सत्य अनुभव है अंतश्चक्षु का—प्रवचन—91
प्रश्न
सार:
सत्य क्या है?
इसका उत्तर नहीं हो सकेगा। इसका उत्तर हो ही नहीं
सकता।
सत्य
कैसे पाया जा सकता है,
इसका तो उत्तर हो सकता है, विधि बतायी जा सकती
है, लेकिन सत्य क्या है, उसे बताने का
कोई उपाय नहीं। सत्य को तो स्वयं ही जानना होता है, दूसरा न
बता सकेगा। और दूसरे का बताया गया सत्य न होगा। ऐसा नहीं कि दूसरे ने नहीं जाना है।
सत्य जाना तो जा सकता है, लेकिन जनाया नहीं जा सकता।
प्रश्न
महत्वपूर्ण है। लेकिन उत्तर की अपेक्षा न करो। उत्तर तुम्हें खोजना होगा। उत्तर
मुझसे न मिल सकेगा। मेरी तरफ से इशारे हो सकते हैं कि ऐसे चलो, ऐसे जीओ,
तो एक दिन सत्य मिलेगा। लेकिन सत्य क्या होगा, कैसा होगा, जब मिलेगा तो कैसा स्वाद आएगा, यह तो स्वाद आएगा तभी पता चलेगा।
हम
होशियार लोग हैं,
हम गणित लगाकर चलते हैं, हम पहले पूछते हैं
सत्य क्या है, ठीक पता चल जाए तो फिर हम खोज करें। इसीलिए तो
बहुत कम लोग सत्य की खोज करते हैं।
सत्य
की खोज का अर्थ हुआ,
अज्ञात में जाना है, अंधेरे में उतरना है,
अनजान, अपरिचित से दोस्ती करनी है। सत्य है भी,
इसका भी कोई भरोसा नहीं दिला सकता तुम्हें। अगर तुमने जिद्द की हो,
अगर तुम तर्क में कुशल और पटु हो, तो कोई यह
भी नहीं सिद्ध कर सकता कि सत्य है। तुममें श्रद्धा हो, स्वीकार
हो, तो तुम यह बात मानकर चल सकते हो कि सत्य है। कैसे तुम
मानोगे? क्योंकि आज तक किसी ने नहीं कहा कि सत्य क्या है।
जीसस
को पूछा है सूली लगाने के पहले पाटियस पायलट ने—रोमन गवर्नर ने—जिसकी आज्ञा से
जीसस को सूली हुई,
सूली की सजा देने के बाद, सजा सुनाने के बाद
पायलट ने जीसस की तरफ देखा और कहा कि एक प्रश्न मुझे भी पूछना है, मेरा निजी प्रश्न, सत्य क्या है? और जीसस जो जीवनभर बोलते रहे थे, जब भी किसी ने कुछ
पूछा था तो उत्तर दिया था, कहते हैं, चुप
खड़े रह गये। पायलट की आंखों में झांका, लेकिन चुप रहे,
बोले कुछ भी नहीं। बिना बोले सूली पर चढ़ गये। क्यों नहीं बोले?
न बोलने का कारण है। जो प्रश्न पूछा था, उसका
शब्दों में उत्तर नहीं हो सकता।
लाओत्सु
ने कहा है, जो कहा जा सके वह सत्य न होगा। सत्य तो कहा ही नहीं जा सकता। और जो भी कहा
जा सकेगा, कहने के कारण ही असत्य हो जाएगा। जापान में एक
बहुत बडा झेन फकीर हुआ—लिंग शू। सम्राट ने उसे बुलवाया था प्रवचन देने को। आया,
सम्राट का निमंत्रण था, तो जरूर आया। सम्राट
ने खडे होकर प्रार्थना की, सत्य क्या है?
लिंग
शू खड़ा हुआ मंच पर,
उसने जोर से सामने रखी टेबल पीटी, सन्नाटा छा
गया। सब लोग उत्सुक होकर बैठ गये। सबकी रीढें सीधी हो गयीं। सम्राट भी बैठ गया कि
शायद अब कोई महत्वपूर्ण बात कहने को है लिंग शू। और लिंग शू ने सन्नाटा न छोड़ा।
क्षणभर रहा और बोला, प्रवचन पूरा हो गया। उतरा मंच से,
बाहर चला गया।
सम्राट
ने अपने वजीरों से कहा,
यह किस तरह का प्रवचन हुआ? हम तो वर्षों
प्रतीक्षा किये लिंग शू की—अब आता, अब आता, अब पहाड़ों से उतरता है, हम राह देखते —देखते थक गये
और यह आदमी आया और टेबल पीटकर बोलता है, प्रवचन पूरा हो गया!
यह बोला तो एक भी शब्द नहीं।
उस
मौन में कुछ कहा लिंग शू ने। उस मौन में ही कहा जा सकता है। जैसे जीसस ने पाटियस
पायलट की आंखों में झाककर देखा और कुछ भी न कहा। लिंग शू ने और भी बड़ी करुणा की, उसने टेबल
पीटी, ताकि कोई झपकी खा रहा हो, सोया
हो, तो जग जाए। फिर क्षणभर को सन्नाटा रहा।
बुद्ध
एक सुबह कमल का फूल हाथ में लिये हुए आए और उस दिन बोले नहीं—रोज बोलते थे।
प्रतीक्षा में बैठे हैं शिष्य, भिक्षु, श्रावक। फिर
प्रतीक्षा भारी होने लगी, क्योंकि बुद्ध हैं कि उस कमल के
फूल को देखे चले जाते हैं और बोलते कुछ भी नहीं। आधी घड़ी बीती, घड़ी बीती, फिर तो लोग घबड़ाने लगे कि यह क्या हो रहा
है, ऐसा कभी न हुआ था।
और
तब एक शिष्य महाकाश्यप हंसने लगा, खिलखिलाकर हंसने लगा—उसे कभी किसी ने हंसते भी
न देखा था, वह तब तक जाहिर भी नहीं था, तब तक किसी को उसका पता भी नहीं था—उसकी हंसी की आवाज उस सन्नाटे में गंजी,
बुद्ध ने आंखें उठायीं, महाकाश्यप को अपने पास
बुलाया, फूल उसे दे दिया और समूह से कहा, जो मैं कहकर कह सकता था, तुमसे कह दिया; और जो कहकर नहीं कहा जा सकता, वह मैं महाकाश्यप को
देता हूं। वह सत्य का दान था।
फिर
सदियां बीत गयी हैं,
पच्चीस सौ साल बीत गये, बौद्ध चिंतक, मनीषी इस पर विचार करते रहे हैं, ध्यान करते रहे हैं,
कि क्या दिया बुद्ध ने महाकाश्यप को? क्या
मिला महाकाश्यप को? क्यों महाकाश्यप हंसा? तब तक नहीं हंसा था, उसके पहले तक उसके बाबत कोई
उल्लेख बौद्ध ग्रंथों में नहों है, फिर उसके बाद भी कोई
उल्लेख नहीं है। महाकाश्यप हंसा लोगों की चित्तदशा देखकर कि लोग शब्द में
प्रतीक्षा कर रहे हैं और आज बुद्ध मौन में दिये दे रहे हैं।
जिस
लिंग शू की मैंने तुमसे कहानी कही, वह मरणशथ्या पर पड़ा था। शिष्य
इकट्ठे हो गये थे। हजारों बार उन्होंने कोशिश की थी जान लें कि सत्य क्या है,
धर्म क्या है, बुद्धत्व क्या है, निर्वाण क्या है, और लिंग शू हमेशा मुस्कुराकर चुप
रह जाता था। सोचा कि शायद मरते समय कुछ कह दे, जाते—जाते
.शायद कोई कुंजी दे भै। तो शिष्यों ने पूछा कि हम एक ही प्रश्न पूछने आए हैं,
विदा के पहले उत्तर दे जाएं। पूछा लिंग शू ने, क्या है प्रश्न? वही तो अटकी थी मन में बात शिष्यों
के, सभी ने कहा, एक ही, हम सबका एक ही प्रश्न है, अलग—अलग भी प्रश्न नहीं—सत्य
क्या है? लिंग शूर ने आंखें बंद कर लीं, सन्नाटा रहा।
यही
तो सदा का मामला था। मरते वक्त भी अपनी आदत से लिंग शू बाज न आया। यही उसकी
जिंदगीभर की व्यवस्था थो। पूछो सत्य कि चुप हो जाता। और कुछ भी पूछो तो खूब बोलता, लेकिन
जैसे ही तुम सत्य की बात के करीब आते कि जैसे उसकी जबान को लकवा लग जाता। चुप ही
चल दिया लिंग शू आंख बंद रही सो बंद ही रही, फिर न खुली।
उसके
निर्वाण के बाद उसके शिष्यों ने उसका एक स्मारक बनाना चाहा। उस पर वे उसका जीवन
लिखना चाहते थे। लेकिन क्या लिखें! उसका जीवन मौन की एक लंबी कथा थी। नहीं कि उसने
कुछ न कहा था,
रोज बोलता था, लेकिन जो लोग पूछते थे, वह नहीं बोलता था, कुछ और बोलता था। लोग पूछते हैं,
स्वास्थ्य क्या है? और लिंग शू बोलता था,
औषधि क्या है बीमारी को दूर करने की।
लिंग
शू की पकड़ बड़ी वैज्ञानिक थी। तुम बीमार हो, औषधि की पूछो, स्वास्थ्य की पूछने से क्या होगा! अभी तुम बीमार हो, तुम स्वास्थ्य का अनुभव भी नहीं कर सकोगे। कोई लाख सिर पटके और समझाए,
तुम तक बात नहीं पहुंचेगी, नहीं पहुंचेगी। तो
औषधि की बात समझायी जा सकती है, औषधि खोजो, सत्य की बात मत पूछो। औषधि ले लो, बीमारी कट जाए,
तो जो बच रहेगा वही स्वास्थ्य है, वही सत्य है।
जिसइr दिन तुम शांत
हो जाओगे, उस दिन तुम्हारे भीतर जो मौजूद होगा, वही सत्य है। जिस दिन तुम निर्विचार हो जाओगे, कोई
विचार की तरंग न होगी, उस दिन तुम्हारे भीतर जो निर्धूम
ज्योति जलेगी, वही सत्य है। जिस क्षैण तुम्हारे जीवन से सारी
वासना विदा हो जाएगी, उस दिन निर्वासना में तुम्हारे भीतर जो
प्रकाश और आलोक होगा, वही सत्य है। जिस दिन तुम जानोगे कि न
मैं देह हूं जिस दिन तुम जानोगे कि न मैं मन हूं उस दिन तुम जो जानोगे, वही तुम हो, वही सत्य है।
लेकिन
उसे कैसे कोई कहे! लिंग शू ने बातें तो बहुत कही थीं, लेकिन उन
बातों में उसके जीवन का असली स्वर न था। असली स्वर तो मौन था।
शिष्यों
ने जब स्मारक बनाया तो वे चाहते थे, कुछ ऐसी बात लिखी जाए स्मारक पर,
संक्षिप्त शब्दों में, ताकि लिंग शू के पूरे
जीवन के संबंध में इशारा हो जाए। वे कुछ सोच न सके। उन्होंने बहुत सिर मारा,
लेकिन वह आदमी असली बातों पर मौन ही रहा था, व्यर्थ
की बातों पर उन्हें लगता था बोला, सार्थक बातों पर चुप रहा।
हमने कुछ पूछा, इसने कुछ कहा। तो इसके बाबत लिखें क्या?
इसने जो कहा था, वह लिखें? वह जंचता नहीं, क्योंकि वह इसके जीवन का असली स्वर न
था। जो इसने नहीं कहा, उसको कैसे लिखें? वही इसका असली स्वर था।
तो
वे एक दूसरे सदगुरु के पास गये पूछने कि हम क्या लिखें? लिंग शू
की कब्र तैयार हो गयी—संगमरमर की प्यारी कब बनायी है—उसकी कब्र पर कुछ लिखना है,
जो इंगित दे, सदियों तक इशारा करे। जिस सदगुरु
से उन्होंने पूछा, उसका नाम था, द्य
मैन। प्ल मैन अधिकतर एक ही शब्द में बोलता था। जैसे लिंग शू चुप रहता था, मौन हो जाता था, प्ल मैन जब कोई कुछ पूछता था तो
अक्सर एक ही शब्द में उत्तर देता था। समझो तो ठीक, न समझो तो
ठीक। जब शिष्यों ने प्ल मैन से पूछा तो द्य मैन थोड़ी देर चुप रहा और फिर जोर से
बोला—सदगुरु! मास्टर! बस इतना लिख दो।
और
लिंग शू की कब पर अभी भी लिखा हुआ है—सदगुरु। कुछ और नहीं लिखा है। बड़ी अजीब बात
प्ल मैन ने कही कि सदगुरु। क्योंकि सत्य को कभी नहीं बोला, इसलिए
सदगुरु। सत्य तक पहुंचने का मार्ग जरूर बताया, लेकिन सत्य
क्या है, कभी नहीं बताया, इसलिए सदगुरु।
असदगुरु वही है जो तुम्हें सत्य क्या है, यह तो बताए;
और सत्य तक कैसे पहुंचा जाए, यह कभी न बताए।
और जो तुम्हें यह न बताए कि सत्य तक कैसे पहुंचा जाए, उसकी
सत्य के संबंध में की गयी परिभाषाएं दो कौड़ी की हैं। स्वप्नजाल हैं।
तुम्हारा
प्रश्न तो महत्वपूर्ण है कि सत्य क्या है, लेकिन तुम जरा और दूसरी दिशा से
पूछो। तुम यह पूछो कि सत्य को कैसे पाया जाता है? जरा
व्यावहारिक बनो। जमीन पर आओ, आकाश में न उड़ो। तुम जहां हो
वहां से बात शुरू करो। अंधा आदमी पूछता है, प्रकाश क्या है?
अंधे आदमी को पूछना चाहिए, मैं अंधा हूं मेरी आंखें
कैसे ठीक हों? बहरा आदमी पूछता है, ध्वनि
क्या है? बहरे आदमी को पूछना चाहिए, मेरे
कान कैसे ठीक हों?
तुम
मत पूछो सत्य की बात,
तुम इतना ही पूछो कि हमारी आंख कैसे ठीक हो जाएं? आंख पर जाली जमी है, जन्मों —जन्मों की जाली जमी है
वासना की, विचार की, विकृति की,
उसके कारण कुछ भी दिखायी नहीं पडता। इसलिए सवाल उठता है कि सत्य
क्या है? अंधे को सवाल उठता है कि प्रकाश क्या है? और ऊपर से देखोगे तो सवाल में कुछ भूल भी नहीं मालूम पड़ती, लेकिन क्या यह उचित सवाल है? और क्या तुम प्रकाश की
व्याख्या करोगे अंधे के सामने? और क्या तुम सोचते हो कि अंधा
इससे कुछ समझ पाएगा? तुम प्रकाश का गुणगान करोगे, स्तुति गाओगे? तुम प्रकाश के रंगों और प्रकाश के
अदभुत अनुभव की चर्चा में उतरोगे? गीत रचोगे, गुनगुनाओगे?
सब
व्यर्थ होगा,
क्योंकि अंधे को तुम्हारी कोई बात समझ न आएगी। जिसने प्रकाश जाना
नहीं, उसे प्रकाश के संबंध में कुछ भी कहा गया हो, समझ में न आएगा। खतरा यह है कि कहीं कुछ का कुछ समझ में न आ जाए। गलत
प्रश्न पूछने में बड़े से बड़ा खतरा यही है कि कहीं कुछ का कुछ समझ में न आ जाए।
रामकृष्ण
कहते थे, एक आदमी था, अंधा आदमी, उसके
मित्रों ने उसे भोज दिया। खीर बनी। उस अंधे आदमी को पहली दफे ही खीर खाने को मिली।
गरीब आदमी था, खीर उसे खूब रुची। उसने और—और मांगी। फिर वह
पूछने लगा, जरा इस खीर के संबंध में मुझे कुछ बताओ। पास में
बैठे किसी तथाकथित बुद्धिमान ने कहा, खीर बिलकुल सफेद होती
है, रंग इसका सफेद है। उस अंधे ने कहा, मेरे साथ मजाक न करो, जानते हो कि मैं अंधा हूं जन्म—अंधा
हूं सफेद, सफेद यानी क्या? मगर पास में
बैठा हुआ आदमी भी पूरा पंडित था, उसने सफेद को समझाने की
कोशिश की। उसने कहा, कभी बगुले देखे? बगुले
जैसे सफेद होते हैं, उसी का नाम सफेद है। उस अंधे ने कहा,
एक पहेली को सुलझाने के लिए तुम दूसरी पहेली बता रहे हो। बगुले,
बगुले क्या? कभी देखे नहीं।
मगर
पंडित भी पंडित ही था। उसने भी जिद्द कर ली थी कि समझाकर ही रहेगा। उसने कहा, बगुले
नहीं देखे! चलो यह मेरा हाथ है, इस पर हाथ फेरो, ऐसी बगुले की गर्दन होती है। अपने हाथ को बगुले की गर्दन जैसा टेढ़ा करके
उसने हाथ फिरवा दिया। अंधा बड़ा खुश हुआ, बड़ा आनंदित हुआ।
उसने कहा, खूब—खूब धन्यवाद तुम्हारा, अब
मैं समझ गया कि खीर कैसी होती है, तिरछे हाथ की तरह खीर होती
है। मैं समझ गया, अब मेरी बात समझ में आ गयी। कोई मुझे समझाए
तो मैं समझ जाता हूं लेकिन समझाते ही नहीं लोग! लोग टाल ही जाते हैं! तब उस पंडित
को समझ में आया कि यह समझाना न हुआ, यह तो और हानि की बात हो
गयी, यह तो कुछ का कुछ समझ गया!
सत्य
को जो जानते हैं,
वे कभी न कहेंगे, क्योंकि तुम कुछ का कुछ
समझोगे। बुद्ध के पास एक बार लोग एक अंधे को ले आए थे। क्योंकि अंधा बड़ा जिद्दी था
और कहता था कि प्रकाश है ही नहीं। और कहता था, ऐसा भी नहीं
है कि मैंने अपने मन को अवरुद्ध कर रखा है। मैं बहुत मुक्त—मन व्यक्ति हूं। लेकिन
प्रकाश है ही नहीं और लोग व्यर्थ की झूठी बातें और कपोल—कल्पनाओं में पड़े हैं। अगर
प्रकाश है तो मैं छूकर देखना चाहता हूं। स्वभावत:, अंधा छूकर
चीजों को देखता है, टटोलकर देखता है। तो वह कहता है, प्रकाश अगर है तो ले आओ, मैं छूकर देख लूं; छू लूं तो मैं मान लूं।
अब
प्रकाश को कैसे छुओगे! लेकिन अगर प्रकाश को न छुओ तो क्या इससे यह सिद्ध होता है
कि प्रकाश नहीं है?
लेकिन अंधे की बात में भी बल है। उसके पास एकर्श की ही तो इंद्रिय
है जिससे वह पहचानता है।
वह
कहता है, चलो, एकर्श न करवा सको, जरा
प्रकाश को बजाओ, तो मैं सुन लूं मेरे कान ठीक हैं। चलो,
यह भी न कर सको तो प्रकाश को मेरे मुंह में रख दो, मैं जरा उसका स्वाद ले लूं मेरी जिह्वा भी ठीक है। यह भी नहीं होता! तो
जरा प्रकाश को मेरे नासापुट के पास ले आओ, मुझे गंध बिलकुल
ठीक से आती है, मैं उसकी गंध ले लूं। कुछ तो प्रमाण दो! कुछ
तो ऐसा प्रमाण दो जो मेरी सीमा और समझ के भीतर पड़ता है।
लेकिन
प्रकाश को न सूंघा जा सकता है, प्रकाश में कोई गंध होती ही नहीं। न प्रकाश को
छुआ जा सकता, क्योंकि प्रकाश का कोई रूप नहीं होता, कोई देह नहीं होती, कोई काया नहीं होती। न प्रकाश को
चखा जा सकता, क्योंकि प्रकाश में कोई स्वाद नहीं होता। न
प्रकाश को बजाया जा सकता, प्रकाश में कोई ध्वनि नहीं होती।
तो अंधा खिलखिलाकर हंसता और वह कहता, फिर क्यों व्यर्थ की
बातें करते हो? प्रकाश है ही नहीं। और मैं ही अंधा नहीं हूं, तुम सब अंधे हो। फर्क सिर्फ इतना है कि मैं ईमानदार अंधा हूं, तुम बेईमान अंधे हो। तुम उस प्रकाश की बातें कर रहे हो जो नहीं है,
और मैं उसको स्वीकार नहीं करता।
यही
तो नास्तिक कहता है आस्तिक से कि मैं ईमानदार आदमी हूं तुम बेईमान। तुम उस ईश्वर
की बातें कर रहे हो जो है नहीं, मैं कैसे मानूं! यही तो गैर—ध्यानी कहता है
ध्यानी से कि तुम किस आनंद की बातें कर रहे हो, राह है ही
नहीं! हो तो रख दो मेरे सामने। बिछा दो टेबल पर तो मैं परीक्षण कर लूं। यही तो
मार्क्स ने कहा है।
मार्क्स
ने कहा है, जब तक ईश्वर प्रयोगशाला में परीक्षित न हो, तब तक
स्वीकार नहीं होगा। जब हम टेस्ट—टघूब में रखकर ईश्वर की परीक्षा कर लेंगे, एसिड डालकर और हजार तरह के उपाय करके, तब हम स्वीकार
करेंगे।
जो
तुम्हारे टेस्ट—क्यूब में समा जाएगा, वह ईश्वर होगा! जो तुम्हारी टेबल
पर लेट जाएगा और तुम उसके अंग—अंग खंडित करोगे, विश्लेषण
करपौ, और तय करोगे कि कौन है, वह ईश्वर
होगा!
नास्तिक
यही तो कहता है कि मुझमें और तुममें इतना ही फर्क है—यह फर्क नहीं है कि ईश्वर है—फर्क
इतना है कि मैं ईमानदार,
मैं वही कहता हूं जो मुझे दिखायी पड़ता है, तुम
उसकी बातें करते हो जो दिखायी नहीं पडता। तुम अदृश्य के संबंध में नाहक अटकलें
लगाते हो।
यही
उस अंधे ने बुद्ध से कहा था। बुद्ध ने कहा कि मैं तेरी बात समझता हूं मुझे तेरी
बात में जरा भी विरोध नहीं है। लेकिन उन्होंने जो लोग उस अंधे को लेकर आए थे, उनसे कहा
कि तुम्हारी बात गलत है, तुम इसे समझाने की कोशिश मत करो।
मैं एक बड़े चिकित्सक को जानता हूं जो आंखें ठीक कर सकता है, तुम
इसे चिकित्सक के पास ले जाओ।
छह
महीने की औषधि से उस आदमी की आंखों की जाली कट गयी। वह अंधा नहीं था—अंधा कोई भी
नहीं है, सिर्फ आंखों पर जाली है—उसकी आंखों की जाली कट गयी। वह नाचता हुआ आया। वह
बुद्ध के चरणों में गिर पडा। उसने कहा, अब मैं जानता हूं कि
प्रकाश है और मुझे क्षमा कर दें, मैंने जो विवाद किया था वह
व्यर्थ था, मुझे क्षमा कर दें। मैं अंधा था। सिर्फ अंधा था
मैं और अपने अंधेपन को भी पकड़कर बैठा था। मैंने जो विवाद किया था वह ठीक नहीं था।
प्रकाश है। और अब मैं जानता हूं कि मैं भी अगर किसी को चाहूं कि प्रकाश एकर्श कर
ले, स्वाद ले ले, ध्वनि सुन ले,
गंध ले ले, तो मैं भी यह न कर पाऊंगा, और फिर भी प्रकाश है।
प्रकाश
का पता ही तब चलता है जब आंख खुलती है। प्रकाश आंख का अनुभव है, और सत्य
तुम्हारी अंतर्दृष्टि का। प्रकाश बाहर की आंख का अनुभव है, सत्य
तुम्हारी भीतर की आंख का। अंतश्चक्षु खुलें, तो सत्य का पता
चलता है। तुम ऐसे प्रश्न मत पूछो कि सत्य क्या है? ऐसा ही
पूछो कि अंतश्चक्षु कैसे खुलें? उसी की तो बात चल रही है रोज।
हजार—हजार उपाय और विधियों से उसी की बात चल रही है कि अंतश्चक्षु कैसे खुलें?
ध्यान
अंतश्चक्षु को खोलने की औषधि है। तुम ध्यान में लगो, तुम सत्य की व्यर्थ की
बातों में मत पड़ी, अन्यथा दार्शनिक हो जाओगे। आस्तिक हो
जाओगे, नास्तिक हो' जाओगे, विवादी हो जाओगे, तार्किक हो जाओगे, पंडित हो जाओगे, लेकिन कभी जानी न हो सकोगे। ध्यान
के अतिरिक्त कोई कभी ज्ञानी नहीं हुआ है।
दूसरा
प्रश्न:
मेरे
प्यारे प्रभु,
मेरी बूढ़ी मां पिछले पचास वर्षों से जैन—साधना नियमित रूप से करती
हैं, पर मृत्युशय्या पर उसकी जीवेषणा देखकर आज कुंडलिनी
ध्यान में आपसे एक ही प्रार्थना रही कि प्रभु, मृत्यु से
पहले मृत्यु की पहचान करने में सहायता दें।
पूछा है ईश्वर समपर्ण ने।
जीवेषणा
मृत्यु के समय बहुत घनी हो जाती है। स्वभावत:। जब जीवन हाथ से छूटने लगता है तो हम
जीवन को और कसकर पकड़ना चाहते हैं। जब जीवन हाथ में होता है तब पकड़ने की कोई जरूरत
ही नहीं होती है। जो तुम्हारे पास है उसे तुम थोड़े ही पकड़ते हो, जो जाने
लगा, उसे तुम पकडते हो। जो तुम्हारे पास है ही, तुम पकड़ो या न पकड़ो, उसकी कौन चिंता करता है! लेकिन
जिस दिन तुम पाते हो कि छोड्कर जाने लगा, उस दिन तुम पकड़ते
हो, उस दिन तुम दीवाने हो जाते हो। मृत्यु के क्षण में
जीवेषणा बहुत गहरी हो जाती है, आत्यंतिक हो जाती है, चरम हो जाती है।
जीवनभर
शायद जीवन में बहुत रस न लिया हो, जीवनभर चाहे साधु जैसे कोई जीआ हो, लेकिन मरते क्षण में असली पहचान होती है। मरते क्षण में कसौटी है। मरते
वक्त पता चलता है कि इस आदमी की जीवेषणा थी या नहीं। मरते वक्त जो जीवन को बिना
पकड़े, प्रसन्न भाव से, जरा भी रोता हुआ
नहीं, जरा भी चीखता—पुकारता नहीं, सहजभाव
से मृत्यु में लीन हो जाता है, जरा भी शिकायत नहीं, वही समझो कि जीवेषणा से मुक्त हुआ।
मगर
जीवेषणा की कसौटी आती तभी है जब मौत आती है। बुढापे में आदमी ज्यादा जीवन में
उत्सुक हो जाता है,
क्योंकि पैर डगमगाने लगते हैं, मौत करीब आने
लगती है। अब तो अगर पकड़कर नहीं रखा जीवन को तो यह गया। तो यह पंछी कभी भी उड़ जाने
को तैयार है! तो सब द्वार—दरवाजे आदमी बंद कर लेता है—और थोड़ी देर जी लें। पहले तो
जीवन ऐसे लुटाया कि कभी फिकर नहीं की बहुत।
लोगों
से पूछो, जिंदगी में तो लोगों के पास समय कांटने के लिए उपाय नहीं हैं! लोग कहते
हैं, समय कांट रहे हैं। कोई ताश खेल रहा है, कोई शराब पी रहा है, कोई जुआ खेल रहा है, कोई होटल में बैठा है, कोई क्लबघर में बैठा है। उनसे
पूछो, क्या कर रहे हो? वे कहते हैं,
समय कांट रहे हैं। जैसे समय जरूरत से ज्यादा है, तो कांट रहे हैं उसे, क्या करें!
यही
आदमी मौत के वक्त चीखेगा—चिल्लाएगा कि और चौबीस घंटे मिल जाते, एक रात और
पूर्णिमा का चांद देख लेता, एक रात और कर लेता प्रेम,
एक रात और रह लेता अपने प्रियजनों के बीच, एक
बार और सूरज ऊग जाता, एक वसंत और देख लेता, एक बार और देखता खिलते फूल, एक बार और सुनता गीत
गाते पक्षी—पकड़ता है! अब सब जा रहा है, अब नहीं सूझता उसे कि
क्या करे, पहले समय कांटता था!
तुम
सोचते हो, तुम समय कांट रहे हो, तुम गलती में हो, समय तुम्हें कांट रहा है। तुम समय को क्या काटोगे? तुम
समय को कैसे काटोगे? आदमी के पास कोई आरा नहीं है जिससे समय कांटा
जा सके। समय इतना सूक्ष्म है, कोई आरा उसे नहीं कांटता है।
समय का आरा तुम्हें कांटता जाता है। जब तुम ताश खेलते हो और कहते हो, समय कांट रहे हैं, तो समय हंसता है। समय तुम्हें कांट
रहा है, समय तुम्हारी मौत को करीब ला रहा है। जिस दिन मौत
द्वार पर खड़ी हो जाएगी, उस दिन मुश्किल में पड़ोगे।
एक
सूफी कथा है। एक लकड़हारा सत्तर साल का हो गया है, लकड़ियां ढोते—ढोते जिंदगी
बीत गयी, कई बार सोचा कि मर क्यों न जाऊं! कई बार परमात्मा
से प्रार्थना की कि हे प्रभु, मेरी मौत क्यों नहीं भेज देता,
सार क्या है इस जीवन में! रोज लकड़ी कांटना, रोज
लकड़ी बेचना, थक गया हूं! किसी तरह रोजी—रोटी जुटा पाता हूं।
फिर भी पूरा पेट नहीं भरता। एक जून मिल जाए तो बहुत। कभी—कभी दोनों जून भी उपवास
हो जाता है। कभी वर्षा ज्यादा दिन हो जाती है, लकड़ी नहीं कांटने
जा पाता। फिर का भी हो गया हूं कभी बीमार हो जाता हूं, और
लकड़ी कांटने से मिलता कितना है!
एक
दिन लौटता था थका—मादा,
खांसता—खंखारता, अपने गट्ठर को लिये। और बीच
में एकदम ऐसा उसे लगा कि अब बिलकुल व्यर्थ है, मेरा जीवन यह
अब मैं क्यों ढो रहा हूं! उसने गट्ठर नीचे पटक दिया, आकाश की
तरफ हाथ जोड़कर कहा कि मृत्यु, तू सब को आती है और मुझे नहीं
आती! हे यमदूत, तुम मुझे क्या भूल ही गये हो, उठा लो अब!
संयोग
की बात, ऐसा अक्सर तो होता नहीं, उस दिन हो गया, यमदूत पास से ही गुजरते थे—किसी को लेने जा रहे होंगे—सोचा कि का बड़े हृदय
से कातर होकर पुकार रहा है, तो यमदूत आ गये। उन्होंने उसके
कंधे पर हाथ रखा और बोले क्या भाई, क्या काम है? के ने देखा, मौत सामने खड़ी है, प्राण कंप गये! कई दफे जिंदगी में बुलायी थी मौत—बुलाने का एक मजा है,
जब तक आए न। अब मौत सामने खड़ी थी तो प्राण कैप गये, भूल ही गया मरने इत्यादि की बातें। बोला, कुछ नहीं,
और कुछ नहीं, गट्ठर मेरा नीचे गिर गया है। यहां
कोई उठाने वाला न दिखा इसलिए आपको बुलाया, जरा उठा दें और
नमस्कार, कोई आने की जरूरत नहीं है! और ऐसे तो हम जिंदगीभर
कहते रहे, मुझे मरना नहीं है। यह सिर्फ गट्ठर मेरा उठाकर
मेरे सिर पर रख दें।
जिस
गट्ठर से परेशान था,
उसी को यमदूत से उठवाकर सिर पर रख लिया। उस दिन उस के की पुलक देखते
जब वह घर की तरफ आया! जवान हो गया था फिर से, बड़ा प्रसन्न था।
बड़ा प्रसन्न था कि बच गये मौत से।
मौत
के क्षण में जीवेषणा प्रगाढ़ हो जाती है।
ईश्वर
भाई ने पूछा कि 'मां पचास वर्षों से जैन—साधना करती थी। '
अब
यह भी सोचना चाहिए कि जो पचास साल से जैन—साधना चलती थी, वह भी
किसलिए चलती थी? वह भी जीवेषणा हो सकती है। होगी ही, तभी तो मौत के क्षण में जीवेषणा प्रगाढ़ हो गयी। आदमी धर्म की साधना भी
किसलिए करता है, इसलिए करता है कि और बड़ा जीवन मिले, और अच्छा जीवन मिले, स्वर्ग का जीवन मिले। मगर है
जीवेषणा।
तुम्हारे
तथाकथित मुनि और तुम्हारे तथाकथित साधु —संन्यासी और महात्मा, अगर तुम
उनके भीतर गौर से झांककर देखोगे तो तुमसे ज्यादा लोभी हैं। तुम तो क्षणभंगुर में
अपना किसी तरह गुजारे ले रहे हो, मगर वे शाश्वत की मांग कर
रहे हैं। वे कहते हैं, क्षणभंगुर से हमारी तृप्ति नहीं है,
हमें तो शाश्वत मिलेगा तो हम तृप्त होंगे। क्या रखा है इन मकानों
में मिट्टी—पत्थर के! हमें तो स्वर्ग के मकान चाहिए, सोने —चांदी
के। क्या रखा है इस संसार के मोह में! हमें तो स्वर्ग चाहिए, वैकुंठ चाहिए, हमें तो स्वर्ग—सुख चाहिए, हमें तो कल्पतरु चाहिए जिनके नीचे बैठें और वासनाएं तृप्त हो जाएं।
तुम्हारे
सारे शास्त्र जीवेषणाओ से भरे हैं। तुम्हारी सारी प्रार्थनाएं जीवेषणाओ से भरी हैं।
तुम वेद और कुरान को उठाकर देखो, तो तुम यही पाओगे, कि
आदमी यहां भी मांग रहा है, वह; भी मल
रहा है। और तुम्हारे मुनि, साधु, संन्यासी
तुम्हें क्या समझा रहे हैं? वे यही समझा रहे हैं कि तुम यहां
व्यर्थ समय खराब मत करो, इसी समय को ठीक से लगा दो, तो बड़ा सुखद जीवन मिल सकता है—परलोक में। तो ईश्वर भाई कहते हैं कि 'मेरी मां पचास वर्षों से जैन—साधना नियमित रूप से करती है।'
उस
साधना में भा और अच्छे जीवन को पाने की वासना रही होगी। वह साधना जीवेषणा से मुक्त
कराने वाली साधना नहीं है। जीवेषणा को और अच्छे तल पर स्थापित कराने वाली साधना है।
मैं साधक उसे कहता हूं जो जीवेषणा की व्यर्थता समझने की चेष्टा करता है।
फर्क
समझ लेना। एक आदमी इस जीवन से ऊब गया है तो कोई दूसरे जीवन की मांग कर रहा है, लेकिन
क्या फर्क पड़ता है? यहां से ऊब गया तो वहां जीवन मांग रहा है,
कोई फर्क नहीं पड़ता, कोई भेद नहीं है। मरते
वक्त कसौटी हो जाएगी। मरते वक्त सब साफ हो जाएगा।
तो
पचास वर्ष से जो जैन—साधना की थी, उसकी अब चरम कसौटी है। अब मां की हो गयी,
बिस्तर पर पडी है, अब उठ नहीं सकती है,
बैठ नहीं सकती, अब मौत करीब है और अब तुम
पाओगे कि वह जीवन को बड़े कसकर पकड़ रही है। शायद साधारण व्यक्ति से भी ज्यादा कसकर
पकड़ेगी। क्योंकि पचास साल साधना में जितना जीवन गंवाया, वह
भी बदला लेगा। पचास साल व्रत—उपवास किये, वह भी बदला लेगा।
पचास साल तक तो कभी ठीक से भोगा नहीं, जब नाचना था तब मंदिर गये,
जब भोगना था तब शास्त्र पढ़ा, वह जो पचास साल
तक चूके, अब मौत सामने खडी है, अब यह
मौत कंपा रही है, अब भरोसा नहीं आता कि इस मौत के पार कुछ भी
है। अब संदेह पैदा होता है। संदेह होगा ही। मौत जीवन के आखिरी कोने को छू लेती है
और डावाडोल कर देती है, सब श्रद्धाएं और विश्वास ऊपर—ऊपर हैं,
उखड़ जाते हैं, भीतर का संदेह सामने आ जाता है।
अब डर लगता है कि कहीं मैंने जीवन व्यर्थ तो नहीं गंवा दिया।
एक
बहुत बड़े साधु थे,
महात्मा भगवानदीन। मरते समय मैं उनके पास मौजूद था। मैं चकित हुआ!
मेरी तो तब कोई उम्र न थी, वे मरणासन्न थे, मैं उनके पास गया था, उनसे मेरा लगाव था। मरने के
पहले बड़े खांसी का जोर से आक्रमण हुआ। दमे की बीमारी थी, हड्डी—हड्डी
हो गये थे। जैसे ही आक्रमण खांसी का बंद हुआ, उन्होंने आंख
खोली—आखिरी ज्योति, वह मैं देख सका उनकी आंख में, दीया आखिरी है, बुझता है, अब
बुझा, तब बुझा—वह कुछ कहना चाहते हैं; तो
मैं उनके पास सरक आया। मैंने कहा, आप कुछ कहना चाहते हों तो
कह दें, कुछ करना हो, कोई बात हो,
तो आप बात दें। उन्होंने कहा, इतना ही कहना है
कि मेरा जीवन व्यर्थ गया। जो मैंने साधनाएं कीं और जो मैंने तपश्चर्याएं कीं,
वे सब व्यर्थ गयीं। न कोई आत्मा है और न कोई परमात्मा है। ऐसा कहकर
वे मर गये। बड़े दुखी मरे। बड़े परेशान मरे। जैन थे। और बड़ी उनकी प्रसिद्धि थी,
महात्मा गांधी ने उनको महात्मा की उपाधि दी थी—महात्मा भगवानदीन।
महात्मा गांधी ने किसी को कभी महात्मा नहीं कहा, सिवाय भगवानदीन
के।
यह
मामला क्या हुआ! अब मेरी कठिनाई यह है कि मेरे पास कोई गवाही भी नहीं है, क्योंकि
मैं अकेला ही था वहां मौजूद। लेकिन उनका चित्र मेरे मन से कभी भूला नहीं। यह
जीवनभर की पीड़ा उन्होंने कह दी। जीवनभर अपने को सताया था, सब
तरह से सताया था, सब तरह से अपने को गलाया था, उस सबने बदला ले लिया है। मौत सामने खड़ी है, सब
अस्तव्यस्त हो गया, सब बनाया हुआ घर गिर गया। वह मुझसे अपना
आखिरी वक्तव्य कह गये। यह उनका टेस्टामेंट है। मगर यह टेस्टामेंट उनके संबंध मैं
नहीं है, यह टेस्टामेंट उन्होंने जो जिंदगीभर अपने को सताने
की प्रक्रिया की, उसके संबंध में है।
ठीक
वैसी ही दशा में ईश्वर भाई की मां होंगी। जीवेषणा के कारण ही हम सब साधनाएं करते
रहते हैं। और असली साधना एक ही है, वह है—समझ। समझने की कोशिश करो,
कुछ करना नहीं है। न उपवास करना है, न शरीर को
गलाना है, न सताना है, न नंगे खडे होना
है, न धूप—ताप सहनी है, यह सब व्यर्थ
की बातों में कुछ सार नहीं है। यह दुष्टता अपने पर बंद करो। इतना ही समझने की
कोशिश करो कि यह जीवन क्या है, और यह मेरे भीतर जो जीवन की
इतनी प्रगाढ़ वासना है, यह क्या है, इस
पर ध्यान करो। नयी वासना मत करो स्वर्ग की, क्योंकि नये नाम
से पुरानी ही वासना चलेगी। तुम तो पुरानी ही वासना को ठीक से समझ लो कि वासना क्या
है? जब तुम वासना का ठीक साक्षात्कार करोगे, वासना गिर जाती है। वासना को देखने में ही दिख जाता है कि वासना में सिवाय
दुख के बीजों के और कुछ भी नहीं है। वासना गिर गयी, उस दशा
का नाम मोक्ष है।
अब
तुम फर्क समझ लेना। मोक्ष की कोई वासना नहीं होती। वासना के गिर जाने के बाद जो
चित्त की मुक्त दशा होती है, उसका नाम मोक्ष है। निर्वाण को कोई चाह नहीं
सकता। क्योंकि तुम जो भी चाहोगे वह संसार हो जाएगा। चाह मात्र संसार की निर्मात्री
है।
तो
ईश्वर भाई की मां चाहती रही होंगी—आमतौर से यही हो रहा है, इस
तथाकथित धार्मिक देश में यही हो रहा है, लोग चाह रहे हैं। और
लोग बड़ी योजना बना रहे हैं। और लोग यह भी मन—मन में हिसाब लगा रहे हैं कि देखो,
हमने इतने सुख नहीं भोगे, हमें इसका बदला खूब
मिलेगा, अच्छा मिलेगा, पुरस्कार मिलेगा।
लोग अपने को दंड दे रहे हैं और प्रतीक्षा कर रहे हैं कि हमारे खाते—बही में इतना
पुण्य लिखा जा चुका। बड़ी आतुरता से, उत्सुकता से राह देख रहे
हैं कि कब द्वार खुले ईश्वर का, कब परमात्मा के घर पहुंचें,
स्वर्ग कहो, मोक्ष कहो, जो
भी तुम्हें नाम देना हो, कब वहा पहुंचें कि अपनी फेहरिश्त रख
देंगे निकालकर—इतने व्रत किये, इतने उपवास किये, इतने मंत्र पढ़े, इतना नमोकार की जाप की, इतना—इतना—इतना, सारी फेहरिश्त निकालकर रख देंगे कि
लाओ बदला।
यह
नयी वासना हो गयी। यह शराब पुरानी रही, बोतल नयी है। बोतल बदलने से कुछ भी
न होगा। पहले संसार की माग करते थे, अब स्वर्ग की मांग करने
लगे, पहले यहां सुख चाहते थे, अब वहां
सुख चाहने लगे, मगर कुछ भेद न हुआ, कोई
चित्त की क्रांति न हुई। चित्त की क्रांति तो एक ही बात से होती है कि तुम वासना
का स्वभाव समझो। चाह मात्र दुख लाती है—चाह मात्र। मुझे दोहराने दो, चाह मात्र दुख लाती है। मोक्ष की चाह भी दुख लाती है। चाह का स्वभाव दुख
लाना है। इसलिए चाह को समझकर चाह से मुक्त हो जाना है। मोक्ष की कोई कामना नहीं
होती। कामनारहितता मोक्ष का द्वार है।
मगर
यह कठिनाई ईश्वर भाई की मां के लिए ही हो, ऐसा नहीं, इस
देश में करोड़ों लोगों की है, तथाकथित धार्मिक लोगों की। फिर
मौत के समय अडूचन आती है। फिर मौत के समय सारा जीवन बदला मांगता है, प्रतिशोध मागता है। मौत के समय बहुत हाथ—पैर कैपने लगते हैं—यह तो मौत आ
गयी। सुख तो कुछ मिला नहीं, यह सुख तो गया, यह संसार गया और दूसरे संसार का अब कुछ भरोसा नहीं आता। क्योंकि उस भरोसे
के लिए भी जो बल चाहिए वह भी मौत तोड्ने लगती है। जवान आदमी को भरोसा होता है।
एक
युवक मेरे पास लाया गया। दिल्ली की बात है। जिनके घर मैं मेहमान था, उनको उस
युवक के प्रति बड़ा लगाव था। उस युवक ने कहा कि मैं ब्रह्मचर्य की साधना कर रहा हूं।
बस किसी तरह दस साल और गुजर जाएं—तब उसकी उम्र पैंतीस साल थी—दस साल और गुजर जाएं
तो फिर मैं छुटकारा पा जाऊंगा। बस एक दफा पैंतालीस साल के पार हो जाऊं! तो मैंने
उससे कहा, सुन, पैंतालीस साल के बाद ही
असली झंझट आनी शुरू होती है। जो तुम्हारे तथाकथित ब्रह्मचारी हैं, अगर पतित होते हैं, तो पैतालीस साल के बाद पतित होते
हैं। वह कहने लगा, यह कैसी बात! क्योंकि मेरे गुरु ने तो यह कहा
कि अभी जवानी है तो जोश है वासना का, बस एक दफा जवानी का जोश
चला जाए—कुछ दिन और गुजार ले, एक दफा जवानी का जोश चला गया
तो फिर वासना में बल नहीं रह जाएगा। मैंने कहा, वह तो मैं
समझा, लेकिन इस कामवासना को दबाने में भी जवानी ही हाथ बंटा
रही है, जवानी की ही ताकत काम आ रही है। जब जवानी की ताकत खो
जाएगी तो दबाने वाला भी कमजोर हो जाएगा; पैंतालीस साल के बाद
तुझे पता चलेगा। जब दबाने वाला भी कमजोर हो जाएगा, तब जन्मभर
की दबाई हुई वासनाएं पूरी तरह से विस्फोट लेंगी।
उसने
मेरी बात नहीं सुनी। दस साल बाद मेरे पास आया और उसने कहा, आप ठीक
कहते थे, आपने तो बिलकुल तारीख, पैंतालीस
साल क्या मेरा भाग्य का निर्णय कर दिया। यही हो रहा है। अब मैं कमजोर हो गया हूं
और अब कमजोर होने में ऐसा लगता है कि अब थोड़े दिन और बचे हैं, कहीं ऐसा न हो कि यही संसार सब कुछ है, और मैं यहां
भी चूका और वहां का कुछ पता नहीं कि है भी या नहीं! दूसरे संसार का तुम्हें पता कहा
है! तो न रहे घर के न घाट के, अब वासना बडी प्रबल हो गयी है
और उसने कहा कि अब मैं नहीं दबा पाता। तब मैं दबा पाता था, आप
ठीक कहते थे, मेरे में बल था, ऊर्जा थी।
जिस
ऊर्जा से तुम वासना को दबाते थे, वह वासना की ही ऊर्जा है, उसी को तुमने वासना के ऊपर चढ़ा दिया है। अब वासना भी शिथिल होने लगी भीतर,
तो ऊर्जा भी शिथिल होने लगी। और जब ऊर्जा शिथिल होने लगी तो जिस
वासना को तुमने बीस—पच्चीस या तीस वर्ष तक दबा रखा है, वह
बदला लेगी, जैसे दबाया हुआ स्टिंग खुल जाए, उठ जाए। दबी बातें बलशाली हो जाती हैं।
तो
ईश्वर भाई की मां के साथ वही हुआ है—पचास वर्षों की जैन—साधना! अब मौत द्वार पर
खड़ी है, अब मोक्ष दिखायी नहीं पड़ता। अब वह सपने देखने की
क्षमता भी नहीं
रही। अब तो मौत दिखायी पड़ती है। इधर गया हुआ जीवन दिखायी पड़ता है, जिसको ऐसे
ही गंवा दिया, कभी भोगा नहीं, इस अकड़
में रहे कि क्षणभंगुर को क्या भोगें, कभी ठीक से खाया नहीं,
कभी ठीक से पहना नहीं, कभी ठीक से राग—रंग
नहीं किया, इस सबको उस आशा में बिता दिया और यह खड़ी मौत,
और मौत के पार कुछ है, अब यह पक्का नहीं होता।
अब कौन पक्का दिलाए, कौन भरोसा दिलाए! तो जीवेषणा बहुत जोर
से उठेगी।
मेरी
प्रक्रिया मूलतः भिन्न है। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, वासना से
भागना मत, वासना को दबाना मत, वासना को
जीना—समग्रता से जीना। इस जीवन के अवसर को छोड़ना नहीं, इस
जीवन के अवसर में जितने गहरे उतर सको उतर जाना। एक ही बात खयाल रखना, जागरूक रहना और देखते रहना कि इस जीवन में कितने ही गहरे उतरो, कुछ मिलता है कि नहीं मिलता?
मैं
तुमसे उपवास करने को नहीं कहता, मैं कहता हूं, जितना
स्वाद ले सको भोजन का, लेना। लेकिन स्वाद ले—लेकर बार—बार
जागकर देखना, मिला क्या? पानी पर बबूला
उठा और मिट गया। जितनी कामवासना में उतरना हो उतर जाना, लेकिन
हर बार कामवासना को ध्यान बना लेना, उतरते वक्त देखना कि मिल
क्या रहा है? और मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि तुम कहो कि
कुछ नहीं मिल रहा है। खयाल रखना, वह तुमने कहा तो गड़बड़ हो
गयी, तुमने दमन शुरू कर दिया। मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं
कि तुम दोहराना कि क्या रखा —है, यहां कुछ भी नहीं मिल रहा
है! मैं यह कह ही नहीं रहा। मैं यह कह रहा हूं तुम गौर से देखना, कुछ मिल रहा है? कौन जाने मिलता हो! मिलता हो तो ठीक।
और भय क्या है?
लेकिन
कभी यहां, किसी को कभी कुछ नहीं मिला। इसलिए अगर तुमने गौर से देखा तो तुम पा ही
लोगे, सब राख है। यह जो राख की अनुभूइउत है, यह सारे जीवन पर तुम्हारे राख का जो अनुभव होगा, यही
तुम्हें कह देगा, इस जीवन में कुछ भी नहीं है। फिर मौत आएगी
तो तुम डरोगे क्यों? भयभीत कर्नों होओगे? जिस जीवन में कुछ था ही नहीं, अगर वह जाने लगा,
तो पकड़ने की क्या बात है?
हम
पकड़ते इसीलिए हैं कि हम ठीक से देख नहीं पाए कि जीवन में क्या है। मैंने सुना है; एक
राजस्थानी लोककथा है। एक लड़का सिर्फ दही ही दही खाता था। सब समझा—बुझाकर हार गये।
साधु —संन्यासियों के पास ले जाया गया, उसने एक न मानी।
जितना समझाते उतना उसका दही में रस बढ़ता जाता, जो कि बिलकुल
स्वाभाविक है।
करो
निषेध, रस बढ़ता है। किसी को कह दो कि इस दरवाजे के भीतर झांककर मत देखना, फिर मुश्किल हो जाती है, फिर झाककर देखना ही पड़ता है।
आखिर आदमी आदमी है, उत्सुकता जगती है। जिस चीज को दिखाना हो
लोगों को, उसको छिपाना। मगर इस ढंग से छिपाना कि लोगों को
पता चल जाए कि तुम छिपा रहे हो, बस फिर लोग आ जाएंगे। तुमने
देखा न, जिस फिल्म में सब बच्चों को बुलाना हो, उस पर लिख दो—केवल वयस्कों के लिए। सब चले! छोटी उम्र के लड़के दो आने की
मूंछ लगाकर पहुंच जाएंगे। अगर वयस्कों के लिए है तो जाना जरूरी है, जरूर कुछ मामला है। निषेध तो वहीं होता है जहां कुछ हो रहा हो।
विज्ञापनदाता लिख देते हैं—पढ़ना मना है, विज्ञापन के ऊपर,
कृपा करके इसको मत पढ़िये; फिर आप बिना पढ़े आगे
नहीं निकल सकते। कैसे निकलेंगे!
जितना
समझाया साधु—संन्यासियों ने, गुरुओं ने कि दही बहुत बुरा है—उन्होंने बड़े—बड़े
आयुर्वेद से उल्लेख किये कि दही के क्या—क्या नुकसान हैं—उतना ही उसका रस दही में
बढ़ता गया। आखिर एक के आदमी के पास उसे ले जाया गया—रहा होगा का कुछ मेरे जैसा!
उसने क्या कहा! उसने कहा—बेटा, दही खाना कभी मत छोड़ना। इसमें
बड़े गुण हैं। यह तो लाख दवाओं की दवा है दही। वह बेटा भी चौंका कि इतने दिन हो गये
कभी किसी ने यह नहीं कहा, जिसके पास गये वही दही के खिलाफ था,
यह बूढ़ा होश में है! मानता तो वह भी था कि खराब है, क्योंकि तकलीफ तो वह भी भोगता था दही के कारण। सर्दी—जुकाम पकड़े रहता,
बुखार आ जाता, अभी जवान था लेकिन फीका होने
लगा था, दही मारे डाल रहा था। मगर जितना लोग समझाते थे उतनी
ही जिद्द पकड़ती जाती थी, उतना अहंकार भी अकड़ता जाता था।
इस
वृढे_ की बात उसने भी जरा चौंककर सुनी। उसने कहा, क्या कह
रहे महाराज! दही में बड़े गुण हैं! उसने कहा, अरे लाख दवाओं
की दवा है दही, रामबाण समझो। इसे तुम कभी भूलना ही मत,
चूकना ही मत, दुनिया कुछ भी कहे, तुम डटे रहना। उसने कहा, तो जरा बताइये क्या गुण हैं?
क्योंकि उसने दुर्गुण तो बहुत सुने थे, उसे एक
आदमी नहीं मिला था कभी जिसने कोई गुण बताए हों।
तो
उस के ने कहा,
कौन से गुण! गुण ही गुण हैं। जैसे समझो पहला, एक
कि दही खाने वाले की कभी चोरी नहीं होती। वह युवक भी चकित हुआ कि यह भी खूब गुण है,
दही खाने वाले की चोरी नहीं होती! दो, कि दही खाने
वाले की कभी पानी में डूबकर मृत्यु नहीं होती। उसने देखा कि का पागल तो नहीं है।
दही से और पानी में डूबने का क्या संबंध! और तीन, कि दही
खाने वालें को कभी कुत्ता नहीं कांटता। उसने कहा, आप होश में
तो हैं, क्या बातें कर रहे हैं, किस
शास्त्र में लिखा है, आयुर्वेद में कहां लिखा है? और के ने कहा, सुन, और चार,
कि दही खाने वाला कभी बूढ़ा नहीं होता। वह युवक तो बोला कि मैंने
बहुत ज्ञानी सुने, मगर आप कुछ अलग ही तरह के ज्ञानी हैं! जरा
मुझे विस्तार से समझाइये।
यह
सुनकर उस के ने कहा,
सुनो, पहले तो बिलकुल साफ है, सारी बात साफ है। दही खाने वाला रातभर खांसता है, चोर
उसके घर में घुस कैसे सकते हैं? इसलिए दही खाने वाले की कभी
चोरी नहीं होती। दही खाने वाला सर्दी से इतना पीड़ित रहता है कि पानी के पास जाने
से डरता है, नदी में डूबकर मरेगा कैसे? और दही खाने वाला इतना कमजोर हो जाता है कि लाठी टेक—टेककर चलता है,
कुत्ता उसको काटेगा कैसे? और दही खाने वाला
जवानी में मर जाता है, का होगा कैसे? तू
बेटा खूब दही खा!
कहते
हैं, उसी दिन उस युवक का दही खाना छूट गया।
मैं
भी तुमसे यही कहता हूं, खूब दही खाओ। न तुम्हारी चोरी होगी, न कुत्ता
तुम्हें काटेगा, न पानी में डूबकर मरोगे, न तुम के होओगे।
वासना
से छूटने का एक ही उपाय है कि वासना की पीड़ाओं को ठीक से जान लो। और वासना की
पीड़ाओं को जानने का एक ही मार्ग है कि तुम वासना में बोधपूर्वक उतरो। इसलिए मैं
तुमसे कहता हूं वासना से लड़ो मत, भागो मत, जागो। जिस दिन
वासना की व्यर्थता साफ हो जाएगी, उस दिन यह सारा जीवन व्यर्थ
हो गया। फिर मौत द्वार पर आएगी तो तुम मौत को धन्यवाद दे सकोगे, शिकायत क्या है! मौत तुम्हें मुक्त कर रही है उस सब उपद्रव से जो चल रहा
था। मौत तुमसे छीन ही नहीं रही है कुछ, क्योंकि तुम्हारे हाथ
में कुछ था ही नहीं। तब तुम मौत का आलिंगन करोगे, अभिनंदन
करोगे। और जो व्यक्ति मृत्यु का अभिनंदन करने में समर्थ हो गया, मौत उसके लिए मोक्ष का द्वार बन जाती है।
तीसरा प्रश्न
संसार में ईश्वर के खोजी इतने कम क्यों हैं?
पहली बात क्योंकि
संसातर की खोज?
पूरी नहीं हओ पतितभ्र। और जब तक संसार की खोज पूरी न हो जाए, ईश्वर की खोज कैसे शुरू हो? तुम्हारे महात्मा तुम्हारी
संसार की खोज पूरी नहीं होने देते, वे तुम्हें अटका कर रखते
है। वे तुम्हें अपने ही जीवन में, अपने जीवन के अनुभव में
उतरने नहीं देते। वे तुम्हें कच्चा ही वृक्ष से तोड़ लेते हैं, तुम पक नहीं पाते।
ईश्वर
की खोज तो तभी हो सकती है जब संसार बिलकुल व्यर्थ है, आत्यंतिक
रूप से व्यर्थ है, ऐसा बोध गहन हो जाए। जब तुम जान लो कि इस
संसार में कुछ भी नहीं है; तभी तो तुम किसी और संसार की खोज
पर निकलोगे। जब तक तुम्हारा मन यहां अटका है, जब तक तुम्हें
लगता है शायद कुछ हो ही, अभी मैंने पूरा खोजा कहा, अभी मैंने पूरा देखा कहा; अभी बहुत कोने अभी अनखोजे
रह गये हैं; अभी बहुत सी गलियां अपरिचित रह गयी हैं, तो तुम ईश्वर को खोजोगे कैसे!
ईश्वर
की खोज का मौलिक अर्थ इतना ही होता है कि संसार की व्यर्थता प्रमाणित हो गयी। अपने
ही अनुभव से प्रमाणित हो गयी। फिर तुम उसे ईश्वर नाम दे सकते हो, या मोक्ष,
या निर्वाण, या सत्य, जो
भी तुम नाम देना चाहो। लेकिन उसके पहले खोज शुरू नहीं होती।
संसार
में ईश्वर के खोजी इतने कम इसलिए हैं कि ईश्वर के नाम पर बहुत धोखा— धडी है, और ईश्वर
के नाम पर कच्चे लोगों को धर्म की दिशा में निष्णात किया जाता है। ईश्वर के नाम पर
लोगों का लोभ उकसाया जाता है। लोभ से मुक्ति नहीं होती, लोभ
उकसाया जाता है।
तुम्हें
तुम्हारे शास्त्र अधिकतर यही समझाते रहते हैं कि छोड़ दो तो बहुत पाओगे। और जब कोई
बहुत पाने के लिए छोड़ता है तो छोडता ही नहीं। पाने के लिए छोड़ा तो छोड़ा कहां! एक
रुपया छूटा और हजार मिलने वाले हैं तो छूटे कहां! तुमने तो बड़ा सौदा कर लिया, एक रुपया
छोड़ा और हजार पाने का इंतजाम कर लिया। तो तुम्हारे लगाव तो वही के वही हैं,
तुम बदलते तो रत्तीभर नहीं, तुम्हारा ईश्वर भी
तुम्हारे साथ झूठा हो जाता है—तुम झूठे हो, तुम्हारा ईश्वर
झूठा हो जाता है। तुम अभी सच्चे नहीं। तुमने अभी इस जीवन का जो अवसर तुम्हें मिला
है, इसकी ठीक—ठीक जांच—परख नहीं की।
तो
पहली तो बात मैं यह कहता हूं इसकी ठीक जांच—परख करो, यह अवसर बहुमूल्य है,
इसे ऐसे ही मत गंवा दो। इसे फिजूल बातों में मत गंवा देना। किसी ऐरे
—गैरे की बातों में मत गंवा देना। यह तुम्हारा जीवन है, इस
जीवन को तुम अनुभव करो।
तुम्हें
अगर क्रोध उठता है तो क्रोध का अनुभव करो, ताकि क्रोध की पीड़ा साफ हो जाए।
इतनी साफ हो जाए कि उसी एकष्टता के कारण क्रोध करना मुश्किल हो जाए। तुम्हें काम
है, तो काम में उतर जाओ, मगर इतने गहरे
उतर जाओ कि तुम्हें काम में कुछ भी सार नहीं है, ऐसा सूत्र
उपलब्ध हो जाए—जीवंत अनुभव से। तुम्हें धन की दौड़ है, कोई
हर्जा नहीं, दौड लो, जल्दी कुछ भी नहीं
है। अगर तुम बिना धन की दौड में गये और महात्मा हो गये तो तुम महात्मा होकर भी धन
की दौड़ ही जारी रखोगे। कुछ फर्क न पड़ेगा। अगर तुम्हें राजनीति में रस है तो लड़ ही
लो चुनाव, उतर जाओ उसी उपद्रव में, हो
ही लो पागल। अगर तुम बीच में ही लौट आए, गये नहीं कि अरे
उसमें क्या रखा है, बुद्धिमानों की बात मान ली, उधार बात मान ली कि बुद्धिमान कहते हैं, राजनीति में
क्या रखा है और तुम गये नहीं, तुम महात्मा हो जाओगे, लेकिन तुम्हारी जिंदगी राजनीतिज्ञ की ही जिंदगी होगी। तुम बैठ जाओगे आसन
लगाकर, लेकिन तुम्हारे भीतर राजनीतिज्ञ मौजूद रहेगा।
जीवन
में रूपांतरण अनुभव से आते हैं। भीतर की बदलाहट से आते हैं, बाहर की
बदलाहट से नहीं। धर्म के नाम पर लोगों ने बाहर खूब बदलाहटें कर ली हैं।
मैंने
सुना है, एक रूसी कथा है। एक कौवा बडी तेजी से उड़ता जा रहा था।
एक
कोयल ने उसे देखा और पूछा,
चाचा, कहा जा रहे हो? पूरब
को जा रहा हूं यहां मेरा रहना दूभर हो गया है, कौवे ने कहा।
कोयल ने पूछा, क्यों? कौवे ने कहा,
यहां मेरे गायन पर सभी को एतराज है। मैं गाता नहीं, मैंने शुरू गाना नहीं किया कि लोग एतराज करने लगते हैं कि अरे बंद करो,
बकवास बंद करो, काव—काव बंद करो! यहां गाने की
स्वतंत्रता नहीं और सब को मेरे गाने पर एतराज है। कोयल ने पूछा, लेकिन जाने मात्र से तो तुम्हारी समस्या हल नहीं होगी। पूरब जाने से क्या
होगा! कौवे ने कहा, क्यों? कौवे ने
साश्चर्य पूछा। इसलिए कि जब तक तुम अपनी आवाज नहीं बदलते, पूरब
वाले भी तुम्हारे गाने पर एतराज उठाएंगे। पूरब वाले भी तुम्हारे गाने को इसी तरह
नापसंद करेंगे। कुछ फर्क न पड़ेगा। तुम्हारी आवाज, तुम्हारा
कंठ बदलना चाहिए।
परिस्थिति
बदलने से कुछ नहीं होता,
मनःस्थिति बदलनी चाहिए। एक आदमी गृहस्थ था, गृहस्थी
से अभी मुक्त तो मन न हुआ था लेकिन संन्यस्त हो गया, अब वह
संन्यस्त होकर नयी गृहस्थी बसाका। एक आदमी के बेटे —बेटी थे, उनसे छूट गया तो शिष्य—शिष्याओं से उतना ही मोह लगा लेगा, कोई फर्क न पड़ेगा।
मेरे
एक मित्र हैं। उनको मकान बनाने का बड़ा शौक है। अपना ही मकान बनवाते हैं ऐसा नहीं, मित्रों
के भी मकान बनवाते हैं, वहां भी छाता लिये खड़े रहते थे। धूप
हो, वर्षा हो, मगर वह खड़े हैं, उनको मकान बनाने में बड़ा रस। और बड़े कुशल हैं—सस्ते में बनाते हैं,
ढंग का बनाते हैं। और शौक से बनाते हैं तो कुछ पैसा भी नहीं लेते
फिर
वह संन्यासी हो गये। आठ—दस साल संन्यासी रहे। एक दफे मैं उनके पास से गुजरता था तो
मैंने कहा जाकर देखूं। मैंने सोचा तो कि लिये होंगे छाता! खड़े होंगे! बड़ा हैरान
हुआ, जब मैं पहुंचा वह छाता ही लिये खड़े थे—आश्रम बनवा रहे थे। मैंने उनसे पूछा,
फर्क क्या हुआ? उधर तुम अपना मकान बनवाते थे,
मित्रों के मकान बनवाते थे, इधर तुम आश्रम
बनवा रहे हो। छाता वही का वही है, छाते के नीचे धूप में तुम
वही के वही खड़े हुए हो। फर्क कहा हुआ? मकान के लिए उतनी
चिंता रखते थे, उतनी अब आश्रम की चिंता हो गयी, चिंता कहा गयी!
कोयल
ने ठीक कहा कि चाचा,
पूरब जाने से कुछ भी न होगा। लोग वहां भी तुम्हारी काव—काव पर इतना
ही एतराज उठाएंगे।
हम
धर्म के नाम पर ऊपर—ऊपर से बदलाहटें कर लेते हैं, और भीतर का मन वही का वही।
वह भीतर का मन फिर—फिर करके अपने पुराने जाल लौटा लाता है। महात्मा हैं, मगर राजनीति पूरी चलती है। महात्माओं में बड़ी राजनीति चलती है। हालाकि
धर्म के नाम पर चलती है। जहर तो राजनीति का, उसके ऊपर धर्म
की थोड़ी सी मिठास चढ़ा दी जाती है, बस इतना ही। और यह और भी
खतरनाक राजनीति है।
ईश्वर
के खोजी संसार में इसलिए कम हैं कि ईश्वर के झूठे खोजी बहुत ज्यादा हैं। और ईश्वर
के झूठे खोजी होने में बड़ी सुगमता है—कुछ बदलना नहीं पड़ता और बदलने का मजा आ जाता
है, धार्मिक होना नहीं पड़ता और धार्मिक होने का रस और अहंकार।
कच्चे
लोग वृक्षों से तोड़ लिये गये हैं—कच्चे फल, पके नहीं थे, पकने का मौका नहीं मिला था। मैं तुमसे कहता हुं नास्तिक रहना अगर
नास्तिकता अभी तुम्हारे लिए स्वाभाविक मालूम पडती हो, अभी
आस्तिक होने की जरूरत नहीं, फिर अभी घड़ी नहीं आयी, जल्दी क्या है? अभी कच्चे हो, पको।
जिस दिन नास्तिकता अपनी ही समझ से गिर जाए और जीवन में स्वीकार का भाव उठे,
उसी दिन आस्तिक बनना, उसके पहले मत बन जाना।
नहीं
तो झूठा आस्तिक सच्चे नास्तिक से बदतर हालत में हो जाता है। सच्चा नास्तिक कम से
कम नास्तिक तो है,
सच्चा तो है। कम से कम जो भी उसके भीतर है वही उसके बाहर तो है।
अधिकतर लोग भीतर से नास्तिक हैं, बाहर से आस्तिक हैं। मंदिर
में जाते हैं, सिर भी झुका आते हैं, मस्जिद
में नमाज भी पढ़ आते हैं, और भीतर न नमाज होती है, न सिर झुकता है, न प्रार्थना उठती है। भीतर तो वे
जानते हैं —कहा रखा है परमात्मा इत्यादि, मगर ठीक है,
औपचारिक है, कर लेने से लाभ रहता है, लोग देख लेते हैं धार्मिक हैं, दुकान अच्छी चलती है।
लड़की की शादी करनी है, बेटे को नौकरी लगवानी है, अगर लोगों को पता चल जाए नास्तिक हो, तो लड़के को
नौकरी न मिले, लड़की की शादी मुश्किल हो जाए।
मेरे
पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, आपकी बात बिलकुल जंचती है, लेकिन अभी लड़की की शादी करनी है, अभी बेटे को नौकरी
लगवानी है, अभी जरा ठहरें! आपकी बात बिलकुल जंचती है,
मगर जरा पहले हम निपट लें, नहीं तो झंझट होगी;
असुविधा होगी खड़ी। आप जो कहते हैं, ठीक हमें
मालूम पड़ता है, और जो हम मानते हैं, वह
गलत मालूम पड़ने लगा है। लेकिन अभी हम छोड़ेंगे नहीं, अभी
औपचारिकता निभा लेंगे। ऐसे लोग औपचारिक रूप से धार्मिक हैं, दिखावे
के लिए धार्मिक हैं। यह एक तरह की सामाजिकता है, इसका कोई
धर्म से संबंध नहीं है।
फिर
ईश्वर की खोज पर कठिनाइयां हैं। सुगम नहीं है बात। पहाड़ की चढ़ाई है। घाटियों में
उतरने जैसा नहीं है। जैसे एक पत्थर को लुढ़का दो चोटी पर से, तो फिर
कुछ और नहीं करना पड़ता, एक दफे लुढ़का दिया तो खुद ही लुढ़कता
हुआ घाटी तक पहुंच जाता है। लेकिन पत्थर को पहाड़ पर चढ़ाना हो तो लुढ़काने से काम
नहीं चलता, खींचना पड़ता है। थक जाओगे, पसीने—पसीने
हो जाओगे, जटिल है, दुरूह है, दुर्गम है, खतरनाक है। और जैसे—जैसे ऊंचाई बढ़ेगी
वैसे—वैसे मुश्किल होता जाएगा। उतना ही बोझ कठिन होता जाएगा। आखिरी ऊंचाई पर
पहुंचने वाले को बड़ा दुस्साहस चाहिए। ईश्वर की खोज कायरों का काम नहीं है। और
अक्सर कायर ईश्वरवादी हैं। इसलिए ईश्वर की खोज नहीं हो पा रही है।
ईश्वर
की खोज दुस्साहसी का काम है। खयाल रखना, साहसी भी नहीं कह रहा हूं? दुस्साहसी। क्योंकि बहुत कुछ गंवाना पड़ेगा, पाने के
लिए गंवाना पड़ता है। बहुत कुछ दाव पर लगाना पड़ेगा। यह सुविधा और सरलता से नहीं हो
जाएगा। पूरा जीवन जुआरी की तरह लगाने की जिनकी हिम्मत होती है, वे ही। और अड़चन यह है कि मार्ग कठिन और मंजिल का पक्का नहीं कि कहा होगी,
होगी कि नहीं होगी, पूरब होगी कि पश्चिम होगी।
पता नहीं कौन ठीक कहता है! बुद्ध ठीक कहते हैं, कि महावीर
ठीक कहते हैं, कि कृष्ण, कि क्राइस्ट,
हजार विकल्प हैं। और मंजिल बहुत दूर है, कुहासे
में छिपी है और रास्ता बड़ा दुर्गम है। चार कदम तक दिखायी पड़ता है, फिर रास्ता अंधेरे में दबा है।
इसलिए
जो लोग जीवन की व्यर्थता को पूरी तरह समझ गये हैं और जो जानते हैं कि चाहे ईश्वर न
भी हो तो भी खोजने योग्य है, क्योंकि यहां जीवन में तो बैठे रहने से कुछ भी
सार नहीं है। यहां जीवन तो व्यर्थ हो ही गया, अब उठ पड़ो और
चल पड़ो, अब दाव पर लगाया जा सकता है। खोने को कुछ भी नहीं है,
अगर मिला तो ठीक, नहीं मिला तो कुछ भी नहीं
खोया। खोने को कुछ था ही नहीं, जीवन को तो देख लिया था,
सब पन्ने पढ़कर देख लिये थे।
फिर
सत्य की खोज पर बड़ी कसौटियां आती हैं।
मैं
एक छोटी सी घटना पढ़ रहा था। ईसाई संत हुई, अपूर्व महिला हुई, टेरेसा। दुनिया में थोडी सी महिलाओं ने ऐसी ऊंचाई पायी है—किसी मीरा ने,
सहजो ने, दया ने, लल्ला
ने—बहुत थोड़ी सी महिलाओं ने। टेरेसा उनमें से एक है। टेरेसा एक बार एक नाले को पार
कर रही थी। चूक से उसका पैर फिसल गया और वह बाढ़ आए नाले में डूबते —डूबते बची। पैर
में चोट भी खा गयी, मोच भी आ गयी, चमड़ी
भी छिल गयी पत्थर पर गिरकर, संभवत: हड्डी भी टूट गयी हो। वह
की भी हो गयी थी, किसी प्रकार किनारे लगी और उसने सिर उठाकर
ईश्वर से कहा, आकाश की तरफ देखकर कहा, हे
प्रभु, मुझसे व्यवहार करने का यह कैसा तुम्हारा ढंग! इज दिस
दि वे यू ट्रीट मी! यह कोई बात हुई! एक की औरत को ऐसे गिरा देना बीच नाले में!
सब
छोड़ दिया था परमात्मा पर। तो जिन्होंने सब छोड़ा है, वही इस तरह की दिल खोलकर
बात भी कर सकते है—कि यह कोई बात हुई, यह कोई ढंग हुआ
तुम्हारा, यह कोई व्यवहार है! और उत्तर में उसने आकाशवाणी
सुनी, कभी—कभी मैं अपने मित्रों के साथ ऐसा व्यवहार भी करता
हूं। बट समटाइम्स दिस इज हाऊ आई ट्रीट माई फ्रेंड्स। ईश्वर की आवाज गंजी कि हा,
ऐसा—ऐसा कभी—कभी मैं व्यवहार अपने मित्रों के साथ करता हूं।
शत्रुओं
के साथ तो ईश्वर बड़ा दयालु है। क्षमा करने को तैयार है। मित्रों के साथ बहुत कठिन
है। कारण है। मित्रों को कसता है। मित्रों के लिए परीक्षा। शत्रुओं को क्या कसना, वे तो
वैसे ही भटके हैं, उन पर दया करता है। मित्रों को कसता है,
पहुंचने के करीब—करीब हो रहे, घर करीब आ रहा,
कसावट बढ़ती जाती है, उनकी परीक्षा लेता है,
परीक्षण करता है। सो ईश्वर की आवाज ने कहा: बट समटाइम्स दिस इज हाऊ
आई टूटि माइ फ्रेंड्स। अपने मित्रों के साथ ऐसा व्यवहार कभी—कभी मैं करता हूं।
टेरेसा ने कहा, तब सुन लो, तब कोई
आश्चर्य नहीं कि तुम्हारे मित्र इतने थोड़े क्यों हैं! देन नो वंडर यू हैव सो क्यू
आफ देम!
तुम
पूछते हो, 'ईश्वर के इतने खोजी कम क्यों हैं?' इसीलिए, ईश्वर खूब परीक्षा करता है। मगर टेरेसा जैसी हिम्मत की औरत ही ऐसी बात कह
सकती है। तो सुन लो, उसने कहा, फिर
इसीलिए बैठे रहते अकेले, संगी—साथी भी नहीं मिलते, क्योंकि जो मिलते हैं उनको तुम सताते हो उलटा। अब यह की औरत को ऐसे फिसला
देना, ऐसे गिरा देना, हड्डी तोड़ देना,
यह भी कोई बात हुई! आदमी थोड़ा शिष्टाचार का भी खयाल रखता है,
इसका भी तुम्हें खयाल नहीं! मगर ये बड़े प्रेम में बातें कही गयीं।
बात महत्वपूर्ण है। महत्वपूर्ण यह है कि टेरेसा ने कहा, इसीलिए
तुम्हारे मित्र इतने कम हैं। अब मैं जान गयी कि तुम्हारे मित्रों की संख्या कम
क्यों है। कसौटी है।
हजार
में एक भी ईश्वर का खोजी हो जाए तो बहुत। लाख में एक पहुंच जाए तो बहुत। हजार में
एकाध खोज पर निकलता है,
लाख में एकाध पहुंचता है।
तुम
हजारों में से एक बनो। चुनौती स्वीकार करो। तुम लाख में से एक बनो। क्योंकि उसी
अद्वितीय अनुभव से जीवन तृप्त होता है, संतुष्ट होता है। ईश्वर के बिना
कोई तृप्ति नहीं है, सत्य के बिना कोई संतोष नहीं है।
चौथा प्रश्न
भगवान, मुझे लगता है कि मैं अब तक
आपकी एक बात भी न सुन सका हूं, न समझ सका हूं। और न आपका एक
भी उपदेश ग्रहण कर पाया हूं। वर्षों पूर्व आपके साथ प्रथम साक्षात्कार में जो बात
आपने कही थी, वह भी समझने को ही पडी है। ऐसा क्यों है?
मैं इतना मंदमति क्यों हूं?
पूछा है आनंद
मैत्रेय ने।
मंदमति
नहीं हो, इसीलिए। मंदमति तो सुनकर ही समझते हैं सुन लिया। मंदमति तो सुनकर ही
समझते हैं समझ लिया। मंदमति तो शब्द को पकड़ लेते हैं और सोचते हैं सत्य की उपलब्धि
हो गयी। मंदमति तो पंडित हो जाते हैं, सुन—सुन कर इतनी हो
जाते हैं। शब्दों का कूड़ा—करकट इकट्ठा कर लेते हैं और सोचते हैं, हो गया सब। नहीं मंदमति नहीं हो, इसीलिए।
महाभारत
की कथा तुम्हें याद है न! द्रोण पाठ देते हैं अपने विद्यार्थियों को। सब
विद्यार्थी पाठ याद कर लाए,
सिर्फ युधिष्ठिर नहीं याद कर पाया। उसने कहा, अभी
नहीं हुआ याद। एक दिन क्षमा हो गयी, दूसरे दिन क्षमा हो गयी,
'फिर तो द्रोण चिंतित होने लगे, और यह तो बात
उलटी हुई जा रही है। द्रोण ने सोचा था, युधिष्ठिर सबसे
ज्यादा बुद्धिमान है। दूसरे भी, दुर्योधन भी याद कर लाया,
भीम भी याद कर लाया, जिनमें बुद्धि का कुछ
आसार नहीं है, जिन्हें मंदमति होना ही चाहिए—नहीं तो भीम न
हो सकेंगे—वह भी याद कर लाए, सिर्फ युधिष्ठिर पिछड़ते जाते
हैं।
आखिर
द्रोण ने पूछा,
बात क्या है? तुझे याद क्यों नहीं होता?
युधिष्ठिर ने कहा, याद इसलिए नहीं होता कि जब
तक जीवन में न उतरे तब तक याद का मतलब भी क्या! पहला पाठ था, सत्य बोलना चाहिए। वह किताब का पहला पाठ था। उस जमाने की किताबें! बड़े
अदभुत लोग रहे होंगे, पहला पाठ, सत्य
बोलना चाहिए। युधिष्ठिर ने कहा कि यह तौ मुझे भी याद हो गया कि सत्य बोलना चाहिए,
मगर इसको याद करने से क्या सार है जब तक यह मेरे जोवन में रच—पच न
जाए। मेरी स्मृति में रहे तो उसका क्या सार है, जब तक मेरा
बोध न बन जाए। समय लगेगा। आप मुझे क्षमा करें, मैं बहुत
मंदबुद्धि हूं।
युधिष्ठिर
ही मंदबुद्धि नहीं थे। दूसरे तो याद करके आ गये थे, कि सत्य बोलना चाहिए—इसको
याद करना था, तो मंत्र की तरह कंठस्थ कर लाए, आकर दोहरा दिया था, बात खतम हो गयी थी। शायद
युधिष्ठिर को जीवनभर लगा उस छोटे से पहले पाठ को पूरा करने में। और मजा यह है कि
पहला पाठ पूरा हो गया तो आखिरी भी तो पूरा हो गया! इसलिए मैं कहता हूं, बड़े अदभुत लोग थे। पहला पाठ ऐसा था जो कि आखिरी पाठ भी है।
अब
सत्य से और बड़ा पाठ क्या है? बात ही खतम हो गयी वहां। यहां पहला कदम ही तो
आखिरी कदम हो जाता है। जिस दिन युधिष्ठिर ने पहला पाठ याद कर लिया होगा—युधिष्ठिर
के ढंग से, कि रोएं—रोएं में पच गया होगा—उस दिन और क्या
करने को बचा! सारे शास्त्र पूरे हो गये। सारे आश्वासन पूरे हो गये। यात्रा समाप्त
हो गयी।
मैत्रेय
ने पूछा है,
'मुझे लगता है, अब तक आपकी एक भी बात मैं न
सुन सका हूं न समझ सका हूं।'
शुभ
है ऐसा लगना। नहीं कि तुमने सुना नहीं, तुमने सुना—मैत्रेय के कान बिलकुल
ठीक हैं, ध्यान से सुनते हैं—लेकिन सुनने से ही क्या होता
है! यह बोध बना रहे तो असली सुनना भी एक दिन हो जाएगा। अगर यह बोध खो गया और सुनकर
ही समझ लिया कि सुन लिया, तो फिर कभी बोध की कोई संभावना
नहीं है।
और
न आपका एक भी उपदेश ग्रहण कर पाया हूं। '
ये
उपदेश ऐसे हैं कि रूपांतरण करते हैं जीवन का। यह ग्रहण करने और न ग्रहण करने की
बात भी नहीं है। ये तो जीवन और मरण के प्रश्न हैं। ये तो धीरे— धीरे उतरेंगे, आहिस्ता—
आहिस्ता उतरेंगे। और जब तक ये उतर न जाएं, तब तक थोथी बातों
में पड़ भी मत जाना। यह मत सोचना कि समझ लिया, कर भी लिया,
अब तो बात सब समझ में आ गयी, अब तो हम दूसरों
को भी समझाने में योग्य हो गये। यहां कुछ हैं जो पंडित हो गये हैं। अब रोज मुझे
सुनेंगे तो बच भी कैसे सकते हैं बिना पंडित हुए। सब बातें उन्हें याद हो गयी हैं,
वे दूसरों को समझाने लगे हैं। अभी खुद की समझ में आया नहीं, लेकिन ज्ञान का दंभ भी पैदा हो जाता है। मंदमति तो वे हैं जिन्हें ज्ञान
का दंभ हो जाता है।
ठीक
कहा कि 'वर्षों पूर्व आपके साथ प्रथम साक्षात्कार में जो बात आपने कही थी, वह भी समझने को ही पडी है। '
जो
समझने को निश्चित उत्सुक हुआ है, वह पहली बात भी समझना मुश्किल है। पहला पाठ भी
समझना मुश्किल है। और पहला पाठ पूरा हो गया तो सब शास्त्र पूरा हो गया।
'ऐसा क्यों है? मैं इतना मंदमति क्यों हूं?'
यह
प्रश्न भी इसलिए उठता है कि मंदमति नहीं हो। मंदमति कभी नहीं सोचता कि मैं मंदमति
हूं। तुमने कभी किसी पागल को सुना है कहते कि मैं पागल हूं? पागल तो जिद्द
करता है, कौन कहता है मैं पागल हूं? पागल
तो लड़ने —झगड़ने को तैयार रहता है। मैं और पागल! सारी दुनिया होगी पागल। मंदबुद्धि
तो सारी दुनिया को मंदबुद्धि कहता है, अपने को छोड़कर।
बुद्धिमान ही अपने को मंदबुद्धि स्वीकार करते हैं। यह बुद्धिमानी का लक्षण है।
यह
ज्ञान का पहला चरण है,
या? पहली किरण है। इस किरण को सम्हालो। इसी
किरण के सहारे एक दिन अनंत की यात्रा हो जाती है।
आखिरी प्रश्न
आपने कहा कि आलस्य से भी मार्ग है। वह कैसे? मैं भी
आलसी हूं, कृपाकर थोड़ा प्रकाश डालें।
मैं तो सोचता था कि
शीला ही एक दास मलूका है। कोई और भी हैं! वस्तुत: बहुत होंगे। शीला का परिवार बड़ा
होगा।
लेकिन
खयाल लेने की बात है,
अगर सच में ही तुम आलसी हो, तो आलस्य से भी
मार्ग मिल जाएगा। मगर ध्यान यह रहे कि सच में तुम आलसी हो?
ऐसा
हुआ जापान में। एक सम्राट बहुत आलसी था। और स्वभावत: उसे लगा कि मैं तो सम्राट हूं
आलसी हूं कुछ अडूचन नहीं आती, जो दीन हैं और दरिद्र हैं और आलसी हैं, उनको बड़ी मुश्किल आती होगी। उसने सोचा कि अगर मैं सम्राट न होता तो मैं
कितनी मुश्किलों में पड़ता, न मैं कमाता, न कमा सकता हूं —उठता ही नहीं था अपने बिस्तर से, अक्सर
तो आंखें ही बंद किये पड़ा रहता था। भोजन कर लिया, फिर सो गया।
फिर उठ गया, फिर भोजन कर लिया, फिर सो
गया। तो उसने सोचा, मैं तो सम्राट हूं,
ठीक है—ऐसा पड़े—पड़े याद आयी होगी कि और भी होंगे आलसी इस देश में, उन बिचारों पर क्या बीतती होगी! उनको तो काम करना ही पड़ता होगा। तो उसने
सोचा कि जब ऐसा मौका आया है कि एक आलसी सम्राट हो गया है तो और आलसियों को भी
राज्य की तरफ से सुविधा मिलनी चाहिए। स्वाभाविक। उसने अपने वजीरों को बुलाकर कहा
कि खोज की जाए, जो भी आलसी हों, सबको
राज्याश्रय दिया जाए।
जापान
में डुंडी पीट दी गयी कि जो भी आलसी हों, उनको राज्याश्रय मिलेगा। कतारबद्ध
लोग आने लगे। एक—दो नहीं, हजारों आने लगे। वजीर तो बहुत
घबडाए, उन्होंने कहा, इतनो को
राज्याश्रय देंगे तो खजाना खाली हो जाएगा। इनको अगर राज्याश्रय दिया तो थोड़े दिन
में राजा भी निराश्रित हो जाएंगे। यह तो मामला खतरा है। तो उन्होंने सम्राट से कहा
कि यह तो बड़ी अडूचन की बात है, इतने लोगों को राज्याश्रय
दिया नहीं जा सकता, यह तो ऐसा लगता है कि सभी चले आ रहे हैं।
कौन चूके यह मौका! अगर सिर्फ यही कहने से कि मैं आलसी हूं और राज्य का आश्रय मिलता
हो, तो कौन चूकेगा! जो कर्मठ थे वे भी चले आ रहे हैं। तो
सम्राट ने कहा, कुछ उपाय करो। वजीरों ने कहा, उपाय हम करेंगे, आपकी आज्ञा चाहिए।
जो—जो
लोग आए थे—हजारों की संख्या थी—उनके लिए घास के झोपड़े बनवा दिये राजमहल की भूइम पर
और उनसे कहा,
सब ठहर जाओ। परीक्षा होगी, परीक्षा से जब तय
हो जाएगा कौन आलसी है, उसको ही राज्याश्रय मिलेगा। और आधी
रात में आग लगवा दी। घास—फूस के झोपड़े थे, भभककर जल उठे।
भागे लोग निकलकर। सिर्फ चार आदमी न भागे। वे चार तो अपना कंबल ओढ़कर सो गये। लोगों
ने उनसे कहा भी कि भागो, आग लगी है! उन्होंने कहा, जाओ भी, नींद खराब न करो!
उन
चार को वजीरों ने चुना कि ये आलसी हैं। बाकी को तो भगा दिया, निकाल
बाहर किया कि तुम भागो, यह कोई आलसी होने की बात हुई! आग लगी
देखी तो भाग खड़े हुए! ये हैं आलसी। इन्होंने और कंबल ओढ़ लिया। इन्होंने कहा,
भई, अब गड़बड़ न करो, अभी
नींद में बीच रात खराब न करो। अब लगी है तो लगी रहने दो, अगर
किसी को निकालना हो तो निकाल लो, खींच लो। उनको खींचकर निकालना
पड़ा, दूसरों को निकालना पड़ा, वे अपने
सोये ही रहे।
शीला
तो निश्चित आलसी है। अभी भी सो रही होगी। ज्यादातर सोती है, जब मैं
बोलता हूं तब वह सोती। मगर उसको मैंने आशा दी है कि सो सकती है। चलो सोये —सोये
सही, तरंगें तो पड़ेगी, कुछ हवा से तो
मिलेगा, कुछ सुगंध तो मेरी पहुंचेगी, सोये
—सोये सही!
तो
पहली बात खयाल रखने की जरूरत है कि अगर तुम सच में ही आलसी हो तो आलस्य से भी
मार्ग है। मगर अगर सच में नहीं हो तो मार्ग नहीं है। तुम जो सच में हो, वहीं से
मार्ग है, क्योंकि सच से सच का मार्ग है। इसको खयाल में रख
लेना। अगर तुम कर्मठ व्यक्ति हो तो आलस्य तो तुम्हारे लिए मार्ग नहीं होगा। तब
तुम्हें कुछ कर्म का ही मार्ग चुनना पड़ेगा।
कर्म
के मार्ग का अर्थ होता है,
तुम कर्म को ही अर्पित कर सकोगे परमात्मा को; तुम
कुछ करोगे, तो ही अर्पित कर सकोगे। तुम बिना किये तो
परमात्मा से दूर पडते जाओगे। तुम करके ही प्रसन्न होओगे। तुम्हारी प्रसन्नता ही तो
अर्पित करोगे! अगर कर्मठ व्यक्ति को बिठा दो एक कोने में, जबर्दस्ती
आलस्य का आरोपण कर दो उस पर, तो वह बेचैन हो जाएगा, उदास हो जाएगा।
तुमने
देखा न, छोटे बच्चों को अगर जबर्दस्ती बिठा दो एक कोने में कि चलो शांत बैठो,
पिताजी पूजा कर रहे हैं, कि माताजी प्रार्थना
कर रही हैं, शांत बैठो। तो बच्चा बैठता भी है तो भी कसमसाता
है, निकल भागना चाहता है बाहर, किसी
तरह ऊधम करना चाहता है, कुछ कर गुजरे, उदास
होने लगता है।
यह
दुनिया इतनी उदास है,
इसका एक मौलिक कारण यह है कि हम बच्चों को स्कूलों में पांच—छह घंटे
बिठा रखते हैं। उनके जीवन के सारे रस को हम सुखा डालते हैं। और जब तक रस नहीं सूख
जाता है तब तक हम उन्हें विश्वविद्यालय से बाहर नहीं निकलने देते। बीस—पच्चीस साल—एक
तिहाई उम्र, पच्चीस साल में व्यक्ति एम ए. होकर बाहर निकलेगा
विश्वविद्यालय से, एक तिहाई उम्र—जब कि जीवन उत्सव का था,
नाच का था, गीत का था, दौड़ने
का था, कूदने का था, तैरने का था,
तब उनको बिठा दिया स्कूलों में। स्कूल बिलकुल कारागृह जैसे हैं!
तुमने
देखा न, जेल भी लाल रंग से रंगे जाते हैं और स्कूल भी। वे जेल ही हैं। और छह—छह,
सात—सात घंटे विद्यार्थी बैठे हैं, और मास्टर
डंडा लिये खड़ा है, हिलने—डुलने नहीं देता, ध्यान लगाओ, उठो—बैठो नहीं—पच्चीस साल! मार डालते
तुम जीवन की ऊर्जा को। फिर निकलते हैं मुर्दा लोग, फिर इन
मुर्दा लोगों से समाज भर जाता है। और ये मुर्दा लोग अपने बच्चों को भेजने लगते हैं,
क्योंकि जब ये मुर्दा हो गये तो ये फिर किसी को क्षमा नहीं कर सकते,
ये भी मुर्दा करके रहेंगे।
दुनिया
में जब तक नये ढंग के स्कूल न होंगे तब तक दुनिया में प्रसन्नता नहीं हो सकती। अभी
तो व्यवस्था बहुत खराब है। अभी तो व्यवस्था रुग्ण है। छोटे बच्चे को बिठा देते हो
जबर्दस्ती, वह परेशान .हो जाता है, उसकी प्रसन्नता छिन जाती है।
ऐसा ही कर्मठ व्यक्ति है। और दुनिया में कमेठ व्यक्तियों का बाहुल्य है। शायद
नब्बे प्रतिशत लोग कर्मठ हैं। नब्बे प्रतिशत लोगों को आलस्य का मार्ग नहीं जमेगा।
मगर वे जो दस प्रतिशत लोग हैं, उनको कर्म का मार्ग नहीं
जमेगा। और मेरा कहना है, किसी को किसी दूसरे के मार्ग के
जमने की जरूरत ही नहीं है।
यह
छोटी सी कहानी सुनो—
एक
सूफी दरवेश टाइगरिस नदी में गिर पड़ा। किनारे से एक आदमी ने उसे देखा कि वह तैर
नहीं सकता है। उसने उससे पूछा कि क्या वह किसी आदमी को बुलाए जो उसे बचाकर किनारे
ला दे? उस दरवेश ने कहा, नहीं। फिर उस आदमी ने पूछा,
तब क्या वह डूब जाना चाहता है? उस दरवेश ने कहा,
नहीं। इस पर उस आदमी ने पूछा, आखिर वह चाहता
क्या है? दरवेश ने जवाब दिया, जो
परमात्मा चाहता है। उसे स्वयं चाहने से मतलब ही क्या है!
यह
आदमी परम आलसी रहा होगा,
जिसको अष्टावक्र कहते हैं, आलस्य— शिरोमणि।
परम आलसी रहा होगा। यह कहता है, मुझे चाहने से मतलब ही क्या
है! उसे बचाना होगा तो बचा लेगा, उसे ले जाना होगा तो ले
जाएगा। उसकी मर्जी आए, उसकी मर्जी चले। न अपनी मर्जी आए,
न अपनी मर्जी चले, बात ही क्या है करने की! वह
तैर भी नहीं रहा है, वह —नदी में गिर पड़ा है और वह प्रतीक्षा
कर रहा है—परमात्मा जो करे!
जरा
इस साधक की दृष्टि समझोगे। जरा इसका भाव समझोगे। इसका भाव बडा अदभुत है। यह कह रहा
है, उसे बचाना होगा तो बचा लेगा। और नहीं उसे बचाना है, तो
मेरे बचाए—बचाए भी कैसे बच पाऊंगा! इसलिए मैं व्यर्थ बीच में बाधा क्यों डालूं?
जैसी उसकी मर्जी! उसकी मर्जी पूरी हो!
यह
कर्मशन्यता की भावदशा है। इसको अष्टावक्र ने बड़ा ऊंचा माना है। इसको परम अवस्था कहा
है। कहा है, कर्ता तो परमात्मा है। हम कर्ता बन जाते हैं, इससे
सिर्फ अहंकार पैदा होता है। लेकिन अष्टावक्र की बात थोड़े से ही लोगों के काम की है,
जो अकर्ता बनने में समर्थ हैं।
अब
फर्क समझ लेना कृष्ण और अष्टावक्र की गीता का। कृष्ण की गीता उन लोगों के लिए है
जो कर्मठ हैं। —क्या की गीता ठीक उलटी है अष्टावक्र की गीता से। कृष्ण की गीता
कहती है, कर्म करो और कर्म में आसक्ति मत रखो, फलाकाक्षा मत
रखो, लेकिन कर्म करो। अर्जुन भागना चाहता था। अगर अर्जुन को अष्टावक्र
मिल गये होते तो अष्टावक्र कहते, बिलकुल ठीक, प्यारे, जल्दी भाग! परम आलसी हो जा। करना क्या है?
करना— धरना उसका काम है, हम बीच में पड़े,
क्यों? मगर अर्जुन भागना चाहता था और कृष्ण ने
उसे खींचा और कहा, भाग मत! उसे अटकाया।
लेकिन
कृष्ण ने ठीक किया,
क्योंकि अर्जुन मूलतः कर्मठ व्यक्ति था, क्षत्रिय
था। कर्म के ही लिए तैयार किया गया था। वही उसकी निष्ठा थी, वही
उसकी कुशलता थी, वही उसके जीवन की शैली थी। यह अष्टावक्र की
बात इसे जम भी नहीं सकती थी। अष्टावक्र अगर इसे चले भी जाने देते, यह जंगल में बैठ भी जाता तो भी बैठ नहीं सकता था। उठा लेता तीर, शिकार करता, लकड़ियां कांटता, कुछ
न कुछ उपद्रव करता, यह बैठ नहीं सकता था। बैठने की इसकी
संभावना नहीं थी, यह क्षत्रिय था, संघर्ष
और संकल्प इसका गुण था।
तो
कृष्ण ने उसे ठीक वही कहा जो उसके स्वधर्म के अनुकूल था। उससे कहा, स्वधर्मे
निधन श्रेय: परधमों भयावह:। दूसरे के धर्म को पकड़ने में भय है अर्जुन। यह जो तू
बातें कह रहा है —संन्यास की, समर्पण की, सब छोड़ देने की, त्याग की, यह
तेरा धर्म नहीं है, क्योंकि यह तेरी जीवन—शैली नहीं है। मैं
तुझे जानता हूं तुझे बचपन से जानता हूं, तेरे अंतरतम से
जानता हूं अभी तुझे देख रहा हूं कि तेरे भीतर तो उबाल है, तूफान
है, तू आधी बन सकता है, तू अंधड़ बनेगा
तो ही प्रसन्न होगा। और प्रसन्न होगा तो ही परमात्मा को धन्यवाद दे सकेगा। योद्धा
तेरे खून में छिपा है, तेरे हड्डी—मास—मज्जा में बैठा है,
तू योद्धा होकर ही प्रभु के चरणों में सिर रख पायेगा। तू अपनी नियति
को इसी तरह पूरा करेगा। यही तेरा भाग्य है। इससे तू भागेगा, बचेगा,
तो तू परधर्म में पड़ेगा।
अब
खयाल रखना, परधर्म और स्वधर्म का मतलब यह नहीं होता—हिंदू मुसलमान, ईसाई, जैन। नहीं, उन दिनों कोई
मुसलमान तो थे नहीं भारत में, इसलिए यह तो कोई सवाल ही नहीं
था, न कोई ईसाई थे, न कोई यहूदी थे,
न कोई रग़रसी थे। इसलिए कृष्ण ने जब कहा स्वधर्म, परधर्म, तो उनका मतलब साफ है। मतलब इतना ही है कि जो
तुम्हारे अनुकूल हो, वह स्वधर्म, जो
तुम्हारे प्रतिकूल हो, वह परधर्म।
निश्चित
ही, अगर तुम आलसी हो, अगर तुम्हें कर्म करने में कोई
रुचि नहीं आती, करने मात्र में तुम्हें कोई रस नहीं आता—अपनी
परख करना, अपनी जांच—परख करना, तुम्हें
पता चल जाएगा। तुम्हारे जीवन के सुंदर क्षण कब आते हैं, जब
तुम कुछ करते हो तब आते हैं, या तुम जब कुछ नहीं करते तब आते
हैं, तुम्हारे जीवन के पराकाष्ठा के क्षण कब आते हैं?
तुम जब आंख बंद करके बैठे हो तब आते हैं?
एक
युवक मेरे पास आया। अमरीका से आया, वह शांत ध्यान करना चाहता था।
मैंने उसे देखा, मैंने कहा, नहीं,
यह तेरे काम का नहीं, यह परधर्म होगा। मैंने
उससे कहा, तू तो एक काम कर, तू रोज
सुबह एक घंटा दौड़, दौड़ना तेरा ध्यान है। उसने कहा, आप कहते क्या हैं! आठ साल से मैं यह कर रहा हूं मैं दौड़ने में बड़ा आनंदित
होता हूं। और कभी—कभी दौड़ते—दौड़ते ऐसे क्षण आ जाते हैं, जब न
तो मैं देह रह जाता, न मन। आपकी किताबें पढकर, आपकी बातें सुनकर मुझे लगा कि और गहरे में उतरना है, इसीलिए तो मैं यहां आया हूं। लेकिन दौड़ना ही आप कहते हैं! मैंने कहा,
तेरे लिए यही ठीक होगा।
कोई
नाचकर ध्यान को उपलब्ध होता है, कोई शांत बैठकर मूर्तिवत होकर ध्यान को उपलब्ध
होता है। ध्यान का कोई संबंध न तो शांत बैठने से है, न नाचने
से है। ध्यान का संबंध तुम्हारे स्वभाव की अनुकूलता से है। जब तुम्हारा स्वभाव और
तुम्हारा कृत्य अनुकूल होते हैं, दोनों में तालमेल होता है,
सामंजस्य होता है, तत्सण शांति आ जाती है।
तुम्हारे भीतर एक राग बजता है, एक गीत पैदा होता है।
उस
युवक ने कहा कि यह मुझे हो रहा है। जब मैं दौड़ता हूं सुबह की हवाओं में, समुद्र—तट
पर पड़ती सूरज की रोशनी में, कभी—कभी मील, दो मील, तीन मील दौड़ने के बाद ऐसी घड़ियां आ जाती हैं
जब मुझे न तो देह का पता रहता है, न मन का पता रहता है। बस
दौड़ रह जाती है, दौड़ने वाला खो जाता है, तब बड़े शिखर के क्षण मुझे अनुभव होते हैं, बड़ी अदभुत
शांति, बड़ा अदभुत आनंद, उत्सव मेरे
भीतर पैदा होता है!
अब
इस युवक को अगर विपस्सना करने बिठा दिया जाए, या अनापानसती करने बिठा दिया जाए,
यह इसके अनुकूल न होगा, यह पगला जाएगा। फिर
ऐसे लोग हैं, जैसे अष्टावक्र, इनको अगर
दौड़ने को कहा जाए तो संभव नहीं होगा। तुम अपने स्वभाव को पहचानो।
निश्चित
ही आलस्य से भी मार्ग है। लेकिन तब आलस्य को समर्पण बनाना होता है। तब आलस्य को भी
रूपातरित करना होता है। तब आलस्य को अपने अहंकार का विसर्जन बनाना होता है। तब
कहना होता है—प्रभु,
अब तेरी मर्जी! बुद्ध का मार्ग आलस्य का मार्ग नहीं है, बुद्ध का मार्ग कर्म का मार्ग है। इसलिए बुद्ध का शब्द जो बुद्ध उपयोग
करते हैं, वह है, श्रमण। श्रम का मार्ग
है, श्रम से मिलेगी समाधि। अथक श्रम से मिलेगी समाधि। खूब
दौड़ना पड़ेगा, तब मंजिल मिलेगी। बुद्ध भी क्षत्रिय थे,
इसलिए स्वाभाविक।
अगर
तुम आलसी हो,
तो ब्राह्मणों की सुनो, क्षत्रियों की मत सुनो।
इसलिए ब्राह्मण कहते हैं, प्रसाद से मिलेगा। फर्क समझे?
क्षत्रिय कहते हैं, प्रयास से, ब्राह्मण कहते हैं, प्रसाद से। ब्राह्मण कहते हैं,
क्या प्रयास करना! उसकी अनुकंपा पर्याप्त है। तुम जरा शांत होकर बैठ
जाओ, उसको बरसने दो, वह बरस ही रहा है,
तुम जरा द्वार—दरवाजे खोल दो, ब्रह्म बरस ही
रहा है, ब्रह्म—वर्षा हो ही रही है, तुम
भर जाओगे, कुछ और करना नहीं है। ब्राह्मण—संस्कृति का मौलिक
स्वर है, प्रसाद, प्रभुकृपा। और श्रमण—संस्कृति,
जैन और बौद्धों का मौलिक स्वर है, प्रयास,
श्रमण, श्रम। कुछ करना होगा। जैन और बौद्ध
संस्कृति में ईश्वर को जगह ही नहीं है। कोई जगह की जरूरत भी नहीं है। अपने ही श्रम
से मिल जाता है, उसके प्रसाद की कोई आवश्यकता नहीं है। और
ब्राह्मण—संस्कृति में मूलतः प्रयास के लिए कोई जगह नहीं है, उसकी कृपा से ही मिलता है। तो तुम उसकी कृपा के योग्य बन जाओ।
अब
कृपा के लिए योग्य बनने के लिए क्या करोगे? एक छोटा बच्चा पैदा होता है,
वह क्या योग्य, क्या करे? छोटा बच्चा पैदा हुआ है, वह किस तरह से योग्यता अर्जित
करे कि मा की उस पर कृपा हो? क्या करेगा? छोटे बच्चे जैसा आदमी है। बच्चा रोने लगता है, मां
उसे दूध पिला देती है। ब्राह्मण—संस्कृति कहती है, तुम रोना
सीखो। आंसू बहाओ, ताकि
परमात्मा तुम्हारी तरफ प्रवाहित होने लगे। जैसे मां बेटे की तरफ जाती है।
पूछा
है, 'आपने कहा कि आलस्य से भी मार्ग है। वह कैसे? मैं भी
आलसी हूं कृपा कर थोड़ा प्रकाश डालें। '
फिर
रोओ, फिर अश्रु बहाओ, फिर शांत बैठो, फिर जो हो होने दो, फिर कहो, प्रभु
की मर्जी। जो हो! ध्यान रखना, अच्छा हो तो यह मत कहना,
मैंने किया! और बुरा हो तो क्या करें, परमात्मा
ने करवाया। फिर तो जो हो, अच्छा कि बुरा, सब उसी ने करवाया।
देखा
न टेरेसा को! रही होगी आलसी, आलसी—शिरोमणि! गिर पडी तो यही उसने कहा कि यह
क्या करवा रहे हो, यह क्या दिखा रहे हो! जरा खयाल तो रखो,
मैं की हो गयी, यह तुम्हारा व्यवहार! यह बड़े
प्रेम का निवेदन है। जिसने सब छोड़ा है, उसका निवेदन है।
जीसस
सूली पर लटके हैं और आखिरी क्षण चिल्लाकर कहते हैं, यह क्या कर रहे हो? क्या तुमने मुझे त्याग दिया? क्या तुमने मुझे छोड़
दिया? यह मुझे क्या दिखला रहे हो 2: और फिर एक क्षण बाद शांत
हो जाते हैं और कहते हैं, नहीं, तुम्हारी
ही मर्जी पूरी हो! तुम मत सुनना। मैं क्या कहूं इसका क्या मूल्य है! तुम जो करो,
वही मूल्यवान है।
आलस्य
को समर्पण बनाओ। श्रम हो,
कर्म हो, तो संकल्प बनाओ। श्रम हो, तो योगी बन जाओ। श्रम की आकांक्षा न उठती हो, श्रम
में रस न आता हो, तो भक्त बन जाओ। द्वार प्रत्येक के लिए है।
लेकिन
पहली बात ठीक से पहचान लेना—तुम कौन हो? स्वधर्म को ठीक से औक लेना!
स्वधर्म को ठीक से आककर चला हुआ आदमी कभी भटकता नहीं है। स्वधर्मे निधन श्रेय:
परधमों भयावह:।
आज
इतना ही।
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