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बुधवार, 13 सितंबर 2017

भारत का भविष्य—प्रवचन-11



भारत का भविष्य—ओशो
प्रवचन-ग्यारहवां
ए टाक गिवन इन बोम्बे,  इण्डिया।
डिस्कोर्स नं० ११

मेरे प्रिय आत्मन् ,
एक नए भारत की ओर इस संबंध में, मैं थोड़ी-सी बातें आपसे कहना चाहूंगा। पहली बात तो यह कि भारत को हजारों वर्ष तक कि यह पता ही नहीं था कि वह पुराना हो गया  है। असल में पुराने होने का पता ही तब चलता है। जब हमारे पड़ौसी नए हो जाएं। पुराने के बोध के लिए किसी का नया हो जाना जरूरी है।
भारत को हजारों वर्ष तक यह पता नहीं था कि वह पुराना हो गया है। इधर इस सदी में आकर हमें यह प्रतीति होनी शुरू हुई है कि हम पुराने हो गए हैं। इस प्रतीति को झुठलाने की हम बहुत कोशिश करते हैं। क्योंकि यह बात मन को वैसे ही दुःख देती है। जैसे किसी बूढ़े आदमी को जब पता चलता है कि वह बूढ़ा हो गया है तो दुःख शुरू होता है।

बूढ़ा होना जैसा दुःखद है वैसा किसी राष्ट्र के बूढ़े हो जाने का भी दुःख है। बूढ़ा आदमी चाहे तो अपने बुढ़ापे को झुठलाने कि कोशिश कर सकता है। लेकिन झुठलाने से बुढ़ापा कम नहीं होता।
भारत भी इधर पचास वर्षों से निरंतर यह बात इनकार करने की कोशिश कर रहा है कि हम पुराने हो गए हैं। इस इनकार करने की उसने कुछ मानसिक व्यवस्था की है वह समझना जरूरी है।
एक तो भारत यह कहता है कि जो भी श्रेष्ठ, जो भी सत्य, जो भी सुंदर है। वह उसे उपलब्ध  हो ही चुका है इसलिए नए होने की अब कोई जरूरत नहीं। विकास की जरूरत तो वहां है जहां अविकसित हो कोई। लेकिन जिस देश यह खयाल हो कि विकास हो ही चुका है। वहां अब विकास के अपरिवर्तन की कोई गुंजाईश नहीं है। हमें विकास न करना पड़े। हमें परिवर्तन न करना पड़े। इस बात को इनकार करने के लिए हम यह मान कर बैठ गए हैं कि हमने सब पा लिया है।
यह भ्रम हम पाल सकते थे अगर दुनिया के हम संपर्क में ना आए होते। अपने-अपने कुएं में हर आदमी यह सोच सकता है कि उसने सब पा लिया है। अपने कुएं में बंद अपनी ही संस्कृति अपनी ही सभ्यता के घेरे में घिरे हुए। इस बात को मानने में बहुत कठिनाई न थी कि हम पूर्ण हो गए हैं। लेकिन चारों तरफ दुनिया कि हवाओं ने हमारी पूर्णयता की नींद को पूरी तरह तोड़ दिया है।
हजार वर्ष की लम्बी गुलामी ने हमें यह भी बता दिया हैं कि हमारी शक्ति कितनी है। सैकड़ों वर्ष की दरिद्रता ने हमें यह भी बता दिया है। हमारी सामर्थ, हमारी संपदा कितनी है। दुनिया भर के सामने भीख मांग कर हम किसी भांति जिंदा हैं उसने हमें यह भी बता दिया है कि हमारी समझ कितनी है सारी दुनिया ने हमें एक ऐसी स्थिति में खड़ा कर दिया है जहां हमें यह अहसास करना अनिवार्य हो गया है कि हम बूढ़े हो गए हैं, पुराने हो गए हैं और अब नए हुए बिना जीवन का कोई रास्ता अब आगे नहीं हो सकता है। लेकिन हम इसे इनकार अगर करें तो हम इनकार करते रह सकते हैं। हम मानते रह सकते हैं कि हम पूर्ण हो गए हैं और डर यही कि हजारों वर्ष की अपनी मानयता को जिंदगी के नए तथ्यों के सामने आंख बंद करके मानते ही चले जाएं।
उस हालत में सिवाए मृत्यु के भारत के सामने कोई रास्ता न रह जाएगा और इसे मृत्यु कहना भी ठीक न होगा इसे आत्मघात सौसाईड कहना ही ठीक होगा। क्योंकि इसके लिए कोई और जिम्मेदार नहीं है हम ही जिम्मेदार होंगे।
दूसरी बात--भारत ने कभी भी नए की स्वीकृति नहीं की। असल में भारत मानता ही नहीं रहा कि पृथ्वी पर कुछ नया भी होता है। हम मानते रहे हैं कि पृथ्वी पर चांद तारों के नीचे जो भी है सब पुराना है। इसलिए भारत ने इतिहास नहीं लिखा,  हिस्ट्री नहीं लिखी।
हमें कोई हिस्टोरिक सेंस, इतिहास का बोध भी नहीं। न लिखने का कारण था क्योंकि अगर दुनिया में नई चीजें घटती हों तो इतिहास लिखने का कोई अर्थ. . .क्योंकि पुरानी चीजें दोबारा नहीं घटेंगी उनकी स्मृति रखना जरूरी है। लेकिन अगर वही-वही चीजें रोज-रोज घटती हो तो इतिहास बेईमानी है। इसलिए भारत ने कोई इतिहास नहीं लिखा। न तो हम राम के बाबत निश्चित हो सकते हैं कि वह कभी हुए थे। न हम कृष्ण के बावत निश्चित सकते है कि वह कभी हुए थे!
हम कभी सुनिश्चित रूप से घोषणा नहीं कर सकते क्योंकि हमने कोई इतिहास लिख कर नहीं रखा है। नहीं रखा इसलिए क्योंकि जो बातें बार-बार हुई हैं उन्हें लिखने कि क्या जरूरत है? जब सभी कुछ पुराना है पृथ्वी पर, तो इतिहास की कोई जरूरत नहीं। इतिहास की जरूरत तो केवल उन लोगों को है जो यह मानते हैं कि पुराना दोबारा नहीं घटेगा, रोज सब नया होता चला जाएगा। इसलिए पुराने की स्मृति को संरक्षित रखना जरूरी है। हम तो पुराने को ही संरक्षित किए हुए हैं तो पुराने की स्मृति को संरक्षित करने की क्या जरूरत है? इसलिए हमने कभी इतिहास नहीं लिखा और हमारे सामने भविष्य की कभी कोई दृष्टि नहीं रही। हमारे सामने अतीत ही सब कुछ रहा। भविष्य हमारे लिए अर्थहीन हैं अर्थ है तो अतीत में है वह जो बीत गया है। क्यों, क्योंकि जो बीत गया वही बीतता रहेगा बार-बार। भविष्य में कुछ भी नया छिपा नहीं है जो हमारे लिए प्रकट होगा।
इस मानसिक व्यवस्था से हम पुराने रहने की तैयारी जुटाए रखें। हम पुराने थे लेकिन हमें पता नहीं चलता था। गरीबी भी तब पता चलती है जब हम किसी अमीरी के निकट आ जाएं और कुरूपता का भी बोध तब होता है जब सौंदर्य पास खड़ा हो जाए और सफेद रेखाएं काले ब्लैकबोर्ड पर दिखाई पड़नी शुरू हो जाएं। चारों तरफ सारी दुनिया नई हो गई है सब कुछ नया हो गया।उसके बीच हम एक म्यूजियम की भांति पुराने रह गए हैं। जहां भी हम आंख उठाते हैं वहां हमें फौरन पता लगता है कि हम पुराने पड़ गए हैं।
अब हमारे बीच जिनकी बुद्धि शतुरमुर्ग जैसी है और वैसे बुद्धिमान लोग हमारे बीच बड़ी तादाद में हैं। तो हम जानते हैं कि शतुरमुर्ग का आपना लौजिक है अगर दुश्मन उस पर हमला कर रहा हो तो वह सिर को रेत में गड़ा कर खड़ा हो जाता है। जब उसका सिर रेत में गड़ जाता है तो उसे दिखाई नहीं पड़ता कि दुश्मन सामने है और शतुरमुर्ग का तर्क यह है कि जब दुश्मन दिखाई नहीं पड़ता तो दुश्मन है नहीं। लेकिन दुश्मन नहीं दिखाई पड़ने से मिट नहीं जाता। बल्कि दिखाई पड़ते हुए दुश्मन से तो हम सुरक्षा का उपाय कर सकते हैं संघर्ष कर सकते हैं न दिखाई पड़ने वाले दुश्मन के हाथ में हम निहत्थे हो जाते हैं निशस्त्र हो जाते हैं और दुश्मन पूरी ताकत हमारी आंख बंद होने की वजह से पा जाता है।
भारत में जिन्हें हम बुद्धिमान लोग कहते हैं वह सारे बुद्धिमान  शतुरमुर्गी तर्क को विश्वास कहते हैं। वह कहते हैं देखो मत चारों तरफ आंख बंद रखो तो हम अपने पुराने सपनों में खोए रह सकते हैं और हम कह सकते हैं कि हम पुराने नहीं।
इसलिए भारत में हजारों सैकड़ों साल तक परदेश जाने की पाबंदी रखी है। दूसरे देश जाने पर हमने अपने बच्चो पर रोक लगाई है। रोक इसलिए लगाई कि दूसरे देश में देखकर नए कि संभावनाएं शुरू हो जाएंगी। सैकड़ों वर्षों तक हमने दूसरों के शास्त्र नहीं देखे। सैकड़ों वर्षों तक हमने दूसरों के दर्शन और दूसरों के विज्ञान पर आंख न डाली। हम शतुरमुर्ग की तरह अपने सिर को खपा कर खड़े रहे। लेकिन अब अजीब दुश्मन से पाला पड़ा है। वह शतुरमुर्ग की गर्दन को बाहर निकालकर उसे दर्शन दे रहा है और अब कोई उपाय नहीं है हमें दर्शन करने ही पड़ेंगे।
यह जो दुनिया है बहुत अर्थों में छोटी हो गई है। मार्शल मेल्कुलूहान ने एक शब्द का उपयोग किया है वह ठीक है। उसका कहना है कि दुनिया अब गिलोवर वीलेज है एक जागृतिक गांव हो गई है एक छोटा गांव हो गई है। इसलिए अब पड़ोसियों से बचना मुश्किल है और चारों तरफ नई होती जिंदगी अब हमें पुराना न रहने देगी। अब दो ही उपाय है या तो हम स्वीकार से और आनंद से नए होने की तैयारी में लग जाएं या हम जबरदस्ती और परेशानी में नए बनाए जाएंगे। अगर हम नए बनाए गए तो वह दुःखद होगा अगर हम नए बने तो वह सुखद हो सकता है।
लेकिन अभी भी हम अपनी दलीलें दिए चले जाते हैं अभी भी हम कहे चले जाते हैं कि हम जगतगरु, अभी भी हम कहे चले जाते हैं कि दुनिया हमारी तरफ देख रही है, अब भी हम कहे चले जाते हैं कि दुनिया को हमसे सीखना है, हमसे दुनिया को सीखना पड़ेगा। यह बड़ी खतरनाक बातें हैं यह असल में हमें दुनिया से न सीखना पड़े,  इसकी तरकीब है।
अगर दुनिया से हमें नहीं सीखना है तो हमें यह घोषणा करते ही रहनी चाहिए कि दुनिया हमारी तरफ देख रही है और दुनिया हमसे सीखने को आतुर है। अगर दुनिया से हमें नहीं सीखना है तो हमें अपने मन में यह बात मजबूती से पकड़े रखनी चाहिए कि हम जगतगुरु हैं और सारी दुनिया को ज्ञान देने का ठेका हमारा है। लेकिन ध्यान रहे इस ठेके में हम रोज अज्ञानी होते चले जाएंगे, इस ठेके में हम रोज दीनता और दरिद्रता में गिरते चले जाएंगे।
बहुत कुछ है जो भारत को सीखना पड़ेगा, बहुत कुछ है जो भारत को तोड़ना पड़ेगा और बहुत कुछ है जो नया निर्माण करना पड़ेगा।
