अकेला होना नियति है—प्रवचन—90
सूत्र:
यावं हि वनयो न
छिज्जति अनुमत्तोपि नरस्स नारिसु।
पटिबद्धमनो नु गव
सो बच्छो खीरपकोव मातरि ।।235।।
उच्छिंद सिनेहमत्तनो
कुमुदं सारदिकं व पाणिना।
संति मग्गमेव
बूहय निब्बानं सुगतेन देतितं ।।236।।
इध वस्सं वसिस्सामि
इध हमेत गिम्हसु।
इति बालो
विचिंतेति अंतरायं न बुज्झति ।।237।।
तं पुत्तपसुसंपत्तव्यासत्तमनसं
नरं।
सुतं गामं महोधोव
मच्चु आदाय गच्छति ।।238।।
न संति पुत्ता
ताणाय न पिता नापि बंधवा।
अंतकेनाधिपन्नस्स
नत्थि नातिसु ताणता ।।239।।
एतमत्थावसं अत्व
पंडितो सीलसंवुतो।
निब्बान—गमनं मग्गं
खिप्पमेव विसोधये।।240।।
सूत्र—संदर्भ—
भगवान श्रावस्ती
नगर के बाहर ठहरे थे उनके निकट ही नदी— तट पर एक युवा वणिक भी ठहरा था उसके पास
पांच सौ गाडियां थी जो बहुमूल्य वस्त्रों और अन्य प्रसाधन— सामग्रियों से भरी थीं
वह श्रावस्ती में अपना सामान बेचकर खूब कमाई कर रहा था उसके पास में ही भगवान ठहरे
थे लेकिन अब तक उसने उनकी ओर ध्यान भी नहीं दिया था
शायद
दिखायी तो पड़े ही होंगे। हजारों भिक्षुओं का भी वहा निवास था; न दिखायी
पड़े हों, ऐसा तो नहीं। लेकिन उसके मन से संगति नहीं थी। जो
धन की यात्रा पर निकला हो, उसका ध्यान की तरफ ध्यान नहीं
जाता। जो अभी महत्वाकांक्षा से भरा हो, उसे संन्यासी दिखायी
नहीं पड़ता। जिसके मन पर संसार के मेघ घिरे हों, उसे निर्वाण
का प्रकाश दिखायी नहीं पड़ता। आच्छादित अपने ही मेघों में रहा होगा। भगवान पास ही
ठहरे थे लेकिन उसने ध्यान नहीं दिया था
या
कभी—कभार अगर ध्यान चला भी गया हो, उसके बावजूद, तो सोचा होगा, पागल हैं। तो सोचा होगा, इन सबको क्या हो गया? तो सोचा होगा, लोग कैसी—कैसी व्यर्थ की बातों में उलझ जाते हैं। और हजार दलीलें दी होंगी
अपने मन को कि मैं ही भला, मैं ही स्वस्थ, मैं ही तर्कयुक्त।
एक
दिन नदी पर टहलता हुआ वह भविष्य की बड़ी— बड़ी कल्पनाएं कर रहा था। सोचता था कि धंधा
यदि ऐसा ही चलता रहा तो वर्षभर में ही लखपति हो जाऊंगा। फिर विवाह करूंगा और अनेक
सुंदरियों के चित्र उसकी आंखों में घूमने लगे और ऐसा महल बनाऊंगा— वसंत के लिए अलग
हेमंत के लिए अलग हर ऋतु के लिए अलग और यह करूंगा और वह करूंगा। और जब ऐसे पूरे
शेखचिल्लीपन में खोया था और कल्पनाओं के कुओं का भोग कर रहा शु तब भगवान ने उसे
देखा और वे हंसे।
भगवान
बैठे हैं एक वृक्ष के तले उनके पास ही भिक्षु आनंद बैठा है। अकारण बिना किसी बात
के बिना किसी प्रगट आधार के भगवान को हंसते देखकर आनंद चकित हुआ। उसने पूछा भगवान!
आप हंसते हैं! न मैने कुछ कहा न आपने कुछ कहा न यहां कुछ हुआ अकारण क्यों हंसते
हैं? किस कारण हंसते हैं? किस बात पर हंसते हैं? त्राणवान ने कहा आनंद उस युवा वणिक को देखते हो दूर नदी के तट पर? उसके चित्त की कल्पना— तरंगों को देखकर ही मुझे हंसी आ गयी। वह लंबी
योजनाएं बना रहा है किंतु उसकी आयु केवल सप्ताहभर की और शेष है मृत्यु द्वार पर
दस्तक दे रही है पर उसे अपनी वासनाओं के कोलाहल के कारण कुछ भी सुनायी नहीं पड़ता।
उसकी मूर्च्छा पर मुझे हंसी भी आती है और दया भी।
भगवान
की आज्ञा ले आनंद उस युवक के पास गए और उसे सन्निकट मृत्यु से अवगत कराया। मृत्यु
की बात सुनते ही वह थरथर कांपने लगा। खड़ा शु भयभीत होकर बैठ गया। अभी सुबह ही थी
शीतल हवा बहती थी सब शांत था लेकिन उसके माथे पर पसीने की बूंदें झलक आयीं। भूल
गया सुंदर स्त्रियों को भूल गया संगमरमरी महल भूल गया हेमंत वसंत भूल गया सब।
मृत्यु
सामने खड़ी हो,
मृत्यु का एक दफे स्मरण भी आ जाए तो इस सारे जीवन से प्राण निकल
जाते हैं, इस जीवन में कुछ अर्थ नहीं रह जाता है। इस जीवन
में अर्थ तभी तक है, जब तक तुमने मृत्यु को नहीं देखा,
जब तक तुमने मृत्यु का विचार नहीं किया, जब तक
मृत्यु का बोध तुम्हें नहीं हुआ, तभी तक इस जीवन का खेल है।
तभी तक इन सपनों को फुलाए जाओ, तैराए जाओ नावें कागज की,
बनाए जाओ कागज के महल। लेकिन जैसे ही मृत्यु का स्मरण आ जाएगा,
सब ढह जाता है। बड़े उसके स्वप्न थे, अभी
युवा था, बड़ी उसकी कामनाएं थीं, जीवेषणाए
थीं, बड़ा उसका संसार फैलाने का मन था, सब
भूमिसात हो गया, सब खंडहर हो गया। जो भवन कभी बने ही नहीं,
वे खंडहर हो गए। और जो सुंदर स्त्रियां उसे कभी मिली ही नहीं,
वे तिरोहित हो गयीं। वे मन पर तैरते हुए इंद्रधनुष से ज्यादा न थे।
मौत ने एक झपट्टा मारा और सब व्यर्थ हो गया।
वह
युवक बैठकर रोने लगा। आनंद ने उसे कहा— युवक उठ मौत पर बात समाप्त नहीं हो जाती
भगवान के चरणों में चल मौत के पार भी कुछ है।
जीवन
मौत पर समाप्त नहीं होता। असली जीवन मौत के बाद ही शुरू होता है। और धन्यभागी हैं
वे जिन्हें इस जीवन में ही मौत दिखायी पड़ जाए, तो वह
दूसरा जीवन इसी क्षण शुरू हो जाता है। संन्यास का और कुछ अर्थ भी नहीं है। जीते—जी
मौत की प्रतीति हो गयी, साक्षात हो गया। जीते—जी यह दिखायी
पड़ गया कि मरना होगा, कि मृत्यु आती है। क्या फर्क पड़ता है,
सात दिन बाद आती है, कि सात वर्ष बाद आती है,
कि सत्तर वर्ष बाद आती है.। मृत्यु है, यह तीर
चुभ जाए हृदय में तो संसार व्यर्थ हो जाता हैं और संन्यास सार्थक हो जाता है।
आनंद
ने उसे सम्हाला और कहा—हार मत, थक मत, मौत
से कुछ भी मिटता नहीं। मौत से वही मिटता है जो झूठ था। मौत से वही मिटता है जो
भ्रामक था। मौत से सिर्फ सपने मिटते हैं, सत्य नहीं मिटता।
घबड़ा मत, उठ।
वह
युवक भगवान के चरणों में आया।
मृत्यु
सामने खड़ी हो तो बुद्ध के अतिरिक्त और कोई मार्ग भी तो नहीं। मृत्यु न होती तो
शायद कोई बुद्धों के चरणों में जाता ही न। मृत्यु न होती तो मंदिर न होते, मस्जिद न
होती, गुरुद्वारे न होते। मृत्यु न होती तो धर्म न होता।
मृत्यु है तो धर्म का विचार उठता है। मृत्यु जगाती है, चेताती
है, मृत्यु अलार्म का काम करती है, नहीं
तो तुम्हारी मूर्च्छा बनी ही रहती।
जरा
सोचो,
एक ऐसा समय जब मृत्यु न होती हो। फिर कौन प्रार्थना करेगा? कौन ध्यान करेगा? किसलिए करेगा? मृत्यु अपूर्व है। मृत्यु अमंगल नहीं है, खयाल रखना,
मृत्यु में मंगल छिपा है। अगर तुम मृत्यु को ठीक से समझ लो तो उसी
से तुम्हारे जीवन में आमूल क्रांति हो जाएगी। मृत्यु दुश्मन नहीं है। जीवन भला
दुश्मन हो, मृत्यु तो मित्र है, क्योंकि
मृत्यु जगाती है, जीवन सुला देता है। जीवन में तो तुम सोए—सोए
चलते रहते हो, मौत आती है, झकझोर देती
है, झंझावात की तरह आती है। सब धूल झड़ जाती है—विचार की,
वासना की—तुम चौंककर खड़े हो जाते हो, पुनर्विचार
करना होता है, फिर से सोचना पड़ता है, फिर
से जीवन के आधार रखने होते हैं; किसी दूसरे जीवन के आधार
रखने होते हैं, जिसे मौत न मिटा सके। उस जीवन का ही नाम तो
मोक्ष है, जिसे मौत न मिटा सके।
संसार
और निर्वाण का इतना ही अर्थ है। संसार ऐसा जीवन जिसे मौत छीन लेती है, और
निर्वाण ऐसा जीवन जिसे मौत नहीं छीन पाती है। संसार ऐसा जीवन जो आज नहीं कल हाथ से
जाएगा ही। उसको बनाने में जितना समय लगाया, व्यर्थ गया। उसको
बनाने में जितनी रातें और दिन खोए, व्यर्थ गए। एक ऐसा भी
जीवन है जहां मृत्यु असमर्थ है, जहां मृत्यु का कोई प्रवेश
नहीं है, वही निर्वाण का जीवन। मृत्यु द्वार पर खड़ी हो तो अब
युवक करता भी क्या! गया बुद्ध के चरणों में। अब तक तो पास रहकर भी हजारों योजन दूर
था।
वहीं
ठहरा था,
एक ही नदी—तट पर दोनों ठहरे थे, लेकिन हम पास—पास
भी होकर अपनी— अपनी दुनिया में अलग—अलग होते हैं। इससे कुछ बहुत फर्क नहीं पड़ता कि
तुम मेरे पास बैठे हो। हमारे शरीर एक—दूसरे से सटे हों तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता।
निकटता, मात्र शारीरिक निकटता निकटता नहीं है। तुम हजारों
कोस दूर हो सकते हो। तुम्हारी अपनी दुनिया हो सकती है, मेरी
अपनी दुनिया। हम अपनी— अपनी दुनिया में रहते हैं। यहां जितने लोग हैं उतनी
दुनियाएं हैं। और प्रत्येक व्यक्ति अपनी दुनिया से घिरा है। और अपनी दुनिया ही
इतनी बडी है कि दूसरे की दुनिया देखने का अवसर कहा है!
