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मंगलवार, 31 अक्टूबर 2017

गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-091



गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-091     
अध्याय ८
दूसरा प्रवचन
मृत्यु-क्षण में हार्दिक प्रभु-स्मरण

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।। ४।।
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।। ५।।
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।। ६।।
उत्पत्ति-विनाश धर्म वाले सब पदार्थ अधिभूत हैं और हिरण्यमय पुरुष अधिदैव हैं और हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन, इस शरीर में मैं ही अधियज्ञ हूं।
और जो पुरुष अंतकाल में मेरे को ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
कारण कि हे कुंतीपुत्र अर्जुन, यह मनुष्य अंतकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर को त्यागता है, उस-उस को ही प्राप्त होता है।
परंतु सदा उस ही भाव को चिंतन करता हुआ, क्योंकि सदा जिस भाव का चिंतन करता है, अंतकाल में भी प्रायः उसी का स्मरण होता है।


जिसका न प्रारंभ है और न जिसका अंत, उसे कृष्ण ने ब्रह्म कहा है। जो न कभी जन्मता है और न कभी मरता है, वह ब्रह्म है। लेकिन जो भी हमारे चारों ओर मौजूद दिखाई पड़ता है, वह जन्मता भी है और मरता भी है। उत्पत्ति भी होती है उसकी और विनाश भी। कृष्ण कहते हैं, यही पदार्थ है, यही अधिभूत है।
पदार्थ की और परमात्मा की यह परिभाषा समझ लेने जैसी है। पदार्थ हम उसे कहते रहे हैं सदा से, जो वास्तविक मालूम पड़ता है, रियल मालूम पड़ता है, जिसे हम ठोंक-बजाकर देख और पहचान सकते हैं। जो हमारी इंद्रियों की पकड़ में आता है--सुना जा सकता है, देखा जा सकता है, छुआ जा सकता है। जो वास्तविक है, यथार्थ है, उसे हम पदार्थ कहते रहे हैं।
और इसीलिए पदार्थवादी दर्शन है कि परमात्मा नहीं है, क्योंकि वह पदार्थ की तरह यथार्थ नहीं है। न हम उसे देख सकते, न छू सकते। जो न छुआ जाता, न देखा जाता, न इंद्रियों की पकड़ में आता, वह नहीं है। क्योंकि उसके होने का प्रमाण क्या है? पदार्थ का तो प्रमाण है, वह प्रत्यक्ष है और इंद्रियां उसका साक्षात्कार करती हैं। परमात्मा का कोई भी प्रमाण नहीं है। इसलिए पदार्थवादी सदा से कहता रहा है कि पदार्थ ही है, परमात्मा नहीं है।
लेकिन कृष्ण जो परिभाषा करते हैं, वह पूर्वीय मनीषा की गहनतम खोजों में से एक है। वह यह है कि हम परमात्मा उसे कहते हैं, जो सदा है एकरस, जिसमें कोई परिवर्तन नहीं है। और पदार्थ हम उसे कहते हैं, जो एक क्षण को भी वैसा नहीं है जैसा क्षणभर पहले था। परिवर्तन ही जिसका स्वभाव है, उसे हम पदार्थ कहते हैं; और नित्य होना ही जिसकी स्थिति है, उसे हम ब्रह्म कहते हैं।
चारों ओर जो हमें दिखाई पड़ता है, वह परिवर्तन ही है, क्योंकि परिवर्तन ही हमें दिखाई पड़ सकता है। इसे थोड़ा समझना होगा।
जो चीज बदलती है वह हमें दिखाई पड़ती है, यह आपने खयाल शायद न किया हो। कभी आपने देखा हो, एक कुत्ता आपके घर के सामने बैठा हुआ है। ठीक उसके सामने एक पत्थर पड़ा हुआ है, लेकिन उस कुत्ते को कोई फिक्र नहीं है। एक पतले धागे में उस पत्थर को बांधकर आप बैठे रहें; कुत्ता आराम से बैठा है। उस पत्थर का उसे कोई भी पता नहीं है। आप धागे से पत्थर को थोड़ा खींचें। और कुत्ते को फौरन एहसास होगा कि पत्थर है। भौंकेगा; तैयार हो जाएगा। क्या हुआ?
जो चीज बिलकुल थिर थी, उसने आकर्षित नहीं किया। वह थी या न थी, बराबर था। लेकिन जैसे ही गति आई, कि आकर्षण शुरू हुआ।
हम भी उन चीजों को भूल जाते हैं, जो बिलकुल थिर हैं। और उन्हीं चीजों को याद रख पाते हैं, जिनमें गति है और परिवर्तन है। परिवर्तन दिखाई पड़ता है, क्योंकि इंद्रियां, जो बदलता है, उसकी बदलाहट के कारण बेचैन हो जाती हैं। इसे थोड़ा समझें, तो यह भीतर प्रवेश करने में सहयोगी होगा।
जो चीज बदलती है, वह मन को बेचैन करती है, क्योंकि मन को रि-एडजस्टमेंट करना होता है। फिर से अपने को बदलती हुई स्थिति के साथ तालमेल बिठाना पड़ता है। जो चीज नहीं बदलती, हम उसे भूल जा सकते हैं, क्योंकि उसके साथ कोई नई स्थिति पैदा नहीं होगी, जिसके लिए हमें उसकी याद रखनी पड़े। जब साधारण स्थिर चीजों के साथ ऐसा हो जाता है, तो जो शाश्वत है, नित्य है, जो सदा से ही रहा है--जब हम नहीं थे, तब भी था; और जब हम नहीं होंगे, तब भी होगा; हम जागते हैं, तब भी वह वैसा है; हम सोते हैं, तब भी वह वैसा है--उसको अगर हम बिलकुल ही भूल जाते हों, तो कोई आश्चर्य नहीं है।
मछली को सागर के पानी का पता नहीं चलता। चल भी नहीं सकता, जब तक मछली को पानी के बाहर न निकाल दिया जाए। क्योंकि जब मछली नहीं जन्मी थी, तब भी सागर था। वह उसी में जन्मी, उसी में बड़ी हुई, उसी में जीयी। उसे पता भी नहीं हो सकता कि सागर भी है। सागर का होना इतना थिर है उसके लिए कि अपने होने में और सागर के होने में कोई फर्क और फासला भी नहीं है कि उसे उसका पता चले।
हां, एक बार मछली को सागर से बाहर निकाल लें, तो जो पहली चीज मछली को पता चलेगी, वह सागर है। फिर दूसरी चीजें तो पीछे पता चलेंगी। पहला पता चलेगा सागर का।
मछली को सागर से निकाला जा सकता है, लेकिन मनुष्य को परमात्मा के बाहर नहीं निकाला जा सकता है। इसलिए हमें उसका पता भी नहीं चल सकता है। हम उसे स्वीकार--स्वीकार करने का भी सवाल नहीं है, हम उसकी प्रत्यभिज्ञा को, उसके रिकग्नीशन को भी उपलब्ध नहीं होते हैं।
पदार्थ का पता चलता है; वह प्रतिपल भागा जा रहा है, बदलता जा रहा है। बदलते हुए पदार्थ के साथ हमें बदलना पड़ता है। हमें बदलना पड़ता है, इसलिए हमें उसका स्मरण रखना पड़ता है। इसलिए इंद्रियां केवल बदलते हुए पदार्थ को ही पकड़ती हैं। इंद्रियों का काम ही यही है। बदलते हुए संसार के हमें योग्य बनाए रखना, इंद्रियों का काम है। यही उनकी कुशलता है।
हम एक आदमी को बहरा कहते हैं, क्यों? क्योंकि बाहर जो ध्वनियों में अंतर हो रहा है, वह उसकी पकड़ में नहीं आता। लेकिन अगर पूर्ण सन्नाटा हो, तो बहरे और कान वाले आदमी में कोई फर्क होगा? अगर पूर्ण सन्नाटा हो और आप अचानक बहरे हो जाएं, तो क्या आपको पता चलेगा कि आप बहरे हो गए हैं? आपको कभी पता नहीं चलेगा। क्योंकि आपको अपने कान का ही पता तब चलेगा, जब बाहर दुनिया बदलती हो और आप उन्हें न पकड़ पाते हों।
अगर कोरे आकाश को मेरी आंखें देखती हों, जहां कोई भी परिवर्तन न हो, तो मैं कब अंधा हो गया, मुझे पता नहीं चल सकेगा। बदलती हुई चीजों की वजह से पता चलता है। आंख का काम है कि वह बदलती हुई चीजों की खबर देती रहे। ये सारे उपकरण इंद्रियों के बदलाहट की खबर देने के लिए हैं।
और जिंदगी पूरे समय बदलती है। पदार्थ पूरे समय बदलता है। और आपको प्रतिपल होश रखना पड़ेगा, बदलाहट तेजी से हो रही है। लेकिन परमात्मा तो कभी बदलता नहीं। कृष्ण कहते हैं, वह नित्य है, निराकार है, शून्य जैसा है, शून्य का सागर है। उसमें तो कोई बदलाहट होती नहीं है। इसलिए हमें उसका कोई भी पता नहीं चलता है।
तो कृष्ण ने पहले तो ब्रह्म की परिभाषा में कहा कि वह जो विनाश को कभी उपलब्ध नहीं होता।
विनाश को वही उपलब्ध नहीं हो सकता, जिसका होना न होने जैसा हो। इसे थोड़ा खयाल ले लेंगे। जिसका होना न होने जैसा हो, वही केवल विनाश को उपलब्ध नहीं हो सकता। जिसका होना जितना ठोस होगा, उतनी जल्दी विनाश को उपलब्ध हो जाएगा।
कल कोई मुझसे पूछता था कि क्या आप मुझे प्रेम करते हैं? और यदि मुझे प्रेम करते हैं, तो क्या आपका प्रेम सदा बना रहेगा मेरे प्रति? तो मैंने उस व्यक्ति को कहा कि अगर मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, तो वह सदा बना रहना बहुत मुश्किल होगा। और जितना ज्यादा करूंगा, उतनी जल्दी खो जाएगा। अगर तुम चाहते हो कि मेरा प्रेम बना ही रहे सदा तुम्हारे प्रति, तो तुम्हें मेरे ऐसे प्रेम को स्वीकार करना पड़ेगा, जिसका पता भी नहीं चलता है।