इस संबंध में दोत्तीन बातें स्मरणीय हैं एलडीस हेक्सले ने एक शब्द का निर्माण किया है और उसे कहा है--कलचर शाक। असल में दूसरी संस्कृति के संपर्क में जब हम आते हैं तो एक धक्का लगता है। अपरिचित संस्कृति का धक्का जो उस धक्के को झेल लेता है और उस धक्के का मुकाबला कर लेता है वह सबल हो जाता है। जो उस धक्के से भाग खड़ा होता है,  एस्कैप कर जाता है, पीठ दिखा देता है, वह कमजोर हो जाता है।
संस्कृति का धक्का तो ठीक ही है हमें सारी विश्व संस्कृति का धक्का झेलना पड़ रहा है। किसी एक संस्कृति से टक्कर नहीं है अब, अब सारे विश्व की आधुनिकता से हमारी प्राचीनता की टक्कर है। अगर एकआद संस्कृति से टक्कर होती तो शायद हम एस्कैप कर जाते। हम आंख बंद कर लेते और देखने से इनकार कर देते। लेकिन अब सारी दुनिया से टक्कर है और वह टक्कर ऐसी नहीं है कि बातों और विचारो की वह टक्कर अब जिंदगी पेट और रोजी रोटी की भी है। उसे झुठलाया नहीं जा सकता, उसे इनकार भी नहीं किया जा सकता।
यह जो हमारा पुराना पल है यह पहली बार काटें की तरह चुभना शुरू हुआ है। जो हमारी जिंदगी में बूढ़ा हिस्सा है जो, जो पिछली पीढ़ी है, जो पुराने खयाल के लोग हैं। वह जोर से अपनी पुरानी बातों का शोर-गुल मचाना शुरू करेंगे। ताकि उन्हें नई बातें सुनाई न पड़ें। वह बहरे बनने की कोशिश करेंगे।
सुना होगा आपने एक कहानी में कि एक आदमी था जिसने अपने कानों मे घंटे लटका रखे थे। वह अपने घंटों को दिन-रात बजाता रहता था। वह राम का भक्त था और कोई कृष्ण का नाम उसके कान में न चला जाए। इसलिए उसने दोनों कोनों में घंटे बजा रखे थे वह घंटा कर्ण हो गया था। वह अपने घंटे बजाता रहता था और कृष्ण का नाम सुनाई न पड़ जाए।
हम करीब-करीब घंटा कर्ण की हालत में जहां तक पुरानी पीढ़ी का संबंध है। वह अपने कान के घंटे बजाती रहती है ताकि दुनिया भर की आवाजें सुनाई न पड़ जाए। यह बड़ी खतरनाक बात हो सकती है। नई पीढ़ी इससे कम खतरनाक नहीं है, नई पीढ़ी को पुरानी बातें न सुनाई पड़ जाए। वह उसके लिए अपने कानों में घंटे बनाए हुए हैं।
वह भी अपने घंटे बजा रही है कोई राम न सुनाई पड़ जाए किसी कृष्ण न सुनाई पड़ जाए। पुरानी पीढ़ी अपने कानों के घंटे बजा रही है कि दुनिया में जो नई आधुनिकता का एक्सप्लोजन हुआ है। जो नए ज्ञान का विस्फोट हुआ है वह पता न चल जाए। क्योंकि उसके पता चलने से उसके पैर के नीचे की जमीन खिसक जाएगी और नई पीढ़ी उसकी प्रतिक्रिया में रिएकशन में पुराने को सुनने को बिलकुल राजी नहीं है।
ध्यान रहे यह दोनों ही बातें खतरनाक हैं। क्योंकि नई पीढ़ी के पास कोई जड़ें नहीं होगी। और जिस पीढ़ी के पास जड़ें न हो वह ध्यान रहे कि वह अगर फूल भी लाएगी तो वह फूल प्लास्टिक और कागज के होंगे। असली फूल नहीं हो सकते और पुरानी पीढ़ी यह खयाल रखें कि अगर उसके पास नए फूल खिलाने की क्षमता नहीं है तो अकेली जड़ें बहुत कुरूप और बहुत भद्दी बेईमानी है और सिर्फ बोझ बन जाती हैं।
अकेली जड़ों का कोई मूल्य नहीं है। जड़ों की सार्थकता इसमें है कि वह रोज नए फूलों को जन्म दे सके। जड़ें अपने में तो कुरूप होती हैं लेकिन सुंदर फूलों को जन्म देने की क्षमता होती है। तो जड़ें जीवित होती हैं। पुरानी पीढ़ी पुरानी जड़ों को पकड़ कर बैठी है और नए फूलों से डरी हुई है। जड़ें भी सड़ेंगी पुरानी पीढ़ी भी सड़ जाएगी। नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी की बगावत और खिलाफत में जड़ों को इनकार करती है और सिर्फ नए फूलों को लिए बैठी है उसके फूल उधार हैं, उसके फूल मांगे हुए हैं, उसके फूल दूसरों से लिए गए बासे सैकिंडहैंड ही हो सकते हैं।
जो फूल पश्चिम में खिलते हैं, वैसे फूल हमारे यहां भी खिलें यह तो उचित है। लेकिन उन्हीं फूलों को हम हाथ में लिए बैठे रहे यह उचित नहीं। जो फूल सारी दुनिया में खिल रहे हैं वह हमारी जमीन में भी खिले। यह तो सौभाग्य होगा लेकिन हम उन फूलों को उधार ले आएं और अपने घरों के गुलदस्तों में सजा कर बैठ जाएं। इससे हम अपनी दीनता को थोड़ी बहुत देर के लिए छिपा सकते हैं लेकिन मिटा नहीं सकते।
हिंदुस्तान की तकलीफ और हिंदुस्तान की जिद यह है कि पुरानी पीढ़ी जड़ों को पकड़े है और फलों को इनकार कर रही है और नई पीढ़ी फूलों को स्वीकार करती है और जड़ों को इनकार करती  है। यह दोनों ही खतरनाक वृत्ति है और मुझे ऐसे बहुत कम लोग दिखाई पड़ते हैं जो इन दोनों वृत्तियों से भिन्न हैं।
एक तरफ जगतगुरु शंकराचार्य और उनके अनुयायी और दूसरी तरफ नकस्लाईट यह एक ही तरह के लोग हैं इनमे बहुत फर्क नहीं हैं और मजा यह है कि इन दोनों में ही चुनाव करना पड़े हमें। ऐसी स्थिति बना दी है या तो कुआं चुनो या खाई चुनो। यह दोनों बातें खतरनाक हैं।
नए भारत की और तो पहली बात यह समझ लेनी है जरूरी है कि नया भारत अगर नया होगा। तो अपनी पुरानी जड़ों को आत्मसात करके होगा।
नया भारत अगर नया होगा। तो भारत रहते हुए नया होगा। अगर भारत न रह जाए और नया हो जाए। तो उसको नया भारत कहने की कोई जरूरत नहीं है। पुरानी जड़ों को आत्मसात करना होगा और कोई भी कौम अपनी पुरानी जड़ों के बिना, बिलकुल नहीं जी सकती, कोई वृक्ष नहीं जी सकता, कोई कौम भी नहीं जी सकती और एक बार हम अपनी सारी जड़ों को इनकार कर दें। तो हम हॉटहाऊस के पौधे हो सकते हैं। लेकिन हम जिंदगी के तूफानों को झेलने योग्य नहीं रह जाएंगे।
पुरानी जड़ों को आत्मसात करना होगा। पुरानी जड़ों को आत्मसात करने का अर्थ यह है कि भारत जो आज तक रहा है उस भारत के ऊपर ही नई कलमें लगनी चाहिएं। उस पूरे भारत को इनकार कर देने से नई कलमें नहीं लगेंगी। हम सिर्फ उधार और पंगू हो जाएंगे। हम जमीन पर भिखमंगे हो जाएंगे।
पुराने आदमी के साथ खतरा यह है कि वह पुराने के लिए तो राजी है लेकिन नए अंकुर निकलें, नए फूल लगें उनके लिए राजी नहीं। नए आदमी के साथ खतरा यह है कि वह नए के लिए तो राजी है लेकिन पुरानी जड़ों को आत्मसात करने की उसकी जरा भी इच्छा नहीं है। वह इतना भयभीत है कि पुराने के साथ नया कैसे हो सकेगा? लेकिन ध्यान रहे पुराने और नए में दुश्मनी नहीं पुराना ही नया होता है। पुराना और नया दो विरोधी चीजें नहीं है। पुराना ही विकसित होता है और नया होता है।
असल में, जब एक आदमी बूढ़ा हो जाता है तो हमें दिखाई नहीं पड़ता कि यह बूढ़ा आदमी नया होगा यह तो मर जाएगा। लेकिन वह जो नए बच्चे हमें दिखाई पड़ रहे हैं। वह इस बूढ़े की ही प्रतिमाएं हैं, प्रतिरूप हैं। यह बूढ़ा मरने से पहले नए बीज बो जाता है। असल में, सब नए बच्चे पुराने बूढ़ों से पैदा होते हैं।
सब नया पुराने से जन्म पाता है। पुराने और नए के बीच कोई दुश्मनी नहीं है। पुराने और नए के बीच बाप और बेटे का संबंध है। लेकिन बाप और बेटे के बीच ही कोई संबंध नहीं रह गया है। तो पुराने और नए के बीच कैसे संबंध रहेगा। बाप और बेटा दो क्लासिज नहीं हैं, बाप और बेटा दो वर्ग नहीं हैं बाप और बेटे के बीच कोई कोनफलीकट कोई संघर्ष नहीं है और अगर है तो उसका मतलब है बाप और बेटे के बीच बाप और बेटे का संबंध नहीं रहा है। बाप और बेटे के बीच एक प्रवाह है।
असल में, बेटा फिर से बाप को नए अर्थों में जगत में प्रवेश दे रहा है। अगर मैं इस जमीन पर संभव हो पाया हूं तो मेरे पीछे हजारों, लाखों वर्षों के. . .कि यथार्थता है। अगर आप इस जमीन पर पैदा हो पाए हैं। तो हजारों-हजारों पीढ़ियों ने आपको पैदा किया है। आप अपने पिता भी हैं उनके पिता भी हैं, उनके पिता भी हैं, उनके पिता भी हैं, अपनी मां भी हैं उनकी मां भी हैं, उनकी मां भी हैं। आप इन सबके साथ संक्षिप्त हैं।
असल में, वह पुराने हो गए थे। इसलिए उनका जो हिस्सा नया हो सकता था उसे छोड़कर वह विदा हो गए हैं और वह नया हिस्सा जीवन को चला रहा है। पुराना ही रोज नया हो रहा है और ध्यान रहे नया ही रोज पुराना भी हो रहा है। कोई पुराना ऐसा नहीं जो कभी नया न रहा हो और कोई नया ऐसा नहीं है जो कल पुराना न हो जाए।
इसलिए नए और पुराने के बीच दुश्मनी का खयाल खतरनाक है। नए और पुराने के बीच एक प्रवाह है, एक गति है, एक अंतृर संबंध है, एक यात्रा है, एक परोसिस है। असल में, पुराना प्रारंभ बिंदू है, नया अंत बिंदू है। जैसे जन्म और मृत्यु आमतौर से दिखाई पड़ती है दो चीजें हैं लेकिन दो चीजें नहीं हैं। जन्म ही विकसित होते-होते मौत बन जाती है और जो लोग जानते हैं वह ही कहेंगे मौत ही विकसित होते-होते फिर नया जन्म बन जाती है।
तो पहली बात जो मैं आपसे कहना चाहता हूं, भारत अगर एक नया भारत होना चाहता है तो उसे बड़ा अदभुत काम करना होगा, उसे बड़ा बेलैसिंग एक्ट करना है, एक बड़ी संतुलन की व्यवस्था करनी है। कभी अगर रस्सी के ऊपर चलते हुए नट को देखा हो। तो भारत का भविष्य बिलकुल रस्सी के ऊपर चलते हुए नट जैसा होगा। जिसे पूरे समय दोनों तरफ गिरने से बचाना है अपने को, गिरना आसान है क्योंकि गिरते ही फिर संतुलन के श्रम करने की जरूरत न रह जाएगी। पुराने की तरफ भी गिर जाना आसान है नए की तरफ भी गिर जाना आसान है। लेकन इस जीवन की रस्सी पर सध के चलना कठिन है।
और मुझे ऐसा निरंतर डर लगाता है कि पुरानी पीढ़ी पुराने की तरफ गिर कर संतुलन के लिए जो श्रम करना है, उसकी फिक्र छोड़ देती है। नई पीढ़ी नए की तरफ गिर कर संतुलन के लिए जो प्रयत्न करना है, उसका प्रयत्न छोड़ देती है। इन दोनों में बहुत फर्क नहीं है, यह दोनों संतुलन के श्रम से बचने की कोशिश में लगे हैं।