अब
तक तो बुद्ध के पास ही ठहरकर हजारों योजन दूर था। सुबह कभी सुनने न आया, सांझ कभी
सुनने न आया, पास कभी आकर न बैठा, कुतूहल
से भी न बैठा, जिज्ञासा तो छोड़ो, मुमुक्षा
की तो बात ही मत करो, लेकिन कुतूहल तो हो सकता था कि क्या
यहां हो रहा है! लेकिन जिसका मन उलझा हो वासना में, वह एक
क्षण भी व्यर्थ नहीं खोना चाहता—वासना पूरी कर लो, उतनी देर
में तो थोड़ा धन और निर्मित होगा, थोड़ा सामान और बिकेगा,
थोड़ी तिजोड़ी और भरेगी, उतना समय व्यर्थ मत करो।
जिनके
मन में वासना प्रगाढ़ है, वे किसी को ध्यान करते देखकर कहते हैं, क्या पागलपन की बात कर रहे हो? क्यों समय गंवा रहे
हो? समय धन है। समय से धन कमा लो, वे
कहते हैं, टाइम इज मनी। उनके मन में एक ही भगवान है, धन। धन जितना कमा लो उतना ही सार है।
यह
युवक निकलता रहा होगा उसी आम्रकुंज के पास से जहां बुद्ध ठहरे हैं, जहां वह
अपूर्व दीया जल रहा था, लेकिन इसे रोशनी दिखायी न पड़ी थी। आंखें
अंधी हों, सूरज भी निकले तो क्या फर्क पड़ता है। हजारों योजन
दूर था। लेकिन आज अचानक मौत ने दूरी छीन ली।
तो
खयाल रखना,
कभी—कभी आशीर्वाद अभिशाप के रूप में आते हैं। इसलिए अभिशाप को भी
एकदम ठुकरा मत देना। कौन जाने अभिशाप में ही वरदान छिपा हो। यह जो मौत आती थी करीब,
इसी ने बुद्ध और इस युवक के बीच की दूरी छीन ली। यह युवक शायद अपने
ही हाथ से तो कभी यह दूरी न मिटा पाता। कोई आशा नहीं दिखायी पड़ती, कोई आशा की किरण नहीं मालूम होती। यह युवक तो ऐसे ही जीता और ऐसे ही
समाप्त हो जाता। इस मौत ने अपूर्व क्रांति कर दी। इस मौत ने उसके सब पुराने जाल को
तोड़ दिया। सात दिन! बस केवल सात दिन! अब सात दिन में न तो महल बनाए जाते हैं,
न सुंदरियां खोजी जाती हैं; न कोई अर्थ रहा।
सिर्फ सात दिन के लिए कौन इतनी झंझट लेता!
आदमी
तो इस भ्राति में जीता है कि हम सदा रहेंगे। सदा रहने की भांति में ही तो हम सब
कुछ करते हैं। हम दुनिया में ऐसे रहते हैं जैसे हमें जाना नहीं, इंच—इंच
जमीन के लिए लड़ते हैं, रत्ती—रत्ती धन और पद के लिए लड़ते हैं।
ठहरे धर्मशाला में हैं और इस तरह ठहर जाते हैं कि जैसे अपना घर है; अपना निवास है और सदा के लिए अपना निवास यहां होने को है।
वह
युवक अब तक तो हजारों योजन दूर था। अब तक उसने देखकर भी बुद्ध को देखा नहीं था।
मृत्यु ने आंख की नीदं छीन ली तब भगवान का सत्य उसे प्रगट हुआ। संन्यास पहली दफा
अर्थपूर्ण मालूम पड़ा जैसे अंधे को आंखें मिली जैसे बहरे को कान मिले वह सुनने और
देखने में पहली दफे समर्थ हुआ जैसे अंधेरे में अचानक बिजली कौधं जाए ऐसा सब उसे एकष्ट
हो गया। एक तलवार की धार की तरह पुरानी दुनिया कटकर अलग गिर गयी और नयी दुनिया
बनाने का अमृत की तलाश का गहन संकल्प उठा
अगर
मृत्यु है तो अमृत की तलाश करनी है, फिर कोई और जीवन का ढंग खोजना है,
कोई और शैली चाहिए। अगर यह घर घर नहीं, धर्मशाला
है, तो फिर अपने घर की तलाश पर निकलना होगा। और सात ही दिन
बचे हैं! जल्दी करनी होगी।
मृत्युबोध
धर्म का द्वार बन जाता है। उस युवक की चेतना— धारा अचानक बदल गयी। कुछ की कुछ हो
गयी दिशा। कहा दौड़ा जा रहा था, धन, पद, प्रतिष्ठा! अचानक गंगा ने मोड ले लिया। अब गंगा उस दिशा में नहीं जा रही।
उसने रास्ता नया ग्रहण कर लिया।
भगवान
ने उससे कहा—प्रिय बुद्धिमान को भविष्य के सपनों में नहीं उलझना चाहिए।
बुद्धिमान
का लक्षण ही यही होता है कि वह भविष्य के सपनों में नहीं उलझता है। भविष्य के
सपनों में जो उलझता है उसी को हम बुद्ध कहते हैं। बुद्ध का अर्थ होता है, जो नहीं
है, जो अभी है नहीं, उसके संबंध में
योजनाएं बना रहा है। बुद्धिमान का अर्थ होता है, जो है उसमें
जी रहा है। बुद्धिहीन का अर्थ होता है, जो नहीं है, उसके सिर्फ सपने बना रहा है। बुद्धिहीन सपनों में जीता है, बुद्धिमान सत्य में जीता है। सत्य तो है; और सत्य का
कोई भविष्य नहीं है, सत्य तो सिर्फ वर्तमान है—अभी और यहीं
है। सत्य का कोई अतीत भी नहीं है।
ऐसा
नहीं है कि सत्य कभी था और अब नहीं है, और ऐसा भी नहीं है कि सत्य कभी
होगा और अभी नहीं है। सत्य तो बस है। यही तो शाश्वत का अर्थ होता है। सत्य शाश्वत
है। एस धम्मो सनंतनो। धर्म शाश्वत है, सनातन है। सदा से है,
सदा रहेगा। वर्तमान है सत्य। सत्य में सिर्फ एक ही समय होता है—वर्तमान।
भविष्य सपने में है, आदमी की खोपड़ी में है। और अतीत भी
स्मृति में है। दुनिया में अधिकतर लोग या तो अतीत में जीते हैं, या भविष्य में। शायद ही कोई कभी जागता है वर्तमान के इस मौजूद क्षण में।
तो
बुद्ध ने कहा,
बुद्धिमान को भविष्य के सपनों में नहीं उलझना चाहिए और न अतीत की
स्मृतियों में डूबा रहना चाहिए। क्योंकि जो जा चुका, जा चुका,
उसे जाने दो। और जो अभी नहीं आया, नहीं आया,
उसको खींच—खींचकर सपने में मत लाओ। जो है, उसमें
प्रगाढ़ रूप से जागो। जो है, उसमें जागने का नाम ही ध्यान है।
अगर तुम एक क्षण को भी निर्विचार होकर जाग जाओ, तो जो है,
उसकी तुम्हें प्रतीति होगी, साक्षात्कार होगा।
और जो है, उसी का नाम ईश्वर है।
विचार
या तो अतीत के होते या भविष्य के, खयाल किया है तुमने कभी? अपने
विचारों की परख करना, तो या तो विचार अतीत से आता है—किसी ने
कभी गाली दी थी, कि किसी ने कभी सम्मान किया था, कि कभी कोई घाव मार गया था, कि कभी कोई अपमान कर गया
था, कि कभी कुछ सुखद घटना घटी थी—या तो अतीत से आता है विचार,
या भविष्य से आता है, कि जैसा सम्मान अतीत में
हुआ था वैसा फिर भविष्य में हो, ज्यादा हो, जो सुख अतीत में जाने, वे और बड़े होकर मिलें,
और वर्द्धमान हो जाएं, और जो—जो भूलें अतीत
में हुईं, फिर न हों; जो—जो अतीत में
दुखद था, वह कभी दुबारा न दोहरे, ऐसी
भविष्य की योजना।
भविष्य
की योजना है क्या?
तुम्हारा अतीत ही फिर—फिर दोहरने की योजना बना रहा है। तुम फिर उसे
पुनरुक्त करना चाहते हो। थोड़े अच्छे ढंग से, थोडा सजाकर,
थोड़े नए वस्त्र पहनाकर, काटे कम कर देना चाहते
हो, फूल बढ़ा देना चाहते हो; लेकिन वह
तुम्हारा अतीत ही है सजा—बजा। अतीत की लाश को ही तुम नए—नए प्रसाधन कर रहे हो और
उसी को तुम भविष्य कहते हो।
विचार
या तो अतीत के होते या भविष्य के, विचार वर्तमान में होता ही नहीं। विचार वर्तमान
में हो ही नहीं सकता। इस अनूठी बात को खयाल में लेना, क्योंकि
इसमें कुंजी छिपी है सारे ध्यान की, समाधि की। वर्तमान में
विचार होता ही नहीं। जब भी तुम वर्तमान में होते हो तो विचार की तरंग नहीं हो सकती,
या तो विचार की तरंग होगी तो तुम वर्तमान में नहीं होओगे। जैसे इसी
क्षण अगर कोई भी विचार तुम्हारे भीतर नहीं उठता, तुम अवाक हो,
चुप और सन्नाटे में हो और भीतर एक शून्य है, तो
तुम वर्तमान में हो।
वर्तमान
का जरा सा भी स्वाद परम आनंद से भर जाता है। और जब भी तुम्हें आनंद की कोई झलक
मिलती है, तो वह वर्तमान में होने के कारण ही मिलती है। किस कारण तुम वर्तमान में हो
गए, यह दूसरी बात है। कभी—कभी अनायास हो जाते हो वर्तमान में,
तो सुख मिलता है।
ध्यान, योग का
इतना ही अर्थ है कि तुम सायास, जान—बूझकर वर्तमान में होने
का आयोजन करते हो। तुम अपने को पकड—पकड़कर वर्तमान में ले आते हो। मन तो भागता है
अतीत की तरफ, भविष्य की तरफ। मन तो भगोड़ा है। वह तो यहं।
नहीं टिकता, और कहीं जाता है, और कहीं
सदा, यहां नहीं। तुम उसे पकड़—पकड़ कर वापस ले आते हो। तुम उसे
यहां बैठना सिखाते हो। मन को सिखाते हो कि आसन लगा यहां। यहीं रुक, कहीं मत जा।
ऐसे
धीरे— धीरे— धीरे मन को भी स्वाद लग जाता है वर्तमान का। वही स्वाद मन की मृत्यु
बन जाता है। क्योंकि वर्तमान में मन होता ही नहीं। और जो मन के पार है, वही
बुद्धिमान है। जो मन के नीचे है, वह बुद्धिमान नहीं है।
तो
बुद्ध ने कहा बुद्धिमान को भविष्य के सपनों में नहीं उलझना चाहिए। भविष्य में मौत
के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
यह
बड़ी अनूठी बात बुद्ध ने कही— भविष्य में मौत के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
वर्तमान तो अभी है,
वर्तमान ही जीवन है। जीवन वर्तमान में है, भविष्य
में तो सिर्फ मौत होगी। कल सिर्फ मौत है और कुछ भी नहीं।
तुमने
खयाल किया, इस देश की भाषाओं में हमने जो शब्द चुने हैं, कल और
काल, वे एक ही मूल से आते हैं। काल तो मौत का नाम है,
और कल भविष्य का नाम है। एक और अनूठी बात है, हम
बीते दिन को भी कल कहते हैं और आने वाले दिन को भी कल कहते हैं। बीता दिन मर चुका,
आने वाला दिन मरा हुआ है। बीत गयी जो वह भी मौत थी, आ रही है जो वह भी मौत है, दोनों के मध्य में—जैसे
तलवार की धार पर कोई खड़ा हो—ऐसा वर्तमान खड़ा है, ऐसा जीवन
खड़ा है। इसलिए परमात्मा के मार्ग को लोगों ने खड्ग की धार कहा है। इन दो खड्डों के
बीच में बड़ी पतली सूक्ष्म रेखा पर जीना है।
यह
भी तुमने खयाल किया कि काल मौत का भी नाम है और काल समय का भी नाम है। भाषाएं ऐसे
ही नहीं बनतीं। भाषाओं में एक—एक संस्कृति का पूरा—पूरा अनुभव संजोया होता है।
दुनिया में बहुत भाषाएं हैं, लेकिन किसी भाषा में मौत और समय का एक ही नाम
नहीं है। सिर्फ इस देश की भाषा में मौत और समय के लिए एक ही नाम है। क्यों?
