आपुई गई हिराय-(प्रश्नत्तोर)-ओशो
दिनांक 09-फरवरी, सन्
1981,
ओशो आश्रम, पूना।
प्रवचन-नौवां-(प्रेम अर्थात परमात्मा)
प्रश्न-सार
* है इश्क नहीं आसां, इतना तो समझ लीजे।
इक आग का दरिया है और डूब के
जाना है।।
क्या सच ही प्रेम इतना दुस्तर
है?
* आश्रम के संबंध में ऐसा
कुप्रचार क्यों है? इस कुप्रचार के कारण अनेक लोग आपके सत्य
और प्रसाद से वंचित हो रहे
हैं।
पहला प्रश्न: भगवान,
है इश्क नहीं आसां, इतना तो समझ लीजे।
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।।
क्या सच ही भगवान, प्रेम इतना दुस्तर है?
अख्तर जौनपुरी,
प्रेम
तो दुस्तर नहीं। प्रेम तो सर्वाधिक स्वाभाविक, स्वस्फूर्त घटना है। लेकिन जैसे
कोई झरने को चट्टान अटका कर बहने से रोक दे, ऐसा प्रेम भी
अहंकार की चट्टान में दब गया है। चट्टान बड़ी है। झरना कोमल है--फूल की भांति।
गुलाब के फूल को चट्टान में दबा दो तो उस फूल का विकास कठिन तो हो ही जाए। लेकिन
फूल का इसमें कसूर नहीं। दबाते हो चट्टान से और फिर कहते हो कि फूल का बढ़ना कितना
दुस्तर है। और फिर कहते हो कि झरने का बहना कितना दुर्गम है।
हटाओ
चट्टान! फिर झरने को बहाना भी नहीं पड़ता, अपने से बहता है। इसलिए
कहा--स्वस्फूर्त, सहज, स्वाभाविक।
प्रेम
तो हमारी आत्मा है। प्रेम तो हमारा स्वरूप है। प्रेम ही तो है जिससे हम बने हैं।
प्रेम ही तो है जिससे सारा जगत बना है। उस प्रेम को ही तो हमने नाम दिया है
परमात्मा का। कोई और परमात्मा नहीं है--बस प्रेम को ही दिया गया एक नाम। प्रेम ही
परमात्मा है।
और
प्रेम का दीया प्रत्येक के भीतर जल रहा है। लेकिन तुमने दीवाल उठा रखी है दीये के
चारों तरफ। इसमें बेचारा दीया करे भी तो क्या करे? दीया अंधेरे को मिटा सकता
है, दीवाल को तो नहीं मिटा सकता। दीया, कितना ही पुराना अंधकार हो, सनातन अंधकार हो,
उसे भी क्षण में तोड़ सकता है। लेकिन दीवाल को मिटाने का उपाय तो
दीये की रोशनी में नहीं है। और तुम दीवाल को देखते नहीं। शायद देख लो तो फिर दीवाल
को बनाओ भी न। क्योंकि कोई और दीवाल को नहीं बनाता है, कोई
और चट्टान को नहीं रखता है। यह तुम ही हो जो एक तरफ प्रेम की गुहार मचाते हो और एक
तरफ प्रेम की रुकावटें खड़ी करते हो। यह तुम्हीं हो। एक हाथ से करते हो, तुम्हारे दूसरे हाथ को पता भी नहीं चलता। इतनी मूर्च्छा है, इतनी बेहोशी है।
पूछा
तुमने, अख्तर जौनपुरी: "है इश्क नहीं आसां, इतना तो
समझ लीजे।
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।।'
जरूर
आग का दरिया है और जरूर किसी को इस दरिये में डूब जाना है। लेकिन वह तुम नहीं हो। तुम्हें तो कोई आग जला न सकेगी। नैनं
दहति पावकः। तुम्हें तो कोई तीर छेद न सकेगा। तुम्हें तो कोई तलवार काट न सकेगी।
नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि। लेकिन हां, इस आग के दरिया में अहंकार जलेगा,
तड़फेगा, मछली की तरह तड़फेगा। जैसे कि कोई मछली
को फेंक दे जलती हुई रेत पर, अंगारों पर, यूं तड़फेगा। और अगर तुमने अहंकार को ही अपनी आत्मा समझा है तो फिर तुम भी
तड़फोगे। वह तादात्म्य फिर तुम्हें भी नरक दिखला देगा।
माना
कि एक आग का दरिया है और डूब कर जाना है, मगर किसको डूबना है? तुम्हें नहीं। तुम्हें तो कोई डुबाना चाहे तो भी नहीं डुबा सकता। मृत्यु
नहीं डुबा सकती, आग क्या डुबाएगी? तुम्हारा
डूबना संभव ही नहीं है। तुम शाश्वत हो। अमृतस्य पुत्रः! तुम तो अमृत के पुत्र हो।
तुम पहले भी थे इस जन्म के और मृत्यु के बाद भी तुम रहोगे। तुम सदा से हो। ऐसा कभी
न था जब तुम न थे। ऐसा कभी न होगा जब तुम न होओगे। तुम्हारा कोई डूबना नहीं है।
मगर हां, कुछ तो डूबेगा--जो तुममें झूठ है, जो तुममें असत्य है, जो तुममें तुम्हारा ही निर्मित
है, वह तो डूबेगा। अहंकार डूबेगा। और अहंकार के साथ वह सजावट
भी डूबेगी जो तुमने अहंकार के चारों तरफ कर रखी है। अहंकार को सजाना होता है,
क्योंकि अहंकार कुरूप है।
ध्यान
रहे, सिर्फ कुरूप व्यक्ति ही सजते हैं, संवरते हैं।
सौंदर्य तो नग्न हो तो भी सुंदर होता है। लेकिन कुरूपता नग्न खड़ी नहीं हो सकती।
कुरूपता को तो सजना होगा, संवरना होगा। कुरूपता को तो
जगह-जगह से ढांकना होगा, रंग-रोगन पोतना होगा, आभूषण पहनने होंगे, घूंघट मारना होगा। यह सब कुरूपता
के कारण है। घूंघट की ईजाद कुरूप स्त्रियों ने की होगी। या उन पुरुषों ने की होगी
जिनकी स्त्रियां कुरूप थीं। घूंघट सौंदर्य की ईजाद नहीं है। और फिर समझाया
होगा--लज्जा, शील, अच्छी-अच्छी
प्यारी-प्यारी बातें। और प्यारी-प्यारी अच्छी-अच्छी बातों के भीतर जहर है, और कुछ भी नहीं।
अहंकार
नग्न खड़ा हो तो तुम उससे अभी छूट जाओ। लेकिन उस पर सोने की पर्तें चढ़ी हैं। उस पर
हीरों का ताज। और हीरे भी ऐसे कि सदियों-सदियों से उन्हें तुमने हीरा माना है।
इसलिए आज एकदम से पत्थर मानना मुश्किल हो जाता है। इसलिए आसान नहीं मालूम होता
प्रेम, क्योंकि अहंकार को छोड़ना आसान नहीं मालूम होता।
किस-किस
भांति अहंकार अपने को सजाता है, इसे जरा देखो। जरा पन्ने पलटो अहंकार की किताब
के। कोई कहता है मैं हिंदू हूं। कोई कहता है मैं मुसलमान हूं। कोई कहता है मैं जैन
हूं। कोई कहता है मैं सिक्ख हूं। कोई कहता है मैं ईसाई हूं।
तुम्हें
सत्य का पता नहीं,
पहचान नहीं, प्रत्यभिज्ञा नहीं। कैसे तुम
हिंदू हुए? कैसे तुम ईसाई हुए? कैसे
तुमने जाना कि क्राइस्ट सही, कि कृष्ण सही, कि कनफ्यूशियस सही? कैसे तुमने पहचाना कि मोहम्मद
सही, कि मूसा सही, कि महावीर सही?
