कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 6 अप्रैल 2017

जीवन संगीत-(साधना-शिविर)-प्रवचन-04



जीवन संगीत-(साधना-शिविर)
ओशो
चौथा-प्रवचन


प्रिय आत्मन्!
मनुष्य दुख में है और सुख की केवल कल्पना करता है। मनुष्य अज्ञान में है और ज्ञान की केवल कल्पना करता है। मनुष्य ठीक अर्थों में जीवित नहीं है। जीवन की केवल कल्पना करता है।
आज की सुबह की इस बैठक में इस संबंध में मैं कुछ कहना चाहूंगा कि हम जो कल्पना करते हैं, उसके कारण ही हम जो हो सकते हैं, वह नहीं हो पाते हैं।
जैसे कोई बीमार आदमी कल्पना कर ले कि वह स्वस्थ है, तो फिर स्वास्थ्य की दिशा में कदम उठाना बंद कर देगा। जब वह स्वस्थ है, तो स्वस्थ होने का कोई सवाल नहीं है। अगर कोई अंधा आदमी कल्पना करने लगे कि उसे प्रकाश का पता है--कि प्रकाश कैसा होता है, तो फिर वह अंधा आदमी आंख की खोज बंद कर देगा।

अंधे को पता होना चाहिए कि उसे प्रकाश का पता नहीं है। और बीमार को ज्ञात होना चाहिए कि वह स्वस्थ नहीं है। और दुखी को ज्ञात होना चाहिए कि वह सुखी नहीं है।
लेकिन अपने को राहत और सांत्वना देने के लिए हम जो नहीं हैं, उसकी हम कल्पना कर लेते हैं। दुखी आदमी सुख की कल्पना में जी रहा है। और ध्यान रहे, सुख की कल्पना के कारण दुख मिटता नहीं, सुख की कल्पना के कारण दुख चलता ही चला जाता है और बढ़ता चला जाता है।
यदि दुख को मिटाना हो तो सुख की कल्पना छोड़ देनी पड़ेगी और दुख को ही जानना पड़ेगा। जो दुख को जानता है उसका दुख मिट जाता है। जो सुख को मानता है, उसका दुख छिप जाता है, मिटता नहीं है भीतर चलता चला जाता है। अगर अज्ञान को मिटाना है तो ज्ञान की कल्पना नहीं करनी। अज्ञान को ही जानना है। अज्ञान को जो जानता है, वह ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है। लेकिन जो ज्ञान को झूठे ज्ञान को, कल्पित ज्ञान को पकड़ लेता है, उसका अज्ञान छिप जाता है, अज्ञान मिटता नहीं और ज्ञान उसे मिलता नहीं क्योंकि कल्पित ज्ञान का कोई भी अर्थ नहीं है।
इसे दोत्तीन कोणों से समझना अच्छा होगा। जैसे, मैं पूछना चाहता हूं, क्या हम सुखी हैं? क्या हमने कभी भी सुख जाना है? अगर कोई बहुत निष्पक्ष होकर अपने जीवन पर लौट कर देखेगा तो पाएगा, सुख! सुख तो कभी नहीं जाना, दुख ही जाना है।
लेकिन दुख को हम भुलाते हैं। और जिस सुख को नहीं जाना उसको कल्पित करते हैं। उसको थोपते हैं। हां एक आशा है मन में कि कभी जानेंगे। और आशा उसी की होती है, जिसे न जाना हो। सुख को जाना नहीं है, इसलिए निरंतर खोजते हैं। कल आने वाले कल, भविष्य में सुख मिलेगा। जो और भी ज्यादा काल्पनिक है, वे सोचते हैं, अगले जन्म में। जो और भी ज्यादा काल्पनिक हैं वे सोचते हैं किसी स्वर्ग में, किसी मोक्ष में सुख मिलेगा।
अगर आदमी ने सुख जाना होता, तो स्वर्ग की कल्पना कभी न की गई होती। स्वर्ग की कल्पना उन लोगों ने की है जिन्होंने सुख कभी भी नहीं जाना। जो नहीं जाना हो, उसको स्वर्ग में निर्मित करने की आशा बांधे बैठे हुए हैं।
सुख हमने जाना है कभी? कोई ऐसा क्षण है जीवन का, जब हम कह सकें; मैंने जाना सुख और ध्यान रहे बहुत जल्दी में ऐसा मत कह देना। क्योंकि जिसने एक बार सुख जान लिया, वह दुख जानने में असमर्थ हो जाता है।
जिसने सुख जान लिया, वह दुख जानने में असमर्थ हो जाता है। फिर वह दुख जानता ही नहीं। फिर वह दुख जान ही नहीं सकता। क्योंकि जो सुख जानता है, उसे यह भी पता चल जाता है कि मैं सुख हूं। यह बहुत मजे की बात है। और क्योंकि हम दुख जानते ही चले जाते हैं, एक बात कैसे भूल सकते हैं, जिसको हमने कभी जाना ही नहीं। आशा है, कल्पना है। और कभी-कभी सुख को थोप भी लेते हैं।
एक मित्र आया है। गले लग गया है। और हम कहते हैं, बहुत सुख आ रहा है। गले मिल कर कितना सुख मिला है, उसके आलिंगन में कितना रस मिला है। लेकिन कभी आपने सोचा है? जो मित्र गले आकर मिल गया है, वह गले मिला ही रहे, दस मिनट, पंद्रह मिनट, बीस मिनट, और गला छोड़े ही नहीं। तब ऐसी तबीयत होगी कि कोई पुलिस वाला निकल आए, किसी तरह इससे छुटकारा दिलाए, यह क्या कर रहा है। और अगर घंटे, दो घंटे वह गले को न छोड़े तो फांसी मालूम पड़ेगी।
अगर सुख था तो और बढ़ जाता। जो एक क्षण में सुख मिला था, तो दस क्षण में और दस गुना हो जाता। लेकिन एक क्षण में सुख लगा था और दस क्षण में फांसी मालूम होने लगी। सुख नहीं था, कल्पित था। एक क्षण में खो गया। जो कल्पित है वही क्षण भर टिकता है। जो सच है वह सदा है। जो कल्पित है, वही क्षणभंगुर है। जो क्षणभंगुर है, उसे कल्पित जानना। क्योंकि जो है वह शाश्वत है, वह सदा है। वह क्षण में नहीं है, वह कभी मिटता नहीं है। वह है और है, और है, और है। था, और होगा, और होगा, और होगा। कभी ऐसा क्षण नहीं आएगा कि भूल ना हो जाए। जो सुख-दुख में बदल जाता है उसे कल्पित जानना। वह सुख था ही नहीं। और सब सुख जो हम जानते हैं, दुख में बदलने में समर्थ हैं।
खाना खाने आप बैठे हैं। और बहुत सुखद खाना लग रहा है। और खाते चले जाएंगे और एक सीमा पर दुख शुरू हो जाएगा। और अगर खाते ही चले गए, जैसा कि कुछ लोग खाते ही चले जाते हैं, तो सारी जिंदगी खाने के दुख से ग्रसित हो जाती है। डाक्टर कहते हैं, आप जितना खाते हैं, उससे आधे से आपका पेट भरता है, आधे से डाक्टरों का भरता है। अगर आप आधा ही खाएं तो किसी डाक्टर की कोई जरूरत न रह जाए। आप ज्यादा खा जाते हैं, बीमारी चली आती है और डाक्टर उसके पीछे चला आता है। अगर हम खाते ही चले जाएं तो खाना मौत बन सकती है। ज्यादा खाने से आदमी मर सकता है।
एक गीत कोई आपको सुनाता है। आप कहते हैं कितना सुख आया। वह दुबारा सुनाता है, तब आप नहीं कहते कितना सुख आया, तब आप चुप रह जाते हैं। वह तीसरी बार सुनाता है। आप कहते हैं, बस भी करो। वह चौथी बार सुनाता है। आप कहते हैं, अब क्षमा करिए। वह पांचवीं बार सुनाएगा, आप भागने की कोशिश करेंगे। और अगर द्वार बंद हो, और अगर वह छठी बार सुनाए, तो आपका मस्तिष्क घूमने लगेगा। और अगर वह सुनाता ही चला जाए, तो आप पागल हो जाएंगे। वही गीत पागल कर देगा। जो पहली दफा सुख दिया।
सुख अगर था तो दस बार सुनने से दस गुना हो जाना था। इसे पहचान के लिए कसौटी समझ लेना। इसे कसौटी मानना कि जो सुख क्षण में विलीन हो जाता है, और उसी की पुनरुक्ति दुख ले आती है, वह सुख रहा ही न होगा। सुख आपने कल्पित किया होगा। एक बार कल्पना कर ली। दुबारा कल्पना करनी मुश्किल हो गई। तीसरी बार कल्पना में और मुश्किल हो गई। दस बार में कल्पना उखड़ गई। चीजें जैसी थी, वैसी साफ हो गई और सामने हो गई।
हमारे सब सुख दुख में बदल जाते हैं। सब सुख दुख हैं। हम सिर्फ सुख कल्पित करते हैं। ऊपर से मानते हैं कि यह सुख है। माना हुआ सुख कितनी देर टिक सकता है। सुख हमने जाना नहीं, सिर्फ कल्पना की। दुख हमने जाना और कल्पना क्यों की है?