क्योंकि इस देश के मनीषियों ने बार—बार यह अनुभव किया कि समय यानी
मौत। इसलिए दोनों को एक नाम दिया है, ताकि याद रहे। वर्तमान
समय का हिस्सा ही नहीं है। वर्तमान है जीवन।
एक
बात और खयाल ले लेना। हम आमतौर से सोचते हैं कि समय तीन खंडों में विभाजित है—अतीत, वर्तमान,
भविष्य। यह बात गलत है। समय तो दो खंडों में विभाजित है—अतीत और
भविष्य। वर्तमान समय का हिस्सा नहीं है। वर्तमान शाश्वत का हिस्सा है। वर्तमान से
तो शाश्वत झांकता है। वर्तमान समय का भाग नहीं है। इसलिए जो वर्तमान में ठहर गया,
वह शाश्वत में ठहर गया। उसने शाश्वत का अनुभव पा लिया। वर्तमान में
ठहर जाने को हम समाधि कहते हैं। समाधान मिल गया। विचारों का उत्पात गया, विचार की समस्याएं गयीं, उलझनें गयीं।
तो
बुद्ध ने कहा बुद्धिमान को भविष्य के सपनों में नहीं उलझना चाहिए। भविष्य में मौत
के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। न सुंदर स्त्रियां बचाएगी और न धन और न पद और न तेरे
संगमरमर के महल। मृत्यु के समय तो समाधि ही विजय लाती है। मृत्यु को समाधि से
जीतकर अमृत की उपलब्धि करनी होती है
एक
ही चीज जीतती है समय को—समाधि। एक ही चीज जीतती है समय को—समय के पार का अनुभव, समय के
बाहर की कोई किरण। समय निद्रा है। जागरण की किरण, होश की
किरण समय को जीत लेती है। और जिसने समय को जीत लिया उसने मृत्यु को भी जीत लिया,
क्योंकि वे दोनों एक ही हैं। वे एक—दूसरे के पर्याय हैं। समय का जोड़
मृत्यु है। समय मृत्यु के आने का ढंग है।
तुम
जिस दिन पैदा हुए उसी दिन से मर रहे हो। हालांकि तुम इसको जीवन कहते हो। जिस दिन
से पैदा हुए उस दिन से सिवाय मरने के और तुमने कुछ भी नहीं किया है। एक बात सतत हो
रही है कि तुम मर रहे हो,
मरते जा रहे हो। एक दिन बीता, एक दिन और मर गए।
एक वर्ष बीता, एक वर्ष और मर गए। तुम हर वर्ष जन्म—दिन मनाते
हो, उसे जन्म—दिन नहीं कहना चाहिए, उसे
मृत्यु—दिन कहना चाहिए। क्योंकि जन्म तो उससे दूर होता जा रहा है, मृत्यु करीब आ रही है। एक वर्ष और मर जाता है, तुम
उसको जन्म—दिन कहते हो? तुम एक वर्ष और मर चुके। अब तुम्हारी
जिंदगी और थोड़ी बची। तुम्हारा और एक हिस्सा मर गया। अब तुम उतने जीवित नहीं हो
जितने एक वर्ष पहले थे। जैसे ही बच्चा मां के पेट से पैदा हुआ, मरना शुरू हो गया। सत्तर साल लगेंगे मौत को आने में, धीरे— धीरे आती है, लेकिन समय मौत के आने का ढंग है।
समय समझो कि मौत का वाहन है। समय के वाहन पर सवार होकर मौत आती है।
तो
समय तो मौत की सेवा में संलग्न है। और जब तक तुम समय में जीते हो, तब तक तुम
मौत के अंतर्गत रहोगे, तब तक मौत का तुम पर कब्जा रहेगा।
समाधि
का अर्थ होता है,
समय के पार हो जाना। इसलिए सारे शास्त्र, सारे
जगत के शास्त्र एक बात कहते हैं, समाधि है समय के पार हो
जाना। एक ऐसी चैतन्य की दशा, जहां समय बिलकुल मिट जाता है।
समय होता ही नहीं, घड़ी चलती ही नहीं। न दिन होती न रात,
न कुछ आता न कुछ जाता। कुछ हिलता भी नहीं, कंपन
भी नहीं होता, सब ठहर जाता है।
जीसस
से उनका एक शिष्य पूछता है,
मरने के एक दिन पहले, कि आपके स्वर्ग के राज्य
में खास बात क्या होगी? और जीसस ने जो उत्तर दिया वह बड़ी
हैरानी का है। शिष्य ने तो सोचा भी न होगा कि ऐसा उत्तर मिलेगा। शिष्य ने सोचा
होगा कि जीसस कहेंगे कि बड़ा महासुख होगा, आनंद होगा, शराब के चश्मे बहेंगे, सुंदर अप्सराएं उपलब्ध होंगी,
कल्पवृक्ष होंगे, उनके नीचे तुम बैठना और मजे
करना। आदमी पूछता ही इसी तरह की बातों के लिए है। लेकिन जीसस ने जो उत्तर दिया वह
बड़ा अदभुत था। जीसस ने कहा, देयर शैल बी टाइम नो लीगर। वहा
समय नहीं होगा। यह भी कोई उत्तर हुआ! शिष्य सुनकर तो ऐसे ही रह गया होगा कि यह भी
कोई बात हुई; समय नहीं होगा, इसके लिए
इतनी मेहनत करो! समय नहीं होगा, इसमें ऐसा क्या गुण है!
लेकिन
सारे जागरूक पुरुषों ने एक बात कही है कि समाधि कालातीत, समय के
पार। जीसस का उत्तर बिलकुल ही सौ प्रतिशत सही है। वहा समय नहीं होगा। और जहां समय
नहीं है, वहां परमात्मा है। और जहां समय नहीं है, वहां आनंद है, सच्चिदानंद है। और जहां समय नहीं है,
वहां अहंकार नहीं है। जहां समय नहीं है, वहां
दुख नहीं है, क्योंकि वहां मृत्यु नहीं है। मृत्यु की छाया
ही दुख है। जहां समय नहीं है, वहां कोई कंपन नहीं, कोई चिंता नहीं, वहां सब शांति है। वहां कोई अंधड़
नहीं चलते चिंताओं के। वहां परम मौन है। समय नहीं है, ऐसा
कहकर जीसस ने समाधि का मौलिक लक्षण कह दिया, समाधि की परिभाषा
कर दी।
तो
बुद्ध ने कहा,
मृत्यु को जीतना हो तो समाधि के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है।
वह
युवक भगवान के चरणों में ही रुक गया। उसने लौटकर भी वे पांच सौ गाडिया जो नदी— तट
पर सामानों से भरी खड़ी थी उनकी तरफ फिर नहीं देखा।
कैसी
क्रांति हुई! अभी एक दिन पहले वे गाड़ियां ही सब कुछ थीं, उनमें भरा
हुआ सामान ही सब कुछ था; रात सो भी नहीं पाता था, वही चिंता पकड़े रहती थी, कोई चोर चोरी न कर ले,
कोई नौकर धोखा न दे जाए; रात में उठ—उठ आता था,
देख—देख आता था, चक्कर मार आता था। जिनके पास
है, वे कहा सो पाते हैं! जिनके पास नहीं है, वे चाहे शांति से सो भी जाएं; जिनके पास है, वे तो सो ही नहीं पाते। रात कई बार अपनी वसनी को पकड़ लेता होगा, फिर देख लेता होगा कि कोई चोरी तो नहीं हो गयी, कोई
झंझट तो नहीं हो गयी। रातभर गणित बिठाता होगा कि कल कैसी बिक्री करनी, कहां बिक्री करनी; उन गाड़ियों में ही उसका सारा
संसार था। आज बात बदल गयी। बात बदलती है तो ऐसे ही बदलती है।
आज
सारी चाल बदल गयी,
जीवन का ढंग बदल गया। अब तक उसने बुद्ध की तरफ न देखा था, अब जब बुद्ध की तरफ देखा तो गाड़ियों की तरफ न देखा। उसके नौकर—चाकर भी आए,
उसके सेवक आए, उसके मुनीम आए। उन्होंने कहा,
मालिक, आपको क्या हो गया है? आप लौट चलें, बाजार जाने का समय हो गया, ग्राहक प्रतीक्षा करते होंगे, धंधे के दिन हैं,
आप यहां क्या कर रहे हैं? वह हंसता था। वह
कहता था, तुम जाओ, तुम्हीं फिकर लो।
तुम मुझे भूल जाओ, समझो कि मैं मर ही गया। समझो कि मैं नहीं
हूं। तुम्हें जैसा करना हो कर लो, बांट लेना, मेरा अब कोई उस पर आग्रह नहीं रहा।
खबर
पहुंची होगी नौकर—चाकरों में कि मालिक मालूम होता है पागल हो गया, लगता है
कि इस बुद्ध की बातों से सम्मोहित हो गया। किसके चक्कर में पड़ गया! बड़े चिंतित हुए
होंगे, सब तरह समझाने—बुझाने का उपाय किया होगा। लेकिन जिसके
द्वार पर मौत खड़ी हो, अब संसार का कोई तर्क उसे जंचता नहीं।
सात दिन बाद मरना ही है, सात दिन बाद ये गाड़ियां पड़ी ही रह
जाएंगी और सात दिन बाद इन गाड़ियों में भरे सामान का क्या होगा? तो अभी हो जाए।
जिसे
मौत का ठीक—ठीक स्मरण हो जाता है उसके जीवन में क्रांति आती है। मौत बड़ी क्रांतिकारी
घटना है। हमें तो याद नहीं आती मौत की। हम तो अगर कभी ज्योतिषी के पास जाते भी हैं
तो यह नहीं पूछने जाते कि कब मरेंगे, यह पूछने जाते हैं कि कहीं मौत
आसपास तो नहीं है! जरा दूर है, तो चलो! हम तो हाथ भी दिखाते
हैं तो इसी आशा में कि लंबी उम्र। हमारी प्रार्थनाएं लंबे आयुष्य के लिए होती हैं।
ताकि थोड़ी देर इन गाड़ियों में, इन सामानों में, इन महलों में, इस धन—संपत्ति में और थोड़े डूबे रहें।
इस कीचड़ में थोड़े और डुबकियां लगा लें।
नहीं, उस युवक
ने कहा कि तुम जाओ, तुम आओ मत, बात खतम
हो गयी; मैं वही आदमी नहीं हूं जो तुम्हारा मालिक हुआ करता
था। वह आदमी मर गया। जिसको मरना ही है, वह मर ही गया। यह
दूसरा ही आदमी है।
वह
दिनभर बुद्ध के चरणों में बैठा रहता। रात बुद्ध सो जाते तो भी उनके चरणों में बैठा
रहता
जिसकी
मौत करीब आ रही है,
उसके पास समय खोने को कहा है? जितना बुद्धत्व
पी लो, उतना बेहतर। जिसकी मौत ने संदेश भेज दिया हो, अब सोने की भी अकेला होना नियति है फुर्सत कहा है? सो
लेंगे फिर सात दिन के बाद जितना सोना होगा, अभी तो जाग लेना
है। दिनभर बुद्ध को सुनता, रातभर बुद्ध को गुनता।
वह युवक बुद्ध के चरणों में ही रुक गया और सात दिनों बाद जब मरा
तो स्रोतापत्ति— फल को पाकर मरा।
स्रोतापत्ति—फल का अर्थ होता
है, जो ध्यान की धारा में प्रविष्ट हो गया। जो उतर गया ध्यान की धारा में। जो
जीवन के मूलस्रोत में उतर गया—स्रोतापत्ति। जीवन का मूल स्रोत ध्यान है। हम ध्यान
से आए हैं और ध्यान में ही हमें जाना है। हम समाधि से उत्पन्न हुए हैं, हम समाधि की तरंग हैं और हमें समाधि में ही लीन हो जाना है। हम जिस सागर
से आए हैं, उसी सागर में हमें फिर वापस मिल जाना है। इस
भावबोध को कहते हैं स्रोतापत्ति। कि मैं लहर मात्र हूं, मेरा
अलग कुछ होना नहीं है, मैं सागर के साथ एक हूं। और जिस सागर
से आना हुआ है, उसी में वापस लौट जाना है। इसलिए मैं व्यर्थ
के उधेड़बुन में न पडुं मैं कोई चिंताएं न लूं—मैं हूं ही नहीं तो चिंता कैसी! मेरा
होना अलग है ही नहीं। यह जो विराट लीला चल रही है, यह जो
विराट अस्तित्व घूम रहा है, मैं इसकी एक तरंग हूं; फिर कैसी चिंता! चिंता तो तभी पैदा होती है जब मैं सोचता हूं मैं अलग— थलग,
मेरे ऊपर जिम्मेवारी, मैं करूं तो ऐसा,
मैं न करूं तो वैसा न हो जाए; मैं ऐसा करूं तो
जीतू? ऐसा करूं तो हार जाऊं, ऐसा करूं
तो सम्मान मिले, ऐसा करूं तो अपमान मिले, इसमें सफलता, इसमें विफलता, इसमें
हार, इसमें जीत; तो हजार चिंताएं होती
हैं। कैसी जीत, कैसी हार! इस विराट के साथ हम एक हैं,
ऐसी प्रतीति जिसको हो गयी उसको कहते हैं—स्रोतापत्ति।
वह
युवक मरने के पहले स्रोतापत्ति— फल को पाकर मरा। वह युवक धन्यभागी था!
