मुक्त हो जाएंगे, तो कोई पीड़ा न रहेगी, कोई बंधन न रहेगा; हम तो रहेंगे! लेकिन ध्यान रहे, सबसे बड़ी पीड़ा और सबसे बड़ा बंधन मेरा होना है।
इसलिए जो लोग ऐसा सोचते हैं कि मोक्ष में सुख ही सुख होगा और हम होंगे और सुख ही सुख होगा, वे गलती में हैं। अगर आप होंगे, तो दुख ही दुख होगा। अगर आपको अपने को बचाना हो, तो नर्क बहुत ही सुगम, सुविधापूर्ण, सुरक्षित जगह है। अगर स्वयं को बचाना हो, तो नर्क बहुत ही सुव्यवस्थित बचाव है।
अगर मैं को बचाना है, तो नर्क की यात्रा करनी चाहिए। वहां मैं बहुत प्रगाढ़ हो जाता है। उसी की प्रगाढ़ता से इतनी अग्नि जलती मालूम पड़ती है चारों तरफ--इतनी लपटें, इतना दुख, इतनी पीड़ा।
लेकिन कभी आपने सोचा कि आपके सारे दुख मैं के दुख हैं! कभी आपने कोई ऐसा दुख पाया है, जो मैं के बिना पाया हो? सब दुख मैं के दुख हैं। मैं के साथ आनंद का कोई उपाय नहीं है। मैं के साथ दुख आएगा ही छाया की तरह। इसलिए अगर कोई अपने मैं को बचाकर स्वर्ग भी पहुंच गया, तो भूल हो रही है उससे; वह स्वर्ग आया नहीं होगा, नर्क ही आएगा।
सुना है मैंने कि एक दिन स्वर्ग के द्वार पर एक आदमी ने जाकर दस्तक दी। स्वर्ग के द्वारपाल ने दरवाजा खोला। कहा, आएं; स्वागत है। फिर दरवाजा बंद हो गया। एक और गरीब-सा आदमी, दीन-हीन सा आदमी, पहले से, बहुत पहले से आकर दरवाजे के बाहर खड़ा था। इतना दीन-हीन था कि दरवाजा खटखटाने की हिम्मत भी जुटा नहीं पाया था। यह देखकर कि दरवाजा खटखटाने से खुलता है, और अंदर कोई आदमी ले गया, उसकी भी हिम्मत बढ़ी। वह भी बाहर आया। तभी उसने देखा कि अंदर बैंड-बाजे बज रहे हैं और स्वागत-समारोह हो रहा है। शायद, जो आदमी भीतर गया है, उसका स्वागत-समारोह हो रहा होगा।
उसने भी हिम्मत करके द्वार खटखटाया। फिर द्वारपाल ने दरवाजा खोला। कहा, भीतर आ जाओ। भीतर गया। सोचा, अब बैंड-बाजे बजेंगे मेरे लिए भी। स्वागत-समारोह होगा। कुछ न हुआ। उसने द्वारपाल से पूछा, बैंड-बाजे कहां हैं? स्वागत कहां है? मेरे पहले कोई आया, उसका स्वागत हुआ। क्या यहां भी हम गरीबों के साथ ज्यादती और अन्याय चलता है?