कल्पना इसीलिए की है कि अगर कल्पना न करें तो दुख हमारी जान ले लेगा। दुख हमारे प्राण ले लेगा। अगर हम कल्पना न करें, तो दुख के साथ जीएंगे कैसे? इसीलिए झूठे सब सुख के जाल बुन कर हम दुख को बिताने की कोशिश करते हैं। भुलाने की कोशिश करते हैं।
हमारा सारा जीवन दुख को भुलाने की एक लंबी कोशिश है। और कुछ भी नहीं। लंबी कोशिश है दुख को भुलाने की।
नीत्शे बहुत हंसता था। अब किसी ने नीत्शे को कहा कि तुम कितना हंसते हो, कितने सुखी हो?
नीत्शे ने कहा, यह मत पूछो, यह मत कहो। मेरे हंसने का कारण बिलकुल दूसरा है।
तो मित्रों ने कहा, और क्या कारण हो सकता है, सिवाय इसके कि तुम आनंदित हो।
उसने कहा, छोड़ो यह बात आनंद को छोड़ कर और ही कोई कारण है। आनंद तो बिलकुल कारण नहीं है।
मित्रों ने कहा, क्या कारण है?
नीत्शे न कहा, इसलिए हंसता हूं ताकि रोने न लगूं। अगर नहीं हंसूंगा तो रोना शुरू हो जाएगा। रोना भीतर चल रहा है। हंसने में भुला रखता हूं अपने को। ताकि रोना रुका रहे।
इसलिए दुनिया जितनी ज्यादा सुख की खोज में तल्लीन दिखाई पड़ती है, जानना कि दुनिया उतनी दुखी हो गई है। चौबीस घंटे सुख चाहिए। क्योंकि चौबीस घंटे दुख है। इसलिए हम मनोरंजन के नये साधन ईजाद करते चले जाते हैं। मनोरंजन के साधनों की ईजाद दुखी दुनिया का सबूत है। जो आदमी दुखी नहीं है, वह मनोरंजन की खोज में कभी नहीं जाता।
सिनेमागृहों में जो लोग बैठे हैं, वे अगर सुखी होते, तो अपने घरों में होते। वे दुखी हैं इसलिए सिनेमागृहों में हैं। शराबघरों में जो लोग बैठे हैं, अगर वे सुखी होते, तो घरों में होते। शराबघरों में बैठे हैं, क्योंकि दुखी हैं। वेश्याओं के नृत्य जो देख रहे हैं, अगर वे सुखी होते, तो आंख बंद करके सुख में लीन होते। वे उन नृत्यों में बैठे हैं, वे दुखी हैं, वे दुख को भूलने की कोशिश कर रहे हैं। सब तरफ दुख को भुलाने की कोशिश चल रही है।
और यह मत सोचना कि सिनेमा में बैठा हुआ आदमी दुख भूला रहा है। शराब पीने वाला दुख भूला रहा है। वेश्या के दरवाजे पर बैठा हुआ आदमी दुख भूला रहा है। नहीं, मंदिर में बैठ कर जो भजन-कीर्तन कर रहा है, वह भी दुख भूला रहा है। इसमें कोई फर्क नहीं है। सुखी आदमी किसलिए जाकर झांझ-मंजीरे पीटेगा, पागल हो गया है! सुखी आदमी किसलिए हाथ-पैर जोड़ कर किसी मूर्ति के सामने खड़ा हो जाएगा। दुखी आदमी भूला रहा है। कोशिश खोज रहा है। राम-राम जपता है जितनी देर राम-राम की धुन लगाए रखता है दुख भूल जाता है। फिर दुख वापस खड़ा। जितनी देर माला सरकाता है, दुख भूल जाता है। किसी भी चीज में उलझ जाता है दुख भूल जाता है।
चाहे सिनेमा देखता है और चाहे रामलीला देखता हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। दुख भुलाने की कोशिश चल रही है। अपने को भुलाने की कोशिश चल रही है। शराब में भी वही हो रहा है और प्रार्थना में भी वही हो रहा है। एक बुरा रास्ता है भुलाने का, एक अच्छा रास्ता है भुलाने का। लेकिन दोनों रास्ते भुलाने के हैं। फॉरगेटफुलनेस के हैं। अपने को भूला लेना है किसी तरह।
जो आदमी दुखी है, वह भुलाना चाहता है। कोई ताश खेल कर भुला रहा है। कोई शतरंज खेल कर भूला रहा है। कोई गीता ही पढ़ रहा है। क्या कर रहे हैं आप? सुखी होने का हमें कोई पता नहीं। हम दुखी हैं। हम किसी तरह इस दुख से बचना चाहते हैं, भूल जाना चाहते हैं। किसी तरह भूल जाना चाहते हैं। चाहे वेद के युग से उठा कर देखें, वेद के युग में सोमरस पीया जा रहा है। सोम रस यानी शराब। लेकिन ऋषि मुनि शराब पीएं तो उसका नाम सोमरस है। साधारण आदमी सोमरस पीए तो उसका नाम शराब।
वेद से लेकर अभी ठेठ आज के आधुनिक अमेरिका का--सोमरस से लेकर, मैस्कलीन और लिसर्जिक एसिड तक; आज सारी अमेरिका में लिसर्जिक एसिड और मैस्कलीन और मारिजुआना, सब पीया जा रहा है। और अमेरिका के बड़े से बड़े विचारक, एल्डुअस हक्सले जैसे लोग यह कहते हैं कि दुख इतना है कि भुलाने का कोई उपाय नहीं है। हम दुख भुलाना चाहते हैं। हमारे सुख के सारे उपाय कहीं दुख को भुलाने के मार्ग ही तो नहीं हैं?