भारत को नया वह लोग कर पाएंगे। जो इन दोनों चुनावों को इनकार कर दें और जो बीच में, बेलैंस में, संतुलन में खड़े होने के लिए राजी हो जाएं। असल में, वह जो गोल्ड नींव है, वह जो बीज है, वह जो मत है, वही जीवन है। सदा ही, सदा दो अतीतों के बीच मध्य को चुन लेना बुद्धिमानी है।
सुना है मैंने कि कंफ्यूसिस एक गांव में गया और उस गांव के बाहर ही गांव में प्रवेश के पहले एक आदमी उसे मिल गया और उस आदमी ने कहा, "आप जरूर हमारे गांव में आएं और हमारे गांव में भी एक बहुत बुद्धिमान आदमी है एक बहुत वाईज मैन। आप उससे मिलकर बहुत खुश होंगे।' कंफ्यूसिस ने उससे कहा कि, "तुम उसे बहुत बुद्धिमान क्यों कहते हो? अगर तुम मुझे उसके संबंध में बताओ तो अच्छा होगा।' तो उस आदमी ने कहा, "वह इतना बुद्धिमान है कि वह एक कदम रखने के पहले तीन बार सोचता है।' कंफ्यूसिस ने कहा कि, "फिर मैं उससे न मिलुंगा।'
उस आदमी ने कहा, "क्यों?' कंफ्यूसिस ने कहा, कि "अगर वह एक ही बार सोचता होता तो मैं कहता कि वह थोड़ा कम बुद्धिमान है अगर वह तीन बार सोचता है तो मैं कहूंगा वह थोड़ा ज्यादा बुद्धिमान है। अगर वह दो ही बार सोचता होता तो मैं कहता वह बुद्धिमान है।' और कम बुद्धिमान भी खतरे में पड़ जाते हैं और ज्यादा बुद्धिमान भी खतरे में पड़ जाते हैं।
असल में, बुद्धिमान होना एक संतुलन है। बुद्धिमान होना एक संतुलन है। अति बुद्धि से भी बचना पड़ता है और अति अबुद्धि से भी बचना पड़ता है। असल में, दो एकस्ट्रीम से बच जाना बुद्धिमानी है। तो कंफ्यूसिस ने कहा, "मैं न मिलुंगा क्योंकि अगर वह तीन बार सोचता है तो थोड़ा ज्यादा हो गई बात, जरो पेंडूलम ज्यादा घूम गया आगे की तरफ।' घड़ी है उसमें बाएं से दाएं पेंडूलम भागता रहता है।
ठीक हमारा मन भी ऐसा ही भागता रहता है। घड़ी के पेंडलूम की तरह। पुराने से हम नए पर जा सकते हैं और नए से हम पुराने पर जा सकते हैं। लेकिन जिंदगी बीच में है और जो बीच में होता है उसको बड़े फायदे हैं क्योंकि वह पुराने के भी उतने ही निकट होता है जितना नए के निकट होता है। वह पुराने से भी उतना ही दूर होता है जितना नए से दूर होता है। उसके लिए चुनाव आसान है और जो बीच में होता है वह रिएक्शन नए नहीं होता वह किसी चीज के खिलाफ नहीं जा रहा होता।
और एक और मजे की बात है कि जब घड़ी का पेंडूलम बाएं से दांई तरफ जाता है तो दिखाई तो पड़ता है कि उल्टा जा रहा है लेकिन आपने कभी खयाल न किया होगा। बाएं से दाएं तरफ जाता हुआ पेंडलूम फिर बाएं तरफ आने की शक्ति को इकट्ठा कर रहा है। दाएं से बाएं तरफ जाता हुआ पेंडूलम मूवमेंट इकट्ठा कर रहा है जो उसे फिर दाएं तरफ ले जाएगा।
तो बहुत कठिनाई नहीं है कि नकस्लाईट फिर शंकराचार्य का अनुयायी हो जाएगा। इसमें कोई बहुत फर्क नहीं है। यह एकसीम जो है इनमें विरोध दिखाई पड़ता है, वस्तु का होता नहीं।
विपरीत-से-विपरीत में जाना बहुत आसान है, अत्यंत आसान है। इसलिए बहुत कामुक व्यक्ति ब्रह्मचारी हो सकता है उसमे बहुत कठिनाई नहीं है। लेकिन बहुत कामुक व्यक्ति संयमित नहीं हो सकता। उसमें कठिनाई है बहुत ज्यादा खाने के लिए पागल आदमी उपवास कर सकता है। उसमें ज्यादा कठिनाई नहीं है। लेकिन संयमित भोजन नहीं कर सकता उसमें बहुत कठिनाई है।
एक अति से दूसरी अति पर जाना सदा सरल है। क्योंकि दूसरी भी अति है और पहली भी अति थी। एक एकस्ट्रीम से दूसरी एकस्ट्रीम पर जाना एकदम आसान है। एकस्ट्रीमीस्ट माईंड को कोई कठिनाई नहीं। लेकिन मध्य में रुकना बहुत कठिन है।
भारत के सामने जो बड़े से बड़ा सवाल यह है। हमें एक अति है पुराने की और एक अति है नए की। एक अति है अतिप्राचीन की और एक अति अतिनवीन की। अगर इन दोनों के बीच भारत में अगर चुनाव किया। तो, तो भारत नया भारत बन सकेगा।
नया भारत जिसके आधार पर पुराने की सारी संपदा होगी। नया भारत जिसकी जड़ों में पुराने की सारी ताकत होगी, नया भारत जो अपने अतीत से, अपनी संस्कृति से टूट नहीं गया होगा और अगर उसने दो में से किसी एक को चुना। अगर उसने पुराने को चुना तो भारत रोज-रोज मरता जाएगा। क्योंकि सिर्फ अतीत के साथ कोई नहीं जी सकता है। जो कौम रोज अपने भविष्य को अतीत बना सकती है, वही जीवित है। जो कौम सिर्फ अतीत को सिर्फ अतीत की तरह पकड़ कर बैठ जाती है, वह मर जाती है।
या अगर भारत में सिर्फ नए को चुना, अतीत को इनकार किया। तो भारत बहुत कागजी, बहुत जपानी हो जाएगा। भारत बहुत ऊपरी हो जाएगा, बहुत सुपरफीशियल हो जाएगा। उसकी जिंदगी की गहराईयां सब खो जाएंगी। भारत ऊपर की लहरें बन जाएगा। उसके नीचे के सारे तल विदा हो जाएंगे और जो कौम अपने अतीत को पूरा इनकार कर दे। वह कौम हवा के थपड़ों पर जीने लगती है। फिर हवा के कोई भी थपेडे उसे बदलते रहेंगे। आज उसे कम्यूलिज्म ठीक लगेगा, कल उसे फैसीइज्म ठीक लगेगा, परसों उसे डेमौकरेसी ठीक लगेगी, आगे उसे डिकटेटरशीप ठीक लगेगी। आज उसे यह कपड़े ठीक लगेंगे, कल उसे वह कपड़े ठीक लगेंगे। आज यह ज्ञान ठीक लगेगा, कल वह ज्ञान ठीक लगेगा और कोई भी चीज इतनी ठीक न लग पाएगी जो उसकी आत्मा बन जाए, सब उसके वस्त्र ही रह जाएंगे।
एक नए भारत के लिए पहला मेरा खयाल है वह यह है कि भारत को भारत रहते हुए नया होना है। बहुत आसान है भारत होना छोड़कर नया होना और यह भी बहुत आसान है भारत रहकर भारत बने रहना और नया न होना। यह दोनों बातें बहुत आसान हैं।
कठिनाई यहां है कि भारत, भारत रहे और नया हो जाए। इसका क्या अर्थ होगा? इसका अर्थ यह होगा भारत, भविष्य उन्मुख हो। लेकिन अतीत शत्रु न हो जाए। इसका अर्थ होगा भारत नया होने की तैयारी जुटाए। लेकिन पुराने के सारे अनुभव को साथ ले जा सके। इसका अर्थ यह होगा कि भारत कोई चीज पुरानी है सिर्फ इसलिए इनकार न कर दे, और कोई चीज नई है सिर्फ स्वीकार न कर ले।
अब तक हमने ऐसा किया है कि जो पुराना है वह ठीक है और जो नया है वह गलत है। हम एक अति पर जी रहे थे। पुराना सदा ठीक है नया सदा गलत है। ऐसी हमारी धारणा थी। इसलिए हर आदमी जिसको कोई चीज सही सिद्ध करनी हो पहले उसे इस मुल्क में यह सिद्ध करना पड़ता है कि वह कितनी पुरानी है।
गीता अगर दो हजार साल पुरानी है तो थोड़ी कम सही हो जाएगी और अगर पांच हजार साल पुरानी है तो थोड़ी ज्यादा सही हो जाएगी और अगर पचास हजार साल पुरानी है तो और ज्यादा सही हो जाएगी। और अगर वेद लाख साल पुराने हैं तो और ज्यादा सही हो जाएंगे और अगर सनातन सदा से है तब तो उनके सही होने में कोई शक ही न रह जाएगा। इसलिए लोकमान्य तिलक पूरे समय कोशिश करते रहे कि वेद कम-से-कम नब्बे हजार वर्ष पुराने सिद्ध हो जाएं। क्योंकि अगर नब्बे हजार वर्ष पुराने सिद्ध हो गए। तो फिर बहुत ज्यादा सही हो जाएंगे।
लेकिन कोई चीज पुरानी होने से सही नहीं होती। अब बहुत खतरा है कि हम दूसरे अति पर चले जाएं कि जो नया है वही सही है। लेकिन कोई चीज नए होने से भी सही नहीं होती। सही होना एक अलग बात है। जिसके लिए नया और पुराना होना संदर्भ के बाहर है, इनरेलेवेंट।
अगर भारत को विकसित होना है तो उसे पुरानी भूल छोड़नी पड़ेगी कि पुराना होने से कुछ सही है और नई भूल पकड़ने से बचना पड़ेगा कि कोई चीज, नए होने से सही है और भारत को खोजना पड़ेगा कि सही क्या है? अगर वह पुराना है तो भी सही है, अगर वह नया है तो भी सही है और अगर हम सही की खोज करके अगर जिंदगी को बनाने की कोशिश किए हैं। तो भारत पुराने से टूटेगा नहीं और नया हो जाएगा और अगर हमने नए को सही मानना शुरू किया। तो पुराने से टूट ही जाना पड़ेगा। क्योंकि पुराना फिर गलत हो जाता है। पुराने का अर्थ हो जाता है गलत। जो पुराना है वह गलत है।
पश्चिम उल्टी अति पर जी रहा है। पश्चिम में अगर किसी व्यक्ति को अगर कोई किताब कीमती है। यह सिद्ध करना हो तो उसे यह सिद्ध करना पड़ता है कि यह बिलकुल नई है, यह बात कभी लिखी ही नहीं गई। अगर किसी की किताब को कोई सिद्ध कर दे कि यह तो पहले भी लिखी गई है। तो वह किताब बेकार हो गई उसका कोई मतलब न रहा। इसलिए हर लेखक को यह सिद्ध करना पड़ता है। वह मौलिक है, औरीजनल है और औरीजनल होने की कोशिश में कई बेवकूफियां भी करनी पड़ती हैं। क्योंकि आदमी इतने-इतने समय से पृथ्वी पर है कि औरीजनल होना कोई आसान मामला नहीं है।
अगर आप एक खूबसूरत औरत बनाते हैं तो बहुत बार खूबसूरत औरत का चित्र बनाया जा चुका है। शायद ही संभव है कि हम कोई नई खूबसूरती औरत में खोज सकें। तो फिर क्या करना पड़े? तो फिर पिकासो जैसे चित्र बनाने पड़े कि औरत की हाथ की जगह टांग लगानी पड़े और आंख की जगह कान लगाना पड़े। तब वह औरीजनल हो जाए। लेकिन वह औरत नहीं रह गई औरीजनल तो हो गई।
पिकासो की पेंटिंगस की इज्जत पश्चिम में बनी क्योंकि वह बिलकुल नई थी। उनमें पुराना कुछ भी नहीं था लेकिन पिकासो ने अभी आखरी दिनों में एक बात कहकर उसके भक्तों को बड़ी मुश्किल में डाल दिया। उसकी साठवीं वर्षगांठ पर उससे किसी ने पूछा कि, "आप जैसा मौलिक आदमी कोई भी नहीं है।' तो पिकासो ने कहा, "आई जस्ट बिफ्ुलींग दा मैन काइंड' मैं तो सिर्फ आदमियों को बेवकूफ बना रहा था।