कैसे, किस आधार पर, किस
कसौटी पर तुमने परखा कि ईश्वर है या नहीं है? तुम कैसे
नास्तिक हो गए, कैसे आस्तिक हो गए? सब
बासी और उधार बातें। और मजा यह है कि जो भूल तुम्हें अपने में नहीं दिखाई पड़ती वह
दूसरे में तत्क्षण दिखाई पड़ जाती है; न हो तो भी दिखाई पड़
जाती है।
तीन
सरदारों ने एक प्रश्न पूछा है। आमतौर से एक ही आदमी एक प्रश्न पूछता है। लेकिन तीन
सरदारों ने बहुत माथापच्ची की होगी, तब एक प्रश्न बना पाए। और प्रश्न
भी क्या गजब का पूछा है। बड़ी मेहनत से पूछा है। पसीना बह गया होगा। डंड-बैठक लगाए
होंगे। प्रश्न पूछा है कि यहां इतने पहरेदार हैं, क्या इससे
सिद्ध नहीं होता कि आप मृत्यु से डरते हैं?
सरदार
होकर और ऐसी बात पूछते हो! तो ये गुरु गोविंद सिंह जो तलवार लटकाए रहते हैं, किसलिए?
मृत्यु से डरते होंगे, इसीलिए! नहीं तो गुरु
गोविंद सिंह तलवार किसलिए लटकाए हुए हैं? तलवार काहे के लिए
रखी है? तलवार से कोई चटनी बनाते हैं कि सब्जी काटते हैं?
कि कच्छा में धागा पिरोते हैं, कि केश संवारते
हैं? क्या करते हैं तलवार से?
सरदार
होकर, जिनके कि धर्म के पांच अंगों में कृपाण एक है। पांच ककार चाहिए, तब कहीं कोई सरदार हो पाता है। कच्छा चाहिए! क्या बात कही! केश चाहिए,
कंघी चाहिए, कृपाण चाहिए, कड़ा चाहिए। कृपाण किसलिए?
यहां
जो पहरेदार हैं वे मेरी मृत्यु को नहीं रोक सकेंगे। कौन किसकी मृत्यु को रोक सकता
है! आज तक कभी किसी की मृत्यु रोकी जा सकी है? लेकिन किसी मूर्खानंद को मूर्खता
करने से रोक सकेंगे। मेरी मृत्यु को नहीं रोक सकेंगे। मेरी मृत्यु को तो देख भी
नहीं सकेंगे, रोकेंगे कैसे?
महात्मा
गांधी की हत्या हुई। हत्या के पहले सरदार पटेल ने उनसे पूछा था। एक तो पूछा, यही
बेईमानी की बात है। सरदार के मन में कहीं न कहीं कुछ बेईमानी थी। पूछने की कोई बात
है? यूं पूछा जाता है? अगर किसी के घर
में कोई आग लगाने आ रहा हो, तो क्या पुलिस को जाकर पूछना
चाहिए कि भाई, खबर मिली है कि तुम्हारे घर में लोग आग
लगाएंगे, तो हम पहरा बिठा दें कि न बिठाएं? जैसी तुम्हारी मर्जी! अगर घर में कोई आग लगाने आ रहा है तो घर के लोग अगर
मना भी करें तो भी पहरा बिठालना चाहिए। घर के लोगों से पूछने का सवाल ही नहीं
उठता। यह घर बचाने का ही सवाल तो नहीं है। आग लगाने वाले जो मूर्खता करने जा रहे
हैं उनको रोकने का भी तो सवाल है। ज्यादा महत्वपूर्ण तो वही है। शायद इस तरह तुमने
कभी सोचा न होगा। महात्मा गांधी को जाकर सरदार वल्लभ भाई पटेल ने पूछा--क्योंकि वे
गृहमंत्री थे, यह उनकी जिम्मेवारी थी--कि आपके जीवन को खतरा
है, इस तरह की खबरें मिल रही हैं, तो
हम इंतजाम करें?