द्वारपाल ने कहा, ऐसा नहीं है। तुम्हारे जैसे गरीब तो रोज यहां आते हैं। तुम्हारे जैसे विनम्र, जो दरवाजा नहीं खटखटाते और किनारे पर प्रतीक्षा करते रहते हैं; तुम्हारे जैसे विनम्र तो रोज आते हैं। यह जो आदमी अभी भीतर गया है, एक महापंडित है। यह बड़ा ज्ञानी था। ऐसे ज्ञानी सौ, दो सौ, चार सौ, पांच सौ वर्ष बीत जाते हैं, तब कभी-कभी आते हैं। इसलिए उसका स्वागत किया गया है। यह बड़ी रेयर घटना है। तुम्हारे जैसे विनम्र लोग तो रोज आते हैं। लेकिन ऐसा महापंडित कभी दो-चार सौ साल में एक बार आता है। इसलिए स्वागत किया गया है। यह जरा विशेष घटना थी।
वह बहुत हैरान हुआ। उसने कहा कि पंडित तो हम सोचते हैं कि सदा जाते होंगे। हम दीन-हीन, न समझने वाले नर्क में पड़ते होंगे! उस द्वारपाल ने कहा कि पृथ्वी में बहुत तरह की भूलों में यह एक भूल भी प्रचलित है।
पंडित को इतना खयाल होता है कि मैं जानता हूं कि स्वर्ग में प्रवेश बड़ा मुश्किल है। अज्ञानी भी एक बार प्रवेश कर सकता है, विनम्र हो तो। क्योंकि जो विनम्र है, वह अज्ञानी न रहा। क्योंकि जो विनम्र है, वह तभी हो सकता है, जब अहंकार को छोड़ने का सामर्थ्य आ गया हो।
ज्ञानी भी प्रवेश नहीं कर सकता, अगर अविनम्र है। क्योंकि जहां अविनम्रता है और अहंकार है, वहां तो ज्ञान का सिर्फ दंभ होगा, भ्रम होगा, ज्ञान हो नहीं सकता है।
मैं से जो मुक्त होने को तैयार है, वही केवल मोक्ष में प्रवेश पाता है। यह जो मैं से मुक्ति है--मैं की मुक्ति नहीं, मैं से मुक्ति--इसमें ही तदरूप हो जाता है आदमी। तदरूप! एक ही।
जिंदगी में कहां आपको तदरूपता दिखाई पड़ती है? कहीं आपने तदरूपता देखी जिंदगी में, जहां कोई चीज वही हो जाती हो, जो है? आग जलाते हैं। थोड़ी ही देर में--थोड़ी ही देर में--लकड़ियां जलती हैं और आग के साथ एक हो जाती हैं। राख पड़ी रह जाती है।
इसलिए अग्नि को बहुत पहले समस्त दुनिया के धर्मों ने एक प्रतीक की तरह चुन लिया। उसमें लकड़ी जलकर आग के साथ एक हो जाती है। इसलिए अग्नि यज्ञ बन गई। पारसियों ने अग्नि को चौबीस घंटे जलाकर पवित्र पूजा का स्थल बना लिया। क्योंकि अग्नि में लकड़ी जलकर तदरूप होती रहती है।
ठीक ऐसे ही जब कोई अहंकार परमात्मा की आग में अपने को छोड़कर जलता जाता है, जलता जाता है, जलने को राजी हो जाता है, तदरूप हो जाता है; तो ही--तो ही--उस जगह पहुंचता है, जहां से कोई वापसी नहीं है।
और उस जगह पहुंचे बिना जीवन में न कोई आनंद है, न कोई अमृत है, न कोई रस है, न कोई सौंदर्य है, न कोई संगीत है। उसी क्षण से संगीत शुरू होता, उसके पहले शोरगुल है। उसी क्षण से अमृत शुरू होता, उसके पहले मृत्यु ही मृत्यु की कथा है। उसी क्षण से प्रकाश शुरू होता, उसके पहले अंधकार और अंधकार है। उसी क्षण से जीवन उत्सव बनता।
जिस क्षण से मैं खोता हूं, उसी क्षण से जीवन एक फेस्टिविटी है--एक उत्सव, एक नृत्य, एक आनंदमग्नता, एक एक्सटैसी, एक समाधि, एक हर्षोन्माद। उसके पहले तो जीवन सिर्फ कांटों से चुभा हुआ है। उसके पहले तो जीवन सिर्फ बिंधा हुआ है पीड़ाओं से, संताप से, सड़ता हुआ। उसके पहले तो जीवन एक दुर्गंध है, और एक विसंगीत है; एक विक्षिप्तता, एक पागलपन है।