और इसीलिए सब उपाय उखड़ जाते हैं। एक आदमी एक स्त्री के पीछे पागल है और सोचता है यह मिल जाए तो सुख हो जाएगा और जिस दिन वह मिल जाती है उसी दिन व्यर्थ हो जाती है।
प्रेयसियों के चेहरे तो लोग देखते हैं, पत्नियों के चेहरे किसी ने देखे हैं? जिसको घर ले आए, वह व्यर्थ हो जाती है। वह जो कल्पना थी, एक क्षण को टूट गई है, घर पत्नी आ गई, अब वह भूल गई।
पड़ोस के लोग उसको देख सकते हैं, और उसमें सुख पा सकते हैं। लेकिन पति को अब कोई सुख नहीं मिलता मालूम है।
बायरन ने शादी की। अदभुत आदमी था। जब तक शादी नहीं हुई थी, तो पागल था कि अगर इस स्त्री से शादी न हो सकी तो जीवन व्यर्थ हो जाएगा। फिर उससे शादी करके चर्च से नीचे उतर रहा है। सीढ़ियों पर उसका हाथ हाथ में लिए हुए है। पीछे अभी चर्च की घंटियां बज रही है। और मेहमान विदा हो रहे हैं। शादी हुई है अभी। अभी जो मोमबत्तियां जलाई थी शादी के लिए, वे जल रही हैं, वे बूझी नहीं हैं।
बायरन अपनी पत्नी का हाथ पकड़ कर, उतर कर बग्घी में बैठने को हैं और तभी सड़क पर एक दूसरी स्त्री दिखाई पड़ती है। बायरन बहुत ईमानदार आदमी होगा, उसने बग्घी में बैठ कर अपनी पत्नी को कहा, कैसा आश्चर्य, कल तक मैं सोचता था, तू मिल जाएगी, तो मुझे सब मिल जाएगा। और अभी जब हम सीढ़ियां उतर रहे थे; वह सामने से जो स्त्री जा रही थी, मैं उसके पीछे हो लिया। तू मुझे भूल गई। और मन में हुआ, काश यह स्त्री मुझे मिल जाए।
तू तो भूल ही गई क्योंकि तू मेरी मुट्ठी में आ गई और बेकार हो गई। अब तू मेरी है और बेकार है। सारा आकर्षण दूर का है। सारा आकर्षण उसका है जो नहीं मिला। जो मिल गया वह व्यर्थ हो जाता है। क्यों?
क्योंकि जो नहीं मिला उसमें सुख की कल्पना जारी रह सकती है। लेकिन जो मिल जाता है उसमें सुख की कल्पना टूट जाती है। क्योंकि वह मिल गया। क्षण भर की झलक आई और खो गई। वह जो कल्पना थी, वह गई और नष्ट हो गई।
किसी एक कवि ने तो यह कहा कि धन्य हैं वे प्रेमी जिन्हें उनकी प्रेमिकाएं कभी नहीं मिलती, क्योंकि वे जीवन भर कम से कम सुख की कल्पना तो कर सकते हैं और अभागे हैं वे प्रेमी जिनको उनकी प्रेमिकाएं मिल जाती हैं, क्योंकि मिल जाने के बाद पता चलता है यह तो नरक अपने हाथ से मोल ले ली।
हमारे सारे सुख किसी भी तल पर हों, काल्पनिक हैं। और दुख एकदम वास्तविक है। दुख की तो कोई कल्पना नहीं करता। कौन करेगा दुख की कल्पना? दुख से तो हम बचना चाहते हैं। दुख की तो कोई कल्पना करेगा नहीं। दुख तो है और सुख काल्पनिक है। यही जीवन की कठिनाई है। और कल्पना के सुखों में जो चला जाता है, वह खो जाता है। फिर हम बहुत तरह की कल्पनाएं कर सकते हैं।
मजनू से उसके गांव के सम्राट ने बुला कर पूछा कि तू पागल है, लैला साधारण सी लड़की है, तू दीवाना है! हम उससे बहुत अच्छी लड़कियां तेरे लिए खोज रहे हैं, हमने लड़कियां बुलाई हैं, तू चल और देख। तू पागल हो गया है! उसका बाप नहीं है राजी। छोड़, लैला में कुछ भी नहीं है। साधारण सी सांवली सी लड़की है।
आपको भी शायद खयाल होगा कि लैला सुंदर रही होगी, तो आप गलती में है। लैला अति साधारण, जिसको होमली कहते हैं, घरेलू लड़की। लेकिन मजनू ने क्या कहा? कि नहीं-नहीं, आप जानते नहीं हैं, लैला के सौंदर्य को मैं ही जानता हूं।
सम्राट ने कहा, तेरा मतलब! हम अंधे हैं।
मजनू ने कहा, नहीं, आप अंधे नहीं हो, मैं अंधा हूं। लेकिन जो मुझे दिखाई पड़ता है वह मुझे ही दिखाई पड़ता है और किसी को दिखाई नहीं पड़ सकता। मुझे तो लैला में ही सब दिखाई पड़ता है और कहीं नहीं दिखाई पड़ता।
अब किसी को दिखाई नहीं पड़ता, मजनू को दिखाई पड़ता है।
इसलिए तो, प्रेमी जो है, पागल मालूम पड़ते हैं। खुद को छोड़ कर सारा गांव उन्हें पागल कहेगा कि यह आदमी पागल है। उसको खुद मालूम नहीं पड़ेगा। उसने तो कल्पना का जाल इतना बुन लिया है कि जो आपको दिखाई पड़ रहा है, वह उसे थोड़े ही दिखाई पड़ रहा है। उसे तो कुछ और ही दिखाई पड़ रहा है।
प्रेयसी में जो दिखता है, वह प्रेमी की कल्पना का प्रक्षेपण है। प्रेयसी में वह होता ही नहीं है। प्रेमी में जो दिखता है, वह प्रेयसी की कल्पना का प्रक्षेपण है, वह उसमें होता ही नहीं।
हमें जो दूसरों में सुख दिखाई पड़ता है, वह हमारी ही कल्पना है। जो हमने फैला कर उनके ऊपर आरोपित कर दी है। और उस आरोपित कल्पना को टूटने में कितनी देर लगेगी। वह आरोपित कल्पना क्षण में टूट जाती है। पास आते ही टूट जाती है। पहचान होते ही टूट जाती है। जानते ही टूट जाती है। दूरी पर, फासले पर, वह कल्पना ठीक है।
न केवल लोगों ने सामान्य जीवन में सुख की कल्पना की है। जब सामान्य जीवन में सुख नहीं मिला है, और दुख को नहीं भुलाया जा सका है। तो लोगों ने और और बड़ी कल्पनाएं की है। कोई मुरली बजाते भगवान की कल्पना कर रहा है। वह अपना आंख बंद करके मुरली बजाते, भगवान में ही लीन हो रहा है। कोई जीसस क्राइस्ट की कल्पना कर रहा है। कोई धनुर्धारी राम की कल्पना कर रहा है। ये सारी कल्पनाएं सत्य के पास ले जाने वाली नहीं है। चाहे कोई कितनी ही गहरी कल्पना कर ले, चाहे किसी को बिलकुल बांसुरी बजाते हुए कृष्ण दिखाई पड़ने लगे, धनुर्धारी राम दिखाई पड़ने लगे, और चाहे सूली पर लटका हुआ ईसा दिखाई पड़ने लगे, चाहे बुद्ध और महावीर दिखाई पड़ने लगे। आपके दिखाई पड़ने में बुद्ध, महावीर, राम, कृष्ण का कोई कसूर नहीं है। उनको कोई हाथ ही नहीं है। आपकी कल्पना के अतिरिक्त वहां और कुछ भी नहीं।
लेकिन उस कल्पना में अपने को खोया जा सकता है। और ध्यान रहे, यह कल्पना लंबी हो सकती है। क्योंकि ठोस तो कुछ पास नहीं है जो उखड़ जाए। सिर्फ कल्पना ही है। कल्पना लंबी चल सकती है। तो साधारण मनुष्य के प्रेमी तो मुक्त भी हो सकते हैं, कल्पना से।
लेकिन भगवान की कल्पना करने वाले भक्त मुक्त भी नहीं हो पाते। क्योंकि कल्पना हवाई है। हमारे हाथ में हैं। जैसा चाहो, वैसा। एक ठोस आदमी से प्रेम करोगे, तो जैसा चाहोगे वैसा थोड़े ही होगा। अगर उससे कहोगे कि बायां पैर ऊपर उठाओ और हाथ मुरली पर रखो और खड़े रहो घंटे भर। तो वह कहेगा, क्षमा करो; नमस्कार।
लेकिन अपने ही कृष्ण हैं कल्पना के, बेचारों को खड़ा रखो एक पैर पर। बांसुरी पकड़े हुए, वे खड़े हैं। वे कुछ नहीं कर सकते। और जैसा तबीयत हो, कहो कि रखो दूसरा पैर नीचे, तो नीचे रखना पड़ेगा, आपकी ही कल्पना का जाल है। वहां कोई दूसरा है नहीं। इसलिए भक्त बड़ा प्रसन्न होता है, भगवान को मुट्ठी में पाकर। चाहो जैसा नचाओ। भगवान मुट्ठी में है।
लेकिन जो मुट्ठी में है, वह हमारी कल्पना का है। और कल्पना में खो कर फायदा क्या है? मिलेगा क्या? कि दुख भूल सकता है। लेकिन सुख नहीं मिल सकता। दुख को भूलना हो, तो कल्पना सार्थक उपाय है। लेकिन सुख को पाना हो, तो कल्पना अत्यंत घातक उपाय है। कल्पना से बचना तब जरूरी है।
यह मैं कहना चाहता हूं कि हमने सब तरफ से भुलाने की कोशिश की है, दुख को। और जो दुख को भुलाने की कोशिश कर रहा है। वह अपने हाथ, अपने को ऐसे जाल में डाल रहा है, जिससे निकलना मुश्किल होता चला जाएगा। उसे रोज-रोज नये-नये जाल बनाने पड़ेंगे। एक झूठ के लिए फिर रोज नये झूठ गढ़ने पड़ेंगे। और झूठों की इतनी लंबी शृंखला हो जाएगी कि उसे पता भी नहीं रहेगा कि सत्य कहां है?