पिकासो के इस एक वचन ने सारे पश्चिम की मौलिकता को कठिनाई में डाल दिया। बड़ी हैरानी हो गई क्योंकि स्त्री के चेहरे में चांद तो देखा गया था। स्त्री की आंखों में कमल देखा गया था। लेकिन स्त्री की आंखों में छिपकली कभी नहीं देखी गई थी। उसको आधुनिक कवि ने देख लिया। लेकिन पिकासो ने जब यह कहा कि, "मैं सिर्फ लोगों को मूर्ख बना रहा था। तो बड़ा सदमा पहुंचा पश्चिम को।
असल में, अगर नया ही सही है तो नया एबसयरडटी में ले जाएगा, मूर्खता में ले जाएगा। क्योंकि बुद्धिमत्ता हजारों साल का निचोड़ होती है। वीजडम और नौलिज में यही फर्क है। नौलिज नई हो सकती है वीजडम सदा ही पुराने होते हैं।
ज्ञान और प्रज्ञा में यही फर्क है, ज्ञान सदा ही नया होना चाहिए नहीं तो उसको ज्ञान कहना बेमानी है। लेकिन प्रज्ञा, बुद्धिमत्ता, वीजडम, वीजडम सदा पुराने होंगे। इसलिए जवान आदमी ज्ञान को उपलब्ध हो सकता है। लेकिन वीजडम को सिर्फ बूढ़ा आदमी ही उपलब्ध हो सकता है। जवान आदमी बुद्धिमत्ता को उपलब्ध नहीं हो सकता।
हेनरी फोर्ड ने अपने संस्मरण में लिखा है कि जिस दिन पचास साल से कम उम्र के लोग हुकुमत करने लगेंगे। उस दिन दुनिया में बड़े खतरे हो जाएंगे, खतरे हो ही जाएंगे। लेकिन हेनरी फोर्ड को पता नहीं है कि पचास साल से कम उम्र के लोग हुकुमत करके जितना खतरा पहुंचाएंगे। पचास साल से कम के लोग दुनिया में शिक्षक होकर उससे भी ज्यादा खतरा पहुंचा रहे हैं।
असल में, शिक्षक होने योग्य बुद्धिमत्ता, अनुभव से झरती है। हां, अनवेसक होने योग्य बुद्धिमत्ता है। इनवेंटर और डिसकर्वर होने योग्य ज्ञान है, युवा चित्र को उपलब्ध होता है। इसलिए बूढ़े दुनिया में अविष्कार नहीं करते। सारे अविष्कार करीब-करीब पैंत्तीस साल के आस-पास पूरे हो जाते हैं।
मनुष्य की सारी बड़ी खोजें नई उम्र की खोजें हैं। लेकिन मनुष्य के जीवन के सारे अनुभव ब्रीज के अनुभव है और जब मैं कह रहा हूं। पुराने और नए के बीच सेतू। तो मैं यह कह रहा हूं कि बूढ़े और जवान के बीच सेतू। बूढ़े और जवान के बीच एक ब्रीज चाहिए। यह संभव हो सकता है। यह संभव कैसे होगा? हम किस दिशाओं में सोचना शुरू करेंगे कि यह संभव हो जाए।
दो तीन दिशाएं मैं आपको सुझाना चाहूं। एक, भारत के पुरानेपन की बुनियादी भूल क्या थी यह हम समझ लें तो भारत के नएपन का बुनयादी सुधार क्या होगा? यह हमारे समझ में आ सकता है। भारत के पुरानेपन की एक बहुत बुनियादी भूल थी और वह बुनियादी भूल यह थी की हम जीवन को अस्वीकार कर दिए थे। हमने जीवन को कभी स्वीकार नहीं किया। हम जीवन के शत्रु रहे। हमारे मन में स्वीकृति है स्वर्ग की, मोक्ष की, हमारे मन में स्वीकृति है मृत्यु के बाद की।
मृत्यु के पहले हम मजबूरी में जी रहे हैं ,  ए नेसेसरी इवील की तरह। यह जो जीवन है हमारा यह हमारे मन में निंदा से भरा हुआ है कनडेम्ड। इस जिंदगी में हम सिर्फ पाप की वजह से भेजे गए हैं। पाप का भुगतान करने के लिए, यह जिंदगी हमारे पाप कर्मों का फल है और जो इस जिंदगी में शुभ कर्मों को उपलब्ध हो जाएगा। उसको वापिस नहीं चलना पड़ेगा हमने जिंदगी की बड़ी गंदी तस्वीर खींच रखी है।
हम जिंदगी को शत्रु की तरह देख रहे हैं। कारागार की तरह, दण्ड की तरह, पाप की तरह और जो कौम जिंदगी को पाप की तरह देखेगी, दण्ड की तरह देखगी। जो कौम जिंदगी को अपराध की तरह देखेगी और जो कौम जिंदगी से भागने के लिए उत्सुक होगी। वह जिंदगी को सुंदर और समृद्ध नहीं बना सकती। कारागार का कोई पागल कैदी होगा जो उसकी दीवारों को सुंदर बनाने की कोशिश करे।
कारागार का कोई पागल ही कैदी होगा जो उसके शीशों पर रंगीन कागज चढ़ाए। कोई पागल कैदी होगा कि अपने हाथ की जंजीरों को सोने से मंडे। नहीं, कोई नहीं मंडेगा जिन जंजीरों को तोड़ना है उन्हें सोने से मंडेने की कोई जरूरत नहीं और जिन सींकचों को तोड़ना है उन्हें शिक्षकों को सुंदर बनाने से वह और मजबूत हो जाते हैं और जिस कारागार से भागना है उस कारागार की दीवारें पुती है, नहीं पुती हैं, स्वच्छ हैं, नहीं स्वच्छ हैं इससे क्या प्रयोजन?
भारत जिंदगी को एक जेलखाने की तरह ले रहा है, लेता रहा है। इससे नुकसान हुए हैं, इसके नुकसान के कारण ही हम कमजोर हुए हैं, इस, इस वृत्ती के कारण ही हम विज्ञान न खोज सके हैं। इस वृत्ती के कारण ही हम जिंदगी को संपन्न, समृद्ध, शक्तिशाली न बना सके। इस वृत्ती के कारण हम गुलाम हुए हैं। इस वृत्ती के कारण हमने भूखे रहने को भी सांत्वना बना लिया है। इस वृत्ती के कारण हमने उम्र न बढ़ाई, स्वास्थ न बढ़ाया, सौंदर्य न बढ़ाया। इस वृत्ती ने हमें अत्यंत दीन बना दिया सब दृष्टियों से।
भारत के पुराने मन की जो बुनियादी भूल है। वह जीवन को आलादपूर्वक स्वीकार न करना। जीवन को दुःखपूर्वक स्वीकार करना। भारत का पुराना मन पैसीमीस्टीक, निराशावादी है। वह कह रहा है जीवन दुःख है, वह कह रहा है जीवन छोड़ देने जैसा है। जीवन आवगमन से मुक्ति के लिए सिर्फ एक अवसर है। अगर भारत कभी भगवान के सामने भी हाथ जोड़कर खड़ा है तो इसलिए कि कब जीवन से छुटकारा मिले? यह हमारे चित्त की दशा है निश्चित ही जिम्मेदार हुई है। भारत जैसी बड़ी संपत्ति वाला देश जिसके पास बड़े स्रोत थे। वह इन स्रोंतों का कोई उपयोग न कर पाया। भारत जैसी विराट संख्या वाला देश जिसके पास बड़ी शक्ति थी। वह इतनी बड़ी शक्ति खो दी उसने, रहते हुए गुलाम बन सका।
बहुत छोटी ताकत की कौमें भारत पर हावी हो गई। क्योंकि भारत के मन में संकौच को स्वीकार कर लिया, विस्तार को इनकार कर दिया। असल में, कोई जिम्मेवार नहीं है इस देश को गुलाम बनाने के लिए हम गुलाम बनने के लिए इतने तत्पर थे कि अगर हमें कोई गुलाम न बनाता तो ही आश्चर्य होता।
कोई जिम्मेदार नहीं है हमको गरीब बनाने के लिए। लेकिन हम गरीब बनाने में इतने प्रसन्न हैं गरीब बन जाने में  कि जिन्होंने हमें गरीब बनाया। हम उनके लिए हजार-हजार धन्यवाद से भरे हुए हैं। दीनता और दरिद्रता और दास्ता हमें स्वीकृत हैं और जब हम दीन हुए, दास हुए, परेशान हुए तो हमारा सिद्धांत और अटल हो गया कि जिंदगी दुःख। हमने कहा कि, "ऋषि मुनियों ने ठीक ही कहा है कि जिंदगी दुख है देख लो कि जिंदगी दुःख है।
हमने इस बात से लड़ने की कोशिश न की। इस बात से बल्कि हम प्रसन्न हुए कि हमारे सब सिद्धांत सही निकले। अब हमारे मुल्क में साधु-संन्यासी लोगों को समझा रहा है कि यह कलयुग है और ऋषि-मुनि पहले कह दें कि यह लोग दुःखी होंगे, मरेंगे, परेशान होंगे, भूखे रहेंगे। हम अपने शास्त्र को देखकर बड़े प्रसन्न हो रहे हैं कि हमारा शास्त्र कितना सही है कि कलयुग आ गया। यह कलयुग आने की वजह से शास्त्र में लिखा है ऐसा मैं नहीं मानता।
यह शास्त्र में लिखा है इसलिए इस कलयुग को आने में आसानी हो गई है। क्योंकि हमने स्वीकार कर लिया है कलयुग आएगा ही। अगर न आता तो शायद हम दुःखी होते। हम कहते कि ऋषि-मुनि और गलत हो सकते हैं सर्वज्ञ जो सब जानते थे वह गलत हो सकते हैं। नहीं, इस दुनिया में कोई सब जानने वाला पैदा नहीं हुआ है और जिस कौम में सर्वज्ञ पैदा हो जाएंगे वह कौम अज्ञानी हो जाएगी। क्योंकि जानने को सदा शेष, जानना रोज नई खोज रोज करनी है।
एक जो बुनियादी भूल मुझे दिखाई पड़ती है। पुराने भारत की, जिसकी वजह से भारत नया नहीं हो सका। वह यही है कि हम शरीर को इनकार करते हैं, भौतिकता को इनकार करते हैं, संसार को इनकार करते हैं। लेकिन ध्यान रहे जो संसार को इनकार कर देगा वह परमात्मा तक नहीं पहुंच सकेगा। क्योंकि परमात्मा तक पहुंचने वाले सब रास्ते संसार से होकर गुजरते हैं और जो आदमी यह कहेगा कि हम तो मंदिर के स्वर्ण शिखरों को मानते हैं। हम नींव के गंदे पत्थरों को नहीं मानते। तो ध्यान रहे वह स्वर्ण शिखर रखा बैठा रहेगा। वह कभी मंदिर पर चढ़ेंगे ना।
यह बड़े मजे की बात है जिंदगी के बड़े राज की बात है कि अगर आप चाहें तो मंदिर की नींव बनाकर छोड़ सकते हैं। मंदिर के नींव के पत्थरों के लिए शिखर का होना अनिवार्य नहीं है। लेकिन मंदिर का शिखर बिना नींव के पत्थर के नहीं हो सकता।
यह बड़े मजे की बात है कि जिंदगी में निकृष्ट हो सकता है श्रेष्ठ के बिना, लेकिन श्रेष्ठ निकृष्ट के बिना नहीं हो सकता। असल में, सब श्रेष्ठ को निकृष्ट पर ही आधार बनाना पड़ता है। निकृष्ट का मेरे मन में अर्थ यह है कि जो श्रेष्ठ का आधार है बनता हो। निकृष्ट का मेरे मन में कोई कंडेममरी, कोई निंदात्मक अर्थ नहीं है। निकृष्ट का मतलब यह है जो नीचे होता है। लेकिन हर ऊंची चीज के लिए किसी को नीचे होना ही पड़ेगा और मजे की बात यह है कि ऊंची चीज के बिना भी नीचा हो सकता है। लेकिन नीची चीज के बिना ऊंचा नहीं हो सकता।
आप का शरीर बिना आत्मा के भी दिखाई पड़ जाता है। लेकिन आपकी आत्मा बिना शरीर के दिखाई नहीं पड़ती। एक आदमी मर जाता है तो हम देखते हैं कि शरीर पड़ा रह गया आत्मा दिखाई नहीं पड़ती। लेकिन ऐसा नहीं मानना होता आत्मा खड़ी शरीर कहां चला गया।
शरीर आधार है, बुनियाद है। विज्ञान हो सकता बिना धर्म के लेकिन धर्म बिना विज्ञान के नहीं हो सकता। सिर्फ बातचीत हो सकती है। तो हम धर्म की बातचीत कर रहे हैं क्योंकि आधार तो हमारे पास नहीं है, आधार हमारे पास नहीं हैं।
एक आदमी का अगर पेट भरा हो तो जरूरी नहीं कि वह कविता करे ही, एक आदमी का पेट भरा हो तो जरूरी नहीं कि वह सितार बजाए ही, एक आदमी का पेट भरा हो तो जरूरी नहीं कि भगवान की खोज करे ही। लेकिन अगर एक आदमी का पेट खाली हो तो पक्का है कि सितार न बजा सकेगा, भगवान की खोज न कर सकेगा, गीत न गा सकेगा। गीत ऊंचाई है, पेट बड़ी नीची चीज है। लेकिन जो नीचे को इनकार कर देते हैं उनकी ऊंचाईयां अपने आप नष्ट हो जाती हैं।
इस देश में नीचाई को इनकार करने की भूल की और हम ऊंचाई को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। पांच हजार साल से और जिस पर वह बच सकती थी उस पर इनकार किया हुआ है।
शरीर के हम दुश्मन हैं बल्कि हमारे शास्त्रों में कहा हुआ है कि जिसको आत्मा को पाना है उसे शरीर से लड़ना पड़ेगा। यह सब ठीक है जिसको मंदिर के ऊपर स्वर्ण का शिखर चढ़ाना है उसे नींव के पत्थर उखाड़ने चाहिएं। जरूर मंदिर का शिखर रख दिया जाएगा। लेकिन वह मंदिर का शिखर, शिखर पर नहीं रखा जाएगा। वह जमीन की गंदगी में पड़ा रहेगा। असल में, जमीन की गंदगी से मंदिर के शिखर को बचाने के लिए कुछ पत्थरों को गंदगी में खड़े रहने की तैयारी दिखानी पड़ती है। उन पत्थरों को आदर देना क्योंकि उन पत्थरों के कारण ही शिखर आसमान पर उठ पाता है।
यह आत्मा की सारी संभावना शरीर के बिना संभव नहीं है। यह शरीर के कारण ही आत्मा ऊंचाईयां छू पाती है शरीर को धन्यवाद लेकिन हम न दे पाए। शरीर को हमने सताया जरूर हम प्रेम न कर सके। इसलिए शरीर से जो हो सकता था वह नहीं हो पाया और शरीर के बिना जो हो ही नहीं सकता था उसकी हम बातचीत कर रहे हैं,  बैठकर।
घरों में लोग आत्मा परमात्मा की बात करेंगे। लेकिन वह बातचीत होगी ब्रह्म की चर्चा, चर्चा ही रह जाएगी। वह ऐसे ही है। जैसे कोई हवाई जहाज में उड़ने की बात करता हो। लेकिन हवाई जहाज बनाने वाले कारखाने न हो, लोहा न हो, इंजीनियर न हो, तो फिर घर में बैठकर बात की जा सकती है। आंख बंद करके सपने देखे जा सकते हैं।
भारत धर्म के सपने देख रहा है क्योंकि बिना विज्ञान के आधार के धर्म की ऊंचाईयां छू ही नहीं जा सकती। भारत त्याग के सपने देख रहा है क्योंकि त्याग केवल उनके ही लिए है जिनके पास कुछ हो। असल में, त्याग गरीब आदमी की क्षमता नहीं, त्याग गरीब आदमी का सुख नहीं है, त्याग स्मृद्ध आदमी की अखिरी लग्जरी, वह अखिरी आनंद है, अखिरी विलास है।
असल में, जब कोई महावीर या कोई बुद्ध अपने महल को लात मार के जंगल में चला जाता है। तो आप यह मत समझना यह उसी जगह पहुंच जाता है। जहां जंगल का आदिवासी हैं यह उसी जगह नहीं पहुंचता क्योंकि आदिवासी जंगल में इसलिए हैं क्योंकि महल नहीं बना सका और यह आदमी जंगल में इसलिए है क्योंकि महल अब बेईमानी हो गए है। यह दोनों एक जगह खड़े होकर भी इनके बीच जमीन-आसमान का फासला है।
बुद्ध छोड़ सके, छोड़ वही सकता है जिसके पास है और छोड़ने की क्षमता उस दिन आती है जिस दिन होने की क्षमता इतनी बढ़ जाती है कि अब और होने का कोई मतलब नहीं रह जाता है। असल में, गरीब देश त्यागी नहीं हो सकता सिर्फ त्याग की बातें कर सकता है। इसलिए हमारे त्यागी को भी आप अगर देखने जाएंगे तो उसकी पकड़ भी त्याग पर नहीं दिखाई पड़ेगी।
अभी मैं एक संन्यासी के आश्रम गया वहां बात चल रही है धर्म की, त्याग की और लोग रुपए चढ़ाते हैं। वह जल्दी से बात बंद कर के पहले रुपए को नीचे सरका देते हैं। फिर ब्रह्म की चर्चा शुरू हो जाती है। बड़ी कठिन बात मालूम पड़ती है रुपए के लिए ब्रह्म की चर्चा को भी रुकना पड़ता है। ठीक ही मालूम पड़ता है रुकना पड़ेगा। क्योंकि बिना रुपए के ब्रह्म की चर्चा भी नहीं हो सकती।
इसमे में उन संन्यासी को दोष नहीं देता उनके रुपए सरकाने को दोष नहीं देता। दोष देता हूं उनकी इस वृत्ति को इस रुपए के खिलाफ जो वह बोल रहे हैं। और इस रुपए को सरका रहे हैं।
हिंदुस्तान जैसा कृपण समाज खोजना मुश्किल है और हिंदुस्तान जैसा त्याग की बात करने वाला भी कोई समाज नहीं। अब त्यागी और कृपण के बीच कोई संगती नहीं मालूम पड़ती हिंदुस्तान की कंजूसी और हिंदुस्तान की त्याग की बातों के बीच कोई संबंध नहीं मालूम पड़ता है।
हिंदुस्तान जैसा पदार्थवादी मटेरीलिस्ट मुल्क भी खोजना कठिन है। लेकिन हिंदुस्तान जैसे इस्प्रीट और स्परीचूएलटी की बात करने वाला कोई भी नहीं है जमीन पर। मामला क्या है? गलती कहां हो गई है हमारा आदमी एकदम भौतिकवादी है। उसकी सारी चिंतना भौतिकवाद के आस-पास घूमती है। वह रात सपने भी रुपए के देखता है और रुपए के पास ही सोता है और ताला भी लगाता है तो दोबारा भी हिलाकर देखता है कि चाबी ठीक से लग गई है कि नहीं लग गई।
लेकिन मंदिर जा रहा है मेरे सामने ही एक सज्जन रहते हैं वह रोज सुबह मंदिर जाते हैं। ताला लगाकर, फिर दस कदम वापिस लौटकर ताले को हिलाकर देखते हैं। एक दिन मैं बैठा था तो मैंने उनसे कहा कि, "आप यह दोबारा ताले को हिलाकर क्यों देखते हैं?' उन्होंने कहा कि, "अब आपने पूछ ही लिया है आपके संकोच की वजह से मैं कई दफा देख भी नहीं पाता।' अब आपने पूछ ही लिया है तो मुझे शक हो जाता है कि पता नहीं लगा है ठीक नहीं लगा।' तो मैंने कहा "सौ कदम चल कर फिर नहीं होता शक।' उन्होंने कहा,  "होता है लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाता कि लोग क्या कहेंगे?' और मैंने कहा, "जब मंदिर में भगवान के सामने खड़े होते हैं तो भगवान दिखाई पड़ता है कि ताला दिखाई पड़ता है।' उन्होंने कहा, "आपको कैसे पता चल गया? हैरानी की बात है जल्दी-जल्दी किसी तरह पूजा कर के भागता हूं। दिखाई तो ताला ही पड़ता है। लेकिन मंदिर में खड़े देखकर भ्रंत-भांति हो जाएगी की आदमी भगवान के सामने खड़ा है।'
यह आदमी पूरे वक्त तिजोरी के सामने खड़ा है यह आदमी भगवान के सामने खड़ा नहीं हो सकता है। हमारा चित्त तो है बौद्धिक होगा ही क्योंकि हमने भौतिक जिंदगी की मांग पूरी नहीं की। इसमें मुझे कोई बुराई नहीं दिखाई पड़ती, अस्वाभाविक है। लेकिन जब हम इसको इनकार करते हैं तब रूग्णता शुरू हो जाती है।
जो आदमी अगर भूखा है वह अगर भगवान के सामने खड़ा हो और उसे भगवान न दिखाई पड़कर रोटी दिखाई पड़े। तो इसमे बुराई क्या है? उसे रोटी दिखाई पड़ेंगी। लेकिन कारण, कारण क्या है? इस आदमी ने रोटी की मांग पूरी नहीं की। भारत ने आदमी की बुनियादी जरूरतों की मांग आज तक पूरी नहीं की है। भारत आज भी बुनियादी मांगों के मामले में अत्यंत असहाय और दीन है। न हमारे पास ठीक कपड़े हैं, न ठीक भोजन है, न ठीक शरीर है, न ठीक सौंदर्य है। हमारे पास कुछ भी नहीं है जिंदगी की जरूरी चीजें हमारे पास नहीं हैं।
और तब हम जिंदगी की  उन बातों की बातें कर रहे हैं। जो एक अर्थ मे गैर जरूरी हैं। वह जरूरी बनती हैं जब जरूरत की सब चीजें पूरी हो जाएं। तब वह भी जरूरी बनती हैं किसी अशोक के लिए या किसी अकबर के लिए धर्म एक जरूरत हो जाती है, हो जानी चाहिए। अकबर के लिए धर्म एक जरूरत है, एक नीड है। लेकिन हमारे लिए? नहीं हो सकती, हमारी जरूरतें कुछ और हैं। इसलिए जब हम भगवान के सामने भी जाते हैं तो कोई हाथ जोड़ कर कहता है मेरे लड़के को नौकरी लगवा दो, कोई कहता है मेरी लड़की की शादी करवा दो, कोई कहता है मेरी पत्नी की बीमारी ठीक कर दो।
हम भगवान के पास भी क्या मांगने जाते हैं? बहुत बेशर्म हैं हम, जो काम हमें कर लेना चाहिए वह हम भगवान से मांगने जाते हैं और जो हम नहीं कर सके। ध्यान रहे वह भगवान नहीं करेगा। क्योंकि उस सब को करने की पूरी क्षमता उसने हमें दे दी है। अब उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं है। रोटी हम पैदा कर सकते हैं, कपड़े हम पैदा कर सकते हैं, मकान हम बना सकते हैं। इसमें भगवान को बीच में लाकर कष्ट देने का कोई भी कारण नहीं। लेकिन हम पांच छः  हजार साल से कष्ट दिए जा रहे हैं और भगवान अगर हमसे डर के छिप गया हो तो बहुत हैरानी की बात नहीं है और अगर उसने अपने कानों का आपरेशन करवा लिया हो और हमारी प्रार्थना न सुनता हो तो उचित ही किया है नहीं तो वह पागल हो जाता।
जो काम हम कर सकते हैं उसके लिए किसी और से कहने जाना नपुंसकता है, इंपोटेंस है। असल में, भगवान के सामने जाने का वह आदमी अधिकारी है कि जिसने अपनी जिंदगी का काम पूरा कर दिया हो और भगवान के सामने पूछने गया है कि अब और क्या करें? असल में, और काम पूछने जो गया है भगवान के सामने। जो पूछने गया है कि जो हो सकता था वह हो गया है। अब जो नहीं हो सकता उसकी कुछ बात करें।
जो पूछने गया है कि जिंदगी का सारा काम निपटा दिया है, अब और कोई काम है। इस जिंदगी के ऊपर जमीन की सारी बात पूरी हो गई है, आकाश की भी कोई बात है। शरीर का सारा इंतजाम हो गया है, शरीर के ऊपर भी मनुष्य का कोई व्यक्तित्व है। जो भगवान के मंदिर में सारे काम मंदिर के बाहर के पूरे कर के पहुंचा है। शायद भगवान के कान उसके ही उपयोग में आ पाते हैं अन्यथा नहीं आ पाते हैं।
पुराना भारत, शरीर के विरोध में आध्यात्मकवादी था इसलिए शरीरवादी हो गया है, आध्यात्मकवादी नहीं हो पाया। नए भारत के साथ खतरा है जो मैंने कहा कि, "कहीं वह पुराने की प्रतिक्रिया में अब निपट भौतिकवादी न हो जाए और कहे कि पांच हजार साल तो आध्यात्म की बकवास हो चुकी है, अब हम छोड़ना चाहते हैं, यह खतरा है और यह खतरा बहुत वाईटल है, बहुत जीवंत है, यह खतरा बहुत ही ऐसा है कि शायद ही हम इससे बच सकें। अगर बच जाएं तो सौभाग्य, न बच पाएं तो किसी से शिकायत करने का भी कोई उपाय न होगा।
क्योंकि पांच हजार साल से हम इतने परेशान हो गए हैं आध्यात्म की बात करते-करते कि पेंडूलम अब मैटरीजम की तरफ सीधा घूम जाएगा। इसलिए हिंदुस्तान के कम्यूनिस्ट हो जाने की संभावना रोज बढ़ती जाएगी। उसके लिए हिंदुस्तान के कम्यूनिस्ट जिम्मेदार नहीं होंगे, न तो डांगे हिंदुस्तान को कम्यूनिस्ट बना सकते है और न पी० सी० ज्योति वसु बना सकते है, और न रांडेले बना सकते है।
हिंदुस्तान को अगर कम्यूनिस्ट बनाएंगे तो हिंदुस्तान के पांच हजार साल के ऋषि-मुनि उसके लिए जिम्मेदार होंगे। क्योंकि उन्होंने इतनी बकवास की है, आध्यात्मिक हिंदुस्तान के बच्चे अगर उनके खिलाफ चले जाएं, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। यह रिएक्शन होगा।
हिंदुस्तान में कम्यूनिजम या हिंदुस्तान में भौतिकवाद रेव्यूलेशन नहीं होगी, रिएक्शन होगा। हिंदुस्तान में कम्यूनिजम क्रांति नहीं है प्रतिक्रिया है। वह हिंदुस्तान के पांच हजार साल की दुःखद कहानी का विरोध है और अगर आज आप के बच्चे मंदिर जाने से इनकार कर रहे हैं। तो ध्यान रखना बच्चे जिम्मेदार नहीं हैं, आप ही जिम्मेदार हैं। आप ने मंदिर ऐसा बनाया है जिसमें कोई बुनियाद नहीं है, जो मरा हुआ है जिसमें जिंदगी का कोई आधार नहीं।
अगर आपके बच्चे आप की गीता को फैंक रहे हैं। तो उसका कारण है, क्योंकि भूखे पेट पर रखी गई गीता, सुख नहीं देती सिर्फ दुःख देती है। उतारने की जरूरत पड़ जाती है। अगर आपके बच्चे अब मानने को राजी नहीं हैं कि कृष्ण बांसुरी बजाते रहे होंगे, क्योंकि बांसुरी बजाने के लिए जिंदगी के लिए जितनी जरूरत है। वह कोई भी पूरी होती दिखाई नहीं पड़ती तो अगर कृष्ण पर शक आ रहा हो आप के बच्चों के लिए तो वह जिम्मेदार नहीं हैं हम ही जिम्मेदार हैं। क्योंकि हमने जो हालत पैदा की हैं, वह हालत प्रतिक्रिया में ले जाने वाली है। खतरा बहुत है और खतरा, बड़े से बड़ा खतरा यह है कि हमने आध्यात्मकवाद के दुःख झेल लिए, कई अब हमें भौतिकवाद के दुःख न झेलने पड़ें। कई ऐसा न हो कि हम अकेला शिखर लिए बैठे रहे हैं और नींव न भरी, अब हम नींव भरकर बैठ जाएं और मंदिर न बनाएं। इसका बहुत डर है।
इसलिए भारत को आध्यात्मकवाद के नीच भौतिकवाद की नींव देनी है। आध्यात्मकवाद के खिलाफ भौतिकवाद का आंदोलन नहीं करना है। असल में, भारत को अपने ऋषि-मुनियों के लिए वह नींव देनी है। जिसको वह खुद इनकार करते रहे हैं। असल में, भारत को महावीर और बुद्ध के पैरों के नीचे आस्टीन और न्यूनटन को खड़ा करना है। क्योंकि उनके बिना महावीर और बुद्ध अब खड़े नहीं रह सकते। उनकी मूर्तियां गिर जाएंगी और चूर-चूर हो जाएगी और मिट्टी में मिल जाएंगी और लोग उनके ऊपर जूते रख कर चले जाएंगे और कोई उपाय नहीं रह जाएगा।
विज्ञान अगर भारत के मन का आधार बन जाए तो भारत की आत्मा धर्म की उड़ान ले सकती है और मैं विज्ञान और धर्म में कोई विरोध नहीं देखता। लेकिन कठिनाई है, धार्मिक आदमी विरोध देखता है, और विज्ञान पढ़ने वाला विद्यार्थी भी विरोध देखता है। धार्मिक आदमी मानता है कि विज्ञान की बातों ने धर्म नष्ट कर दिया और वह विज्ञान की शिक्षा पाने वाला युवक मानता है, कि धर्म की बकवास अंधविश्वास है। इसका विज्ञान से क्या संबंध है?
एक खाई, एक जेनरेशन गैप पैदा हो रहा है। हिंदुस्तान में यह खाई जितनी बड़ी है, उतनी इस दुनिया में कही भी नहीं। पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के बीच इतनी बड़ी खाई हो रही है कि उसके आर-पार हाथ फैलाने मुश्किल मालूम हो रहे हैं। मैं नहीं जानता हूं ऐसे गर्जन में बाप और बेटे बैठ कर बात भी करते हैं कोई कम्यूनिकेशन नहीं। मैं सैकड़ों घरों में ठहरता हूं। बाप और बेटे बच के निकलते हैं, या तो बाप कोई उपदेश देना होता है तब बेटे को दो मिनट रोकता है या बेटे को बाप की जेब से कुछ निकालना होता है, तब वह दो मिनट के लिए मिलता है। लेकिन कोई कम्यूनिकेशन नहीं है, कोई संवाद नहीं है, कोई दोनों के बीच कोई संबंध नहीं रह गया है।
बाप किसी और दुनिया का हिस्सा है, बेटा किसी और दुनिया का हिस्सा है। शायद बेटी कहीं और जी रही है, मां कहीं और जी रही है। न मां बेटी की बात समझ पाती है, न बेटी मां की बात समझ पाती है। उनके पास कौमन लेंगवेज भी नहीं है, समान भाषा भी नहीं है जिसमे बातचीत हो सके।
हिंदुस्तान के साधु एक तरफ खड़े हैं वह अपनी बातचीत जारी रखे हुए हैं, वह अपने पुराना का गुहार मचा रहे हैं। हिंदुस्तान के जवान एक तरफ खड़े हुए हैं वह अपनी बातचीत जारी रखे हुए हैं वह अपनी बात चिल्ला रहे हैं और दोनों के बीच कोई बातचीत नहीं हो रही है।
जूंग ने एक संस्मरण लिखा है कि उसके पागल खाने में दो प्रोफेसरों को इलाज के लिए लाया गया। असल में, जो प्रोफेसर एक दो दफा दिमाग के इलाज के लिए न जाए। वह थोड़ा ठीक प्रोफेसर नहीं है, ऐसा जानना भी चाहिए। दोनों का दिमाग खराब हो गया उन दोनों को लाया गया है, उन दोनों का जूंग अध्ययन करता है तो बड़ा हैरान हो जाता है। वह देखता है वह अपने कमरे में बैठे दोनों बात करते हैं, बातें बड़ी ऊंची होती हैं, लेकिन एक बड़ी अजीब बात है कि जो एक प्रोफेसर जब बात करता है तो दूसरा चुप रहता है, और जब दूसरा बात करता है तो पहला चुप रहता है। हालांकि उन दोनों की बात में कोई संबंध नहीं है।
पहला अगर आकाश की बात करता है तो दूसरा जमीन की बात करता है। उनमें कोई संबंध नहीं है। खैर दो पागलों के बीच में कोई बात का संबंध न हो यह समझ में आता है। जूंग को दिक्कत यह होती है कि जब दोनों पागल हैं और बात में कोई संबंध नहीं, तो जब एक बोलता है तो दूसरा चुप क्यों हो जाता है? उसको बोलते रहना चाहिए।
वह अंदर जाता है और उनसे पूछता है कि मेरी समझ में आ गई सब बात, लेकिन एक समझ में नहीं आती कि जब एक बोलता है तो दूसरा चुप क्यों हो जाता है? तो वह दोनों हंसते हैं वह कहते हैं कि आप समझते हैं कि हमें कनवरशेशन का नियम नहीं मालूम। नियम हमें मालूम है, बातचीत का नियम यह है कि जब एक बोले तब तुम चुप रहो।
तो जूंग कहता है जब तुम्हें इतना मालूम है बातचीत का नियम कि जब एक बोले तब तुम चुप रहो। तब तुम्हें यह भी तो पता होना चाहिए कि जो एक बोल रहा है तुम्हारे बोलने में उससे कुछ संबंध हो। तो वह दोनों पागल हंसते हैं, वह कहते हैं खैर हम तो पागल हैं। लेकिन हमने ऐसे आदमी ही नहीं देखे जिनकी बातचीत में कोई संबंध हो। हम तो पागल हैं लेकिन हमने और आदमी भी नहीं देखे जिनकी बातचीत में कोई संबंध हो। लेकिन यह बात शायद उन पागलों की सबके बारे में सही न हो। लेकिन इस वक्त, इस मुल्क में यह सही हो गई है।
बाप और बेटे की बातचीत में कोई संबंध नहीं है। दो पागलों की बातचीत है। गुरु और शिष्य के बीच कोई संबंध नहीं है दो पागलों की बातचीत है गुरु अपनी बात कहे जा रहा हूं शिष्य अपनी ही कहे चला जा रहा है। गुरु ही बोल रहा है और वह खुद ही सुन रहा है और शिष्य बोल रहा है और वह खुद ही सुन रहा है। सुनने और बोलने का काम एक ही आदमी को खुद ही करना पड़ रहा है।
 बाप जो बोलता है, बाप ही सुनता है, बेटा सुनता नहीं। जब बाप बोलता है तब बेटा इस तैयारी में होता है कैसे इस सुनने के दायरे के बाहर हो जाए। जब बेटा बोलता है तब बाप ऐसे सुनता है। जैसे कि यह बात न ही सुनी होती तो अच्छा था।
इन दोनों पीढ़ियों के बीच जो यह गैप है। यह गैप नए भारत के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा बनेगा। यह जो अंतराल है यह अंतराल नए भारत को कैसे बनने देगा? क्योंकि नए भारत को बनाना है नए लड़कों को और नए भारत के लड़के अगर अपनी पुरानी पीढ़ियों की सारी समझ के बिना भारत को बनाएंगे। तो भारत एक मैटरललीस्ट मुल्क होगा। एक भौतिकवादी मुल्क होगा। जिसमें अध्यात्म के लिए हमने, हमने सब आधार तोड़ दिए, हमने। जिसमें हमने अध्यात्म के लिए सब ओपनिंग खत्म कर दिए होंगे,  जिसमें हम अध्यात्म के फूल नहीं खिलने देंगे। अगर भारत नए लड़के बनाएंगे, सिर्फ तो भारत निपट शरीरवादी मुल्क होगा। जिसमें आत्मा को शायद हम धीरे-धीरे भूलते चले जाएंगे। और अगर भारत के नए बच्चे निर्माण न कर पाएं और भारत के बूढ़े जीत जाएं, और वही भारत को बनाए चले जाएं। तो भारत का जो पुराना रोग है वह अपनी जगह रहेगा। उसे मिटाया नहीं जा सकता।
पुराने आदमी की समझ चाहिए, नए आदमी की शक्ति चाहिए। पुराने आदमी का अनुभव चाहिए, नए आदमी का भविष्य चाहिए। अनुभव अतीत से आता है, भविष्य आशाओं से आता है। बूढ़े आदमी के पास आशाएं नहीं होती, अतीत होता है, अनुभव होता है। नए आदमी के पास आशाएं होती हैं, अनुभव नहीं होता, अतीत नहीं होता। असल में, नई और पुरानी पीढ़ी सदा उस हालत में होती हैं।
जिस हालत में कभी एक जंगल में आग लग गई थी और एक अंधे और लंगड़े ने अपने को पाया। अंधा देख नहीं सकता था, लंगड़ा भाग नहीं सकता था। आग भयंकर थी और दोनों की मौत निश्चित थी। करीब-करीब भारत ऐसी आग के बीच में खड़ा है। जहां एक पीढ़ी अंधी है, और एक पीढ़ी लंगड़ी। बूढ़ी पीढ़ी लंगड़ी है और नई पीढ़ी अंधी है और आग भयंकर है और दोनों जलकर मर जाएंगी। लेकिन उन दोनों अंधे और लंगड़े आदमियों ने बड़ी समझ का उपयोग किया। लंगड़ा राजी हो गया कंधे पर बैठने को, अंधा राजी हो गया लंगड़े को कंधे पर बिठाने को। अंधा राजी हो गया लंगड़े की आंखों से काम लेने को, लंगड़ा राजी हो गया अंधे के पैरों से काम लेने को।
वह दोनों जंगल से बाहर निकल गए। लंगड़ा ऊपर था और देख रहा था, अंधा नीचे था और चल रहा था। दो आदमियों ने एक आदमी का काम कर लिया था।
हमेशा जब भी सृजन का कोई क्षण हो किसी देश में, तो पुरानी और नई पीढ़ी इसी हालत में पड़ जाती है। पुरानी पीढ़ी के पास आंख तो होती है लेकिन दौड़ने के पैर नहीं होते। नई पीढ़ी बैठने को न राजी होगी। न दौड़ते जवान बूढ़ों का बोझ लेने को तैयार होंगे। यह मरते हुए बूढ़े इन जवानों की दौड़ने की और गति को झेलने को तैयार होंगे। यह सवाल है नए भारत के लिए।
अभी मुझे नहीं दिखाई पड़ता कि ऐसा हो रहा है। अभी ऐसा हो रहा है कि अंधे दौड़ रहे हैं, तेजी से। तो बजाए रास्ते पर पहुंचने के वह आग में पहुंच जाते हैं। तो सब तरफ आग लग रही है। वह आग बहुत तरह की है, बहुत रूपों में। इसलिए इस वक्त आग के केंद्र भारत में नहीं, सारी दुनिया में यूनीवरस्टीज बन गए है। क्योंकि वहां, पैर स्वस्थ, और आंखें नहीं ऐसे लोगों की बड़ी जमातें इकट्ठी हो गई हैं।
इस वक्त सारी दुनिया में उपद्रव और आंख का केंद्र विश्वविद्यालय है। आग सबसे जोर से वहां है और वहा आंखहीन शक्तिशाली पैर वाले युवक हैं। जो दौड़ेंगे, इसलिए नहीं कि कहीं पहुंचना है, क्योंकि कहीं पहुंचने का खयाल तो आंख को होता है। इसलिए की पैरों में ताकत है और दौड़े बिना नहीं रहा जा सकता दौड़ना ही पड़ेगा। दूसरी तरफ बूढ़े कटकर पड़ गए हैं वह चाहे मंदिरों में बैठे हों, चाहे आश्रमों में बैठे हों, चाहे अपने घरों में बैठे हों वह कटकर बैठ गए हैं। उनके पास आंख हैं वह देख सकते हैं, आग कहां लगी है? लेकिन पैर उनके पास नहीं हैं, न तो वह दौड़ सकते हैं। और न ही वह दौड़ने वाले लोगों की सहायता लेने को तैयार हैं।
नए भारत का जन्म हो सकता है इस आग के बाहर। बूढ़े और जवान को भारत में सेतू निर्माण करना पड़ेगा और अगर मैं निरंतर सोचता हूं कि हमें ऐसे कुछ शिवर, ऐसी कुछ सेमीनार और ऐसे कुछ मिलन के स्थान बनाने चाहिएं। जहां नई और पुरानी पीढ़ी आमने-सामने बात कर सके। जहां बाप और बेटे अपनी तकलीफें और अपनी संभावनाएं और अपने दुःख कह सकें और जहां बेटे बाप को सहानुभूति से सुन सके और जहां बाप बेटों को सहानुभूति से सुन सके।
अगर हिंदुस्तान में ऐसा डायलोक पैदा नहीं होता, तो हम नए भारत का निर्माण न कर पाएंगे। भारत नया हो जाएगा, लेकिन नए हो जाने से तो सब कुछ नहीं हो जाता। नया हो जाना दुःखद भी हो सकता है, नया हो जाना गलत भी हो सकता है, नया हो जाना और बड़े खङ्ढे में गिर जाना भी हो सकता है। हां, कई बार सिर्फ नए हो जाने से भी राहत मिलती है। क्योंकि बदलाहट की राहत होती है। लेकिन थोड़ी देर बाद पता चलता है कि बीमारियां सब, अपनी जगह खड़ी हैं या और भयंकर होकर आ गई हैं।
आदमी मरघट ले जाते हैं किसी को, अर्थी को तो रास्ते में कंधे बदल लेते हैं। एक कंधा दुःखने लगता है तो अर्थी को दूसरे कंधे पर रख लेते हैं। कंधा बदलने से वजन कम नहीं होता अर्थी में कोई फक्र नहीं पड़ता। रास्ता वही का वही होता है लेकिन दूसरे कंधे पर थोड़ी देर राहत मिल जाती है, नया कंधा होता है थोड़ी देर झेल लेते हैं।
भारत अर्थी तो नहीं बदलेगा, सिर्फ कंधा तो नहीं बदल लेगा कि बीमारियां सिर्फ कंधा बदल लें और पुरानी बीमारियां नए नाम ले लें, और पुरानी शराबें नई बोतलों में भर जाए। तो भी नया तो हो जाएगा ऐसा लगेगा कि नया हो गया है। लेकिन नया हो भी नहीं पाएगा कि पता चलेगा कि सब पुराना है सब अपनी जगह है, खड़ा है।
नहीं, भारत को मात्र नया नहीं हो जाना है। भारत को शुभ की दिशा में, सत्य की दिशा में, शांति की दिशा में, शक्ति की दिशा में, आनंद की दिशा में, जीवन की दिशा में, मुक्ति की दिशा में, एक साथ एक संतुलित व्यक्तित्व को पैदा करना है। जिसमें पुराने की भूल न हो, पुराने की सब समृद्धि हो, जिसमें नए की नासमझी न हो, नए का सारा नया ज्ञान हो।
एक अभूतपूर्व घटना घट गई है मनुष्य के इतिहास में, इस बीसवीं सदी में, उसकी फिर मैं बात करूं। फिर मैं अपनी बात पूरी कर दूं और वह घटना यह घट गई है कि आज से कोई दो सौ वर्ष पहले तक, दुनिया में, आदमी और आदमी के ज्ञान में कभी बहुत फासला नहीं पड़ता था। असल में, आदमी सदा ही अपने ज्ञान के आगे होता था और ज्ञान सदा ही पीछे होता था।
आज से दो सौ साल पहले तक आदमी के पीछे ज्ञान छाया की तरह था। वह आदमी के आगे नहीं होता था सदा आदमी के पीछे होता था। क्योंकि ज्ञान का विकास अतिमध्यम था, उसकी उसकी गति बहुत धीमी थी। जीसस के मरने के साढ़े अठारह सौ वर्षों में जितना ज्ञान दुनिया में पैदा हुआ उतना ज्ञान पिछले डेढ़ सौ वर्षों में पैदा हुआ। और पिछले डेढ़ सौ वर्षों में जितना ज्ञान पैदा हुआ उतना पिछले पंद्रह वर्षों में पैदा हुआ और जितना पिछले पंद्रह वर्षों में ज्ञान पैदा हुआ उतना पिछले पांच वर्षों में पैदा हुआ । अब हम पांच वर्ष में इतना ज्ञान पैदा करते हैं जितना पुरानी दुनिया साढ़े अठारह सौ वर्ष में पैदा करती थी।
साढ़े अठारह सौ वर्ष में अनेक पीढ़ियां बदल जाती है और ज्ञान धीरे-धीरे बदलता था और आदमी ज्ञान के बदलने की चोट को कभी अनुभव नहीं करता था। वह इतने आहिस्ता बदलता था, इतने आहिस्ता बदलता था। कि आदमी उसमे रच-पच जाता था वह उसका खून बन जाता था।
एक वैज्ञानिक प्रयोग कर रहा था। उसने एक मेंढक को उबलते हुए पानी में डाल दिया। वह मेंढक छलांग लगाकर बाहर निकल गया क्योंकि उबलने का संग्रात इतना तीव्र था फिर उसने उस मेंढक को साधारण पानी में रखा और आहिस्ता-आहिस्ता उस पानी को गर्म करना शुरू किया। वह गर्म करता गया इस गर्म करने में उसने कोई आठ घंटे लगाए। पानी उबलने लगा और मेंढक वहीं बैठा रहा और उबलता रहा। आठ घंटे में वह मेंढक जो है कंडीशनड हो गया। आठ घंटे में वह धीरे-धीरे-धीरे इतनी धीमी गति से गर्मी बढ़ी कि मेंढक उसके लिए राजी होता गया। मेंढक आगे बढ़ता गया राजी होता गया, गर्मी पीछे चलती रही। मेंढक सदा आगे होता गया छलांग उसने वहां भी लगाई। लेकिन पूरे बर्तन के बाहर छलांग लगाने की जरूरत न पड़ी।
पुरानी गर्मी का जो उसके शरीर का तल था, उसने इंच भर आगे बढ़कर छलांग ले ली और अपने शरीर की गर्मी को आगे कर लिया। वह गर्म होता रहा, मर गया, उसे पता नहीं चला। लेकिन उतने ही उबलते पानी में नए मेंढक को डालो वह छलांग लगा कर बाहर हो जाएगा। क्यों? क्योंकि गर्मी बहुत आगे है मेंढक बहुत पीछे पड़ गया है और मेंढक को मौका नहीं मिला कि वह गर्मी के लिए एडजैस्ट हो जाए।
पुरानी दुनिया एडजेस्टीड थी, नहीं। उसका एडजेस्टमेंट पक्का था क्योंकि ज्ञान इतना धीमे बढ़ता था की एक आदमी की जिंदगी में कोई बुनियादी फर्क नहीं पड़ते थे। जन्म लेते वक्त आदमी दुनिया को जहां पाता था करीब-करीब वही मरते वक्त छोड़ता था। न रास्ते बदलते थे, न बैलगाड़ी बदलती थी, न खेती बदलती थी, न मकान बदलते थे, न दवाई बदलती थी कुछ नहीं बदलता था। या बदलाहट इतनी धीमी होती थी कि उस बदलाहट की कोई चोट आदमी पर नहीं पड़ती थी। पुराना इतना ज्यादा होता था नया इतना कम होता था कि पुराना उसे आत्मसात कर जाता था, पी जाता था।
इधर-इधर पचास वर्षों में मुश्किल हो गई। ज्ञान छलांगें लगा रहा है बहुत आगे। आदमी जमीन पर रहने के योग्य नहीं हो पाया और विज्ञान चांद पर पहुंचा दिया है। आदमी जमीन पर रहने के योग्य बिलकुल नहीं है। इसलिए बर्टनरसल ने जिस दिन पहली दफा आदमी ने पृथ्वी की सीमा को पार किया। आर्बीट को पार किया। उस दिन जब वक्तवय दिया था वह बहुत उचित था।
बर्टनरसल ने कहा कि, "मैं बहुत परेशानियों से घिर गया हूं।' जबकि सारी दुनिया ने स्वागत किया। तब बर्टनरसल ने कहा, "मैं बहुत एनजाईटी और चिंता से भर गया हूं। क्योंकि जिस आदमी ने अभी पृथ्वी, की बेवकूफियों को अंत नहीं किया और पृथ्वी को बेवकूफियों से भर दिया है। वह अपनी बेवकूफियों को चांद पर भी ले जाने की कोशिश कर रहा है।'
कहीं इसकी बीमारियां सारे जगत में न फैल जाए। अभी जमीन ही इतनी नासमझी से भरी है लेकिन ज्ञान हमारा चांद पर पहुंचाने वाला हो गया है। हमारी सारी नासमझियां आदमी का सारा ढंग जीने का पुराना है और ज्ञान ने छलांग ले ली है। अब इस ज्ञान ने नई स्थितियां बना दी हैं। जिनके साथ एडजेस्ट होना पड़ेगा।
एक आदमी है अमरीका में, उस आदमी ने एक छोटा-सा प्रयोग किया वह हैरानी का है। उसने एक प्रयोग किया वह गोरा आदमी है, सफेद चमड़ी का आदमी है। उसने एक प्रयोग किया कि उसने अपने शरीर पर कलरपिगमैंट के इंजैक्शन लगवाए और अपने शरीर को नीग्रो जैसा काला करवा लिया। उस आदमी का नाम है हार्वड गर्फील, हिम्मत का प्रयोग किया। उसने इंजैक्शन लगवा कर अपनी सारी चमड़ी को काला करवा दिया। बाल घुंघराले करवाने की कोशिश की लेकिन नहीं बन सके तो उसने सिर घुटवा डाला। एक रात वह पूरी तरह नीग्रो होकर अपने कमरे से बाहर निकल गया।
यह अनुभव करने कि एक सफेद आदमी नीग्रो की चमड़ी में किस स्थिति से गुजरेगा। वह है तो सफेद आदमी लेकिन अमरीका में नीग्रो की क्या स्थिति है? यह सफेद आदमी कभी अनुभव नहीं कर सकता क्योंकि वह नीग्रो की जगह कभी खड़ा नहीं हो सकता। तो वह नीग्रो बन कर निकल पड़ा। उस आदमी ने अपने संस्मरण लिखे और बड़ी हैरानी के उसने लिखे कि पहले तो मैं बहुत डरा आईने के सामने जाने से, फिर भी मैंने सोचा के रहुंगा तो मैं वही सिर्फ काला हो गया होगा। तो जब वह आईने के सामने गया और उसने बिजली का बटन दबाया, बिजली का बटन दबाते वक्त भी उसके हाथ कंपे। जब उसने बिजली का बटन दबाया और आईने में देखा तो उसे पता चला कि मैं वही नहीं हूं। यह तो आदमी ही कोई और है।
उसकी सारी आईडेंटटी गड़बड़ हो गई। उसका जो अपना नाम था, अपना ज्ञान था, अपनी जो समझ थी वह सब गड़बड़ हो गई। वह एकदम से, जिसको कहना चाहिए मैलएडजेस्टमेंट हो गया, सब चीजें अस्त-व्यस्त हो गई। वह अपने ही हाथ को ऐसा नहीं मान सकता कि मेरा है। अब उसे शरीर अपना बिलकुल अलग मालूम पड़ने लगा और खुद बिलकुल अलग मालूम पड़ने लगा। है तो वह गोरा आदमी, गोरे आदमी की परीजीडस और गौरे आदमी के खयाल और हो गया है नीग्रो।
अगर इस आदमी की चमड़ी धीरे,धीरे,धीरे,धीरे काली पड़ती जाए और सत्तर साल लग जाएं। तो ऐसी दिक्कत नहीं आएगी। यह इंजैक्शन से बारह घंटे के भीतर संभव हो गया है। इसके दो हिस्से हो गए। यह आदमी सीज आफ फरेमिया में पड़ गया। इसका एक हिस्सा नीग्रो हो गया जो बिलकुल अलग है और एक हिस्सा अंग्रेज रह गया जो बिलकुल अलग है।
अब इन दोनों के बीच कोई ताल-मेल न रहा। उसका सिर घूमने लगा। वह सड़क पर चल रहा है तो उसे पता नहीं चलता कि मैं कौन हूं? और लोग उसकी तरफ देखते हैं तो आंखें अब वही नहीं हैं जो कल तक थी। अब लोग उसे और तरह से देख रहे है। अब वह होटल में प्रवेश कर रहा है तो लोग उसे और तरह से देख रहे हैं। लोग उससे और तरह का व्यवहार कर रहे हैं। अब वह भीतर हंस रहा है क्योंकि यह व्यवहार नीग्रो के साथ हो रहा है जो वह नहीं है।
वह अपनी चमड़ी को भी धोता है तो उसे ऐसा लगता है वह किसी और की चमड़ी धो रहा है।
यह घटना इतनी तेजी से घट गई कि इसके व्यक्तित्व में खंड हो गया। मनुष्य जाति में जोर से ज्ञान उत्पन्न किया है और ज्ञान एक्सीलीयरेटींग है। वह रोज गति बढ़ती जाएगी अगले दिनों में ढाई वर्ष में इतना हो जाएगा। फिर सवा वर्ष में इतना हो जाएगा। फिर महीने भर में इतना हो जाएगा।
इस सदी के पूरे होते-होते आदमी अपने को बड़ी मुश्किल में पाएगा और वह यह कि वह बहुत पीछे रह गया है और ज्ञान रोज बदलता जा रहा है। और उस ज्ञान के साथ नए एडजेस्टमेंट खोजने कठिन हो जाएंगे।
भारत के लिए जो सबसे बड़ा सवाल है वह यह है कि सारी दुनिया ने ज्ञान की जो खोज की है और हमने जो वह खोज नहीं की। तो हम तो अपने घर में जी रहे थे। जहां बैलगाड़ियां थीं, जहां शुद्र थे, जहां हिंदू-मुसलमान थे, जहां ब्राह्मण शूद्र की छाया से बच रहा था। हम अपनी उस दुनिया में जी रहे थे।
अचानक आंख खुली और हमने पाया कि जैसे एक सपना टूट गया है। न यहां बैलगाड़ियां हैं, न यहां जैट प्लेन हैं, जो विकसित रफ्तार से चांद की तरफ जा रहे हैं। न यहां पर कोई ब्राह्मण है, न कोई शूद्र है। सब कुछ बदल गया है चारों तरफ इस बदले हुए के साथ नए भारत को अपना एडजेस्टमेंट खोजना है। इस बदले हुए के साथ अपना संयोजना करना है।
या तो हम पागल हो जाएंगे, सिजोफरेनिक हो जाएंगे और हम जीने से इनकार कर देंगे कि हम नहीं जी सकते और या फिर हम एक छलांग लेने की तैयारी जुटाएंगे। यह तैयारी भारत के इतिहास में पहला मौका होगी। ऐसा मौका भारत को कभी नहीं आएगा।
यूरोप में ऐसा मौका नहीं आया जैसा हमें आया है क्योंकि यूरोप को विज्ञान का विकास धीरे-धीरे हुआ है वहां मेंढक की गर्मी धीरे-धीरे बढ़ी। वहां चमड़ी आहिस्ता बदली। यूरोप एडजैस्ट हो गया है।
भारत के सामने जो सवाल है वह अमेरीका के सामने नहीं है, रूस के सामने नहीं है, वह यूरोप के सामने नहीं है, वह सवाल चीन के सामने भी नहीं है। क्योंकि चीन कोड़े के बल पर छलांग लगवा लेगा। बंदूक के बल पर छलांग लग जाएगी, वहां।
हिंदुस्तान के सामने बड़ा सवाल है कि लोकतांत्रिक देश, छलांग बंदूक के कूंदे पर नहीं लगवाई जा सकती। और इतिहास की प्रक्रिया में हम ऐसी जगह खड़े हो गए हैं। जहां हमें छलांग लगानी पड़ेगी। अन्यथा हम पागल हो जाएंगे।
नया भारत अपनी पुरानी सारी शक्ति को बटोर कर एक बार अगर छलांग लगाने की तैयारी दिखाए। इस छलांग की तैयारी में जवान के पैरों की जरूरत होगी, बूढ़े की समझ की जरूरत होगी। अगर हम सारी ताकत इकट्ठी कर के लगा सकें। लेकिन ऐसा लगता है कि यह नहीं हो पाएगा। क्योंकि मुल्क में सारी ताकतें तोड़ने वाली है।
कोई महाराष्ट्रीयन को गुजराती से तोड़ता है। कोई हिंदी बोलने वाले को गैरहिंदी बोलने वाले से तोड़ता है। कोई हिंदू को मुसलमान से तोड़ता है, कोई गरीब को अमीर से तोड़ता है, कोई दक्षिण को उत्तर से तोड़ता है, कोई बाप को बेटे से तोड़ रहा है, कोई शिक्षक को शिष्य से तोड़ रहा है।
सारा मुल्क इसपलीट है और सारा मुल्क खंड-खंड है। हम इकट्ठी ताकत कैसे लगा पाएंगे? अगर हम यह नहीं लगा पाए तो भारत नया होगा इसकी संभावना कम, भारत विक्षिप्त हो जाएगा इसकी संभावना ज्यादा है। भारत पूरा का पूरा पागल हो सकता है। इसकी संभावना ज्यादा है।
यह हमें विकल्प सीधे देख लेने चाहिएं। एक रास्ता तो यह हम पागल हो जाएं जिसमें हमारे राजनैतिक बड़े कुशल हैं। वह हमें पागल करवा सकते हैं। दूसरा रास्ता यह है जिसे हमें बहुत बुद्धिमतापूर्वक भारत की सारी शक्तियों को इकट्ठा कर के. . .।
भारत में न तो गरीब और अमीर के बीच कोई संघर्ष चाहिए अभी पचास वर्षों तक, न भारत में विद्यार्थी-शिक्षक के बीच कोई संघर्ष चाहिए, न भारत में स्त्री पुरुष के बीच कोई संघर्ष चाहिए, न भारत में हिंदी बोलने वाले गैरहिंदी बोलने वाले के बीच संघर्ष चाहिए। भारत में पचास वर्षों तक कोई संघर्ष नहीं चाहिए। भारत में पचास वर्षों तक टोटल कोओपरेशन, पूर्ण सहयोग चाहिए। तो शायद हम नए भारत को जन्म देने में समर्थ हो सकते हैं और अगर यह नहीं हुआ। तो मैं समझता हूं कि जो होगा वह पुराने भारत से भी बदतर होने वाला है। वह विक्षिप्त भारत होगा, पागल भारत होगा।
आदमियों के पागल होने के संबंध में हमने सुना है । लेकिन आदमियों के पागल होने की जो स्थितियां होती हैं। वह पूरे राष्ट्र के लिए हमारे लिए खड़ी हो गई हैं।
पूरा मुल्क पागल हो सकता है। यह थोड़ी-सी बातें मैंने कहीं, इस आशा में कि आप सोचेंगे। मैं कोई मार्गदर्शक नहीं हूं। इससे मुझे जो सीधी साफ बात है कह देने में सुविधा हो जाती है। आप मेरी बात मानें ऐसा आग्रह नहीं है, आप सिर्फ सोचें। असल में, भारत बहुत जल्दी मान लेता है किसी की भी बात यही खतरा हो गया है। तो कम्यूनिस्ट कहेंगे उनकी मान लेगा सोशलिस्ट कहेंगे उनकी मान लेगा, जनसंगी कहेंगे उनकी मान लेगा, राजनेतिज्ञ कहेंगे उनकी मान लेगा, साधु कहेंगे उनकी मान लेगा। हजार तरह की मानने वाले मुल्क में इकट्ठे हो जाएंगे मानना बंद करें। अगर मुल्क की टूट बंद करनी है तो किसी को भी मानना बंद करें। सोचना शुरू करें।
सोचना एकमात्र एकता है। अगर पूरा मुल्क सोचने लगे तो सोचने के नियम अलग-अलग नहीं होते। अगर आप भी जोड़ें दो और दो कितने हैं तो चार होंगे। और मैं भी जोड़ूं तो चार होंगे और तीसरा भी जोड़ें तो चार होंगे। अगर हम सोचते हैं कि दो और दो चार होंगे। लेकिन मैं मानता हूं की कुरान में लिखा है दो और दो पांच होते हैं। मैं कुरान को मानता हूं, आप गीता को मानते हैं, उसमें लिखा है दो और दो तीन होते हैं आपके तीन होंगे। कोई मर्ाक्स को मानता है उसकी किताब में लिखा है कि दो और दो दो ही होते हैं तो वह दो ही होंगे।
मानने वाले लोग मुल्क को तुड़वा रहे हैं, तोड़े हुए हैं। मुल्क को विचार करने वाले लोग चाहिए। विचार के निष्कर्ष सदा एक है। विचार यूनीवर्सल है
तो मेरी बात को आप सिर्फ सोचेंगे मानेंगे नहीं। अन्यथा मैं भी एक टुकड़े को तोड़ने वाला ही सिद्ध हो जाऊंगा। सोचें, सोचना हमें एक जगह ले आएगा। जहां हम छलांग लगाने की तैयारी कर सकते हैं।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना इससे बहुत अनुग्रहित हूं और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं।
मेरा प्रणाम स्वीकार करें।



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