जिस चीज का भी पता चलेगा, वह ठोस हो गई, पदार्थ हो गई। प्रेम भी पदार्थ हो जाता है, जब उसका पता चलता है। फिर वह विनाश के जगत में प्रवेश कर जाता है। जिस प्रेम का पता ही नहीं चलता, वह कभी विनष्ट नहीं होता। क्योंकि उसके विनाश का कोई उपाय नहीं है। आकार चाहिए, तो कोई चीज विनष्ट की जा सकती है। निराकार को विनष्ट करने का कोई उपाय नहीं है।
परमात्मा का होना, न होने जैसा है। एक्झिस्टेंस, एज इफ नान एक्झिस्टेंट, जैसे न हो। छूने जाते हैं, तो छूने में नहीं आता। देखने जाते हैं, तो दिखाई नहीं पड़ता। खोजते हैं, खोज में नहीं आता। मुट्ठी बांधते हैं, कहीं कोई पकड़ नहीं बैठती। और है! और वही है। और बाकी सब होना, न होने में डूबता चला जाता है।
लेकिन जिसे सदा होना है, उसे ऐसा होना पड़ेगा कि वह पकड़ में न आए। क्योंकि जो भी पकड़ में आता है, वह पदार्थ हो जाता है। जिस चीज को भी हम कह सकते हैं, है; हमारे कहते ही वह विनष्ट होनी शुरू हो जाती है। इसलिए कुछ अदभुत आस्तिक जमीन पर हुए हैं, उनकी मैं आपसे बात कहूं, जैसे बुद्ध।
बुद्ध से कोई पूछे कि ईश्वर है, तो वे चुप रह जाते हैं। बुद्ध के इस चुप रह जाने के कारण एक भ्रांति पैदा हुई। लोगों ने समझा, बुद्ध नास्तिक हैं और ईश्वर को नहीं मानते हैं। लेकिन बुद्ध केवल इसीलिए चुप रह जाते हैं कि जिस ईश्वर को हम कहेंगे है, उसे फिर नहीं भी होना पड़ेगा। इसलिए उसके संबंध में है कहना भी ठीक नहीं है। है कहते से ही पदार्थ प्रवेश करता है।
इस जगत में जो सच्चे आस्तिक हुए हैं, उन्होंने ईश्वर के होने के लिए कोई प्रमाण, कोई आर्ग्यूमेंट नहीं दिया है। और जिन्होंने प्रमाण दिए हैं और आर्ग्यूमेंट दिए हैं, उन्हें ईश्वर का कोई भी पता नहीं है। जो कहते हैं कि ईश्वर है, क्योंकि उसने दुनिया को बनाया...। ध्यान रखें, बनाई हुई चीज भी नष्ट हो जाती है, बनाने वाले भी नष्ट हो जाते हैं।
नहीं; परमात्मा को न तो बनाया हुआ कहो और न बनाने वाला कहो, क्योंकि ये दोनों ही बातें विनाश के जगत में प्रवेश कर जाती हैं। वह है, जैसे कि न हो। उसकी जो उपस्थिति है, उसकी जो मौजूदगी है, उसकी मौजूदगी का जो स्वभाव है, वह जस्ट लाइक एब्सेंस, जैसे गैर-मौजूद हो।
हम अपने कमरे से फर्नीचर को बाहर निकालकर फेंक सकते हैं। क्योंकि फर्नीचर है, मौजूद है, उसे बाहर किया जा सकता है। लेकिन कमरे से हवा को निकालना हो, तो बड़ी कठिनाई होगी। क्योंकि हवा फर्नीचर की तरह ठोस नहीं है। फिर भी हवा को निकाला जा सकता है; फिर भी निकाला जा सकता है। हाथ से धक्का मारें, तो स्पर्श हो जाता है। धुआं उड़ाएं, तो हवा की रेखाएं बोध में आने लगती हैं। सांस खींचें, तो हवा भीतर ली जा सकती है। तो फिर एक पंप लगाकर सक की जा सकती है, बाहर निकालकर फेंकी जा सकती है। नहीं तो है, लेकिन फिर भी काफी है; बाहर निकाली जा सकती है।
लेकिन एक और चीज भी है कमरे के भीतर, वह है आकाश। आकाश को बाहर बिलकुल नहीं निकाला जा सकता। पदार्थ है, उसे बड़ी आसानी से निकाला जा सकता है। हवा है, वह पदार्थ और आकाश के बीच में डोलता हुआ अस्तित्व है, उसे भी निकाला जा सकता है। लेकिन आकाश है कमरे के भीतर, स्पेस है, उसे नहीं निकाला जा सकता। क्यों? क्योंकि वह न होने के जैसा है। उसे निकालिएगा कैसे! निकालने के लिए कुछ तो होना चाहिए, जिसे हम धक्का दे सकें। आकाश को हम धक्का नहीं दे सकते।
इसलिए इस जगत में सभी चीजें बनती हैं और मिटती हैं। लेकिन आकाश? आकाश अनबना, अनमिटा मौजूद रहता है। इसलिए जिन लोगों ने परमात्मा के लिए निकटतम प्रतीक खोजा है, उन लोगों ने कहा है कि वह आकाश जैसा है--शून्य, न होने जैसा, रिक्त, खाली। ऐसा हो, तो ही विनाश के बाहर हो सकता है। ऐसा न हो, तो विनाश के भीतर आ जाता है।
विनष्ट होने का कारण क्या है पदार्थ का? पदार्थ क्यों विनष्ट होता है?
पदार्थ इसलिए विनष्ट होता है कि पदार्थ डिविजिबल है, उसका विभाजन किया जा सकता है। हम एक पत्थर के दो टुकड़े कर सकते हैं। जो चीज भी विभाजित हो सकती है, उसके कितने ही टुकड़े किए जा सकते हैं, वह नष्ट हो जाएगी। जो चीज विभाजित होती है, उसका अर्थ है कि वह बहुत चीजों से मिलकर बनी है; संयोग है, कंपाउंड है।
परमात्मा संयोग नहीं है; अस्तित्व संयोग नहीं है। अस्तित्व इकट्ठा है, एक है; उसमें कोई खंड नहीं हैं। इसलिए ब्रह्म को अखंड कहा है। उसके टुकड़े नहीं हो सकते। जिस चीज के टुकड़े नहीं हो सकते, उसका विनाश नहीं हो सकता, क्योंकि विनाश की प्रक्रिया में खंडित होना जरूरी हिस्सा है।
किस चीज का खंड नहीं हो सकता? जिसकी कोई सीमा-रेखा न हो, उसका खंड नहीं हो सकता। जिसकी सीमा-रेखा हो, उसका खंड हो सकता है। वह कितनी ही छोटी हो, कितनी ही बड़ी हो, जिसकी सीमा है, उसके हम दो हिस्से कर सकते हैं। लेकिन जिसकी कोई सीमा नहीं है, उसके हम दो हिस्से नहीं कर सकते।
अस्तित्व असीम है और पदार्थ सदा सीमित है। इसलिए पदार्थ खंडन को उपलब्ध हो सकता है। खंडन से विनाश हो जाता है।
फिर जिस चीज को हम बना सकते हैं, वह मिटेगी। सिर्फ एक चीज है, जिसे हम नहीं बना सकते हैं, और वह परमात्मा है। बाकी सब चीजें हम बना सकते हैं। ऐसी कौन-सी चीज है, जो हम नहीं बना सकते? सब बना सकते हैं। अस्तित्व भर नहीं बना सकते हैं। जिसे हम बना सकते हैं, वह मिट जाएगा। और हम बना सकते हैं, ऐसा नहीं, प्रकृति भी जिसे बना सकती है, वह मिट जाएगा। जो भी कंस्ट्रक्ट हो सकता है, वह डिस्ट्रक्ट हो सकता है। जिसको हम बना ही नहीं सकते, वही केवल विनाश को उपलब्ध नहीं हो सकता है।
हमारा अनबनाया क्या है? अगर उसे हम खोज लें, तो वही ब्रह्म है। और जो भी बन सकता है, और बनाया जा सकता है, और बनाया जा रहा है--चाहे आदमी बनाए, चाहे प्रकृति बनाए--वह सब पदार्थ है।
तो कृष्ण कहते हैं, उत्पत्ति और विनाश धर्म वाले सब पदार्थ अधिभूत हैं, वे भौतिक हैं, फिजिकल हैं। और पुरुष अधिदैव है।
यह पुरुष कौन है? इस पदार्थ के बीच में जो जीता है और पदार्थ के प्रति होश से भर जाता है, उसे कृष्ण पुरुष कहते हैं।
पदार्थ को स्वयं का कोई बोध नहीं है। पत्थर पड़ा है आपके द्वार पर, तो पत्थर को कोई पता नहीं कि वह है। और पत्थर को यह भी पता नहीं कि आप भी हैं। ये दोनों बोध आपको हैं। पत्थर है, यह भी आपका बोध है; और आप हैं, पत्थर से भिन्न, यह भी आपका बोध है।
पुरुष शब्द का अर्थ होता है, नगर के बीच में रहने वाला, पुर के बीच में रहने वाला। यह पदार्थ का जो पुर है, पदार्थ का जो यह महानगर है, इसके बीच में जो रहता है। वह अपने प्रति भी होश से भरा हुआ होता है, इस नगर के प्रति भी होश से भरा हुआ होता है।
इस हिरण्यमय को कृष्ण कहते हैं, यह पुरुष अधिदैव है। यही चैतन्य है, यही परम चैतन्य है, यही परम दिव्यता है।
चेतना का लक्षण है, होश, अवेयरनेस। इसलिए सारे धर्मों ने शराब का, बेहोशी का विरोध किया है, सिर्फ एक कारण से; कोई और कारण नहीं है। सिर्फ एक कारण, कि जितने आप बेहोश होते हैं, उतने आप पदार्थ हो जाते हैं, पुरुष नहीं रह जाते। और सारे धर्मों ने ध्यान का समर्थन किया है, सिर्फ एक कारण से, कि जितने आप ध्यानस्थ होते हैं, उतने पदार्थ कम हो जाते हैं और पुरुष ज्यादा हो जाते हैं।
जिस दिन कोई व्यक्ति पूर्ण ध्यान को उपलब्ध होता है, सिर्फ शुद्ध चेतना रह जाता है, उस दिन वह परम पुरुष हो जाता है, पुरुषोत्तम हो जाता है।
और जिस दिन कोई व्यक्ति पूर्ण मूर्च्छा को उपलब्ध हो जाता है, कि उसके हाथ-पैर काट डालो, तो भी उसे पता नहीं चलता। उसकी छाती में छुरा भोंक दें, तो भी उसे पता नहीं चलता। उसे यह भी पता नहीं है कि वह है। इस परम मूर्च्छा में वह करीब-करीब पदार्थ हो जाता है, जड़ हो जाता है।
इन दोनों के बीच में कहीं हम डोलते रहते हैं। पदार्थ और परमात्मा के होने के बीच में हमारा डोलना चलता रहता है। हम चौबीस घंटे में कई बार पदार्थ के करीब पहुंच जाते हैं और कई बार हम परमात्मा के निकट पहुंच जाते हैं।
लेकिन एक सूत्र खयाल रहे, तो आप पता रख सकते हैं कि आपकी चेतना का थर्मामीटर कब पदार्थ से परमात्मा की तरफ डोलता रहता है। जब आप होश से भरे होते हैं किसी भी क्षण में, तब आप परमात्मा के मंदिर के बहुत निकट होते हैं। और जब आप बेहोश होते हैं किसी भी क्षण में, तब आप पदार्थ के बहुत निकट होते हैं।
कब आप बेहोश होते हैं? कब आप होश में होते हैं?