कृष्ण कहते हैं, ऐसा हो सकता है अर्जुन। अंतःकरण हो शुद्ध, आत्मा ने जागकर पाया हो ज्ञान, हो गई हो तदरूप परमात्मा के साथ; खो दी हो ज्योति ने अपने को परम प्रकाश में, तो फिर कोई लौटना नहीं है।


विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।। १८।।
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः।। १९।।
ऐसे वे ज्ञानीजन विद्या और विनय युक्त ब्राह्मण में, तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चांडाल में भी समभाव से
देखने वाले ही होते हैं।
इसलिए जिनका मन समत्वभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही संपूर्ण संसार जीत लिया गया,
क्योंकि सच्चिदानंदघन परमात्मा निर्दोष और सम है।
इससे वे सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही स्थित हैं।


पाना हो जिसे प्रभु को, उसे प्रभु जैसा हो जाना पड़ेगा। पाने की एक ही शर्त है, जो पाना हो, उस जैसा ही हो जाना पड़ता है। यह शर्त गहरी है। और यह नियम शाश्वत है। और जीवन के समस्त तलों पर लागू है।
अगर किसी व्यक्ति को धन पाना है, तो थोड़े दिन में पाएंगे कि वह आदमी भी धातु का ठीकरा हो गया। अगर किसी व्यक्ति को पद पाना है, तो थोड़े दिन में पाएंगे कि उस आदमी में और कुर्सी की जड़ता में कोई फर्क नहीं रहा। असल में हमें जो भी पाना है, जाने-अनजाने हमें वही बन जाना पड़ता है। बिना बने, हम पा नहीं सकते। हम वही पा सकते हैं, जो हम बनते हैं। जो भी हम चाहते हैं इस जगत में, इस जगत के पार, हम वही बन जाते हैं।
इसलिए आदमी के चेहरे पर, आंखों में, हाथों में, वह सब लिखा रहता है, वह जो उसकी खोज है, वह जो पाना चाहता है। आदमी को देखकर कहा जा सकता है, वह क्या पाना चाहता है। क्योंकि उसके सारे भावों पर, उसकी चमड़ी पर सब अंकित हो गया होता है।
परमात्मा को जिसे पाना है, उसे परमात्मा जैसा हो जाना पड़ेगा। परमात्मा के क्या मौलिक लक्षण हैं?
एक, कि परमात्मा सम है, विषम नहीं है। समता की स्थिति है परमात्मा, संतुलन की, दि एब्सोल्यूट बैलेंस। सब चीजें सम हैं परमात्मा में। कोई लहर भी नहीं है, जो विषमता लाती हो। सब! जैसे कि तराजू के दोनों पलड़े बिलकुल एक जगह पर हों, कंपन भी न होता है। जैसे वीणा के तार बिलकुल सधे हों। न बहुत ढीले हों, न बहुत खिंचे हों। ऐसी समता परमात्मा का स्वरूप है।
जिसे भी परमात्मा को पाना है, उसे समता की तरफ बढ़ना पड़ेगा। कोई चाहे कि मैं विषम रहकर और परमात्मा को पा लूं, तो नहीं पा सकेगा। विषम रहकर परमात्मा को पाना असंभव है।
इसीलिए जो आदमी क्रोध में, लोभ में, काम में, घृणा में,र् ईष्या में डूबता है, वह परमात्मा की तरफ नहीं बढ़ पाएगा। क्योंकि ये सब चीजें मन को विषम करती हैं, उत्तेजित करती हैं, आंदोलन करती हैं, सम नहीं करती हैं। इसलिए जो आदमी करुणा में, प्रेम में, क्षमा में, दान में, दया में विकसित होगा, वह धीरे-धीरे परमात्मा की तरफ बढ़ेगा। क्योंकि दान है, दया है, क्षमा है, करुणा है, प्रेम है, ये भीतर समता को पैदा करवाते हैं।