हमने न मालूम कितने झूठ तय किए हैं। जन्मों-जन्मों से झूठ की एक लंबी कतार खड़ी कर ली है। और उस झूठ में हम सब खो गए हैं। हमें कुछ पता नहीं है। हमारा परिवार झूठ है, हमारी कल्पना पर खड़ा है। सत्य पर नहीं। हमारी मित्रता झूठ है, हमारी कल्पना पर खड़ी है, सत्य पर नहीं। हमारी शत्रुता झूठ है। हमारा धर्म झूठ है, हमारी भक्ति झूठ है, प्रार्थना झूठ है। हमारी कल्पना पर खड़ी है। सत्य पर नहीं है।
और हमने सब झूठ का एक इतना व्यापक जाल फैलाया है कि आज कहां से तोड़ें इसे। यह बहुत मुश्किल हो गया। एक आदमी हाथ जोड़े मंदिर में खड़ा है। किसके सामने हाथ जोड़े है। भगवान का कुछ पता है? जिसका पता नहीं है, उसके सामने हाथ जोड़े गए हों तो वे हाथ झूठे हो जाएंगे। किसलिए हाथ जोड़े हैं।
मैंने सुना है एक यात्रियों का दल एक नाव से वापस लौट रहा है। वे बहुत धन कमा कर वापस लौटे हैं। हीरे-जवाहरात लेकर लौटे हैं। सौदागर है।
उनमें एक फकीर भी है। जो लौटते में सवार हो गया, उसने कहा, मुझे भी देश लौटना है, मुझे भी बिठा लो। उसे भी बिठा लिया। आखिरी दिन है। ऐसा लगता है कि थोड़ी ही देर में जमीन आ जाएगी।
लेकिन बड़े जोर का तूफान आया। बादल घिर गए। सूरज ढंक गया। हवाएं चलने लगी। पानी उछाले भरने लगा। नाव अब डूबी, अब डूबी होने लगी।
वे तीस ही यात्री हाथ जोड़ कर, घुटने टेक कर आंख बंद किए और आकाश की तरफ हाथ उठाए--और कह रहे हैं, भगवान हमें बचाओ, हमें बचाओ। हम से जो भी हो सकेगा, हम करेंगे। अगर हम बच गए और जमीन पर उतर गए।
तो कोई कह रहा है कि मैं जितनी संपत्ति लाया हूं, सब गरीबों में बांट दूंगा। कोई कहता है कि मैं सारी संपत्ति सेवा में लगा दूंगा। कोई कहता है कि जो भी तुम कहोगे, मैं करूंगा। लेकिन मुझे बचाओ।
लेकिन वह फकीर है, वह हंस रहा है बैठा हुआ। और वे सारे लोग कह रहे हैं कि तुम कैसे आदमी हो। हमारी जान खतरे में है। तुम्हारी जान भी खतरे में है। प्रार्थना करो।
और तुम तो फकीर हो, तुम्हारी प्रार्थना शायद जल्दी सुन ली जाए। लेकिन वह फकीर कहता है, तुम ही करो प्रार्थना। और फिर जब वे आंखें बंद किए हुए प्रार्थना कर रहे हैं, तो वह फकीर एकदम से चिल्लाता है कि ठहरो। गलती में वादे मत कर देना कि सब दे देंगे। जमीन करीब है। जमीन दिखाई पड़ने लगी।
और वे सारे लोग उठकर खड़े हो गए हैं। प्रार्थना अधूरी रह गई। और वे सब हंस रहे हैं, और अपना सामान बांध रहे हैं।
और उन्होंने कहा, तुमने ठीक समय पर चेता दिया। नहीं तो हम वादा कर देते और मुसीबत होती। लेकिन एक आदमी ने वादा कर दिया था। और सब ने वादा सुन लिया था।
वह गांव का सबसे बड़ा धनपति था। और उसने यह कह दिया था कि मैं अपना मकान बेच कर, जितना पैसा होगा, वह गरीबों को बांट दूंगा। सबने कहा, तुम मुसीबत में पड़ गए।
वह आदमी चिंतित दिखाई पड़ा। लेकिन उस फकीर ने कहा लोगों से, घबड़ाओ मत। वह इतना होशियार है कि भगवान को भी धोखा दे देगा।
और यही हुआ। पंद्रह दिन बाद, गांव के लोगों ने देखा कि डोंडी पीटी जा रही है। उस अमीर ने खबर की है कि मैं अपने मकान को बेच रहा हूं। और जितना पैसा आएगा, वह गरीबों को बांट दूंगा।
सारा गांव आया। क्योंकि उससे बढ़िया मकान नहीं था। लाखों की कीमत थी उसकी।
जब सारे लोग आ गए, तो उसने, दरवाजे के बाहर वह आया। उसने एक छोटी सी बिल्ली दरवाजे के बाहर बांधी हुई थी। लोग पूछने लगे, बिल्ली किसलिए बांधी?
उसने कहा, दोनों मुझे बेचने हैं। बिल्ली भी और मकान भी। मकान का दाम है एक रुपया और बिल्ली का एक लाख रुपया। दोनों इकट्ठा ही बेचूंगा। जिसको भी लेना हो ले ले।
फकीर भीड़ में था, उसने कहा, समझ गए, समझ गए। वह बेच दिया। मकान तो लाख का था। लोगों ने कहा, हमें क्या मतलब। एक लाख एक में लेते हैं। एक रुपये की बिल्ली भी थी। कोई हर्जा नहीं है। किसी ने मकान खरीद लिया।
एक रुपये में मकान बेचा। लाख में बिल्ली बेची। लाख रुपये खीसे में रखे, एक रुपया गरीबों में बांट दिया।
कहा था उसने कि मकान बेच कर गरीबों में बांट दूंगा।
ये हमारी प्रार्थनाएं हैं। ये हमारी सारी आराधनाएं हैं। आखिर में बेईमानी आ गई। और ईश्वर को भी धोखा देने में हम पीछे नहीं है। और स्वाभाविक है क्योंकि ईश्वर से हमें कोई मतलब नहीं है। हमारे दुख से बचने की चेष्टा है, ईश्वर से क्या मतलब है?
