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गुरुवार, 6 अप्रैल 2017

जीवन संगीत-(साधना-शिविर)-प्रवचन-05



जीवन संगीत-(साधना-शिविर)
ओशो
पांचवां-प्रवचन

...ताकि पूरे प्रश्नों के उत्तर हो सकें। सबसे पहले तो एक मित्र ने पूछा है कि कल मैंने कहा कि खोज छोड़ देनी है। और अगर खोज हम छोड़ दें, फिर तो विज्ञान का जन्म नहीं हो सकेगा।
मैंने जो कहा है, खोज छोड़ देनी है, वह कहा है उस सत्य को पाने के लिए जो हमारे भीतर है। खोज करनी व्यर्थ है, बाधा है। लेकिन हमारे बाहर भी सत्य है। और हम से बाहर जो सत्य है, उसे बिना तो खोज के कभी नहीं पाया जा सकता।
दुनिया में दो दिशाएं हैं। एक जो हम से बाहर जाती है। हम से बाहर जाने वाला जो जगत है, अगर उसके सत्य की खोज करनी हो, जो विज्ञान करता है, तो खोज करनी ही पड़ेगी। खोज के बिना बाहर के जगत का कोई सत्य उपलब्ध नहीं हो सकता।

एक भीतर का जगत है। अगर भीतर के सत्य की खोज करनी है, तो खोज बिलकुल छोड़ देनी पड़ेगी। अगर खोज की तो बाधा पड़ जाएगी और भीतर का सत्य उपलब्ध नहीं हो सकता। और ये दोनों सत्य किसी एक ही बड़े सत्य के भाग हैं। भीतर और बाहर किसी एक ही वस्तु के दो विस्तार हैं।
लेकिन जो बाहर से शुरू करना चाहता हो। उसके लिए तो अंतहीन खोज है। खोज करनी पड़ेगी, खोज करनी पड़ेगी, खोज करनी पड़ेगी। जो भीतर से शुरू करना चाहता हो, उसे खोज का अंत इसी क्षण कर देना पड़ेगा, तो भीतर की खोज शुरू होगी।
विज्ञान खोज है और धर्म अ-खोज है। विज्ञान खोज कर पाता है। धर्म स्वयं को खो कर पाता है। खोज कर नहीं पाता।
तो मैंने जो बात कही है, वह विज्ञान को ध्यान में लेकर नहीं कही है। वह मैंने साधक को, साधना को, धर्म को ध्यान में रख कर कही है। कि जिसे स्वयं के सत्य को पाना है, उसे सब खोज छोड़ देनी चाहिए। विज्ञान की खोज में जिसे जाना है, उसे खोज करनी पड़ेगी। लेकिन ध्यान रहे, कोई कितना ही बड़ा वैज्ञानिक हो जाए, और बाहर के जगत के कितने ही सत्य खोज ले, तो भी स्वयं के सत्य जानने के संबंध में वह उतना ही अज्ञानी होता है, जितना कोई साधारण जन।
इससे उलटी बात भी सच है। कोई कितना ही परम आत्मज्ञानी हो जाए, कितना ही बड़ा आत्मज्ञानी हो जाए, वह विज्ञान के संबंध में उतना ही अज्ञानी होता है जितना कोई साधारणजन।
कोई महावीर, बुद्ध या कृष्ण के पास आप पहुंच जाएं कि एक छोटा सा मोटर ही लेकर कि जरा इसको सुधार दें। तो आत्मज्ञान काम नहीं पड़ेगा। और आइंस्टीन के पास आप पहुंच जाएं, और आत्मा के रहस्य के संबंध में कुछ जानना चाहें, तो कोई आइंस्टीन की वैज्ञानिकता काम नहीं पड़ेगी।