क्या कभी आपने खयाल किया कि जब आप लोभ से भरते हैं, तो आपके भीतर का संतुलन डगमगा जाता है। पलड़े नीचे-ऊपर होने लगते हैं। लहरें उठ जाती हैं।
जिस चीज से आपके भीतर जितनी ज्यादा विषमता पैदा होती हो, जानना, वह उतनी ही अधर्म है। अधर्म की एक कसौटी है, जिससे उत्तेजना और विषमता पैदा होती हो। धर्म की भी एक कसौटी है, जिससे समता और संतुलन निर्मित होता हो। ऐसी घड़ी भीतर आ जाए कि आपका हृदय दो पलड़ों की तरह ठहर जाए, तराजू सम हो जाए। कोई भी पल्ला न नीचे हो, न ऊपर हो। वजन किसी पर न रह जाए। दोनों पल्ले समान आ जाएं। ऐसी तराजू की स्थिति आ जाए सम, उसी क्षण परमात्मा से तदरूपता सधनी शुरू हो जाती है।
लेकिन हमारा मन सदा ही कहीं न कहीं झुका रहता है--किसी पक्ष में, किसी वृत्ति में, किसी लोभ में, किसी वासना में--कहीं न कहीं झुका रहता है। हम किसी के खिलाफ और किसी के पक्ष में झुके रहते हैं। किसी के विपरीत और किसी के अनुकूल झुके रहते हैं। किसी के विकर्षण में और किसी के आकर्षण में झुके रहते हैं। हम सदा ही झुके रहते हैं। और यह झुकाव चौबीस घंटे बदलता रहता है। चौबीस घंटे! हमें भी पक्का नहीं होता कि ऊंट सांझ तक किस करवट बैठेगा। दिन में बहुत करवट बदलते हैं।
यह जो चित्त की दशा है विषम, यह परमात्मा की तरफ ले जाने वाली नहीं बन सकती है।
परमात्मा है सम, समता। अगर वैज्ञानिक शब्दों में कहें, तो समत्व। परमात्मा शब्द को छोड़ा जा सकता है। इतना ही कहना काफी है कि जीवन का जो मूल स्वभाव है, वह समत्व है। वहां सब समान है।
जिस व्यक्ति को परमात्मा की यात्रा करनी है, उसे चौबीस घंटे ध्यान में रखना चाहिए कि वह समत्व खोता है या बढ़ाता है! ऊपर से बहुत अंतर नहीं पड़ता, असली सवाल भीतर जानकारी का है। ऊपर हो सकता है कि एक आदमी सम मालूम पड़े और भीतर विषम हो। इससे विपरीत भी हो सकता है। कृष्ण जैसा आदमी जब चक्र हाथ में ले ले सुदर्शन, तो बाहर से तो लोगों को लगेगा ही कि विषम हो गया, पर भीतर सम है।
असली सवाल भीतर है। इसलिए दूसरे का सवाल नहीं है। प्रत्येक को अपने भीतर देखते रहना चाहिए कि मैं समता को बढ़ाता हूं, गहराता हूं, घनी कर रहा हूं; या तोड़ रहा हूं, मिटा रहा हूं, नष्ट कर रहा हूं।
जैसे कोई आदमी बगीचे की तरफ जा रहा हो। अभी बगीचा बहुत दूर है, लेकिन जैसे-जैसे पास पहुंचता है, हवाएं ठंडी होने लगती हैं। हवाओं को ठंडा जानकर वह सोचता है कि मेरे कदम ठीक रास्ते पर पड़ रहे हैं। और पास पहुंचता है, अभी भी बगीचा दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन फूलों की सुगंध आने लगती है। तो वह सोचता है कि मेरे कदम ठीक रास्ते पर पड़ रहे हैं।