जब नाव डूबती थी, तो हमने कहा कि हम यह कर देंगे। कोई ईश्वर से मतलब था, कोई गरीब से मतलब था। अपने दुख से बचने का सवाल था। जब बच गए, तब अब दूसरा दुख सिर पर आ गया कि लाख रुपये का मकान चला जाएगा। अब इससे बचने की तरकीब निकाली।
दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है। नाव पर किया गया वादा भी दुख से बचने के लिए था। और यह चालाकी भी दुख से बचने के लिए है। और आदमी जो दुख से बचने के लिए कर रहा है, वह कभी धर्म नहीं हो सकता। धर्म है दुख से बचने की तरकीब नहीं। दुख से बचाव हो तो गलत रास्ते पर ले ही जाएगा। क्योंकि दुख से बचाव में, बुनियादी झूठ स्वीकार कर लिया गया है और वह यह कि मैं दुखी हूं। मैं दुखी हूं, यह बुनियादी झूठ स्वीकार कर लिया गया। मुझे दुख से बचना है अब।
मैं कहता हूं कि रास्ता दूसरा है। और वह यह है कि मुझे जानना है दुख क्या है? कहां है? बचना नहीं है। और जो आदमी जानने जाता है कि दुख क्या है? कहां है? वह हैरान होकर पाता है। दुख बाहर है, मैं तो अलग हूं। मैं तो कभी दुखी हूं नहीं। मैं दुखी हूं ही नहीं। इसलिए बचना क्या है? यह बचना किसलिए।
और जिसे यह पता चल जाता है मैं दुखी नहीं हूं। वह क्या किस हालत में पहुंच जाता है। जिसे यह पता चल गया कि मैं दुखी नहीं हूं, उसे यह पता चल जाता है कि मैं सुखी हूं। लेकिन हम माने हुए हैं कि हम दुखी हैं। मैं दुखी हूं, मैं दुखी हूं, मैं दुखी हूं। और यह जो मानता है, यह एक नये झूठ में ले जा रही है कि दुख से कैसे बचूं?
एक फकीर के पास एक आदमी गया है और उसने कहा कि मुझे मरने से बचने का कोई रास्ता बताइए?
उस फकीर ने कहा, किसी और के पास जाओ, क्योंकि मैं कभी मरा ही नहीं। कई बार मौत आई और मैं नहीं मरा। अब मैं झंझट के बाहर हो गया हूं। अब मैं जानता हूं कि मैं मर ही नहीं सकता। इसलिए मुझे कोई तरकीब भी पता नहीं है। तुम उस आदमी के पास जाओ, जो मर चुका हो। उससे पूछो, वह शायद तुम्हें बता सके कि मरने से बचने की तरकीब क्या है?
मैं क्या बताऊं? क्योंकि मैं कभी मरा नहीं। और अब मैं जानता हूं कि मैं मर ही नहीं सकता। इसलिए मृत्यु मेरे लिए सवाल ही नहीं है। एक तो सवाल है कि मृत्यु को मान लिया हमने। अब हम पूछते हैं, कैसे बचें।
पहली झूठ, हमने स्वीकार कर ली कि हम मरते हैं। अब दूसरी झूठ ईजाद करनी पड़ेगी कि मरने से कैसे बचें। और झूठ की शृंखला चलती रहेगी। लेकिन जो भवन झूठ की नींव पर खड़ा हो, वह कितना ही बड़ा हो जाए, वह कभी भी ठहर नहीं सकता।
झूठ की नींव पर खड़ा हुआ भवन पूरा झूठ ही होगा। वह किसी दिन भी गिरेगा। और जब वह गिरने लगेगा, तो झूठ के नये-नये, और हमें सहारे खड़े करने पड़ेंगे कि वह गिर न जाए। और उस पर हम एक ऐसे विसियस सर्कल में, एक ऐसे दुष्चक्र में फंस जाएंगे, जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है।
बस झूठ के बाद झूठ, झूठ के बाद झूठ होती चली जाएगी। लेकिन हमें होश नहीं आता कि जिस चित्त ने एक झूठ हमें सिखाई है, उसी चित्त की मान कर हम चलेंगे, तो और झूठ भी हमें सिखाएगा।
माइंड जो है, चित्त जो है, अगर ठीक से समझे तो झूठ पैदा करने की मशीन है। वहां से झूठ पैदा होती है।
परसों रात ही मैं एक कहानी कह रहा था। एक गरीब फकीर है, एक गरीब आदमी है। वह दिन-रात भगवान की प्रार्थना में ही लीन रहता है। उसकी पत्नी परेशान हो गई। भगवान की प्रार्थना करने वाले पतियों से पत्नियां परेशान हो ही जाती हैं। तो वह परेशान हो गईं। खाने को कहां से आए, रोटी कहां से आए, वह है कि बस भगवान है।
आखिर एक दिन उसने क्रोध में कहा कि यह अब ज्यादा नहीं चलेगा। यह कहां से लाएं हम खाने को! तुम निरंतर यही कहते हो, मैं भगवान का सेवक हूं, भगवान का सेवक हूं।
अरे साधारण आदमी के सेवक हो जाए, तो दो रोटी तो मिल सके। और भगवान के सेवक को मिलता क्या है। उस फकीर ने कहा, बात मत कर। कभी मैंने मांगा नहीं। यह बात दूसरी है। अगर मांगूं, तो सब एकाउंटस में जमा होगा। इतने दिन भगवान की सेवा की है कि सब वहां जमा होगा। मांगा नहीं मैंने यह दूसरी बात है।
उसकी पत्नी ने कहा, तो आज मांग कर दिखा दो।
वह आदमी बाहर गया। उसने जोर से चिल्ला कर आकाश की तरफ कहा कि एक हजार रुपया फौरन भेज दे।
पड़ोस में एक सेठ रहता था। वह सुन रहा था यह सारी बातचीत। उसे मजाक सूझी। उसने एक हजार रुपये थैली में भर कर फेंक दिए। मजाक!
हद हो गई। उसने जब सुना कि वह आदमी भगवान को आज्ञा दे रहा है बाहर आकर कि फौरन एक हजार रुपये भेज दो। बहुत दिन हो गए, मैंने कुछ मांगा भी नहीं सेवा करते-करते।
एक हजार रुपये नीचे गिरे। उस आदमी ने थैली उठा ली। और कहा, धन्यवाद। बाकी अभी जमा रखना। जब जरूरत होगी, ले लेंगे।
अंदर गया, पत्नी के सामने रुपये पटक दिए। पत्नी तो हैरान हो गई। प्रभावित भी हो गई। हद हो गई। हजार रुपये नकद सामने। अब तो कुछ कहना भी ठीक न था।
सेठ ने सोचा कि थोड़ी देर मजा ले लेने दो, फिर चले जाएंगे। लेकिन तभी देखा कि बड़ा सामान बाजार से चला आ रहा है। तो सेठ ने कहा, यह तो मुश्किल हो जाएगी। मजाक तो महंगी पड़ जाएगी। वह तो सामान खरीदने उसने आदमी भेज दिए हैं। सामान चला आ रहा है। कीमती चीजें आ रही हैं।
सेठ भागा हुआ आया। उसने कहा, भाई मैंने मजाक की थी। तुम क्या समझ रहे हो, रुपये मैंने फेंके हैं।
उस आदमी ने कहा, हद हो गई। तुमने साफ सुना कि मैंने भगवान से कहा कि भेजो हजार रुपये। और फिर मैंने धन्यवाद भी दिया। तुमने सुना नहीं।
कहा, मैंने सुना। लेकिन रुपये मैंने फेंके हैं।
उसने कहा कि यह मैं मान नहीं सकता। पत्नी मेरी गवाह है।
सेठ ने कहा, यह तो जाल हो गया। सेठ ने कहा, फिर सीधे इसी वक्त गांव के अदालत में चले चलो, काजी के पास।
उस फकीर ने कहा, मैं नहीं जाऊंगा ऐसे। क्योंकि मैं गरीब आदमी हूं। देखते हैं, कपड़े फटे पुराने हैं। आप घोड़े पर सवार होंगे। शानदार कपड़ों में होंगे। मजिस्ट्रेट आपकी तरफ झुक जाएगा। मजिस्टे्रट कहीं गरीब की तरफ झुका है कभी? वह समझ लेगा कि आदमी ठीक कहता है। जिसके पास पैसे हैं, वह ठीक कहता है। यह मेरे गरीब कपड़े देख कर ही कह देगा कि छोड़ कहां की बातें कर रहा है। वापस करो रुपये।
नहीं, पहले मुझे ठीक कपड़े दे दें, अपना घोड़ा दे दें। जब मैं शान से चलूं, तो ही मैं चल सकता हूं। नहीं तो वहां सब गड़बड़ हो जाएगी।
सेठ को हजार रुपये वापस लेने थे। बेचारे ने घोड़ा दिया, अपने कपड़े दिए। खुद पैदल चला। फकीर शान से घोड़े पर चला।
अदालत के सामने जाकर घोड़ा बांधा। आदमी को चिल्ला कर कहा, घोड़े का खयाल रखना। मजिस्ट्रेट भीतर सुन ले।
अंदर गया शानदार कपड़ों में। सेठ ने निवेदन किया कि ऐसी-ऐसी बात हो गई। यह भगवान से प्रार्थना कर रहा था, मैं सिर्फ मजाक में हजार रुपये की थैली फेंक दिया। कहीं भगवान कोई रुपये फेंकता है, कभी सुना है आपने?