वैज्ञानिकता एक तरह की खोज है। एक आयाम है। धर्म बिलकुल दूसरा आयाम है, दूसरी, दूसरी ही दिशा है। और इसीलिए तो यह नुकसान हुआ। पूरब के मुल्कों ने भारत जैसे मुल्कों ने भीतर की खोज की इसलिए विज्ञान पैदा नहीं हो सका। क्योंकि भीतर के सत्य को जानने का रास्ता बिलकुल ही उलटा है। वहां तर्क भी छोड़ देना है। विचार भी छोड़ देना है। इच्छा भी छोड़ देनी है। खोज भी छोड़ देनी है। सब छोड़ देना है।
भीतर की खोज का रास्ता सब छोड़ देने का है। इसीलिए भारत में विज्ञान पैदा नहीं हो सका। पश्चिम ने बाहर की खोज की। बाहर की खोज करनी है, तर्क करना पड़ेगा, विचार करना पड़ेगा, प्रयोग करना पड़ेगा, खोज करनी पड़ेगी, तब विज्ञान का सत्य उपलब्ध होगा। तो पश्चिम ने विज्ञान के ज्ञान को तो पाया, लेकिन धर्म के मामले में वह शून्य हो गया। और अगर किसी संस्कृति को पूरा होना है, तो उसमें ऐसे लोग भी चाहिए जो भीतर खोजते रहें। जो बाहर की सब खोज छोड़ दें। और ऐसे लोग भी चाहिए जो बाहर खोजते रहें और बाहर के सत्य को भी जानते रहें।
हालांकि एक ही आदमी; एक ही साथ वैज्ञानिक और धार्मिक भी हो सकता है। कोई ऐसा न सोचे कि कोई धार्मिक हुआ तो वह वैज्ञानिक नहीं हो सकता। कोई ऐसा भी न सोचे कि कोई वैज्ञानिक हो गया तो वह धार्मिक नहीं हो सकता। लेकिन अगर यह दोनों काम करने हों तो दो दिशाओं में काम करना पड़ेगा।
जब वह विज्ञान की खोज करेगा, तो तर्क, विचार और प्रयोग का उपयोग करना पड़ेगा। और जब स्वयं की खोज करेगा, तो तर्क, विचार और प्रयोग, सब छोड़ देना पड़ेगा। एक ही आदमी दोनों हो सकता है।
लेकिन दोनों होने के लिए उसे दो तरह के प्रयोग करने पड़ेंगे। अगर किसी देश ने यह तय किया कि हम सब खोज छोड़ देंगे, कुछ न खोजेंगे। तो देश शांत तो हो जाएगा, लेकिन शक्तिहीन हो जाएगा। शांत तो हो जाएगा, सुखी हो जाएगा, लेकिन बहुत तरह के कष्टों से घिर जाएगा। भीतर तो आनंदित हो जाएगा, बाहर गुलाम हो जाएगा। दीन-हीन हो जाएगा।
किसी देश ने अगर तय किया कि हम बाहर की ही खोज करेंगे। संपन्न हो जाएगा, शक्तिशाली हो जाएगा, समृद्ध हो जाएगा। कष्ट बिलकुल न रह जाएंगे। लेकिन भीतर अशांति और दुख और विक्षिप्तता घेर लेगी। किसी देश को अगर सम्यक संस्कृति पैदा करनी हो तो दोनों दिशाओं में काम करना पड़ेगा। और किसी व्यक्ति को अगर मौज हो तो दोनों दिशाओं में काम कर सकता है।
वैसे परम लक्ष्य मनुष्य का धर्म है। विज्ञान केवल जीवन को गुजरने का जो रास्ता है, उसे थोड़ा ज्यादा सुंदर, ज्यादा शक्तिशाली, ज्यादा संपन्न बना सकता है। लेकिन परम शांति और परम आनंद तो धर्म से उपलब्ध होते हैं।

दूसरे मित्र ने जो पूछा है: बहुत से प्रश्न पूछ लिए हैं, एक-दो प्रश्न उसमें से ले लें, फिर जो बाकी बचेंगे, वे कल ले लेंगे।
उन्होंने पूछा है कि प्रार्थना किसकी?