ठीक ऐसे ही, अगर आपके भीतर समता का भाव आने लगे, तो आप समझना कि परमात्मा की तरफ कदम पड़ रहे हैं। और अगर विषमता का भाव आने लगे, तो समझना कि कदम विपरीत पड़ रहे हैं। हवाएं गर्म होने लगें, तो समझना कि बगीचे से उलटे जा रहे हैं। और सुगंध की जगह दुर्गंध से चित्त भरने लगे, तो समझना कि बगीचे के विपरीत जा रहे हैं।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, समत्व को जो उपलब्ध हो जाए, वही उस परमात्मा से भी एक हो पाता है, तदरूप हो पाता है। और जब कोई उस परमात्मा से एक हो जाता है, तो हाथी में, घोड़े में, गाय में--किसी में भी--कृष्ण ने सारे नाम गिनाए, फिर वह परमात्मा को ही देखता है।
यह दूसरा भी एक महत्वपूर्ण नियम है जीवन का कि हम बाहर वही देखते हैं, जो हमारे भीतर गहरे में होता है। हम अपने से ज्यादा इस जगत में कभी कुछ नहीं देख पाते। बाहर हम वही देखते हैं, जो गहरे में हमारे भीतर होता है।
कोई आदमी आपके पास आता है। फौरन देखते हैं कि पता नहीं, रुपए मांगने तो नहीं आ गया! अभी उसने कुछ कहा नहीं है।
मैंने सुना है, एक आदमी ने किसी मित्र से रुपए मांगे, सौ रुपए मांगे। चौंककर उस मित्र ने देखा। स्वभावतः, जैसा कि किसी से भी रुपए मांगो, जिस तरह वह देखता है, वैसे उसने देखा। सोचा कि गए! लेकिन सौ रुपए देना उसकी सामर्थ्य के भीतर था। मित्रता खोनी उसने ठीक नहीं समझी। सोचा, सौ रुपए जाएंगे, यही उचित है। सौ रुपए दे दिए।
लेकिन ठीक पंद्रह दिन बाद जो वायदा था, उस दिन, बारह बजे दोपहर का जैसा वचन था, उस आदमी ने लाकर सौ रुपए लौटा दिए। फिर उसने चौंककर देखा। यह बिलकुल भरोसे के बाहर की बात थी।
लेकिन पंद्रह दिन बाद उसने फिर पांच सौ रुपए मांगे। अब उसकी हृदय की धड़कन बहुत बढ़ गई। लेकिन फिर भी उसकी सीमा के भीतर था, उसने पांच सौ रुपए दे दिए। और आश्चर्यों का आश्चर्य कि वह फिर पंद्रह दिन बाद, ठीक वक्त पर, जो समय तय था, उसने लाकर पांच सौ रुपए लौटा दिए। वह और भी चकित हो गया।
पंद्रह दिन बाद फिर उस आदमी ने हजार रुपए मांगे। उस मित्र ने कहा कि बस, अब बहुत हो गया! यू हैव फूल्ड मी ट्वाइस। थ्राइस, इट इज़ टू मच टु एक्सपेक्ट! दो दफे तुम मुझे मूर्ख बना चुके। लेकिन तीसरी बार, अब यह जरूरत से ज्यादा है। अब मैं हिम्मत नहीं कर सकता। उस आदमी ने कहा, मैंने तुम्हें कहां मूर्ख बनाया! दो दफे तो मैंने तुम्हें रुपए लौटा दिए। उस आदमी ने कहा कि तुमने लौटा दिए होंगे, लेकिन मैंने दो में से एक भी दफे नहीं सोचा था कि तुम लौटाओगे। तुम न लौटाते, तो मैं समझता कि मैं होशियार हूं। बात पक्की हो गई। जो मैंने जाना था, वह हो गया। तुमने लौटाए, उससे तो मैं मूर्ख बना। मैंने सोचा था, रुपए लौटेंगे नहीं, और तुमने लौटा दिए। एक दफे तुमने मूर्ख बना दिया। फिर भी दूसरी बार मैंने सोचा था कि रुपए लौटेंगे नहीं। फिर भी तुमने मुझे मूर्ख बना दिया। लेकिन अब क्षमा करो। अब बहुत ज्यादा है। तीन बार भरोसा करना बहुत मुश्किल है, उसने कहा कि अब मुझे तुम क्षमा कर दो! वह मित्र तो समझ ही नहीं पाया कि बात क्या है।
अक्सर ऐसा होता है। हम समझ ही नहीं पाते कि बात क्या है। दूसरा आदमी अपने भीतर से बात करता है, हम अपने भीतर से बात करते हैं। इसलिए दुनिया में संवाद बहुत कम होते हैं। सब अपने भीतर से बात करते हैं। और आप जब बात करते हैं, तो उससे बात नहीं करते, जो आपके सामने मौजूद है। आप उस इमेज से बात करते हैं, जो आप सोचते हैं कि आपके सामने मौजूद है।