मजिस्ट्रेट से उसने कहा कि भगवान ने रुपये फेंके हों? लेकिन यह पागल मान कर बैठ गया है कि इसके रुपये हैं। मैं रुपये वापस चाहता हूं।
मजिस्ट्रेट ने उस फकीर से कहा कि तुम्हें क्या कहना है?
उसने कहा, मुझे कुछ भी नहीं कहना है। इस आदमी का दिमाग खराब हो गया है, यह पागल है।
मजिस्ट्रेट ने कहा, सबूत।
तो उसने कहा, सबूत यह है कि आपको रुपये की कह रहे हैं। अगर इससे पूछिए कि यह कपड़े किसके हैं, तो यह कहेगा, इसी के हैं। घोड़ा किसका है, यह कहेगा, इसी का है। सभी कुछ इसी का है।
उस सेठ ने कहा, तुच्छ, कपड़े मेरे हैं और घोड़ा भी मेरा है।
मजिस्ट्रेट ने कहा, मुकदमा बर्खास्त। यह आदमी का दिमाग खराब हो गया है।
वह सेठ यह नहीं समझ पाया है कि जो फकीर इतना बड़ा झूठ बोल सकता है उसको कपड़े देना खतरनाक है, उसको घोड़ा देना खतरनाक है। वह और भी झूठ बोल सकता है। जो मन हमें झूठ की बुनियाद सिखाता है, उस मन की मान कर हम जो-जो हम इंतजाम करते हैं, वह सब झूठ होते चले जाते हैं।
लेकिन हमें कभी खयाल भी नहीं आता कि मन का हमने पहला झूठ मान लिया और उसने यह कह दिया है कि मैं दुखी हूं। यह झूठ है। कोई मनुष्य, कोई आत्मा कभी भी दुखी नहीं है। दुख आस-पास घिरता है और मन कह देता है, मैं दुखी हूं।
यह मैं दुखी हूं कि जो आइडेंटिटी है, यह जो तादात्म्य है, यह बुनियादी झूठ है। इस झूठ को मान कर फिर हमें दूसरे झूठों में उतरना पड़ता है कि दुख को कैसे भुलाएं। शराब से, प्रार्थना से, पूजा से, नृत्य से, गीत से, संगीत से, कैसे भुलाएं। दुख है, दुख को कैसे भुलाएं। और जो दुख को भुलाने चला जाता है, वह आदमी सत्य की तरफ कभी भी नहीं जा पाता।
फिर क्या रास्ता है? सुबह की बैठक आपसे मैं कहना चाहता हूं, दुख को भुलाएं मत। भुलाने से कोई कभी दुख से नहीं छूटा। क्योंकि भुलाने वाले ने यह मान ही लिया कि मैं दुखी हूं। अब भुलाए या कुछ भी करे, दुख से छुटकारा नहीं है।
रास्ता यह है कि जाने कि दुख कहां है? दुख क्या है? है भी? पहले दुख को पहचाने। और जिसने दुख को पहचानने की कोशिश की है, और अपनी आंख दुख पर गड़ा दी हैं, दुख तिरोहित हो गया है। ऐसे ही जैसे सुबह का सूरज निकलता है। और ओस के कण तिरोहित हो जाते हैं।
ठीक जिसने अपनी आंख दुख पर गड़ा दी है। और ज्ञान का सूरज दुख पर बैठ गया है। दुख ऐसे ही उड़ गया है, जैसे ओस कण उड़ जाते हैं, उनका कोई पता नहीं चलता। और पीछे जो स्थिति छूट जाती है, उसका नाम सुख है।
सुख दुख से विपरीत अवस्था नहीं है। दुख से लड़ कर कोई सुखी नहीं हो सकता। सुख दुख का अभाव है। एब्सेंस है। दुख चला जाए, तो जो शेष रह जाता है, उसका नाम सुख है।
इसे ठीक से समझ लें। दुख से लड़ कर कोई सुखी नहीं हो सकता। दुख से उलटा नहीं है सुख कि आप दुख को हरा दें और सुख को ले आओ। दुख से उलटा नहीं है सुख।
हां, दुख न हो जाए। दुख शून्य हो जाए। दुख क्षीण हो जाए। पता चले कि दुख नहीं है। तो जो अवस्था शेष रह जाती है, वह सुख है। सुख हमारा स्वभाव है। उसे कहीं से लाना नहीं है। दुख ऊपर से छा गई बदली है। और हम उस बदली से इतने मोहित हो गए हैं कि उसी-उसी का सोच रहे हैं। उसको भूल ही गए हैं, जो बदली में छिपा है, और बिलकुल बाहर है।
जैसे सूरज के चारों तरफ बादल घिर गए हों। घिर जाएं बादल। बादलों के घिरने से सूरज को क्या फर्क पड़ता है? कोई बादलों के घिरने से सूरज अंधेरा हो जाता है? कोई बादलों के घिरने से सूरज मिट जाता है। कोई बादलों के घिरने से सूरज की रोशनी में कोई भी फर्क पड़ता है। सूरज के स्वभाव में कोई फर्क पड़ता है।
लेकिन अगर सूरज में बुद्धि हो, होश हो, और सूरज डर जाए और कहे कि बादल घिर गए, मैं मरा। अब मैं बादलों से बचने के लिए क्या करूं?
बस सूरज मुश्किल में पड़ जाएगा। बादलों से सूरज बचेगा भी कैसे! बादलों से सूरज लड़ेगा भी कैसे! और जितना लड़ेगा, जितना बचेगा, उतना ही ध्यान बादलों पर अटका रहेगा और सूरज भूल जाएगा कि मैं सूरज हूं। मैं किससे लड़ रहा हूं, बादलों से!