अगर प्रार्थना किसी की भी की तो वह प्रार्थना नहीं होगी। लेकिन प्रार्थना से मतलब ऐसा निकलता है कि किसी की करनी है। और किसी लिए करनी है। कोई कारण होगा। कोई प्रार्थी होगा और किसी से करेगा। तो हमें ऐसा लगता है, प्रार्थना तो हो ही नहीं सकती अगर कोई कारण नहीं है और किसी के करने वाला नहीं है। अकेला करने वाला क्या करेगा? कैसे करेगा?
और मेरा कहना यह है कि प्रार्थना अगर ठीक से हम समझें तो कोई क्रिया नहीं है, बल्कि एक वृत्ति है। प्रेयरफुल मूड। प्रेयर नहीं है सवाल। प्रेयरफुल मूड। प्रार्थना नहीं है सवाल। प्रार्थनापूर्ण हृदय। यह बिलकुल और बात है।
आप रास्ते से निकल रहे हैं। एक प्रार्थनाशून्य हृदय है, रास्ते के किनारे कोई गिर पड़ा है और मर रहा है, वह प्रार्थनाशून्य हृदय ऐसे निकल जाएगा, जैसे रास्ते पर कुछ भी नहीं हुआ। लेकिन प्रार्थनापूर्ण हृदय जो है, वह कुछ करेगा, वह जो गिर गया है, उसे उठाएगा, कुछ चिंता करेगा, दौड़ेगा, भागेगा, उसे कहीं पहुंचाएगा। अगर रास्ते पर कांटे पड़े हैं, तो एक प्रार्थनाशून्य हृदय कांटों से बच कर निकल जाएगा, लेकिन कांटों को उठाएगा नहीं। प्रार्थनापूर्ण हृदय उन कांटों को उठाने का श्रम लेगा, उठा कर उन्हें अलग फेंकेगा।
प्रार्थना पूर्ण हृदय का मतलब है: प्रेमपूर्ण हृदय। और जब कोई व्यक्ति का प्रेम एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति के प्रति होता है, तो हम उसे प्रेम कहते हैं। और जब किसी व्यक्ति का प्रेम किसी से बंधा नहीं होता, समस्त के प्रति होता है, उसे तब मैं प्रार्थना कहता हूं।
प्रेम है दो व्यक्तियों के बीच का संबंध और प्रार्थना है एक और अनंत के बीच का संबंध। वह जो सब हमारे चारों तरफ फैला हुआ है, पौधे हैं, पक्षी हैं, सब, उस सब के प्रति जो प्रेमपूर्ण है, वह प्रार्थना में है। प्रार्थना का मतलब यह नहीं कि कोई मंदिर में कोई आदमी हाथ जोड़ कर बैठा है, तो वह प्रार्थना कर रहा है। प्रार्थना का मतलब है, ऐसा व्यक्ति जो जीवन में जहां भी आंख डालता है, हाथ रखता है, पैर रखता है, श्वास लेता है, तो हर घड़ी प्रेम से भरा हुआ है, प्रेमपूर्ण है।
एक मुसलमान फकीर था। जिंदगी भर मस्जिद गया। बूढ़ा हो गया है। एक दिन लोगों ने मस्जिद में नहीं देखा, तो सोचा, क्या मर गया? क्योंकि वह जीते जी तो नहीं मस्जिद आए, यह असंभव है। तो वे उसके घर गए, वह तो बैठा था बाहर दरवाजे पर। कुछ खंजड़ी बजा कर गीत गाता था। तो लोगों ने कहा, यह तुम क्या कर रहे हो? क्या आखिरी वक्त नास्तिक हो गए? प्रार्थना नहीं करोगे?
उस फकीर ने कहा, प्रार्थना के कारण ही आज मस्जिद नहीं आ सका।

उन्होंने कहा, क्या मतलब? मस्जिद नहीं आए प्रार्थना के कारण! मस्जिद के बिना प्रार्थना हो कैसे सकती है?