यह कोई पूछने की बात है? जाहिर है
कि पूछने में ही यह छिपा था कि महात्मा गांधी तो कहेंगे: नहीं, इंतजाम नहीं। महात्मा गांधी ने कहा कि क्या इंतजाम की जरूरत है! जब
परमात्मा मुझे उठाना चाहेगा तो उठा लेगा।
लेकिन
यह बात भी ईमानदारी से भरी हुई नहीं। न तो महात्मा गांधी ईमानदारी की बात कर रहे
हैं, न सरदार वल्लभ भाई पटेल ईमानदारी की बात कर रहे हैं। क्योंकि अगर महात्मा
गांधी सच में ही ईमानदारी से ऐसा अनुभव करते हैं कि जब परमात्मा उठाना चाहेगा तो
मुझे उठा लेगा, तो फिर सरदार वल्लभ भाई पटेल को भी रोकने की
जरूरत नहीं। परमात्मा किसी से उठवाना चाहेगा और किसी से बचवाना चाहेगा। तो एक को
रोकना और एक को नहीं रोकना, यह तो बेईमानी हो जाएगी।
मुझसे
अगर सरदार वल्लभ भाई पटेल पूछते, तो मैं कहता, ठीक। न मैं
उसको रोक सकता हूं जो मुझे उठाना चाहता है, न तुमको रोक सकता
हूं जो मुझे बचाना चाहता है। उठाने वाले को उठाने दो, बचाने
वाले को बचाने दो। जो जिसकी मौज है वह करे। मेरी जो मौज है मैं कर रहा हूं।
लेकिन
महात्मा गांधी ने कहा कि मुझे जब परमात्मा उठाना चाहेगा तो कोई नहीं रोक सकता।
इसलिए इंतजाम की कोई जरूरत नहीं है। ध्यान रहे कि इंतजाम न किया जाए।
इतना
आग्रह कि इंतजाम न किया जाए, यह किस बात का सबूत है?
यह
आग्रह खतरनाक साबित हुआ। और इसका खतरा सिर्फ यही नहीं हुआ कि महात्मा गांधी की
हत्या हुई; इसका खतरा यह भी हुआ कि बेचारा नाथूराम गोडसे भी फांसी लटका। यह गरीब
मुफ्त मारा गया। इसकी भी तो कुछ फिक्र करो। तुमको भगवान उठाना चाहता है यह तो ठीक
है, मगर यह नाथूराम को! यह पूनावासी नाथूराम! यह तो बच जाता।
कम से कम इस पर तो दया करते। तुम्हें जाना था, जाते।
ये
यहां जो पहरेदार हैं,
नाथूरामों को रोकने के लिए हैं। मेरी मृत्यु को कौन रोक सकता है?
जब होनी होगी हो जाएगी। और मेरी मृत्यु मेरी मृत्यु कहां है?
शरीर और मेरा संबंध किसी न किसी दिन टूटेगा। लेकिन किसी नाथूराम के
द्वारा तुड़वाना, तो फिर यह नाथूराम मुश्किल में पड़ेगा। इस पर
भी तो कुछ दया करते। महात्मा गांधी ने अपना महात्मापन तो बचा लिया, नाथूराम को फांसी लगवा दी। यह हिंसा हो गई। यह हिंसा रोकी जा सकती थी।
और
सरदार पटेल एकदम राजी हो गए। ऐसे राजी हो गए जैसे जीवन भर महात्मा गांधी ने जो कहा
हो सबको मानते ही रहे हों। उसमें से एक बात और नहीं मानी कोई, मगर यह
बात मान ली। कहीं भीतर अचेतन में इनके भी हत्यारा छिपा हुआ है। सात दिन पहले ही
महात्मा गांधी की हत्या के, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की लखनऊ में हुई रैली में, बड़ी
प्रशंसा की थी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की। सात दिन पहले ही! कि इस देश में ऐसी
कोई अनुशासनबद्ध, राष्ट्रभक्ति से भरी हुई दूसरी संस्था नहीं
है। और यही लोग थे जो निरंतर कोशिश कर रहे थे। यह सात दिन पहले भी कोशिश चल रही थी,
सात महीने पहले भी कोशिश चल रही थी कि गांधी को हटा देना है। और
इन्हीं लोगों में से एक ने गांधी को मारा भी।
और
सरदार पटेल ने फिर इंतजाम नहीं किया--कि जब गांधी कहते हैं कि इंतजाम नहीं करना, तो उनकी
आज्ञा का कैसे उल्लंघन करना!
गांधी
तो कहते थे, भारत को भी नहीं बंटने देना है। आज्ञा का कैसे उल्लंघन कर दिया? गांधी तो कहते थे, मेरी लाश पर भारत बंटेगा। मगर
भारत बंट गया। जिन्हें बांटना था उन्होंने बांट लिया। एक बात समझ में आ गई भारत के
राजनेताओं को कि बिना बंटे हम दोनों ही, जिन्ना भी, नेहरू भी, पटेल भी, सभी
सत्ताहीन रह जाएंगे। बंटवारे से ही सत्ता मिल सकती है। इसलिए बंटता हो तो बंट जाए,
मगर सत्ता नहीं छोड़ी जा सकती।
यह
बात मान ली। और तो कोई बात मानी नहीं कभी। अचेतन मन!
अब
ये तीन सरदारों को एक ही प्रश्न उठा यहां आकर--कि यहां इतने पहरेदार! और इन्होंने
कभी प्रश्न न उठाया होगा कि यह कृपाण लिए सरदार क्यों घूम रहे हैं? गुरु
गोविंद सिंह कृपाण किसलिए लिए हुए घोड़े पर चढ़े हुए हैं? घोड़े
ने इनका क्या बिगाड़ा? और ये कृपाण को...काहे को बोझ ढो रहे
हैं? किसलिए, क्या प्रयोजन है?
नहीं, यह बड़े
मजे की बात है कि अपनी आंख में पहाड़ भी पड़ा हो तो दिखाई नहीं पड़ता। और दूसरे की
आंख में किरकिरी भी पड़ी हो तो दिखाई पड़ती है; न भी पड़ी हो तो
भी दिखाई पड़ जाती है।
यह
तो तुम्हें दिखाई पड़ता है,
अख्तर जौनपुरी, कि प्रेम बहुत कठिन है।
"है इश्क नहीं आसां, इतना तो समझ लीजे!'
