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शनिवार, 21 अक्टूबर 2017

गीता दर्शन-(भाग-03)-प्रवचन-067



गीता दर्शन-(भाग-03)-प्रवचन-067

अध्याय ६
नौवां प्रवचन
योग का अंतर्विज्ञान

प्रश्न: भगवान श्री, योग के अभ्यास और उसकी आवश्यकता पर बात चल रही थी। आपने समझाया था कि धर्म और आत्मा तो हमारा स्वभाव ही है। उसे उपलब्ध नहीं करना है, वह मिला ही हुआ है। लेकिन योग का अभ्यास अशुद्धि को काटने के लिए करना पड़ता है। कृपया योगाभ्यास से अशुद्धि कैसे कटती है, इस पर कुछ कहें।

स्वभाव कहते हैं उसे, जो हमें मिला ही हुआ है। जिसे हम चाहें तो भी खो नहीं सकते। जिसे खोने का कोई उपाय नहीं है। स्वभाव का अर्थ है, जो मेरा होना ही है, जो हमारा अस्तित्व ही है।
जो जानते हैं, वे कहते हैं कि हमारा स्वभाव स्वयं परमात्मा होना है। ऐसा कोई एक नहीं कहता; इस पृथ्वी पर कोने-कोने में, अलग-अलग सदियों में, अलग-अलग स्थानों पर जब भी किसी ने जाना है, उसने यही कहा है। यह निरपवाद घोषणा है। ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं हुआ है मनुष्य के इतिहास में जिसने कहा हो कि मैंने जान लिया भीतर जाकर और मनुष्य के भीतर परमात्मा नहीं है।

जिन्होंने कहा है, परमात्मा नहीं है, वे कभी भीतर नहीं गए। और जो भीतर गए हैं, उन्होंने सदा कहा है कि परमात्मा है। अगर कोई सत्य निरपवाद सत्य हो सकता है, तो वह एक सत्य यही है कि मनुष्य का स्वभाव परमात्मा ही है।
लोग परमात्मा को खोजते हैं। कभी खोज न पाएंगे, क्योंकि खोजा उसे जा सकता है जिसे खोया हो। असल में जो खोजने निकला है, वह स्वयं ही परमात्मा है, इसलिए खोज कैसे पाएगा? हम अगर परमात्मा से अलग होते, तो कहीं न कहीं उसे खोज ही लेते, कहीं न कहीं मुठभेड़ हो ही जाती, कहीं न कहीं आमने-सामने पड़ ही जाते। लेकिन हम स्वयं ही परमात्मा हैं। इसलिए जो परमात्मा को खोजने निकला है, उसे अभी पता ही नहीं कि वह जिसे खोज रहा है, वह उसका स्वयं का ही होना है।
यह तो हमारा स्वभाव है, जिसे हम कभी खो नहीं सकते, लेकिन आश्चर्य कि इसे भी हम खोए हुए मालूम पड़ते हैं, अन्यथा खोजते ही क्यों! खो तो नहीं सकते, फिर कुछ और हो सकता है, जो खोने से मिलता-जुलता है। वह है विस्मरण, वह है फारगेटफुलनेस।
स्वभाव को खोया नहीं जा सकता, लेकिन स्वभाव को भूला जा सकता है। विस्मरण किया जा सकता है। यद्यपि विस्मरण के समय में भी कुछ बदलाहट नहीं होगी; हम जो थे, वही होंगे। लेकिन फिर भी हम जो हैं, वह हम अपने को समझ नहीं पाएंगे।
परमात्मा सिर्फ विस्मृत है।
योग की क्या जरूरत है जब परमात्मा स्वभाव है? योग की जरूरत है इस विस्मरण को तोड़कर स्मरण को पुनर्स्थापित करने के लिए। यह जो फारगेटफुलनेस है, यह जो भूल जाना है, इस भूल जाने की व्यवस्था को तोड़ देने के लिए योग का प्रयोग है।
ठीक से समझें, तो योग का समस्त प्रयोग निगेटिव है, नकारात्मक है। वह किसी चीज को पाने के लिए नहीं, कोई चीज बीच में अटकाव बन गई है, उसे तोड़ने के लिए है। योग से कोई नई चीज निर्मित नहीं होगी; योग से कोई नई उपलब्धि नहीं होगी; योग से तो जो सदा-सदा से मिला ही हुआ है, वही पुनर्स्मरण होगा।
बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तो किसी ने बुद्ध से पूछा है कि आपने पाया क्या? तो बुद्ध बहुत हंसने लगे और उन्होंने कहा कि मत पूछो। ऐसा मत पूछो। क्योंकि मैंने पाया कुछ भी नहीं। तो उस आदमी ने कहा कि फिर इतनी मेहनत व्यर्थ गई? फिर लोग कहते हैं कि आपको मिल गया। तो मिला क्या है? आप कहते हैं, पाया नहीं! बुद्ध ने कहा, अगर ठीक से कहूं, तो यही कह सकता हूं, मैंने कुछ खोया है, मैंने कुछ पाया नहीं।
तब तो स्वभावतः पूछने वाला और भी चकित हुआ। और उसने कहा, खोने के लिए इतनी मेहनत! तो फल क्या है? अभिप्राय क्या है? और अब आप उपदेश क्यों देते हैं?
बुद्ध ने कहा, इसीलिए कि तुम भी कुछ खो सको। जो मैंने पाया है, अब मैं कह सकता हूं कि वह सदा ही मेरे भीतर था, सिर्फ मुझे पता नहीं था। इसलिए कैसे कहूं कि मैंने पाया! था ही। इतना ही कह सकता हूं कि वह जो मेरे भीतर था, उसको भी जानने में कुछ बाधाएं मेरे भीतर थीं, उन बाधाओं को मैंने खोया। अज्ञान मैंने खोया है। और ज्ञान पाया है, ऐसा मैं नहीं कह सकूंगा, क्योंकि वह था ही। स्वयं को मैंने खोया है। लेकिन परमात्मा को मैंने पाया, ऐसा मैं न कह सकूंगा, क्योंकि वह था ही। लेकिन मेरी वजह से दिखाई नहीं पड़ता था। मेरे मैं की वजह से दिखाई नहीं पड़ता था। मेरी विस्मृति गहरी थी और दिखाई नहीं पड़ता था।
योग है विस्मरण को काटने की विधि।
विस्मरण क्यों है? विस्मरण के होने का भी कारण है। अकारण तो नहीं विस्मरण हो सकता। विस्मरण के होने का कारण है। तीन बातें खयाल में लें, तो स्मरण की प्रक्रिया समझ में आ सकेगी।
विस्मरण का पहला बुनियादी कारण तो यह है कि जो भी हम हैं, उसे बिना एक बार भूले, हमें कभी पता नहीं चलेगा। जो भी हम हैं, उसे एक बार बिना करीब-करीब खोए, हमें पता नहीं चलेगा। असल में पता चलने के लिए विरोधी घटना घटनी चाहिए। पता चलने का नियम है।
अगर आप कभी बीमार नहीं पड़े, तो आप स्वस्थ हैं, ऐसा आपको कभी पता नहीं चलेगा। कभी भी आपको यह पता नहीं चलेगा कि आप स्वस्थ हैं। बीमार पड़ेंगे, तो पता चलेगा कि स्वस्थ थे। बीमार पड़ेंगे, तो पता चलेगा कि अब स्वस्थ हो गए। लेकिन बीमारी के कंट्रास्ट के बिना, बीमारी के विरोध के बिना, आपको अपने स्वास्थ्य का कोई स्मरण नहीं हो सकता है।
अगर इस पृथ्वी पर अंधेरा न हो, तो प्रकाश का किसी को भी पता नहीं चलेगा। प्रकाश होगा, पता नहीं चलेगा। पता चलने के लिए विपरीत का होना जरूरी है। वह जो विपरीत है, वही पता चलवाता है। अगर बुढ़ापा न हो, तो जवानी तो होगी, लेकिन पता नहीं चलेगा। अगर मौत न हो, तो जिंदगी तो होगी, लेकिन पता न चलेगा। जिंदगी का पता चलता है मौत के किनारे से। वह जो मौत की पृष्ठभूमि है, उस पर ही जीवन उभरकर दिखाई पड़ता है। अगर मौत कभी न हो, तो आपको जीवन का कभी भी पता नहीं चलेगा। यह बहुत उलटी बात लगेगी, लेकिन ऐसा ही है।
स्कूल में शिक्षक लिखता है, काले ब्लैकबोर्ड पर सफेद खड़िया से। सफेद ब्लैकबोर्ड पर भी लिख सकता है। लिखावट तो बन जाएगी, लेकिन दिखाई नहीं पड़ेगी। लिखता है काले ब्लैकबोर्ड पर और तब सफेद खड़िया उभरकर दिखाई पड़ने लगती है।
जिंदगी के गहरे से गहरे नियमों में एक है कि उसी बात का पता चलता है जिसका विरोधी मौजूद हो; अन्यथा पता नहीं चलता।
अगर हमारे भीतर परमात्मा है, सदा से है, तो भी उसका पता तभी चलेगा, जब एक बार विस्मरण हो। उसके बिना पता नहीं चल सकता।