लेकिन अगर सूरज गौर से देखे और देखे कि बादल वहां है, मैं यहां रहा। मेरे और बादलों के बीच तो बड़ा फासला है। और कितने ही पास आ जाएं बादल, तो भी फासला है। और फासला हमेशा इनफिनिट है। फासला हमेशा अनंत है।
इन दो हाथों को मैं कितने ही पास ले आऊं, तो भी फासला मौजूद है। और फासला अनंत है। दोनों हाथ के बीच का फासला नहीं मिटता। पास लाने से नहीं मिटता। अगर फासला मिट जाए, तो दोनों हाथ एक हाथ हो जाएं। दो हैं, फासला जारी है। चाहे कितने ही पास लाओ, फासला जारी है।
चाहे बादल कितने ही करीब आ जाए। अभी वैज्ञानिक कहते हैं कि दो अणु कितने पास होते हैं, लेकिन अनंत फासला है। दोनों के बीच में। फासला बहुत है। फासला मिट नहीं सकता।
दो प्रेमी कितने पास आ जाते हैं, कितने पास बैठ जाते हैं, फासला मौजूद है। और वही तो कष्ट देता है प्रेमियों को। कितने पास आ गए, फिर भी फासला नहीं मिटता। सात चक्कर लगाए, फिर भी फासला नहीं मिटता। अदालत से रजिस्ट्री करवाई, फिर भी फासला नहीं मिटता। एक-दूसरे की गर्दन दबा रहे हैं फिर भी फासला नहीं मिटता। फासला मौजूद है।
फासला मिट ही नहीं सकता। कितने ही बादल आ जाएं सूरज के पास। सूरज सूरज है। बादल बादल हैं। और फासला अनंत है। लेकिन अगर बादल पर ध्यान अटक गया, तो मुश्किल हो जाती है। तो सूरज अपने को भूल जाता है और बादलों को खयाल करने लगता है। और जो अपने को भूल गया, वह धीरे-धीरे जिसका खयाल करता है, समझ लेता है वही मैं हूं।
फिर थोड़े दिन में सूरज कहने लगता है, मैं तो बादल हूं। मैं तो अंधेरा बादल हूं। जैसे ही सूरज को कहेंगे, यह हालत नासमझी की है। वैसी ही हालत आदमी की नासमझी की है। वह जो भीतर आत्मा है, वह आनंद है। चारों तरफ दुख के बादल हैं। और दुख ही दुख को देखते-देखते भूल गई है यह बात कि मैं कौन हूं? और वही बात पकड़ गई है कि यह जो दिखाई पड़ रहा है, यही मैं हूं, यही मैं हूं, यही मैं हूं।
अब इससे कैसे बचें? अब कैसे भागें? कैसे छूटें? प्रार्थना करें, शराब पीएं, कहां जाएं? जीएं, मरें क्या करें? सीधे खड़े हों, शीर्षासन करें, कुछ भी करें। वह एक बात जो पकड़ ली है कि यह दुख जो दिखाई पड़ रहा है, यही मैं हूं, तो फिर बहुत कठिनाई हो गई। लौटना पड़ेगा इस बात से। और जांच करनी पड़ेगी, दुख क्या है? कहां है? और मैं कौन हूं, और कहां हूं?
और जो इस बात की खोज करता है, उसके बीच और दुख के बीच एक फासला खड़ा हो गया। और तत्काल एक क्रांति घटित हो जाती है, वह जानता है दुख वहां है। मैं यहां हूं। दुख वह है, मैं यह हूं। दुख जाना जा रहा है। मैं जान रहा हूं। दुख दृश्य है। मैं द्रष्टा हूं, दुख ज्ञेय है, मैं ज्ञाता हूं। मैं अलग हूं। मैं दुखी नहीं हूं। मैं दुख नहीं हूं।
और जिसको यह पता चल गया उसका ध्यान अपने पर लौट आता है। और वहां तो सूरज है, वहां तो आनंद है, वहां तो सुख है। और जिसको एक बार इसकी झलक मिल गई, वह हंसता है, अनंत जन्मों तक हंसता रहता है। तब वह हैरान होता है कि कैसे लोग पागल हैं! कैसे लोग दुखी हैं!
बुद्ध को ज्ञान हुआ। उसी दिन सुबह उनके पास लोग आए और उन्होंने कहा, आपको क्या मिल गया है? क्योंकि बुद्ध खुशी में डुबे हुए थे। पूछा, क्या मिल गया है?
बुद्ध ने कहा, मिला कुछ भी नहीं। जो अपना ही था सदा, उसका पता चल गया है।
बुद्ध ने कहा, मिला कुछ भी नहीं। जो सदा से अपना था और जिसे भूल गए थे, उसका पता चल गया। हां, खोया जरूर बहुत कुछ। दुख खोया। पीड़ा खोई, पलायन खोया। खोया बहुत कुछ, मिला कुछ भी नहीं। मिला तो वही जो था ही। जो अपना ही था, मिला ही था। चाहे पता चलता है और चाहे पता न चलता हो। वही मिल गया। खोया बहुत कुछ जो अपना नहीं था। और मान लिया था, अपना है। जो मैं नहीं था, और जान लिया था कि मैं हूं, वह सब खोया है।
मिला कुछ भी नहीं, खोया बहुत कुछ है। जो भी जागेगा भीतर, वह पाएगा, मिलने को क्या है? जो मिलने को है, वह मिला ही हुआ है। खोने को बहुत कुछ है। वह जो हमने पकड़ा है। जो हमने सोचा है।
और हमने क्या-क्या पकड़ा है, हम क्या-क्या पकड़ सकते हैं। आदमी की क्षमता बहुत अदभुत है। आदमी की क्षमता बहुत अदभुत है। आदमी का पागलपन बहुत गहरा है। आदमी की ऑटो-हिप्नोसिस, आत्म-सम्मोहित होने की क्षमता अनंत है। हम अपने ही दुख से सम्मोहित हो गए हैं। हम किसी भी चीज से सम्मोहित हो जा सकते हैं।
मैं कुछ घटनाएं सुनाऊं, फिर अपनी बात पूरी करूं। उससे खयाल आ सके। जब हिंदुस्तान में नेहरू जी जिंदा थे, तो दस-पचास आदमी थे हिंदुस्तान में, जिनको यह खयाल था कि वे भी पंडित जवाहरलाल नेहरू हैं। एक आदमी मेरे गांव में भी थे। उनको यह खयाल पैदा हो गया कि वे पंडित जवाहरलाल नेहरू हैं।
वे दस्तखत भी नेहरू के करते थे। और सर्किट हाउस वगैरह में, तार करके, सर्किट हाउस भी रुकवा देते थे, और पहुंच जाते थे। और पहुंच जाते थे। और जब उनको लोग देखते थे, तो लोग हैरान होते थे कि आप कौन हैं।
वे तो पंडित नेहरू थे। फिर उनको पागलखाने में रखना पड़ा। बहुत से पंडित नेहरूओं को पागलखाने में रखना पड़ा।
एक बार एक पागलखाने में ऐसे ही एक पागल पंडित नेहरू से पंडित नेहरू का मिलना हो गया। पंडित नेहरू गए थे उस पागलखाने को देखने। अधिकारियों ने सोचा, वह जो आदमी पंडित नेहरू की तरह, तीन साल पहले भर्ती हुआ था, अब वह ठीक हो गया है। अब उसे छुट्टी देनी है। तो उसे नेहरू के हाथ से ही छुट्टी क्यों न दिला दी जाए। और बड़ी गड़बड़ हो गई।
उस आदमी को लाया गया। नेहरू से मिलाया गया। नेहरू ने उस आदमी से पूछा, आप बिलकुल ठीक तो हो गए हैं?
उसने कहा, मैं बिलकुल ठीक हो गया हूं। अब मैं बिलकुल ठीक हूं। इस पागलखाने के अधिकारियों का धन्यवाद। तीन साल में मेरा मन बिलकुल ठीक हो गया है। अब मैं वापस हो कर जा रहा हूं।
चलते वक्त उसने पूछा, लेकिन मैं भूल गया, आप से पूछना कि आप कौन हैं?
पंडित नेहरू ने कहा, तुम्हें पता नहीं है कि मैं कौन हूं?
पंडित जवाहरलाल नेहरू!