कभी आपने खयाल किया कि जब आप क्रोध से भरते हैं, तो होश खो जाता है। इसलिए अक्सर क्रोध के बाद आदमी कहता है कि समझ नहीं पड़ता, यह मैंने कैसे किया! यह मुझसे कैसे हो सका! यह तो मैं कभी नहीं कर सकता हूं।
वह ठीक कहता है। अब उसका थर्मामीटर होश के करीब है, इसलिए वह कह रहा है कि यह मैं कभी नहीं कर सकता हूं। उसने यह किया भी नहीं। अगर इतना होश होता, तो वह करता भी नहीं। लेकिन जब उसने किया, तो बेहोशी के करीब था। क्रोध शरीर में जहर छोड़ देता है। मार्फिया की तरह, सब भीतर चेतना को कुंद कर देता है। फिर आप कुछ भी कर गुजरते हैं। उस कर गुजरने में बेहोशी है।
इसलिए जब कोई आदमी किसी की हत्या करता है, तो पुरुष की हैसियत से कोई कभी किसी की हत्या नहीं करता, पदार्थ की हैसियत से ही हत्या करता है। और वस्तुतः समस्त धर्मों ने अगर हत्या का विरोध किया है, तो इसलिए नहीं कि दूसरा मर जाएगा; क्योंकि धर्म भलीभांति जानते हैं कि दूसरा कभी नहीं मरता है। फिर भी विरोध किया है, और विरोध का कारण यह है कि हत्या करते वक्त हत्या करने वाला मर जाता है और पदार्थ हो जाता है। उसके भीतर सारा होश खो जाता है।
बुराई में और कोई बुराई नहीं है। और भलाई में और कोई भलाई नहीं है। बुराई में एक ही बुराई है कि हम पदार्थवत हो जाते हैं। और भलाई में एक ही भलाई है कि हम पुरुषवत हो जाते हैं। यह जो भीतर चैतन्य है, यह जो चेतना की ज्योति है, इसको जितना बढ़ा लें, उतना अधिदैव के निकट होने लगते हैं। इसे जितना घटा लें, धुआं-धुआं हो जाए, अंधेरा छा जाए, उतना अधिभूत के निकट हो जाते हैं। शायद, जिसे हम पदार्थ कहते हैं, वह सोया हुआ अधिदैव है। और जिसे हम अधिदैव कहते हैं, वह जागा हुआ पदार्थ है।
लेकिन अर्जुन ने जो पूछा है, कृष्ण एक-एक की व्याख्या दे रहे हैं।
हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन, इस शरीर में मैं ही अधियज्ञ हूं। यह बहुत मजे की बात कृष्ण कहते हैं, हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन!
अर्जुन को कृष्ण देहधारियों में श्रेष्ठ क्यों कहते होंगे? कोई कारण सीधा समझ में नहीं आता। कोई कारण सीधा समझ में नहीं आता। और कृष्ण अकारण कहेंगे, यह तो बिलकुल समझ में नहीं आता। या कृष्ण इसलिए कहेंगे कि वह सम्राट परिवार का है, सम्राट होने की पूरी संभावना है उसकी पुनः, इसलिए कहेंगे, यह भी समझ में नहीं आता। क्योंकि कृष्ण के लिए सम्राट और सड़क के भिखारी में क्या फर्क होगा!
और देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! क्या देहें भी श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ होती हैं? क्या कृष्ण इसलिए कहेंगे कि वह एक कुलीन वंश से आता है? क्या उसकी देह में मांस-मज्जा न होकर सोने और हीरे और जवाहरात जड़े हैं? और जड़े भी हों, तो भी हड्डी से उनका कोई ज्यादा मूल्य नहीं है। क्यों कहते होंगे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन?
गीता पर हजारों वक्तव्य दिए गए हैं, लेकिन मेरे खयाल में कोई वक्तव्य नहीं है, जो ठीक से कह पाता हो कि अर्जुन को कृष्ण ने बार-बार कहा, देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! यह क्यों कहा है? उन सबकी मान्यता यही रही है कि क्षत्रिय कुल का है, बड़े कुलीन वंश का है, राज-परिवार का है, योद्धा है, फिर कृष्ण का मित्र है, इसलिए कहते होंगे। पुण्यात्मा है, नहीं तो कैसे इतने बड़े कुल में पैदा होगा, इसलिए कहते होंगे।
नहीं; बिलकुल नहीं। एक ही क्षण में कोई व्यक्ति देहधारियों में श्रेष्ठ हो जाता है, जिस दिन उसकी देह, वह जो जीवन का परम सत्य है, उसे सुनने के निकट होती है। वह जो जीवन का परम सत्य है, वह जो जीवन का गुह्य रहस्य है, जिस दिन किसी व्यक्ति की देह, किसी व्यक्ति का शरीर उस परम रहस्य को सुनने के, देखने के, स्पर्श करने के, जानने के निकट होता है, उसी क्षण...।
कृष्ण यह कह रहे हैं अर्जुन को। और निश्चित ही इस अर्थ में वह देहधारियों में श्रेष्ठ है, क्योंकि कृष्ण के इतने निकट होना, और कृष्ण की वाणी के इतने निकट होना, और कृष्ण के गुह्य संदेश के इतने निकट होना, जस्ट बाइ दि कार्नर, जहां कोई चाहे तो छलांग लगा ले और कृष्ण हो जाए। सूर्य के इतने निकट होना कि जहां से स्वयं भी प्रकाश बन जाना आसान हो। बस, इस एक घड़ी में ही कोई व्यक्ति देहधारियों में श्रेष्ठ हो जाता है।
कभी कोई अर्जुन कृष्ण के करीब, कभी कोई आनंद बुद्ध के करीब, कभी कोई ल्यूक क्राइस्ट के करीब, कभी कोई च्वांगत्से लाओत्से के करीब देहधारियों में अचानक श्रेष्ठ हो जाता है। अपनी देह के कारण नहीं, उस दूसरे की मौजूदगी के कारण, जिसकी मौजूदगी पारस की तरह लोहे को सोने में बदल सकती है।
अर्जुन को यह याद दिलाने के लिए कि अर्जुन, यह क्षण मोमेनटस है, यह घड़ी अलौकिक है। ऐसी घड़ी बाद में पुनरुक्त होगी, नहीं कहा जा सकता है।
इतिहास दोहरता है सिर्फ सड़ी-गली चीजों के लिए। चंगेज दुबारा आ जाता है, हिटलर बार-बार लौट आते हैं। हत्याएं और युद्ध फिर-फिर हो जाते हैं। लेकिन गीता दुबारा कही जानी और दुबारा सुनी जानी मुश्किल है। जो सड़ा-गला है, वह रोज घूम-फिरकर लौट जाता है। लेकिन जो श्रेष्ठ है, उसकी पुनरुक्ति शायद ही कभी होती है।
कृष्ण सिर्फ अर्जुन को बहुत परोक्ष रूप से याद दिलाते हैं कि अर्जुन यह क्षण बहुत कीमती है। इस समय तू सिर्फ अर्जुन नहीं है, देहधारियों में श्रेष्ठ हो गया है। इस समय तू उन वचनों को सुन रहा है, जो तेरे जीवन के लिए क्रांति बन सकते हैं। एक शब्द भी तेरे लिए छलांग हो सकता है। और तत्काल उसके पीछे ही कहते हैं इसीलिए कि हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन, इस शरीर में मैं अधियज्ञ हूं।
और यह जो शरीर है, यह जो देह है, इस देह में तीन बातें हो गईं। एक, इसमें पदार्थ है, जो परिवर्तित होता है, विनाश को उपलब्ध होता है। जिसे हम देह समझते हैं, वह देह वही है, जिसे कृष्ण पदार्थ कह रहे हैं, अधिभूत कह रहे हैं। इसे थोड़ा समझें।
जिसे हम कहते हैं देह, उसे कृष्ण अधिभूत कहते हैं। यह एक पर्त है हमारी देह की, दि फर्स्ट सर्किल, पहला वृत्त। इसके भीतर चलें तो चैतन्य है, चेतना है। वह भी हमारी बड़ी धीमी-धीमी है, मूर्च्छित-मूर्च्छित है। उसे कृष्ण अधिदैव कहते हैं। और अगर इसके भी भीतर चलें, तो सेंटर है, केंद्र है। वही केंद्र कृष्ण कहते हैं, मैं हूं, अधियज्ञ हूं।
बाहर है मूर्च्छित देह, पदार्थ। उसके भीतर है अर्ध-मूर्च्छित अर्ध-जाग्रत चेतना; धुआं-धुआं, अंधेरा-अंधेरा, कुछ साफ नहीं, धुंध-धुंध। उसके भीतर है जलती हुई प्रज्वलित अग्नि, पूर्ण चेतना। इसलिए कृष्ण ने उसे कहा, अधियज्ञ। वही हूं मैं यज्ञ, पूर्ण जलती हुई ज्योति, अखंड, जहां धुआं भी नहीं, फ्लेम विदाउट स्मोक।
अगर धुआं है ज्योति के आस-पास, तो वह नंबर दो की बात है--अधिदैव। अगर धुआं ही धुआं है, ज्योति ही नहीं है, तो वह पहली बात है--अधिभूत। और अगर धुआं बिलकुल नहीं है, सिर्फ फ्लेम है, सिर्फ ज्योति है, जिससे धुआं पैदा ही नहीं होता...। और जिस ज्योति में धुआं पैदा होता है, वह यज्ञ की ज्योति नहीं। जिस ज्योति में धुआं पैदा नहीं होता, वही यज्ञ की ज्योति है।
इसलिए बाहर के यज्ञों से कुछ भी न होगा। वहां तो धुआं रहेगा ही। और जो आग हमने जलाई है, वह बुझेगी ही। उस आग को खोजना पड़ेगा, जो हमने जलाई ही नहीं, जो सदा से जल ही रही है। और जो आग हमने जलाई है, उसमें ईंधन का किया है उपयोग। जहां होगा ईंधन, जहां होगा पदार्थ, वहां धुआं होगा ही। और जहां होगा ईंधन, वहां आग चुक ही जाएगी। हमें उस आग को खोजना पड़ेगा, जहां कोई ईंधन नहीं है। बिना ईंधन के अगर कोई आग मिल जाए, तो फिर नहीं बुझेगी। बुझने का कोई कारण न रहा।
ध्यान रहे, आग नहीं बुझती, ईंधन बुझता है। ईंधन बुझ जाता है, आग विलुप्त हो जाती है। ईंधनरहित अगर कोई आग हो, तो उसमें धुआं पैदा नहीं होगा। क्योंकि धुआं भी आग से पैदा नहीं होता, गीले ईंधन से पैदा होता है। सूखा ईंधन हो, तो कम पैदा होता है। ज्यादा सूखा हो, और कम होता है। ज्यादा गीला हो, और ज्यादा होता है।
ईंधन से धुआं पैदा होता है, आग से नहीं। अगर बिना ईंधन के कोई आग संभव है, तो कृष्ण कहते हैं, वही आग मैं हूं--दैट फायर--वही अधियज्ञ मैं हूं। इस देह में मैं ही अधियज्ञ हूं।
कृष्ण ने तीन पर्तों के अस्तित्व को पूरा कहा। एक पर्त है पदार्थ की। व्यक्ति की देह में भी ऐसा ही है, पदार्थ की एक पर्त। फिर चेतना का एक धुआं-धुआं, अर्ध-जाग्रत, अर्ध-सोया हुआ विस्तार। और फिर केंद्र पर वह ज्योति, जो अनिर्मित, ईंधनरहित, धुएं से मुक्त, शाश्वत और नित्य है। कृष्ण कहते हैं, वही मैं हूं।
यह व्यक्ति के तल पर; और इसे ही विराट के तल पर भी समझ लें। व्यक्ति जो है, वह विराट का ही बहुत छोटा प्रतिरूप है। इस विराट ब्रह्म की इस विराट ब्रह्मांड को भी देह समझें। तो पहली पर्त पदार्थ की; दूसरी पर्त चैतन्य की, अर्ध-चैतन्य की; और तीसरी पर्त ज्योतिर्मय ब्रह्म की। व्यक्ति के तल पर या विराट के तल पर, ये तीन सर्किल, ये तीन वृत्त, ठीक से याद रख लें। पहला पदार्थ का, दूसरा अर्ध-चेतना का, और तीसरा शुद्ध अग्नि का, शुद्ध प्रकाश का, मात्र प्रकाश का, शुद्ध चैतन्य का।
वस्तुतः वह जो शुद्ध चैतन्य है भीतर वह और बाहर वह जो शुद्ध पदार्थ है वह, ये दोनों जहां ओवरलैप करते हैं, जहां एक-दूसरे की सीमा पर छा जाते हैं, वहीं हमारी अर्ध-चेतना पैदा होती है।
जब कोई व्यक्ति पूर्ण रूप से भीतर सरक जाता है, तो अर्ध-चेतना विलुप्त हो जाती है। और बीच में वह अंतराल पैदा हो जाता है, जहां देखा जा सकता है कि मैं अलग, देह अलग; ब्रह्म अलग, पदार्थ अलग। बीच से जैसे ही अर्ध-चेतना गिर जाती है...।
यह अर्ध-चेतना दो तरह से गिर सकती है। या तो आप बिलकुल बेहोश हो जाएं पदार्थ में जाकर, तो ब्रह्म बिलकुल भूल जाता है; बेहोशी पूरी हो जाती है। या आप पूर्ण होश में आ जाएं, ब्रह्म के भीतर आकर, उस पूर्ण होश में भी यह बीच की चेतना विलुप्त हो जाती है।
मनुष्य को दो ही तरह के आनंद संभव हैं। एक आनंद--जो कि भ्रम ही है, आनंद नहीं--वह आनंद है पूर्ण मूर्च्छा का। इसलिए नींद में सुख मिलता है। बड़ी हैरानी की बात है! जिन्हें जागने में सुख का पता नहीं चलता, वे कहते हैं जागकर सुबह कि नींद में सुख मिला! जिनको जागकर भी सुख नहीं मिलता है, उन्हें नींद में कैसे मिलता होगा?
मुल्ला नसरुद्दीन एक रात सोया है। और एक चोरों का गिरोह उसके घर में घुस गया। वे बड़ी खोजबीन कर रहे हैं। आखिर मुल्ला से न रहा गया, उसने कहा कि भाइयो, अगर कुछ मिल जाए, तो मुझे भी खबर कर देना! उन चोरों ने कहा, कुछ मिल जाए, खबर कर देना! मतलब? मुल्ला ने कहा, दिनभर वर्षों से खोज-खोजकर हमें कुछ न मिला इस मकान में, तो रात के अंधेरे में तुम्हें कैसे क्या मिलेगा? कुछ मिल जाए तो खबर कर जाना।
जिन्हें दिन के जागरण में कोई सुख नहीं मिला, वे रात के बाद सुबह उठकर कहते हैं, बड़ा सुख मिला! जरूर कहीं कोई भूल हो रही है। सिर्फ दिनभर में जो दुख वे पैदा करते थे, वे भर पैदा नहीं कर पाए; और कुछ मामला नहीं है। वे जो दिनभर में दुख पैदा कर लेते थे, नींद की कृपा से, बेहोशी के कारण, वे दुख पैदा नहीं कर पाए; एक।
दूसरा, नींद में दुख भी पैदा हुए हों, तो वे उन्हें पता नहीं चल पाए। तीसरा, कल के जागने और आज के जागने के बीच में वह जो आठ-दस घंटे का अंधेरा गुजर गया, उससे शृंखला टूट गई। सुबह उठकर वे कहते हैं, बड़ा सुखद मालूम हो रहा है!
नींद में हमें सुख मिलता है। शराब पी लेते हैं, तो सुख मिलता है। कामवासना में उतर जाते हैं, तो सुख मिलता है। वह सब बेहोशी है। फिल्म देखने तीन घंटे एक आदमी बैठ जाता है, तो अपने को भूल जाता है। वह बेहोशी है। फिल्म में उलझ जाता है इतना कि अपनी याद रखने की सुविधा नहीं रहती।
जहां-जहां हमें बेहोशी मिलती है, वहां-वहां थोड़ी देर को हमें लगता है, सुख मिल रहा है। वह सब नींद का ही सुख है। इस सुख को धोखा कहना चाहिए। सुख नहीं है, आत्मवंचना है।
एक और आनंद है। वह व्यक्ति, जो अपने को भूलता ही नहीं; इतना स्मरण करता है, इतना स्मरण करता है कि अंततः स्मरण उसके भीतर एक थिर बिंदु हो जाता है। वह नींद में भी जानता है कि मैं हूं। यह तीसरी, जो कृष्ण ने कहा, अधियज्ञ।
चेतना की साधना यज्ञ की साधना है। और चैतन्य को उस जगह पर पहुंचा देना है, जहां एक क्षण को भी भीतर की चेतना न छूटती हो; एक क्षण को भी गैप, अंतराल न आता हो, रिक्तता न आती हो; अखंड धारा बहती हो चैतन्य की, वहां आनंद है। वहां जो आनंद है, वह नींद जैसा आनंद नहीं, बेहोशी जैसा आनंद नहीं। बेहोशी में केवल दुख भूल जाते हैं; वहां दुख मिट जाते हैं।
दुख भूलकर जो आनंद पैदा होता है, उसे हम सुख कहते हैं। दुख मिटकर जो आनंद पैदा होता है, वही आनंद है।
व्यक्ति की पदार्थ से अर्ध-चैतन्य, अर्ध-चैतन्य से पूर्ण चैतन्य की तरफ जो यात्रा है, वही अध्यात्म है। कृष्ण ने कहा, स्वभाव अध्यात्म है। वही है स्वभाव हमारा, जो केंद्र पर जल रहा है सदा। वह जीवन की जो किरण वहां है, वही।
और जो पुरुष अंतकाल में मेरे को ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है। और जो पुरुष अंतकाल में मुझे ही याद करता हुआ।
यह मुझे से मतलब है, उसी निर्धूम ज्योति को याद करता हुआ।
ध्यान रहे, मरते वक्त उसे याद करना बहुत ही कठिन है। जिन्होंने जीवनभर शरीर को ही स्वयं समझा हो, वे मरते वक्त कैसे उसे याद कर सकेंगे! जिन्होंने जीवनभर शरीर को ही स्मरण किया हो, वे मरते वक्त उस अशरीर को कैसे स्मरण कर सकेंगे? और किसी वक्त कर भी लें, मरते वक्त तो बहुत ही मुश्किल होगा, क्योंकि जो छूट रहा है, सब छूट रहा है।
हालत ऐसी है कि जो आदमी, जिसके घर में तिजोड़ी बंद है, ताले पड़े हैं, पहरेदार लगे हैं, तिजोड़ी की चाभी अपने हाथ में है, सारा इंतजाम है; जो आदमी तब भी तिजोड़ी को नहीं भूल पाता, जब कि तिजोड़ी के छिनने का कोई भी डर नहीं है। जब डाका पड़ गया हो, और उसके ही सामने उसकी तिजोड़ी तोड़ी जा रही हो, और उसके सामने ही डाकू उसकी तिजोड़ी को घसीटकर बाहर ले जा रहे हों, सब सुरक्षा की व्यवस्था टूट गई हो, क्या आप सोच सकते हैं, उस समय वह तिजोड़ी को भूलने में समर्थ हो सकेगा? जब सारी सुरक्षा है, तब नहीं भूल पाता; तो जब सारी सुरक्षा टूट जाएगी, तब तो सिवाय तिजोड़ी के और कुछ भी याद आने वाला नहीं है।
आखिरी क्षण में तो हमारा शुद्धतम जो चेहरा है, वही प्रकट होता है, सम्हालने की भी फुर्सत नहीं मिलती। ऐसे रोज तो हम सम्हाले रहते हैं। मरते वक्त तो हमारा असली चेहरा प्रकट हो जाता है, और हमारे असली भाव प्रकट हो जाते हैं, और हमारी असली स्मृति जाहिर हो जाती है। मरते वक्त आदमी को पहचाना जा सकता है कि असल में यह आदमी क्या था।
मुल्ला नसरुद्दीन को मैंने कहा कि...पत्नी की हत्या उसने की; मुकदमा चला और उसे सूली की सजा मिली। जिस दिन उसे सूली की सजा मिली, उसे खबर देने जेलर आया और उसने कहा कि मुल्ला, आने वाले सोमवार को सुबह तुम्हारी सूली हो जाने वाली है। मुल्ला ने कहा, सोमवार को! क्या यह नहीं हो सकता कि आने वाले शनिवार को सूली दी जाए? जेलर ने कहा, इससे क्या फर्क पड़ता है तुम्हें! तुम्हें क्या फर्क पड़ता है कि सोमवार लगी सूली कि शनिवार लगी! मुल्ला ने कहा, असल में इस बुरे मुहूर्त से मैं सप्ताह का प्रारंभ नहीं करना चाहता हूं। सोमवार!
वह अपनी दुकान की दुनिया में जी रहा है, जहां मुहूर्त चलते हैं। अब फांसी लग रही है, लेकिन वह सोच रहा है कि सोमवार को मुहूर्त करना कि नहीं!
फिर फांसी हुई, तो जिस देश में वह रहता था, वहां नियम था कि बीच चौराहे पर नगर के फांसी लगती थी। हजारों लोग देखने आते थे। और फांसी जिसको दी जाती थी, उस आदमी से कहा जाता था कि उसे कुछ बोलना हो मरने के पहले, तो वह जनता के सामने बोल सकता था।
ठीक फांसी के पहले नसरुद्दीन से कुछ लोग मिलने आए। और जेलर बहुत हैरान हुआ कि नसरुद्दीन और उनके बीच बड़ा मोलत्तोल हुआ। कुछ जेलर की समझ में भी न पड़े कि यह बात क्या हो रही है! लेकिन नसरुद्दीन ने कहा कि मैं आखिरी वक्तव्य के संबंध में कुछ तैयारी कर रहा हूं, इसलिए आप बीच में बाधा न दें। बड़ी देर तक चला। कुछ वे कहते, कुछ यह कहता। फिर हां, न। आखिर कुछ समझौता हुआ और उन लोगों ने कोई चीज नसरुद्दीन को दी और उसने जल्दी से खीसे में रख ली। जेलर ने भी मरते हुए आदमी को बाधा देनी ठीक न समझी। सोचा कि अभी फांसी हो जाएगी; पीछे देख लेंगे कि जेब में क्या है।
जब फांसी लगाने का वक्त आया और नसरुद्दीन चढ़ा तख्ते पर, तो जेलर ने कहा, तुम्हें कुछ कहना हो तो कह दो। तो उसने कहा, हां, मुझे कुछ कहना है। और उसने कहा कि भाइयो, याद रखना, जूता छाप साबुन ही दुनिया में सबसे अच्छा साबुन है।
लोग भी चकित हुए। फिर उसको फांसी लग गई। उसने कांट्रैक्ट किया था सौ रुपए में। वे जो लोग आए थे, जूता छाप साबुन बनाने वाले लोग थे। वह यही कर रहा था। वे कहते थे, बीस ले लो; पच्चीस ले लो। बामुश्किल सौ पर तय हुआ था मामला। मरता हुआ आदमी! वे सौ रुपए जेब में पड़े मिले। लेकिन वह आखिरी क्षण भी धंधा कर गया! उस वक्त भी वह पचास पर राजी न हुआ; अस्सी पर राजी न हुआ। उसने कहा, सौ से कम में तो मैं मानूंगा ही नहीं!
जिंदगीभर की आदत आखिरी क्षण तक भी पीछा करती है। असल में जब वह तय कर रहा था कि सौ ही लूंगा, तब फांसी वगैरह कुछ भी नहीं थी उसके चित्त में; सब खो गया था। धंधा ही शेष था। अंत क्षण आपके जीवनभर का निचोड़ है।
कृष्ण के इस वक्तव्य से बड़ी भ्रांतियां पैदा हुईं। पहली भ्रांति तो यह हुई जिसने भारत के धार्मिक चित्त को भयंकर हानि पहुंचाई। इस वक्तव्य से लोगों ने यह समझा कि ठीक है, तो आखिरी वक्त में याद कर लेंगे। इस वक्तव्य से समझा लोगों ने--और जो पुरुष अंतकाल में मेरे को ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है, इसमें जरा भी संशय नहीं है--लोगों ने कहा, बिलकुल ठीक है। पूरी जिंदगी याद करने की कोई जरूरत न रही। अंत समय याद कर लेंगे। अगर अपने से न भी बना, क्योंकि अंत समय बोलते ही न बने, तो पास में बैठा हुआ पंडित कान में सुना देगा। घर के लोग हरिनाम का जाप करने लगेंगे, गीता सुनाई जाएगी।
कृष्ण ने यह नहीं कहा है कि अंत समय जो मेरा नाम सुन लेगा; यह नहीं कहा है। अंत समय जिसको नाम सुना दिया जाएगा, यह नहीं कहा है। जो मेरा नाम लेगा! और अंत समय कौन लेगा नाम? वही ले सकता है, जिसने जीवनभर उस नाम की संपदा को सम्हाला हो, अन्यथा नहीं ले सकता है। जीवनभर जो उस नाम में ऐसा रच-पच गया हो कि मौत भी उस नाम में बाधा न डाल पाए।
आप भी नाम लेते हैं। मैं कई लोगों को नाम लेते देखता हूं। वे बैठे हैं, माला फेरते हैं, नाम लेते हैं, और छोटी-छोटी चीजें बाधा डालती रहती हैं। बहुत छोटी चीजें बाधा डालती हैं। कौन घर में गया, बाधा पड़ जाती है। कौन किससे क्या बोला, बाधा पड़ जाती है। कोई भगवान का भजन और नाम ले रहा हो, जरा उसके पास थोड़ी दूर खड़े होकर किसी के कान में खुसफुस करके कुछ कहें। वह नाम-वाम छोड़कर आप क्या कह रहे हैं, इसे सुनने को उत्सुक हो जाता है। छोटी-छोटी चीजें बाधा डालती हैं।
मौत इस जीवन की बड़ी से बड़ी घटना है। उससे बड़ी कोई घटना नहीं है। उस घटना के क्षण में आप स्मरण न कर सकेंगे। और अगर घबड़ाकर स्मरण किया, डरकर स्मरण किया, तो ध्यान रखना, वह स्मरण परमात्मा का नहीं, भय का होगा।
मेरे एक मित्र हैं। बहुत ज्ञानी हैं। वे सदा कहते थे कि ईश्वर के स्मरण से क्या होगा? सच्चरित्रता चाहिए, सदाचार चाहिए। ईश्वर के स्मरण से क्या होगा! अच्छा आचरण चाहिए। मैंने उनसे कहा कि जो ईश्वर का स्मरण भी नहीं कर सकता, वह सदाचारी हो सकेगा, इसकी जरा असंभावना है। और जो सदाचारी हो सकता है, वह ईश्वर के स्मरण से बच सकेगा, इसकी भी बहुत मुश्किल संभावना है; यह भी नहीं हो सकता। आप कहीं किसी धोखे में हैं। उन्होंने कहा, नहीं, मुझे कोई ईश्वर-स्मरण का सवाल नहीं है। मैं तो जो ठीक है, वह करने की कोशिश करता हूं। न रिश्वत लेता हूं, न चोरी करता हूं, न मांसाहार करता हूं। ठीक नियम से रात को सोता हूं, नियम से उठता हूं। कोई दुराचरण मेरे जीवन में नहीं है। मैंने उनसे कहा, यह सब तो ठीक है, लेकिन इस सबसे सिर्फ आपका अहंकार भर अकड़ा जा रहा है, और कुछ भी नहीं हो रहा है।
कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि सदाचरण भी सिर्फ अहंकार की ही परिपूर्ति करता है। और ईश्वर-स्मरण के बिना सदाचार अहंकार की ही परिपूर्ति करता है। क्योंकि फिर समर्पण का तो कोई स्थान नहीं रह जाता; अकड़ की ही जगह रह जाती है कि मैं चरित्रवान हूं, मैं नियम से रहता हूं, सत्य का पालन करता हूं, अहिंसा का पालन करता हूं, इतने व्रत लिए हुए हैं, इतना त्याग किया हुआ है। अहंकार तो मजबूत होता जाता है। लेकिन ऐसे कोई चरण नहीं मिलते, जहां इस अहंकार को रख दें।
मैंने उनसे कहा कि ठीक है। जैसा आपको ठीक लगता है, किए चले जाएं। एक ही बात याद रखें कि जिस ठीक से अहंकार मजबूत होता है, वह ठीक हो नहीं सकता।
फिर अचानक एक दिन मुझे खबर मिली कि उन्हें हृदय का दौरा हो गया, हार्ट-अटैक हो गया। मैं गया। करीब-करीब अर्ध-मूर्च्छा में पड़े थे, लेकिन जोर-जोर से कहते थे, राम-राम, राम-राम। मैंने उन्हें हिलाया कि यह क्या कर रहे हो! मरते समय गलती कर रहे हो! सदाचार काफी है; यह क्या कर रहे हो?
उन्होंने आंखें खोलीं। मुझे देखा तो कुछ होश आया। कहने लगे कि यह भी मैं भय के कारण ले रहा हूं कि पता नहीं। पता नहीं, तो हर्जा क्या है ले लेने में! ले लो। मौत सामने खड़ी है, पता नहीं, कहीं ऐसा न हो कि आखिरी क्षण में सिर्फ राम-नाम नहीं लिया, इसीलिए चूक जाएं। तो ले रहे हैं।
अब यह बिलकुल व्यवसायी की बुद्धि है; धार्मिक की बुद्धि नहीं है। और भयभीत आदमी का लक्षण है यह। स्मरण भय से नहीं होता है, स्मरण तो परम आनंद की स्फुरणा है।
तो मृत्यु के क्षण में जो आनंद से स्मरण कर सके, तो ही स्मरण है, अन्यथा स्मरण नहीं है।
भयभीत, डर रहे हैं, और कंप रहे हैं कि बचाओ, हे भगवान! अगर तुम हो, तो बचाओ। इससे कुछ अर्थ न होगा। जहां भय है, वहां प्रभु का स्मरण नहीं। जहां मृत्यु से बचने की आकांक्षा है, वहां प्रभु का कोई स्वाद नहीं।
तो कृष्ण कहते हैं, अंत समय में जो मेरे स्मरण को उपलब्ध रहता है, वह मुझे ही उपलब्ध हो जाता है। इसमें कोई भी संशय नहीं।
निश्चय ही कोई संशय नहीं, क्योंकि उस क्षण में जिसने अंतर-ज्योति का स्मरण रखा, उसे तो साफ ही दिखाई पड़ता है कि मृत्यु हो नहीं रही है। सिर्फ शरीर छूटता है, जैसे जीर्ण-शीर्ण वस्त्र गिर जाएं, पुराना मकान कोई बदल ले, नए मकान में चला जाए। जो इतने चैतन्य से भरा हुआ भीतर की ज्योति को स्मरण रखता है, वह तो जानता है, यह मौत इस ज्योति को जरा-सा, हल्का-सा झोंका भी नहीं दे रही है। कुछ कंपित भी नहीं होने वाला है। वह परम आनंद में प्रतिष्ठित अपने भीतर डूब जाता है।
मौत का भय ही उसे लगता है, जिसका शरीर से तादात्म्य हो। जो मानता है, मैं शरीर हूं, वही घबड़ाता है कि छूटा--छूटा--किनारा छूटा--अब मिटे। लेकिन जो मानता है, हम किनारा हैं ही नहीं, सागर हैं, उसे किनारा छूटने से क्या भय लगेगा! वह तो सागर की खबर सुनकर प्रफुल्लित हो उठेगा। उसके पैर तो नाचने लगेंगे। उसके हृदय में तो घूंघर बंध जाएंगे। वह तो दौड़ उठेगा। वह तो कहेगा, आ गया वह क्षण! वह तो पीछे लौटकर भी नहीं देखेगा कि किनारे का क्या हुआ।
ऐसा व्यक्ति लेकिन तभी इस स्मरण को उपलब्ध हो सकता है, जब जीवनभर उसकी साधना सतत श्वास-श्वास में पिरो दी गई हो। जब हृदय की धड़कन-धड़कन इसी स्मरण के माला के मनके में बदल गई हो। जब ऐसा हुआ हो कि श्वास-श्वास उसी का स्मरण करती हो, धड़कन भी उसी के स्मरण से धड़कती हो, उठना-बैठना-चलना भी उसी के स्मरण से होता हो, तभी मृत्यु उसके स्मरण से हो सकती है।
इसलिए इस सूत्र का जो बहुत ही गलत अर्थ हुआ है, घातक, उससे बचना जरूरी है। यद्यपि अर्जुन से भी यही डर कृष्ण को रहा होगा, इसीलिए दूसरे सूत्र में तत्काल उन्होंने कहा, कारण कि हे कुंतीपुत्र अर्जुन, यह मनुष्य अंतकाल में जिस भाव को भी स्मरण करता हुआ शरीर को त्यागता है, उस भाव को ही प्राप्त होता है। परंतु सदा उस भाव को ही चिंतन करता हुआ!
अर्जुन की आंख में शायद तत्काल कृष्ण को दिखाई पड़ा होगा कि वह शिथिल हुआ। अर्जुन ने सोचा होगा, तब तो ठीक है। आखिरी समय स्मरण ही करना है न, कर लेंगे। फिर शेष जीवन को क्यों नष्ट करना इन बातों में! शेष जीवन फिर जैसा जीना है, जी लें। तो सूत्र तो हाथ लग गया; मंत्र हाथ लग गया। अंत समय स्मरण कर लेंगे!
लेकिन अंत समय पता है, कब है? यही क्षण भी अंत समय हो सकता है। कोई भी क्षण अंत समय हो सकता है। इसलिए जिसने सोचा, अंत समय कर लेंगे, वह चूक जाएगा। क्योंकि अंत समय तो कोई भी क्षण हो सकता है; यह क्षण भी हो सकता है कि मैं दूसरा शब्द बोल ही न पाऊं, यह शब्द ही अंतिम हो।
जिन लोगों ने अखंड नाम-जप की धारणा विकसित की, उसका कारण यही था। उसका कारण यह नहीं था कि आप कितने लाख परमात्मा का नाम लेते हैं। लाख वगैरह का हिसाब फिर दुकानदारी है। एक से भी काम हो सकता है; करोड़ से भी न हो।
यह धर्म का जगत कोई हिसाब-खाते का जगत नहीं है। यहां गणित नहीं चलता है कि कितना। कितना हृदयपूर्वक! कितनी संख्या नहीं। कितने लाख, तो लोग अखंड कर रहे हैं कि चौबीस घंटे का अखंड जप कर रहे हैं!
अखंड जप का केवल एक ही अर्थ और प्रयोजन है, क्योंकि अंत क्षण कौन-सा होगा, पता नहीं। कोई भी क्षण खाली न जाए जो स्मरण से रिक्त हो, क्योंकि कोई भी क्षण अंत क्षण हो सकता है। इसलिए कोई भी क्षण भीतर खाली न जाए। तो जो भी क्षण अंत क्षण होगा, वह स्मरणपूर्वक होगा।
लेकिन कृष्ण को लगा होगा कि खतरा है। इसलिए उन्होंने तत्काल फर्क बता दिए। दूसरे सूत्र में उन्होंने कहा, अंत समय जो भाव होता है, व्यक्ति उसी भाव को उपलब्ध हो जाता है। यह बड़ी वैज्ञानिक व्यवस्था है। इसे थोड़ा समझ लें।
रात आप सोते हैं। क्या कभी आपने खयाल किया कि आपका रात का अंतिम विचार सुबह का पहला विचार होता है! न किया हो, तो करें। रात का जो अंतिम विचार है, बिलकुल आखिरी, जब नींद उतरती होती है, तब जो आपके चित्त के द्वार पर खड़ा होता है विचार, उसे ठीक से खयाल कर लें, क्या है। सुबह, जब नींद के द्वार फिर खुलेंगे, तो दरवाजे पर वही आपको सबसे पहले खड़ा हुआ मिलेगा। वह रातभर खड़ा रहा है।
अंतिम विचार रात का, सुबह का पहला विचार होता है। अंतिम विचार मृत्यु का, अगले जन्म का पहला विचार बन जाता है। बीच का वक्त सिर्फ एक गहरी नींद का वक्त है; एक सर्जिकल; जब कि प्रकृति आपसे एक शरीर को छुड़ाती है और दूसरे शरीर को देती है; एक बड़े आपरेशन का। उस वक्त आप बिलकुल बेहोश रखे जाते हैं।
अगर आपने कभी क्लोरोफार्म लिया है--न लिया हो तो कभी लेकर देखें--तो क्लोरोफार्म में डूबते वक्त जो आखिरी विचार होगा, वही क्लोरोफार्म से बाहर निकलते वक्त पहला विचार होगा। अगर आप कभी बेहोश हुए हैं, तो बेहोशी का अंतिम विचार, होश आने पर पहला विचार होता है।
मृत्यु एक गहरी बेहोशी है; एक रूपांतरण; एक पर्दे का अंत; एक नाटक का समाप्त होना और दूसरे का शुरू होना है। ठीक, लेकिन दूसरा नाटक वहीं से शुरू होता है, जहां पहला समाप्त हुआ था।
तो अंतिम भाव ही आपका निर्णायक हो जाता है। और अंतिम भाव हम इतने रद्दी करते हैं कि जिसका कोई हिसाब नहीं है, कि हम अपने रद्दी होने की आगे की व्यवस्था कर लेते हैं। आदमी मरता है भयभीत, चिंतातुर, तनाव से घिरा हुआ, दुखी, घबड़ाया हुआ। सब लुटा जा रहा है! ऐसी बेचैनी में, नारकीय चित्त में मरता है। वह अपने नर्क का इंतजाम कर लिया। वह फिर उसी सिलसिले को शुरू कर देता है।
आखिरी भाव बहुत कीमत का है, लेकिन आखिरी भाव को सम्हालना हो, तो पूरा जीवन सम्हाल लें। क्योंकि वह भाव जो है, सारे जीवन का निचोड़ है। वह ट्रामैटिक है, वह बहुत डिसीसिव है, उससे निर्णय होता है। और वह निर्णय बहुत महंगा है। क्योंकि वह एक पूरे जन्म को तय कर जाता है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, लेकिन सदा उस भाव को ही चिंतन करता हुआ, क्योंकि सदा जिस भाव का चिंतन करता है, अंतकाल में भी प्रायः उसी का स्मरण होता है। वह भी कृष्ण कहते हैं, प्रायः। पक्का वह भी नहीं है।
ध्यान रहे, जिंदगीभर कुछ और, अंत समय स्मरण, उसकी तो फिक्र ही छोड़ें; जीवनभर स्मरण, तो भी कृष्ण कहते हैं--बहुत गार्डेड स्टेटमेंट है--कि जिसने जीवनभर उस चिंतन को किया है, अंत समय में प्रायः, आफन, वह उसी स्मरण को करता हुआ विदा होता है। क्यों? क्योंकि जीवनभर जो स्मरण किया है, वह अगर सतह पर रहा हो, सुपरफीशियल रहा हो, सिर्फ यांत्रिक रहा हो, कि एक आदमी कुछ भी कर रहा है और राम-राम, राम-राम भीतर करता जा रहा है...।
स्मृति के पास ऐसी व्यवस्था है कि आप साइकिल चलाते रहें और राम-राम करते रहें; कार चलाते रहें और राम-राम करते रहें। स्मृति का एक खंड अलग कर सकते हैं आप, जो आपके भीतर राम-राम करता ही रहे। वह आटोनामस हो जाता है।
अगर आप निरंतर दोत्तीन महीने राम-राम, राम-राम, राम-राम भीतर कहते रहें, तो स्मृति का एक टुकड़ा आटोनामस हो जाता है। वह फिर राम-राम, राम-राम, राम-राम कहता रहता है, आप अपना काम करते रहें। उससे कोई लेना-देना नहीं है, वह अपना जारी रखता है। वह जैसे आपने एक तोता पाल लिया। वह अपना राम-राम कहता रहता है, आप अपना कुछ भी करते रहें। ऐसा आपने भीतर स्मृति का एक टुकड़ा स्वायत्त बना लिया; अब वह अपना राम-राम, राम-राम कहता रहता है। वह मैकेनिकल डिवाइस है। और आपके काम में कोई बाधा नहीं पड़ती। आप अपना जो भी करना हो, करते रहें। चोरी करनी हो, चोरी करें। वह कहता रहेगा, राम-राम, राम-राम, राम-राम। चोरी में भी बाधा नहीं पड़ेगी। बल्कि और मजे से करेंगे कि देखो, राम-नाम भी चल रहा है; अब तो कोई डर ही नहीं है।
इसलिए राम-नाम को लेने वाले कुशलता से चोर हो सकते हैं। उनकी कुशलता और महंगी हो जाती है, क्योंकि वे कहते हैं, हम तो राम-नाम ले रहे हैं! कोई डर नहीं है।
इस तरह का स्मरण करने वाला अगर कोई होगा, तो वह सिर्फ यंत्रवत स्मरण कर रहा है। यंत्रवत और हार्दिक स्मरण का फर्क क्या है?
कभी किसी के प्रेम में गिरे हैं आप! तब आपको यंत्रवत स्मरण नहीं करना होता, याद बरबस आ जाती है--बरबस। नहीं करना चाहते, तो भी आ जाती है। कोई भी बहाना खोज लेती है और आ जाती है। अगर कभी किसी के प्रेम में गिरे हैं, फूल खिलता हुआ दिखता है, फूल भूल जाता है, उसकी याद आ जाती है। चांद निकलता है आकाश में, चांद भूल जाता है, उसकी याद आ जाती है। कोई गीत गाता है, वह गीत गाने वाला भूल जाता है, गीत की कड़ी भूल जाती है, उसकी याद आ जाती है। कोई भी बहाना काम करने लगता है।
प्रेम में अगर गिरे हैं! यह शब्द बड़ा अच्छा है, टु फाल इन लव! एक और भी प्रेम है, जिसमें चढ़ना होता है; टु राइज इन लव। वह ईश्वर का प्रेम है। यह बड़ा अच्छा है कि हम कहते हैं कि फलां आदमी प्रेम में गिर गया। है ही गिरना वहां।
कुछ लोग कभी-कभी प्रेम में चढ़ते भी हैं। कोई मीरा कभी प्रेम में चढ़ जाती है। कोई चैतन्य कभी प्रेम में चढ़ जाता है। इस प्रेम के चढ़ने में भी वैसा ही स्मरण होने लगता है, जैसा स्मरण प्रेम के गिरने में होता है। जब प्रेम के गिरने तक में हो सकता है, तो प्रेम के चढ़ने में तो होगा ही।
यह स्मरण हार्दिक है। यहां फूल खिलता है, तो परमात्मा खिल जाता है। यहां चांद उगता है, तो परमात्मा उग जाता है। यहां सागर में लहर आती है, तो परमात्मा की खबर ले आती है। हवा का झोंका आता है, तो उसी का हो जाता है। यहां आदमी की आंखें दिखाई पड़ती हैं, तो वही झांकने लगता है। यहां किसी चेहरे में सौंदर्य प्रकट होता है, तो वह उसी का होता है। यहां कोई गीत गाता है, तो कड़ी उसकी हो जाती है।
जब स्मरण हार्दिक हो, तो फिर प्रायः लगाने की जरूरत न रहेगी। इसलिए पहले सूत्र में जब कृष्ण ने कहा है, इसमें कोई संशय नहीं है, तो यह एक हार्दिक स्मरण की बात है। लेकिन अर्जुन की आंखों में जरूर उन्हें दिखाई पड़ा होगा कि वह कुछ गलत समझ रहा है, तो उन्होंने कहा कि चिंतन करता हुआ अंतकाल में भी प्रायः उसी का स्मरण करता होता है--प्रायः। क्योंकि वह जो आटोनामस, स्वायत्त मन का टुकड़ा है, वह छोटे-मोटे काम में--साइकिल चलाते, कार चलाते, दुकानदारी चलाते--राम-राम करता रहता है। मौत जैसी बड़ी दुर्घटना में मुश्किल पड़ेगा।
और एक कठिनाई है। साइकिल पर बैठकर आप अभ्यास कर सकते हैं, रिहर्सल इज़ पासिबल। रोज साइकिल पर बैठें, राम-राम करें, राम-राम करें और बैठते जाएं। कभी भूल जाएंगे, कभी याद रहेगा। धीरे-धीरे अभ्यास मजबूत हो जाएगा। तो फिर साइकिल भी चलेगी, राम-राम भी चलेगा। दो साइकिलें चलेंगी, एक पैडल आप मारते रहेंगे, एक पैडल आपकी स्मृति मारती रहेगी भीतर; दो चक्र चलते रहेंगे।
लेकिन यू कैन नाट रिहर्सल डेथ; यह दिक्कत है। मौत का कोई रिहर्सल आप नहीं कर सकते। इसलिए अभ्यास नहीं कर सकते। यह बड़ी खराबी है। पहली ही दफे नाटक में सीधे खड़ा हो जाना पड़ता है। यह भी पता नहीं होता कि कौन-सा डायलाग बोलना है। कौन हैं, यह भी पता नहीं होता है, कि राम हैं, कि लक्ष्मण हैं, कि सीता हैं, कि रावण हैं। बस, अचानक पर्दा उठता है और खड़े हैं मंच पर! और पहली ही दफे बोलना पड़ता है। उसका कोई पता ही नहीं होता।
मौत आपको अभ्यास का अवसर नहीं देती है। नहीं तो हम ऐसे कुशल लोग हैं कि मौत को भी चकमा दे जाएं। हम ऐसा पक्का मजबूत रिकार्ड रख लें अपने राम-राम का, अभ्यास ऐसा कर लें मजबूती से कि मौत को भी चकमा दे दें।
मौत की चूंकि पुनरुक्ति नहीं है; अचानक आती है, आकस्मिक है, उसकी पहले से कोई तैयारी नहीं हो सकती, इसलिए आपकी तैयारी वाला काम काम नहीं आएगा। वह तैयारी की व्यवस्था मौत तोड़ ही देगी। जिसे अभ्यास से पाया था, जिस स्मरण को, मौत के वह काम नहीं पड़ेगा। जिसे हृदय से पाया हो, तो बात अलग है। हृदय से पाना अभ्यास से पाना नहीं है।
इसलिए अक्सर लोग कहते हैं कि प्रेम पहली ही नजर में हो जाता है। वे ठीक ही कहते हैं। और अगर पहली नजर में न हो, तो दूसरी नजर में तो सिर्फ अभ्यास से होता है।
अभ्यास वाला प्रेम भी है। इसलिए जो कौमें कुशल हैं, जैसे हमारी कौम है, चालाकी में बहुत कुशल है। जितनी पुरानी कौम होती है, चालाकियों में उतनी ही कुशल हो जाती है, क्योंकि उसके अनुभव गहरे होते हैं। इसलिए हम प्रेम नहीं करने देते, विवाह सीधा करवा देते हैं। फिर कहते हैं, अब प्रेम करो। वह अभ्यास वाला प्रेम है। रोज-रोज देखते; साथ रहते; उपद्रव; लड़ते-झगड़ते, क्षमा मांगते; क्रोध करते; अभ्यास होता चला जाता है। आखिर में पहुंच ही जाते हैं प्रेम पर। धक्का-धुक्की खाते, भीड़-भड़क्का करते, आखिर पहुंच ही जाते हैं! फिर किसी तरह सब सेटल चीजें हो ही जाती हैं।
मगर वह सेटलमेंट वैसा ही है, जैसा कि पैसेंजर गाड़ी के थर्ड क्लास के डिब्बे में होता है हर स्टेशन पर। हर स्टेशन पर ऐसा लगता है कि अब क्या होगा! इतनी भीड़, अब कहां बैठेगी? इतना सामान लिए कहां अंदर चले आ रहे हो? लेकिन पांच मिनट गाड़ी चली, एडजस्टेड! सब सामान रख गया, सब लोग बैठ गए। बड़े मजे का है। और ये ही फिर अगले स्टेशन पर चिल्ल-पों मचाना शुरू कर देंगे। और हर स्टेशन पर यही होता रहा है। इसलिए हिंदी में जो शब्द है रेलगाड़ी के कंपार्टमेंट के लिए डब्बा, वह बिलकुल ठीक है। डब्बा! कुछ भी हिला-डुलाकर बिठाल दो, बैठ जाता है।
मृत्यु के साथ यह नहीं चलेगा; अभ्यास नहीं चलेगा। लेकिन परमात्मा से अगर कोई हार्दिक प्रेम हो जाए, अनभ्यास का प्रेम हो जाए; पुनरुक्ति से आया हुआ नहीं, हृदय की स्फुरणा से आया हुआ। मगर यह कैसे होगा? तो शायद कृष्ण को प्रायः न लगाना पड़े। तो फिर कहा जा सके, निस्संदेह रूप से। निःसंशय होकर कहा जा सके कि हां, ठीक; हो ही जाएगा।
अभ्यास तो समझ में आता है; हम भी कर सकते हैं। यह हार्दिक समझ में नहीं आता, कैसे होगा! हृदय नाम की चीज वैसे ही न के बराबर है हमारे पास। हम हृदय से कुछ किए ही नहीं हैं, तो परमात्मा को कैसे पुकार पाएंगे! और अगर हार्दिक करना हो परमात्मा से लगाव, तो काफी बड़ा हृदय चाहिए पड़े। छोटे हृदय में, संकुचित हृदय में, उसको बुलाया भी नहीं जा सकता। और हमारे हृदय ऐसे संकुचित हैं कि आदमी भी एक-दूसरे के भीतर प्रवेश नहीं कर पाते, तो परमात्मा का प्रवेश तो बहुत दूर है।
हमारे हृदय में सिर्फ वस्तुएं ही प्रवेश कर पाती हैं, व्यक्ति भी प्रवेश नहीं कर पाते। वस्तुएं! कोई हीरे के प्रेम में मरा जा रहा है! कोई धन के प्रेम में मरा जा रहा है! कोई सोने के प्रेम में मरा जा रहा है। कोई कुर्सी और पद के प्रेम में मरा जा रहा है। बस, वस्तुएं प्रवेश कर पाती हैं; व्यक्ति तक प्रवेश नहीं कर पाते।
तो जिसे परमात्मा की तरफ हार्दिकता को ले जाना हो, एक तो उसे सबसे पहले वस्तुओं के प्रेम के प्रति सजग होना पड़े। फिर व्यक्तियों के प्रेम को बढ़ाना पड़े। और जब वस्तुओं का प्रेम गिर जाए और व्यक्तियों का प्रेम गहरा हो जाए, तब व्यक्तियों के प्रेम को भी गिरा देना पड़े और निर्व्यक्ति के प्रेम में उठना पड़े।
तो ध्यान रखना, जितना बड़ा आपका प्रेम-पात्र होगा, उतना ही बड़ा आपका हृदय हो जाएगा। छोटे-मोटे के प्रेम में पड़ना ही मत। प्रेम में ही पड़ना हो, तो क्षुद्र के क्या पड़ना! तो जरा खोजना कोई विराट, कोई विस्तार, कोई जहां सीमाएं दूर कहीं समाप्त होती हों; न होती हों, तो बहुत ही अच्छा। किसी ऐसे प्रेम में उतरना।
इसलिए अक्सर यह होता है, अक्सर यह होता है कि जिनके प्रेम विराट होते हैं, वे अक्सर परमात्मा के बहुत निकट हृदय की धड़कन को अनुभव करने लगते हैं।
अब एक चित्रकार है, वह सौंदर्य को प्रेम करता है। सौंदर्य का प्रेम जरा असीम है। वह जल्दी ही हार्दिक स्मरण को पा सकता है। एक राजनीतिज्ञ उतनी आसानी से नहीं पा सकता। उसका प्रेम बहुत सीमित और बहुत क्षुद्र है।
मुल्ला नसरुद्दीन से कोई पूछ रहा है उसके दो बेटों के संबंध में कि क्या हालत है बेटों की? तो नसरुद्दीन ने कहा, पहला तो राजनीतिज्ञ हो गया, और दूसरे के भी आसार अच्छे नहीं हैं! एक राजनीतिज्ञ हो गया है और दूसरे के भी आसार अच्छे नहीं हैं!
क्षुद्र, कुर्सी, वह भी छोटी, जिससे हम ही बंध सकें अकेले, इतनी छोटी! दूसरे को भी जगह उसमें नहीं रखनी पड़ती; दूसरा कहीं सरककर उसमें प्रवेश न कर जाए। तो फिर आदमी क्षुद्र होता चला जाता है।
जहां भी क्षुद्र का प्रेम हो, वहां सजग होना। और जहां भी विराट को मौका मिले, मौका देना। जहां भी लगे कि कोई विस्तार है, जिसको हम प्रेम कर सकते हैं...। सुबह सूरज निकला है, तो सिर्फ इतना कहकर अपने रास्ते पर मत चले जाना कि हां, ठीक है; सुंदर है। यह कहना बहुत अपमानजनक है। असल में जिसे सुबह के सौंदर्य का पता चलता है, शायद ही ऐसा कहता हो। यह बहुत क्षुद्र है वक्तव्य। जिसे सुबह के सौंदर्य का पता चलता है, वह दो क्षण सूरज के निकट बैठ जाता है। वह अपने हृदय को खोल लेता है। वह इन किरणों को अपने में समा जाने देता है, और अपने हृदय के आंतरिक भाव को सूरज तक पहुंच जाने देता है। इसमें कहीं बातचीत नहीं होती।
जब आकाश सुंदर मालूम पड़े, तो नीचे लेट जाना थोड़ी देर को। छाती तक उस आकाश को उतर आने देना। कि वह आलिंगन कर ले, और सब तरफ से घेर ले। भूल जाना अपनी क्षुद्रता को थोड़े क्षणों में, उस विराट फैलाव को प्रेम कर लेना।
लेकिन हम बड़े संकरे प्रेम करते हैं। उन संकरे प्रेमों में हम संकरे होते चले जाते हैं। लेकिन यह मैं कह रहा हूं, यह अभ्यास की बात नहीं है, यह अवसर को खोजने की बात है। अवसर रोज हैं। अगर नजर हो, तो अवसर रोज हैं। उन अवसरों का प्रयोग करते रहना है। तो धीरे-धीरे उस परम ज्योति का स्मरण, उस परम विराट का स्मरण आसान हो जाता है। और उसकी तरफ हृदय की लगन लग जाए, तो फिर याद करना नहीं होता, वह याद बना रहता है। उसे भूलना ही मुश्किल हो जाता है।
पूछा है किसी ने फकीर बायजीद से कि बायजीद, तुम्हें हम कभी ईश्वर का स्मरण करते नहीं देखते! तुम कभी नमाज पढ़ने नहीं आते मस्जिद में? बायजीद ने कहा, हम उसे भूल ही नहीं पाते; याद कैसे करें! हम उसे भूल ही नहीं पाते हैं; याद कैसे करें? नमाज पढ़ने आएं क्या? नमाज चौबीस घंटे ही चल रही है। उठते हैं, तो वह है। सोते हैं, तो वह है। जागते हैं, तो वह है। खाते हैं, तो वह है। हम पागल हो गए हैं उसकी याद में। उसे हम भूल ही नहीं पाते हैं।
याद करना अभ्यास से होता है, हृदय से भूलना मुश्किल हो जाता है। कृष्ण कहते हैं, ऐसा हो सके, तो निस्संदेह, निःसंशय जो मेरा स्मरण करते हैं, वे मेरे ही स्वरूप को उपलब्ध हो जाते हैं।
आखिरी बात। ये सारी बातें हम सुन लेते हैं। और शायद लगता होगा कि कृष्ण ने ठीक ही कहा। या मैंने जो कहा, ठीक ही है। लेकिन इतना सोचने से कुछ भी हल नहीं है। इतना सोचना खतरनाक भी हो सकता है। इस सोचने से भ्रम भी पैदा होता है कि हम समझ गए, और समझे जरा भी नहीं।
तो जिनको भी ऐसा लगता हो कि ठीक है, वे कल सुबह आ जाएं कुछ करने को, किसी अवसर को खोजने को।
एक बात खयाल रख लें, अकेली समझ काफी नहीं है। क्योंकि अकेली समझ को टिकने के लिए कोई जड़ें नहीं होती हैं हमारे पास। समझ आती है और बादल की तरह सरक जाती है। उस बादल को गड़ाना पड़ेगा जमीन में, जड़ें देनी पड़ेंगी, ताकि वह वृक्ष बन जाए। उसके लिए कुछ करना पड़ेगा। और वह करना हार्दिक है, अभ्यास नहीं है। तो सुबह जो हम ध्यान कर रहे हैं, वह एक हार्दिक अवसर की मौजूदगी भर है। आपके लिए अभ्यास महत्वपूर्ण नहीं है।
यहां हम, हमारे संन्यासी हैं, इनमें से अनेक के हृदय में वह हृदय की भावना जगी है। वे यहां गाएंगे, नाचेंगे। शायद देखते-देखते उनकी धुन आपको भी पकड़ जाए। शायद खड़े-खड़े आपके पैर में भी कंपन आ जाए। शायद उनकी मौज इनफेक्शियस हो जाए, छूत की बीमारी हो जाए, आपको भी छू ले। और परमात्मा करे कि छू ले, तो आप भी नाच उठें और उस लहर में बह जाएं।
तो सुबह सिर्फ एक अवसर है, जस्ट एन ऑपरचुनिटी। आ जाएं। शायद उस अवसर में कुछ बहाव मिल जाए, और कुछ हो जाए।
अभी जाने के पहले पांच-सात मिनट यहां भी हम कीर्तन करेंगे। अभी उठ नहीं जाएंगे आप। पांच-सात मिनट हमारे संन्यासी यहां कीर्तन करेंगे, उसमें आप भी सम्मिलित हों। आप भी सम्मिलित हों। वहीं बैठे हुए कीर्तन को दोहराएं। ताली बजाएं। डोल तो सकते हैं बैठे-बैठे। उस आनंद को, उस पुलक को थोड़ा स्पर्श करें। शायद! कोई नहीं जानता, कब कोई बात छू जाए, और हृदय की वीणा बजने लगे।


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