इसलिए विस्मरण स्मरण की प्रक्रिया का अनिवार्य अंग है। ईश्वर से बिछुड़ना, ईश्वर से मिलन का प्राथमिक अंग है। ईश्वर से दूर होना, उसके पास आने की यात्रा का पहला कदम है। केवल वे ही जान पाएंगे उसे, जो उससे दूर हुए हैं। जो उससे दूर नहीं हुए हैं, वे उसे कभी भी नहीं जान पाएंगे।
अगर आपको अपनी मां की गोद से कभी सिर हटाने का मौका न मिले, तो आपको मां की गोद का भर पता नहीं चलेगा, और सब पता चलता रहेगा। मां की गोद छूट जाती है, तब ही पता चलता है कि वह गोद थी। उसका अर्थ और अभिप्राय है।
जीवन का यह सत्य स्वयं के स्वभाव को भूलने के लिए भी लागू होता है। भूलना ही पड़ता है, तो ही हमें बोध होता है। बोध के जन्म की यह अनिवार्य प्रक्रिया है।
और भूलने का ढंग क्या होता है? भूलने का एक ही ढंग है। भूलने का एक ही ढंग है, अगर स्वयं को भूलना हो, तो स्वयं को गलत समझना पड़ेगा, तभी भूल सकते हैं; नहीं तो भूल नहीं सकते। स्वयं को कुछ और समझना पड़ेगा, तभी जो हैं, उसे भूल सकते हैं, अन्यथा भूलेंगे कैसे? इसलिए चेतना अपने को शरीर समझ लेती है, पदार्थ समझ लेती है, मन समझ लेती है, विचार समझ लेती है, भाव समझ लेती है, वृत्ति-वासना समझ लेती है--सिर्फ आत्मा नहीं समझती। दूसरे के साथ तादात्म्य हो जाता है। यह भूलने का ढंग है।
योग इस भूलने के ढंग से विपरीत यात्रा है, पुनः घर की ओर वापसी; रिटघनग होम। बहुत दूर निकल गए हैं; फिर वापस पुनर्यात्रा। निश्चित ही, पुनः उसी जगह पहुंचेंगे, जहां से चले थे। लेकिन आप वही नहीं होंगे। क्योंकि जब आप चले थे, तब आपको उस जगह का कोई भी पता नहीं था। अब जब आप पहुंचेंगे, तो आपको पूरा पता होगा। वहीं पहुंचेंगे, जहां से चले थे। वहीं प्रभु के मंदिर में प्रवेश हो जाएगा, जहां से बाहर निकले थे। लेकिन जब दुबारा पहुंचेंगे, इस बीच के क्षण में प्रभु को भूलकर, तो प्रभु के मिलन के आनंद और एक्सटैसी का, समाधि का, प्रभु के मिलन के उत्सव का, प्रभु के मिलन की वह जो अपूर्व घटना घटेगी, वह प्राणों में अमृत बरसा जाएगी।
वहीं पहुंचेंगे, लेकिन वही नहीं होंगे, क्योंकि बीच में विस्मरण घट चुका। और अब जब स्मरण आएगा, तो यह काले तख्ते पर सफेद रेखाओं की तरह उभरकर आएगा। पहली दफे, जो लिखा है, वह पढ़ा जा सकेगा। पहली दफे, जो स्वभाव है, वह प्रकट होगा। पहली दफे, जो छिपा है, वह उघड़ेगा। पहली दफे, जो दबा है, वह अनावृत होगा। यह जीवन का अनिवार्य हिस्सा है।
कोई पूछे, ऐसा क्यों है? तो वह बच्चों का सवाल पूछ रहा है। वैज्ञानिक से पूछें कि पृथ्वी गोल क्यों है? वह कहेगा, है। हम तथ्य बता सकते हैं, क्यों नहीं बता सकते। पूछें कि सूरज में रोशनी क्यों है? वह कहेगा, है। या और अगर थोड़ी खोजबीन की, तो कहेगा, हीलियम गैस की वजह से है, इसकी वजह से है, उसकी वजह से है; कि उदजन का अणु-विस्फोट हो रहा है, इस वजह से है। लेकिन पूछें कि क्यों हो रहा है सूरज पर, जमीन पर क्यों नहीं हो रहा है? तो वैज्ञानिक कहेगा, इसको मत पूछें। ऐसा हो रहा है, वह हम कह सकते हैं। व्हाई मत पूछें, क्यों मत पूछें। हाउ, कैसे; कैसे हो रहा है, वह हम बता सकते हैं।
धर्म भी विज्ञान है। वह भी यह नहीं कहेगा, नहीं कह सकता है, कि क्यों। इतना ही कह सकता है, कैसे!
आदमी विस्मरण करता है। कैसे विस्मरण करता है? पर के साथ तादात्म्य करके विस्मरण करता है। कैसे स्मरण करेगा? पर के साथ तादात्म्य तोड़ेगा, तो पुनः स्मरण हो जाएगा। बस, इस प्रक्रिया की बात की जा सकती है। क्यों इस प्रक्रिया की मैं आपसे चर्चा कर रहा हूं? क्योंकि योग शुद्ध विज्ञान है। इसलिए बहुत मजे की घटना घटी है।
हिंदुस्तान में तीन बड़े धर्म पैदा हुए--जैन, हिंदू, बौद्ध। उनमें कितने ही झगड़े हों और उनमें कितने ही सैद्धांतिक विवाद हों, लेकिन योग के संबंध में उनमें कोई भी विवाद नहीं उठा। योग के संबंध में कोई विवाद नहीं है। क्या बात है?
योग है साइंस, सिद्धांत नहीं। दार्शनिक सिद्धांत नहीं, मेटाफिजिक्स नहीं, योग तो एक प्रक्रिया है, एक प्रयोग है, एक एक्सपेरिमेंट है। उसे कोई भी करे, अनुभव फलित होगा।
इसलिए योग एक अर्थ में समस्त धर्मों का सार है। भारत में तो तीन धर्म पैदा हुए, वे ठीक ही हैं। भारत के बाहर भी जो धर्म पैदा हुए--चाहे इस्लाम, और चाहे ईसाइयत, और चाहे यहूदी धर्म, चाहे पारसी धर्म--भारत के बाहर भी जो धर्म पैदा हुए, उनका भी योग से कभी भी कोई विरोध खड़ा नहीं होता है।
अगर ठीक से समझें, तो योग समस्त धर्मों की प्रक्रिया है--समस्त धर्मों की--वे कहीं पैदा हुए हों। अगर भविष्य में कभी किसी दुनिया में किसी समय में धर्म का विज्ञान स्थापित होगा, तो उसकी आधारशिला योग बनने वाली है। क्योंकि योग सिर्फ प्रक्रिया है।
योग यह नहीं कहता कि परमात्मा क्या है। योग कहता है, परमात्मा को कैसे पाया जा सकता है। योग यह नहीं कहता कि आत्मा क्या है। योग कहता है, आत्मा को कैसे जाना जा सकता है। हाउ! योग यह नहीं कहता कि किसने प्रकृति बनाई और नहीं बनाई। योग कहता है, अस्तित्व में उतरने की सीढ़ियां ये रहीं, उतरो और जानो। योग कहता है, हम न बताएंगे, तुम्हीं आंख खोलो और देख लो। आंख खोलने का ढंग हम बताए देते हैं।
योग बिलकुल शुद्ध साइंस है, सीधा विज्ञान है। हां, फर्क है। साइंस आब्जेक्टिव है, पदार्थगत है। योग सब्जेक्टिव है, आत्मगत है। विज्ञान खोजता है पदार्थ, योग खोजता है परमात्मा।
यह पुनर्स्मरण, यह पुनर्वापसी की यात्रा योग कैसे करता है, उस संबंध में भी कुछ बातें खयाल में ले लेनी चाहिए। क्योंकि कृष्ण ने कहा, उसके ही सतत अभ्यास से परमात्मा में प्रतिष्ठा उपलब्ध होती है। मैं कहूंगा, पुनर्प्रतिष्ठा उपलब्ध होती है।
है क्या योग? योग करता क्या है? योग की कीमिया, केमेस्ट्री क्या है? योग का सार-सूत्र, राज, मास्टर-की क्या है? उसकी कुंजी क्या है? तो तीन चरण खयाल में लें।
एक, मनुष्य के शरीर में जितनी शक्ति का हम उपयोग करते हैं, इससे अनंत गुनी शक्ति को पैदा करने की सुविधा और व्यवस्था है। उदाहरण के लिए, आपको अभी लिटा दिया जाए जमीन पर, तो आपकी छाती पर से कार नहीं निकाली जा सकती, समाप्त हो जाएंगे। लेकिन राममूर्ति की छाती पर से कार निकाली जा सकती है। यद्यपि राममूर्ति की छाती में और आपकी छाती में कोई बुनियादी भेद नहीं है। और राममूर्ति की छाती की हड्डियों में जरा-सी भी किसी तत्व की ज्यादा स्थिति नहीं है, जितनी आपकी हड्डियों में है। राममूर्ति का शरीर उन्हीं तत्वों से बना है, जिन तत्वों से आपका। राममूर्ति क्या कर रहा है फिर?
राममूर्ति, जिस शक्ति का आप कभी उपयोग नहीं करते--आप अपनी छाती का इतना ही उपयोग करते हैं, श्वास को लेने-छोड़ने का। यह एक बहुत अल्प-सा कार्य है। इसके लायक छाती निर्मित हो जाती है। राममूर्ति एक बड़ा काम इसी छाती से लेता है, कारों को छाती पर से निकालने का, हाथी को छाती पर खड़ा करने का।
और जब राममूर्ति से किसी ने पूछा कि खूबी क्या है? राज क्या है? उसने कहा, राज कुछ भी नहीं है। राज वही है जो कि कार के टायर और टयूब में होता है। साधारण सी रबर का टयूब होता है, लेकिन हवा भर जाए एक विशेष अनुपात में, तो बड़े से बड़े ट्रक को वह लिए चला जाता है। राममूर्ति ने कहा कि मैं अपने फेफड़े से वही काम ले रहा हूं, जो आप टायर और टयूब से लेते हैं। हवा को एक विशेष अनुपात में रोक लेता हूं, फिर छाती से हाथी गुजर जाए, वह मेरे ऊपर नहीं पड़ता, भरी हुई हवा के ऊपर पड़ता है। पर एक प्रक्रिया होगी फिर उस अभ्यास की, जिससे छाती हाथी को खड़ा कर लेती है।
हमारे शरीर की बहुत क्षमताएं हैं, जिनका हम हिसाब नहीं लगा सकते। वे सारी की सारी क्षमताएं अनुपयुक्त, अनयूटिलाइज्ड रह जाती हैं। क्योंकि जीवन के काम के लिए उनकी कोई जरूरत ही नहीं है। जीवन के लिए जितनी जरूरत है, उतना शरीर काम करता है।
अगर हम वैज्ञानिकों से पूछें, तो वैज्ञानिकों का खयाल है कि दस प्रतिशत से ज्यादा हम अपने शरीर का उपयोग नहीं करते। नब्बे प्रतिशत शरीर की शक्तियां अनुपयोगी रहकर ही समाप्त हो जाती हैं। जीते हैं, जन्मते हैं, मर जाते हैं। वह नब्बे प्रतिशत शरीर जो कर सकता था, पड़ा रह जाता है।
योग का पहला काम तो यह है कि उन नब्बे प्रतिशत शक्तियों में से जो सोई पड़ी हैं, उन शक्तियों को जगाना, जिनके माध्यम से अंतर्यात्रा हो सके। क्योंकि बिना शक्ति के कोई यात्रा नहीं हो सकती है। एनर्जी, ऊर्जा के बिना कोई यात्रा नहीं हो सकती है। अगर आप सोचते हैं कि हवाई जहाज किसी दिन बिना ऊर्जा के चल सकेंगे, तो आप गलत सोचते हैं। कभी नहीं चल सकेंगे।
हां, यह हो सकता है, हम सूक्ष्मतम ऊर्जा को खोजते चले जाएं। बैलगाड़ी चलती है, तो ऊर्जा से। पैदल आदमी चलता है, तो ऊर्जा से। सांस चलती है, तो ऊर्जा से। सब मूवमेंट, सब गति ऊर्जा की गति है, शक्ति की गति है।
अगर आप सोचते हों कि परमात्मा तक बिना ऊर्जा के सहारे आप पहुंच जाएंगे, तो आप गलती में हैं। परमात्मा की यात्रा भी बड़ी गहन यात्रा है। उस यात्रा में भी आपके पास शक्ति चाहिए। और जिस शक्ति का आप उपयोग करते हैं साधारणतः, वह शक्ति आपके जीवन के दैनिक काम में चुक जाती है, उसमें से कुछ बचता नहीं है। और अगर थोड़ा-बहुत बचता है--अगर थोड़ा-बहुत बचता है--तो भी आपने उसको व्यर्थ फेंक देने के उपाय और व्यवस्था कर रखी है। कुछ बचता नहीं। आदमी करीब-करीब बैंक्रप्ट, दिवालिया जीता है। जो शक्ति उसे मिलती है, दैनंदिन कार्यों में चुक जाती है। और जो शक्ति छिपी पड़ी है, उसे वह कभी जगा नहीं पाता।
तो योग का पहला तो आधार है, छिपी हुई पोटेंशियल ऊर्जा को जगाना। सब तरह के उपाय योग ने खोजे हैं कि वह कैसे जगाई जाए। इसलिए प्राणायाम खोजा। प्राणायाम आपके भीतर सोई हुई शक्तियों को हैमर करने की, चोट करने की एक विधि है। फिर योग ने आसन खोजे। आसन आपके शरीर में छिपे हुए जो ऊर्जा के स्रोत-क्षेत्र हैं, उन पर दबाव डालने की प्रक्रिया है, ताकि उनमें छिपी हुई शक्ति सक्रिय हो जाए।
आपने ट्रेन को चलते देखा है। शक्ति तो बहुत साधारण-सी उपयोग में आती है, पानी और आग की, और दोनों से बनी हुई भाप की। लेकिन भाप के धक्के से इंजन का सिलेंडर धक्का खाकर चलना शुरू हो जाता है। फिर ट्रेन चल पड़ती है। इतनी बड़ी शक्ति, इतने बड़े वजन की ट्रेन सिर्फ पानी की भाप, स्टीम चलाती है।
आपके शरीर में भी बहुत-सी शक्तियां हैं, जिन शक्तियों को दबाकर सक्रिय किया जाए, तो आपके भीतर न मालूम कितने सिलेंडर चलने शुरू हो जाते हैं, जो कि अभी बिलकुल वैसे ही पड़े हैं। इन शक्तियों के बिंदुओं को, जहां शक्ति छिपी है, योग चक्र कहता है। प्रत्येक चक्र पर छिपी हुई शक्तियां हैं। और प्रत्येक चक्र को दबाने के, गतिमान करने के, डायनेमिक करने के आसन हैं, प्राणायाम की विधियां हैं।
हम भी साधारणतः उपयोग करते हैं, हमारे खयाल में नहीं होता है। आपने कभी खयाल किया है कि रात आप सिर के नीचे तकिया रखकर क्यों सो जाते हैं? कभी खयाल नहीं किया होगा। कहते हैं कि नींद नहीं आती है, इसलिए सो जाते हैं। तकिया रखकर आप न सोएं, तो नींद क्यों नहीं आती?
जब आप तकिया नहीं रखते, तो शरीर के खून की गति सिर की तरफ ज्यादा होती है। क्योंकि सिर भी शरीर की सतह में, बल्कि शरीर से थोड़ा नीचे ढल जाता है। तो सारे शरीर का खून सिर की तरफ बहता है। और जब खून सिर की तरफ बहता है, तो सिर के जो तंतु हैं, मस्तिष्क के, वे खून की गति से सजग बने रहते हैं। फिर नींद नहीं आ सकती। खून बहता रहता है, तो मस्तिष्क के तंतु सजग रहते हैं। तो फिर नींद नहीं आ सकती। तो आप तकिया रख लेते हैं।
और जैसे-जैसे आदमी सभ्य होता जाता है; तकिए बढ़ते चले जाते हैं--एक, दो, तीन! क्यों? क्योंकि उतना सिर ऊंचा चाहिए, ताकि खून जरा भी भीतर न जाए। नहीं तो मस्तिष्क की दिनभर इतनी चलने की आदत है कि जरा-सा खून का धक्का और सिलेंडर चालू हो जाएगा; आपका मस्तिष्क काम करना शुरू कर देगा।
योगी शीर्षासन लगाकर खड़ा होता है। आप समझें कि दोनों का नियम एक ही है, तकिया रखने का और शीर्षासन का आधारभूत नियम एक ही है। उलटा काम कर रहा है वह। वह सारे शरीर के खून को सिर में भेज रहा है। योगी जब शीर्षासन लगाकर खड़ा हो रहा है, तो वह कर क्या रहा है? वह इतना ही कर रहा है कि वह सारे शरीर के खून की गति को सिर की तरफ भेज रहा है।
अभी जितना आपका मस्तिष्क काम कर रहा है, वैज्ञानिक कहते हैं कि सिर्फ एक चौथाई मस्तिष्क काम करता है, तीन चौथाई बंद पड़ा हुआ है, स्टैगनेंट, वह कभी कोई काम नहीं करता। खून की तीव्र चोट से वह जो नहीं काम करने वाला मस्तिष्क का हिस्सा है, सक्रिय किया जा सकता है। क्योंकि यह हिस्सा भी खून की चोट से ही सक्रिय होता है। खून का धक्का आपके मस्तिष्क के बंद सिलेंडर को गतिमान कर देता है।
मस्तिष्क के वे हिस्से सक्रिय हो जाएं, जो मौन चुपचाप पड़े हैं, तो आपकी समझ और आपके विवेक में आमूल अंतर पड? जाते हैं--आमूल अंतर पड़ जाते हैं। आप नए ढंग से सोचना और नए ढंग से देखना शुरू कर देते हैं। नए ढंग से, एक नई दृष्टि, और एक नया द्वार, न्यू परसेप्शन, डोर्स आफ न्यू परसेप्शन, प्रत्यक्षीकरण के नए द्वार आपके भीतर खुलने शुरू हो जाते हैं।
मैंने उदाहरण के लिए कहा। इस तरह के शरीर में बहुत-से चक्र हैं। इन प्रत्येक चक्र में छिपी हुई अपनी विशेष ऊर्जा है, जिसका विशेष उपयोग किया जा सकता है। योगासन उन सब चक्रों में सोई हुई शक्ति को जगाने का प्रयोग है।
योग के द्वारा शरीर एक डायनेमिक फोर्स, एक बहुत जीवंत ऊर्जा की जीती-जागती, साकार प्रतिमा बन जाता है। इस शक्ति के पंखों पर चढ़कर अंतर्यात्रा हो सकती है। अन्यथा अंतर्यात्रा अत्यंत कठिन है। वह प्रभु का जो स्मरण है, तभी हो सकता है।
तो पहला तो योग का विशेष अभ्यास है, वह है, शक्ति के सोए हुए स्रोतों को सजीव करना, जाग्रत करना, पुनर्जीवित करना।
बहुत स्रोत हैं। कभी-कभी अचानक घटनाएं घटती हैं, तब लोगों को पता चलता है। अभी स्विटजरलैंड में एक आदमी एक ट्रेन से गिर पड़ा था। चोट लगी बहुत जोर से उसके कानों को। जब वह अस्पताल में भर्ती किया गया, तो पाया गया कि दस मील के भीतर जो भी रेडियो स्टेशन हैं, उसके कान ने, उन रेडियो स्टेशंस को पकड़ना शुरू कर दिया। बड़ी हैरानी हुई। कभी सोचा न था कि कान के पास यह क्षमता हो सकती है कि रेडियो स्टेशन को सीधा पकड़ ले, बीच में रेडियो की जरूरत न रहे!
लेकिन योग सदा से कहता है कि कान के पास ऐसी क्षमता छिपी पड़ी है, सिर्फ उसे सजग करने की बात है। यह भूल-चूक से हो गया, एक्सिडेंटल, कि आदमी ट्रेन से गिरा और उस केंद्र पर चोट लग गई और शक्ति सक्रिय हो गई। योग इसे व्यवस्थित रूप से सक्रिय करना जानता है।
उसके कुछ दिन पहले स्वीडन में एक आदमी को आंख का कुछ आपरेशन किया, और अचानक उसे दिन में आकाश के तारे दिखाई पड़ने शुरू हो गए। दिन में! आकाश में तारे तो दिन में भी होते हैं, सिर्फ सूरज की रोशनी की वजह से आपको दिखाई नहीं पड़ते। अगर आप एक गहरे कुएं में चले जाएं, गहरे अंधेरे कुएं में, तो दिन में भी आपको गहरे कुएं में से आकाश में थोड़े-से तारे दिखाई पड़ सकते हैं। लेकिन उस आदमी को तो सूरज की रोशनी में खड़े होकर तारे दिखाई पड़ने लगे। क्या हो गया?
योग बहुत दिन से कहता है कि आंख की क्षमता बहुत है। जितनी आप जानते हैं, उससे बहुत ज्यादा। लेकिन उसके सोए हुए शक्ति केंद्र हैं, उनको सजग करना जरूरी है। शरीर में ऐसे बहुत ऊर्जा-स्रोत हैं, और योग ने सबको सक्रिय करने की प्रक्रियाएं खोजी हैं। उनका ही अभ्यास, उनका ही सतत अभ्यास व्यक्ति को परमात्मा की दिशा में सक्रिय कर पाता है, एक।
दूसरी बात, जैसा हमारा मन है, साधारणतः हम सोचते हैं, साधारणतः हमारा खयाल है कि यह जो हमारा मन है, जैसा यह मन है, इसी मन को लेकर हम परमात्मा की तरफ चले जाएंगे, तो हम गलत सोचते हैं। इस मन को लेकर जाना असंभव है। इसी मन के कारण तो हम पदार्थ की तरफ आए हैं। यह मन हमारा पदार्थ से संबंध जोड़ने का इंतजाम है; यह परमात्मा से तोड़ने का कारण है; यह जोड़ने का कारण नहीं बन सकता है।
यह जो मन है हमारे पास, यह मन पदार्थ से जोड़ने की व्यवस्था है। इसी मन को आप परमात्मा की तरफ नहीं ले जा सकते। आपको एक नए मन को पैदा करने की जरूरत है।
और योग कहता है, वैसा नया मन पैदा किया जा सकता है। और उस नए मन को पैदा करने की भी पूरी कीमिया योग ने खोजी है कि वह नया मन कैसे पैदा हो। जैसे मैंने कहा कि शरीर की शक्ति जगाने के लिए आसन, प्राणायाम, मुद्राएं और इस तरह की सारी व्यवस्था है। हठयोग ने उस पर अपूर्व चेष्टा की है, और ऐसे राज खोज लिए हैं, जिनमें से बहुत-से राजों से अभी विज्ञान भी अपरिचित है।
जैसे विज्ञान को अभी तक खयाल नहीं था कि शरीर में खून या खून की गति वालेंटरी हो सकती है, स्वेच्छा से हो सकती है। विज्ञान समझता है कि खून की गति नान-वालेंटरी है, स्वेच्छा के बाहर है, आप कुछ कर नहीं सकते। लेकिन हठयोग बहुत हजारों साल से कह रहा है कि शरीर की कोई भी गति स्वेच्छा से चालित हो सकती है। खून भी हमारी इच्छा से चले और बंद हो सकता है। शरीर का बुढ़ापा, युवावस्था भी हमारी इच्छा के अनुकूल निर्धारित हो सकती है। शरीर की उम्र भी हम विशेष प्रक्रियाओं से लंबी और कम कर सकते हैं।
एक आदमी इजिप्त में, एक सूफी योगी, अठारह सौ अस्सी में समाधिस्थ हुआ, जीवित। और चालीस साल बाद उखाड़ा जाए, इसकी घोषणा करके समाधि में, कब्र में चला गया, अठारह सौ अस्सी में। चालीस साल बाद उन्नीस सौ बीस में कब्र खुदेगी। जो बूढ़े उसको दफनाने आए थे उस चालीस साल के विश्राम के लिए, उनमें से करीब-करीब सभी मर गए। उन्नीस सौ बीस में एक भी नहीं था। जो जवान थे, उनमें से भी अनेक बूढ़े होकर मर चुके थे। जो बच्चे थे, वे ही कुछ बचे थे। जो उस भीड़ में छोटे बच्चे खड़े थे, वे ही बचे थे।
उन्नीस सौ बीस तक करीब-करीब बात भूली जा चुकी थी। वह तो सरकारी दफ्तरों के कागजातों में बात थी और किसी के हाथ पड़ गई। किसी को भरोसा नहीं था कि वह आदमी अब जिंदा मिलेगा उन्नीस सौ बीस में। लेकिन कुतूहलवश--किसी को भरोसा नहीं था कि वह जिंदा मिलने वाला है। चालीस साल! कुतूहलवश कब्र खोदी गई। वह आदमी जिंदा था। और बड़ा आश्चर्य जो घटित हुआ वह यह कि इस चालीस साल में उसकी उम्र में कोई भी फेर-बदल नहीं हुआ था। उसके जो चित्र छोड़े गए थे अठारह सौ अस्सी में फाइलों के साथ, उससे उसके चेहरे में चालीस साल का कोई भी फर्क नहीं था।
उन्नीस सौ बीस में कब्र के बाहर आकर वह आदमी नौ महीने और जिंदा रहा। और नौ महीने में उतना फर्क पड़ गया, जितना चालीस साल में नहीं पड़ा था। और उस आदमी से पूछा गया कि तुमने किया क्या? उसने कहा कि मैं कुछ ज्यादा नहीं जानता हूं। सिर्फ प्राणायाम का एक छोटा-सा प्रयोग जानता हूं। श्वास पर काबू करने का एक छोटा-सा प्रयोग जानता हूं, और कुछ भी नहीं जानता।
तो एक हिस्सा तो शरीर है ऊर्जा का, जिसके योग ने सूत्र खोजे। दूसरा हिस्सा नया मन, ए न्यू माइंड पैदा करने की प्रक्रियाएं हैं, जो योग ने खोजीं। पहले प्रयोग के लिए योगासन हैं, प्राणायाम हैं, मुद्राएं हैं। दूसरे प्रयोग के लिए ध्वनि, शब्द और मंत्रों का प्रयोग है। तो मंत्रयोग की पूरी लंबी व्यवस्था है।
हमें खयाल में भी नहीं है कि हमारा चित्त जो है, वह ध्वनियों से चलता है। ध्वनियों से!
ओंकारनाथ ठाकुर इटली में मुसोलिनी के मेहमान थे--भारत के एक बड़े संगीतज्ञ। मुसोलिनी ने ऐसे ही मजाक में--भोजन पर निमंत्रित किया था ठाकुर को--मजाक में, भोजन करते वक्त मुसोलिनी ने कहा कि मैं सुनता हूं कि कृष्ण बांसुरी बजाते थे, तो जंगली जानवर आ जाते; गउएं नाचने लगतीं; मोर पंख फैला देते। यह कुछ मुझे समझ में नहीं आता कि संगीत से यह कैसे हो सकता है! ओंकारनाथ ठाकुर ने कहा कि कृष्ण जैसी मेरी सामर्थ्य नहीं। संगीत के संबंध में उतनी मेरी समझ नहीं। सच तो यह है कि संगीत के संबंध में कृष्ण जैसी समझ पृथ्वी पर फिर दूसरे आदमी की नहीं रही है। लेकिन थोड़ा-बहुत क ख ग, जो मैं जानता हूं, वह मैं आपको करके दिखा दूं कि समझाऊं! मुसोलिनी ने कहा, समझाने में तो कोई सार नहीं है। तुम कुछ करके ही दिखा दो।
कुछ न था हाथ में। खाना ले रहे थे, तो कांटा-चम्मच हाथ में थे। सामने चीनी के बर्तन, प्यालियां थीं। ओंकारनाथ ठाकुर ने वे प्यालियां और बर्तन चम्मच-कांटे से बजाना शुरू कर दिया। पांच मिनट, सात मिनट और मुसोलिनी की आंख झप गई और जैसे वह नशे में आ गया। और उसका सिर टेबल से टकराने लगा। जोर से बजने लगे बर्तन और मुसोलिनी का सिर और जोर से टकराने लगा। और जोर से बजने लगे बर्तन! और फिर मुसोलिनी चिल्लाया कि रोको, क्योंकि मैं सिर को नहीं रोक पा रहा हूं! रोका, तो सिर लहूलुहान हो गया था।
मुसोलिनी ने अपनी आत्मकथा में लिखवाया है कि मैंने जो वक्तव्य दिया था, उसके लिए मैं क्षमा चाहता हूं। जरूर कृष्ण की बांसुरी से जंगली जानवर आ गए होंगे। जब कि एक सभ्य आदमी का सिर सारी कोशिश करके भी नहीं रुक सकता है। और सिर्फ कांटे-चम्मच बर्तन पर बजाए जा रहे हैं, कोई बड़ा वाद्य नहीं!
चित्त की सूक्ष्मतम तरंगें ध्वनि की तरंगें हैं। ध्वनि से हम जीते हैं।
अभी पश्चिम में इस पर बहुत काम शुरू हुआ है, साउंड इलेक्ट्रानिक्स पर, ध्वनिशास्त्र पर। क्योंकि पश्चिम में पागलपन रोज बढ़ता जा रहा है। और अब साउंड इलेक्ट्रानिक्स के समझने वाले लोग कहते हैं कि उसके बढ़ने का कारण ट्रैफिक की ध्वनियां हैं। सड़क पर जो ध्वनियां हो रही हैं, हार्न बज रहे हैं, कारें निकल रही हैं, भोंपू बज रहे हैं, ट्रक निकल रहे हैं, हवाई जहाज उड़ रहे हैं, सुपरसोनिक उड़ रहे हैं, जंबो जेट उड़ रहे हैं, वे सब जो आवाजें पैदा कर रहे हैं, उन ध्वनियों को यह मन नहीं सह पा रहा है; विक्षिप्त हो रहा है।
अगर किन्हीं ध्वनियों को सुनकर आदमी पागल हो सकता है, तो क्या यह मानने में बहुत कठिनाई है कि किन्हीं ध्वनियों को सुनकर आदमी शांत हो जाए? अगर किन्हीं ध्वनियों को सुनकर आदमी का मन विक्षिप्त हो सकता है, तो क्या यह मानने में बहुत अड़चन होगी कि किन्हीं और ध्वनियों को, विपरीत ध्वनियों को सुनकर मनुष्य का मन समाधिस्थ हो जाए?
मंत्रयोग उसकी चेष्टा है। और इस तरह की ध्वनियां मंत्रयोग ने खोजीं, जिन ध्वनियों का उच्चार, आंतरिक उच्चार, हृदयगत उच्चार, प्राणगत उच्चार मन को नई शक्ल देना शुरू कर देता है, नया पैटर्न।
प्रत्येक ध्वनि का अपना पैटर्न है, अपना ढांचा है। आप कभी ऐसा करें कि एक पतले, झीने कागज पर रेत के दाने बिछा दें। फिर नीचे से जोर से कहें, राम! और रेत के दाने हिलेंगे और कागज पर एक पैटर्न बन जाएगा। आप कितनी ही बार राम कहें, वही पैटर्न रेत के कणों पर बनेगा। कहें, अल्लाह! दूसरा पैटर्न बनेगा। फिर कितनी ही बार अल्लाह कहें, उस कागज के ऊपर वही दूसरा पैटर्न दोहरेगा। फिर एकाध कोई गंदी गाली देकर भी देखें, उसका भी अपना पैटर्न बनेगा।
और एक और मजे की बात है कि गंदी गाली का जो पैटर्न बनेगा उसके ऊपर, वह बहुत कुरूप होगा। और राम का जो पैटर्न बनेगा, बहुत समायोजित, संतुलित, सुंदर, अनुपात में होगा। अल्लाह का जो पैटर्न बनेगा, बहुत सुंदर, बहुत समायोजित होगा।
आप एक-एक शब्द को उस कागज के नीचे दोहराकर देखें कि उसका पैटर्न कैसा बनता है। जो पैटर्न रेत के दानों पर बन रहा है, वही आपके चित्त में भी बनता है।
आपका चित्त एक बहुत--रेत के दाने तो कुछ भी नहीं-- आपका चित्त तो सबसे ज्यादा संवेदनशील वस्तु है इस पृथ्वी पर। छोटी-सी ध्वनि तरंग उसको रूप देती है। हम जो शब्द सुन रहे हैं, जो बातें सुन रहे हैं, जो गीत सुन रहे हैं, रास्ते पर आवाजें सुन रहे हैं, वे हमारे एक तरह के मन को निर्मित करते हैं।
योग कहता है, एक नए तरह का मन चाहिए पड़ेगा, अगर परमात्मा की तरफ जाना है। तो उन ध्वनियों का उपयोग करो, जिन ध्वनियों से परमात्मा की तरफ जाने वाला लयबद्ध मन निर्मित हो जाए। और इसीलिए एक शब्द को ही निरंतर दोहराने की प्रक्रियाएं ईजाद की गईं। उसका कारण है। ताकि वह पैटर्न, उस शब्द से बनने वाला पैटर्न थिर हो जाए मन पर, मन पर बैठ जाए; मन उसको इंबाइब कर ले, पी ले; मन उसके साथ एकाकार हो जाए। तो नया मन निर्मित होना शुरू हो जाएगा।
ध्वनिशास्त्र चित्त के रूपांतरण की बड़ी अदभुत--बड़ी अदभुत--कुंजियां खोज लिया है। हजारों साल उस तरफ मेहनत की गई है।
तो दूसरा तत्व योग का है, ध्वनि। पहला तत्व है, ऊर्जा। दूसरा तत्व है, ध्वनि। और तीसरा तत्व है, ध्यान, अटेंशन, दिशा।
चेतना उसी दिशा में बहती है, जिस तरफ चेतना को हम उन्मुख करते हैं। जहां उन्मुख करते हैं, वहीं चेतना बहती है। और जिस तरफ चेतना बहती है, उस तरफ बहती है और शेष तरफ बहना उसका बंद हो जाता है। परमात्मा की तरफ कैसे बहे? क्योंकि परमात्मा की कोई दिशा नहीं है, खयाल रखना।
मैं यहां बोल रहा हूं, तो आपका ध्यान मेरी तरफ बहेगा। लेकिन शेष सब तरफ बंद हो जाएगा। अगर कोई पीछे से आवाज कर दे, तो आपका ध्यान चौंककर उस तरफ बहेगा, लेकिन तब तक आपके संबंध मुझसे टूट जाएंगे। लेकिन परमात्मा की तो कोई दिशा नहीं है, सब दिशाओं में वह व्याप्त है--दिशाहीन, दिशातीत। तो परमात्मा को हम किस दिशा में खोजें? कहां ध्यान ले जाएं? इस जगत में और कुछ भी खोजना हो, तो दिशा है। परमात्मा की तो कोई दिशा नहीं, उसे हम कैसे खोजें?
तो ऐसी ध्वनियां पैदा की हैं योग ने, जो दिशाहीन हैं। जैसे ओम, यह दिशाहीन ध्वनि है। अगर आप ओम का पाठ करें, तो यह ध्वनि सर्कुलर है। इसलिए ओम का जो प्रतीक बनाया है, वह भी सर्कुलर है, वर्तुलाकार है। अगर आप भीतर ओम की ध्वनि करें, तो आपको ऐसा अनुभव होगा, जैसे मंदिर के ऊपर गुंबज होती है गोल। वह गोल गुंबज ओम की ध्वनि से जुड़कर बनाई गई है, वह जो मंदिर के ऊपर अर्ध गोलाकार छप्पर है। जब आप भीतर जोर से ओम का पाठ करेंगे, तो आपको अपने सिर और चारों तरफ एक वर्तुलाकार स्थिति का बोध होगा, दिशाहीन। यह ओम कहीं से आता हुआ नहीं मालूम पड़ेगा। सब कहीं से आता हुआ और सब कहीं जाता हुआ मालूम पड़ेगा।
यह एक अदभुत ध्वनि है, जो योग ने खोजी है। इस ध्वनि के मुकाबले जगत में कोई दूसरी ध्वनि नहीं खोजी जा सकी। इसे इसलिए मूल ध्वनि, बीज ध्वनि...।
इस वर्तुलाकार स्थिति में आप परमात्मा की तरफ उन्मुख होंगे, अन्यथा आप उन्मुख न हो सकेंगे। कोई न कोई चीज आपको खींचती रहेगी अपनी तरफ; कोई न कोई दिशा आपको पुकारती रहेगी। दिशामुक्त होंगे, तो भीतर की तरफ यात्रा शुरू होगी।
योग के सतत अभ्यास से, कृष्ण कहते हैं अर्जुन को, परमात्मा में प्रतिष्ठा मिलती है।
फिर अभी योग पर और बहुत बात होगी, तो हम धीरे-धीरे उसकी और बात करेंगे।


यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युग्जतो योगमात्मनः।। १९।।
और जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक नहीं चलायमान होता है, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गई है।


जैसे वायुरहित स्थान में दीए की ज्योति थिर हो, अकंप, निष्कंप, जरा भी कंपित न हो, ऐसे ही योगी का चित्त, चेतना थिर हो जाती है। यही उपमा योगी की चेतना के लिए कही गई है।
ध्यान रहे, जब तक किसी दिशा में ध्यान जाएगा, तब तक चेतना की लौ कंपित होगी। राह पर बजता है एक कार का हार्न, चेतना कंपित होगी। कोई सज्जन पीछे ही व्याख्यान दिए जा रहे हैं, चेतना कंपित होगी। सब ध्वनियां चेतना को कंपित करेंगी। तो निष्कंप चेतना कब हो पाएगी?
जब इन समस्त ध्वनियों के पार हम अपने भीतर कोई मंदिर खोज पाएं, जहां ये कोई ध्वनियां प्रवेश न करें। हम अपने भीतर ऊर्जा का एक ऐसा वर्तुल बना पाएं, जहां चेतना अकंप ठहर जाए, जैसे वायुरहित स्थान में दीया ठहर जाए। चित्त के लिए ध्वनि ही वायु है।
तो ध्वनि का एक विशेष आयोजन भीतर करना पड़े, तभी लौ ठहर पाएगी। योग उसका अभ्यास है। और निश्चित ही ऐसी संभावनाएं हैं। आपको भी उपलब्ध हो सकती हैं। कोई विशेषता नहीं है कि किसी विशेष को उपलब्ध हों। जो भी श्रम करे उस दिशा में सतत, उसे उपलब्ध हो जाएं; तो चित्त मंडलाकार अपने भीतर ही बंद हो जाता है।
बौद्धों ने उसे मंडल कहा है। ऐसा मंडल बन जाता है कि आप अपने भीतर ही घूमते हैं, बाहर से कुछ आता नहीं, बाहर आप जाते नहीं। न आपकी चेतना बाहर जाती है, न बाहर से कोई ध्वनित्तरंग आपके भीतर प्रवेश करती है। इस मंडल में ठहरी हुई चेतना वायुरहित स्थान में दीए की लौ जैसी हो जाती है। इतनी अकंप चेतना ही प्रभु में प्रतिष्ठा पाती है, क्योंकि निष्कंप होना ही प्रभु में प्रतिष्ठित हो जाना है--निष्कंप होना ही।
कंपना ही संसार में जाना है। निष्कंप हो जाना, प्रभु में पहुंच जाना है। कंपे, कंपित हुए, संसार में गए। अगर ठीक से समझें, तो संसार एक कंपन, अनंत कंपन का समूह है। जैसे हवा में एक पत्ता कंप रहा हो वृक्ष का। बाएं हवा आती है, बाएं कंप जाता है। दाएं आती है, दाएं कंप जाता है। हिलता-डुलता, कंपता रहता है; कभी थिर नहीं हो पाता। ठीक ऐसे ही वासना में, वृत्ति में, विचार में, सब में चित्त कंपता रहता है, कंपित होता रहता है, डोलता रहता है।
इस डोलते हुए चित्त को अवसर नहीं है कि यह जान सके उस जगह को, जहां यह है। इस डोलती हुई लौ को पता भी नहीं चलेगा कि किस दीए के तेल से, किस स्रोत से इसे रोशनी मिल रही है, प्राण मिल रहे हैं। यह तो हवा के झोंकों में हवा को ही जान पाएगी ज्योति, उस स्रोत को न जान पाएगी। उस स्रोत को जानने के लिए ठहर जाना, थिर हो जाना, रुक जाना जरूरी है।
यह रुक जाना कैसे फलित हो? यह योगी की उपमा तो ठीक है, लेकिन यह योगी आदमी हो कैसे? ठहरे कैसे? रुके कैसे?
कभी-कभी बहुत कठिन दिखाई पड़ने वाली बातें बहुत छोटे-से प्रयोगों से हल हो जाती हैं। कठिन तभी तक दिखाई पड़ती हैं, जब तक हम कुछ करते नहीं हैं और सिर्फ सोचते चले जाते हैं। सरल हो जाती हैं उसी क्षण, जब हम कुछ करते हैं! कोई अनुभव, बड़ी से बड़ी कठिनाई को कोई छोटा-सा अनुभव तोड़ जाता है।
सुना है मैंने, आज जहां रूस का बहुत बड़ा महानगर है, स्टैलिनग्राद, पुराना नाम था उस गांव का पैत्रोग्राद। पीटर महान ने उसको बसाया था, रूस के एक सम्राट ने। और पीटर महान जब उसे बसा रहा था, तो उसने एक पहाड़ी के कोने को चुना था अपने लिए कि इस जगह मैं अपना भवन बनाऊं। लेकिन उस पहाड़ी को हटाना बड़ा भारी प्रश्न था। और पीटर महान चाहता था, समतल भूमि हो जाए। बहुत इंजीनियरों को कहा, लाखों रुपए देने की बात कही। इंजीनियर कहते थे, बहुत खर्च है। कई लाख खर्च होंगे, तो यह पत्थर हटेगा।
एक दिन पीटर महान खुद गया देखने। सच में इतना बड़ा पत्थर था कि उसे काट-काटकर हटाने के सिवाय कोई उपाय उस समय नहीं था। एक बैलगाड़ी वाला किसान पास से गुजरता था, वह हंसने लगा। उसने कहा, लाखों रुपए! हम सस्ते में जमीन सपाट कर दे सकते हैं। इंजीनियर हंसे, सम्राट हंसा, कहा कि भोला किसान है, क्यों पागलपन में पड़ता है! उसने कहा कि हम कर ही देंगे सस्ते में, इसमें कोई लाखों का सवाल नहीं है। और उसने कर दिया। तो उस महल के नीचे एक पत्थर लगाया था पीटर महान ने उस किसान की स्मृति में--उस किसान की स्मृति में।
उस किसान ने बहुत कम, कुछ ही हजार रुपयों में वह पत्थर सपाट कर दिया। लेकिन उसने और ढंग से सोचा। सोचा कम, और किया कुछ ज्यादा। उसने पत्थर को काट-काटकर फेंकने का खयाल ही नहीं लाया। उसने तो पत्थर के चारों तरफ गङ्ढा खोदना शुरू करवाया। चारों तरफ गङ्ढा खोदा और उस पत्थर को गङ्ढे में नीचे गिरा दिया, ऊपर से मिट्टी डलवा दी। जमीन सपाट हो गई।
पीटर जब देखने आया, तो उसने कहा, वह पत्थर कहां गया? उस किसान ने कहा, पत्थर से आपको क्या प्रयोजन! जमीन सपाट चाहिए, जमीन सपाट हो गई। लेकिन पीटर महान बोला कि मैं यह जानना चाहता हूं, वह पत्थर गया कहां? उसको हटाना बहुत मुश्किल था! उस किसान ने कहा कि आप सदा उसको दूर हटाने की भाषा में सोचते थे, हमने उसको और गहराई में पहुंचा दिया।
तो उसके नाम पर एक स्मरण का पत्थर पीटर ने लगवाया था कि बड़े इंजीनियर जिसे महीनों सोचते रहे और हल न कर पाए, एक छोटे-से ग्रामीण किसान ने उसे हल कर दिया।
कई बार बड़े बुद्धिमान जिसे हल नहीं कर पाते, छोटे-से प्रयोगकर्ता उसे हल कर लेते हैं। और योग के संबंध में तो ऐसा ही मामला है--बिलकुल ऐसा ही मामला है।
आप अगर सोच-सोचकर हल करना चाहें, तो जिंदगी में कोई प्रश्न हल नहीं होगा। अगर आप चाहते हों कि शांत हो जाएं और विचार कर-करके शांत होना चाहें, आप कभी शांत न हो पाएंगे। क्योंकि विचार करना सिर्फ एक और तरह की अशांति है, और कुछ भी नहीं। आप सोचते हों, विचार कर-करके शांत होंगे, तो आप और अशांत हो जाएंगे; क्योंकि विचार करना एक अशांति से ज्यादा नहीं है।
इसलिए जो लोग शांत होना चाहते हैं, वे उन लोगों से भी ज्यादा अशांत हो जाते हैं, जो शांत होने की फिक्र नहीं करते। उनकी अशांति दोहरी हो जाती है। एक तो अशांति होती ही है और एक अशांति और पकड़ लेती है कि शांत कैसे हों!
लेकिन कोई छोटी-सी प्रक्रिया चित्त को एकदम शांत कर जाती है। कोई बहुत छोटी-सी प्रक्रिया, कोई मेथड चित्त को ऐसे शांत कर जाता है, जैसे वह कभी अशांत ही न था।
करीब-करीब ऐसा है कि जैसे कोई किसी वृक्ष के पत्ते काटता रहे और सोचे कि वृक्ष को समाप्त करना है। वह पत्ते काट न पाए और नए पत्ते आ जाएं। और वृक्ष की आदतें ऐसी हैं कि एक पत्ता काटो, तो चार आ जाते हैं। वृक्ष समझता है, कलम की जा रही है। जब तक जड़ न काटी जाए, तब तक वृक्ष के पत्ते काटने से वृक्ष का अंत नहीं होता।
हम सब एक-एक विचार से लड़ते रहते हैं। कोई कहता है कि मुझे क्रोध बहुत आता है, तो मेरा क्रोध कैसे ठीक हो जाए? मेरे पास लोग आते हैं। कोई कहता है, क्रोध कैसे ठीक हो जाए? क्रोध, बस क्रोध ठीक हो जाए। वह समझता है कि क्रोध कोई अलग चीज है लोभ से। वह समझता है, लोभ कोई अलग चीज है मान से। वह समझता है, मान कोई अलग चीज है काम से। वह समझता है, ये सब अलग चीजें हैं। अलग चीजें नहीं हैं, सब पत्ते हैं। और एक को काटिएगा, तो चार निकल आएंगे।
योग कहता है, जड़ को काटिए, पत्तों को मत काटिए। जड़ कट गई, तो पूरा वृक्ष गिर जाएगा।
क्रोध नहीं गिर सकता उस आदमी का, जिसका काम बाकी है। उस आदमी का लोभ नहीं गिर सकता, जिसका काम बाकी है। उस आदमी का मान नहीं गिर सकता, अहंकार नहीं गिर सकता, जिसका काम बाकी है। और मजा यह है कि चार में से कोई एक भी बच जाए, तो बाकी तीन अनिवार्य रूप से मौजूद रहेंगे। वे जा नहीं सकते।
हां, यह हो सकता है कि आपमें एक की मात्रा थोड़ी ज्यादा हो, दूसरे की थोड़ी कम हो। लेकिन अगर चारों का हिसाब जोड़ा जाए, तो सब आदमियों में बराबर मात्रा मिलेगी--चारों को जोड़ लिया जाए, तो।
लेकिन हम सब उस सर्कस के बंदरों जैसे हैं! मैंने सुना है कि एक सर्कस के मालिक के पास बंदर थे। वह सुबह उनको चार रोटी देता, शाम को तीन रोटी। एक दिन उसने बंदरों से कहा कि कल से हम व्यवस्था बदल रहे हैं। तुम्हें सुबह तीन रोटी मिलेंगी, शाम चार रोटी। बंदर एकदम नाराज हो गए। रोज सुबह चार रोटी मिलती थीं, शाम तीन रोटी। उसने कहा, कल से हम व्यवस्था बदलते हैं। कल सुबह से तुम्हें तीन रोटी सुबह मिलेंगी, चार रोटी शाम। बंदर बहुत नाराज हो गए। चीखने-चिल्लाने लगे, कि हम बरदाश्त नहीं कर सकते यह बात। बंदरों ने तीन रोटी लेने से इनकार कर दिया। वह मालिक बड़ा हैरान हुआ। उसने कहा कि पागलो, जोड़ो भी तो!
तो मैंने सुना है कि बंदरों ने कहा, जोड़ करता ही कौन है! हमें सुबह चार चाहिए, जैसी हमें सदा मिलती रही हैं! कोई रास्ता न देखकर उन्हें चार रोटियां दी गईं, बंदर राजी हो गए। शाम उनको तीन रोटी मिलतीं, सुबह चार मिलतीं। वे तृप्त। सुबह तीन मिलतीं, शाम चार मिलतीं, सात ही होती थीं, लेकिन जोड़ कौन करता है! आदमी नहीं करते, तो बंदर क्यों करें?
मैंने सुना है, उन बंदरों ने कहा, आदमी नहीं करते! हम बंदर क्यों जोड़ की झंझट में पड़ें! हमें चार सुबह मिलती थीं, चार चाहिए। शाम तीन मिलती थीं, तीन चाहिए। हम झंझट में नहीं पड़ते।
एक आदमी में थोड़ा क्रोध ज्यादा होता है, थोड़ा लोभ कम होता है, दोनों का जोड़ बराबर सात होता है। इन चारों का जोड़ सब आदमियों में बराबर है। लेकिन जोड़ कोई करता नहीं। और एक-एक को, जिसको क्रोध ज्यादा लगता है, वह कहता है, क्रोध से किस तरह छूट जाऊं? लोभ की तो मुझे झंझट नहीं है; क्रोध ही की झंझट है। उसे पता नहीं है कि अगर क्रोध काट दिया जाए, तो क्रोध की जितनी रोटियां हैं, कहीं और जुड़ जाएंगी। क्रोध कट नहीं सकता अकेला। चारों साथ रहते हैं, या चारों साथ जाते हैं।
योग कहता है, ऊपर से मत लड़ो। जड़ पकड़ो।
जड़ कहां है? जड़ कहां है? न तो क्रोध जड़ है, न लोभ जड़ है, न काम जड़ है, न अहंकार जड़ है। जड़ कहां है?
योग कहता है, जड़ आपके मन की सिस्टम, मन की जो व्यवस्था है आपकी, उसमें जड़ है। ऐसे मन में लोभ, क्रोध होगा ही; काम, अहंकार होगा ही। यह मन का, जो आपके पास मन है, उसका स्वभाव है। इस मन को ही बदलो। इस मन की जगह नए मन को स्थापित करो। यह मन रहा और इस मन का यंत्र रहा, तो सब जारी रहेगा। इस यंत्र को नया करो, नया यंत्र स्थापित करो। तो तुम्हारे पास नया मन होगा, जिसमें क्रोध नहीं होगा, काम नहीं होगा, मोह नहीं होगा, लोभ नहीं होगा।
लेकिन इस मन को बदलने का राज क्या है?
योग उसी राज का विस्तार है। और योग ने तीन प्रकार के राज कहे, तीन तरह के लोगों के लिए। क्योंकि तीन तरह के लोग हैं। वे लोग हैं, जो विचार प्रधान हैं जिनके भीतर, बुद्धि प्रधान है जिनके भीतर, उनके लिए अलग राज कहा। जिनके पीछे भाव प्रधान है, उनके लिए अलग राज कहा। जिनके पीछे कर्म प्रधान है, उनके लिए अलग राज कहा।
योग की तीन शाखाएं हैं प्रमुख--फिर तो अनंत शाखाएं हो गईं--कर्म, भक्ति और ज्ञान। और उन तीनों की तीन कुंजियां हैं। और एक-एक आदमी का जो टाइप है, उस आदमी को वह कुंजी लागू होती है। ताला खुलने पर एक ही मकान में प्रवेश होता है। लेकिन अलग-अलग आदमी, अलग-अलग दरवाजों पर, अलग-अलग ताले डालकर खड़े हैं।
अब जो आदमी विचार से ही जीता है, उसके लिए प्रार्थना, कीर्तन, भजन बिलकुल अर्थपूर्ण नहीं मालूम पड़ेंगे। उसमें उसका कसूर नहीं है, वैसा मन उसके पास है। वह सोचेगा, विचार करेगा। विचार करेगा, तो सोचेगा कि क्या होगा! क्योंकि विचार प्रश्न उठाता है। और जहां प्रश्न उठते हैं विचार में, वहां भाव में प्रश्न नहीं उठते हैं। भाव कभी प्रश्न नहीं उठाते। भाव निष्प्रश्न हैं। भाव स्वीकार है, एक्सेप्टिबिलिटी है। भाव राजी हो जाता है, विचार संघर्ष करता है। तो विचार के लिए तो अलग ही रास्ता खोजना पड़े। योग ने उसके लिए रास्ता खोजा।
ज्ञानयोग का अर्थ है, उस जगह पहुंच जाओ, जहां न ज्ञेय रह जाए और न ज्ञाता रह जाए, सिर्फ ज्ञान रह जाए। उसकी पूरी प्रक्रिया है। ज्ञेय को छोड़ो, आब्जेक्ट्स को छोड़ो। जिसे जानना हो, उसे छोड़ो; और जो जानने वाला है, उसे भी छोड़ो। वह जो जानने की क्षमता है, उसमें ही ठहरो, उसी में रमो। वह जो ज्ञान की क्षमता है, नोइंग फैकल्टी जो है, जानने की क्षमता, उसी में रमो।
जैसे मैं फूल देख रहा हूं। तो तीन हैं वहां। एक मैं हूं, जो देख रहा है। एक फूल है, जिसे देख रहा हूं। और हम दोनों के बीच दौड़ती ज्ञान की धारा है। ज्ञानयोग कहता है, फूल को भी भूल जाओ, स्वयं को भी भूल जाओ, यह जो दोनों के बीच में ज्ञान की धारा बह रही है, इसी में ठहर जाओ, इसी में खड़े हो जाओ--ज्ञान की धारा में।
भाव वाले आदमी को यह बात समझ में न पड़ेगी कि ज्ञान की धारा में कैसे खड़े हो जाएं! नहीं पड़ेगी समझ में, क्योंकि भाव वाला आदमी समझ से जीता नहीं। भाव वाला आदमी भावना से जीता है, समझ से नहीं। भाव वाले आदमी से कहो कि नाचो, आनंदमग्न होकर नाचो, प्रभु-समर्पित होकर नाचो। वह नाचने लगेगा। वह यह नहीं पूछेगा, नाचने से क्या होगा? वह नाचने लगेगा। और नाचने से सब हो जाएगा।
नाचने में वह क्षण आता है, कि नाचने वाला भी मिट जाता है, नाचने का खयाल भी मिट जाता है, नृत्य ही रह जाता है--नृत्य ही। परमात्मा भी भूल जाता है, जिसके लिए नाच रहे हैं; जो नाचता था, वह भी भूल जाता है; सिर्फ नाचना ही रह जाता है--सिर्फ नृत्य, जस्ट डांसिंग। जस्ट नोइंग की तरह घटना घट जाती है। जैसे सिर्फ जानना रह जाता है, बस द्वार खुल जाता है। सिर्फ नृत्य रह जाता है, तो भी द्वार खुल जाता है।
मीरा अगर गाएगी, तो गाने में कृष्ण भी खो जाएंगे, मीरा भी खो जाएगी, गीत ही रह जाएगा। ध्यान रहे, जब मीरा गाती है, मेरे तो गिरधर गोपाल, तो न तो गोपाल रह जाते, न मेरा कोई रह जाता। मेरे तो गिरधर गोपाल, यह गीत ही रह जाता है--सिर्फ यह गीत। गिरधर भी भूल जाते हैं, गायक भी भूल जाता है; मीरा भी खो जाती है, कृष्ण भी खो जाते हैं; बस, गीत रह जाता है। सिर्फ गीत जहां रह जाता है, वहां वही घटना घट जाती है, जो सिर्फ ज्ञान रह जाता है।
लेकिन महावीर गीत को पसंद नहीं कर पाएंगे। महावीर कहेंगे, केवल ज्ञान, जस्ट नोइंग, सिर्फ ज्ञान रह जाए, बस। वहीं द्वार खुलेगा। वह महावीर का टाइप है। मीरा कहेगी, ज्ञान का क्या करेंगे! गीत रह जाए। ज्ञान बड़ा रूखा-सूखा है। ज्ञान का करेंगे भी क्या! गीत बड़ा आर्द्र, बड़ा गीला, नहा जाता है आदमी। ज्ञान तो रेगिस्तान जैसा मालूम पड़ेगा मीरा को। उसके चारों तरफ रेगिस्तान था भी। वह परिचित भी थी अच्छी तरह। रेगिस्तान जैसा मालूम पड़ेगा, रूखा-सूखा, जहां कभी कोई वर्षा नहीं होती। और गीत तो बड़ी हरियाली से भरा है। अमृत बरस जाता है। गीत बड़ा गीला है--स्नान से। प्राणों के कोने-कोने तक गीत स्नान करा जाता है। मीरा कहेगी, ज्ञान का क्या करिएगा? गीत काफी है।
लेकिन और लोग भी हैं, जिनको न गीत में कोई अर्थ होगा और न ज्ञान में कोई अर्थ होगा। जिनका अर्थ और जिनके जीवन का अभिप्राय तो कर्म से खुलेगा। कर्म ही!
आर्किमिडीज के बाबत आपने सुनी होगी कहानी कि आर्किमिडीज अपने स्नानगृह में टब में लेटा हुआ है। वैज्ञानिक है। कर्मठ है। कुछ करना ही उसकी जिंदगी है। कुछ करके खोजना ही उसकी जिंदगी है। एक पहेली पर हल कर रहा है प्रयोगशाला में। बहुत मुश्किल में पड़ा है। कोई हल सूझता नहीं है। हजार तरह के प्रयोग कर लिए हैं। कोई रास्ता निकलता नहीं है।
सम्राट ने आर्किमिडीज को कहा है...। सम्राट को किसी ने एक बहुत बहुमूल्य मुकुट भेंट किया है सोने का। लेकिन सम्राट को शक है कि उस बहुमूल्य सोने के मुकुट में भीतर तांबा मिलाया गया है। लेकिन तोड़कर मुकुट को देखे बिना कोई उपाय नहीं है। और तोड़ो तो इतना बहुमूल्य मुकुट है कि शायद दुबारा फिर न बन सके।
तो सम्राट ने आर्किमिडीज को कहा है कि तू बिना तोड़े पता लगा। इसको छूना भी नहीं; इसको जरा भी खरोंच भी नहीं लगनी चाहिए। और पता लगाना है कि भीतर कहीं कोई और धातु तो नहीं डाल दी गई है।
वह आर्किमिडीज बड़े प्रयोग कर रहा है। फिर वह उस दिन अपने बाथरूम में जाकर अपने टब में बैठा है। टब पूरा भरा था। वह उसके अंदर बैठा है, तो बहुत-सा पानी टब के बाहर निकल गया है उसके बैठने से। अचानक उसे, टब में बैठने से और पानी के निकलने से, एक अंतःप्रज्ञा, एक इनसाइट उसके मन में कौंध गई कि मैं जरा इस पानी को तो तौल लूं कि यह कितना पानी निकल गया बाहर! यह पानी उतना ही तो नहीं है, जितना मेरा वजन है! अगर यह मेरे वजन के बराबर पानी बाहर निकल गया है, तो फिर कोई रास्ता खोज लिया जाएगा।
बस, उसको बात सूझ गई। वह चिल्लाया। नंगा था, दरवाजा खोलकर सड़क पर भागा। चिल्लाया, यूरेका! मिल गया! सड़क के लोगों ने कहा कि क्या कर रहे हो यह? कहां भागे जा रहे हो? वह नंगा भाग रहा है महल की तरफ कि मिल गया! सम्राट ने भी कहा कि रुको। कुछ होश तो लाओ! नंगे भाग रहे हो सड़क पर, लोग क्या कहेंगे!
आर्किमिडीज वापस लौट आया। वह कर्म की एक समाधि में प्रवेश कर गया था। कर्मठ आदमी था। वह भूल गया स्वयं को, वह भूल गया सम्राट को, वह भूल गया सवाल को। रह गया सिर्फ एक बोध, मिल जाने का, एक उपलब्धि का। बस, वही रह गया शेष।
आर्किमिडीज कहता था कि जिंदगी में जो आनंद उस क्षण में जाना, कभी नहीं जाना। जो रहस्य उस दिन खुल गया, वह मिला सो मिला, वह तो कोई बड़ी कीमत की बात न थी। लेकिन नग्न सड़क पर दौड़ना, और मुझे पता ही नहीं कि मैं हूं। मुझे यह भी पता न रहा, जब सड़क पर लोगों ने पूछा, क्या मिल गया? तो मुझे एकदम से यह भी पता न रहा कि क्या मिल गया? वह सवाल क्या था, जो मिल गया है? सिर्फ मिल गया! बस, एक धुन रह गई मन में कि मिल गया।
वह जो मिलने का क्षण है, कर्मठ व्यक्ति को भी मिलता है, लेकिन उसे कर्म से ही मिलता है। अब जैसे अर्जुन जैसा आदमी है, जब तलवारें चमकेंगी और जब कर्म का पूर्ण क्षण होगा, जब अर्जुन भी नहीं बचेगा, दुश्मन भी नहीं बचेगा, सिर्फ कर्म रह जाएगा। तलवार मैं चला रहा हूं, ऐसा नहीं रहेगा; तलवार चल रही है, ऐसे क्षण की स्थिति आ जाएगी, तब अर्जुन जैसे आदमी को समाधि का अनुभव होगा।
ये तीन खास प्रकार के लोग हैं। और योग ने इन तीनों पर, वैसे फिर इन तीनों के बहुत विभाजन हैं और योग ने बहुत-सी विधियां खोजी हैं, लेकिन इन तीन विधियों के द्वारा साधारणतः कोई भी व्यक्ति चेतना को उस थिर स्थान में ले आ सकता है।
ज्ञान रह जाए केवल; भाव रह जाए केवल; कर्म रह जाए केवल। तीन की जगह एक बचे, दो कोने मिट जाएं। द्रष्टा मिट जाए, दृश्य मिट जाए, दर्शन रह जाए। ज्ञाता मिट जाए, ज्ञेय मिट जाए, ज्ञान रह जाए। तीन की जगह एक रह जाए। बीच का रह जाए, दोनों छोर मिट जाएं, तो व्यक्ति की चेतना थिर हो जाती है, ऐसी जैसे कि जहां वायु न बहती हो, पवन न बहता हो, वहां दीए की ज्योति थिर हो जाती है।
उस दीए की ज्योति के थिर होने को ही, कृष्ण कहते हैं, योगी को उपमा दी गई है। योगी भी ऐसा ही ठहर जाता है।
आज के लिए इतना ही।
पांच मिनट लेकिन कोई उठेगा नहीं। पांच मिनट यहां वह भाव वाली प्रक्रिया...। पांच-सात मिनट ये संन्यासी नाचेंगे। इनके साथ आप भी मिट जाएं। और नाच ही रह जाए। गीत ही रह जाए। उठें न! पांच मिनट बैठे रहें। कोई उठकर अस्तव्यस्त न हो। और यहां मंच पर कोई नहीं आएगा देखने के लिए। मंच पर तो जो नृत्य में सम्मिलित होते हैं, वही आएंगे। आप अपनी जगह बैठें। वहां से ताली बजाएं। आनंदित हों। गीत दोहराएं।


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