मैं
नहीं समझूंगा। क्योंकि मैंने तो प्रेम को अत्यंत सरल पाया, सुगम
पाया। इससे ज्यादा सरल और सुगम तो कुछ भी नहीं है। मगर कठिन कोई और बात है,
जिसको कि तुम छिपा रहे हो, जो तुम्हें दिखाई
भी शायद न पड़ रही हो, या जिसे तुम देखना नहीं चाहते। अहंकार
छोड़ना कठिन है। और अहंकार न छोड़ो तो प्रेम असंभव है; कठिन ही
नहीं, असंभव। हो ही नहीं सकता। अहंकार को लेकिन तुम सजाए हो।
हिंदू के वस्त्र पहनाए, राम-नाम की चदरिया ओढ़ा दी, तो अहंकार भी ऐसा लगता है कि कोई महात्मा बैठे हुए हैं। राम-नाम की चदरिया
ओढ़े अहंकार बैठ जाता है तो महात्मा हो जाता है। कोका-कोला पर भी राम-नाम की चदरिया
ओढ़ा दो तो गंगाजल हो जाता है एकदम। राम-नाम की चदरिया चाहिए।
और
फिर अहंकार कैसे-कैसे रूप रखता है! फिर दावा करता है कि हिंदू धर्म सबसे प्राचीन
धर्म। सबसे महान धर्म! भारत-भूमि पुण्य-भूमि! यहां देवता पैदा होने को तरसते हैं!
मैं
कई बार सोचता हूं कि देवता यहां किसलिए पैदा होने को तरसते हैं? यहां क्या
है जिसके लिए देवता पैदा होने के लिए तरसते हैं? सच तो बात
उलटी ही मालूम पड़ती है। क्योंकि महावीर, बुद्ध, नागार्जुन, कुंदकुंद, उमास्वाति,
यह जो परंपरा है जाग्रत पुरुषों की, ये सब तो
तड़पते हैं कि किस तरह आवागमन से छुटकारा हो। इस देश में ही आवागमन से छुटकारे की
धारणा पैदा हुई। इस देश में हर आदमी आवागमन से छुटकारा चाहता है। तो देवता काहे के
लिए आवागमन करना चाहते हैं? क्योंकि जिनको हमने यहां दिव्य
पुरुष माना है--महावीर को और बुद्ध को--ये सब तो यहां से छुटकारा चाहते हैं। ये तो
कहते हैं कि जितनी जल्दी छुटकारा हो जाए उतना अच्छा। फिर दुबारा देह में न आना
पड़े। फिर दुबारा जन्म न लेना पड़े। यह भवसागर, यह तो दारुण
पीड़ा है। इसके पार जाना है। देवता किसलिए तरस रहे हैं? उनको
पीड़ा में आना है? उनको नरक में पैदा होना है?
नहीं, लेकिन
हिंदू अहंकार सब तरह से अपने को सजाएगा। भारत-भूमि पुण्य-भूमि! भारत देश धार्मिक!
भारत का धर्म सबसे पुराना धर्म!
और
वही पागलपन जैनों को है,
वही बौद्धों को है, वही ईसाइयों को है,
वही मुसलमानों को है, वही सिक्खों को है,
वही पारसियों को है, सभी को वही पागलपन
है--हमारा धर्म श्रेष्ठतम! लेकिन सच यह है कि हमारा धर्म श्रेष्ठतम, इसकी आड़ में वे यह कहना चाह रहे हैं कि मैं श्रेष्ठ। ये सब अहंकार की
सजावटें हैं। ये नक्काशियां हैं अहंकार के चारों तरफ। ये प्यारे-प्यारे रंगीन
पर्दे हैं जिनमें कुरूप अहंकार को छिपाया जाता है--मेरा देश महान, मेरी जाति महान, मेरा वर्ण महान! किसी भी तरह से मैं
महान। इन सबकी आड़ में मेरी महानता सिद्ध होनी चाहिए! अगर दरिद्र भी हो तुम तो
दरिद्रता भी फिर महान हो जाती है, दीनता भी महान हो जाती है।
फिर तुम दरिद्रनारायण हो। अगर अछूत हो, तो अछूत कहने में
कष्ट होता है अहंकार को। तो तुम्हें महात्मा गांधी जैसे लोग मिल जाते हैं, जो कहते हैं--अछूत? नहीं-नहीं, हरिजन!
और
कैसी तृप्ति मिलती है हरिजन शब्द सुन कर!
कहां
तो परिभाषा थी हरिजन की--नरसिंह मेहता ने कहा--हरिजन तो तेने कहिए, जे पीड़
परायी जाने रे। यह तो परिभाषा थी संतों की, कि हरिजन तो उसको
कहो जो दूसरे की पीड़ा को जाने; जो दूसरे की पीड़ा को यूं
अनुभव करे जैसे अपनी पीड़ा है। हरिजन तो तेने कहिए! और कहां महात्मा गांधी
हैं--बाबू जगजीवन राम हरिजन! इन्होंने किसकी पीड़ा जानी? इन्होंने
कौन सी पीड़ा जानी? इनमें क्या हरिजन जैसा है?