उस आदमी ने अपनी छाती खोल दी। उसकी छाती में एक नासूर हो गया है। जिसमें कीड़े पड़ गए हैं। तो उसने कहा कि कल में गया था। और जब नमाज पढ़ने के लिए झुका, तो कुछ कीड़े मेरी छाती से नीचे गिर गए। और मुझे खयाल हुआ कि ये तो मर जाएंगे, बिना नासूर के जीएंगे कैसे? तो फिर आज में झुक नहीं सकता हूं। प्रार्थना के कारण आज मस्जिद नहीं आ सका।
यह प्रार्थना बहुत कम लोगों की समझ में आएगी। लेकिन जब में प्रार्थना की बात करता हूं, तो मेरे प्रार्थना का यही अर्थ है। प्रेयरफुल मूड, प्रेयरफुल एटिटयूट। वह हम जो जी रहे हैं, उसमें सब तरफ हम कितने प्रार्थनापूर्ण हो सकते हैं। यह सवाल है।
किसी भगवान या किसी देवता की आराधना की बात नहीं है। प्रार्थना मेरे लिए प्रेम का ही अर्थ रखती है। तो मैं निरंतर कहता हूं, प्रेम ही प्रार्थना है। अगर हम एक व्यक्ति से बंध जाते हैं, तो प्रेम की धारा रुक जाती है और प्रेम मोह बन जाता है। और अगर हम फैल जाते हैं और प्रेम की धारा मुक्त हो जाती है, तो प्रेम प्रार्थना बन जाती है।
इसे थोड़ा खयाल कर लेना। अगर एक व्यक्ति पर प्रेम रुक जाए तो मोह बन जाता है। और बंधन का कारण हो जाता है। और अगर फैलता चला जाए प्रेम और सब पर फैलता चला जाए और धीरे-धीरे बेशर्त हो जाए, अनकंडिशनल हो जाए, हमारी कोई शर्त न रह जाए कि हम इससे प्रेम करेंगे। हमारा केवल एक भाव रह जाए कि हम प्रेम ही कर सकते हैं, हम कुछ और कर ही नहीं सकते।
राबिया नाम की एक फकीर औरत थी। कुरान में कहीं है, शैतान से घृणा करो। तो उसने वह लकीर काट दी। कोई मित्र ठहरा हुआ था, उसने कहा कुरान में संशोधन किसने किया। कुरान में कोई संशोधन कर सकता है। धर्म ग्रंथों पर संशोधन नहीं हो सकता
राबिया ने कहा, मुझे ही करना पड़ा। क्योंकि इसमें लिखा है शैतान से घृणा करो। और मैं तो घृणा करने में असमर्थ हो गई। जब से प्रार्थना पूरी हुई। तब से मैं घृणा नहीं कर सकती हूं। अगर शैतान मेरे सामने खड़ा हो जाए, तो भी मैं प्रेम करने को ही मैं मजबूर हूं। यह सवाल उसका नहीं है कि वह कौन है? यह सवाल मेरा है। क्योंकि मेरे पास सिवाय प्रेम के कुछ है ही नहीं। तो मुझे यह लकीर काट देनी पड़ी।
यह लकीर ठीक नहीं है, अब तो मेरे सामने भगवान आए तो और शैतान आए तो मैं प्रार्थना ही कर सकती हूं। मैं प्रेम ही कर सकती हूं। और इसलिए अब मुश्किल है पहचानना कि कौन है शैतान और कौन है भगवान। और अब पहचानने की कोई जरूरत भी नहीं है। क्योंकि वही मुझे करना है चाहे कोई भी हो।
प्रेम एक पर रुक कर बंधन बन जाता है, मोह बन जाता है। जैसे नदी रुक जाए और डबरा बन जाए। समझ लेना, नदी रुक जाए और डबरा बन जाए। बहे ना गोल घूमने लगे। एक तालाब बन गया, सड़ेगा, खराब होगा, बहेगा नहीं। नदी अगर रुक जाए, तो डबरा बन जाती है। और नदी अगर बह जाए, और फैल जाए तो सागर बन जाती है।
वह जो प्रेम की धारा है हमारे भीतर, अगर एक व्यक्ति के आस-पास डबरा बना ले, या दो-चार व्यक्तियों के आस-पास डबरा बना ले। बेटे के पास, पत्नी के पास, मित्र के पास डबरा बना ले, तो प्रेम की धारा वहीं सड़ जाती है। फिर उस प्रेम से सिवाय दुर्गंध के और कुछ नहीं उठता। इसलिए सब परिवार दुर्गंध के केंद्र हो गए हैं। वे सब डबरे बन गए हैं। और डबरे में गंध आएगी। सब संबंध हमारे सड़ गए हैं। क्योंकि प्रेम जहां रुका वहीं सड़ांध शुरू हो जाती है। किसी पति-पत्नी के बीच सड़ांध के सिवाय और कुछ भी नहीं है। बाप और बेटे के बीच कुछ नहीं है। जहां प्रेम रुका, वहीं उसकी निश्छलता गई, उसका निर्दोषपन गया, उसकी ताजगी गई। और हम अपने मोह में, इस डर से कि कहीं प्रेम सब पर बंट न जाए, रोकने की कोशिश करते हैं। सब रोकने की कोशिश करते हैं। रुक जाए तो शायद ज्यादा मिले। और मजा यह है कि रुका कि सड़ा। फिर तो मिलता ही नहीं।
बढ़ जाए, फैल जाए, फैलता चला जाए, जितना फैलेगा प्रेम, जितना अधिकतम तक पहुंचेगा, उतना ही वह प्रार्थना बनता चला जाएगा। और अंत में प्रेम बढ़ते-बढ़ते सागर तक पहुंच जाता है। और वह प्रेम प्रार्थना बन जाता है।
तो किससे का सवाल नहीं है। किससे आपने पूछा, तो आप इसीलिए पूछ रहे हैं कि किस से बांधें। राम से बांधे कि कृष्ण से कि महावीर से कि बुद्ध से। तो वह जो हम व्यक्तिगत रूप से प्रेम बांधे हुए हैं। प्रार्थना तक बांधते हैं। अगर शिव के मंदिर जाने वाला पागल है तो वह राम के मंदिर नहीं जाएगा। अगर कृष्ण का भक्त है तो वह राम को नमस्कार नहीं करेगा। उसके साथ आत्मा भी बंधी हुई है।
रास्ते पर इतने मंदिर पड़ते हैं; अपना-अपना मंदिर है। अब मंदिर भी कहीं अपना-अपना हो सकता है? मंदिर भी अपना-अपना? मंदिर तो परमात्मा का हो सकता है। लेकिन सब के अपने-अपने मंदिर हैं।
उन मंदिरों में भी संप्रदाय हैं। महावीर को मानने वाले एक ही मंदिर में मुकदमे बाजी करेंगे। क्योंकि किसी का महावीर कपड़े पहनता है, किसी का महावीर नंगा रहता है। नंगा रहने वाला कपड़े नहीं पहनने देगा। कपड़े पहनने वाला नंगा नहीं रहने देगा। और झगड़ा जारी है। बड़े मजे की बात है।
मैंने एक घटना सुनी, एक गांव में गणेश का उत्सव होता है। गणेश निकलते हैं। सारे गांव के अलग-अलग लोग अलग-अलग गणेश बनाते हैं, सबके अपने-अपने गणेश हैं।
ब्राह्मणों का गणेश अलग हैं। लोहारों का गणेश अलग हैं। बनियों का गणेश अलग हैं। शूद्रों के गणेश अलग हैं। और सबके गणेश; उनका जुलूस निकलता है। सबसे पहले ब्राह्मण का गणेश होता है। नियम से ऐसा ही चलता है।
लेकिन उस दिन क्या हुआ कि ब्राह्मणों के गणेश के आने में जरा देरी हो गई और तेलियों का गणेश पहले पहुंच गया। जब ब्राह्मण आए, तो तेलियों का गणेश आगे हो गया। यह बर्दाश्त के बाहर है।
क्योंकि तेलियों का गणेश और आगे हो जाए। तो ब्राह्मणों ने कहा, हटाओ, साले तेलियों के गणेश को।
गणेश भी तेलियों का है। हटाओ इसको पीछे। कभी ऐसा हुआ है? ब्राह्मणों का गणेश आगे होता है।
और तेलियों के गणेश को पीछे हटा दिया गया जबरदस्ती। और ब्राह्मणों का गणेश आगे हो गया।
अगर गणेश कहीं भी होंगे, तो अपनी खोपड़ी ठोक रहे होंगे। गणेश के पीछे कोई प्रयोजन है? अपने गणेश!
और उसमें भी फर्क है। प्रार्थना भी बंधती है, वह पूछती है किससे? किसकी प्रार्थना करें। किसी की भी नहीं। प्रार्थना का मतलब ही यह है; सब की। वह जो समस्त फैला हुआ है, सर्व जो फैला हुआ है। उसके प्रति जो प्रेम का भाव है उसका नाम प्रार्थना है।
यह हाथ जोड़ने का मामला नहीं है। कि हाथ जोड़ लिए, निपट गए। यह चौबीस घंटे जीने का मामला है। इस तरह जीना है कि सब के प्रति प्रेम बहता रहे तो प्रार्थना पूरी होगी। लेकिन बेईमानों ने तरकीबें निकल ली है असली प्रार्थना से बचने की। वे दो मिनट के लिए जाकर, हाथ जोड़ कर मंदिर से लौट आते हैं; कहते हैं, हम प्रार्थना कर आए।
ये तरकीबें हैं। और बेईमानियां हैं। इस तरह तरकीब यह है कि हम किस तरह बच जाएं असली प्रार्थना से।
प्रेम ही प्रार्थना है। समस्त के प्रति प्रेम ही प्रार्थना है। हम ऐसे जीएं कि हमारा प्रेम रिक्त न होता हो। हम ऐसे जीएं कि हमारा प्रेम बढ़ता ही चला जाता हो। हम ऐसे जीएं कि प्रेम किसी पर रुकता न हो, ठहरता न हों, हम ऐसे जीएं कि धीरे-धीरे हमारा प्रेम बेशर्त हो जाए। हमारा प्रेम हमेशा शर्त बंद होता है। हम कहते हैं, तुम ऐसा रहोगे तो हम प्रेम करेंगे। तुम ऐसा करोगे, तो हम प्रेम करेंगे। तुम प्रेम करोगे तो हम प्रेम करेंगे।
जहां प्रेम पर शर्त लगी, कंडीशन लगी, वहां प्रेम सौदा हो गया और बाजार हो गया। जब मैंने कहा कि मैं तब प्रेम करूंगा, जब ऐसा होगा।
सुना है मैंने, एक बहुत बड़े संत को, नाम लेना तो ठीक नहीं, क्योंकि नाम लेना इस मुल्क में बड़े खतरे की झंझट है। एक बड़े संत को, जो की राम के भक्त थे। कृष्ण के मंदिर में ले जाया गया। उन्होंने कहा कि जब तक धनुष-बाण हाथ नहीं लोगे, मैं सिर नहीं झुका सकता। बड़े मजे की बात है। प्रेम में भी शर्त की धनुष-बाण हाथ लोगे, तब हम सिर झुकाएंगे। मतलब यह सिर भी शर्त से झुकेगा। हमारी पहले मानो तब हम सिर झुकाएंगे।
यह भक्त भगवान का भी मालिक बनने का, पजेसिव होने की कोशिश कर रहा है। कहता है, इस तरह व्यवहार करो, तब हम सिर झुकाएंगे। नहीं तो बात खतम, और नाता-रिश्ता बंद।
यह जो हमारा मस्तिष्क है, यह प्रार्थनापूर्ण नहीं हो सकता। शर्त से बंधा हुआ आदमी कभी प्रार्थनापूर्ण नहीं हो सकता।
बेशर्त! इसलिए नहीं कि तुम कहते हो। इसलिए कि मैं प्रेम ही दे सकता हूं, प्रेम ही देना चाहता हूं, प्रेम ही देने की मेरी क्षमता है। और कुछ मेरे पास नहीं है। तुम क्या करोगे, यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है।
एक छोटी सी बात फिर मैं अपनी बात पूरी करूं। फिर कल, जो प्रश्न रह जाएंगे, हम बात कर लेंगे।
बुद्ध के पास एक दिन सुबह-सुबह एक आदमी आया और उनके ऊपर थूक दिया। बुद्ध ने चादर से अपना मुंह पोंछ लिया और उस आदमी से कहा, और कुछ कहना है? कोई आदमी आपके ऊपर थूके, तो आप यह कहेंगे कि कुछ और कहना है? पास बैठे भिक्षु तो क्रोध से भर गए। उन्होंने कहा, यह क्या आप पूछ रहे हैं? कुछ और कहना है?
बुद्ध ने कहा, जहां तक मैं जानता हूं, इस आदमी के मन में इतना क्रोध है, कि शब्दों से नहीं कह सका, थूक कर कहा है। लेकिन मैं समझ गया। इसे कुछ कहना है। क्रोध इतना ज्यादा है कि शब्द से नहीं कह पाता है। थूक कर कहता है।
प्रेम ज्यादा होता है आदमी शब्द से नहीं कहता, किसी को गले लगा कर कहता है। इसने थूक कर जो कहा है हम समझ गए। अब और भी कुछ कहना है कि बात खत्म हो गई।
वह आदमी तो हैरान हो गया। क्योंकि यह तो सोचा ही नहीं था कि थूकने का यह उत्तर मिलेगा। उठ कर चला गया। रात भर सो नहीं सका। दूसरे दिन क्षमा मांगने आया। बुद्ध के पैर पड़ गया, आंसू गिराने लगा।
जब उठा तो बुद्ध ने कहा, और कुछ कहना है?
तो आस-पास के भिक्षुओं ने कहा, आप क्या कहते हैं?
उन्होंने कहा, देखो न मैंने तुमसे कल कहा था, अब यह आदमी आज भी कुछ कहना चाहता है, लेकिन ऐसे भाव से भर गया है कि आंसू गिराता है, शब्द नहीं मिलते। पैर पकड़ता है, शब्द नहीं मिलते। हम समझ गए। लेकिन कुछ और कहना है?
उस आदमी ने कहा, कुछ और तो नहीं, यही कहना है कि रात भर मैं सो नहीं सका। क्योंकि मुझे लगा कि आज तक सदा आपका प्रेम मिला, थूक कर मैंने योग्यता खो दी। अब आपका प्रेम मुझे कभी नहीं मिल सकेगा।
बुद्ध ने कहा, सुनो आश्चर्य, क्या मैं तुम्हें इसलिए प्रेम करता था कि तुम मेरे ऊपर थूकते नहीं थे? क्या मेरे प्रेम करने का यह कारण था कि तुम थूकते नहीं थे? तुम कारण ही नहीं थे मेरे प्रेम करने में। मैं प्रेम करता हूं, क्योंकि मैं मजबूर हूं। प्रेम के सिवाय कुछ भी नहीं कर सकता हूं।
एक दीया जलता है, कोई भी उसके पास से निकले। वह इसलिए थोड़े ही उसके ऊपर उसकी रोशनी गिरती है कि तुम कहते हो। रोशनी दीये का स्वभाव है; वह गिरती है, तो कोई भी निकले, दुश्मन निकले दोस्त निकले, दीये को बुझाने वाला दीये के पास आए तो भी रोशनी गिरती है।
तो बुद्ध ने कहा, मैं प्रेम करता हूं क्यों मैं प्रेम हूं। तुम कैसे हो, यह बात अर्थहीन है। तुम थूकते हो कि पत्थर मारते हो कि पैर छूते हो, यह बात निष्प्रयोजन है। इससे कोई संगती नहीं है। यह संदर्भ नहीं है।
तुम्हें जो करना हो तुम करो। मुझे जो करना है मुझे करने दो। मुझे प्रेम करना है। वह मैं करता रहूंगा। तुम्हें जो करना है, वह तुम्हें करते रहना है। और देखना यह है कि प्रेम जीतता है कि घृणा जीतती है? यह आदमी प्रेमपूर्ण है। यह आदमी प्रेयरफुल है। यह आदमी प्रार्थनापूर्ण है। ऐसे चित्त का नाम प्रार्थना है।

और जो रह गए हैं, कल बात करेंगे।

उपासना का मतलब होता है उसके पास बैठना। तो जितना द्वेष होगा, उतनी आदमी से उसकी दूरी होगी, उतनी उपासना कम होगी। जो जितना अभेद होगा, उतने ही उसके निकट हम बैठ पाएंगे। उपवास का भी वही अर्थ होता है, उपासना का भी वही अर्थ होता है। उपवास का अर्थ होता है: उसके निकट रहना, इसका मतलब भूखे मरना नहीं है। तो उसके निकट हम कैसे पहुंच जाएं? और अगर उसकी निकटता में थोड़ी भी दूरी रही, तो दूरी रही। तो उसके निकट तो हम वही होकर ही हो सकते हैं। कितनी भी निकटता रही, तो भी दूरी रही। निकटता भी दूरी का ही नाम है। वह कम दूरी का नाम, ज्यादा दूरी का नाम। ठीक निकट तो हम तभी हो सकते हैं, जब हम वही हो जाएं।
तो यह तो हम जितने साक्षी-भाव में जाएंगे, उतना ही वह जो द्वैत है, उसको छोड़ते हैं। और वह जो एक है, वह जो मैं ही हूं, उसमें बैठते हैं।
जिस दिन यह पूरा हो जाएगा, उस दिन साक्षी-भाव भी नहीं रह पाएगा, विलीन हो जाएगा। क्योंकि साक्षी-भाव में भी द्वैत की अंतिम सीमा है। जिस दिन यह पूरा हो जाएगा, उस दिन यह सवाल ही नहीं कि मैं साक्षी हूं। क्योंकि किसका साक्षी हूं और कौन साक्षी है। वह दोनों नहीं रहे। वह तो जब तक हम दृश्य से मुक्ति होने की कोशिश कर रहे हैं, तब तक द्रष्टा पर जोर देना है। जैसे ही दृश्य से मुक्त हो गए, द्रष्टा भी गया। फिर तो वही रह गया। न वहां कोई दृश्य है, न वहां कोई द्रष्टा है। और यही उपासना का वास्तविक अर्थ होता है।
हमारी कठिनाई क्या हो गई कि हमेशा जो भी कहा जाएगा, वह थोड़े दिन में जड़ हो जाता है। और फिर उसके निषेध करने की जरूरत पड़ जाती है। और तब ऐसा लगता है कि ये कोई चीज तोड़ने के लिए कह रहे हैं, कोई चीज छोड़ने के लिए कह रहे हैं। लेकिन हर बार निषेध फिर मूल पर पड़ जाता है। और निषेध से फिर मूल पर वापस पहुंचना पड़ता है। और नहीं तो बीच में बहुत जाल खड़ा हो जाता है, उसको फिर तोड़ने की जरूरत पड़ जाती है।
निषेध की भाषा में सिर्फ इसलिए बोलना पड़ता है कि विदेह की भाषा में बोलने पर, सारा क्रियाकांड चलता है सवाल का। इसलिए निषेध करना और अंतिम वहां तक ले जाना है, जहां सब निषिद्ध हो जाए। वह द्रष्टा भी निषिद्ध हो जाए। उसके निकटतम जो द्वैत है, वह साक्षी का है। अद्वैत के जो निकटतम द्वैत है, वह साक्षी का है। यानी जो उसको हम आखिरी में छोड़नी चाहिए। इसको कहना चाहिए न्यूनतम बुराई है।
यह भी बुराई है, यह भी जानी चाहिए। सबसे आखिरी बुराई है। और यह...
और इससे दूर हम दृश्य को पकड़ते हैं, तब हम बहुत दूर फासले पर हैं। तब दृश्य से द्रष्टा पर आना पड़े। और द्रष्टा से फिर पीछे जाना पड़ा। तो जितना कम से कम पकड़ो, जिसे हम छोड़ सकें, उतना अच्छा है। उसे खयाल में ले लें। पूरी वासना है, इसमें कहीं कोई कमी नहीं।

प्रश्न: अस्पष्ट


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