पति कुछ कहता है, पत्नी कुछ समझती है। पत्नी कुछ कहती है, पति कुछ समझता है। पत्नी बहुत कहती है, यह मेरा मतलब ही नहीं, तब भी पति कुछ और समझता है। पति बहुत कहता है, यह मेरा कभी मतलब नहीं, लेकिन पत्नी फिर भी कुछ और समझती है! बात क्या है? इस दुनिया में संवाद ही नहीं हो पाता।
हम वही समझते हैं, जो हम प्रोजेक्ट करते हैं। जब किसी कमरे में दो आदमी मिलते हैं, तो वहां दो आदमी नहीं मिलते; वहां छः आदमी मिलते हैं। कम से कम छः, ज्यादा हो सकते हैं! एक तो मैं, जैसा मैं हूं; और एक वह, जिससे मैं मिल रहा हूं, जैसा वह है। ये दो आदमी तो मुश्किल से मिलते हैं। इनका तो कोई मिलन होता ही नहीं, जैसे हम हैं। एक वह जैसा मैं दिखलाने की कोशिश करता हूं कि मैं हूं, और एक वह जैसा वह दिखलाने की कोशिश करता है कि वह है। इनका भी मिलन कभी-कभी होता है। एक वह, जैसा मैं समझता हूं कि वह है, और एक वह, जैसा वह समझता है कि मैं हूं, इन दोनों की मुलाकात होती है। तो छः आदमी! जब दो आदमी मिलें, तो समझ लेना, छः आदमी। उनमें दो जो मिलते हैं, बिलकुल झूठे होते हैं। उनसे जो कम झूठे हैं, वे कभी-कभी मिलते हैं। और जो आथेंटिक हैं, उनका कोई मिलन ही नहीं हो पाता। उसका कारण है।
हम दूसरे में वही देखते हैं, जो हमारे भीतर होता है। जो आदमी परमात्मा से तदरूप हो जाएगा, वह अपने चारों ओर परमात्मा को देखना शुरू कर देगा। इसके अलावा उपाय नहीं बचेगा। उपाय नहीं है फिर। देखेगा ही। क्योंकि जब भीतर परमात्मा दिखाई पड़ेगा, तो आपकी आंखों के पार भी परमात्मा दिखाई पड़ेगा। जब अपनी हड्डी के पार परमात्मा दिखाई पड़ेगा, तो दूसरे की हड्डी में भी छिपा वही दिखाई पड़ेगा। जब अपनी देह के भीतर उसका मंदिर मालूम पड़ेगा, तो दूसरे की देह के भीतर भी उसका मंदिर मालूम पड़ेगा।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, सब में वह परमात्मा को देखना शुरू कर देता है।
हम तो अपने में ही नहीं देखते, तो दूसरे में देखने की तो बात बहुत मुश्किल है! सारी यात्रा अपने ही घर से शुरू करनी पड़ती है। अभी तो मुझे अपने में ही पता न चलता हो कि परमात्मा है, तो मैं आपमें कैसे देख सकूंगा? अपने भीतर तो पता चलता है, चोर है, बेईमान है। तो मैं दूसरे में भी चोर और बेईमान ही देख सकता हूं। पढूंगा मैं, किताब आपकी होगी, लेकिन पढूंगा वही, जो मैं पढ़ सकता हूं। अर्थ मैं वही निकालूंगा, जो मैं निकाल सकता हूं।
इसलिए इस जगत में हर किताब गलत पढ़ी जाती है, हर आदमी गलत पढ़ा जाता है। पढ़ा ही जाएगा, क्योंकि पढ़ने वाला वही पढ़ सकता है।
बुद्ध ने कहा है--एक रात ऐसा हुआ कि बुद्ध की सभा में, जैसे आज आप यहां इकट्ठे हैं, ऐसे ही हजारों लोग इकट्ठे थे--बुद्ध ने कहा कि सुनो भिक्षुओ, मैं जो कहता हूं, तुम वही नहीं समझोगे। तुम वही समझोगे, जो तुम समझ सकते हो। एक भिक्षु ने खड़े होकर कहा कि यह आप क्या कहते हैं! हम तो वही समझेंगे, जो आप कहते हैं। हम वह कैसे समझेंगे, जो आप नहीं कहते हैं? बुद्ध ने कहा, सुनो, कल रात ऐसा हुआ। कल रात भी तुम आए थे। कल रात एक चोर भी आया था; एक वेश्या भी आई थी। और जब रात अंतिम प्रवचन के बाद...।
जैसा मैं आपसे कहता हूं कि अब कीर्तन में डूब जाएं, ऐसा बुद्ध कहते थे, अब ध्यान में लग जाएं। लेकिन यह रोज-रोज क्या कहना। तो बुद्ध रोज इतना ही कह देते थे बोलने के बाद कि अब रात का जो आखिरी काम है, उसमें लग जाओ।
तो कल, बुद्ध ने कहा, जब मैंने कहा, अब रात के आखिरी काम में लग जाओ अर्थात ध्यान में चले जाओ, तो भिक्षु तो आंख बंद करके ध्यान में चले गए। चोर को खयाल आया कि रात काफी हो गई और काम में लगने का वक्त आ गया। और वेश्या को खयाल आया कि उठूं। ग्राहक आने शुरू हो गए होंगे।
बुद्ध ने कहा कि आखिरी काम में लग जाओ। जिसे ध्यान करना था, वह ध्यान में चला गया। जिसे चोरी करनी थी, वह चोरी करने चला गया। जिसे शरीर बेचना था, वह शरीर बेचने जा चुकी।
बुद्ध ने कहा, मैंने तो भिक्षुओ, एक ही बात कही थी, लेकिन तीन अर्थ हो गए।
नहीं; हम वही पढ़ लेते, वही समझ लेते, हम वही मान लेते, वही जान लेते, जो हमारे भीतर है। हमारा जगत हमारा प्रोजेक्शन है। एक-एक आदमी अपनी दुनिया को अपने साथ लेकर चलता है। एक-एक आदमी अपनी दुनिया को अपने साथ लेकर चलता है। कोई भी चीज बाहर घटे, हमें अपनी ही बात याद आती है।
मैंने सुना है कि एक गांव में भूकंप आ गया। भूकंप जैसी चीज! एक आदमी रास्ते से गुजर रहा है--बहुत लोग गुजर रहे हैं--एक आदमी रास्ते से गुजर रहा है। भूकंप आया जोर से। मकान कंपने लगे। मकानों से चीजें नीचे गिरने लगीं। दूसरे लोग चिल्लाकर भागे कि हे राम! मर जाएंगे। उस आदमी ने कहा, हे भगवान! मुझे खयाल आया कि मेरी पत्नी ने मुझे चिट्ठी डालने को दी थी दो दिन पहले, और वह अभी तक मेरे खीसे में रखी है! भूकंप देखकर खयाल आया! पड़ोस वाले आदमी ने कहा कि तू यह क्या कह रहा है! भूकंप देखकर तुझे यह खयाल आया कि पत्नी ने चिट्ठी दी थी डालने को, वह अभी तक खीसे में रखी है! उसने कहा कि हां, क्योंकि अगर चिट्ठी नहीं डाली गई है, यह पता चल गया, तो मेरे घर में भूकंप आता है!
वह दूसरा आदमी समझ ही नहीं सका कि भूकंप से और चिट्ठी डालने का क्या संबंध हो सकता है। कोई भी तो संबंध नहीं है, इररेलेवेंट है। लेकिन किसी का हो सकता है। अपने-अपने घर की बात है! अपने-अपने अनुभव की बात है।
भूकंप से खयाल आया घर का कि चिट्ठी अभी तक डाली नहीं गई। भागा! लोग जान बचाने भागे। वह भी अपनी जान बचाने भागा! वह चिट्ठी लेकर जल्दी से भागा कि वह चिट्ठी डाल दे।
आदमी के भीतर एक जाल है। उसी जाल से वह सारे जगत को बाहर से नापता-जोखता है। इसलिए जब आपको कोई आदमी चोर मालूम पड़े, तो एक बार सोचना फिर से कि उसके चोर मालूम पड़ने में आपके भीतर का चोर तो सहयोगी नहीं हो रहा! और जब कोई आदमी बेईमान मालूम पड़े, तो सोचना भीतर से कि उसके बेईमान दिखाई पड़ने में आपके भीतर का बेईमान तो कारण नहीं बन रहा!
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि बाहर लोग बेईमान नहीं हैं और चोर नहीं हैं। होंगे! उससे कोई प्रयोजन नहीं है। लेकिन जब आपको दिखाई पड़ता है, तो जरा भीतर देखना कि आपके भीतर कोई कारण तो इस व्याख्या के लिए आधार नहीं है? और अगर हो, तो दूसरे के चोर होने से इतना नुकसान नहीं है, जितना दूसरे के चोर दिखाई पड़ने से नुकसान है। क्योंकि फिर इस जगत में आपको परमात्मा दिखाई पड़ना मुश्किल है। और दूसरा चोर होकर आपसे कुछ कीमती चीज नहीं छीन सकता, लेकिन आप दूसरे में चोर देखते हैं, इससे आप बहुत बड़ी कीमती चीज से वंचित रह जा सकते हैं। वह दूसरे में परमात्मा दिख सकता था, उससे आप वंचित रह जा सकते हैं।
इसलिए साधक के लिए कहता हूं, आखिरी बात! साधक निरंतर इस चेष्टा में रहेगा, पहला सूत्र मैंने कहा, समता की ओर बढ़ रहा हूं या नहीं। दूसरा सूत्र, साधक निरंतर इस चेष्टा में रहेगा कि दूसरे के भीतर कोई ऐसी शुभ चीज को देख ले, जिससे परमात्मा का स्मरण आ सके। अगर दूसरे के भीतर अशुभ को देखा, तो शैतान का स्मरण आ सकता है, परमात्मा का स्मरण नहीं आ सकता। दूसरे के भीतर मैं कोई चीज देख लूं, जिससे परमात्मा का स्मरण आ सके।
तिब्बत में एक फकीर हुआ, मिलरेपा। वह कहा करता था कि अधार्मिक आदमी मैं उसको कहता हूं, जिससे अगर हम कहें कि हमारे गांव में फलां-फलां आदमी बहुत अच्छी बांसुरी बजाता है, तो वह फौरन कहेगा कि छोड़ो भी; क्या खाक बांसुरी बजाएगा! वह निपट चोर रखा है। और धार्मिक आदमी मैं उसे कहता हूं, मिलरेपा कहता था कि अगर हम उससे कहें कि हमारे गांव में फलां आदमी चोर है, तो वह कहेगा, मान नहीं सकता; वह इतनी अच्छी बांसुरी बजाता है कि चोरी कैसे करता होगा!
एक ही आदमी के बाबत, जो चोरी करता है और बांसुरी बजाता है, अधार्मिक आदमी चोरी को चुन लेता है, बांसुरी को काट देता है; धार्मिक आदमी बांसुरी को चुन लेता है, चोरी को काट देता है। इससे चोर में कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन देखने वाले व्याख्याकार में बुनियादी फर्क पड़ता है। क्योंकि जिसमें हम चोर देखते हैं, उसमें परमात्मा को देखना कठिन हो जाता है। और जिसमें हम मधुर बांसुरी का संगीत सुनते हैं, उसमें परमात्मा को देखना सरल हो जाता है। और अगर दूसरे में चोर दिखेगा, तो भीतर विषमता आएगी। और दूसरे में अगर बजती हुई बांसुरी सुनाई पड़ेगी, तो भीतर समता आएगी।
ये दो सूत्र भी एक ही सूत्र के हिस्से हैं। अगर भीतर समता लानी हो, तो बाहर शुभ को देखना अनिवार्य है। और अगर भीतर विषमता लानी हो, तो बाहर अशुभ को देखना अनिवार्य है।
बाहर अशुभ को देखना छोड़ते चले जाएं। और ध्यान रखें, इस पृथ्वी पर बुरे से बुरा आदमी भी ऐसा नहीं है, जिसके भीतर शुभ की कोई किरण न हो। और यह भी ध्यान रखें, इस पृथ्वी पर भले से भला आदमी भी ऐसा नहीं है, जिसके भीतर कोई अशुभ न खोजा जा सके। आप पर निर्भर है। और जब आपको एक अशुभ मिल जाता है किसी में, तो उसमें दूसरे शुभ पर भरोसा करना कठिन हो जाता है। और जब आपको किसी में एक शुभ मिल जाता है, तो दूसरे शुभ के लिए भी द्वार खुल जाता है।
भीतर लानी हो समता, तो बाहर शुभ का दर्शन करना शुरू करें। जितना शुभ का दर्शन कर सकें बाहर, करें। उतनी समता घनी होगी।
भीतर समता, बाहर शुभ। और आप पाएंगे कि इन दोनों के बीच में प्रभु की किरण धीरे-धीरे उतरने लगी। और वह दिन भी दूर नहीं होगा कि जिस दिन समता और शुभ की पूर्ण स्थिति में प्रभु से तदरूपता हो जाती है।
अब हम पांच मिनट तदरूपता में हो जाएं प्रभु के साथ। इसको कीर्तन ही न समझें, तदरूपता समझें। परमात्मा ही नाचता है, ऐसा ही समझें। बैठे रहें, ताली बजाएं, गीत गाएं। वहीं बैठे-बैठे आनंदमग्न हो जाएं।


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