अछूतों
को हरिजन कह देना,
हरिजनों के अहंकार को बल दे देना है। अछूत ही कहो! क्योंकि अछूत का
उन्हें अहसास बना रहे तो आज नहीं कल वे ब्राह्मणों के जाल से मुक्त हो जाएंगे। मगर
उनको हरिजन कह दो, तो तुमने जंजीर को आभूषण बना दिया। तुमने
जंजीर पर सोना और चांदी चढ़ा दी। तुमने जंजीर को सौंदर्य दे दिया। अब वे खुद ही
जंजीर को पकड़ेंगे, छोड़ना न चाहेंगे। हरिजन होने से कौन छूटना
चाहेगा? यह तो ब्राह्मण का पर्यायवाची हो गया। ब्राह्मण का
अर्थ था--जो ब्रह्म को जाने। और हरिजन का अर्थ है--उससे भी ऊपर, जो हरि का प्यारा है। अरे जानना-वानना छोड़ो! तुमने भला ब्रह्म को जान लिया
हो, लेकिन ब्रह्म तुम्हें प्रेम करता है कि नहीं, सवाल यह है। तुम्हारे जान लेने से ही प्रेम करेगा, यह
कुछ पक्का तो नहीं। और ठीक-ठीक जान लो तो शायद कभी भूल कर भी प्रेम न करे; भाग ही खड़ा हो कि यह जानकार आ रहा है। इससे बचो, सावधान
रहो।
हरिजन
तो ब्राह्मण से भी ऊंचा शब्द है। ब्राह्मण तो उसको कहते हैं जिसने ब्रह्म को जाना।
और हरिजन उसको कहते हैं जिसको ब्रह्म ने जाना। किसको तुम ऊंचा कहोगे? जाना ही
नहीं, माना भी, प्रेम भी किया। कैसा
अच्छा शब्द चुन लिया! गंदगी को छिपाने के भी कैसे-कैसे प्यारे रास्ते लोग खोज लेते
हैं। हरिजन मस्त हो गया, आनंदित हो गया, आह्लादित हो गया।
हजारों
तरकीबों से आदमी ने अपने अहंकार को बचाया है, आज भी बचा रहा है, सब तरह से बचाता है। चमड़ी का रंग अहंकार बन जाता है। अगर चमड़ी गोरी है तो
श्रेष्ठ; अगर चमड़ी काली है तो श्रेष्ठ नहीं। काली चमड़ी वालों
को भी यही खयाल है कि चमड़ी काली है तो श्रेष्ठ; चमड़ी गोरी है
तो वे गोरा नहीं कहते। अफ्रीका में अंग्रेज को गोरा नहीं कहते हैं, पीला कहते हैं। ये चले आ रहे हैं पीलिया के मरीज! गोरा तो कह ही कैसे सकते
हैं? पीलिया के मरीज! रक्त की कमी है। काला आदमी भी अपने
कालेपन का गौरव मानता है। गोरा आदमी अपने गोरेपन का गौरव मानता है। हर देश में एक
सी मूढ़ता है। हर जाति में एक सा पागलपन है, एक सी
विक्षिप्तता है। मगर सारी विक्षिप्तता का सूत्र एक ही है।
धनी
धन के कारण अकड़ता है,
कि मेरे पास इतना धन है। और गरीब इसलिए अकड़ता है कि जीसस ने कहा है:
धन्य हैं दरिद्र, धन्यभागी हैं, क्योंकि
प्रभु का राज्य उन्हीं का होगा! जो दरिद्र हैं वे प्रभु के बेटे हैं! दरिद्रों को
स्वर्ग मिलेगा और धनियों को नर्क।
तो
दरिद्र भी अपने चारों तरफ इश्तहार लटका लेता है कि कोई बात नहीं। कोई बात नहीं, दो दिन की
मालकियत है, कर लो। दो दिन उछल-कूद कर लो। फिर नरक में
पड़ोगे। और कोई बात नहीं, दो दिन की तकलीफ है, हम झेल लें। यह तो तपश्चर्या है। यह तो सादगी है। सादा जीवन, उच्च विचार! तो हम सादा जीवन जी रहे हैं, ऊंचे विचार
कर रहे हैं। भूखे हैं, कोई बात नहीं, मगर
विचार ऊंचे कर रहे हैं। ऊंचे विचार यही हैं कि जल्दी ही, आज
नहीं कल, स्वर्ग में पहुंचेंगे। ऊंचे विचार यानी ऊपर के
विचार। और क्या खाक भूख में ऊंचे विचार करोगे! कि कल्पवृक्ष के नीचे बैठेंगे और
मजा-मौज करेंगे। अरे गुजार लो, दो दिन की तकलीफ है। इतने दिन
तो गुजर ही गए। चार दिन की तो जिंदगी ही है; यूं गई, यूं गई! जल्दी ही कल्पवृक्ष मिलेगा, और फिर हलुआ-पूड़ी।
फिर तो कल्पवृक्ष के नीचे बिछा कर शय्या, जैसे कि विष्णु
भगवान क्षीरसागर में बिछाए शय्या, शेषनाग पर लेटे हुए हैं।
और लक्ष्मी मैया उनके पैर दबा रही हैं। ऐसे ही कल्पवृक्ष के नीचे लेटेंगे। कोई पैर
दबाएगा, कोई बांसुरी बजाएगा, कोई लोरी
गाएगा। सब तरह का मजा करेंगे। ऊंचे विचार!
आदमी
हर हाल में अपने अहंकार को बचा लेना चाहता है। शास्त्रों का गुणगान करता है कि वेद
सबसे पुराने,
कि गीता से ज्यादा और पवित्र कोई ग्रंथ नहीं, कि
कुरान स्वयं परमात्मा से उतरी, परमात्मा की किताब, कि बाइबिल स्वयं पैगंबरों ने लिखी, और जिन-सूत्र
स्वयं तीर्थंकरों ने कहे। यह कोई साधारण आदमियों की बातचीत नहीं है। ये अपौरुषेय
ग्रंथ हैं। इन पर परमात्मा के हस्ताक्षर हैं। ये अधिकृत हैं।
अपने
अहंकार को तुम कितनी सीलें लगाते हो! अधिकृत! कौन अधिकार देता है? क्या
प्रमाण है कि कुरान ईश्वर की किताब है? कुरान के अतिरिक्त
कहीं और कोई प्रमाण नहीं।
यह
तो यूं हुआ जैसे मुल्ला नसरुद्दीन ने एक दिन बाजार में जाकर कहा कि मेरी स्त्री से
ज्यादा सुंदर स्त्री दुनिया में कोई भी नहीं।
लोग
थोड़े चौंके। पूछा,
इसका प्रमाण क्या?
उसने
कहा, प्रमाण की जरूरत ही क्या है? मेरी स्त्री ने खुद कहा
है। और क्या प्रमाण चाहिए? जब मेरी स्त्री खुद कह रही है तो
पर्याप्त प्रमाण है। गवाही उसी की है, उसी ने कहा है कि उससे
ज्यादा सुंदर इस पृथ्वी पर कोई नहीं है।
गीता
ईश्वरीय है, इसका प्रमाण क्या है? गीता के भीतर ही प्रमाण है,
कि कृष्ण अपने को पूर्णावतार घोषित कर रहे हैं। तो गीता अधिकृत
ग्रंथ हो गया। बाइबिल ईश्वरीय है, इसका प्रमाण क्या है?