मृत्यु
के पहले ध्यान की धारा में जो प्रविष्ट हो जाते हैं, उनसे बड़ा और कोई धन्यभाग
नहीं। क्यों? क्योंकि मृत्यु के पहले जिन्होंने ध्यान को जान
लिया, फिर उनकी मृत्यु होती ही नहीं। शरीर ही मरता है,
अहंकार ही मरता है, मन मरता है, लेकिन वे नहीं मरते। जिन्होंने मृत्यु के पहले ध्यान नहीं जाना, उनकी मृत्यु होती है, क्योंकि वे शरीर के साथ अपने
को एक समझे बैठे हैं। जब शरीर मरता है तो वे समझते हैं, हम
मरे। वे मन के साथ अपना तादात्म्य किए बैठे हैं, जब मन
बिखरने लगता है और मन सूखे पत्तों की तरह वृक्ष से गिरने लगता है, तब वे चीत्कार करते हैं कि हम गए। उनकी पीड़ा इतनी सघन हो जाती है कि वे मूर्च्छित
जाते हैं।
लोग
मूर्च्छित मरते हैं। शरीर को जाते देखकर, मन को जाते देखकर, उनका होश खो जाता है। पीड़ा इतनी सघन होती है इस टूटने की—इतने जुड़े थे;
और इसी को जीवन जाना था, जीवन को जाते देखकर
वे बेहोश हो जाते हैं—लोग बेहोश मरते हैं। इसलिए मरने का जो एक अमूल्य अनुभव है,
वह चूक जाता है। काश, कोई होश में मर सके तो
पता चलता है कि जो तुम्हारे भीतर बसा है, वह तो कभी मरता ही
नहीं। देह मरती है, मन मरता है, तुम
नहीं मरते। तुम शाश्वत हो, तुम सदा से हो। जो सदा से है,
उसी के अंग हो। तुम्हारी मृत्यु हो भी नहीं सकती, कोई उपाय नहीं है।
स्रोतापत्ति—फल
को पाकर यह युवक मरा। शास्त्र कहते हैं, धन्यभागी था! क्योंकि मृत्यु के
पहले ध्यान की धारा मिल जाए तो और क्या धन्यभाग! अभागे हैं वे, जो जीते तो हैं और ध्यान को कभी नहीं जान पाते। अभागे हैं वे, जो कभी स्रोतापत्ति को उपलब्ध नहीं होते। धन कमा लेते हैं, राज्य बना लेते हैं और भीतर दरिद्र के दरिद्र मर जाते हैं। मौत आती है तो
बेहोश हो जाते हैं पीड़ा में, मौत को देख नहीं पाते। जिसने
मौत को देख लिया, उसने जीवन के सार को देख लिया, क्योंकि मौत की स्थिति में जीवन की परिपूर्ण सार्थकता प्रगट होती है।
इसे
ऐसा समझो, कि जैसे अंधेरी रात में तारे चमकते हैं, दिन में तो
नहीं चमकते हैं। दिन में तुम आकाश की तरफ देखो, तारों का पता
नहीं चलता है। तारे तो वहीं हैं, कहीं गए नहीं हैं—ऐसा मत
सोचना कि तारे दिन में कहीं चले जाते हैं, रात फिर आ जाते
हैं—तारे तो वहीं हैं, लेकिन दिन में दिखायी नहीं पड़ते,
पृष्ठभूमि नहीं है। रोशनी को देखने के लिए अंधेरे की पृष्ठलुक्
चाहिए। इसीलिए तो हम काले तख्ते पर सफेद खड़िया से लिखते हैं, ताकि दिखायी पड़ जाए। सफेद दीवाल पर नहीं लिखते, लिखेंगे
तो सफेद दीवाल पर भी लिख जाएगा, लेकिन दिखायी न पड़ेगा। जीवन
में जीवन का पता नहीं चलता, मौत की अंधेरी रात जब सब तरफ से
घेर लेती है तो जीवन का तारा चमकता है। धन्यभागी हैं जो होश से मरते हैं। क्योंकि
मौत की काली पृष्ठभूमि में, मौत के ब्लैकबोर्ड पर उभरकर आ
जाता है जीवन, जीवन की किरण बिलकुल प्रगट होकर दिखायी पड़ती
है। साफ—साफ दिखायी पड़ता है कि शरीर मरणधर्मा है, मन
मरणधर्मा है, मैं नहीं। लेकिन इस मैं में अब कोई मैं— भाव भी
नहीं होता। इसमें कोई अस्मिता नहीं होती, कोई अत्ता नहीं
होती। इसलिए बुद्ध ने इस अवस्था को अनत्ता कहा है, अनात्मा कहा
है। इसमें यह भी भाव नहीं होता कि मैं हूं। सिर्फ होना मात्र होता है। और होना
इतना शुद्ध होता है कि उस पर कोई रेखा नहीं खींची जा सकती—क्या? कोई सीमा नहीं बनायी जा सकती है, कोई परिभाषा नहीं—अपरिभाष्य।
शास्त्र
कहते हैं, सुबह का भूला सांझ को भी घर आ जाए तो भूला हुआ नहीं कहाता है। यह सात दिन
पहले घर आ गया। देर से आया, खूब देर करके आया, लेकिन देर से भी कोई आ जाए तो भी आ गया। सुबह का भूला सांझ भी घर आ जाए तो
भूला नहीं कहाता। आ तो गए देर से ही सही! भटककर ही सही, लेकिन
आ तो गए! समय के पूर्व आ गए।
उस
युवक की मृत्यु एक दर्शन बन गयी, एक साक्षात्कार। उस युवक ने मृत्यु का भी उपयोग
कर लिया और अधिक लोग तो जीवन का भी उपयोग नहीं कर पाते हैं। मूर्च्छित हो तो जीवन
भी असार है, जाग्रत हो तो मृत्यु भी असार नहीं है। और यह सब
घट गया केवल सात दिनों में।
तो
ऐसा मत सोचना कि वर्षों मेहनत करें तब घटता है। और ऐसा भी मत सोचना की सात दिन में
ही घट जाएगा। समय से इसका कोई संबंध नहीं है। त्वरा, तेजी, सघनता की बात है। इंटेंसिटी। त्वरा हो तो एक क्षण में भी घट जाता है,
और त्वरा न हो तो जन्मों—जन्मों में भी नहीं घटता है।
मेरे
पास कभी कोई आ जाता है,
पूछता है, ध्यान कितने दिन में लगेगा? मैं उससे कहता हूं, तुम पर निर्भर है। ध्यान पर
निर्भर नहीं है। ध्यान कोई ऐसी जड़ बात थोड़े ही है कि इतने दिन में लगेगा। ध्यान तो
तुम्हारी त्वरा पर निर्भर है। उससे मैं सदा ईसप की एक कहानी कहता हूं।
ईसप
एक रास्ते से जा रहा है। का हो गया है। और एक युवक रास्ते पर आता है। वह भी उसके
साथ हो लेता है। और वह युवक पूछता है कि नगर कितनी दूर है? मैं कितनी
देर में पहुंच जाऊंगा। ईसप जैसे सुनता ही नहीं; जैसे बहरा हो।
वह युवक जोर से पूछता है—सोचकर कि का शायद बहरा है—वह जोर से पूछता है कि आपने
सुना नहीं, महानुभाव? मैं पूछता हूं
नगर कितनी दूर है? और हम कितनी देर में पहुंच जाएंगे?
फिर भी ईसप ऐसे ही सुनता है जैसे अब भी नहीं सुना। यह देखकर कि यह
महाबधिर है, वह युवक तो तेजी से आगे बढ़ जाता है। वह कोई पचास
कदम आगे गया है कि ईसप ने चिल्लाया कि रुक भाई, एक घंटा
लगेगा। वह युवक बोला, अचानक आप जिंदगी में वापस लौट आए! आप कहां
चले गए थे, मैं दो बार पूछा, चिल्लाकर
पूछा। उसने कहा कि जब तक तुम्हारी चाल न देख लूं कैसे कहूं? गांव
की दूरी, गांव में कब तक पहुंचोगे, तुम्हारी
चाल पर निर्भर है। अब मैंने तुम्हारी चाल देख लीं—तेज है चाल—घंटेभर में पहुंच
जाओगे। मेरी बात पूछते हो, तो मुझे तो तीन घंटे लगेंगे;
का आदमी हूं! समय की बात नहीं है, त्वरा की
बात है।
और
यह सब घट गया केवल सात दिनों में।
त्वरा
का प्रश्न है,
समय का नहीं। समझ का प्रश्न है, समय का नहीं।
साधना का प्रश्न है, समय का नहीं। वह अपूर्व घटना कभी तो एक
क्षण में घट जाती है और कभी जन्मों—जन्मों भी नहीं घटती है। सब व्यक्ति पर निर्भर
है। सब तुम पर निर्भर है। कितनी प्यास, कितना प्रयास,
सब प्यास और प्रयास पर निर्भर है। कितना तुम अपने जीवन को दाव पर
लगाते हो।
उस
युवक ने पूरा लगा दिया होगा। अब बचाने को कोई अर्थ भी न था, बचाने में
कोई अर्थ भी न था। सात दिन बाद जीवन हाथ से छूट ही जाएगा। उसने पूरा ही दाव पर लगा
दिया होगा। हम लगाते भी हैं दाव पर तो बड़ी कंजूसी से लगाते हैं।
हम
कभी ध्यान भी करते हैं तो कुनकुने—कुनकुने। कभी प्रार्थना भी करते हैं तो ऐसे ही
कर ली। प्राण नहीं रखते। उस पर सारा जीवन निर्भर है, ऐसा भाव नहीं करते। हमारे
भाव में सघनता नहीं होती। कर लिया! जैसे कर्तव्य था, कर
लिया!
मैंने
सुना है, एक धनपति धर्म में जरा भी उत्सुक न था। उसकी पत्नी उत्सुक थी। और वह उसे
बार—बार कहती कि कभी तो मंदिर चलो, कभी तो सत्संग करो। वह
कहता, कर लेंगे जी! कर लेंगे, अभी बहुत
समय पड़ा है, जल्दी क्या है? पत्नी
सुनती, चुप रह जाती, उसकी आंखें गीली
हो जातीं। क्योंकि रोज सत्संग में वह सुनती थी, समय कहा है!
समय कहा पड़ा है! यह गया, जा ही रहा है, पड़ा कहा है, प्रतिपल हाथ से खाली होता जा रहा है।
और
एक—एक बूंद करके सागर रिक्त हो जाता है, तो यह तो छोटी सी जिंदगी है। यह कब
चुक जाएगी, पता नहीं! तुम्हें पता ही न पड़ेगा और चुक जाएगी।
तुम ऐसे ही बैठे रहोगे और चुक जाएगी। मौत जिस दिन द्वार पर आती है तो सभी लोग
चौंकते हैं, क्योंकि वे सोचते ही नहीं थे कि आने वाली है। जब
भी मौत द्वार पर आती है तो ऐसा लगता है असमय आ गयी। अभी कहा आना था!
पत्नी
रोती थी, लेकिन......। फिर पति बीमार पड़ा। तो पति ने कहा कि जल्दी से वैद्य को
बुलाओ, दवा की जरूरत है, मुझे बहुत
घबड़ाहट हो रही है। पत्नी ने कहा, छोड़ो जी, बहुत समय पड़ा है, बुला लेंगे! पति ने कहा, तू सुनती है कि नहीं? अभी बुला! उसकी पत्नी ने कहा,
लेकिन जल्दी क्या है? जब धर्म कभी, तो दवा अभी क्यों? क्योंकि मैं तो सत्संग में सुनती
हूं कि धर्म दवा है। जीवन का उपचार है। अगर वैद्य अभी बुलाना है तो सदगुरु को अभी
नहीं बुलाना है? तुम तय कर लो। यह जिंदगी हाथ से जाती लगती
है तो वैद्य अभी चाहिए और जीवन का सर्वस्व हाथ से जा रहा है तो भी तुम—धर्म अभी
नहीं! दवा अभी और धर्म अभी नहीं!
हमारे
गणित ऐसे हैं। और अगर हम कभी कर भी लेते हैं धर्म के नाम पर कुछ, तो इसी
में कर लेते हैं कि शायद कुछ हो, कभी काम पड़ जाए, चलो कर लो। कौन जाने परमात्मा हो, याद कर लो! लेकिन
जिसने यह सोचकर याद किया कि कौन जाने परमात्मा हो, याद कर लो,
वह याद कर ही न पाएगा। क्योंकि याद ऐसी मुर्दा, मरी—मरी, नपुंसक—यदि परमात्मा हो, शायद हो!
एक
नास्तिक को मैं भलीभांति जानता हूं। बड़ी किताबें लिखी हैं। कभी—कभी मेरे पास आते
थे, तो वह कहते थे, और कुछ भी हो, मुझे
कोई भरोसा नहीं दिला पाता कि ईश्वर है। कोई तर्क प्रमाणित नहीं होता। किसी तर्क से
बात समझ में नहीं पड़ती। फिर अचानक वह बीमार पड़े। हृदय का दौरा पड़ गया, उनके लड़के ने मुझे खबर की कि पिताजी बहुत बीमार हैं, आपकी याद करते हैं। तो मैं भागा गया। कमरे में गया तो वह आंख बंद किए राम—राम
जप रहे थे! जब मैंने उनके ओंठ हिलते देखे और राम—राम धीरे—धीरे उनको जपते देखा तो
मैं बहुत चौंका। मैंने उनका सिर हिलाया, मैंने कहा, कर क्या रहे हो? मरते वक्त सब खराब किए ले रहे हो?
यह राम—राम! उन्होंने कहा, पता नहीं अब हो ही;
कौन जाने, अब इस वक्त तो कर ही लूं! कौन जाने!
मगर मैंने कहा, यह बेकार होगा। तुम अभी भी यह जान रहे हो कि
है तो नहीं, मगर शायद!
शायद
से जो बात शुरू होती है,
उस पर कोई दाव थोड़े ही लगाता है। निश्चय पर जो बात होती है, उस पर कोई दांव लगाता है। जो तुम्हारे प्राणों में गहरी प्रतिष्ठित हो
जाती है, उस पर कोई दाव लगाता है। और जो दाव लगाता है,
वही पाता है। अगर तुम चूकते हो तो याद रखना कि चूकते इसीलिए हो कि
दाव नहीं लगाते हो। मुझसे लोग आकर कहते हैं, हम ध्यान करते
तो हैं लेकिन होता नहीं। ऐसा लगता है उनकी बात से जैसे कसूर ध्यान का है, कि लगाते तो हैं मगर लगता नहीं! जैसे ध्यान का ही कसूर होगा, उनका कसूर नहीं है।
अगर
नहीं लगता तो बात साफ है कि तुम लगाते नहीं। तुम्हारे जीवन में अभी यह बात इतनी
महत्वपूर्ण नहीं हो गयी है कि तुम सब दाव पर लगा दो। यह तुम्हारे जीवन में अभी
जीवन—मरण का प्रश्न नहीं बना है। यह तुम्हारी मुमुक्षा नहीं है। शायद कुतूहल से
तुम सोचते हो शायद होता हो तो देख लें, शायद कुछ शांति मिले, शायद कुछ आनंद मिले; मिल जाएगा तो फिर आगे बढ़ेंगे।
लेकिन जो ऐसा सोचकर जाता है, उसे मिलता ही नहीं।
इस
युवक में यह क्रांति इसलिए घट सकी, क्योंकि सात दिन बाद मौत खड़ी थी,
अब गंवाने को भी कुछ नहीं बचा था, कमाने को भी
कुछ नहीं बचा था। उसने सब दाव पर लगा दिया—सर्वस्व, सौ
प्रतिशत, उबल गया होगा। उस उबलने से ही वाष्पीभूत हो जाता है
कोई।
उस
युवक से ही भगवान ने ये गाथाएं कही थीं। ये गाथाएं समझने की कोशिश करना। समझना
जैसे तुमसे ही कही हैं,
क्योंकि मौत तो सभी की आनी है। और समझना कि ये जो योजनाएं इस युवक
ने बनायीं, ये तुम भी बनाते हो। इस युवक को अपने से भिन्न मत
मानना, यह तुम्हारा प्रतीक है। यही तुम कर रहे हो।
बैलगाड़ियां न होंगी, बैलगाडियों में भरा सामान न होगा,
तो गोदाम में भरा होगा। नदी—तट पर तुम न ठहरे होओगे, समय के तट पर तो ठहरे ही हो! शायद वे ही सुंदरियां तुम्हारे मन में न घूम
रही होंगी जो उस युवक के मन में घूमती थीं, लेकिन कोई और
सुंदरियां घूम रही होंगी। शायद वैसा ही महल तुम न बनाना चाहते होओ जैसा युवक बनाना
चाहता था, लेकिन महल तो बनाना ही चाहते होओगे। इससे फर्क नहीं
पड़ता।
यह
कहानी तुम्हारी कहानी है। इसे तुम ऐसे समझना जैसे तुम ही हो वह युवक। और मैं तुमसे
कहता हूं कि तुम ही हो वह युवक। और यह भी मत सोचना कि तुम्हारी उम्र ज्यादा हो गयी, अब तुम
युवक कैसे हो सकते हो। कुछ फर्क नहीं पड़ता, कामना सदा जवान
रहती है। कामना कभी की होती ही नहीं। की हो जाए तो बुद्धत्व करीब आ जाए। कामना सदा
जवान रहती है, के से के आदमी की जवान रहती है। इसलिए यह जो
कथा है, कहती है, वह युवक था। वासना
सदा युवा है। मरते दम तक युवा रहती है, की होती ही नहीं।
मैंने
सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक गांव में से गुजर रहा है, और एक
वेश्या को निकलते देखकर उसने सीटी बजायी। वेश्या ने भी कहा, शर्म
नहीं आती, बाल सफेद हो गए। तो मुल्ला ने जल्दी से टोपी उठाकर
बाल दिखाए, बाल काले थे, वेश्या भी
हैरान हुई। उसने कहा कि कल ही तो मैंने देखे थे कि सफेद थे। तो तुमने रंग लिए?
रंगने से क्या होगा? मुल्ला ने कहा, बाल मत देख, हृदय तो अभी भी काला है। बाल के सफेद
होने से क्या होता है? हृदय अभी भी काला है।
वासना
सदा जवान है।
मुल्ला
बैठा है अपने छज्जे पर और जल्दी से नौकर को आवाज देता है कि फजलू मेरे दात ले आ, जल्दी कर!
फजलू भागा दांत लाता है, कहता है, इतनी
जल्दी क्या है, अभी कुच्छ खा—पी भी नहीं रहे हो! उसने कहा कि
नहीं, एक सुंदर स्त्री निकलती थी, सीटी
बजाना चाहता हूं। अब दात भी नहीं रहे, अब ये दात भी नकली हो
गए हैं, मगर सीटी तो असली है।
आदमी
के के होने से कुछ का नहीं होता। वासना तो जवान ही बनी रहती है। अस्थिपंजर रह जाते
हैं, फिर भी वासना जवान रहती है। मौत दरवाजे पर खड़ी हो जाती है, फिर भी वासना जवान रहती है। इसलिए कथा कहती है, युवक।
वह युवक था या नहीं, यह बात बड़ी नहीं है। उसकी उम्र कितनी थी
यह कथा नहीं कहती है कुछ, कथा इतना ही कहती है, युवक था और वासनाओं में डूबा था।
तुम्हारी
कथा है यह। ये ही तुम्हारी वासनाएं, भविष्य के सपने—ऐसा करेंगे,
वैसा करेंगे। जब तक आदमी संन्यस्त न हो जाए तब तक शेखचिल्ली होता ही
है। शेखचिल्ली का अर्थ ही यह होता है कि वह बस पानी के बबूले उठाता रहता है और
सोचता है कि संसार निर्मित कर रहा है। बबूले फूटते भी हैं तो भी अनुभव से कुछ
सीखता नहीं।
बुद्ध
ने इस युवक को कहा कि सात दिन बचे हैं तेरी जिंदगी के और, अब तू सोच
ले क्या करना है?
स्वभावत:, तुम कहोगे,
हमारी जिंदगी के सात दिन तो नहीं बचे!
कौन
जाने, सात भी न बचे हों! या सत्तर बचे हों, इससे क्या फर्क
पड़ता है। इससे कुछ भेद नहीं पड़ता है कि तुम कितने दिन जीओगे, एक बात तय है कि मौत होने को है। इस जीवन में मौत के अतिरिक्त और कोई बात
सुनिश्चित नहीं है। और सब चीजें अनिश्चित हैं। धन मिलेगा, नहीं
मिलेगा; पद मिलेगा, नहीं मिलेगा;
चुनाव जीतोगे कि हारोगे, सब अनिश्चित है,
मगर मौत निश्चित है। गरीब की होगी, अमीर की
होगी; हारे की होगी, जीते की होगी,
मौत निश्चित है। यह बड़ी अनूठी बात है कि इस जीवन में सिर्फ एक ही
बात बिलकुल निश्चिइrत है और वह मौत है। और सब बातें अनिश्चित
हैं। हों भी, न भी हों।
इस
निश्चित मौत की याद दिलाने को बुद्ध कह रहे हैं इस कथा में, कि उस
युवक को उन्होंने कहा कि तेरे केवल सात दिन बचे हैं। इससे तुम सात दिन का हिसाब मत
रखना। उन्होंने सिर्फ इतनी बात कही कि युवक तेरी मौत निश्चित है। निश्चित का खयाल
करना, कि बुद्ध ने उसकी मौत निश्चित बता दी कि यह निश्चित हो
रही है, यह होने वाली है, ये बस सात
दिन बचे हैं।
तुम्हारी
भी मौत निश्चित है! तब तुम इन सूत्रों को ठीक से समझ पाओगे।
यावं हि वनयो न
छिज्जति अनुमत्तोपि नरस्स नारिसु।
पटिबद्धमनो नु गव
सो बच्छो खीरपकोव मातरि ।।
कहा उस युवक को कि 'हे युवक!
जब तक पुरुष की स्त्री के प्रति कामवासना अणुमात्र भी शेष रहती है, तब तक वह वैसे ही बंधा रहता है, जैसा दूध पीने वाला
बछड़ा अपनी माता से बंधा रहता है।'
इस
जगत में समस्त कामनाओं के मूल में कामवासना है। और सारी वासनाएं गौण हैं। धन की आकांक्षा
गौण है। धन आदमी चाहता इसीलिए है कि धन के माध्यम से सुंदर स्त्री, सुंदर
पुरुष पा सकेगा। पद भी चाहता इसीलिए है कि पद की आडू में फिर वासना के खूब खेल
खेले जा सकेंगे। आदमी तो स्वर्ग तक इसीलिए चाहता है कि अप्सराएं उपलब्ध होंगी और
से उपलब्ध होंगी और गिल्में उपलब्ध होंगे। अगर हम आदमी की सारी वासनाओं में गौरसे
झांके तो सारी वासनाओं के पीछे छिपी हुई हम कामवासना पाएंगे। कामवासना मूल वासना
है, शेष वासनाएं उसी की शाखाएं—प्रज्ञाखाएं हैं। स्वभावत,
धनी हो तो ज्यादा स्त्रियां इकट्ठी कर सकता है। तुम पढ़ते ही हो कहानियां
शास्त्रों में—राजाओं की हजारों स्त्रियां। गरीब आदमी तो एक ही स्त्री पाल ले तो
मुश्किल में पड़ जाता है।
पुराने
दिनों में, कितनी स्त्रियां हैं किसकी, इसी से उसके धन का हिसाब
लगाया जाता था। इसलिए बढ़—चढ़कर भी संख्या लिखी है। कृष्ण की सोलह हजार स्त्रियां! यह
संख्या जरा बढ़—चढ़कर लगती है, नहीं तो कृष्ण पागल हो गए होते।
यह संख्या कुछ जंचती नहीं। एक स्त्री पागल कर देने को काफी है, सोलह हजार, थोड़ा सोचो तो! सोलह हजार स्त्रियों का तो
हिसाब भी रखना मुश्किल हो जाएगा। दस—पांच साल बीत जाएंगे तब एकाध स्त्री का नंबर
फिर आएगा। तब तक तो भूल ही चुके होओगे कि यह कौन है और कहां से आ गयी! जरा सोचो तो
कि सोलह हजार स्त्रियों में घिरे कृष्ण! कितने ही पूर्ण अवतार रहे हों, पागलखाने में पहुंच गए होते। सोलह रही होंगी।
मगर
क्यों सोलह हजार लिखी हैं?
लिखी इसलिए हैं कि उन दिनों एक ही मापदंड था धनी का—कितनी स्त्रियां?
जितनी ज्यादा हों, उतना धनी। स्त्री से धन
नापा जाता था, स्त्री को धन कहा जाता था। एक स्त्री, तो आदमी गरीब। जरा पैसे वाला हुआ तो दस—पाच। और पैसे वाला हुआ तो सौ दो सौ।
चाहे उन स्त्रियों से उसका संबंध भी न हो। चाहे उन स्त्रियों से उसका कोई नाता भी
न हो। लेकिन स्त्रियां इकट्ठी कर लेना जरूरी था—जितना बड़ा रनिवास, उतना बड़ा साम्राज्य।
समय—समय
पर आधार बदल जाते हैं। जैसे अमरीका में किसके पास कितनी कारें हैं, वह आदमी
उतना धनी। तुम्हारे पास एक ही कार वाला गैरेज है, तुम गरीब
आदमी हो। दो कार वाला गैरेज है, तुम जरा बड़े आदमी हो। किस
ढंग की कार उपयोग करते हो? शेवरलेट, तुम
गरीब आदमी, केडिलक, लिंकन, बड़े आदमी। समय—समय पर धाराएं बदल जाती हैं। लेकिन कोई न कोई मापदंड बना
रहता है। अब अमरीका में स्त्री से भी ज्यादा बहुमूल्य लगता है कार हो गयी। अगर
किसी आदमी से कहो कि एक सुंदर स्त्री चुननी है कि एक सुंदर कार, तो वह कहेगा, स्त्री तो फिर कभी चुन लेंगे, पहले कार। और कार है तो स्त्री चुनने में सुविधा होती है, यह बड़ा मजा है!
मैंने
सुना, एक युवक अपनी प्रेयसी को लेकर घर आया। उसके बाप ने लड़की देखी तो वह जरा
दुखी हुआ। ढंग—ढौल की नहीं थी, शकल भी आकर्षक नहीं थी,
बिलकुल घरेलू ढंग की थी। जब लड़की चली गयी तो उसने अपने बेटे से कहा
कि मैं सोचता था कि तुझमें थोड़ी बुद्धि है, तू जरा ढंग से
चुनेगा, सोचकर चुनेगा, यह कहा की लड़की
चुन ली? उसने कहा, और क्या सोचते हो,
वह पुराने ढंग की कार, फोर्ड का पुराना माडल,
उसमें इससे बेहतर लड़की मिल सकती है?
अमरीका
में अब किस युवक के पास कितनी कीमती कार है, उस पर निर्भर करता है कि उसे कितनी
सुंदर लड़की मिल सकेगी। हो सकता है कार के चुनाव में भी पीछे स्त्री का ही चुनाव हो।
और इस बात को विज्ञापनदाता ठीक से समझते हैं। इसलिए कोई भी चीज बेचनी हो, सुंदर स्त्री को खड़ा करना पड़ता है।
देखते
हैं, अब कार से कुछ लेना—देना नहीं, कार का विशापन है और
खड़ी है एक सुंदर स्त्री उस पर हाथ रखे हुए, प्रसन्नचित्त!
उसमें एक लुभावना इशारा है कि अगर ऐसी कार तुम्हारे पास हुई, तो ऐसी स्त्री हो सकेगी। ऐसी स्त्री चाहिए हो तो ऐसी कार होनी चाहिए। कुछ कहा
नहीं है विज्ञापनदाता ने, लेकिन एक इशारा कर दिया, अचेतन में एक बात डाल दी। स्त्री के सौंदर्य का उपयोग कार को बेचने में कर
लिया। अब तो कोई भी चीज बेचनी हो तो स्त्री के सौंदर्य का उपयोग करना पड़ता है।
सिगरेट बेचनी हो तो, शराब बेचनी हो तो, कुछ भी बेचना हो। क्योंकि आदमी गहरे में सिर्फ स्त्री को ही खरीदना चाहता
है, और कुछ खरीदना नहीं चाहता।
इसलिए
जो भी चीज बेचनी हो,
स्त्री से जोड़ दो। किसी तरह स्त्री से जोड़ दो। स्त्री बिकती है।
यह
अपमानजनक है बात। स्त्रियों को इसका विरोध भी करना चाहिए। ये विज्ञापन अशोभनीय हैं।
ये विज्ञापन स्त्री को बाजार में बिकने वाली चीज बता रहे हैं। ये विज्ञापन स्त्री—जाति
का सम्मान नहीं,
अपमान है।
लेकिन
गहरे में, सारी वासनाओं के गहरे में कामवासना है। कामवासना मौलिक वासना है, शेष वासनाएं अर्जित, सीखी हुई वासनाएं हैं। कहीं धन
बहुत ज्यादा प्रभावशाली होता है—कहीं धन, कहीं पद, लेकिन कामवासना सभी संस्कृतियों में, सभी सभ्यताओं
में, सभी कालों में प्रभावशाली होती है।
तो
बुद्ध उस युवक को पहली बात कहते हैं, 'जब तक पुरुष की स्त्री के प्रति
कामवासना अणुमात्र भी शेष रहती है, तब तक वह वैसे ही बंधा
रहता है, जैसा दूध पीने वाला बछड़ा अपनी माता से बंधा रहता है।'
और
भी बात खयाल रख लेना। वह युवक सात दिन बाद मरने को है। जीवन में जो सबसे बड़ा
द्वंद्व है, वह कामवासना और मृत्यु का है। इसलिए बुद्ध का यह सूत्र बड़ा अर्थपूर्ण है,
बड़ा अर्थगर्भित है।
खयाल
करो, जन्म होता है कामवासना से। तो जन्म तो जुड़ा है कामवासना से। और अब मृत्यु
हो रही है, दूसरे छोर पर पहुंच गए हैं। तो काम और मृत्यु
विपरीत हैं। अगर तुम मरते समय भी कामवासना से भरे रहे तो तुम मृत्यु को तो देख ही
न पाओगे, नए जन्म का आयोजन कर लोगे, क्योंकि
कामवासना नया जन्म लाती है। मरते वक्त भी आदमी अगर कामवासना से भरा रहा, तो मरते वक्त भी उसकी प्रगाढ़ आकांक्षा यही है कि जल्दी से जन्म ले लूं र
जल्दी से जीवित हो जाऊं, जो—जो नहीं कर पाया फिर कर लूं। और
इस तरह बार—बार जन्म होता रहेगा, जब तक जन्म की आकांक्षा
नहीं मिट जाती। और जन्म की आकांक्षा तभी मिटेगी जब कामवासना अणुमात्र भी न रह जाए।
फिर तुम मृत्यु को सीधा देख पाओगे। फिर तुम नए जन्म के बीज न बोओगे। फिर ही आवागमन
से मुक्ति संभव है।
'शरद ऋतु के कुमुद को जिस तरह मनष्य हाथ से सहज कांट देता है, उसी तरह आत्मस्नेह को कांट डाल। सुगत बुद्ध द्वारा उपदिष्ट निर्वाण के शांतिमार्ग
को बढाता जा। '
उच्छिंद सिनेहमत्तनो
कुमुदं सारदिकं व पाणिना।
संति मग्गमेव
बूहय निब्बानं सुगतेन देतितं ।।236।।
जैसे
शरद ऋतु का कमल होता है—सुंदर, कोमल—लेकिन एक झटके में हाथ से टूट जाता है।
उसकी कोई मजबूती नहीं होती। दिखता बहुत सुंदर है, लेकिन एक
झटके में टूट जाता है। ऐसा ही बुद्ध कहते हैं, जो आदमी के
जीवन में वासना का सूत्र है, वह बड़ा कोमल है, सुंदर है, प्यारा है, मगर एक
झटके में टूट जाता है। झटका देने की हिम्मत होनी चाहिए। और मौत जब पास खड़ी हो तो
झटका देना आसान होता है। मौत जब पास खड़ी हो, तो झटका मौत ही
दे रही है, तुम जरा मौत का सहारा ले लो, तो यह कामवासना का सुंदर कमल मुर्झा जाए।
'शरद ऋतु के कुमुद को जिस तरह मनुष्य हाथ से सहज कांट देता है, उसी तरह आत्मस्नेह को कांट डाल।'
अब
यह सोचना, यह कामवासना के कारण ही हम अपने प्रेम में पड़े हैं। अपने प्रेम में हम
इसीलिए पड़े हैं कि दूसरे से प्रेम में पड़े हैं। और जब तक हमारा दूसरे से प्रेम भरा
नहीं, पूरा नहीं हुआ, हम जागे नहीं,
तब तक अपने से प्रेम जारी रहता है। स्वार्थ की सारी यात्रा दूसरे को
भोगने की यात्रा है। और बुद्ध कहते हैं—उच्छिंद सिनेहमत्तनो—यह जो स्वयं की अत्ता
से, अहंकार से, मैं, इससे जो बहुत तेरा प्रेम है, इसको उखाड़ डाल। इस
अहंकार से जो तेरा तादात्म्य है, इसको उखाड़ डाल। मौत करीब आ
रही है। अगर मौत के पहले तूने अपने अहंकार को उखाड़ डाला और अपने प्रति सारा प्रेम
छोड़ दिया, तो फिर तेरा कोई जन्म न होगा। जन्म होता है अपने
प्रति आसक्ति के कारण।
'सुगत द्वारा उपदिष्ट निर्वाण के शांतिमार्ग को बढ़ाता जा।'
उठा
कदम एक—एक! लंबी यात्रा है। लेकिन सुगत द्वारा उपदिष्ट मार्ग सुगत बुद्ध का एक नाम
है। बुद्ध को जो नाम हमने दिए हैं वे सब बड़े अपूर्व हैं। उनका एक—एक का अर्थ है।
सुगत का अर्थ होता है,
जो ठीक से गए। गत—गए, सुगत—ठीक से गए। जो इस
तरह ठीक से गए कि फिर नहीं आए; जो दुबारा नहीं आए, उनको हम सुगत कहते हैं। जो इस संसार में दुबारा नहीं आते। जो ऐसे चले जाते
हैं कि फिर आने का कोई उपाय नहीं रह जाता। जो अपने पीछे कोई सूत्र नहीं छोड़ जाते।
जिनकी कोई भी जड़ नहीं बचती। जो गए सो गए। सुगत प्यारा शब्द है। जो सुगत हो गया,
वह निर्वाण को उपलब्ध हो गया। यह बुद्ध का एक नाम है।
बुद्ध
कहते हैं, 'सुगत के द्वारा उपदिष्ट निर्वाण के शांतिमार्ग को बढ़ाता जा। ' बुद्ध कहते हैं, मैं तो चला ही गया, इसलिए मैं तुझे सजग करता हूं जगाता हूं। मैंने यह कमल आत्ममोह का तोड़ डाला
एक झटके से। और मैंने भी जब तोड़ा था तो मौत ही मेरे सामने खड़ी हुई थी। मेरी भी मौत
न थी वह, किसी दूसरे को मरा हुआ देखा था और मेरे मन में
प्रश्न उठा था कि क्या सभी को मर जाना होगा, यह आदमी मर गया!
और मेरे सारथि ने कहा था, हां, प्रभु!
सभी को मर जाना होगा। मैंने पूछा था, क्या मैं भी मर जाऊंगा?
और मेरे सारथि ने कहा था, कैसे कहूं किस मुंह
से कहूं लेकिन झूठ तो बोल भी नहीं सकता, आपको भी मर जाना
होगा। तब मैंने अपने रथ को, जो युवक—महोत्सव में भाग लेने जा
रहा था, वापस लौटा लिया था। उस रात मैं घर से भाग गया था।
क्योंकि जब मरना ही है, तो फिर क्या युवक—महोत्सव! फिर क्या
राग—रंग!
वहां
नगर के सारे युवक और युवतियां इकट्ठे हुए थे, वह वर्ष का युवकों का उत्सव था,
उस दिन रातभर पीना—पिलाना चलता था, नाच—गान
चलता था, वह लौट आए थे। वह उसी दिन बूढ़े हो गए। उसी दिन मौत
हो गयी।
तो
बुद्ध ने कहा,
मैं तो तोड़ चुका इस कमल को, बहुत सुंदर था,
लेकिन मजबूत नहीं है। जरा हिम्मत हो तो टूट जाता है। और जब मौत पास
खड़ी हो—और तेरे तो इतने पास खड़ी है, युवक! मैंने तो दूसरे की
मौत में अपनी मौत देखी थी, तेरी मौत तो बिलकुल पास खड़ी है,
तेरी ही मौत खड़ी है—तू तोड डाल इस आत्ममोह को! तू भी ठीक से गया हुआ
हो जा! तू भी ऐसा जा कि फिर न लौटे! 'यहां वर्षा ऋतु में
बर्क, यहां हेमंत में बसूंगा, यहां
ग्रीष्म में बसूंगा, मूर्ख इस प्रकार सोचता रहता है। किंतु
वह जीवन के अंतराय (विम्न) को नहीं बूझता है।
इध वस्सं वसिस्सामि
इध हमेत गिम्हसु।
इति बालो
विचिंतेति अंतरायं न बुज्झति ।।
पागल हैं, मूढ़ हैं वे, जो
सोचते हैं, ऐसा भवन बनाएंगे; वसंत में
इस भवन में रहेंगे, हेमंत में इस भवन में रहेंगे; ग्रीष्मकाल यहां बिताएंगे, शीतकाल वहा बिताएंगे,
वर्षा वहा रहेंगे; मूढ़ हैं वे लोग जो समय की
इस रेत पर भवन बनाने की सोचते हैं। इस समय की रेत पर कोई भवन कभी बन नहीं पाता,
सब भवन गिर जाते हैं। और उन्हें बनाने में जीवन व्यर्थ चला जाता है।
जिस जीवन से कुछ सार्थक मिल सकता था, वह जीवन ऐसे ही खो जाता
है। नकार होकर खो जाता है। शून्य मात्र होकर रह जाता है। संपदा बिना पाए लोग मर
जाते हैं।
और
संपदा एक ही है—सुगत हो जाना। मौत खड़ी है अंतराय बनकर, मौत
तुम्हारी किसी योजना को पूरी न होने देगी।
अंतराय
शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है,
जैनों और बौद्धों दोनों ने इस शब्द का उपयोग किया है। अंतराय का
अर्थ होता है, जो बीच में खड़ा है। जो तुम्हारी किसी योजना को
पूरी न होने देगा। तुम धन कमाओ, पहले तो कमाने न देगा,
अगर किसी तरह कमा लिया तो भोगने न देगा। कोई उपाय नहीं है धन के
द्वारा सुख पाने का, नहीं मिले तो दुख और मिल जाए तो दुख।
मृत्यु सबसे बड़ा अंतराय है। वह हर जगह खड़ा है। तुम कुछ भी करो, वह सभी चीजों को मटियामेट कर देता है। मूढ़ हैं वे, जो
जीवन में खडे अंतराय को नहीं देखते हैं।
'सोए गांव को जिस तरह बढी हुई बाढ़ बहा ले जाती है, उसी
तरह पुत्र और पशु में लिप्त पुरुष को मृत्यु ले जाती है।'
तं पुत्तपसुसंपत्तव्यासत्तमनसं
नरं।
सुतं गामं महोधोव
मच्चु आदाय गच्छति ।।
जैसे सारा गांव सोया पड़ा हो और नदी में बाढ़ आ
जाए, बड़ी बाढ़ आ जाए और सारे सोए गांव को बहाकर ले जाए, ऐसे
ही सोए हुए लोग कामवासनाओं में, इच्छाओं में, तृष्णाओं में, मृत्यु की बाढ़ में बह जाते हैं।
'सोए गांव को जिस तरह बाढ़ बहा ले जाए, ऐसे ही पुत्र,
धन, पशु में लिप्त पुरुष को मृत्यु ले जाती है।
'
जागो!
तंद्रा छोड़ो! तृष्णा छूटे तो तंद्रा छूटती है। तृष्णा की शराब ही तुम्हें बेहोश
बनाए हुए है। तुम लडूखडाकर चल रहे हो। तुम्हें समझ ही नहीं आ रहा, तुम कहा
जा रहे हो? तुम्हें समझ नहीं आ रहा, तुम
क्यों जा रहे हो? तुम रोज अपने आसपास मौत घटती देखते हो,
लेकिन तुम्हें अपनी मौत की याद नहीं आती। जब भी कोई अर्थी निकले,
खयाल रखना, तुम्हारी ही अथीं निकलती है।
'जब मृत्यु आती है तब पुत्र रक्षा नहीं कर सकते, न
पिता और न बंधु लोग ही। जब वह आती है तब जाति वाले भी रक्षक नहीं हो सकते हैं।'
न संति पुत्ता
ताणाय न पिता नापि बंधवा।
अंतकेनाधिपन्नस्स
नत्थि नातिसु ताणता ।।239।।
कोई
भी मौत में सहयोगी न होगा। बेटा बाप का सहयोग न करेगा, पत्नी पति
का सहयोग न करेगी, पति पत्नी का सहयोग न करेगा, मौत में कोई अपना नहीं। तो फिर कोई अपना हो कैसे सकता है! कहावत है कि दुख
में ही मित्र पहचाना जाता है। तो असली दुख तो एक है, मौत। और
वहा कोई मित्र सिद्ध नहीं होता, सो पहचान लिए सब मित्र! ये
सब मैत्री ऊपर—ऊपर है, ये सुख—सुविधा की बातें हैं, जब तुम मरोगे तो अकेले जाओगे, कोई साथ न जाएगा। कोई
न कहेगा कि हम साथ आते हैं, पुरानी मैत्री है, पुराना प्रेम है।
उपनिषद
कहते हैं, कोई दूसरे को थोड़े ही प्रेम करता है, लोग अपने को ही
प्रेम करते हैं। पति पत्नी को इसलिए प्रेम करता है कि पति अपने को प्रेम करता है
और पत्नी सुख देती है, सुविधा देती है। पत्नी मर जाएगी तो
पति दूसरी पत्नी का विचार करने लगेगा। क्यों मरेगा पत्नी के साथ! पत्नी के लिए
थोड़े ही कोई प्रेम था, प्रेम तो अपने लिए था; पत्नी का तो उपयोग था।
यहां
हम सब एक—दूसरे का उपयोग कर रहे हैं। कोई तुम्हारे लिए यहां नहीं जी रहा है। तुम
बिलकुल अकेले हो। जिसे यह बात समझ में आ जाती है कि मैं बिलकुल अकेला हूं यहां कोई
संगी नहीं, कोई साथी नहीं, क्योंकि मौत तो सब संगी—साथी छीन
लेगी। मौत ही जब तुम्हें अकेला कर देगी तो फिर जीवन के संग—साथ का कितना मूल्य है!
दो घडी साथ चल लिए थे, रास्ते पर संयोग से मिलना हो गया था—नदी—नाव—सयोग।
संयोग की बात थी कि तुम एक स्त्री के प्रेम में पड़ गए; संयोग
की ही बात थी कि तुम एक बस में सफर करते थे, वह स्त्री मिल
गयी; संयोग की बात थी कि तुम्हारे पड़ोस में रहती थी, संयोग की बात थी कि एक ही स्कूल में पढ़ने चले गए थे, संयोग की बात थी प्रेम हो गया, संयोग की बात थी तुम
एक—दूसरे से बंध गए और एक—दूसरे के सुख—दुख के साथी अपने को मानने लगे। एक दिन
संयोग टूट जाएगा। जैसे रास्ते पर चलते वक्त कोई मिल जाता है, दो घडी साथ चल लेते हैं, फिर रास्ते अलग हो जाते हैं।
मौत
सबके रास्ते अलग कर देती है, मौत बड़ी उदघाटक है। मौत चीजों को साफ—साफ कर
देती है। जैसी असलियत है वैसा प्रगट कर देती है। हम अकेले हैं, यहां अकेलापन मिटता ही नहीं, न प्रेम से, न मैत्री से, किसी चीज से नहीं मिटता, हम अकेले ही बने रहते हैं। हम चेष्टा कर लेते हैं मिटाने की, अकेलेपन को भुलाने की। लेकिन तुमने कभी खयाल नहीं किया! कभी तुम्हें याद
नहीं आती किसी क्षण में कि हम बिलकुल अकेले हैं! पत्नी पास बैठी है और तुम अकेले
हो। बेटा पास खेल रहा है और तुम अकेले हो। पिता पास बैठे हैं और तुम अकेले हो।
परिवार में बैठे—बैठे कभी तुम्हें यह याद आयी या नहीं कि तुम बिलकुल अकेले हो,
कौन किसका साथी है!
और
इसका यह मतलब नहीं है कि बुद्ध यह कह रहे हैं कि पत्नी का कोई दोष है कि तुम्हें साथ
नहीं दे रही है। पत्नी भी अकेली है। बुद्ध यह भी नहीं कह रहे हैं कि इसमें किसी का
दोष है। ऐसा मत करना जाकर घर कि अपनी पत्नी को कहो कि तू मुझे प्रेम नहीं करती है, मैं अकेला
हूं। अपने बेटे से कहो कि तू मुझे ठीक से प्रेम कर, क्योंकि
मैं अकेला हूं।
नहीं, वे लाख
उपाय करें तो भी तुम अकेले हो। अकेला होना नियति है। इसे बदला नहीं जा सकता। इसे
हम भुला सकते हैं, छिपा सकते हैं, मगर
इससे छुटकारे का कोई उपाय नहीं। यह स्वाभाविक है। मृत्यु इस अकेलेपन को दिखा देती
है।
बुद्ध
कहते हैं, कोई बचाएगा नहीं, कोई साथ आएगा नहीं, तो इन पर बहुत ज्यादा दारोमदार मत रखो, अभी से अकेले
हो जाओ। जो मौत करेगी, उसे तुम अपने हाथ से कर दो। फिर मौत
को कुछ भी न बचेगा तुमसे छीनने को। जो मौत छीनेगी, तुम स्वयं
दे डालो। यही त्याग का अर्थ है। जो—जो मौत छीन लेगी, तुम
स्वयं कह दो कि मेरा नहीं है। मौत छीनेगी तो अपमान होगा। तुम स्वयं दे डालो तो
सम्मान है। संसारी और संन्यासी में इतना ही फर्क है। संसारी पकडे रहता है, मौत उससे जबरदस्ती छीनती है। और संन्यासी भेंट कर देता है।
मगर
दोनों में बड़ा फर्क हो गया। जिसने भेंट किया, उस पर मौत का बस नहीं चलता। और
जिससे छीना—झपटी करनी पड़ी मौत को, उस पर बस चल जाता है। 'इस बात को समझकर पंडित और शीलवान पुरुष को निर्वाण की ओर जाने वाले मार्ग
की खोज में और सफाई में तुरंत चल देना चाहिए।'
एतमत्थावसं अत्व
पंडितो सीलसंवुतो।
निब्बान—गमनं मग्गं
खिप्पमेव विसोधये।।
बुद्ध
कहते हैं, अब तू जाता है एक लंबी यात्रा पर, अकेला रहेगा,
अभी से बीज बी डाल इस बात के कि खोजने योग्य तो निर्वाण है, कि खोजने योग्य तो अपने भीतर का अंतस्तल है, कि
खोजने योग्य तो एक ही बात है, वह बात है सब भांति जीवन की
वासना से मुक्त हो जाना, सब तृष्णा से मुक्त हो जाना। इस बात
को समझकर पंडित और शीलवान पुरुष को निर्वाण की ओर जाने वाले मार्ग की खोज में लग
जाना चाहिए और तुरंत अपने भीतर सफाई करने लगना चाहिए, ताकि
उस मार्ग के संबंध में समझ गहरी हो सके।
मार्ग
तो है, लेकिन हमारे मन साफ—सुथरे नहीं हैं, इसलिए दिखायी
नहीं पड़ता।
खिप्पमेव
विसोधये।
उसका विसोधन करना होगा, खोजना
होगा, साफ—सुथरा करना होगा। शायद जन्मों—जन्मों की तृष्णा के
कारण रास्ता टूट—फूट गया है। शायद जन्मों—जन्मों की वासना के कारण कूड़ा—करकट से
रास्ता दब गया है। शायद जन्मों—जन्मों से तुम उस अपने भीतर के मार्ग पर गए नहीं,
अवरुद्ध हो गया है, झाड़—झंखाड़ ऊग गए हैं,
उस रास्ते को साफ करना चाहिए।
ध्यान
उस रास्ते को साफ करने की विधि है। और जब रास्ता साफ हो जाता है और तुम ध्यान के
मार्ग से अपने भीतर अपने आखिरी केंद्र पर पहुंच जाते हो जिसके पार कुछ भी नहीं है, तो समाधि।
ध्यान है मार्ग, समाधि है मंजिल।
मृत्यु
को देखकर व्यक्ति को ध्यान में लग जाना चाहिए और समाधि को पाने की एक ही अभीप्सा
बचे, सब उस पर दाव लगा देना चाहिए। धन्यभागी हैं वे, जो
ध्यान की दिशा में चल पड़े, जो ध्यान की दिशा में उन्यूख हो
गए! और उनके भाग्य का तो कहना क्या, जो समाधि को उपलब्ध हो
जाते हैं!
ये
सूत्र तुमसे कहे गए हैं। ये सूत्र एक—एक तुमसे ही कहे गए हैं! यह संदर्भ तुम्हारा
संदर्भ है। खयाल रखना,
ऐसी घटना घटी या नहीं घटी, इसका कोई मूल्य
नहीं है। मेरा इतिहास में कोई रस नहीं है। ऐसी घटना घटी या नहीं घटी, कुछ पागल इसी में लगे रहते हैं। इसी फिक्र में लगे रहते हैं कि सच में ऐसा
हुआ कि एक युवक घाट पर पांच सौ बैलगाड़ियां लिए वासनाओं में उलझा था? सच में ऐसा हुआ, कब हुआ? किस
तिथि में हुआ? फिर बुद्ध ने कैसे उसके विचार पढ़े? ऐसा हुआ? ऐसा हो सकता है? फिर
सात दिन में वह समाधि को उपलब्ध हो गया, यह बात जंचती नहीं।
इतनी वासनाओं में उलझा हुआ आदमी एकदम से रूपांतरित हो गया, यह
बात हो कैसे सकती है?
बहुत
ऐसे लोग हैं जो इतिहास का विचार करते हैं, संभावना का विचार करते हैं,
वे चूक जाते। ये कथाएं इतिहास नहीं हैं, ये
कथाएं पुराण हैं। पुराण और इतिहास में फर्क है। इतिहास का मतलब होता है, जो हुआ; पुराण का अर्थ होता है, जो अभी भी हो रहा है। फर्क समझ लेना—इतिहास का मतलब है जो होकर चुक गया,
पुराण का मतलब है जो सदा हो रहा है। यह कथा पुराण है।
इस
देश में हमने इतिहास तो लिखा ही नहीं। हमने इतिहास की बहुत फिकर नहीं की। इतिहास
तो दो कौडी की बात है। इससे क्या मूल्य है कि किसी सुबह, फलां तिथि
में, सोमवार के दिन, फलां वर्ष में,
फलां संवत में, फलां व्यक्ति के साथ यह घटना
घटी या नहीं घटी? इसका कोई मूल्य नहीं है। श्रावस्ती रही हो,
न रही हो, नदी—तट रहा हो, न रहा हो; यह युवक वहां ठहरा हो, न ठहरा हो, इससे कुछ अंतर नहीं है। समय की नगरी के
तट पर हम सब ठहरे हैं। समय की धार बही जा रही है। और हम रेत पर अपने— अपने भवन
बनाने की योजनाएं कर रहे हैं।
और
सदा इस जगत में बुद्धपुरुष हैं, जो तुम्हें चेता रहे हैं, जगा रहे हैं। सदा बुद्धपुरुष हैं, जो तुम्हारे मन को
पढ़ने में समर्थ हैं। सदा बुद्धपुरुष हैं, जो तुम्हें एक ही
बात याद दिला रहे हैं कि मौत आती है, मौत आ रही है, यह मौत आ गयी, बस थोड़ी दूर और, अभी कुछ कर लो, देर तो हो चुकी है, लेकिन अभी भी कुछ कर लो तो बहुत देर नहीं हुई है।
इसे
मैं कहता हूं पुराण। पुराण का शाश्वत मूल्य है। इतिहास का कोई बड़ा मूल्य नहीं है।
इतिहास तो कभी घटता है,
मगर पुराण सदा घटता रहता है। पुराण का अर्थ है—पहले भी घटा, अभी भी घट रहा है, आगे भी घटेगा। इस पुराण का मतलब
समझ लेना। जो कभी चुकता नहीं, पुरता नहीं, पुराण। घटता ही रहता, होता ही रहता। सदा ऐसा हुआ है,
सदा ऐसा हो रहा है और सदा ऐसा होता रहेगा। इतिहास समय में घटता है,
पुराण शाश्वत की तरफ इंगित करता है।
जिस
दिन तुम इन सूत्र—संदर्भों को इस भाव में समझोगे, तुम पाओगे, ये तुम्हारे लिए सीधे—सीधे दिए गए सूत्र है—ये तुम्हारे लिए हैं। यह
तुम्हारी बीमारी का उपचार है। यह औषधि तुम्हारे लिए है।
नहीं
तो अक्सर ऐसा होता है,
किसी और को कहा बुद्ध ने, ढाई हजार साल पहले कहा
बुद्ध ने, अब तो संगत भी नहीं है। फिर किसी को कहा था,
उसके लिए संगत रहा होगा।
बुद्धपुरुष
जो कहते हैं,
वह एक गहरे अर्थ में सदा ही संगत होता है। परिस्थिति ऊपर से बदल
जाती है, भीतर से आदमी नहीं बदलता। आदमी वही का वही है—वैसा
ही रुग्ण, वैसा ही क्रुद्ध, वैसा ही
कामी, वैसा ही लोभी, वैसा ही शेखचिल्ली।
कोई फर्क नहीं हुआ। अगर बुद्ध आज फिर पैदा हों पच्चीस सौ साल के बाद, तो तुम्हें देखकर उन्हें पहचानने में जरा भी अड़चन न होगी, हालांकि तुम्हारे सामान देखकर अड़चन होगी। कार उन्होंने नहीं देखी थी,
रेडियो उन्होंने नहीं देखा था, और टेलीविजन
नहीं देखा था। तुम्हारा घर देखकर चौकेंगे, तुम्हें देखकर जरा
भी नहीं चौकेंगे।
फर्क
समझ लेना! तुम्हारा घर देखेंगे तो जरूर चौंक जाएंगे, रेडियो और टेलीविजन और
बिजली और पंखा और फ्रिज और कार और सब देखकर चौंक जाएंगे, एक—एक
चीज को पूछने लगेंगे, यह क्या है? यह
कैसे हुई? यह कब हुई? यह हो भी कैसे
सकती है! उन्होंने बैलगाड़ियां देखी थीं, हाथ से झलते पंखे
देखे थे, बिजली का कोई पता न था, फ्रिज
तो होते न थे, उन्होंने दूसरे तरह की दुनिया देखी थी। लेकिन
आदमी.. .जब वह तुम्हारी तरफ देखेंगे, तो उन्हें जरा भी
विस्मय न होगा, तुम वही के वही, वही
युवक, श्रावस्ती के बाहर ठहरा, पांच सौ
बैलगाड़ियों में सामान भरे। सोच रहा है, ऐसे महल बनाऊंगा,
ऐसी सुंदरियां पालूंगा, ऐसी—ऐसी योजनाएं,
ऐसी—ऐसी कामनाएं पूरी करूंगा। सालभर और ऐसा धंधा चल जाए, तो लखपति हो जाऊंगा।.. तुम्हें देखकर जरा भी न चौकेंगे।
निश्चित
ही वह युवक अगर सोचता तो सोचता, कब मेरे पास हजार बैलगाड़ियां हो जाएं। स्वभावत:।
तुम बैलगाड़ियों की सोचोगे ही नहीं। बैलगाड़ी की दुनिया गयी। लेकिन आदमी? आदमी वही का वही। सिक्के बदल जाते हैं, लोभ नहीं
बदला। वह युवक और तरह के सिक्के गिनता था, तुम और तरह के नोट
गिनोगे, मगर गिनने वाला मन नहीं बदला। संग्रह करने वाला मन
नहीं बदला। आदमी नहीं बदला है।
आदमी
तो बदलता ही एक चीज से है,
वह है ध्यान। समय से नहीं बदलता। समय तो घूमता चला जाता है, आदमी वही का वही, चीजें बदल जाती हैं। वासना के विषय
बदल जाते हैं, लेकिन वासना नहीं बदलती।
तुम्हें
देखकर बुद्ध को जरा भी अड़चन न होगी। तुम्हें देखकर वह तत्सण पहचान लेंगे अपने
पुराने परिचितों को। कोई भेद नहीं होगा। आदमी ठीक वैसा का वैसा है।
एक
कहावत है कि सूरज के तले कुछ भी नया नहीं। और दूसरी कहावत है कि सूरज के तले सब
कुछ नया है। दोनों कहावतें सही हैं। जहां तक बाहर की बातों का संबंध है, सूरज के
तले सब कुछ नया है, कुछ भी पुसना नहीं है। जहां तक भीतर की
बातों का संबंध है, सूरज के तले सब कुछ पुराना है, कुछ भी नया नहीं है। घर बदल गए, रास्ते बदल गए,
साज—सामग्री बदल गयी, आदमी वही का वही है।
परिस्थिति बदल गयी, मनःस्थिति वही की वही है।
इसलिए
ये जो संदेश हैं,
ये कभी भी बासे नहीं पड़ते, पुराने नहीं पड़ते।
इन्हें पुनरुज्जीवित किया जा सकता है। इनमें से फिर तुम्हारे लिए ज्योति जल सकती
है, फिर दीया प्रगट हो सकता है। इनसे तुम्हें फिर राह मिल
सकती है।
अपनी
राह खोजो इन सूत्रों के सहारे। सुगत ने ठीक ही कहा है। जो ठीक से जा चुके, वही ठीक
कह सकते हैं। जो उलझे हैं इस संसार में, वे तो जो भी कहेंगे
वह ठीक नहीं हो सकता। रुग्ण स्वयं हैं, उनका स्वयं का उपचार
नहीं हुआ। जो ठीक से इस संसार से मुक्त हो चुके हैं, जो इस
संसार पर तैर गए कमलवत, जिनका अब आने का कोई उपाय नहीं रहा
है, जिनकी आखिरी जाने की विदा आ गयी, जो
सागर के तट पर खड़े हैं और सागर में उतरने को हैं—सुगत—और फिर कभी न लौटेंगे,
उनकी बात ध्यानपूर्वक सुनना। उससे तुम्हारे जीवन में क्रांति आ सकती
है। तुम्हारा जीवन भी सांसारिक न होकर संन्यास का जीवन हो सकता है। और यह क्रांति
भीतरी है, खयाल रखना। तुम चाहे घर में रहो, दुकान में रहो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुम्हें
इतना दिखायी पड़ जाए कि इस जीवन में कुछ पाने योग्य नहीं, पाने
योग्य कहीं भीतर है। और तुम उस भीतर की शोध में लग जाओ—विसोधये।
और
यह जो मार्ग बुद्ध ने कहा—एस मग्गो विसुद्धिया
—यह
मार्ग है विसोधन का,
शुद्धि का।
आज इतना ही।
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