वह आदमी हंसने लगा, उसने कहा, घबड़ाइए मत, तीन साल यहां रह जाइए। आप भी ठीक हो जाएंगे।
तीन साल पहले इसी हालत में मैं भी आया था। मगर तीन साल में बिलकुल ठीक हो गया। आप बिलकुल बेफिक्र रहिए। चिंता मत करिए। बड़ा अच्छा इलाज है यहां पर चिकित्सकों का। आपको तीन साल में ठीक कर देंगे।
इस आदमी को पंडित नेहरू होने का खयाल इतने जोर से पकड़ रखा है कि वह भूल ही जाए।
अमेरिका में तो ऐसी घटना घटी कुछ वर्षों पहले। इब्राहिम लिंकन की शताब्दी मनाई गई। तो एक आदमी खोजा गया। इब्राहिम लिंकन का चेहरा जिसका मिलता हो। एक नाटक किया गया। सारे मुल्क के बड़े-बड़े लोगों में वह नाटक हुआ। और उस आदमी को लिंकन बनाया गया।
उसने एक साल तक गांव-गांव में घूम कर लिंकन का पार्ट किया। उसका चेहरा मिलता-जुलता था। और एक साल निरंतर अभ्यास करने से वह आदमी पागल हो गया। और भूल गया कि मैं कौन हूं? और वह आदमी कहने लगा कि मैं तो इब्राहिम लिंकन हूं। पहले तो लोग समझे मजाक करता है।
लेकिन जब वह आखिरी रात विदा हो रहा था नाटक से। और नाटक-मंडली टूट रही थी। तब उसने वह कपड़े उतारने से इनकार कर दिया, जो उसने नाटक में पहने थे।
मंडली ने कहा, ये कपड़े तो वापस करने पड़ेंगे। उस आदमी ने कहा, ये कपड़े तो मेरे हैं। मैं इब्राहिम लिंकन हूं। लोगों ने फिर भी समझा कि वह मजाक कर रहा है।
लेकिन वह मजाक नहीं कर रहा था। वह आदमी पागल हो गया था। वह उन्हीं कपड़ों को पहने घर चला गया। घर के लोगों ने भी समझाया कि ये कपड़े पहनकर नाटक तो ठीक है। लेकिन अगर सड़कों पर निकले तो लोग पागल समझेंगे।
उसने कहा, पागल का सवाल क्या, मैं इब्राहिम लिंकन हूं। पहले घर के लोग भी मजाक समझे। लेकिन जब यह रोज चला, तो पता चला कि यह आदमी तो पागल हो गया।
वह आम बात भी करता था, तो लिंकन के लहजे में करता था। अगर लिंकन अटकता था, तो वह आदमी भी बोलने में अटकने लगा। अगर लिंकन जिस भांति चलता था, वैसे ही वह चलता था।
वही डायलाग, जो उसने नाटक में सीख लिए थे। मजबूत हो गए थे। वह वही बोलता था।
आखिर चिकित्सकों से पूछा। चिकित्सकों ने कहा, बड़ा मुश्किल है, क्या इतना, इतने गहरे तक इसको यह खयाल हो गया कि मैं इब्राहिम लिंकन हूं।
एक साल तक लिंकन होने का बादल उसके चारों तरफ घूमता रहा। सुबह-शाम, रात। और लिंकन होने में मजा भी बहुत आया। खूब आदर मिला।
कोई आदमी रामचंद्रजी बन जाए उदयपुर में। तो देखो उदयपुर के पागल उसके ही पैर पड़ रहे हैं। फूल चढ़ा रहे हैं। उनके चरण का अमृत पीया जा रहा है। उस आदमी का दिमाग खराब हो ही जाए कि क्या फायदा साधारण आदमी होने में, रामचंद्रजी ही क्यों न हो जाओ।
वह आदमी हो गया। चिकित्सकों के पास ले गए। अमेरिका में उन्होंने एक मशीन बनाई हुई है: लाइ-डिटेक्टर। उसको अदालत में उपयोग करते हैं झूठ पकड़ने के लिए। छोटी सी मशीन है, अदालत में आदमी आता है तो जिस कठघरे में उसे खड़ा करते हैं, उसके नीचे मशीन लगी रहती है।
वह ऊपर खड़ा होता है। उसको पूछते हैं, तुम्हारी घड़ी में इस वक्त कितना बजा है। वह अपनी घड़ी देख कर कहता है कि इतना बजा है। झूठ क्यों बोलेगा। तो मशीन नीचे, अंकित करती है उसके हृदय की गति।
फिर उस आदमी से पूछा जाता है कि दो और दो कितने होते हैं। तो वह कहता है चार होते हैं। झूठ क्यों बोलेगा। मशीन अंकित करती है उसके हृदय की गति। फिर उससे पूछा जाता है, तुमने चोरी की? तो हृदय तो कहता है कि की, क्योंकि उसने की है। और ऊपर से वह कहता है कि नहीं की। तो हृदय की गति में झटका लगता है। और वह झटका नीचे मशीन अंकित कर लेती है।
तो उस इब्राहिम लिंकन हो गए आदमी को लाइ-डिटेक्टर पर खड़ा किया। वह घबड़ा गया था। जो भी पूछे उसे, वह यही पूछे, आप इब्राहिम लिंकन है?
तो वह घबड़ा गया था। उसने अपने आप तय किया था कि अब चाहे कोई कितना ही पूछे, मैं कहूंगा कि मैं हूं ही नहीं।
लाइ डिटेक्टर मशीन पर खड़ा किया। डाक्टर घेरे खड़े हैं। उन्होंने पूछा कि क्या आप इब्राहिम लिंकन है। उसने कहा कि नहीं, मैं इब्राहिम लिंकन नहीं हूं। लेकिन मशीन ने नीचे नोट किया कि यह आदमी झूठ बोल रहा है।
उसके हृदय में कह रहा था कि मैं इब्राहिम लिंकन हूं। ऊपर से झूठ बोल रहा है। मशीन ने कहा कि यह आदमी इब्राहिम लिंकन है। झूठ बोल रहा है।
इतना गहरा, इतना गहरा भाव पकड़ सकता है। इसे मैं कहता हूं, ऑटो-हिप्नोसिस है यह। यह किसी विचार और भाव से सम्होहित हो जाना है। हम सब भी दुख से सम्मोहित हो गए हैं। और चौबीस घंटे दुख में जी रहे हैं। और चौबीस घंटे दुख से बचने की कोशिश कर रहे हैं।
और दिन-रात दुख ही दुख देखने से सम्मोहन गहरा हो गया है। और अनंत जन्मों का, दुख का यह सम्मोहन है। और इसलिए हम किसी से भी जाकर पूछते हैं, दुख से बचने का उपाय क्या है? अशांति से बचने का उपाय क्या है? अंधकार से बचने का उपाय क्या? अज्ञान से बचने का उपाय क्या? और जब तक हम ये उपाय खोजते रहेंगे, तब तक हम मुक्त हो भी नहीं सकेंगे। क्योंकि बुनियादी बात ही झूठ है।
न हम अज्ञान हैं, न हम दुख हैं, न हम बंधन हैं, न हम अमुक्ति हैं। हम हैं ही नहीं। इसलिए इनसे बचने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन यह कैसे पता चलेगा। यह अपने दुख पर ध्यान को केंद्रित करना पड़ेगा। भागें मत। पलायन मत करें। एस्केप मत करें। एस्केप न लें। दुख आए उसे देखें और पहचानें, और जानें कि वह कहां है?
और जैसे ही आप जानेंगे, पहचानेंगे, आप हैरान हो जाएंगे। लगेगा मैं तो सदा अलग हूं। मैं तो सदा भिन्न हूं। दुख आता है, चला जाता है। दुख घेरता है, भाग जाता है। मैं, मैं अलग हूं। जानता हूं, जानता हूं।
मनुष्य की आत्मा ज्ञान है। सिर्फ जानना है। सब भोगना झूठ है। सब भोगना असत्य है। ज्ञान मात्र सत्य है। इसे ही मैं ध्यान कहता हूं। अगर दुख के प्रति यह जागरण हो, ध्यान हो गया।
रात्रि हम बैठेंगे। ध्यान रखना, आप दिन भर यह सोच कर आना कि आप दुख हो या दुख से अलग हो। आप ही दुख हो, या दुख के जानने वाले हो। यह जान कर आना। यह खोज कर आना। और अगर यह साफ हो जाए कि दुख वहां है, मैं यहां हूं। तो बस वह क्रांति होनी शुरू हो गई। जो अंततः मनुष्य को स्वंय में और सत्य में ले जाती है।

रात्रि हम प्रयोग के लिए बैठेंगे कि कैसे हम ये प्रयोग करें और भीतर प्रविष्ट हो जाएं।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें