मन की मृत्यु का नाम मौन—प्रवचन—84
सूत्र:
न मुंडकेन समणो
अब्बतो अलिणं भणं।
इच्छालाभ समापन्नो
समणो किं भविस्सति ।।218।।
यो च समेति पापनि
अणु थूलानि सब्बनि।
समितत्ता हि
पापानं समाणोति पवुच्चति ।।219।।
योध पुज्जज्च
पापज्च वाहित्वा ब्रह्मचरिय वा।
संखाय लोके चरति स
वे भिक्खूति वुच्चति ।।220।।
न मोनेन मुनि होति
मूल्हरूपो अविछसू ।
यो च तुलं व पग्गय्ह
वरमादाय पंडितो ।।221।।
पापानि परिवज्जोति
स मुनि तेन सो मुनी।
यो मुनाति उभो
लोके मुनी तेन पवुच्चति ।।222।।
न सीलब्बतमत्तेन
बाहुसच्चेन वा पन।
अवथा समाधि लाभेन
विवित्तयनेन वा ।।223।।
फुसमि नेक्खम्मसुखं अपुथुज्जनसेवितं।
भिक्खु विस्सासमापादि अप्पत्तो
आसवक्खयं ।।224।।
जीवन बंधी—बंधायी
पटरियों पर दौड़ती रेलगाड़ी जैसा नहीं है। जीवन है सरिताओं जैसा मुक्त। जीवन है
स्वच्छंद। जीवन की दिशा बाहर से नहीं आती, जीवन की दिशा अंतरतम से आती है।
भीतर के आलोक से चलता है जीवन, बाहर की खींचतान से नहीं। और
जिसने भी बाहर की खींचतान से चलाने की कोशिश की, वह जीवन से
वंचित हो जाता है। जीवन की गरिमा यही है कि जबर्दस्ती जीवन पर नहीं हो सकती। जीवन
होता है तो सहज होता है। सहज स्फुरणा ही जीवन का सौंदर्य है। और जहं। तुमने
जबर्दस्ती की, जीवन को किन्हीं ढांचों में डाला, किन्हीं लकीरों पर बहाने की कोशिश की, वहीं जीवन
अपने मौलिक स्वर को खो देता है। वहीं जीवन विच्छिन्न हो जाता है जगत से, वहीं तुम टूट जाते हो। वहीं तुम्हारा संबंध अस्तित्व से विलुप्त हो जाता
है। तुम अलग— थलग पड जाते हो। उस अलग— थलग पड जाने में ही अहंकार का जन्म है।
दूसरी
बात, जीवन को समझने के लिए लकीर के फकीर होना आवश्यक नहीं है; आवश्यक तो है ही नहीं, खतरनाक है, घातक है। जीवन इतना विराट है कि तुम उसे सिद्धातों के संकरे दायरे में
बांध न सकोगे। जीवन किसी आगन में बंधता नहीं। जीवन आकाश जैसा है। और जहां तुमने
आगन में बांधा, वहीं गंदगी शुरू हो जाती है। जैसे ही तुमने
जीवन को सिद्धांत में ढाला, वहीं तुमने एक संकरी गली में डाल
दिया विराट को। यह तुम असंभव करने की कोशिश कर रहे हो।
लेकिन
मन करता है यह कोशिश। क्योंकि मन की एक तकलीफ है—मन विराट के सामने घबड़ाता है। मन
असीम के सामने कंपता है। असीम में तो मन को लगता है, हुई मेरी मृत्यु। तो मन हर
चीज को सीमा देना चाहता है। मन हर चीज को अपने अनुकूल, अपने
अनुसार चलाना चाहता है। मन हर चीज का नियंत्रक होना चाहता है। मन नियंत्रण में
सुरक्षा पाता है। और जहां नियंत्रण नहीं है, वहीं मन डावाडोल
होता है, घबड़ाता—मौत सामने खडी मालूम होती है।
मन
मौत से बहुत डरता है,
कहीं मिट न जाऊं। ऐसे ही जैसे बूंद सागर में जाने से डरे। गयी तो
मिटेगी। यद्यपि यह एक ही पहलू है, मिटना। दूसरा पहलू यह है
कि सागर हो जाएगी। मगर दूसरे पहलू की तो बूंद को खबर कहां हो, कैसे हो! मिटे न, तब तक तो पता कैसे हो! मिटने के
पहले तो यही लगता है कि मिट जाऊंगी। तो बूंद अगर हर चेष्टा करती हो अपने को सागर
से बचा लेने की, तो कुछ आश्चर्य नहीं है। ऐसे ही मन की बूंद
अपने को बचाने की चेष्टा करती है। स्वभावत:, मन बड़े तर्क,
बड़े सिद्धांत, बड़े शास्त्रों का आयोजन करता है,
जिनकी आडू में बच जाए।
आज
के बुद्ध के सूत्र मन के ऐसे ही आयोजनों के संबंध में हैं। इनसे तुम्हारे जीवन में
बड़ी रोशनी आ सकती है।
पहला
दृश्य:
एक भिक्षु थे— हत्थक। वे स्वयं को सत्य का अथक
खोजी मानते थे।
स्वभावत:, जो अपने
को सत्य का अथक खोजी माने, वह शास्त्रों में उलझ जाता है।
जैसे कि शास्त्रों में सत्य हो। निकले सत्य की खोज को, खो
जाते हैं शास्त्रों के अरण्य में। चाहते तो थे गहरे में जान लें कि जीवन क्या है,
चाहते तो थे कि जान लें यह विराट अस्तित्व क्या है, लेकिन आंखें अटक जाती हैं शास्त्रों में। तो हत्थक बड़े शास्त्री बन गए।
सत्य की खोज मन ने झुठला दी। मन ने कहा, सत्य चाहिए, शास्त्र में झांको। सत्य चाहिए, तो सारे सिद्धातों
में झांको।
सत्य
के खोजी अक्सर पंडित बन जाते हैं। वह मन ने धोखा दे दिया। सत्य की खोज का शास्त्र
से क्या लेना—देना! शास्त्र से बडी तो सत्य के मार्ग में कोई और बाधा नहीं है! हां, तुम सत्य
को जान लो तो शायद तुम शास्त्र में भी सत्य को पा सको, लेकिन
इससे उलटा नहीं हो सकता कि तुम सत्य को बिना जाने और शास्त्र में पा सको। यह असंभव
है। सत्य को जान लो, फिर शास्त्र को देखो तो शायद तुम्हें
गवाहियां मिल जाएं कि हां, ठीक, जो
मैंने जाना वही औरों ने भी जाना है। लेकिन तुम्हारा जानना प्राथमिक है। दूसरों का
जानना दोयम, नंबर दो की बात है। तुमने न जाना हो तो दूसरों ने
कितना ही जाना हो, इससे कुछ फर्क न पड़ेगा। और दूसरे जो
कहेंगे, उसे तुम समझोगे कैसे?
कृष्ण
की गीता पढ़ोगे,
समझोगे तो अपनी ही गीता। अर्थ तो तुम अपने डालोगे। अर्थ तो कृष्ण के
नहीं हो सकते। कृष्ण का अर्थ जानने के लिए तो तुम्हें कृष्णमयी चेतना में उतरना
होगा। कृष्ण का अर्थ कहां से आता है? शब्दकोश से थोड़े ही आता
है। काश, शब्दकोश से आता तो बात कितनी आसान हो जाती! कृष्ण
का अर्थ आता है कृष्ण के चैतन्य से। तुम्हारा अर्थ आएगा तुम्हारे चैतन्य से। पढोगे
कृष्ण की गीता, लेकिन पढ़ोगे अपनी ही गीता। ऊपर—ऊपर दिखेगा
कृष्ण के शब्द पढ़ रहे हैं, अर्थ कौन डालेगा? उन शब्दों पर रंग कौन चढ़ाका? उन शब्दों की व्याख्या
कौन करेगा? उन शब्दों की व्याख्या तो तुम करोगे।
कृष्ण
के शब्द और व्याख्या तुम्हारी! आकाश को घसीटकर तुम अपने आगन में ले आओगे। कोई उपाय
नहीं है कृष्ण के शब्द से जाने का, न क्राइस्ट के शब्द से, न बुद्ध के शब्द से। अगर सत्य तक जाना हो, तो
निःशब्द से मार्ग है।
एक
भिक्षु थे— हत्थक। वे स्वयं को सत्य का खोजी मानते थे। स्वभावत: शास्त्रों में उलझ
गए। विवाद उनका जीवन बन गया। शास्त्रार्थ उनकी चर्या हो गयी।
सुबह
से सांझ तक उठते— बैठते तर्क और तर्क संन्यस्त होने के पहले बड़े झगडैल थे।
संन्यस्त होने के बाद झगड़ा तो बंद हो गया लेकिन झगड़े ने नया रूप ले लिया। मन बड़ा
चालबाज है। अब गाली— गलौज तो नहीं करते थे अब गाली— गलौज बड़ी तार्किक हो गयी थी।
अब झगड़ा किसी का सिर फोड़कर नहीं करते थे लेकिन किसी का सिद्धांत छोड्कर।
वह
भी सिर फोड़ना ही है।
अब
दूसरे को नीचा दिखाते थे— शारीरिक बल से नहीं मानसिक बल से— लेकिन दूसरे को नीचा
दिखाना जारी था।
मन
से जागना, मन बड़ा होशियार है। एक तरफ से हटो, दूसरी तरफ उलझा
देता है। पहले झगडैल थे, अदालतों में खड़े रहते थे। फिर ऊब गए
अदालतों से, ऊब गए झगड़ों से, संन्यस्त
हो गए। तब नए विवाद खड़े हो गए। नए झगड़े के ढंग सीख लिए। अब झगड़ा और भी सभ्य और
सुसंगत हो गया। अब अदालत में जाने की जरूरत भी न रही। अब उठते—बैठते झगड़े की
तैयारी थी। बोलो कि झगड़ा हो जाए। तुम जो बोले, उसी पर वह
विवाद करने को तत्पर थे।
ऐसे
विवाद उनकी श्वास— श्वास में भर गया। शास्त्रार्थ उनकी चर्या हो गयी। तर्क में
कुशल थे पर ध्यान से अपरिचित।
तर्क
में अगर तुम कुशल हो और ध्यान से अपरिचित, तो तुम अपनी आत्महत्या कर लोगे।
तर्क खतरनाक है, छोटे बच्चे के हाथ में तलवार है। कि छोटे
बच्चे के हाथ में जहर की प्याली है। हा, कुशल हाथों में तर्क
हो, तो जैसे वैद्य के हाथ में जहर की प्याली हो तो औषधि बन
जाए। हां, कुशल हाथों में तलवार हो तो जीवन का रक्षण बन सकती
है। लेकिन छोटे बच्चे को दे दी तलवार, तो या तो किसी को
काटेगा—और किसी को काटेगा वह तो ठीक है, आज नहीं कल अपने को
भी कांट लेगा। जहर औषधि बन सकती है कुशल हाथों में और अमृत भी जहर बन सकता है
अकुशल हाथों में।
जिसने
ध्यान को जाना है,
उसके हाथ में तर्क तो बड़ी कुशल बात हो जाती है। क्योंकि वह लोगों को
तर्क के सहारे ध्यान की तरफ उठाने लगता है। जिसने ध्यान को नहीं जाना, उसके हाथ में तर्क बड़ी खतरनाक चीज है, वह ध्यान की
तरफ जाते लोगों को खींच—खींचकर मन में वापस ले आता है।
तर्क
में कुशल थे और ध्यान से अपरिचित।
छुद्र
से कुशल, छुद्र में कुशल। सूक्ष्म में, विराट में उनकी
अकुशलता थी। हर बात पर विवाद कर सकते थे, और हर बात पर लोगों
को हरा सकते थे। हर उपाय से हरा सकते थे। लेकिन अभी खुद की जीत भीतर हुई न थी। अभी
आत्मविजेता न बने थे।
इसे
समझना। तुम तभी तक दूसरों को जीतने में उत्सुक होते हो, जब तक
तुमने स्वयं को नहीं जीता। असल में स्वयं को न जीतने की बात इतनी पीड़ा देती है,
स्वयं को न जीतने की बात इतना घाव बन जाती है कि इस घाव को किसी तरह
दूसरों पर जीत बनाकर तुम भुला लेना चाहते हो। पर—विजय पर वही जाता है जो भीतर
पराजित है। जो जानता है, अपने पर तो विजय हो नहीं सकी—किसी
तरह दूसरों के सिरों पर झंडे गाड़ दूं।
दूसरों
को हराना आसान है। अपने को हराना कठिन है। क्योंकि तुम जो भीतर हो, छोटे नहीं
हो। तुम तो बड़े हो, बहुत बड़े हो, बड़े
आयाम हैं तुम्हारे। तुम्हें अपने पूरे होने का पता ही नहीं है। तुम्हारी बड़ी
गहराइयां हैं, गहराइयों पर गहराइयां हैं, ऊंचाइयों पर ऊंचाइयां हैं। तुम चढ़ोगे तो गौरीशंकर छोटा पड़ जाएगा तुमसे।
तुम गहरे उतरोगे तो प्रज्ञात सागर उथला हो जाएगा तुमसे। तुमने अपने को जाना नहीं।
तुम तो द्वार—दरवाजे पर खड़े हो, तुम अपने महल में प्रविष्ट
ही नहीं हुए। जितनी बड़ी दुनिया बाहर है, उतनी बड़ी दुनिया
प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर लिए चल रहा है। और बाहर जो दुनिया है, इससे ज्यादा गहरी और ज्यादा मूल्यवान दुनिया भीतर लेकर चल रहा है।
बाहर
के साम्राज्य को पाने के लिए वही उत्सुक होता है, जो भीतर दरिद्र है, जिसको भीतर के साम्राज्य का कोई पता नहीं है। जो अपना सम्राट नहीं है,
वह दूसरों का सम्राट बनने को उत्सुक होता है।
इसलिए
मैं बार—बार कहता हूं कि राजनीति और धर्म का मेल नहीं होता। ये विपरीत आयाम हैं।
राजनीति का अर्थ है,
दूसरे पर ताकत। धर्म का अर्थ है, अपने पर ताकत।
राजनीतिज्ञ अधार्मिक होगा ही। राजनीतिज्ञ और धार्मिक हो, यह
असंभव है। और धार्मिक राजनीतिज्ञ हो, यह भी असंभव है। अगर
तुम धार्मिक को राजनीतिज्ञ पाओ, तो समझ लेना कि धार्मिक नहीं
है। और अगर तुम राजनीतिज्ञ को धर्म की बातें करते पाओ, तो
समझ लेना कि यह भी राजनीति का एक उपाय है। ये दोनों एक साथ हो नहीं सकते, यह असंभव है। जैसे कि तुम ऊपर—नीचे एक साथ नहीं जा सकते। जैसे कि तुम बाएं—दाएं
एक साथ नहीं जा सकते। जैसे कि उत्तर—दक्षिण एक साथ नहीं जा सकते। ऐसे ही कोई
व्यक्ति राजनीति और धर्म में एक साथ नहीं जा सकता। राजनीति का अर्थ है, दूसरे पर कब्जा करने की चेष्टा। राजनीति हिंसा है। और धर्म का अर्थ है,
अपने पर विजय की यात्रा। धर्म अहिंसा है।
फिर
तुम कैसे दूसरों पर विजय पाने की कोशिश करते हो, यह— बात गौण है। कोई तलवार
से करता है, कोई धन से करता है, कोई पद—प्रतिष्ठा
से करता है, कोई तर्क से करता है, कोई
ज्ञान से करता है। कोई त्याग से भी करता है, खयाल रखना।
त्याग से भी वही हो जाता है।
तुमने
गांव में सबसे ज्यादा त्याग कर दिया, तो तुमने सारे गाव पर विजय पा ली।
तुमने सारे गांव को हरा दिया। कौन तुम जैसा दानी है! तुमने एक बड़ा उपवास कर लिया,
इक्कीस दिन का उपवास कर लिया, सारे गांव को
मात दे दी। कौन तुमसे बड़ा उपवासी! कि तुम नग्न खडे हो गए, कि
धूप—बरसात, सर्दी—गर्मी में तुम नग्न खड़े रहने लगे, तुमने सारे गांव को मात दे दी कि कौन मुझ जैसा त्यागी! मगर ध्यान रखना,
अगर तुम्हारी नजर दूसरों पर लगी है, अगर इसमें
कहीं भी प्रतियोगिता है, किसी भी तल पर प्रतियोगिता का स्वर
है, तो यह राजनीति है।
धर्म
अप्रतियोगी है,
नान—कापिटीटिव है। धर्म का कोई संबंध दूसरे से नहीं। और तब ऐसा भी
हो सकता है कि जिन लोगों को तुम साधारणत: धार्मिक नहीं कहते, उनमें भी धार्मिक लोग हों। अप्रतियोगी आदमी धार्मिक है।
समझो
कि एक आदमी गीत गा रहा है,
और गीत गाते क्षण में उसके मन में कोई प्रतिएकर्धा नहीं है, वह किसी को हराने के लिए गीत नहीं गा रहा है, किसी
को पराजित करने के लिए गीत नहीं गा रहा है, उसके भीतर गीत
उठा है, वह गीत गा रहा है, तो यह
व्यक्ति धार्मिक है। इस गीत गाते क्षण में धार्मिक है।
एक
व्यक्ति बैठा बांसुरी बजा रहा है, किसी से कुछ लेना—देना नहीं है। कहीं भी,
मन के किसी भी तल पर इस बांसुरी के बजाने की किसी और से कोई तुलना
नहीं चल रही है कि मैं दूसरे से अच्छा बजाऊं, तो यह कृत्य धार्मिक
है।
एक
व्यक्ति चित्र बना रहा है। न पिकासो को हराना है, न डाली को हराना है,
न किसी को हराना है। किसी का कोई लेना—देना नहीं है। अपने आनंद से,
स्वांत: सुखाय, अपने सुख से चित्र बना रहा है,
रंग रहा है, रंगने में बड़ा आनंदित हो रहा है।
जैसे अकेला ही हो इस पृथ्वी पर, कोई और है ही नहीं। इस एकांत
में जो स्वात: सुखाय रसधारा बहती है, वही धर्म है।
और
तुम अगर मंदिर गए,
और तुम प्रार्थना कर रहे हो, और तुम चारों तरफ
देखने लगे कि लोग भी देख रहे हैं कि मैं प्रार्थना कर रहा हूं या नहीं, तो अधर्म हो गया। और अगर तुमने यह देखा कि आज कोई भी मंदिर में नहीं है,
तो तुमने जल्दी—जल्दी प्रार्थना की कि क्या मतलब है, कोई देखने वाला तो है नहीं, और भगवान तो हैं कहा,
पत्थर की मूर्ति खड़ी है, जल्दी करो कि देर करो,
कि तुम कुछ—कुछ बीच की पंक्तियां छोड़ भी गए, कौन
देखने वाला है, जल्दी से पूजा कर ली और निकल आए। और अगर लोग
देखने वाले हुए तो तुमने बड़ी गंभीरता दिखलायी और बड़े डोले और बड़ी आरती चलायी,
और काफी देर लगायी, जो दो मिनट में हो जाता
काम उसमें बीस मिनट लगाए—इतने लोग देखने वाले थे! और अगर एक फोटोग्राफर भी खडा हो
और अखबार में खबर छपने वाली हो, तो तुम एकदम तल्लीन हो गए,
एकदम महत तल्लीनता में पहुंच गए, मीरा को मात
कर दो, ऐसे डोलने लगे, आंसू बहाने लगे—अगर तुम्हारे भीतर ऐसा कुछ चल रहा हो
तो प्रार्थना भी अधार्मिक हो जाती है।
कोई
कृत्य अपने में धार्मिक नहीं होता और कोई कृत्य अपने में अधार्मिक नहीं होता।
तुम्हारी भावदशा उसे धार्मिक या अधार्मिक करती है।
यह
भिक्षु हत्थक तर्क में कुशल और ध्यान से अपरिचित शब्द के धनी थे और मौन में दरिद्र।
अक्सर
ऐसा हो जाता है। और जब तक शब्द मौन से न आए, तब तक व्यर्थ होता है। जब तक शब्द
तुम्हारे भीतर के शून्य में फट्ट हुआ न आए, तब तक उसमें कुछ
भी नहीं होता, बेजान होता है। जब तुम्हारे भीतर की रसधार में
पगकर आता है, जब तुम्हारे शून्य के गर्भ से उठता है शब्द,
तब उस शब्द में सार होता है। शब्द में तो सार होता ही नहीं, सार तो शून्य में होता है। लेकिन जब शून्य से शब्द उठता है तो शब्द के
आसपास लिपटा हुआ थोड़ा सा शून्य भी चला आता है।
जैसे
कि तुम बगीचे से निकले,
तुम्हें याद हो या न हो याद, घर जाकर तुम
पाओगे—वस्त्रों में थोड़ी गंध है। फूलों की गंध वस्त्रों को पकड़ गयी। ऐसे ही शब्द
जब किसी शून्य हृदय में उठता है, तो शून्य की गंध शब्द को पकड
जाती है। वैसे शब्द में कुछ सार होता है। अर्थात जब मौन से शब्द निकलता है,
तभी सार्थक होता है। और जब मौन से शब्द नहीं निकलता, शब्दों से ही शब्द निकलते हैं, बात में से बात
निकलती है, शब्दों के साहचर्य से शब्द निकल आते हैं, तो समझना कि तुम अपना भी समय व्यर्थ कर रहे हो र दूसरों का भी समय व्यर्थ
कर रहे हो। तुम अपना कूड़ा—करकट दूसरों में डाल रहे हो।
लोग
नासमझ हैं। किसी के घर में जाकर तुम कूड़ा—करकट डालो तो झगड़ा हो जाए। लेकिन किसी की
खोपड़ी में कितना ही कूड़ा—करकट डालो, कोई झगड़ा नहीं होता। वह बड़े प्रेम
से सुनता है, वह कहता है कि और सुनाइए! और गपशप क्या गांव
में चल रहा है!
हम
एक—दूसरे के सिर में कचरा डालते रहते हैं। हम एक—दूसरे के सिर का उपयोग कचरे की
टोकरी की तरह करते हैं।
शब्द
के धनी थे यह हत्थक और मौन में थे दरिद्र।
और
अक्सर ऐसा हो जाता है कि भीतर मौन की दरिद्रता हो तो आदमी बड़ा बकवासी हो जाता है।
फिर छिपाए भी कैसे! अपनी नग्नता को छिपाए भी कैसे! शब्दों के वस्त्र ओढू लेता है।
शब्दों के आधार पर भूले रहता है कि मैंने मौन नहीं जाना। और मौन में है सौंदर्य, और मौन
में है आनंद। और मौन में ही सत्य की झलक है।
तो
जिनके पास मौन न हो और केवल शब्द हों, उनसे सावधान होना। और अपने भीतर भी
देखना। वही बोलना, जो तुम्हारे मौन में जन्मा हो। तो तुम
पाओगे, तुम्हारे शब्दों में एक बल आ गया। तुम्हारे शब्दों
में एक प्रगाढ़ शक्ति का जन्म हो जाएगा। तुम्हारे शब्द शक्ति के वाहक बन जाएंगे।
तुम्हारा एक—एक शब्द तीर हो जाएगा। जिस हृदय पर लग जाएगा, उस
हृदय में नयी स्फुरणा कर जाएगा। और तुम्हारे शब्दों में एक काव्य आ जाएगा। तुम
चाहे कविता जानते हो या न जानते हो,
तुम्हारे शब्दों
में एक गुनगुनाहट आ जाएगी। और तुम्हारे शब्दों में एक सौंदर्य होगा, जो इस जगत
का नहीं है।
लेकिन
शून्य से आए शब्द तो ही। पंडित का शब्द तो गंदा होता है, बासा होता
है। ज्ञानी का शब्द! और ज्ञानी का अर्थ यही है कि जिसने अपने भीतर निःशब्द होने की
कला सीख ली। पहले चुप हो जाओ। पहले ऐसे चुप हो जाओ कि चुप्पी सनातन जैसी मालूम
होने लगे, शाश्वत मालूम होने लगे। फिर उस चुप्पी में जो
अनुभव हो, उसे बांधना शब्द में। तब तुम्हारे पास बांधने को
कुछ है। नहीं तो अभी तो कोरे शब्द हैं, जिनके भीतर कुछ भी
नहीं है—खाली डिब्बे हैं।
यह
जो हत्थक थे शब्द के धनी थे और मौन में दरिद्र थे लेकिन स्वभावत: बड़े अहंकारी थे।
शब्द
का धनी हो आदमी तो अहंकारी हो जाता है। आदमी भाषा का गुलाम है। तुमने यह बात देखी? कि समाज
में वे लोग बहुत महत्वपूर्ण हो जाते हैं, जो शब्द के धनी हैं।
नेता बन जाएं, गुरु बन जाएं। जो शब्द का धनी है, वह सब जगह प्रथम हो जाता है। क्यों? वह बोलने में
कुशल है। उसके पास एक दक्षता है। बोलते सभी हैं, लेकिन कोई
जो बोलने में कुशल हो जाता है, वह दूसरों को पीछे डाल देता
है, वह आगे निकल जाता है। अगर तुम बोलने में कुशल नहीं हो तो
एक बात पक्की है कि तुम जिंदगी में कहीं भी किसी प्रतिएकर्धा में आगे खड़े न हो
सकोगे। मनुष्य का सारा समाज भाषा से बना है। और भाषा में जो जितना कुशल होता है,
वह उतना आगे हो जाए तो आश्चर्य नहीं है।
इसलिए
जो लोग बोलने में कुशल होते हैं, स्वभावत: भीतर एक अहंकार का जन्म हो जाता है कि
मैं कुछ हूं। अगर शून्य से शब्द आएं, तो यह अहंकार पैदा नहीं
होता। तब तो एक उलटी बात घटती है। समझ लेना इसे ठीक से। अगर शून्य से शब्द आएं तो
ऐसा लगता है हर बार बोलकर कि जो कहना था, वह कह नहीं पाया।
अहंकार की तो बात दूर, एक बडी विनम्रता पैदा होती है कि जो
कहना था, कह नहीं पाया। क्योंकि जो जाना जाता है भीतर,
वह इतना बड़ा है कि शब्दों में अंटता नहीं, समाता
नहीं। शब्द छोटे—छोटे पड़ जाते हैं।
मुझसे
लोग पूछते हैं कि आप रोज कैसे बोलते हैं? रोज इसीलिए बोल पाता हूं, कल बोला, देखा कि नहीं कह पाया, फिर आज बोलता हूं; चलो, एक और
कोशिश करें, शायद अब हो जाए। फिर कल बोलूंगा। क्योंकि मुझे
पक्का पता है कि यह होने वाला नहीं है। यह कुछ बात ऐसी है कि कही जाती है, लेकिन कही नहीं जा सकती।
लाओत्सु
ने कहा है, जो कहा जा सके, वह सत्य नहीं।
फिर
भी बुद्ध ने,
लाओत्सु ने, कृष्ण ने, महावीर
ने, क्राइस्ट ने कहा तो है। कहने की चेष्टा की है। लेकिन ये
सारे लोग विनम्र हैं इस संबंध में, क्योंकि ये जानते हैं कि
जो इन्हें अनुभव में हुआ है, वह अंटता नहीं। शब्द में आते—आते
ओछा हो जाता है, छोटा हो जाता है, विकृत
हो जाता है।
तुमने
प्रेम जाना, कोई तुमसे कहे, कह दो, क्या है?
तो तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। तुम गए सुबह, तुमने
सूरज को ऊगते देखा, पक्षियों को गीत गाते देखा, सुबह की ताजी हवा में तुम भी गुनगुनाए, तुम भी मगन
हुए, मस्त हुए। फिर तुम घर आए और किसी ने पूछा कि कहो,
कैसा था सूर्योदय? क्या कहोगे? और जो भी तुम कहोगे, क्या तुम सोचते हो कि तुम कह
पाओगे जो तुमने जाना था उस सुबह की घड़ी में? उस प्यारी घड़ी
में जो हुआ था, वह जो मधुर रस बहा था, वे
जो किरणें तुम्हारे चारों तरफ नाच गयी थीं, वह जो परमात्मा
किसी बड़े अपूर्व रूप से तुम्हारे चारों तरफ खड़ा हो गया था, कह
पाओगे उसे?
और
तुम्हारा बेटा तुमसे पूछने लगे कि चलो, मैं तो गया नहीं था, आप मेरी कापी पर बनाकर बता दें, सूर्योदय कैसा था!
तो बना सकोगे? सूर्य बना दोगे, गोल
गोला बना दोगे, किरणें बना दोगे, पहाड़ियां
बना दोगे, झील बना दोगे, मगर क्या तुम
सोचते हो, इस कागज पर बनी तस्वीर का कुछ भी संबंध है उससे जो
तुमने देखा था? कुछ भी संबंध नहीं है। यह मुर्दा तस्वीर है,
वह जीवंत था। वह विराट था, यह छोटे से पन्ने
पर समा गया। और यह उसका बहुत छुद्र अंश है। वह इससे करोड़—करोड गुना था। उसके
विस्तार को कैसे कागज' पर लाओगे।
छोड़ो
कागज की, अब तुम्हारे पास बेहतर साधन हैं, तुम एक कैमरा लेकर जा
सकते हो। तस्वीर उतार लेते हो। लेकिन तस्वीर भी कहा तस्वीर हो पाती है! तस्वीर में
भी कहां बात बनती है!
तो
जिसके पास भीतर का अनुभव है, उसको अहंकार तो पैदा होता ही नहीं। उसको तो हर
बार हार हाथ लगती है। हर बार गीत गाता है और हर बार पाता है कि जो गाना था,
पीछे छूट गया। शब्द के तीर तो चले गए, जो
शब्दों के तीर पर रखना था, चढ़ाना था, वह
पीछे पड़ा रह गया। हर बार चेष्टा करता है, संदेश भेजता है,
संदेश चला जाता है, लेकिन मूल छूट जाता है। हर
बार ऐसा होता।
तो
जो अनुभव किया है,
उसे शब्द से अहंकार नहीं बढ़ता। लेकिन जिसने अनुभव नहीं किया है,
उसे शब्द बोल—बोलकर बड़ा अहंकार बढ़ता है।
तो
हत्थक बड़े अहंकारी थे। फिर तर्क में सच— झूठ भी न देखते थे।
तर्क
में सच—झूठ होता भी नहीं। जब विजय ही लक्ष्य हो, तो क्या सच, क्या झूठ? विजय जब लक्ष्य हो और झूठ से विजय मिलती
हो, तो झूठ ही सच मालूम होता है। खयाल रखना, कहते तो वह थे कि मैं सत्य का खोजी हूं लेकिन मूलतः विजय के खोजी थे। तुम
भी जब किसी से विवाद करते हो तो सत्य की खोज में करते हो? कि
सिर्फ एक आकांक्षा जीत लेने की?
दुनिया
में दो तरह के लोग हैं। एक वे, जो सत्य को अपने पीछे चलाना चाहते हैं, और एक वे, जो सत्य के पीछे चलना चाहते हैं। जो सत्य
के पीछे चलना चाहता है, उसकी विजय की कोई आकांक्षा नहीं होती,
वह तो सत्य से हारने को तत्पर है। जो सत्य को अपने पीछे चलाना चाहता
है, उसकी विजय की आकांक्षा होती है। वह सत्य को भी अपने
अनुकूल चाहता है। वह सत्य को भी कांट—पीट देता है। वह सत्य को भी ऐसा रंग—ढंग देता
है कि जिससे विजय हो सके।
विवादी
सत्य का खोजी नहीं होता। लेकिन हत्थक को यही भ्रांति थी कि वह सत्य का खोजी है।
विवादी विजय का खोजी होता है, इसे खयाल रखना। और तुम अपने भीतर खूब गौर कर
लेना कि तुम विजय की खोज में लगे हो कि सत्य की खोज में। क्योंकि दोनों यात्रा—पथ
बिलकुल अलग हैं। विजय की जो यात्रा है, वह राजनीति है। और
सत्य की जो यात्रा है, वह धर्म है। और विजय की यात्रा में
दूसरे की छाती पर चढ़ने की आयोजना है। और सत्य की यात्रा में, सत्य के चरणों में सिर झुका देने की, सत्य के सामने
समर्पित हो जाने की।
जब
तुम विवाद करते हो तो क्या तुम यह कहते हो कि यह विवाद मैं सत्य की खोज के लिए कर
रहा हूं? कहते सभी विवादी यही हैं, लेकिन असली खोज यह होती है
कि मैं सही, तुम गलत। और कभी—कभी तुमने यह भी पाया होगा कि
कल तुम किसी से विवाद किए थे और तुमने जो बात कही थी कि सही है, आज किसी और से विवाद करते तुम उसी बात को गलत भी कह दिए, क्योंकि आज इसी से जीतने में सुगमता होती थी।
तर्क
में सच—झूठ नहीं होता,
तर्क तो वकील है। वकील के पास सच—झूठ नहीं होता। वकील तो कहता है,
तुम जैसे भी हो, जिताऊंगा। तुम जैसे हो,
उसी के पक्ष में सत्य को लाकर खड़ा करूंगा। सत्य को बदल देंगे,
तुम्हें बदलने की जरूरत नहीं। कानून से कांट—छांट करेंगे, सत्य को ऐसा ढंग देंगे कि वह भी तुम्हारा गवाह बन जाए।
इसलिए
वकील एक तरह का झूठ का व्यवसाय करता है। वकालत एक तरह की वेश्यागिरी है। वेश्या
अपने शरीर को दूसरे के उपयोग के लिए दे देती है, वकील अपने मन को दूसरे के
उपयोग के लिए दे देता है। यह वेश्या से भी पतित कृत्य है। वकील का कोई सत्य नहीं
होता।
यूनान
में सोफिस्ट हुए। सुकरात उनके खिलाफ लडा। सोफिस्ट ऐसे लोग थे कि वे कहते थे कि सच
और झूठ होता ही नहीं। वे कहते थे, जिसको तर्क की कला आती है, वह जिस चीज को चाहे सच कर ले और जिस चीज को चाहे झूठ कर ले। सोफिस्ट कहते
थे, सत्य और झूठ जैसी कोई चीज नहीं होती, तर्क की कुशलता सत्य बन जाती है और तर्क की अकुशलता झूठ बन जाती है। और वे
लोगों को यही सिखाते थे। और उन्होंने बड़ी—बड़ी पाठशालाएं खोल रखी थीं, जिनमें लोगों को शिक्षण दिया जाता था सच को झूठ करने का, झूठ को सच करने का। और वे बड़े कुशल तार्किक थे।
ऐसे
कुशल तार्किक सारी दुनिया में हुए हैं। उनकी कोई निष्ठा नहीं होती। उनका कोई
समर्पण नहीं होता,
उनकी कोई आस्था नहीं होती। वे तो केवल तर्क का खेल खेलना जानते हैं।
तर्क उनका व्यवसाय होता है। जैसे तुमने व्यवसायी खिलाड़ी देखे न! कोई फुटबाल का
व्यवसायी खिलाड़ी है, कि क्रिकेट का व्यवसायी खिलाड़ी है,
उसे कोई मतलब नहीं, जो पैसा दे दे वह उसके साथ
हो जाता है। ऐसे सोफिस्ट थे, जो पैसा दे दे उसके साथ हो जाते।
वकील एक तरह का सोफिस्ट है।
यह
जो आदमी था हत्थक,
एक तरह का सोफिस्ट रहा होगा। उसे विजय की आकांक्षा थी। येन—केन—प्रकारेण,
कैसे भी हो, विजय होनी चाहिए। ईमानदारी से हो,
बेईमानी से हो, अच्छे रास्ते से हो, बुरे रास्ते से हो, उसे साधन की शुद्धि का कोई खयाल
न था। साध्य उसका एक था कि विजय मिलनी चाहिए।
और
तुम यही जीवन में भी पाओगे। जिन लोगों के जीवन में विजय की ही आकांक्षा सब कुछ है, वे सभी
तरह से विजय पाने की कोशिश करते हैं। धोखाधड़ी से हो, जालसाजी
से हो, पाखंड से हो, विजय मिलनी चाहिए।
विजय पर ही सारा ध्यान होता है। इसलिए विजय का आकांक्षी कभी धार्मिक नहीं हो सकता।
अगर अधर्म से विजय मिलती होगी तो वह क्या करेगा! जब विजय की ही आकांक्षा है तो फिर
अधर्म से मिले तो अधर्म ही सही, अधर्म का ही साधन बना लेंगे।
धार्मिक व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य विजग नहीं होता। विजय लक्ष्य हुई कि फिर जीवन
धार्मिक नहीं रह जाता।
एक
दिन वह तीर्थको को चुनौती दे आया।
तीर्थक
उन दिनों के जैन,
जैनों का यह नाम है बौद्ध शास्त्रों में, तीर्थंकर
को मानने वाले—तीर्थक।
वह
एक दिन तीर्थको को चुनौती दे आया और कह आया अमुक— अमुक स्थान पर मिलो अमुक— अमुक
समय पर वहीं शास्त्रार्थ होगा और तुम्हारी हार निश्चित है। और फिर समय के पूर्व ही
जाकर लोगों से बोला देखो तीर्थक भाग गए यही उनकी हार है
समय
दिया, स्थान बताया और समय के पहले वहा पहुंचकर लोगों से कह दिया कि देखो भाग खड़े
हुए वे लोग। यह उनकी हार है।
भगवान
को यह शांत हुआ तो उन्होंने हत्थक को बुलाकर कहा क्या भिक्षु तू सचमुच ऐसा करता
है! यह तो हइ हो गयी
यह
तो झूठ की हद्द हो गयी। यह कोई जीतना जीतना हुआ। पहले तो विवाद व्यर्थ, पहले तो
विजय की आकांक्षा व्यर्थ, और फिर ऐसे उपाय! कि उनको एक समय
दिया, उसके पहले पहुंच गया, अभी वे आए
ही नहीं थे, कि तूने बता दिया, त्नोगों
को खबर कर दी कि वे भाग खडे हुए हैं। यह भी कोई विजय हुई!
हत्थक
सकुचाए। लेकिन झूठ बोलने में अति कुशल होते हुए भी भगवान के समक्ष झूठ न बोल सके।
सदगुरु
का यह बहुत से उपयोगों में एक उपयोग है कि तुम उसके सामने झूठ न बोल सकोगे। सदगुरु
का बहुत उपयोग है साधक के जीवन में, उनमें एक महत्वपूर्ण उपयोग यह भी
है। तुम और सब जगह तो झूठ बोल सकोगे, और जगह झूठ बोलने में
अडूचन न आएगी, याद ही न पड़ेगा कि तुम झूठ बोल रहे हो;
जहां जिस बात से सुगमता मिलेगी, वही चला लोगे।
लेकिन कहीं एक जगह ऐसी होनी चाहिए, जहां तुम झूठ न बोल सको,
वहीं तुम्हें अपने से साक्षात करने का मौका मिलेगा। कोई तो चरण ऐसे
होने चाहिए जहां जाकर तुम्हें सच होना पड़े। जहां तुम चाहो भी तो भी झूठ न हो पाओ।
कोई तो आंखें ऐसी होनी चाहिए जिनमें तुम झांको और अपनी सचाई को झलकता हुआ पाओ।
सदगुरु
दर्पण है। उसके सामने जब शिष्य खड़ा होता है, तो झूठ नहीं बोल पाता। जिसके सामने
तुम झूठ न बोल पाओ वही तुम्हारा गुरु है, यह गुरु की परिभाषा
समझो। अगर तुम उसके सामने झूठ बोल पाओ, तो वह तुम्हारा गुरु
नहीं है।
इसे
खयाल में लेना,
यह तुम्हारे काम की बात है। अगर तुम जिसके सामने झूठ बोलने में सफल
हो अभी, तो समझना कि तुमने उसे गुरु— भाव से स्वीकार नहीं
किया। तुमने उसे गुरु नहीं माना। गुरु का अर्थ ही यह होता है, जिससे अब तुम कुछ भी न छिपाओगे, जैसा है वैसा प्रगट
कर दोगे। जिसके सामने तुम नग्न होने में समर्थ होओगे, तुम
सारे वस्त्र छोड़ निर्वस्त्र हो सकोगे। तुम कह सकोगे कि मैं ऐसा हूं बुरा— भला जैसा
हूं। यह एक जगह तो ऐसी है जहां मैं छिपावट न करूंगा। जहां मैं मुखौटे न लगाऊंगा,
जहां मैं और चेहरे न बनाऊंगा, जहां मैं जैसा हूं, वैसा ही।
हत्थक
सकुचाए। लेकिन झूठ बोलने में अति कुशल होते हुए भी भगवान के समक्ष झूठ न बोल सके।
बोले— खं भंते! भगवान ने कहा विजय मूल्यवान नहीं है हत्थक! फिर सत्य को छोड्कर जो
विजय मिले वह तो हार से भी बदतर है। सत्य ही एकमात्र मूल्य है। और जहां सत्य है
वहीं असली विजय है सत्य के साथ हार जाना भी विजय और सौभाग्य है; और झूठ के
साथ जीत जाना भी दुर्भाग्य है। भिक्षु ऐसा करके तू श्रमण नहीं होगा। क्योंकि जिसने
सभी महत्वाकांक्षाओं को शमित कर दिया है उसे ही मैं श्रमण कहता हूं।
यह
श्रमण की अनूठी परिभाषा की उन्होंने—कि जिसने समस्त महत्वाकांक्षाओं को शमित कर
दिया है, उसे ही मैं श्रमण कहता हूं।
समझना।
मैंने कहा, सदगुरु वही जिसके सामने तुम्हें सच होना ही पड़े। जिसके सामने तुम्हारे
जीवनभर के पाखंड और जीवनभर के झूठ और जीवनभर की कुशलताएं, कम
से कम एक पल के लिए सही, तुमसे गिर जाएं। एक पल के लिए सही,
बिजली की तरह जो तुम्हारे जीवन में कौंध जाए और जो तुम्हें दिखा दे
तुम कहा हो, कैसे हो। यह एक बात शिष्य के परीक्षा के लिए,
उसके अंतर्परीक्षा के लिए कि वह जिसके सामने इस तरह नग्न हो सके,
वही सदगुरु उसका। उसने उसी को गुरु— भाव से स्वीकार किया है।
किसी
के चरणों में सिर रखने से कुछ भी नहीं होता। और इधर इस देश में तो चरणों में सिर
रखने की आदत इतनी पड़ गयी है कि औपचारिक रूप से लोग रख देते हैं। लेकिन सिर चरणों
में रखने का यह मौलिक अर्थ है कि यहां अब मैं जैसा हूं वैसा ही प्रगट करूंगा। अब
जरा भी लगाव—छिपाव नहीं,
अब जरा भी तोड़—मरोड़ नहीं, अब जरा भी तर्क का
सहारा न लूंगा, झूठ का सहारा न लूंगा। यह तो गुरु तुमने चुना
किसी को, इसकी तुम्हें खबर मिलेगी, इस
भाव से। और सच में ही तुमने कोई सदगुरु पा लिया या नहीं, यह
इस बात से पता चलेगा कि तुम जब नग्न अपने सारे झूठों को भी स्वीकार कर लो, तब भी निंदा न हो, तो समझो कि तुमने सदगुरु पाया।
क्योंकि
तुमने चुन लिया गुरु,
इससे ही थोड़े सदगुरु मिल जाता है। तुम तो गलत गुरु भी चुन सकते हो।
तुम तो किसी पाखंडी को भी गुरु चुन सकते हो, किसी अज्ञानी को
भी गुरु चुन सकते हो। तुम्हारे पास कसौटी क्या है? तुम कैसे
कसोगे कि तुमने जिसे पा लिया है, वह सदगुरु है। कैसे मापोगे?
कैसे आकोगे? क्या उपाय है? यह है उपाय, कि तुम जब अपनी सारी नग्नता को भी उसके
सामने रख दो, तब भी उसके मन में तुम्हारे प्रति कोई निंदा का
भाव न हो। सिर्फ करुणा हो। वह तुम्हें समझे, समझाए, लेकिन निंदा का कोई स्वर न हो। जहां निंदा का स्वर है, वहां समझ लेना कि जिस आदमी के सामने तुम झुके हो, वह
तुमसे बेहतर नहीं है।
यह
बात बहुत काम की है। तुम्हारे सौ महात्माओं में से निन्यानबे महात्मा निंदा से भरे
हुए लोग हैं। निंदा तभी तक रहती है भीतर, जब तक तुम भी उन्हीं चीजों से उलझे
हो जिनमें लोग उलझे हैं।
मेरे
पास कोई आता है,
वह कहता है कि मैंने संन्यास तो ले लिया, लेकिन
बड़ी अड़चन है, मुझे शराब पीने की आदत है। यह आदमी अगर
तुम्हारे महात्माओं के पास जाए, तो सौ में से निन्यानबे एकदम
आग—बबूला हो उठेंगे कि शराब! पाप है, नर्क में सडोगे। नर्क
के कड़ाहों में चढ़ाए जाओगे। शराब! शराब तो बहुत दूर की बात, चाय
नहीं पीने देगा तुम्हारा महात्मा। चाय पी ली कि पाप हो गया, महापाप
हो गया। निंदा का पहाड तुम पर टूट पड़ेगा।
इसी
निंदा के पहाड़ के कारण तुम गुरु के सामने भी सच्चे नहीं हो पाते। खयाल ले लेना, दोनों
बातें मिलेंगी तभी कुछ हो सकता है। तुम सच्चे कैसे हो पाओगे? जिसके सामने जरा सी बात और निंदा का पहाड़ टूट पड़ता हो, तो तुम सच्चे कैसे हो पाओगे? तुम कह कैसे पाओगे कि
तुमने क्या भूलें कीं, क्या चूके की हैं?
सदगुरु
समझेगा। वह तुम्हारी दशा समझेगा, क्योंकि कभी वह भी तुम्हारी दशा में रह चुका है।
और जानता है कि इसके पार हुआ जा सकता है। और पार होने का कोई उपाय निंदा नहीं है।
और पार होने का कोई उपाय आदमी को भयभीत करना नहीं है। पाप और नर्क की घबड़ाहट पैदा
करने से कोई मुक्त नहीं होता। शायद यह आदमी और शराब पीने लगे, अब नर्क के डर से पीने लगे कि और मरे! कि अब नर्क भी जाना पड़ेगा! वैसे ही
चिंताएं बहुत थीं, उनके कारण शराब पीता था, गुरु ने एक चिंता और जोड़ दी कि अब नर्क जाना पड़ेगा। ऐसे ही चिंताएं कम न
थीं, चिंता और बढ़ गयी, बेचैनी और बढ़
गयी।
सदगुरु
स्वीकार करेगा कि तुम जैसे हो, ऐसे ही हो सकते थे अब तक। इसमें कुछ बड़े परेशान
होने की बात नहीं है। इसका यह मतलब नहीं है कि वह यह कहता है कि तुम सदा ऐसे ही रहो,
वह मार्ग खोजता है। लेकिन मार्ग में कोई निंदा नहीं है। मार्ग में
तुम्हारे अतीत का कोई तिरस्कार नहीं है, सिर्फ तुम्हारे
भविष्य का द्वार —है।
फर्क
समझना। सदगुरु के पास तुम्हारे अतीत की कोई निंदा नहीं है। ही, तुम्हारे
भविष्य का जरूर वह द्वार खोलता है। वह कहता है कि देखो, यह
हो सकता है। ये स्वर्ण—शिखर तुम्हारे जीवन में उठ सकते हैं। मैं तुमसे यह कह रहा
हूं कि सदगुरु के पास नर्क की धारणा ही नहीं होती, सिर्फ तुम
जिस स्वर्ग से चूक रहे हो, उसकी तरफ इशारा होता है। नर्क की
धारणा ही नहीं होती।
नर्क
की धारणा असदगुरु का लक्षण है। दुष्ट आदमी का लक्षण है, हिंसा
जिसके भीतर पड़ी है अभी। वह एकदम तुम पर टूट पड़ता है। और टूट पड़ने के कारण बड़े
मनोवैज्ञानिक हैं। वह खुद भी अभी डरता है कि ये काम उसके भीतर भी पड़े हैं। अगर वह
इन बातों को स्वीकार करे, तो बडी अड़चन खड़ी हो जाएगी।
समझो
कि तुमने कहा कि मैं शराब पीता हूं; अगर वह कहे, कोई
हर्जा नहीं, तो इसमें एक खतरा है। अभी शराब पीने की वासना
उसमें भी पड़ी है। अगर वह कहे, इसमें कोई हर्जा नहीं, तुमसे यह कहे कि इसमें कोई हर्जा नहीं, तो खुद भी तो
सुन रहा है कि इसमें कोई हर्जा नहीं। खतरा है! अगर यह बात बार—बार कहनी पड़े कि
इसमें कोई हर्जा नहीं, तो खुद के भीतर जो वासना पड़ी है शराब
पीने की, वह फिर कहेगी, तो फिर तुम
क्यों नहीं पीते, फिर हर्जा नहीं है तो क्यों बैठे हो,
क्यों व्यर्थ समय गंवा रहे हो?
तुमने
जाकर कहा कि मुझे किसी की स्त्री से प्रेम हो गया है, मैं क्या
करूं? क्या हो? वह टूट पड़ेगा एकदम। वह
तुम पर नहीं टूट रहा है, वह अपनी ही रक्षा कर रहा है,
खयाल रखना। तुम मनोवैज्ञानिकों से पूछो कि वह क्या कर रहा है?
वह सेल्फ डिफेंस में है। वह आत्मरक्षा कर रहा है। वह तुम पर टूट पड़ा
एकदम कि यह बिलकुल पाप है, महापाप है, नर्क
में जाओगे! यह वह तुमसे इसलिए कह रहा है कि पास—पड़ोस की स्त्रियों में उसे भी रस
है। और यही समझा—बुझाकर वह अपने को रोक रहा है, कि नर्क जाना
पड़ेगा, महापाप हो जाएगा, भूलकर यह मत
करना। भूलकर ऐसी बात में मत पड़ना। जब वह तुम पर टूटता है तो वह खबर दे रहा है कि
वह डरा है अपने भीतर। वह तुम्हें कैसे स्वीकृति दे? तुम्हें
स्वीकृति देने में तो स्वयं को भी स्वीकृति मिल जाएगी। इसलिए वह स्वीकार नहीं कर
सकता।
और
भय पैदा करता है,
भय के कारण तुम उसके सामने नग्न नहीं हो पाते। इसलिए न तो गुरु गुरु
है, न शिष्य शिष्य है। दोनों के बीच एक औपचारिक संबंध है,
थोथा, ऊपर—ऊपर का, सांसारिक।
आध्यात्मिक संबंध वहां पैदा होता है जहां तुम जानते हो, गुरु
समझेगा। गुरु न समझेगा तो कौन समझेगा? जहां वह स्वीकार करेगा।
जहां तुम जैसे हो वैसा ही अंगीकार करेगा। तुम्हारे अतीत के प्रति कोई निंदा का भाव
नहीं होगा। तुम्हें उसके सामने नीचा नहीं देखना पड़ेगा। और साथ ही साथ वह तुम्हारे
भविष्य का द्वार जरूर खोलेगा। वह कहेगा, यह हो सकता है।
जब
मेरे पास कोई आता है कि शराब मैं पीता हूं? मैं कहता हूं तू शराब की फिकर मत कर,
ध्यान कर। वह कहता है, लेकिन शराब पीने वाला
ध्यान कर सकता है! मैं उससे कहता हूं, अगर शराब पीने वाला
ध्यान न कर सके, तब तो फिर शराब पीने वाला शराब से कभी मुक्त
ही न हो सकेगा। मैं उससे कहता हूं कि तू तो ऐसी बात पूछ रहा है जैसे कि कोई मरीज
डाक्टर से पूछे कि क्या बीमार दवाई ले सकता है? बीमार दवाई न
लेगा तो कौन दवाई लेगा? और जब तुम डाक्टर के पास जाते हो और
तुम कहो कि मुझे टी बी हो गयी और वह एकदम तुम्हारी गर्दन पर सवार हो जाए और कहे कि
नर्क में सडोगे, तो तुम भी हैरान होओगे कि यह तो बडी मुश्किल
हो गयी! एक तो टी बी और अब नर्क में सडुना पड़ेगा! औषधि की तो बात ही न करे वह!
चिकित्सक
औषधि की बात करता है। वह कहता है, यह औषधि है, कोई फिकर न
करो। इस औषधि से ठीक हो जाएगी। शराबी को मैं कहता हूं, ध्यान
करो; क्योंकि मैं कहता हूं कि ध्यान में और भी ऊंची शराब के
पीने का सौभाग्य मिलता है। अंगूरों की शराब पी है, अब जरा
आत्मा की शराब पीओ। और जब तुम्हें बेहतर शराब मिलने लगेगी तो कौन उर्स पीता है! जब
तुम्हें भीतर की शराब मिलने लगेगी तो कौन बाहर की शराब पीता है! जब तुम्हें
परमात्मा की शराब मिलने लगेगी तो फिर कौन छुद्र बातों में उलझता है! वे अपने से
छूट जाती हैं।
बुद्ध
ने उसकी निंदा नहीं की,
लेकिन उसके लिए द्वार खोला।
बुद्ध
ने कहा विजय मूल्यवान नहीं है फिर सत्य को छोड्कर जो विजय मिले भी वह हार से भी
बदतर है हत्थक!
उसका
सार क्या! प्रयोजन क्या! सत्य ही एकमात्र मूल्य है। और जहां सत्य है, वहीं असली
विजय है। अगर तू जीतना ही चाहता है तो सत्य के साथ ही जीत। सत्यमेव जयते। सत्य
जीतता है, हम थोड़े ही जीतते हैं, बुद्ध
ने कहा। हम सत्य के साथ हो जाते हैं तो हम भी जीत जाते हैं। असत्य हारता है। असत्य
के साथ हो जाते हैं, हम भी हार जाते हैं। और असत्य से जो जीत
मिलती है, वह सिर्फ धोखा है। वह क्षणभर का धोखा है। वह
ज्यादा देर न टिकेगा, वह बबूले की तरह टूट जाएगा। सत्य के
साथ हार जाना भी विजय और सौभाग्य है। धन्यभागी हैं वे, जो
सत्य की यात्रा में हार जाएं। और अभागे हैं वे, जो असत्य की
यात्रा में जीत जाएं।
भिक्षु
ऐसा करके तो तू श्रमण नहीं होगा।
उससे
कहा कि देख, तू संन्यस्त हुआ, तूने श्रमण होने की आकांक्षा की है,
तू साधु हुआ, ऐसे तो तू श्रमण न हो सकेगा।
क्योंकि
जिसने सभी महत्वाकांक्षाओं को शमित कर लिया वही श्रमण है। और यह तो बड़ी विक्षिप्त
महत्वाकांक्षा है,
विजय की महत्वाकांक्षा । और ऐसे झूठे उपाय कर रहा है! तभी उन्होंने
ये सूत्र कहे—
न मुंडकेन समणो अब्बतो अलिणं भणं।
इच्छालाभ समापन्नो
समणो किं भविस्सति ।।
यो च समेति पापनि
अणु थूलानि सब्बनि।
समितत्ता हि पापानं
समाणोति पवुच्चति ।।
'जो व्रतरहित और मिथ्याभाषी है, वह मुडित मात्र हुआ
होने से श्रमण नहीं होता। इच्छालाभ से भरा हुआ पुरुष क्या श्रमण होगा?'
'जो छोटे —बड़े पापों का सर्वथा शमन करने वाला है, वह
पापों के शमन के कारण ही श्रमण कहलाता है। '
जरा
खयाल करना, व्यक्तिगत रूप से उससे कुछ भी नहीं कह रहे हैं। निवैंयक्तिक सत्य कह रहे
हैं। ऐसा नहीं कहा कि तू पापी है। ऐसा नहीं कहा कि तू संन्यासी नहीं है। भेद समझना।
उससे तो कुछ कहा ही नहीं सीधा—सीधा। सिर्फ एक सार्वलौकिक सत्य की उदघोषणा की। उसको
तो जैसे प्रसंग में ही न लिया। जैसे वह तो केवल एक निमित्त था, उस निमित्त एक धार्मिक उदघोषणा की।
'जो व्रतरहित और मिथ्याभाषी है, वह मुडित मात्र होने
से श्रमण नहीं होता। ' उससे नहीं कहा कि तू श्रमण नहीं है।
वह तो निंदा हो जाती। उससे नहीं कहा कुछ भी कि तू पापी है, कि
तू साधु नहीं है, कि तू असाधु है, उससे
तो कुछ बात ही नहीं कही।
सदगुरु
सार्वभौम सत्य बोलते हैं। व्यक्तियों से भी बोलते हैं तो भी व्यक्तियों को सीधा
संबोधित नहीं करते। क्योंकि व्यक्ति को सीधा संबोधित करने में व्यक्ति को झिझक
होगी, संकोच होगा, ग्लानि होगी। फिर वह झूठ बोलने लगेगा।
फिर वह गुरु के सामने भी सीधा—सीधा प्रगट न हो सकेगा। कोई तो शरण चाहिए जहां सब हम
अपने मन का भार उतारकर रख सकें। और जहां हमें एक भरोसा हो कि निंदा न मिलेगी,
अपमान न मिलेगा।
'जो व्रतरहित और मिथ्याभाषी है, वह मुंडित मात्र होने
से संन्यस्त नहीं होता। और इच्छालाभ से भरा हुआ पुरुष तो कैसे संन्यासी होगा?'
इच्छालाभ!
प्रतिएकर्धा। विजय की आकांक्षा। महत्वाकांक्षा। एंबिशन।
'जो छोटे—बड़े पापों का सर्वथा शमन करने वाला है…....।
'
कहा—छोटे—बड़े
पापों का। क्योंकि पाप वस्तुत: न छोटे होते, न बड़े। पाप तो बस पाप है। ऐसा थोड़े
ही है कि तुमने दो लाख की चोरी की तो बड़ी चोरी की और दो पैसे चुराए तो छोटी चोरी
की। चोरी तो चोरी है। दो पैसे की उतनी ही है, जितनी दो लाख
की है। क्योंकि चोरी का कोई संबंध तुमने कितना चुराया है, उससे
नहीं है, तुमने चुराया बस इससे है।
अब
इस भिक्षु हत्थक ने कोई बड़ा पाप नहीं किया था। किसी की हत्या नहीं की, किसी की
पत्नी नहीं ले भागा, कहीं जुआ नहीं खेला, कोई शराब नहीं पी ली थी, जरा सा झूठ। और वह भी इस आकांक्षा
में कि बुद्ध का वचन विपरीत संप्रदायों के मुकाबले विजयी घोषित हो। कोई बड़ा पाप
नहीं किया था। लेकिन छोटा ही सही! मगर छोटा कहीं पाप होता? पाप
तो पाप ही है। झूठ तो झूठ ही है। छोटा झूठ, बड़ा झूठ, सब बराबर होते। उनकी मात्राओं में कभी कोई भेद नहीं होता। छोटी चोरी,
बड़ी चोरी, सब बराबर होती है।
दूसरा
दृश्य :
एक ब्राह्मण दार्शनिक भगवान के पास आया और
बोला हे गौतम! आप अपने शिष्यों को भिक्षाटन करने से भिक्षु कहते हैं। मैं भी
भिक्षाटन करता हूं अत: मुझे भी भिक्षु कहिए। वह विवाद करने को उत्सुक था और किसी
भी बहाने उलझने को तैयार था। शब्दों पर उसकी पकड़ थी सो उसने भिक्षु शब्द से ही
विवाद को उठाने की सोची। उसे तो बस कोई भी निमित्त चाहिए था।
भगवान
ने उससे कहा ब्राह्मण भिक्षाटन मात्र से कोई भिक्षु नहीं होता; लै भिखारी
चाहो तो मान ले सकते हो। पर भिखारी और भिक्षु पर्यायवाची नहीं हैं। मैं भिक्षु उसे
कहता हूं जिसने सब संस्कार छोड़ दिए। जिसके पास भीतर कोई संस्कार न बचे उसे भिक्षु
कहता हूं।
जिसको
जीसस ने पुअर इन स्तिट कहा है। ब्लेसेड आर द पुअर इन स्टिट, धन्य हैं
वे जो भीतर से दरिद्र हैं। ईसाइयत के पास इसकी ठीक व्याख्या नहीं है कि क्या मतलब
है जीसस का— भीतर से दरिद्र। बुद्ध के इस वचन में उसकी व्याख्या है। संस्काररहित।
जिसने सारी कंडीशनिंग छोड़ दी।
समझो, यह बात
बड़ी मूल्य की है। हम संस्कारों से जीते हैं। कोई कहता, मैं
हिंदू कोई कहता, मैं मुसलमान; कोई कहता,
मैं ईसाई; यह संस्कार है। कोई पैदा तो नहीं
होता हिंदू की भांति, न कोई ईसाई की भांति। तुम हिंदू घर में
बड़े हुए, तो एक संस्कार पड़ा। लोगों ने कहा कि तुम हिंदू हो
तो तुम मानते हो कि तुम हिंदू हो। तुम हिंदू हो? कैसे?
तुम्हें मुसलमान घर में रख दिया होता बचपन से और वहां तुम बड़े हुए
होते तो तुम मुसलमान होते। तो यह तो संस्कार है। आए तो थे तुम बिलकुल शुद्ध दर्पण
की भांति, कोरा कागज आए थे; फिर उस पर
लिखावटें पड़ी। भारतीय घर में रहे, तो भारतीय भाषा सीखी। अरब
में होते तो अरबी सीखते और चीन में होते तो चीनी सीखते। तो भाषा संस्कार है।
समझना।
भाषा लेकर तुम आए नहीं थे,
मौन लेकर आए थे। भाषा सीखी। मौन स्वभाव था, भाषा
पर— भाव है। दूसरे ने डाला। जब तुम आए थे, तब तुम न बुद्ध थे,
न विद्वान थे। कोई बच्चा न बुद्ध होता, न
विद्वान होता। यह तो अभी समय लगेगा, बुद्ध और बुद्धिमान होने
में अभी वक्त लगेगा। कई काम होंगे, कई संस्कार पड़ेंगे,
स्कूल में परीक्षाएं होंगी, न—मालूम कितनी
प्रक्रियाओं से गुजरेगा, तब कोई इसमें विद्वान हो जाएगा,
कोई इसमें बुद्ध हो जाएगा। आए थे बिलकुल एक जैसे, हो गए अलग—अलग।
संस्कार
का अर्थ है, जो हमने जन्म के बाद सीखा। जो सीखा, उसका नाम
संस्कार है। संस्कार स्वभाव नहीं है। संस्कार स्वभाव के ऊपर पड़ गयी धूल है। स्वभाव
तो है दर्पण जैसा और संस्कार है धूल जैसा। जब धूल की बहुत पर्तें पड़ जाती हैं
दर्पण पर, तो फिर दर्पण में प्रतिबिंब नहीं बनता।
बुद्ध
कहते हैं, जिसने यह सारी धूल झाडू दी, उसको मैं भिक्षु कहता
हूं। और क्यों भिक्षु कहता हूं? क्योंकि न वह हिंदू रहा—गरीब
हो गया उतना; न ब्राह्मण रहा—गरीब हो गया उतना, न चीनी रहा, न हिंदुस्तानी रहा—और गरीब हो गया। ऐसे
धीरे— धीरे सब छूटता जाता, जो —जो हमने अर्जित किया है,
जो—जो हमारी संपत्ति है, वह सब छूट जाती है।
संस्कार यानी संपत्ति। फिर कोरा कागज रह गया, उस कोरे कागज
को बुद्ध ने कहा, भिक्षु। और ठीक यही अर्थ जीसस का है,
पुअर इन स्यिट, जो आत्मा में दरिद्र है। आत्मा
में कहीं कोई दरिद्र होता है! आत्मा में तो आदमी समृद्ध होता है।
लेकिन
मतलब समझ लेना—बाहर के संस्कार जब सब छूट जाते हैं, बाहर की दृष्टि से जब आत्मा
बिलकुल कोरी हो जाती है, दरिद्र हो जाती है, तभी भीतर की दृष्टि से समृद्ध होती है।
जीसस
का पूरा वाक्य है : ब्लेसेड आर द पुअर इन स्पिट, फार देयर्स इज द किंगडम आफ
गाड। बड़ा अनूठा वचन है। धन्यभागी हैं जो आत्मा में दरिद्र हैं, क्योंकि परमात्मा का राज्य उन्हीं का है। एक ही वचन में दोनों बातें कह दी
हैं। बाहर से दरिद्र हो गए भीतर से इतने समृद्ध हो गए कि परमात्मा के राज्य के
मालिक हो गए।
यही
कारण है, दो शब्द हमने इस देश में चुने हैं। हिंदुओं ने चुना स्वामी— संन्यासी के
लिए—बौद्धों ने चुना भिक्षु। हिंदुओं ने भीतर का ध्यान रखा, वह
जो घटेगा, संस्कार के छूट जाने पर वह जो परमात्मा का राज्य
मिलेगा, उसको ध्यान में रखकर कहा : स्वामी। और बुद्ध ने कहा,
वह तो बाद में घटेगा, तब घटेगा, वह तो देर की बात है, पहले तो भिक्षु होना पड़ेगा।
हिंदुओं ने अंत को खयाल में रखा, बुद्ध ने प्रारंभ को खयाल
में रखा।
और
मेरी दृष्टि में प्रारंभ को खयाल में रखना ज्यादा मूल्यवान है, क्योंकि
अंत तो आ जाएगा; बीज तो बोओ, फल तो लग
जाएंगे। लेकिन कहीं ऐसा न हो कि पहले से ही आदमी अकड़कर बैठ जाए कि मैं स्वामी हूं
तो भिक्षु हो ही न पाए। और जो भिक्षु नहीं हुआ, वह स्वामी न
हो सकेगा।
तो
भगवान ने कहा ब्राह्मण भिक्षामात्र करने से कोई भिक्षु नहीं होता। भिखारी चाहो तो
मान ले सकते हो।
खूब
गहरा भेद किया। भाषाकोश में तो एक ही बात लिखी है, भिक्षु कहो कि भिखारी,
क्या फर्क पड़ता है! भिक्षाटन जो करता वह भिखारी और भिक्षाटन जो करता
—भिक्षु। इसलिए बुद्धों के वचन समझने हों तो भाषाकोश का सहारा नहीं (नैना चाहिए।
उनके प्रत्येक शब्द का अर्थ उनसे ही पूछना चाहिए। वे बोलते तो भाषा हैं, लेकिन भाषा में कुछ ऐसा बोलते हैं जो भाषा से बहुत पार का है।
भिखारी
और भिक्षु पर्यायवाची नहीं हैं। भाषाकोश में तो हैं, लेकिन जीवन के अनुभव में,
जीवन के कोश में नहीं हैं।
मैं
उसे भिक्षु कहता हूं जिसने सब संस्कार छोड़ दिए।
जिसने
सारी कंडीशनिंग छोड़ दी,
जो अनकडीशड हो गया। जो संस्कार—शून्य हो गया। जो सहज निर्मल हो गया।
जैसा आया था जन्म के क्षण वैसा फिर हो गया, बीच में जो —जो
लिखावट बनी, सब पोंछ डाली। उसको भिक्षु कहता हूं। और उसे
भिक्षु कहता हूं जो भीतर एक शून्य मात्र हो गया है, वह शून्य
ही असली भिक्षापात्र है। जिसके भीतर एक शून्य पैदा हो गया, जिसको
इतना भी भाव नहीं रहा कि मैं हूं।
इसलिए
बुद्ध ने आत्मा शब्द का उपयोग नहीं किया, क्योंकि आत्मा शब्द में मैं हूं की
भनक है। बुद्ध ने शब्द प्रयोग किया, अनात्मा। बड़े अनूठे
व्यक्ति थे बुद्ध उन्होंने शब्द प्रयोग किया, अनत्ता। अत्ता
का अर्थ होता है—मैं, अनत्ता का अर्थ तोता है —न—मैं। आत्मा
का अर्थ होता है—मैं, अनात्मा का अर्थ होता है—न—मैं। भारत की
हजारों वर्ष की परंपरा थी आत्मा शब्द को बड़ा बहुमूल्य मानने की, बुद्ध ने वह परंपरा भी तोड दी। उन्होंने कहा, यह
आत्मा शब्द अज्ञान से भरा है। इसमें मैं का भाव बचा रहता है। मैं का भाव तो जाना
चाहिए। मैं तो संस्कारों का ही नाम है। सब संस्कारों के जोड़ से मैं बनता है। जब
सारे संस्कार चले गए तो कैसा मैं? कोरा आकाश रह जाता है।
बदलिया तो गयीं, बादल तो गए, निरभ्र
आकाश रह गया। उस आकाश को बुद्ध कहते हैं, वही असली
भिक्षापात्र है। और जिसने उस भीतर के भिक्षापात्र को पा लिया, उसे मैं भिक्षु कहता हूं।
और तब उन्होंने ये
गाथाएं कहीं—
योध पुज्जज्च पापज्च वाहित्वा ब्रह्मचरिय
वा।
संखाय लोके चरति स
वे भिक्खूति वुच्चति ।।
'जो पुण्य और पाप, दोनों को त्यागकर ब्रह्मचर्य से रहता है, ज्ञानपूर्वक
लोक में विचरण करता है, वह भिक्षु। उसे मैं भिक्षु कहता हूं।
'
समझना
इस सूत्र को
'जो पुण्य और पाप, दोनों को त्यागकर। '
साधारणत:
हमसे कहा जाता है,
पाप त्यागो। बुद्ध कहते हैं, पाप तो त्यागो ही,
र्लोकेन पुण्य को मत पकड़ लेना। नहीं तो कुएं से बचे, खाई में गिरे। लोहे की जंजीरें टूटी, सोने की
जंजीरें डाल लीं। पाप तो बांधता ही है, पुण्य भी बांधता है।
देखते
नहीं, पुण्यात्मा भी कैसा अकड़ जाता है, कैसे मैं से भर
जाता है कि मैंने पुण्य किया, कि मैं पुण्यधर्मा हूं कि दानी
हूं कि ऐसा हूं कि वैसा हूं। देखते हैं समाज—सेवक को कि कैसा अकड़कर चलने लगता है
कि मैं समाज की सेवा कर रहा हूं। यह अकडू तो फिर अहंकार ही बन जाएगी।
इसलिए
बुद्ध कहते हैं,
मैं भिक्षु उसे कहता हूँ र जिसने पाप तो छोड़ा ही, पुण्य भी छोड़ा। जिसने सब छोड़ा, जिसने पकड़ना छोड़ा।
जिसने कर्ता का भाव छोड़ा। जिसने सिर्फ एक भाव भीतर गहरा लिया—शून्य है, शून्य है, और कुछ भी नहीं है। इसलिए बुद्ध का दर्शन
शून्यवाद कहलाया।
'और जो ज्ञानपूर्वक लोक में विचरण करता है। '
ज्ञानपूर्वक
शब्द का ठीक अर्थ समझ लेना। बुद्ध की बड़ी विशिष्ट परिभाषा है। ज्ञानपूर्वक का यह
अर्थ नहीं कि जो शास्त्रों को सिर पर रखे हुए जगत में विचरण करता है। ज्ञानपूर्वक
का अर्थ होता है,
बोधपूर्वक, स्मृतिपृर्व्क, होशपूर्वक, अवेयरनेस के साथ जो जगत में विचरण करता
है। एक—एक कदम जो होशपूर्वक उठाता है, श्वास भी जो होशपूर्वक
लेता है, जो अपने जीवन में कुछ भी बेहोशी में नहीं करता,
उसे मैं भिक्षु कहता हूं।
'
और जो पाप ओर पुण्य दोनों को त्यागकर ब्रह्मचर्य से रहता है।'
ब्रह्मचर्य
शब्द का अर्थ उतना नहीं है,
जैसा तुमने मान रखा है, उससे बहुत बड़ा है।
ब्रह्मचर्य का ठीक अर्थ होता है, ब्रह्म की चर्या। ईश्वरीय
चर्या। ब्रह्मचर्य का इतना ही अर्थ नहीं होता जितना अर्थ अंग्रेजी के सेलिबेसी का
होता है। ब्रह्मचर्य का इतना ही मतलब नहीं होता कि जो कामवासना में नहा उतरता। वह
तो बड़ा छोटा अर्थ है। वह तो है ही, लेकिन वह बड़ा छोटा अर्थ
है, उतने पर बात समाप्त नहीं होती। ब्रह्मचर्य की पूरी बात
तो तब होती है, जब कोई व्यक्ति ईश्वरीय चर्या में जीता है। ऐसे
जीता है जैसे ईश्वर जीता है। इससे कम में ब्रह्मचर्य नहीं।
तो
बुद्ध नै कहा,
मैं भिक्षु उसको कहता हूं जिसकी चर्या ईश्वर जैसी है। इतनी शुद्ध,
इतनी निर्मल, इतनी पवित्र। इतनी पवित्र कि
पुण्य भी उसने त्याग दिया। और इतनी शांत और इतनी मौन कि वहां सदा स्मृति का दीया
जलता रहता है। उठता है भिक्षु, बैठता है भिक्षु, चलता है भिक्षु, भोजन करता, पानी
पीता, लेकिन हर वक्त स्मृति का दीया जलता रहता है—जागरूक।
जिसको गुरजिएफ ने सेल्फ रिमेंबरिंग कहा है। आत्मसाराग से भरा रहता है।
बुद्ध
का शब्द है, सम्यक—स्मृति। ठीक—ठीक जानता रहता है कि मैं क्या कर रहा हूं। जिसके जीवन
में अनजाने कुछ भी नहीं होता। इसका अर्थ यह हुआ कि अंततः जिसका अचेतन मन विसर्जित
हो जाएगा। क्योंकि जब अनजाने कुछ भी नहीं होता तो धीरे— धीरे भीतर रोशनी बढती
जाएगी, अचेतन समाप्त हो जाएगा, चैतन्य
ही रह जाएगा। पूरा घर देदीप्यमान हो जाएगा। उसको मैं भिक्षु कहता हूं।
तीसरा
दृश्य:
भिक्षु गृहस्थों के
घर निमंत्रित होने पर भोजनोपरांत दानानुमोदन करते थे। किंतु तीर्थक सुखं होतु आदि
कहकर ही चले जाते थे। लोग स्वभावत: भिक्षुओं की प्रशंसा करते और तीर्थको की निंदा
करते थे। यह जानकर तीर्थको ने हम लोग मुनि हैं मौन रहते हैं श्रमण गौतम के शिष्य
भोजन के समय महाकथा कहते हैं बकवासी हैं ऐसा कहकर प्रतिक्रिया में निंदा शुरू कर
दी।
बुद्ध
ने अपने भिक्षुओं को सदा कहा है कि जितना लो, उससे ज्यादा लौटा देना। कहीं ऋण
इकट्ठा मत करना। इसलिए बुद्ध का भिक्षु जब भोजन भी लेता कहीं तो भोजन के बाद,
धन्यवाद कै रूप में, जो उसको मिला है उसकी
थोड़ी बात करता था। जो आनंद उसने पाया, जो ध्यान उसे मिला है,
जो शील की संपदा उसे मिली है, जो नयी—नयी
किरणें और नयी—नयी उमंगों के तूफान उसके भीतर उठ रहे हैं, जो
नया उत्सव उसके भीतर जगा है; जो नए गीत, नए नृत्य उसके भीतर आ रहे हैं, भोजन लेता तो धन्यवाद
में वह अपने भीतर की कुछ खबर देता। भोजन लिया है, ऋणी नहीं
होना है। स्वभावत:, जो तुम्हारे पास है वह दे देना। दो रोटी
के बदले बुद्ध का भिक्षु बहुत कुछ लौटाता था। वह अपना सारा प्राण उंडेल देता था।
तो
भिक्षु गृहस्थों के घर निमंत्रित होने पर भोजनोपरांत दानानुमोदन करते थे। किंतु
तीर्थक सुखं होतु आदि कहकर ही चले जाते थे।
सुखी
होओ, इतना कहकर चले जाते थे। स्वभावत:, लोगों को बुद्ध के
भिक्षु प्रीतिकर लगते कि कुछ कहते तो हैं, कुछ समझाते तो हैं,
कुछ जगाते तो हैं—हम जगें न जगें, यह हमारी
बात, लेकिन अपनी तरफ से चेष्टा तो करते हैं। और जैनों के
मुनि केवल सुखं होतु, सुखी होओ, इतना
कहकर चले जाते हैं।
स्वभावत:, जैन—मुनियों
को यह बात अखरने लगी और उन्होंने प्रतिक्रिया में यह निंदा शुरू की—हम लोग मुनि
हैं, मौन रहते हैं, श्रमण गौतम के
शिष्य भोजन के समय महाकथा कहते हैं, बकवासी हैं। चुप रहना
चाहिए, मुनि को चुप होना चाहिए, ऐसा
कहकर निंदा शुरू की।
भिक्षुओं
ने यह बात भगवान से कही। शास्ता ने उन्हें कहा भिक्षुओ मौन रहने मात्र से कोई मुनि
नहीं होता। क्योंकि भीतर हजार विचार चलते रह सकते हैं मौन का बोलने न बोलने से कोई वास्ता नहीं है।
मौन तो निर्विचार दशा का नाम है।
समझो।
चुप रहने का नाम मौन नहीं है। चुप तो आदमी हजार कारणों से रह जाता है। चोर से पूछो, चोरी की
है? चुप रह जाता है। इसका अर्थ मौन तो नहीं। किसी से पूछो,
ईश्वर है? चुप रह जाता है। इसका अर्थ मौन तो
नहीं। कोई किसी कारण चुप रह जाता है, कोई किसी और कारण चुप
रह जाता है, लेकिन चुप रहने से मौन का कोई संबंध नहीं है।
भीतर तो हजार विचार चलते ही रहते हैं। भीतर विचार न चलें। जब तक मन है, तब तक मौन नहीं। मन की मृत्यु का नाम मौन है। मन मर जाए तो मौन। भीतर
विचार न चलें, तरंगें न उठें, तो मौन।
तो
बुद्ध ने कहा भिक्षुओ मौन रहने मात्र से कोई मुनि नहीं होता क्योंकि भीतर हजार
विचार चलते रह सकते हैं।
तुमने
भी देखा होगा,
कभी घडीभर को बैठ जाते हो चुप होकर, कहा चुप
हो पाते हो? सच तो यह है, और ज्यादा
विचारों से भर जाते हो, जितने पहले भी नहीं भरे थे। दुकान पर
रहते हो, काम— धाम में लगे रहते हो, इतने
विचारों का पता नहीं चलता—वें चलते रहते भीतर, मगर तुम दूसरे
काम में उलझे रहते हो, तुम्हें पता नहीं चलता। बैठे कभी
घडीभर को आंख बंद करके तो विचारों का एकदम उत्पात शुरू होता है, तूफान उठते हैं, अंधड़ उठते हैं। न—मालूम कहा—कहा के
विचार! जिनकी कोई संगति नहीं, कोई तुक नहीं तुम्हारे जीवन से,
तुम सोच ही नहीं पाते कि यह भी क्या मामला है! यह क्यों चल रहा है?
उठते हैं, बेतुके, असंगत,
और एक के पीछे एक, कतार बंध जाती है। और चलते
ही चले जाते हैं, उनका कोई अंत नहीं मालूम होता। तुम्हें थका
डालते हैं। तो चुप रहना तो मौन नहीं है।
बुद्ध
ने कहा मौन का बोलने न बोलने से कोई वास्ता नहीं है। मौन का वास्ता तो है
निर्विचार दशा से। और वह अंतर्दशा बोलने से भी भंग नहीं होती।
यह
बात बड़ी गहरी है।
और
वह अंतर्दशा बोलने से भी भंग नहीं होती।
यह
मैं तुम्हें अपने अनुभव से भी कहता हूं। मौन बोलने से भंग होता ही नहीं। मौन इतनी
गहरी घटना है कि एक दफा घट जाए, तुम्हारे भीतर सघन हो जाए मौन, फिर तुम बोलते रहो, बोलना ऊपर—ऊपर होता है, भीतर मौन की धारा बहती रहती है। अभी तुम जानते न, ऊपर
से चुप हो जाओ, ऊपर चुप्पी होती है, भीतर
विचार की धारा होती है। ठीक इससे उलटा भी होता है। बाहर विचार की धारा चलती रहे और
भीतर मौन का गहन प्रभाव होता है।
तो
बुद्ध ने कहा,
और वह अंतर्दशा बोलने से भी भंग नहीं होती है।
बोलने
से जो भंग हो जाए,
वह भी कोई मौन है! वह तो कोई मौन न हुआ। वह तो केवल मौन का धोखा हुआ।
वह तो केवल मौन का ऊपरी, औपचारिक आयोजन हुआ।
फिर
कुछ इसलिए चुप रहते हैं कि जानते नहीं बोलें भी तो क्या बोलें! न बोलने से कम से
कम अज्ञान तो छिपा रहता है। और कुछ जानते हुए भी नहीं बोल पाते हैं क्योंकि बोलने
की दक्षता नहीं है।
गीत
तो सबके भीतर उठते हैं,
गा बहुत कम लोग पाते हैं—क्योंकि गीत गाने की दक्षता! नाच तो सभी के
भीतर उठता है, लेकिन नाच बहुत कम लोग पाते हैं —क्योंकि
नाचने की दक्षता!
अक्सर
तुम्हें ऐसा लगा होगा—किसी और का गीत सुनकर तुम्हें नहीं लगा है — अरे, ऐसा ही
मैं भी गाना चाहता था। और किसी और की बात सुनकर तुम्हें नहीं लगा है बहुत बार कि
मेरी बात छीन ली! ऐसा ही मैं कहना चाहता था।
सच
तो यह है, जब भी तुम्हें किसी की बात हृदय के बहुत अनुकूल पड़ती है, तो इसीलिए पड़ती है—तुम भी उसे कहना चाहते थे वर्षों से, नहीं कह पाए, तुम दक्ष न थे, किसी
और ने कह दी, क्तका तुम्हारे भीतर उतर गयी। तू_म्हारे भीतर तैयार ही थी, लेकिन एकष्ट नहीं हो रही
थी, अप्रगट थी, छिपी—छिपी थी, धुंधली— धुंधली थी, किसी ने साफ—साफ कह दी।
सदगुरु
तुम्हें सत्य देता थोड़े ही है, जो सत्य तुम्हारे भीतर धुंधला— धुंधला है,
उसके सत्य के साथ—साथ एकष्ट होने लगता है। सदगुरु के सत्य के साथ—साथ
तम्हारे भीतर का सत्य तुम्हें एकष्ट होने लगता है। सत्य दिया नहीं जाता, सत्य लिया नहीं जाता, सत्य कोई हस्तांतरण होने वाली
संपदा नहीं है। मैं तुम्हें कुछ दे नहीं सकता, तुम जो बोलना
चाहते हो, तुम जो कहना चाहते हो, तुम
जो जानना चाहते हो, उसे मैं अपने ढंग से कह देता हूं शायद
तुम्हारे भीतर संगति बैठ जाए उससे, तार जुड़ जाएं और तुम भी आंदोलित
हो उठो।
संगीतज्ञ
कहते हैं, अगर एक शांत, शून्य कमरे में एक कोने में वीणा रखी
हो और कोई कुशल वादक दूसरे कोने में बैठकर वीणा बजाए, तो वह
जो खाली रखी वीणा है, उसके तार कैपने लगते हैं। उनसे भी धीमी—
धीमी ध्वनि उठने लगती है। बस ऐसा ही होता है।
सदगुरु
के पास शिष्य मौन बैठा होता है, शांत बैठा होता है, स्वीकार
करने के भाव में, श्रद्धा में डूबा बैठा होता है, टकटकी लगाए। इधर गुरु की वीणा बजती, रत्रत्:। शिष्य
के भीतर के वर्षों—वर्षों, जन्मों—जन्मों से सूने पड़े तार
हिलने लगते हैं।
इसके
लिए ठीक—ठीक शब्द का ने खोजा है। वह शब्द है—सिक्रानिसिटी। यहां कुछ होता है, ठीक वैसा
ही दूसरे हृदय में होने लगता है अगर हृदय खुलने को तैयार हो—ठीक वैसा ही। न यहां
से वहां कुछ जाता, न वहां से यहां कुछ आता, समानांतर घटना घटने लगती है।
तुमने
नहीं देखा, कभी कोई तबला बजाता और तुम्हारे पैर थिरकने लगते हैं! कभी किसी नर्तक को
देखकर तुम भी ताल देने लगते। क्या हो जाता है? सिंक्रानिसिटी।
वहां कुछ घट रहा है, तुम्हारे भीतर भी कोई सोया हुआ पड़ा है,
यहां भी कुछ घटने लगता है। आखिर तुम भी तो हो नर्तक! न नाचे होओ कभी,
यह दूसरी बात है। लेकिन मीरा तुम्हारे भीतर भी सोयी तो पड़ी है। मीरा
कभी नाचती हो बाहर—संयोग मिल जाए—और तुम डरे—डरे आदमी न होओ, भयभीत आदमी न होओ, तर्क में छिपे आदमी न होओ,
तुम हृदय को खोल सको, द्वार—दरवाजे खोल सको और
मीरा का झोंका तुम्हारे भीतर से गुजर जाए, तो तुम्हारी मीरा
भी जग उठेगी! बस ऐसा ही होता है।
तो
बुद्ध ने कहा कुछ जानते हुए भी नहीं बोल पाते हैं क्योंकि बोलने की दक्षता नहीं है।
और कुछ कृपणता के कारण नहीं बोलते हैं क्योंकि जो उन्होंने जाना है कहीं उसे दूसरे
न जान लें। उसको संपत्ति की तरह पकड़कर रखते हैं। पहले तो जानना कठिन फिर जाने हुए
को जनाना और भी कठिन शून्य में जाने हुए को शब्द तक लाने के लिए महाकरुणा अनिवार्य
है।
इसलिए
बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहा, इसकी चिंता मत करो कि दूसरे क्या कहते हैं;
तुमने जो जाना है, उसे जनाओ। तुम्हें जो मिला
है, उसे बाटो। कहने दो, दूसरे क्या
कहते हैं, इसकी चिंता मत लो।
पहले
तो जानना कठिन और फिर जाने हुए को जनाना और भी कठिन।
दुनिया
में सत्य को बहुत लोग उपलब्ध नहीं होते, लेकिन फिर भी काफी लोग उपलब्ध होते
हैं। मगर जो लोग सत्य को उपलब्ध होते हैं, उनमें सभी लोग
सदगुरु नहीं हो पाते। सदगुरु तो वही हो पाता है, जिसने जाना
और जनाया भी। सत्य को तो उपलब्ध हो जाते हैं बहुत लोग।
ऐसा
बुद्ध के जीवन में हुआ। उनके पास एक सम्राट मिलने आया, अजातशत्रु।
और उसने बुद्ध से पूछा कि आपके दस हजार भिक्षु हैं, इनमें से
कितने लोग बुद्धत्व को उपलब्ध हुए हैं? तो बुद्धु ने कहा,
इनमें से बहुत लोग बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए हैं। उसने कहा, मुझे बात जंचती नहीं। क्योंकि आपके अतिरिक्त इनमें से कोई भी प्रसिद्ध
क्यों नहीं है? तो बुद्ध ने कहा, यह
जरा दूसरी बात है। बुद्धत्व को उपलब्ध होना एक बात, जानना एक
बात, जनाना बिलकुल दूसरी बात। इन्होंने जान तो लिया है,
मगर अब कैसे जनाएं? ही, इनमें
से कुछ धीरे— धीरे दक्ष हो रहे हैं जनाने में भी। धीरे— धीरे। जैसे आदमी सत्य को
जानने में वर्षों लगाता है, ऐसे फिर सत्य को जनाने में
वर्षों लगाने पड़ते हैं। और बहुत से लोग तो इस चिंता में पड़ते ही नहीं, वे कहते हैं, अब झंझट में क्या पड़ना! अपना हीरा मिल
गया, सम्हालकर रखा, अब कौन फिकर में
पड़े! अब किसको बताना है! क्या बताना है!
बुद्ध
ने ज्ञानी की दो अवस्थाएं कही हैं। एक को कहा—अर्हत, और एक को कहा—बोधिसत्व।
अर्हत का अर्थ है, जिसने सत्य को जान लिया। और बोधिसत्व का
अर्थ है, जिसने सत्य को जाना ही नहीं, दूसरों
की तरफ बहाया भी। अर्हत के मार्ग का नाम बन गया है, हीनयान।
छोटी—छोटी डोंगी। अपनी डोंगी में बैठ गए और चल पड़े, भवसागर
पार कर लिया। और बोधिसत्व के मार्ग का नाम पड़ा, महायान। बड़ा
यान, जिसमें हजारों लोगों को बिठा लिया। कहा कि आओ, जिनको भी आना है आ जाओ, बैठो, भवसागर
के पार जा रहे हैं। जो अकेला पार न हुआ, जिसने दूसरों को भी
पार करवाया। जो स्वयं तो तरा, जिसने तारा भी। जो तरण—तारण है।
और
तभी उन्होंने ये गाथाएं कहीं—
न मोनेन मुनि होति
मूल्हरूपो अविछसू ।
यो च तुलं व पग्गय्ह
वरमादाय पंडितो ।।
पापानि परिवज्जोति
स मुनि तेन सो मुनी।
यो मुनाति उभो
लोके मुनी तेन पवुच्चति ।।
'मौन धारण करने मात्र से कोई
अविद्वान मूढ़ मुनि नहीं होता। जो पंडित मानो श्रेष्ठ तुला लेकर दोनों लोक को तौलता
है और पापों को छोड़ देता है, वह इस कारण मुनि है और इसी कारण
मुनि कहलाता है। '
जिसने
दोनों लोकों को तौल लिया अपनी चेतना में—जैसे सूक्ष्म तराजू लेकर—न यहां कुछ पाने
योग्य पाया, न वहां कुछ पाने योग्य पाया। जिसने दोनों लोक तौल लिए। न संसार में कुछ
पाया कि संसार में कुछ पाने योग्य है, पाप में कुछ भी नहीं,
जिसने मोक्ष में भी कुछ नहीं पाया कि पुण्य में भी कुछ भी नहीं,
जिसने दोनों में कुछ नहीं पाया; ऐसी दशा में
चित्त बिलकुल ही शांत हो जाता है। जब पाने को ही कुछ नहीं, तो
अशांति कहा से हो! अशांति तो पाने की दौड़ से होती है—यह पा लूं? यह पा लूं तो मन अशांत होता है।
मेरे
पास लोग आते हैं,
वे कहते हैं, मन शांत करना है। मैं उनसे कहता
हूं लेकिन मन को शांत करने की व्यवस्था पता है! महत्वाकांक्षा छोड़नी पड़ती है। वे
कहते हैं, यह तो जरा मुश्किल है। सच तो यह है, वे कहते हैं, कि हम आए ही इसलिए थे कि मन शांत हो
जाए तो महत्वाकांक्षा की दौड़ में ठीक से
दौड़ लें।
एक
राज्य के मंत्री मेरी पास आते थे। वह कहते कि मैं आज बीस साल से मंत्री ही बना हुआ
हूं। मेरे पीछे जो लोग आए,
वे मुख्यमंत्री हो गए। असल में मुझ से ज्यादा दौड़— धूप नहीं होती।
मैं आपके पास आया कि मुझे जरा ध्यान सिखा दें, कि जरा शांति
मुझे आ जाए और बल आ जाए, तो मैं भी कुछ कर दिखाऊं!
मैंने
उनसे कहा, तुम भी अजीब बात कर रहे हो! ध्यान की पहली शर्त यह है कि महत्वाकांक्षा जाए और तुम ध्यान को भी महत्वाकांक्षा की सेवा
में' लगाना चाहते हो! तुम ध्यान को भी दासी बनाना चाहते
महत्वाकांक्षा की! तुम कहीं और जाओ! यह न हो सकेगा! यह असंभव है।
अक्सर
आदमी धन की दौड़ में थक जाता है तो कहता है, चलो जरा ध्यान सीख लें। तो शायद
थकान थोड़ी कम होगी तो और ठीक से दौड़ सकेंगे। आदमी बड़ा अजीब है। आदमी को पता ही
नहीं वह क्या मांगने लगता है! और फिर उसे देने वाले भी मिल जाते हैं!
महर्षि
महेश योगी लोगों को यही कह रहे हैं कि धन भी मिलेगा ध्यान से, पद भी
मिलेगा ध्यान से, स्वास्थ्य भी मिलेगा ध्यान से, ध्यान से सब कुछ मिलेगा। पदोन्नति भी होगी ध्यान से! अगर तुमने ठीक से
ध्यान किया तो पदोन्नति भी होगी। स्वभावत:, अगर अमरीका में
उनका प्रभाव पड़ रहा है तो कुछ आश्चर्य नहीं। लोग महत्वाकाक्षी हैं, लोग यही चाहते हैं।
जिन
मंत्री की मैंने बात कही,
उन्होंने भी मुझसे यही कहा कि आप यह कहते हैं कि कहीं और जाओ,
मैं महर्षि महेश योगी के पास गया था तो उन्होंने तो कहा कि होगा,
ध्यान करो। उन्होंने मंत्र दे दिया, मैं कर भी
रहा हूं सालभर से, अभी तक कुछ हुआ नहीं, इसलिए आपके पास आया हूं। होगा ही नहीं। महत्वाकांक्षा के साथ ध्यान का
संबंध ही नहीं जुड़ता।
उसको
मुनि कहता हूं बुद्ध ने कहा, जिसकी कोई महत्वाकांक्षा नहीं—न इस लोक की,
न परलोक की। संसार तो चाहता ही नहीं, मोक्ष की
भी चाह छोड दी है जिसने, वही चुप होता है, वही मौन होता है, वही मुनि है।
और
अंतिम दृश्य:
भगवान के जेतवन में रहते समय बहुत शीलसंपन्न
भिक्षुओं के मन में ऐसे विचार हुए— हम लोग शीलसंपन हैं ध्यानी हैं जब चाहेगे तब
निर्वाण प्राप्त कर लेने। ऐसी भ्रांत धारणाएं साधना— पथ पर अनिवार्य रूप से आती
हैं।
जरा
सा कुछ हुआ कि आदमी सोचता है, बस.. .किसी ने जरा सा ध्यान साध लिया, किसी ने जरा सच बोल लिया, किसी ने जरा दान कर दिया,
किसी ने जरा वासना छोड़ दी कि वह सोचता है बस, मिल
गयी कुंजी, अब क्या देर है, जब चाहेंगे
तब निर्वाण उपलब्ध कर लेंगे। आदमी बड़ी जल्दी पड़ाव को मंजिल मान लेता है। जहां
रातभर रुकना है और सुबह चल पड़ना है, सोचता है—आ गयी मंजिल।
ऐसी
प्रांत धारणाएं साधना— पथ पर अनिवार्य रूप से आती हैं।
अनाचरण
छूटा तो आचरण पकड़ लेता है। धन छूटा तो ध्यान पकड़ लेता है। पाप छूटा तो पुण्य पकड
लेता है। इधर कुआ,
उधर खाई।
भगवान
ने उन्हें अपने पास बुलाया और पूछा भिक्षुको क्या तुम्हारे संन्यस्त होने का
उद्देश्य पूर्ण हो गया?
पूछना
पड़ा होगा। क्योंकि देखा होगा, वे तो अकड़कर चलने लगे। देखा होगा कि वे तो ऐसे
चलने लगे जैसे पा लिया, जैसे आ गए घर। तो बुलाया उन्हें और
पूछा, क्या तुम्हारे संन्यस्त होने का उद्देश्य पूर्ण हो गया?
वे
छिपाना तो चाहते थे पर छिपा न सके
गुरु
के सामने छिपाना असंभव है। वे आनाकानी करना चाहते थे, लेकिन कर
न सके।
बुद्ध
ने कहा भिक्षुओ छिपाने की चेष्टा न करो सीधी— सीधी बात कहो संन्यस्त होने का
लक्ष्य पूर्ण हो गया है क्या? क्योंकि तुम्हारी चाल से ऐसा लगता है। तुम्हारी
आंख से ऐसा लगता है कि तुम तो आ गए!
उनके
भाव एकष्ट ही उनके चेहरों पर लिखे थे।
उन्होंने
झिझकते— झिझकते अपने मनों की बात कही स्वीकार किया भगवान ने उनसे कहा भिक्षुको
चरित्र पर्याप्त नहीं है। आवश्यक है पर पर्याप्त नहीं। चरित्र से कुछ ज्यादा चाहिए।
चरित्र
तो निषेधात्मक है—चोरी नहीं की, झूठ नहीं बोले, बेईमानी
नहीं की, हिंसा नहीं की, यह तो सब
नकारात्मक है। विधायक कुछ चाहिए।
चरित्र
जरूरी है पर्याप्त नहीं। चरित्र से कुछ ज्यादा चाहिए।
सुनना
इस बात को। चरित्र पर तुम अटक मत जाना। चरित्र तो बच्चों का खेल है। चरित्रवान
होने में पुण्य कुछ भी नहीं है। पाप में तो बुराई है, पुण्य में
कुछ भलाई नहीं है। तुम बहुत हैरान होओगे यह बात सुनकर। एक आदमी चोरी करता है,
यह तो बुरी बात है। लेकिन एक आदमी चोरी नहीं करता, इसमें कौन सी खास बात है! समझना इस बात को। चोरी न की, तो इसको भी कोई झंडा लेकर घोषणा करोगे कि हम चोरी नहीं करते हैं। यह भी
कोई बात हुई! चोरी न की, तो ठीक वही किया जो करना था,
इसमें खास बात क्या है? किसी की जेब न काटी,
तो कोई गुण पा लिया? जेब कांटते तो बुराई जरूर
थी, नहीं काटी तो कुछ खास भलाई नहीं हो गयी।
एक
आदमी अगर नकार पर ही जीने लगे तो चरित्र से जकड़ जाता है। धर्म विधायक की खोज है।
नकारात्मक से बचना ठीक है,
वह कमजोरी की बात है, मगर उतना कुछ खास नहीं
है। अब तुमसे कोई पूछेगा कि तुम अपनी फेहरिश्त बनाओ, तुम
उसमें बड़ी फेहरिश्त जोड़ सकते हो—सिगरेट नहीं पीते, पान नहीं खाते,
चाय नहीं पीते, काफी नहीं पीते; यह सब चरित्र है। चोरी नहीं करते, बेईमानी नहीं करते, पर—स्त्रीगमन नहीं करते, यह सब चरित्र है। मगर
इसमें खूबी क्या है? यह तो सहज ही मनुष्य का स्वभाव है,
ऐसा होना नहीं चाहिए।
तो
जो पाप करता है,
वह मनुष्य होने से गिरता है। जो पाप नहीं करता, वह मनुष्य होने से ऊपर नहीं उठता। और धर्म तो वही है जो मनुष्य के ऊपर ले
जाए, अतिक्रमण कराए।
तो
बुद्ध ने कहा चरित्र से कुछ और ऊपर चाहिए। शील साधन है, साध्य
नहीं? पाप और पुण्य दोनों ही बांधते हैं। भिक्षुओ जब तक
समस्त आश्रव क्षीण न हो जाएं और अंतराकाश में शून्य ही शेष न रह जाए तब तक रुकना
नहीं है। और आश्वस्त भी मत हो जाना और जल्दी मत ठहर जाना। पड़ावों को पड़ाव. जानो।
पड़ाव मंजिल नहीं है।
और
तब भगवान ने ये गाथाएं कहीं—
न सीलब्बतमत्तेन बाहुसच्चेन वा पन।
अवथा समाधि लाभेन
विवित्तयनेन वा ।।
फुसमि
नेक्खम्मसुखं अपुथुज्जनसेवितं।
भिक्खु विस्सासमापादि अप्पत्तो
आसवक्खयं ।।
'न केवल शील और व्रत के आचरण से, न बहुश्रुत होने से,
न समाधि—लाभ से और न ही एकांत में शयन करने से और न ऐसा सोचने से ही
कि मैं सामान्यजनों द्वारा अप्राप्य निर्वाण के सुख का अनुभव कर रहा हूं दुख
समाप्त होता है। हे भिक्षु, ( अपने निर्वाण—लाभ में) तब तक विश्वास
मत करो, जब तक समस्त आस्रवों का क्षय न हो जाए।'
जब
तक तुम्हारे चित्त में कोई भी चीज आती—जाती है, तब तक आसव। आसव का मतलब, आना—जाना। जब तक तुम्हारे चित्त में कोई भी तरंग उठती है, गिरती है, तब तक आसव। जब तक समस्त आना—जाना शांत न
हो जाए—जब तुम्हारे चित्त में न कोई आए, न कोई जाए, सूना आकाश सूना ही बना रहे, फिर बदलिया कभी न घिरे
और असाढ़ कभी न हो, तभी आश्वस्त होना, उसके
पहले विश्वास मत कर लेना कि पहुंच गए। जरा सा समाधि—लाभ हुआ, जरा शांत बैठे, सुख आया, इससे
समझ मत लेना कि आ गयी मंजिल।
इस
परम मार्ग में बहुत बार ऐसे पड़ाव आते हैं जो बड़े सुंदर हैं, जहां रुक
जाने का मन करेगा, जहां तुम सोचोगे कि आ गया घर, बस अब यहीं ठहर जाएं। मन सदा चालबाजी करता है। वह कहता रु,, बस, अब रुक जाओ, थक भी गए और
काफी तो पहुंच गए, और क्या करना है! देखो, ब्रह्मचर्य भी हो गया, अब देखो लोभ भी नहीं रहा,
अब देखो दान भी करने लगे हैं, अब देखो क्रोध
भी नहीं आता है, अब रुक जाओ, अब कितनी
सुंदर जगह आ गार!
मगर
बुद्ध कहते हैं,
जब तक मन में आना—जाना बना रहे, कोई भी भाव
उठता हो, तब तक रुकना मत। निर्भाव जब तक न हो जाओ, जब तक शून्य बिलकुल 'महाशून्य न हो जाए, कुछ भी न उठे, कोइ तरंग नहीं, तभी,
तब रुक जाना। तब तौ रुकना ही होगा। तब तो तुम न भी रुकना चाहो तो भी
रुक जाओगे। तरंग ही नहीं उठती तो अब जाओगे कहा! जब तक जरा सी भी तरंग उठे, समझना कि अभी यात्रा पूरी नहीं हुई है।
ऐसे
बुद्ध छोटे—छोटे जीवन—प्रसंगों को उठाकर बड़े परम सत्यों की उदघोषणा करते हैं। धर्म
शाश्वत है, सनातन है, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति तो क्षण— क्षण जीवन
की परिस्थितियों में होनी चाहिए। इसीलिए मैं इन दृश्यों को तुम्हारे सामने उपस्थित
कर रहा हूं। ये तुम्हारे जीवन के ही दृश्य हैं। और इनको ठीक से समझोगे तो इन
संकेतों में तुम्हारे लिए बहुत पाथेय मिल सकता है।
आज इतना ही।
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