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सोमवार, 23 अक्टूबर 2017

गीता दर्शन-(भाग-03)-प्रवचन-070



गीता दर्शन-(भाग-03)-प्रवचन-070  

अध्याय ६
बारहवां प्रवचन
मन साधन बन जाए

यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।। २६।।
परंतु जिसका मन वश में नहीं हुआ हो, उसको चाहिए कि यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस-जिस कारण से सांसारिक पदार्थों में विचरता है, उसे उससे रोककर बारंबार परमात्मा में ही निरोध करे।

मन चंचल है। वही उसकी उपयोगिता भी है, वही उसका खतरा भी। मन चंचल होगा ही, क्योंकि मन का प्रयोजन ही ऐसा है कि उसे चंचल होना पड़े। मन की चंचलता ठीक वैसी है, जैसे कि हवा का रुख देखने के लिए कोई घर के ऊपर पक्षी का पंख लगा दे। अगर पंख चंचल न हो, तो हवा का रुख न बता पाए। हवा जिस तरफ बहे, पंख को उसी तरफ घूम जाना चाहिए, तो ही वह खबर दे पाएगा कि हवा का रुख क्या है।
मन, मनुष्य के व्यक्तित्व में चारों तरफ जो अंतर हो रहे हैं, उनकी खबर देने का यंत्र है। इसलिए वह चंचल होगा ही। चंचल होगा, तो ही अर्थपूर्ण है, अन्यथा उसका कोई अर्थ नहीं है। आपके बाहर सर्दी बदलकर गर्मी हो गई है। मन अगर खबर न दे, तो जीवन असंभव है।
रास्ते पर कांटा पड़ा है, मन अगर खबर न दे; पैर में चोट लग गई है, मन अगर खबर न दे; मित्र शत्रु हो गया है, मन अगर खबर न दे; भूख लगी है, मन अगर खबर न दे--तो जीवन असंभव है।
तो मन को तो प्रतिपल खबर देनी पड़ेगी, हजार तरह की। और वह हजार तरह की खबर तभी दे सकता है, जब प्रत्येक छोटी-सी घटना से चंचल हो, विचलित हो--तभी खबर दे पाएगा।
तो मन का प्रयोजन ही यही है कि वह आपके जीवन को अस्तित्व में रखने का यंत्र है। और अस्तित्व प्रतिपल बदल रहा है। एक क्षण भी वही नहीं है, जो एक क्षण पहले था। सब कुछ बदलता जा रहा है। हर घड़ी, हर क्षण, चारों तरफ प्रवाह है परिवर्तन का।
इस परिवर्तन की आपको खबर होनी चाहिए, अन्यथा आप जी न सकेंगे। और इस परिवर्तन की जो खबर देगा, उसको हवा का रुख बताने वाले पंख की तरह कंपते रहना पड़ेगा, तैयार रहना पड़ेगा कि हवा कब बदल जाए, पंख उसके साथ ही बदल जाए। क्षणभर की देरी, कि जीवन खतरे में पड़ सकता है।
तो मन की उपादेयता, यूटिलिटी ही यही है। मन है ही इसलिए कि वह जीवन में हो रहे परिवर्तन की सूचना आपको प्रतिपल देता रहे। यह उसका प्रयोजन है। लेकिन यहीं उसका खतरा भी शुरू होता है। क्योंकि हम इसी मन से परमात्मा को भी जानना चाहते हैं, जिस मन से संसार जाना जाता है। तब भूल हो जाती है। क्योंकि संसार है प्रतिपल परिवर्तन, और परमात्मा है सनातन, शाश्वत। वह कभी बदलता नहीं। वह सदा वही है, जो है। और संसार कभी वही नहीं है, जो क्षणभर पहले था। संसार तो बहती हुई गंगा है, जहां एक क्षण भी कुछ ठहरा हुआ नहीं है। फ्लक्स है, प्रवाह है। और परमात्मा सदा वही है, जहां कभी कुछ कणभर भी नहीं बदला है।
तो मन संसार को जानने में तो बिलकुल ही समर्थ और सहयोगी है, परमात्मा को जानने में बिलकुल व्यर्थ और बाधा है। अगर इसी मन से परमात्मा को जानना चाहा, तो आप कभी न जान पाएंगे। कभी कोई उपाय इससे परमात्मा को जानने का नहीं है।
इस बात को ठीक से समझ लें। मन के दुश्मन हो जाने की कोई जरूरत नहीं है, सिर्फ मन का प्रयोजन समझ लेने की जरूरत है।
मन का प्रयोजन ही जो चंचल है उसको जानना है, इसलिए मन चंचल है। मन का प्रयोजन ही नहीं है उसको जानना, जो शाश्वत है, नित्य है। इसलिए शाश्वत और नित्य की तरफ मन का उपयोग करना पागलपन है। गलत, असंगत आयाम है परमात्मा मन के लिए। या परमात्मा के लिए मन असंगत विधि है।
इसलिए जो भी परमात्मा की तरफ, सत्य की तरफ, नित्य की तरफ, अपरिवर्तनीय की तरफ, शाश्वत की तरफ, इटरनल की तरफ यात्रा करना चाहता है, उसे मन की चंचलता को छोड़कर, मन को ठहराकर ही गति करनी पड़ेगी।
इसका यह भी मतलब नहीं है कि आप बिलकुल जड़ हो जाएं। इसका यह भी मतलब नहीं है कि मन आपका पत्थर हो जाए। इसका इतना ही मतलब है कि मन को आन और आफ करने की कला आपके पास होनी चाहिए। जब आप चाहें, तो मन की गति शून्य की जा सके; और जब आप चाहें, तो मन की गति पूरी की जा सके। इसकी गुलामी न रह जाए, इसकी परवशता न रह जाए; इसके आप मालिक हो जाएं कि आप बटन दबाएं और मन काम बंद कर दे, ताकि आप शाश्वत को जान सकें। आप बटन दबाएं और मन सक्रिय हो जाए, ताकि आप संसार में जी सकें।
और अस्तित्व दोहरा है। बाहर की तरफ संसार है, भीतर की तरफ परमात्मा है। इसलिए अक्सर एक भूल हो जाने का डर है कि जो लोग परमात्मा की तरफ जाते हैं, वे मन को इस भांति बंद कर देते हैं कि संसार से टूट जाते हैं। वह वही की वही भूल हो गई, जो पहले हो रही थी, कि इस मन को इतना गतिमान कर लेते हैं कि उस पर काबू नहीं रह जाता और परमात्मा से टूट जाते हैं।
सम्यक! सम्यक व्यक्तित्व वह है, कृष्ण कह रहे हैं, जो मन का मालिक हो जाए। मालकियत का मतलब, मन को मार डालना नहीं है। मरी हुई चीज के मालिक होने का कोई मतलब नहीं होता। मरी हुई चीज के मालिक होने का क्या मतलब होता है? दुश्मन को मार डाला और उसकी छाती पर बैठ गए, उसका क्या मतलब? मृत चीज की मालकियत का कोई मतलब नहीं होता है; जीवित चीज की मालकियत का कुछ मतलब होता है।
मालकियत का इसलिए अर्थ, मन को मार डालना नहीं है। मालकियत का अर्थ, मन को स्वेच्छा से गतिमान करना या गतिहीन कर देने की क्षमता है--स्वेच्छा से, जब चाहें। जैसे कोई आदमी अपने घर के बाहर आ जाता है। जब चाहता है, घर के भीतर चला जाता है। बाहर आ जाता है, तो बाहर ऐसा नहीं अटक जाता कि अब कहे कि मैं घर के भीतर कैसे जाऊं! भीतर चला जाता है, तो अटक नहीं जाता। यह नहीं कहता कि अब भीतर आ गया, तो घर के बाहर कैसे जाऊं!
घर के भीतर और बाहर जैसी सहज गति आप करते हैं, ऐसे ही स्वयं के बाहर और भीतर सहज गति स्वेच्छा से संभव हो जाए, तो मन की मालकियत है। तो कहा जाएगा, मन निरुद्ध हुआ। लेकिन मन पूरी तरह जीवित है। और जब उसकी जरूरत हो, तब उसको स्फुरणा दी जा सकती है। और उसकी जरूरत चौबीस घंटे पड़ेगी। अस्तित्व संसार में है। मन की जरूरत पड़ेगी। लेकिन मन आपके हाथ में एक साधन हो जाए, तो आप मालिक हो गए।
अभी तो हम मन के हाथ में एक साधन हैं। मन चलता है; हम उससे कहते हैं, कृपा करो, मत चलो! वह सुनता ही नहीं। वह चलता ही चला जाता है! हमारे मन की हालत ऐसी है, जैसे किसी आदमी के पैरों की हालत हो जाए। उसको चलना नहीं है, लेकिन पैर उसको कहें कि हम तो चलेंगे! उसको कहीं जाना नहीं है, उसे कुर्सी पर बैठकर आराम करना है, लेकिन पैर हैं कि चले जा रहे हैं। तो उस आदमी को हम विक्षिप्त कहेंगे। हम कहेंगे, इस आदमी के पैर इसके मालिक हो गए। यह कहता है, रुको। लेकिन पैर नहीं रुकते। जब यह कभी कहता है, चलो! तब पैर कहते हैं, नहीं चलते; रुकेंगे।
नहीं, लेकिन पैर के आप मालिक हैं। जब आप चलना चाहते हैं, पैर चलते हैं। जब आप रुकना चाहते हैं, पैर थिर हो जाते हैं। ठीक ऐसी ही मालकियत मन की भी होनी चाहिए। मन भी एक उपकरण है, जैसे पैर एक उपकरण है। मन भी एक इंस्ट्रूमेंट है।
लेकिन आप रात सोने को बिस्तर पर पड़े हैं। आप मन से कहते हैं कि अब चुप हो जाओ; अब बंद हो जाओ; मुझे सो जाने दो। लेकिन वह चले चला जा रहा है! वह आपकी सुनता ही नहीं। इसमें मन का कोई कसूर नहीं है, ध्यान रखना। नहीं तो आप सोचें कि अरे, यह मन ही ऐसी चीज है। मन का इसमें कोई कसूर नहीं है। इसमें मन का कोई भी कसूर नहीं है, इसलिए जो मन को गालियां देते रहते हैं, वे निपट नासमझ हैं।
आपने ही मन की ऐसी व्यवस्था कर रखी है। आपने ही मन को जीवनभर इस तरह का शिक्षण दिया है। आपने ही कभी मन पर अपनी मालकियत की घोषणा नहीं की। आपने कभी मन को बंद करने का कोई उपाय नहीं किया। आप अपने मन को चलाते ही रहे हैं। आप चलाते ही रहे हैं अकारण-कारण। मन को चलाते ही रहे हैं। मन का ट्रैक तैयार हो गया है।
मन जन्मों-जन्मों से चलने का आदी हो गया है। ठहरने की उसे कोई खबर ही नहीं रही। उसे पता ही नहीं है कि ठहरना भी होता है। और इसलिए जब आप अचानक एक दिन मन से कहते हैं, ठहर जाओ, तब वह नहीं ठहरता, तो इसमें उसका कसूर नहीं है। और आपके कहने से नहीं ठहरेगा।
सच तो यह है कि आप जितने घबड़ाकर कहते हैं कि ठहर जाओ, वह भी मन की ही गति है। आपका घबड़ाकर कहना कि ठहर जाओ, मन की ही गति है। और आपके कहने से नहीं ठहरेगा, आपको कला आनी चाहिए ठहराने की।
कार चलाते हों और ब्रेक लगाना न आता हो, और चिल्लाते हों कि ठहर जाओ; वैसा ही पागलपन है। चिल्लाते रहें, कार नहीं ठहरेगी। और एक्सेलरेटर पर पैर दबाए चले जा रहे हैं! और चिल्ला रहे हैं, ठहर जाओ! और ब्रेक लगाना आता नहीं। और ब्रेक कभी लगाया नहीं। ब्रेक जाम हो गए हैं। आज अचानक पैर भी रखेंगे, तो जंग खा गए हैं। उनको तेल की जरूरत पड़ेगी; ब्रेक आयल की जरूरत पड़ेगी। उनको फिर से गति देने के लिए सुगम, सरल और ढीला होना पड़ेगा। उनको कभी नहीं लगाया, सदा एक्सेलरेटर दबाया और सदा चिल्लाते रहे। फिर धीरे-धीरे आपको पता चलने लगा कि कितना ही चिल्लाओ, यह कार बड़ी खराब है; यह रुकती नहीं है।
कार का कोई भी कसूर नहीं है। कोई भी कसूर नहीं है। और मजा यह है कि जब आप चिल्ला रहे हैं, तब भी आपका पैर एक्सेलरेटर को दबाए चला जा रहा है--तब भी! ठीक हम मन के साथ ऐसा ही कर रहे हैं। और इसलिए मन को दोष देते हैं जीवनभर, लेकिन हल नहीं होता कुछ।
कृष्ण कहते हैं, मन चंचल है। स्वभाव है मन का चंचल होना। होना ही चाहिए मन चंचल, नहीं तो मन का कोई अर्थ नहीं है। मन का प्रयोजन ही वही है। लेकिन मन के यंत्र में मन को रोकने की भी व्यवस्था है। उस व्यवस्था को, उस ब्रेक सिस्टम को ठीक से समझ लेना चाहिए कि वह क्या व्यवस्था है, जो मन को रोकती भी है।
दो बातों का ध्यान रखना जरूरी है, एक तो जब मन को रोकना हो, तो एक्सेलरेटर पर पैर न रहे। इसलिए कार में एक ही पैर से दो काम लेते हैं हम, ताकि भूल न हो जाए। नहीं तो एक पैर से ब्रेक लगा सकते हैं, एक से एक्सेलरेटर चला सकते हैं। लेकिन एक ही पैर से दोनों काम लेते हैं, ताकि कभी भूल न हो जाए। जब ब्रेक दबाएं, तो एक्सेलरेटर न दब जाए साथ में। अगर दोनों पैर से काम लें, तो खतरे का पूरा डर है। एक पैर से एक्सेलरेटर दबा दें और एक से ब्रेक दबा दें, तो उपद्रव हो ही जाने वाला है। इसलिए एक ही पैर से दो काम लेते हैं। उसी पैर को ब्रेक पर रखते हैं, ताकि एक्सेलरेटर अनिवार्यतः छूट जाए।
मन में भी वैसी ही व्यवस्था है। ठीक वैसी ही व्यवस्था है। जिस ढंग से हम दबाते हैं मन को काम लेने के लिए, उसी ढंग से मन की रुकावट के लिए भी उसी व्यवस्था का उपयोग करना पड़ता है। थोड़ा-सा स्थान हटना पड़ता है। थोड़ा-सा स्थान भर पैर को हटाना पड़ता है। उसे समझ लें कि वह व्यवस्था क्या है।
जब आपको मन को दौड़ना होता है, तो क्या व्यवस्था है? एक्सेलरेटर क्या है मन का? उसको गत्यात्मक करने का क्या ढांचा है? हम सब दौड़ाते हैं; इसलिए दौड़ाने से ही शुरू करना ठीक होगा। जब आपको मन को दौड़ाना होता है, तब आप क्या करते हैं?
शायद आपने खयाल न किया हो, जब मन को दौड़ाना हो, तो मन के साथ तादात्म्य स्थापित करना पड़ता है। जितना तादात्म्य स्थापित हो जाए, मन उतना ही दौड़ता है। तादात्म्य एक्सेलरेटर है। तादात्म्य का मतलब है कि मन की जिस वृत्ति को दौड़ाना हो, उसके साथ एकात्म हो जाना पड़ता है।
अगर आपको कामवासना के साथ मन को दौड़ाना है, तो आप दूर खड़े रहेंगे, तो मन नहीं दौड़ेगा। ऐसे ही होगा कि कार स्टार्ट कर दी और एक्सेलरेटर नहीं दबाया। भड़भड़, भड़भड़ होगी, लेकिन गाड़ी चलेगी नहीं; और थोड़ी देर में इंजन बंद पड़ जाएगा। अगर कामवासना के साथ दौड़ाना है, तो ऐसा मत सोचें कि मैं कामवासना का विचार करता हूं; ऐसा सोचेंगे, तो एक्सेलरेटर पर पैर नहीं पड़ेगा। ऐसा सोचें कि मैं कामवासना हूं। बस, मन दौड़ना शुरू कर देगा। थोड़ी देर में कामवासना आपकी पूरी आत्मा को घेर लेगी। आप उसके साथ एक हो जाएंगे। और जितना एक हो जाएंगे, उतनी मन की गति तेज हो जाएगी।
ब्रेक की व्यवस्था ठीक उलटी है; तादात्म्य तोड़ना पड़ेगा। जितना मन की किसी भी वृत्ति से दूर हो जाएंगे, पार हो जाएंगे, अलग हो जाएंगे, अनुभव कर पाएंगे, मैं भिन्न हूं, उतना ही ब्रेक लग जाएगा।
एक ही पैर का उपयोग करना है--तादात्म्य। अगर दबाया तादात्म्य को, एक हुए, तो गति पकड़ेगा; मन और चंचल हो जाएगा। अगर दूर हटाया तादात्म्य को, मन अचंचल हो जाएगा। और आपके सहयोग के बिना न तो चंचल हो सकता है, न आपके असहयोग के बिना अचंचल हो सकता है। टु कोआपरेट एंड नाट टु कोआपरेट।
सहयोग गति देता है, असहयोग गति तोड़ देता है।
तो जिस वृत्ति को चलाना हो, उसके साथ सहयोग कर लें; इतना सहयोग कर लें कि आप उसी वृत्ति के रंग में रंग जाएं। इसका जो टेक्निकल, तकनीकी शब्द है, वह है, राग। राग का मतलब रंग ही होता है। राग का मतलब रंग ही होता है। किसी भी वृत्ति के राग में पड़ जाएं, अर्थात वृत्ति में ऐसे रंग जाएं कि रंग आपके ऊपर पूरा फैल जाए, तो मन की गति तीव्र हो जाती है।
अनेक हत्यारे अदालतों में कहते हैं कि हत्या हमने नहीं की। वे ठीक ही कहते हैं। पहले तो लोग सोचते थे कि हत्यारे सिर्फ इसलिए कहते हैं कि हमने हत्या नहीं की, क्योंकि वे अदालत को धोखा देना चाहते हैं। लेकिन अब मनसविद कहते हैं कि बहुत अर्थों में वे ठीक ही कहते हैं, धोखा देने के लिए नहीं कहते।
असल में हत्यारा जब हत्या करता है, तो हत्यारा मौजूद ही नहीं रहता; हत्या के साथ इतना रंग जाता है, जिसका कोई हिसाब नहीं। सोचने वाला, विवेक का जरा-सा भी बिंदु बाहर नहीं रह जाता, जो कहे कि मैंने हत्या की। हत्या हुई। मैं इतना भी अलग नहीं बचता कि वह कह सके, मैंने हत्या की। हत्यारा इतना ही कह सकता है कि हत्या के भाव ने मुझे इस बुरी तरह पकड़ लिया कि मैं तो था ही नहीं। हत्या मुझसे हुई है, मैंने की नहीं है। और मनसविद कहते हैं कि वह ठीक ही कह रहा है।
सच तो यह है कि बहुत-से हत्यारे हत्या करने के बाद भूल ही जाते हैं कि उन्होंने हत्या की। भूल ही जाते हैं! और बहुत जांच-पड़ताल करके पता चला है कि उनके भीतर कोई भी स्मृति नहीं रह जाती कि उन्होंने हत्या की है। क्यों नहीं रह जाती?
स्मृति बनने के लिए भी थोड़ा-सा फासला चाहिए; थोड़ा-सा फासला, अन्यथा स्मृति नहीं बनेगी। अगर आप वृत्ति के साथ पूरे रंग गए, तो घटना हो जाएगी, लेकिन स्मृति नहीं बनेगी। स्मृति बनेगी किसको? मैं तो बचता ही नहीं, जो नोट कर ले कि हत्या की जा रही है। मैं इतना डूब जाता हूं, इतना बेहोश हो जाता हूं, इतना एक हो जाता हूं कि मेरे द्वारा हत्या हो जाती है, लेकिन मेरे द्वारा उसकी कोई स्मृति नहीं बन पाती। मेरा कांशस माइंड इतना लीन हो जाता है कि वह कोई स्मृति नहीं बनाता। अनकांशस मेमोरी बनती है।
इसलिए हत्यारा कहता है होश में कि मैंने हत्या नहीं की। लेकिन उसे हिप्नोटाइज करके बेहोश करते हैं, तो वह कह देता है, मैंने हत्या की। शराब पिला देते हैं, उसे बेहोश कर देते हैं, तो वह कह देता है, मैंने हत्या की। होश में रहता है, तो कहता है, मैंने हत्या नहीं की। होश वाले मन को कोई खबर ही नहीं है। खबर के लिए दूरी चाहिए। वह दूरी मौजूद नहीं है।
आपने हत्या तो नहीं की है, सोचा बहुत बार होगा। क्योंकि ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसने किसी न किसी की हत्या करने का कभी न कभी न सोचा हो। अगर किसी और की नहीं, तो अपनी करने का सोचा होगा। फर्क नहीं है। किसी न किसी की--उसमें स्वयं भी सम्मिलित हैं--हत्या करने का न सोचा हो, ऐसा आदमी खोजना बहुत मुश्किल है, रेयर।
जो जानते हैं, वे कहते हैं कि प्रत्येक आदमी सत्तर साल की उम्र में औसतन दस बार अपनी या किसी की हत्या करने का विचार करता है। कम से कम, यह मिनिमम है। करता नहीं है, यह दूसरी बात है। लेकिन विचार करता है। क्यों नहीं कर पाता? कारण वही है। एक्सेलरेटर पूरा नहीं दब पाता, नहीं तो हो जाए। थोड़ा फासला बना रहता है। थोड़ा सोच-विचार भीतर कायम रहता है कि यह मैं क्या सोच रहा हूं! यह मैं क्या सोच रहा हूं! या भय के कारण एक्सेलरेटर पूरा नहीं दबा पाता कि कहीं स्पीड बहुत तेज न हो जाए, कोई एक्सिडेंट न हो जाए; तो धीरे चलाता है।
फासला रह जाए, तो वृत्ति नहीं कार्य कर पाती; फासला छूट जाए, तो वृत्ति कार्य कर जाती है। वृत्ति के साथ तादात्म्य मन को गति, मन को प्राण देना है, खून देना है। और वृत्ति के साथ तादात्म्य तोड़ लेना मन को रुकावट डालनी है, ठहराना है।
इसको प्रयोग करके देखें, तो खयाल में आ जाएगा। जिस वृत्ति के साथ मन दौड़ रहा हो, यह मत कहें कि रुक जाओ। रुक जाओ कहने का कोई मतलब नहीं है। उस वृत्ति के साथ तादात्म्य तोड़ें। मन में क्रोध आ रहा है, तब ऐसा न समझें कि मैं क्रोध कर रहा हूं। ऐसा ही समझें कि मन में क्रोध आ रहा है, मैं दूर खड़े होकर देख रहा हूं, जस्ट ए विटनेस, एक साक्षी। मैं देख रहा हूं कि मन कह रहा है कि क्रोध करो; मन कह रहा है कि गर्दन दबा दो; मन कह रहा है कि आग लगा दो--मैं देख रहा हूं।
और जैसे ही देखने का खयाल आएगा, आप अचानक पाएंगे कि एक्सेलरेटर से पैर हट गया, मन की गति धीमी हो गई। और यह अनुभव इतना सहज और सरल है कि प्रत्येक को ही होगा, इसमें कोई अड़चन नहीं है। सिर्फ खड़े होकर देखने की प्रक्रिया का अभ्यास जरूरी है।
और कर सकते हैं अभ्यास। रोज मौके मिलते हैं। रात विचार चल रहे हैं मन में, यह मत कहें, करवट न बदलें परेशानी से कि मन बंद हो जाए, तो मैं सो जाऊं। न; जब विचार चल रहे हैं मन में, तो देखना शुरू करें। यह मत कहें कि बंद हो जाएं। विचारों को देखें कि विचार चल रहे हैं, मैं दूर खड़ा देख रहा हूं। मैं एक साक्षी हूं। मैं सिर्फ देखूंगा; तुम चलो।
और आप पाएंगे, जैसे ही आपने निर्णय लिया कि मैं देखूंगा, तुम चलो, उनकी चलने की ताकत कम होने लगी, उनके पैर शिथिल होने लगे, उनकी गति नीचे गिरने लगी। और जिस क्षण आप पूरे देखने वाले की तरह खड़े हो जाएंगे, मन एकदम शांत हो जाएगा। इधर आया साक्षी, उधर गया मन। इस द्वार से साक्षी ने प्रवेश किया, उस द्वार से मन विदा हुआ। यह एक साथ, युगपत घटना घटती है।
मन से लड़ने की जरूरत नहीं है। लड़ने वाला तो पागल है। मन के प्रति जागने की जरूरत है। जागने से निरोध फलित होता है।
और जब तक मन का निरोध न हो जाए, तब तक प्रभु की तरफ यात्रा नहीं होती। क्योंकि मन संसार के लिए साधन, प्रभु के लिए बाधा। मन संसार के लिए सहयोगी, प्रभु के लिए विरोधी।
इसमें कोई कसूर नहीं है। यह मैकेनिज्म की बात है सिर्फ। यह अनिवार्यता है। क्योंकि ऐसा मैकेनिज्म नहीं हो सकता, जो दोनों तरफ काम दे सके। क्योंकि संसार के लिए बिलकुल और तरह की जरूरत है। वहां सब बदल रहा है, इसलिए बदलने वाला सचेतन चित्त चाहिए, जो पूरे समय बदलता रहे।
और ध्यान रखें, जो चित्त जितनी गति से बदल सकता है संसार में, संसार में उसका सरवाइवल उतना ही सुनिश्चित है; उसका अस्तित्व उतना ही सुरक्षित है।
जमीन पर आदमी जीत गया, और पशु हार गए। उसका और कोई कारण नहीं था। पशुओं के पास इतना चंचल मन नहीं है; और कोई कारण नहीं है। आदमी के पास चंचल मन है, वह जीत गया।
इस पृथ्वी पर बड़े शक्तिशाली पशु नष्ट हो गए हैं, पूरी की पूरी जातियां नष्ट हो गईं। उनके पास शरीर महा शक्तिशाली था। आज से कोई दस लाख साल पहले वैज्ञानिक कहते हैं--अब तो अस्थिपंजर भी मिलते हैं--हाथी हमारा छोटा-सा जानवर है उस जमाने का, बहुत छोटा-सा; उस जमाने का बहुत मिनिएचर, बहुत छोटा-सा प्रतीक। हाथी से दस-दस गुने, पंद्रह-पंद्रह गुने बड़े जानवर इस पृथ्वी पर थे। लेकिन सबके सब नष्ट हो गए। बात क्या है?
शरीर तो उनके पास बहुत बड़े थे, शक्ति उनके पास महान थी। छोटे-मोटे पहाड़ी को धक्का दे दें, तो खिसक जाए, गिर जाए। लेकिन उनके पास बहुत चंचल चित्त नहीं था, जो कि स्थितियों के साथ बदल सके। स्थितियां बदलीं, उनका मन नहीं बदला। स्थितियां बदल गईं, मन नहीं बदला; मर गए। क्योंकि स्थिति के साथ जिसका मन नहीं बदलेगा, वह मर जाएगा।
स्थिति के साथ बदलने से ही एडजस्टमेंट होता है। नहीं तो आप मैलएडजस्टेड हो जाएंगे। आपकी उम्र तो ज्यादा हो गई, लेकिन पायजामा बचपन का पहने चले गए, वैसी मुसीबत हो जाएगी। पायजामा बदलना पड़ेगा। जवानी आ गई और बुद्धि बचपन की रही आई, मन नहीं बदला, थिर मन हुआ आपके पास, तो आप मुश्किल में पड़ जाएंगे। वही काम बच्चा करेगा, तो हम खुश होंगे। वही जवान करेगा, तो जेलखाने में डाल देंगे। क्यों? बच्चा कर रहा है, तो कोई परेशान नहीं हो रहा है! क्योंकि हम मानते हैं कि बच्चा अभी जिस परिस्थिति में है, उसके साथ उसका मन बिलकुल एडजस्टेड है। लेकिन आदमी जवान हो गया है और वही काम कर रहा है, तो बर्दाश्त के बाहर हो जाएगा। उसका मतलब यह है कि उसका मन रिटार्डेड है। उसका मन बच्चा था, तभी वहीं रुक गया। और वह तो बड़ा हो गया, और मन पीछे छूट गया। हमारी जिंदगी की अधिक तकलीफें यही हैं।
पिछले महायुद्ध में अमेरिका में जिन सैनिकों को भर्ती किया गया, उनके आई क्यू, उनकी बुद्धि के माप की जांच की गई पहली दफा बड़े पैमाने पर, तो बड़ी हैरानी हुई। किसी आदमी की बुद्धि तेरह साल से ज्यादा नहीं निकली। तेरह साल पर बुद्धि रुकी हुई मालूम पड़ी।
औसत बुद्धि तेरह साल पर रुक जाती है। बड़ी घबड़ाहट की बात है। आदमी सत्तर साल का हो जाता है, लेकिन बुद्धि का अंक उसका तेरह साल के पास ठहरा रहता है। इसी से सब दिक्कतें खड़ी होती हैं। जैसे बूढ़ा भी क्रोध में आ जाए, तो बच्चों की तरह पैर पटकने लगता है। वह तेरह साल की बुद्धि भीतर काम करने लगती है। रिग्रेस करना आसान हो जाता है।
आपके घर में आग लग जाए, आप एकदम पैर पटककर छाती पीटकर रोने लगते हैं, वैसे ही जैसे छोटा तीन साल का बच्चा, उसका खिलौना टूट जाए, तो रोता और छाती पीटता है। फर्क क्या है? फर्क इतना ही है कि साधारण हालतों में आप गंभीरता बनाए रखते हैं, असाधारण हालतों में आपका बचकानापन प्रकट हो जाता है। वह जुवेनाइल भीतर जो छिपा है, वह असाधारण हालत में प्रकट हो जाता है। साधारणतः अपने को सम्हाल-सम्हूलकर चलाते रहते हैं। जरा-सी कोई विशेष घटना घट जाए, पता चल जाता है कि भीतर का बच्चा जाहिर हो गया।
तेरह साल पर रुक जाती है बुद्धि! हां, जिसकी नहीं रुकती, वह जीनियस है। लेकिन नहीं रुकने का मतलब है कि गति जारी रहे। बुद्धि इतनी गतिमान रहे कि कहीं ठहरे न; हर स्थिति के साथ बदलती चली जाए; हर नई स्थिति में नई हो जाए।
तो मन को तो बदलना ही पड़ेगा। बदले मन, यही शुभ है। लेकिन यह सामर्थ्य के भीतर हो कि हम जब चाहें, तब कहें, बस। और मन शांत होकर बैठ जाए। और हम उस दिशा में भी चेहरा फेर पाएं, जहां अपरिवर्तनीय का वास है, जहां नित्य का निवास है। हम उस मंदिर की तरफ भी आंखें उठा पाएं, जहां वह रहता है, जो कभी नहीं बदलता।
और उसको देखते ही ऐसी अपूर्व शांति प्राणों को घेर लेती है। क्योंकि परिवर्तन के साथ शांति कभी नहीं हो सकती। परिवर्तन के साथ अशांति ही होगी। परिवर्तन के साथ तनाव और टेंशन ही होगा। परिवर्तन के साथ तो बेचैनी और चिंता ही होगी। अपरिवर्तनीय के साथ ही शाश्वत शांति उतर आती है।
और एक बार आदमी इस कला में निष्णात हो जाए कि जब चाहे मन को रोक दे, जब चाहे मन को गतिमान कर दे, तो वैसा व्यक्ति संसार में भी और परमात्मा में भी, दोनों में समान रूप से जीने लगता है। और वैसा व्यक्ति फिर कह पाता है कि संसार भी परमात्मा का रूप है। फिर वैसे व्यक्ति को संसार और परमात्मा में कोई शत्रुता नहीं दिखाई पड़ती।
शत्रुता हमें दिखाई पड़ती है, क्योंकि हमारा मन दोनों तरफ नहीं मुड़ पाता। हमारी चेतना एक ही तरफ फिक्स्ड, फोकस्ड हो जाती है। हमारी हालत ऐसी है, जैसे किसी आदमी की गर्दन को लकवा लग जाए और वह एक ही तरफ देख पाए; सिर न घुमा पाए। हमारी वैसी मन की हालत है--लकवा खा गई, पैरेलाइज्ड। बस, संसार को ही देख पाते हैं। जब इधर देखना चाहते हैं, तो कुछ मुड़ नहीं पाता। पर इसमें कसूर मन का नहीं है। कसूर आपका है।
लेकिन इधर मैं देखता हूं कि अधिक धार्मिक लोग मन का कसूर समझकर गालियां देते रहते हैं। वह जो गालियां दे रहा है, वह भी मन है। वह जो कह रहा है, मन चंचल है, वह भी मन है। क्योंकि वह जो मन नहीं है, वह तो बोला ही नहीं कभी; वह तो अबोल है। वह जो मन नहीं है, उसने तो गाली क्या, कभी प्रशंसा भी नहीं की। उससे तो शब्द भी नहीं निकला है। वह जो धार्मिक आदमी बेचैनी जाहिर कर रहा है कि बड़ा खराब है यह मन, बड़ा दुष्ट है, इससे कैसे छुटकारा पाऊं! वह मन ही कह रहा है ये सब बातें। क्योंकि मन के बाहर जो है वहां तो मौन है, सतत मौन है। वहां तो कभी कोई शब्द की झंकार पैदा नहीं हुई। वहां तो निःशब्द का निवास है।
वह मन ही कह रहा है। और मन की यह खूबी है कि वह अपने विपरीत भी वक्तव्य देता है। देना ही पड़ता है। जिसे प्रतिदिन बदलना पड़ेगा, उसे अपने ही वक्तव्य के खिलाफ बोलना पड़ेगा। एक क्षण पहले उसने कहा था कि मैं तुम्हारे लिए जान दे दूंगा। और एक क्षण बाद सोचता है कि तुम्हारी जान ले लूं! एक क्षण पहले कहा था, तुम्हारे बिना एक क्षण न जी सकूंगा; और एक क्षण बाद सोचता है कि इससे छुटकारा कैसे हो!
स्थिति बदलती है, मन बदल जाता है। मन कभी कंसिस्टेंट नहीं हो सकता। कोई उपाय नहीं है। उसको इनकंसिस्टेंट होना ही पड़ेगा, असंगत होना ही पड़ेगा। हर बार बदलना पड़ेगा; हर बार रूप नया लेना पड़ेगा। तो मन अपने ही खिलाफ बोलता चला जाएगा। अशांत होगा, और कहेगा कि शांति चाहिए मुझे। मन ही कहेगा। मन ही कहेगा, मुझे शांति दो। और आप मन को ही मन के खिलाफ लड़ाने लगेंगे। एक मन का हिस्सा कहेगा, शांति चाहिए। और एक मन का हिस्सा अशांति को बुनता चला जाएगा। फिर आप दोनों पर एक साथ पैर रख रहे हैं, एक्सेलरेटर पर भी और ब्रेक पर भी। अब एक्सिडेंट सुनिश्चित है।
और हम में से अधिक लोग एक्सिडेंट हैं। आदमी नहीं, दुर्घटनाएं हैं। हम में से अधिक लोग दुर्घटनाएं हैं। लेकिन चूंकि सभी दुर्घटनाएं हैं, इसलिए पता लगाना मुश्किल होता है। हम सब दुर्घटनाएं हैं, क्योंकि जो हम हो सकते थे, वह हम नहीं हो पाए हैं; और जो हमें नहीं होना चाहिए था, वह हम हो गए हैं।
इसलिए तो इतनी पीड़ा है, इतना दुख है, इतनी परेशानी है। हमारी पूरी जिंदगी एक लंबी दुर्घटना है। हर चीज दुर्घटना है। प्रेम करने जाओ, घृणा हाथ लग जाती है। मित्रता बनाओ, शत्रुता बन जाती है। किसी को सुख देने जाओ, दुख के सिवा कुछ भी नहीं दिया जाता। किसी से अच्छी बात बोलो, वह न मालूम क्या समझ लेता है। वह कुछ अच्छी बात बोलता है, हम न मालूम क्या समझ लेते हैं। न कोई किसी को समझता, न कोई किसी से सहानुभूति कर पाता, न कोई किसी पर करुणा कर पाता। सब विक्षिप्त की तरह दौड़ते चले जाते हैं। और हर चीज उलझती चली जाती है।
इसीलिए तो बूढ़े आदमी कहते हैं कि बचपन बड़ा सुखद था। बचपन में था क्या आपके जिसकी वजह से सुखद था? हां, ये बुढ़ापे में जितनी आपने जटिलताएं पैदा कर लीं, ये भर नहीं थीं। और कोई खास बात नहीं थी। ये जितने उपद्रव आपने इकट्ठे कर लिए बूढ़े होते-होते, ये नहीं थे। कोई पाजिटिव, खास बात नहीं थी बचपन में। अगर होती, तो बुढ़ापा इतना उलझा हुआ नहीं हो सकता था। आपके पास कोई हीरे नहीं थे। अगर होते तो और बड़े हो गए होते; उनकी और ग्रोथ हो गई होती। कुछ नहीं था। बचपन सिर्फ कोरी स्लेट थी।
हां, बुढ़ापे में दुख होता है। कुछ लिखा नहीं था उस पर, कोई अमृत वचन नहीं लिखे थे, कोई वेद नहीं लिखा था उस पर; सिर्फ कोरी स्लेट थी। लेकिन बुढ़ापे में पाते हैं, तो ऐसा लगता है कि जैसे कार्बन का बहुत उपयोग किया गया हो, तो जो उसकी गति हो जाती है, ऐसी सब चित्त की स्थिति हो जाती है।
कुछ समझ में नहीं आता कि क्या लिखा है। और फिर भी लिखते चले जाते हैं, उसके ऊपर ही लिखते चले जाते हैं! और जटिल होता चला जाता है, आखिर में सिर्फ एक पागलपन के अतिरिक्त कुछ नहीं बचता। खुद नहीं पढ़ सकते, दूसरे की तो बात अलग है। जिंदगी के बाद में जिंदगी ने क्या पाया, जिंदगी ने क्या निष्कर्ष लिया, जिंदगी कहां पहुंची, खुद नहीं बता सकते; दूसरे की तो बात अलग है।
सुना है मैंने, एक बहुत अदभुत फकीर हुआ, मुल्ला नसरुद्दीन। गांव में अकेला आदमी था, जो लिख-पढ़ सकता था। तो गांव के लोग उससे चिट्ठियां लिखवाते थे। तो दो घटनाएं उसकी मैं कहना चाहता हूं। वह बहुत कीमती आदमी था। उसने आदमी पर गहरे मजाक किए हैं। उसकी सब घटनाएं आदमियों पर मजाक हैं।
एक बूढ़ी औरत उससे चिट्ठी लिखवाने आई। नसरुद्दीन ने कहा कि माफ कर। आज चिट्ठी नहीं लिख सकूंगा। क्योंकि मेरे अंगूठे में बहुत दर्द है, पैर के अंगूठे में बहुत दर्द है। उस स्त्री ने कहा, लेकिन मैंने कभी सुना नहीं कि पैर के अंगूठे से कोई चिट्ठी लिखता है! पैर के अंगूठे में दर्द है, तो रहने दो। मेरी चिट्ठी तो लिख दो। उसने कहा कि माई, तू समझती नहीं। मुझे झंझट में मत डाल। तो उसने कहा, इसमें झंझट क्या है! तुम्हारा हाथ तो ठीक है। उसने कहा, हाथ बिलकुल ठीक है। सब ठीक है। लेकिन पैर के अंगूठे में बड़ी तकलीफ है। बूढ़ी औरत ने कहा कि मैं पढ़ी-लिखी नहीं, लेकिन इतना तो मैं भी समझती हूं कि पैर के अंगूठे से लिखने का कोई संबंध नहीं।
नसरुद्दीन ने कहा, अब तू नहीं मानती, तो हम बताए देते हैं। चिट्ठी तो हम लिख देंगे, लेकिन उसको पढ़ेगा कौन दूसरे गांव में? चिट्ठी लिखकर फिर हमीं को पढ़ने भी जाना पड़ता है! और कई बार तो ऐसा हो जाता है, नसरुद्दीन ने कहा कि तू किसी को बताना मत, कि हम खुद भी नहीं पढ़ पाते कि क्या लिखा है! पैर में मेरे बहुत तकलीफ है, अभी मुझे तू झंझट में मत डाल।
एक बार ऐसा हुआ कि एक दूसरा आदमी नसरुद्दीन से चिट्ठी लिखवाने आया। नसरुद्दीन ने पूरी चिट्ठी लिख दी। चिट्ठी लिखने के बाद उस आदमी ने कहा कि अब जरा मुझे पढ़कर तो सुना दो, कहीं मैं कुछ भूल तो नहीं गया लिखवाने को। नसरुद्दीन मुश्किल में पड़ा। उसने कहा कि देख भाई, यह गैरकानूनी है। उसने कहा कि इसमें क्या गैरकानूनी बात है! नसरुद्दीन ने कहा, यह चिट्ठी तू बता किसके नाम लिखी गई है? वही इसके पढ़ने का हकदार है। मैं नहीं पढ़ सकता। उस आदमी ने कहा कि बात तो ठीक है। जिस आदमी के नाम लिखी गई है, वही पढ़े। मैं नहीं पढ़ सकता। जब वह आदमी जाने लगा कि बात ठीक है, तो नसरुद्दीन ने कहा कि सुन, असली बात यह है कि लिखना आसान है, पढ़ना बहुत कठिन है। हम खुद ही नहीं पढ़ पाते कि क्या लिखा है!
ये जिंदगी के बाबत उसके मजाक हैं। जिंदगी के आखिर में जब आप अपनी जिंदगी को उठाकर देखेंगे, तो पाएंगे कि कुछ समझ में नहीं आता, यह क्या लिखा है मैंने! इस सारी कथा की न कोई शुरुआत है, न कोई अंत है। न इस कथा में कोई तुक है, न इस कथा में कोई संगति है। यह मैंने किया क्या? यह करीब-करीब ऐसा है, जैसा एक पागल आदमी लिखता और जो परिणाम होता, वह मेरा हो गया है।
यह होगा; यह होने वाला है। इसीलिए हम बुढ़ापे में बचपन की याद करते हैं कि बड़े सुखद दिन थे! सुखद वगैरह कुछ भी न था। बच्चों से पूछो। सब बच्चे जल्दी बड़े होना चाहते हैं। बचपन बड़ी तकलीफ में गुजरता है। क्योंकि बचपन से ज्यादा गुलामी और कभी नहीं होती जिंदगी में। मां कहती है, इधर बैठो। बाप कहता है, उधर बैठो। इसी में वक्त जाया होता है।
एक बच्चे से उसके स्कूल में उसके शिक्षक ने पूछा कि तू बनना क्या चाहता है? उसने कहा, मैं बहुत कनफ्यूज्ड हूं। क्यों? क्योंकि मेरी मां मुझे गणितज्ञ बनाना चाहती है। मेरा बाप मुझे कवि बनाना चाहता है। मेरी चाची मुझे संगीतज्ञ बनाना चाहती है। मेरा बड़ा भाई मुझे नेता बनाना चाहता है। और भी बहुत रिश्तेदार हैं, वे सब बनाना चाहते हैं। और मुझे तो कुछ पता नहीं है कि मुझे क्या बनना है। बस, इस सबके बीच डोल रहा हूं।
बचपन, बच्चों से पूछो, सुखद नहीं है! बच्चे बहुत पीड़ा से गुजरते हैं। और एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक जी.एन.पियागेट ने, जिसने बच्चों के साथ कोई पचास वर्ष मेहनत की है, उसका कहना है कि पांच साल के पहले की स्मृति इसीलिए भूल जाती है, क्योंकि बहुत दुखद है। आपको याद नहीं आती, पांच साल की उम्र के पहले की कोई स्मृति याद नहीं आती। क्यों भूल जाती है? कारण क्या है? जी.एन.पियागेट कहता है कि सिर्फ इसलिए भूल जाती है कि वह इतनी दुखद है कि मन उसे याद नहीं करना चाहता। लेकिन बुढ़ापे में हम कहते हैं कि बचपन बड़ा सुखद था, स्वर्ग था!
वह बुढ़ापे के नर्क की वजह से कह रहे हैं; और कोई कारण नहीं है। नर्क हम अपने हाथ से बना लेते हैं।
इस मन की विक्षिप्त अवस्था को जब तक कोई संयम में न ले आए, निरोध को न उपलब्ध हो जाए, तब तक प्रभु की यात्रा नहीं हो सकती है। और निरोध को उपलब्ध होने की विधि साक्षी भाव है, विटनेसिंग है, तादात्म्य को तोड़ देना है। तादात्म्य को तोड़ना ही योग है। योग का अर्थ है, जुड़ जाना।
संसार से जो टूटने की कला सीख लेता है, वह प्रभु से जुड़ने की कला सीख लेता है। वह एक ही चीज के दो नाम हैं। इसलिए जैन-शास्त्रों ने योग का बड़ा दूसरा उपयोग किया है। इसलिए कई दफे बड़ी भ्रांति होती है।
जो लोग हिंदू-शास्त्र को पढ़ते हैं और हिंदू योग की परिभाषा से परिचित हैं, वे अगर जैन-शास्त्र पढ़ेंगे, तो बड़ी हैरानी में पड़ेंगे। क्योंकि जैन-शास्त्र कहते हैं, तीर्थंकर अयोग को उपलब्ध हो जाता है--अयोग को, योग को नहीं!
लेकिन जैन-शास्त्र योग का अर्थ करते हैं, संसार से जुड़ना। तो तीर्थंकर अयोग को उपलब्ध हो जाता है; संसार से टूट जाता है। हिंदू-शास्त्र योग का अर्थ करते हैं, परमात्मा से जुड़ना। इसलिए परम ज्ञानी योग को उपलब्ध हो जाता है, क्योंकि परमात्मा से जुड़ जाता है।
अगर आप जैन-शास्त्र पढ़ेंगे, तो बड़ी बेचैनी में पड़ेंगे कि ये जैन-शास्त्र कहते हैं, योग से छूटो, अयोग को उपलब्ध हो जाओ। हिंदू-शास्त्र कहते हैं, योग को उपलब्ध होओ।
दोनों उपयोग हो सकते हैं। क्योंकि एक जगह से छूटना, दूसरी जगह जुड़ना है। संसार से छूटो, अयोग हो जाए, तो परमात्मा से योग हो जाता है। संसार से योग हो जाए, जुड़ जाओ, तो परमात्मा से अयोग हो जाता है।
कला, जो आर्ट है जीवन का, जीवन की जो कला है, वह इतनी ही है कि तुम मालिक हो जाओ। जब चाहो जुड़ सको, जब चाहो टूट सको। मालकियत इतनी हो कि क्षण का इशारा और बात बदल जाए, हवा का रुख बदल जाए, चेतना दूसरी तरफ बहने लगे। ऐसे, ऐसे स्वतंत्रचेता व्यक्ति को ही प्रभु की उपलब्धि होती है।


प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्।। २७।।
क्योंकि जिसका मन अच्छी प्रकार शांत है और जो पाप से रहित है और जिसका रजोगुण शांत हो गया है, ऐसे इस सच्चिदानंदघन ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए योगी को अति उत्तम आनंद प्राप्त होता है।

पाप से रहित है जो, रजोगुण जिसका शांत हो गया--इन दो बातों को इस सूत्र में समझ लेना चाहिए।
पाप से मुक्त है जो! पाप क्या है? चोरी पाप है। हिंसा पाप है। असत्य पाप है। ऐसा हम मोटा हिसाब रखते हैं। लेकिन वस्तुतः ये पाप के रूप हैं, पाप नहीं। जब मैं कहता हूं, पाप के रूप हैं, पाप नहीं, तो मेरा मतलब ऐसा है कि जब हम कहते हैं, यह हार है गले का, यह हाथ की चूड़ी है, यह पैर की पांजेब है, तो ये रूप हैं सोने के, आभूषण हैं सोने के, आकार हैं सोने के।
सोने को हम समझ लें, तो सब रूपों को हम समझ लेंगे। और अगर रूपों को हमने समझा, तो हम धोखे में पड़ेंगे। धोखे में इसलिए पड़ेंगे कि अगर नए रूप का सोना सामने आ गया, तो हम न समझ पाएंगे कि यह सोना है। क्योंकि अनंत रूप हो सकते हैं सोने के। आपने अगर समझा कि चूड़ी सोना है, और आपने गले का हार देखा, तो आप न समझ पाएंगे कि यह सोना है।
अगर आपने एक चीज को पाप समझा और दूसरी चीज का आपको पता नहीं है, पहचान नहीं है, और वह जिंदगी में आई, तो आप न समझ पाएंगे कि पाप है। आकार से बांधकर पाप को समझा कि भूल होगी। निराकार से समझना जरूरी है। स्वर्ण से समझें, आभूषण से नहीं।
पाप तो एक ही है, पाप के रूप अनेक हो जाते हैं। सोना तो एक ही है, आभूषण अनेक हो जाते हैं। मूल को ठीक से समझ लें, तो सब जगह पहचान लेंगे कि पाप क्या है। और अगर आपने आकार को पकड़ा--आकार को पकड़ने की ही वजह से दुनिया में अलग-अलग समाज अलग-अलग चीजों को पाप कहता है। आकार को पकड़ने की वजह से अलग-अलग समाज अलग-अलग चीज को पाप कहते हैं।
जो चीज एक समाज में पाप है, वह दूसरे में पाप नहीं है। ऐसा भी हो सकता है कि जो चीज एक समाज में पुण्य है, वह दूसरे में पाप है। और जो चीज एक समाज में पाप है, वह दूसरे में पुण्य है। और ऐसा भी हो जाता है कि जो एक युग में पाप है, वह दूसरे युग में पुण्य हो जाता मालूम पड़ता है। इसलिए बड़ा ही विभ्रम पैदा हुआ है। बड़ा विभ्रम पैदा हुआ है।
आकार को अगर पकड़ेंगे, तो विभ्रम पैदा होगा। क्योंकि आकार बदलते रहते हैं। पाप की भी फैशन बदलती है, आभूषण की ही नहीं। तो अगर आप पुराने पाप की परिभाषा पकड़े बैठे रहे, तो पाप जो नए रूप लेगा--वह भी फैशन बदलता है; पुराने पाप करते-करते भी मन ऊब जाता है, नए पाप खोजता है--तो नए पाप आपकी पुरानी व्याख्या में पकड़ में नहीं आते हैं, तो आप मजे से करते चले जाते हैं। मजे से करते चले जाते हैं। थोड़ा देखें कि कैसे यह हो जाता है!
और इसलिए हर युग दिक्कत में पड़ता है। परिभाषा होती है पुरानी और पाप होते हैं नए। पुरानी परिभाषा में कहीं उनके लिए सूचना नहीं होती। जब तक परिभाषा बनती है, तब तक पाप की फैशन बदल जाती है। परिभाषा बनने में तो समय लगता है, डेफिनीशन बनने में समय लगता है, वक्त लगता है। अनुभव से परिभाषा बनती है, तब तक फैशन बदल जाती है। और अब तो इतने जोर से पाप की फैशन बदल रही है कि बहुत मुश्किल है कि कोई परिभाषा काम करेगी।
हालत करीब-करीब वैसी है, जैसा मैंने सुना है कि एक आदमी पेरिस की सड़क पर जोर से भागा जा रहा है। एक मित्र रास्ते में मिला, नमस्कार की और कहा कि इतनी जल्दी में कहां जा रहे हो? उसने कहा, मेरी पत्नी के कपड़े हैं हाथ में। इतनी दौड़ने की क्या जरूरत है? पत्नी कोई मुसीबत में है? उसने कहा, मुसीबत में नहीं। वैसे ही दर्जी ने देर कर दी है। और अगर मेरे पहुंचने में देर हो जाए, तब तक तो फैशन बदल जाएगी। काफी खर्च उठाया है। कहीं पहुंचने के पहले फैशन न बदल जाए। इसलिए क्षमा करो। फिर कभी मिलना। अभी मैं जरा जल्दी में हूं।
वह ठीक कह रहा है। पेरिस में इतने ही जोर से बदल रही है फैशन। सारी दुनिया में ऐसे ही बदल रही है। और कपड़ों की फैशन बदले, तो बहुत दिक्कत नहीं आती, क्योंकि क्या दिक्कत आने वाली है! लेकिन पाप भी फैशन बदलता है। और जब पाप फैशन बदलता है, तो बड़ी मुश्किल हो जाती है, क्योंकि एकदम पकड़ में नहीं आता है कि यह पाप है। एकदम पकड़ में नहीं आता कि यह पाप है।
तो पाप के हम अगर मूल को समझ लें, तो ही हम पाप से बच सकेंगे, अन्यथा पाप से बचना कठिन है।
अब जैसे, कोई भी व्यवस्था को हम ले लें। कोई भी व्यवस्था को हम ले लें; जो कल पाप थी, आज पाप नहीं मालूम पड़ती। कल पुण्य थी, आज पाप हो गई। वक्त था एक, दान पुण्य था; दानी पुण्यात्मा था। आज जो भी दान करता है, हर एक समझता है कि बिना पाप किए दान नहीं हो सकता। पहले पाप करो, तब धन इकट्ठा करो, तभी दान कर पाओगे। तो आज जो दान करता है, वह सिर्फ पापी होने की खबर देता है; या ज्यादा से ज्यादा पाप का प्रायश्चित्त करने की खबर देता है; और कोई खबर नहीं देता।
धनी के घर पैदा होना पुण्य था। धन पुण्य से मिलता था कभी। वह पुरानी परिभाषा थी। अब धनी के घर पैदा होना जैसे भीतर एक पश्चात्ताप लाता है कि कहीं कोई पाप, कहीं कोई अपराध, कहीं कोई गिल्ट हो रही है।
प्रूधो, पश्चिम का एक बहुत बड़ा विचारक लिखता है कि सब धन चोरी है। पुराने विचारक कहते थे, धन पुण्य से मिलता है। प्रूधो कहता है, सब धन चोरी है। तो चोरों के घर में पुण्य से कोई पैदा नहीं हो सकता, पाप से ही पैदा हो सकता है। स्वभावतः, चोरों के घर--अगर सब धन चोरी है--तो चोरों के घर कोई पुण्य से कैसे पैदा होगा! पाप से ही पैदा हो सकता है। अगर प्रूधो की बात सच है, तो गरीब के घर पैदा होना बड़ा पुण्य कर्म है।
युग बदलते हैं, परिभाषाएं बदल जाती हैं, लेकिन पाप नहीं बदलता। परिभाषाएं बदलती हैं। आभूषण बदलते हैं। सोना नया आभूषण बन जाता है। आकार बदल जाते हैं। बदलने से भूल होती है।
इसलिए कृष्ण ने उसमें दूसरी बात तत्काल जोड़ी है, वह मूल की है। पहले कहा कि पाप से जो मुक्त है और फिर पीछे कहा, रजोगुण के जो बाहर है। क्योंकि रजोगुण ही पाप का आधार है।
अगर आपके भीतर रजोगुण है, तो वह नए-नए पाप खोज लेगा; पुराने छोड़ेगा, नए खोज लेगा। लेकिन अगर भीतर रजोगुण खो गया, तो पाप को खोजने का उपाय खो गया। आपके भीतर पाप निर्मित हो सके, उसकी ऊर्जा खो गई। इसलिए बहुत गहरे में रजोगुण की क्षमता ही पाप है।
रजोगुण का मतलब है--रजोगुण का मतलब क्या है? तीन गुण इस देश के मनसविद ने खोजे हैं। गहरे हैं वे गुण। मन के तीन गुण इस देश की बड़ी गहरी खोज है। इस देश ने जो गहरे से गहरे अनुदान जगत को दिए हैं, उसमें त्रिगुण प्रकृति की खोज बड़ी गहरी है। बड़ी गहरी है। वे तीन गुण हैं--सत्व, रज, तम। चित्त भी इन तीन गुणों से काम करता है।
तम का अर्थ है, वह शक्ति, जो चीजों में अवरोध डालती है। तम का अर्थ है, वह शक्ति, जो चीजों में अवरोध डालती है, स्टैग्नेंसी पैदा करती है, चीजों को रोकती है। स्टैटिक फोर्स है। और अगर कोई स्टैटिक फोर्स न हो आपके भीतर, तो आप कहीं रुक न पाएंगे; कहीं भी न रुक पाएंगे। कहीं भी न रुक पाएंगे, परमात्मा में भी न रुक पाएंगे, अगर स्टैटिक फोर्स आपके भीतर न हो।
तम सिर्फ रोकने वाली शक्ति है। जैसे जमीन से आप एक पत्थर फेंकें ऊपर की तरफ, थोड़ी देर में जमीन पर गिर जाएगा, क्योंकि जमीन में एक कशिश है, जो रोकती है। नहीं तो फेंका गया पत्थर फिर कभी नहीं रुकेगा; अनंत काल तक चलता ही रहेगा, चलता ही रहेगा। फिर कहीं गिर नहीं सकता। कोई अवरोध शक्ति चाहिए। नहीं तो आप चल पड़े घर से, तो फिर घर दुबारा वापस न आ सकेंगे। हां, घर में कोई तमस भी बैठा है, जो वापस खींच लाएगा। पत्नी है, बच्चे हैं, वह स्टैग्नेंसी फोर्स है।
जो लोग सभ्यता का अध्ययन करते हैं, वे कहते हैं, घर पुरुष ने नहीं बनाया, स्त्री ने बनाया। इसीलिए उसको घरवाली कहते हैं। आपको कोई घरवाला नहीं कहता। घर उसी का है। अगर स्त्री न हो, तो पुरुष जन्मजात खानाबदोश है। भटकता रहेगा; ठहर नहीं सकता। वह स्त्री की खूंटी बन जाती है, फिर उसके आस-पास वह रस्सी बांधकर घूमने लगता है कोल्हू के बैल की तरह।
पुरुष को अगर हम ठीक से समझें, तो वह रज है, गति है। स्त्री को ठीक से समझें, तो वह तम है, अगति है। इसलिए इस जगत में जितनी चीजों को ठहरना है, उन्हें स्त्री का सहारा लेना पड़ता है। और जिन चीजों को चलना है, उन्हें पुरुष का सहारा लेना पड़ता है।
बड़े मजे की बात है कि सब चीजों को चलाने वाले पुरुष होते हैं और ठहराने वाली स्त्रियां होती हैं। दुनिया में इतने धर्म पैदा हुए, एक भी स्त्री ने पैदा नहीं किया; सब पुरुषों ने पैदा किए। लेकिन दुनिया में जितने धर्म टिके हैं, स्त्रियों की वजह से; पुरुषों की वजह से कोई भी नहीं।
सब धर्म पुरुष पैदा करते हैं--चाहे जैन धर्म हो, चाहे हिंदू, चाहे बौद्ध, चाहे इस्लाम, चाहे ईसाई, चाहे जोरोस्ट्रियन, चाहे कोई भी--दुनिया के सब धर्म पुरुष पैदा करता है। मगर उसकी सुरक्षा स्त्री करती है। मंदिर में जाकर देखें। पुरुष दिखाई नहीं पड़ता। हां, कोई पुरुष अपनी स्त्री के पीछे चला गया हो, बात अलग है! कोई दिखाई नहीं पड़ता। स्त्रियां दिखाई पड़ती हैं।
एक बार किसी चीज को गति मिल जाए, तो उसको ठहराने के लिए जगह स्त्री में है, पुरुष के पास नहीं है। वह तो गति देकर दूसरी चीज को गति देने में लग जाएगा। वह रुकेगा नहीं।
रोकने की शक्ति, मन के पास भी ऐसी ही शक्ति है एक, जो रोकती है; और एक शक्ति है, जो दौड़ाती है। तमस अवरोध शक्ति है, रज गति शक्ति है।
ध्यान रहे, जैसा मैंने पहले सूत्र में समझाया, मन गति है। अगर आपमें रज की शक्ति बहुत ज्यादा है, तो मन को आप रोक न पाएंगे। मन गति करता ही रहेगा।
मैंने आपको कहा कि एक्सेलरेटर दबाना पड़े, तो गाड़ी चलती है। लेकिन गाड़ी में पेट्रोल होना चाहिए। बिना पेट्रोल के एक्सेलरेटर मत दबाते रहें, नहीं तो गाड़ी नहीं चलेगी। नहीं तो आप कहेंगे कि गलत बात कही। हम तो एक्सेलरेटर दबा रहे हैं, वह चलती नहीं! पेट्रोल भी चाहिए, वह ऊर्जा भी चाहिए, जो गति ले सके। उस ऊर्जा का नाम रज है। रज कहें, मूवमेंट है। तम ठहराव है, रेस्ट है। दोनों, आदमी को चलाने और ठहराने का कारण हैं।
सत्व स्थिति है। वह न गति है, न ठहराव है; स्वभाव है। अगर आपके भीतर रज बहुत है, तो आप सत्व में ठहर न सकेंगे। आप ठहर न सकेंगे सत्व में, रज दौड़ाता ही रहेगा। रज कम होना चाहिए। लेकिन अगर रज बिलकुल शून्य हो जाए, तो आप सत्व में ठहर तो जाएंगे, लेकिन बेहोश हो जाएंगे; होश में नहीं रहेंगे।
सुषुप्ति में ऐसा ही होता है। रज बिलकुल शून्य हो जाता है, बिलकुल नहीं रह जाता, गति बिलकुल नहीं रह जाती, और ठहराव की शक्ति पूरा आपको पकड़ लेती है। लेकिन तब आपमें इतनी भी गति नहीं रह जाती कि आप जान सकें कि मैं कहां हूं। क्योंकि यह जानना भी एक मूवमेंट है। नोइंग इज़ ए मूवमेंट, ज्ञान एक गति है। इसलिए सुषुप्ति में कुछ भी नहीं रह जाता, आप जड़वत हो जाते हैं।
समाधि का अर्थ है, रज और तम उस स्थिति में आ जाएं कि एक-दूसरे को संतुलित कर दें, एक-दूसरे को निगेट कर दें, काट दें। रज और तम ऐसे संतुलन में आ जाएं कि एक-दूसरे को काट दें। ऋण और धन बराबर शक्ति के हो जाएं, तो शून्य हो जाएंगे। उस शून्य में सत्व का उदभावन होता है। उस शून्य में सत्व का फूल खिलता है। उस शून्य में आप सत्व में ठहर भी जाते हैं और जान भी लेते हैं। इतना रज रहता है कि जान सकते हैं; इतना तम रहता है कि ठहर सकते हैं। खड़े हो सकते हैं, जान सकते हैं। और सत्व में स्थिति हो जाती है; स्वभाव हो जाता है।
सब पाप रज की अधिकता से होते हैं। सब पाप रज की अधिकता से होते हैं। रजाधिक्य पाप करवा देता है। और कभी-कभी अकारण पाप भी करवा देता है।
सार्त्र की एक कथा है, जिसमें एक आदमी पर अदालत में मुकदमा चलता है। क्योंकि उसने समुद्र के तट पर, किसी व्यक्ति को, जो धूप ले रहा था सुबह की, उसकी पीठ पर जाकर छुरा भोंक दिया। मुकदमा इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि उस आदमी ने, छुरा भोंकने वाले ने, जिसकी पीठ में छुरा भोंका, उसका चेहरा कभी नहीं देखा था। झगड़े का तो कोई सवाल नहीं; दुश्मनी का कोई सवाल नहीं। पहचान ही नहीं थी। दुश्मनी के लिए कम से कम पहचान तो अनिवार्य शर्त है। दुश्मनी के लिए पहले तो मित्रता बनानी ही पड़ती है। बिना मित्रता बनाए, तो दुश्मनी नहीं बन सकती।
कोई मित्रता ही नहीं थी, कोई पहचान नहीं थी। कोई एक्वेनटेंस भी नहीं था, परिचय भी नहीं था। वह यह भी नहीं जानता था, इस आदमी का नाम क्या है। सिर्फ पीठ देखी थी! पीठ तो फेसलेस होती है। उसका तो कोई चेहरा नहीं होता। उसने छुरा भोंक दिया!
अदालत उससे पूछती है कि तूने छुरा क्यों भोंका इस आदमी की पीठ में? क्योंकि न तू इसे पहचानता है, न तू इसे जानता है। न तो तेरी कोई दुश्मनी है, न कोई तेरा संबंध है!
वह आदमी कहता है कि मैं सिर्फ कुछ करने को बेचैन था। कुछ करने को बेचैन! और कुछ दिन से ऐसा बेचैन था कि कुछ सूझ ही नहीं रहा था, क्या करूं! और कुछ ऐसा करना चाहता था, जिसको कहा जा सके ईवेंट, घटना! मन बड़ा बेचैन था। मैं प्रफुल्ल हूं, प्रसन्न हूं। अखबार में फोटो भी छप गई है; चर्चा भी हो रही है। आई हैव डन समथिंग, कुछ मैंने किया। और जब आदमी कुछ करता है, ही बिकम्स समबडी, वह कुछ हो जाता है। मैं प्रसन्न हूं, आप कारण वगैरह मत पूछें मुझसे।
वह मजिस्ट्रेट कहता है कि कैसा मामला है! कुछ तो कारण होना चाहिए?
वह आदमी कहता है, मुझे बताइए कि मेरे जन्म का कारण क्या है? और जब मैं मर जाऊंगा, तो कोई कारण होगा? कुछ कारण नहीं है। मेरे जवान होने का कारण क्या है? और मैं एक स्त्री के प्रेम में गिर गया था, तो अदालत बता सकती है कि कारण क्या है? कोई कारण जब किसी चीज के लिए नहीं है, तो इस नाहक छोटी-सी घटना को इतना तूल क्यों दे रहे हैं कि मैंने इसकी पीठ में छुरा भोंक दिया!
मजिस्ट्रेट निर्णय करने में बड़ी मुश्किल में पड़ा हुआ है कि क्या निर्णय करे, क्या सजा दे!
यह शुद्ध पाप है! शुद्ध पाप की सजा किसी कानून में नहीं लिखी है। आभूषणों की सजा लिखी हुई है! यह बिलकुल शुद्ध पाप है, जो सिर्फ शक्ति की गति की वजह से हो गया है।
लेकिन मजिस्ट्रेट कहता है कि फांसी तो मुझे तुझे देनी ही होगी। वह आदमी कहता है, आप फांसी दे दें। कारण न बताएं। कारण बताने की कोई जरूरत नहीं है। हम राजी हैं। मैं बिलकुल राजी हूं। आप फांसी दे दें। कारण बताने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन मजिस्ट्रेट कहता है, जजमेंट मुझे लिखना पड़े, तो कारण तो चाहिए ही। वह कैदी कहता है, तो सारी जिरह आप इसीलिए कर रहे हैं, ताकि फांसी लगाने का कारण मिल जाए! और मैं कहता हूं, मैंने अकारण छुरा भोंका है। छुरा भोंकने के आनंद के लिए छुरा भोंका है। और जब उसकी पीठ में छुरा भुंका और खून का फव्वारा फैला, तो मैंने जिंदगी में पहली दफा, जिसको कहें, थ्रिल, पुलक अनुभव की। मैं प्रसन्न हूं।
आप सोचें, क्या सारे पाप ऐसी ही पुलक से पैदा नहीं होते? नहीं, आप सब कारण खोज लेते हैं। और कारण खोजकर आप रेशनलाइज कर लेते हैं। आप कहते हैं, मैंने इसलिए किया। लेकिन अगर गहरे में जाएंगे, तो पाप करने के लिए ही किया जाता है; कोई और कारण नहीं होता। आपके भीतर ऊर्जा होती है, रज होता है, जो कुछ करना चाहता है। कुछ धक्के देना चाहता है। कुछ करना चाहता है। उस करने से ही सारे पाप रूप लेते हैं।
कृष्ण कहते हैं, वह जो रजोगुण है, उस रजोगुण के पार जाना जरूरी है।
लेकिन पार जाने का अर्थ? रजोगुण और तमोगुण इस संतुलन में आ जाएं कि शून्य हो जाएं। अगर आप रजोगुण को बिलकुल काट डालें, जो कि संभव नहीं है। क्योंकि काटेगा कौन? काटने का काम रजोगुण ही करता है, गति। काटेगा कौन? अगर एक आदमी कहता है कि मैं करूंगा साधना और रजोगुण को काट दूंगा, तो साधना रजोगुण करता है, एफर्ट रजोगुण से आता है। काटेगा कौन? काटने वाला बच जाएगा पीछे। काटने में मत पड़ें, सिर्फ संतुलन काफी है। रज और तम बराबर अनुपात में आ जाएं जीवन में, तो आपकी प्रतिष्ठा सत्व में हो जाती है।
और वैसे सत्व को उपलब्ध हुआ व्यक्ति, कृष्ण कहते हैं, अति उच्च, अति श्रेष्ठ आनंद को उपलब्ध होता है। अति उत्तम आनंद को उपलब्ध होता है, वैसे सत्व में खिल गया व्यक्ति। सत्व में खिल जाना फूल की भांति। उस खिलने का राज तम और रज का संतुलित हो जाना है।
यह ट्राएंगल है जीवन की शक्तियों का, एक त्रिभुज। दो भुजाएं, दो कोणों को नीचे बनाती हैं। वे जो नीचे के दो कोण हैं, वे रज और तम हैं। अगर वे बिलकुल संतुलित हो जाएं, साठ-साठ डिग्री के हो जाएं, तो सत्व का संतुलित कोण ऊपर प्रकट हो जाता है।
वह जो तीसरा कोण प्रकट होता है सत्व का, वही कोण फ्लावरिंग है, वही फूल का खिलना है। यह जो सत्व के फूल का खिलना है, यह अति उच्च श्रेष्ठतम आनंद का शिखर छू लेता है। वह शिखर है।
इस शिखर को छूने के लिए क्या करें? गति को और अगति को संतुलन में लाएं। कैसे लाएंगे? क्या रास्ता है, क्या विधि है, क्या मार्ग है कि इनमें से एक चीज विक्षिप्त होकर ओवरफ्लो न करने लगे, बाहर न दौड़ने लगे?
एक ही रास्ता है। और वह रास्ता, जैसा मैंने पहले सूत्र में कहा, यदि आपका मन आपके काबू में आ जाए और आप जब चाहें तब मन को ठहरा सकें, और जब चाहें तब मन को चला सकें, तो चलना और ठहरना संतुलित हो जाएगा। क्योंकि आपके हाथ में हो जाएगा। जब तक आपके हाथ में नहीं है, तब तक संतुलन असंभव है। तब तक हम सभी असंतुलित रहते हैं। कोई एक चीज पर ठहर जाता है।
एक आदमी को हम कहते हैं, एकदम तामसी है, आलसी है, प्रमादी है। उठता ही नहीं, पड़ा ही रहता है; बिस्तर पर ही पड़ा हुआ है। वह एक तम भारी पड़ गया है उसके ऊपर; रज बिलकुल नहीं है। उठने का भी मन होता है, तो एक करवट ही ले पाता है, ज्यादा से ज्यादा। करवट लेकर फिर सो जाता है।
एक दूसरा आदमी है कि दौड़ता ही रहता है। रात सोने भी बिस्तर पर जाता है, तो सिवाय करवटें लेने के सो नहीं पाता। एक तामसी है, जो करवट लेकर फिर सो जाता है। और एक रजोगुण से भरा हुआ आदमी है, जिसका मन इतना दौड़ता है कि रात सोना भी चाहता है, तो सिर्फ करवट ही ले पाता है और कुछ नहीं कर पाता। करवटें बदलता रहता है! रात भी मन ठहरता नहीं, दौड़ता ही रहता है।
सारा मनुष्य का व्यक्तित्व ऐसा ही असंतुलित है। और इन दो के बीच असंतुलन है। और अगर यह संतुलन ठीक न हो पाए, तो जीवन की सारी जटिलताएं पैदा होती हैं--सारी जटिलताएं!
सारी जटिलताएं असंतुलन, इम्बैलेंस का फल हैं। सारे पाप इम्बैलेंस का फल हैं। और पाप दो तरह के हैं। एक ऐसा पाप, जो रजोगुण से पैदा होता है, पाजिटिव। रजोगुण से वह पाप पैदा होता है, जैसा इस आदमी ने पीठ में छुरा भोंक दिया। एक ऐसा पाप भी है, जो तमोगुण से पैदा होता है। उसको उदाहरण के लिए समझ लें कि आप भी इस पीठ में छुरा जब भोंका जा रहा था, तब आप भी बैठे हुए थे। लेकिन आप बैठे ही रहे। आपने उठकर यह भी न कहा कि क्या कर रहे हो? यह क्या हो रहा है? बल्कि आपने और आंख बंद कर ली और ध्यान करने लगे।
आप भी पाप में भागीदार हो रहे हैं, लेकिन निगेटिवली। यह तमोगुण का पाप है। आप भी जिम्मेवार हैं। यह घटना आपके भी नकारात्मक सहयोग से फलित हो रही है।
दुनिया में दो तरह के पापी हैं, पाजिटिव और निगेटिव, विधायक और नकारात्मक। विधायक वे, जो कुछ करते हैं; और नकारात्मक वे, जो खड़े होकर देखते रहते हैं।
अब बंगाल है। एक गांव में पांच आदमी नक्सलाइट हो जाते हैं। पांच हजार का गांव है। पांच आदमी रोज हत्या करते हैं, पांच हजार का गांव बैठा देखता रहता है। वे निगेटिव नक्सलाइट हैं, वे जो बैठकर देख रहे हैं। पांच आदमी हत्या कर रहे हैं, और वे कहते हैं कि बड़ा मुश्किल हो गया। पांच आदमी हत्या कर रहे हैं रोज, पांच हजार आदमी रोज देख रहे हैं! कलकत्ता मैं जाता हूं, तो देखकर हैरान होता हूं। ट्राम में सौ आदमी सवार हैं, लटके हैं दरवाजों से। दो लड़के आ जाते हैं, ट्रेन में आग लगा देते हैं। बाकी लोग खड़े होकर देखते हैं, फिर अपने घर चले जाते हैं कि नक्सलाइट बहुत उपद्रव कर रहे हैं।
यह निगेटिव पाप है। यह तमस के आधिक्य से पैदा हुआ पाप है। यह करता कुछ नहीं, लेकिन बहुत-सा करना इसके ही सहयोग से फलित होते हैं। यह करता कुछ नहीं; यह देखता रहता है। हम पाजिटिव पापी को तो पकड़ लेते हैं, जेल में डाल देते हैं। लेकिन निगेटिव पापी के लिए अभी तक कोई जेल नहीं है। लेकिन निगेटिव पापी भी छोटा-मोटा पापी नहीं है।
इसलिए मैंने कहा कि पाप के आभूषणों को मत पकड़ें। पाप की जड़ को पहचानने की कोशिश करें।
अगर आपका चित्त तमस की तरफ ज्यादा झुका, तो आप नकारात्मक पापों में लग जाएंगे। अगर आपका चित्त रज की तरफ ज्यादा झुका, तो आप विधायक पापों में लग जाएंगे। और पाप के बाहर होने का उपाय है कि रज और तम दोनों संतुलित हो जाएं, तो आपकी फ्लावरिंग सत्व में हो जाएगी। और सत्व ही पुण्य है।
लेकिन जिन्हें हम पुण्य कहते हैं, वे पुण्य नहीं हैं। अगर हम ठीक से समझें, तो जिन्हें हम पुण्य कहते हैं, वे भी दो तरह के ही होते हैं, जैसे दो तरह के पाप होते हैं। कुछ लोग इसलिए पुण्यात्मा मालूम पड़ते हैं कि तमस इतना ज्यादा है कि पाप नहीं कर पाते, नकारात्मक हैं।
एक आदमी कहता है कि मैंने कभी चोरी नहीं की। इसका यह मतलब नहीं कि वह चोर नहीं है। अचोर होना बहुत मुश्किल बात है। इतना ही हो सकता है कि इतना तामसी है कि चोरी करने भी नहीं जा सका। इतना तामसी है कि चोरी करने में भी कुछ तो करना पड़ेगा।
जनरल मौंटगोमरी ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि दुनिया में चार तरह के लोग हैं। एक वे, जो ज्ञानी हैं, लेकिन निष्क्रिय हैं। उनके ज्ञान से जगत को कोई लाभ नहीं होता; उनको भी होता हो, संदिग्ध है। एक वे, जो अज्ञानी हैं, लेकिन बड़े सक्रिय हैं। वे सारे जगत को हजारों तरह के नुकसान पहुंचाते हैं। जगत को तो पहुंचाते ही हैं, खुद को भी पहुंचाते हैं। एक वे, जो ज्ञानी हैं और सक्रिय हैं। लेकिन ऐसे लोग विलक्षण हैं; मुश्किल से कभी पैदा होते हैं। एक वे, जो अज्ञानी हैं और निष्क्रिय हैं। ये भी विलक्षण हैं; ये भी मुश्किल से कभी पैदा होते हैं। ये दोनों छोर वाले लोग बहुत मुश्किल से पैदा होते हैं।
श्रेष्ठतम तो वह है, जो ज्ञानी है और सक्रिय है। नंबर दो पर वह है, जो अज्ञानी है और निष्क्रिय है; कम से कम किसी उपद्रव में विधायक रूप से नहीं जाएगा। नंबर तीन पर वे हैं, जो ज्ञानी हैं और निष्क्रिय हैं। और नंबर चार पर वे हैं, जो अज्ञानी हैं और सक्रिय हैं। और ये नंबर चार के लोग निन्यानबे प्रतिशत हैं पृथ्वी पर।
यह विभाजन भी अगर ठीक से देख लें, तो तम और रज का ही विभाजन है। वह जो सत्व वाला व्यक्ति है, वह वही है, जो ज्ञानी है और सक्रिय है। लेकिन ज्ञान और सक्रिय, क्रिएटिव नालेज, सर्जनात्मक ज्ञान तभी फलित होता है, जब तम और रज दोनों संतुलित हो जाते हैं, जैसे तराजू के पलड़े।
और ऐसी स्थिति में, कृष्ण कहते हैं, परम आनंद को उपलब्ध होता है योगी।
शेष हम रात लेंगे।
अभी हम थोड़े-से संतुलन की दिशा में, तराजू के पलड़ों को थोड़ा एक जगह लाकर खड़ा करने की कोशिश करें। कोई जाए न! एक पांच मिनट संन्यासी यहां आनंद में डूबते हैं। संन्यासियों से कहना चाहता हूं, पूरे आनंद में डूबें, भूल जाएं अपने को। और आपसे कहता हूं, उनके भूलने में सहयोगी बनें। तालियां बजाएं, गीत गाएं। डोलें अपनी जगह पर। ये पांच मिनट भूल जाएं सब, जो सोचा, समझा, विचारा। और पांच मिनट लीन हो जाएं प्रभु में।


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