जीसस अपने को ईश्वर का बेटा कह रहे हैं। बाइबिल के भीतर ही प्रमाण
है। बाइबिल के बाहर तो कोई प्रमाण नहीं है। यही प्रमाण है कि लोगों ने जीसस को
सूली दे दी। तीर्थंकरों के वचनों में ही प्रमाण हैं कि ये वचन अपौरुषेय हैं। वेदों
में ही प्रमाण हैं कि ये वेद अपौरुषेय हैं, ईश्वर ने बनाए
हैं। हालांकि बात बिलकुल बेहूदी जंचती है। मगर अदभुत है। हजारों साल से यह देश मान
रहा है कि वेद अपौरुषेय हैं। और कभी तुम वेद के पन्ने तो उलट कर देखो, कहीं से भी पन्ने उलट कर देखो, तुमको साफ हो जाएगा
कि एक बात तो तय है कि किसी ने भी रचे हों, ईश्वर ने नहीं
रचे हैं। क्योंकि जो प्रार्थनाएं उसमें लिखी हैं वे ईश्वर करेगा?
वेद
में प्रार्थना आती है कि हे इंद्र देवता! यह ईश्वर लिखेगा? कि हे
इंद्र देवता, मेरी गऊ का दूध बढ़ा दे! कि हे इंद्र देवता,
अच्छी वर्षा करना कि मेरे खेत में खूब फसल हो! कि हे इंद्र देवता,
मैं तुझे सोमरस पिलाऊंगा, यज्ञ करूंगा,
हवन करूंगा, पुरोहितों को दान करूंगा, तेरी स्तुति में गान करूंगा; मेरे दुश्मनों को मार
डाल! यह ईश्वर लिखेगा? अंधा भी कह सकता है, मूढ़ से मूढ़ आदमी भी कह सकता है कि यह ईश्वर लिखेगा? और
निन्यानबे प्रतिशत वेद के वचन यही हैं--इसी तरह की प्रार्थनाएं--कि मुझे धन मिले,
मुझे धान्य मिले, मुझे सुंदर स्त्री मिले,
मेरी पत्नी को सुंदर पुत्र पैदा हों, मैं सौ
साल जीऊं! यह ईश्वर कहेगा--सौ साल जीऊं? फिर सौ साल के बाद?
तो ईश्वर कभी का मर चुका होगा। और ईश्वर के कैसे बेटे? और इसको बेटे नहीं हो रहे? और ये इंद्र देवता क्या
ईश्वर से ऊपर हैं, जिनसे यह प्रार्थना कर रहा है?
लेकिन
अदभुत है आदमी का अहंकार। आंख बंद करके माने चला जाता है, चुपचाप।
जो भी अहंकार को सुखद मालूम पड़ता है उसमें कभी भी तर्क नहीं उठाता, संदेह नहीं उठाता।
पहला
संदेह तुम्हें उठाना चाहिए,
अख्तर जौनपुरी, कि क्यों यह प्रेम इतना दुस्तर
मालूम होता है? यह प्रेम के कारण या कोई और बात है?
हिंदू
होकर तुम प्रेम नहीं कर सकते। भारतीय होकर तुम प्रेम नहीं कर सकते, चीनी होकर
तुम प्रेम नहीं कर सकते। गोरे और काले होकर तुम प्रेम नहीं कर सकते। ब्राह्मण और
शूद्र होकर तुम प्रेम नहीं कर सकते। अगर प्रेम करना हो तो ये सारे अहंकार छोड़ देने
होंगे। छील डालना होगा एक-एक अहंकार की पर्त को। जैसे कोई प्याज को छीलता है:
एक-एक पर्त निकालता जाता है, निकालता जाता है, निकालता जाता है। पर्त के भीतर पर्त है। और आखिर में जब कुछ भी न बचे,
हाथ में शून्य रह जाए, प्याज खो जाए और शून्य
रह जाए। अहंकार खो जाए और शून्य रह जाए, तब तुम अचानक
पाओगे--फूट पड़ा झरना। कुछ करना नहीं, कुछ करने का सवाल ही
नहीं। जैसे ही तुम्हारे भीतर अहंकार गया, शून्य हुआ, पत्थर हटा और जगह बनी कि झरना फूट पड़ता है। झरना तैयार है, तत्पर है, प्रतिपल उत्सुक है कि हटाओ अहंकार और मैं
बहूं। सदियों से राह देख रहा है। मगर तुम हो कि अहंकार को और बड़ा करते चले जाते
हो। और नये पत्थर जोड़ते चले जाते हो। और नई ईंटें, और नई
सीमेंट, और नया-नया खोजते चले जाते हो। तुम्हारे अहंकार का
विस्तार इतना हो जाता है कि अगर ये गुलाब के फूल जैसा नाजुक प्रेम दब कर मर जाता
हो तो कुछ आश्चर्य नहीं।
खलील
जिब्रान का एक प्रसिद्ध वचन है, बहुत प्यारा वचन है, और
उलटबांसी जैसा मालूम होगा। खलील जिब्रान ने कहा है: जो तुममें सबसे क्षणिक,
सबसे कमजोर और अव्यवस्थित है, वही तुममें सबसे
दृढ़, सबल और व्यवस्थित भी है।
फिर
से दोहरा दूं: जो तुममें सबसे ज्यादा क्षणिक, सबसे ज्यादा कमजोर, नाजुक और सबसे ज्यादा अव्यवस्थित है, वही तुममें
सबसे दृढ़, सबल और व्यवस्थित भी है।
क्या
है तुम्हारे भीतर सबसे ज्यादा क्षणिक? प्रेम। क्यों? गुलाब का फूल तो क्षणिक ही होगा, प्लास्टिक के फूल
ही स्थिर हो सकते हैं। प्लास्टिक के फूल ही सनातनधर्मी हो सकते हैं। असली फूल तो
अभी खिला, अभी झरा। असली फूल तो सुबह खिला, सांझ गया। अभी था, अभी नहीं। सत्य तो क्षण के
अतिरिक्त और किसी अस्तित्व को नहीं जानता है।
इसलिए
बुद्ध ने अपने को क्षणिकवादी कहा है। हालांकि भारत में उनके क्षणिकवाद की बहुत
निंदा हुई। क्योंकि हम तो टिकाऊ चीजों में भरोसा करते हैं। अरे हम तो दो पैसे की
भी हंडी खरीदने जाते हैं तो चारों तरफ से ठोंक-बजा कर लेते हैं--कि कहीं फूटी न हो, कहीं
कच्ची न हो। दो पैसे की हंडी भी इतनी ठोंकते-बजाते हो! व्यवसायी का चित्त है,
हिसाब लगा कर चलता है।
बुद्ध
ने बड़ी अजीब बात कही। बुद्ध ने कहा कि मैं क्षणिकवादी हूं। क्योंकि क्षण के
अतिरिक्त अस्तित्व किसी और समय को नहीं जानता। बाकी सब तुम्हारी या तो कल्पना है
या तुम्हारी स्मृति है। अतीत तुम्हारी स्मृति, भविष्य तुम्हारी कल्पना। जो है,
जिसका अस्तित्व है, वह तो क्षण है। जैसे
विज्ञान इस नतीजे पर पहुंचा है कि जिसका अस्तित्व है, वह तो
परमाणु है, बाकी सब तो भ्रांति है। ऐसे ही बुद्ध ने कहा है
कि समय का जो सबसे छोटा हिस्सा है, परमाणु, क्षण--क्षण का विभाजन नहीं हो सकता--अविभाज्य, जो
समय का सबसे छोटा हिस्सा है, वही सत्य है। और जो क्षण में
जीना जान गया उसने सत्य में जीना जान लिया।
अहंकार
टिकाऊ होना चाहता है। अहंकार कहता है--टिकूं। अहंकार बचना चाहता है, जितनी देर
बच सके बचे। क्योंकि अहंकार सदा ही मृत्यु से घिरा हुआ है। अहंकार को डर है मरने
का। मरने का डर इसलिए है कि अहंकार बुनियादी रूप से झूठ है; हमारी
बनावट है, कृत्रिम है, इसलिए बिखरने का
डर है। चाहे तुम महल पत्थरों के ही क्यों न बनाओ, मजबूत से
मजबूत पत्थरों के, तो भी बिखर जाएंगे। कितना ही मजबूत अहंकार
हो, आज नहीं कल टूटेगा, खंडहर हो
जाएगा। इसलिए अहंकार हमेशा टिकना चाहता है, टिकाऊ होना चाहता
है, फौलाद का होना चाहता है। और प्रेम तो गुलाब है, फौलाद नहीं। अस्तित्व प्रेम को जानता है, अहंकार को
नहीं जानता। अस्तित्व क्षण को जानता है। ये टिकाऊपन की बातें सब दुकानदारी की
बातें हैं।
खलील
जिब्रान कहता है: तुम्हारे भीतर जो सबसे ज्यादा क्षणिक है और सबसे ज्यादा नाजुक, यूं जैसे
फूल की पंखुड़ियां, ऐसा नाजुक, और सबसे
ज्यादा अव्यवस्थित...।
क्योंकि
प्रेम किसी अनुशासन को नहीं मानता, प्रेम मुक्तता है, स्वच्छंदता है। यह स्वच्छंद शब्द बड़ा प्यारा है। प्रेम का अपना छंद है,
अपना गीत है, स्वयं का छंद है। वह किसी और छंद
के अनुसार नहीं चलता। वह लकीर का फकीर नहीं है, स्वतंत्र है।
इसलिए जो लोग व्यवस्था में जीते हैं, जो लोग एक तरह के
अनुशासन में जीते हैं, जिन्होंने जीवन को एक ढांचा बना लिया
है, जो एक परिपाटी में जीते हैं, उनके
लिए प्रेम अव्यवस्थित मालूम होगा ही।
खलील
जिब्रान ठीक कह रहा है कि तुम्हारे भीतर जो सबसे ज्यादा क्षणिक मालूम हो, नाजुक
मालूम हो, अव्यवस्थित मालूम हो, जानना
कि वही तुम्हारे भीतर सबसे ज्यादा दृढ़, सबसे ज्यादा सबल,
सबसे ज्यादा व्यवस्थित और वही तुम्हारे भीतर शाश्वत है।
अहंकार
तुम्हारे भीतर बहुत मजबूत मालूम होता है, बहुत व्यवस्थित मालूम होता है।
अहंकार बहुत सुदृढ़ और सबल मालूम होता है। अहंकार बड़ा मर्यादा में जीता है, व्यवस्था में जीता है, नियम से जीता है; यम-नियम इत्यादि साधता है; त्याग-व्रत करता है;
साधनाओं में उतरता है, तपश्चर्याएं करता है।
ये सब अहंकार के ही खेल हैं। ये सब अकड़ें अहंकार की ही हैं। तरहत्तरह की अकड़ें हैं
उसकी। मदारी के खेल हैं उसके। धन की अकड़ उसकी, पद की अकड़
उसकी, तप की अकड़ उसकी, ज्ञान की अकड़
उसकी। जहां अकड़ है वहां अहंकार है।
प्रेम
की कोई अकड़ नहीं होती। प्रेम में अकड़ होती ही नहीं। प्रेम सीधा-सादा प्रवाह है।
लेकिन स्वच्छंद है,
जैसा झरना मुक्त होता है, किन्हीं बंधी लकीरों
पर नहीं चलता; जैसे नदियां मुक्त होती हैं। लेकिन बड़े हैरान
होने वाली बात है कि स्वच्छंद बहती हुई नदियां भी सागर तक पहुंच जाती हैं। कोई
नक्शे लेकर नहीं चलतीं, राह पूछती हुई नहीं चलतीं। हर जगह
ठहर-ठहर कर पुलिसवालों से नहीं पूछतीं कि अब किधर जाना है। मील के पत्थर भी नहीं
लगे हैं कि ठीक रास्ता यही है, सागर और पचास मील दूर है;
कि अब एक मील और कम हो गया, कि अब एक मील और
कम हो गया; कि तीर बता रहा है कि चले चलो, इसी तरफ सागर है। रेल की पटरियों की तरह भी नहीं है नदियों का मार्ग;
जैसे मालगाड़ी के डब्बे दौड़ते रहते हैं, शंटिंग
करते रहते हैं, उन्हीं पटरियों पर, जिंदगी
भर।
तुम्हारी
जिंदगी अगर अहंकार के ढंग से जीएगी, तो शंटिंग करती रहेगी। चौबीस घंटे
वही ढर्रा है, वही छंद है, बंधा-बंधाया
है; दूसरों का दिया हुआ है, स्वयं का
नहीं है। दूसरे बताते हैं तुम्हें--क्या करो, क्या न करो;
क्या उचित है, क्या अनुचित है।
प्रेम
मुक्त है। प्रेम किसी की नहीं सुनता; अपनी सुनता है, अपनी गुनता है। प्रेम का अपना गीत है, क्यों किसी और
का गीत गाए? और इसीलिए समाज प्रेम का दुश्मन है। समाज प्रेम
का इस कारण दुश्मन है कि प्रेम स्वच्छंद है। और समाज को डर है कि कहीं स्वच्छंदता
न फैल जाए, अराजकता न फैल जाए। समाज प्रेम की हत्या करता है
और अहंकार को बल देता है, अहंकार को पोषण देता है। हम
छोटे-छोटे बच्चों को सिखाना शुरू कर देते हैं, किस तरह
महत्वाकांक्षी बनो। राष्ट्रपति बनना है तुम्हें! प्रधानमंत्री बनना है तुम्हें!
सबसे ज्यादा धन तुम्हें कमाना है! सबसे आगे होना है, पीछे मत
रह जाना! कुल की लज्जा रखना, वंश की प्रतिष्ठा बचाना! ये सब
अहंकार की भाषाएं हैं। और इसी के लिए हमने स्कूल खोले हैं, कालेज
बनाए हैं, विश्वविद्यालय बनाए हैं। ये सब अहंकार के
प्रशिक्षण देने वाले आयोजन हैं।
इस
सारे प्रशिक्षण में अगर प्रेम दब जाता हो, अख्तर, तो
किसका कसूर है? प्रेम का तो कोई कसूर नहीं। हां, माना कि इक आग का दरिया है और डूब के जाना है। जरूर आग का दरिया है,
अगर अहंकार है तुम्हारे भीतर तो फिर प्रेम आग का दरिया है--अहंकार
के लिए, अहंकार के संदर्भ में। अहंकार को जलना होगा, राख होना होगा। और अगर तुम्हारे भीतर अहंकार नहीं है तो प्रेम अमृत है,
कहां आग! शीतल है, यूं जैसे सुबह की ठंडी-ठंडी
हवाओं के झोंके! यूं जैसे कि फूलों की पत्तियों पर जमी हुई सुबह की शीतल ओस,
शबनम! यूं जैसे रात तारों से झड़ती हुई शीतल आभा। यूं जैसे चांद की
चांदनी। कहीं कोई आग नहीं, कहीं कोई अंगार नहीं। लेकिन
अहंकार अगर है तो आग ही आग है प्रेम; अहंकार के लिए तो आग
है।
वो
करें भी तो किन अल्फाज में शिकवा तेरा
जिनको
तेरी निगाहे-लुत्फ ने बरबाद किया
इसका
रोना नहीं क्यूं तुमने किया दिल बरबाद
इसका गम
है कि बहुत
देर में बरबाद
किया
जो
जानेगा, वह तो अहंकार की मृत्यु पर उत्सव मनवाएगा। वह तो कहेगा--
इसका
रोना नहीं क्यूं तुमने किया दिल बरबाद
इसका
गम है कि बहुत देर में बरबाद किया
वो
करें भी तो किन अल्फाज में शिकवा तेरा
और
कोई शिकायत नहीं फिर। क्या शिकायत? क्या शिकवा? किससे
शिकायत?
जिनको तेरी
निगाहे-लुत्फ ने बरबाद
किया
जो
उस परम प्रीतम की आंख के इशारे पर मर गए, उसकी पलक झपते...।
और
याद रखना, भूल न जाना: मेरे लिए परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, प्रेम की अभिव्यक्ति है, प्रेम की पराकाष्ठा है।
वो
करें भी तो किन अल्फाज में शिकवा तेरा
जिनको
तेरी निगाहे-लुत्फ ने बरबाद किया
इसका
रोना नहीं क्यूं तुमने किया दिल बरबाद
इसका गम
है कि बहुत
देर में बरबाद
किया
मुद्दतें
हो गई हैं चुप रहते
कोई
सुनता तो हम भी कुछ कहते
जल
गया खुश्क हो के दामने-दिल
अश्क
आंखों से और क्या बहते
हमको
जल्दी ने मौत की मारा
और
जीते तो और गम सहते
मुद्दतें
हो गई हैं चुप रहते
कोई
सुनता तो हम भी कुछ कहते
मुद्दतें हो
गई हैं चुप
रहते
प्रेम
सदा से चुप है। अहंकार खूब ढोल बजाता है, डुंडी पीटता है, बड़ा शोरगुल करता है। भीड़ जो इकट्ठी करनी है। तुम देखते हो, कोई मदारी खड़ा हो जाए बाजार में आकर। इधर डमरू बजाया उसने, इधर बंदर नचाया उसने, कि बस लोग आने लगे।
दिशाओं-दिशाओं से लोग इकट्ठे होने लगते हैं। कोई हो मदारी, कोई
हो बंदर, कोई डमरू बजाए, लोग इकट्ठे
होने लगते हैं। शोरगुल भर करो, उछल-कूद भर मचाओ...।
राजनीति
इसी तरह का शोरगुल है--इसी तरह बंदरों का नचाना और डमरू का बजाना! और सब मदारी
दिल्ली में इकट्ठे हो गए हैं। इसलिए तो आजकल जगह-जगह मदारी नहीं दिखाई पड़ते।
मैं
जब छोटा था तो मेरे गांव में बहुत मदारी आते थे। फिर पता नहीं मदारी कहां चले गए!
फिर मैं पूछने लगा कि मदारियों का क्या हुआ? मेरे गांव के बीच में ही बाजार है।
उस बाजार में एक ही काम होता था: सुबह-शाम डमरू बज जाता। मदारी आते ही रहते,
भीड़ इकट्ठी होती रहती। वही बकवास--कि जमूरे, नाचेगा?
और जमूरा कहता--नहीं। और मदारी कहता--लड्डू खिलाएंगे, नाचेगा? वह कहता--नहीं।
बर्फी
खिलाएंगे, नाचेगा?
वह
कहता--नहीं!
ऐसा
मदारी कहता ही चला जाता। आखिर में वह उसको राजी कर लेता कि नाचेगा। बस इसी बीच
डमरू बजता रहता,
और जमूरे से पूछताछ चलती रहती और भीड़ इकट्ठी होती रहती। उस भीड़ में
मैंने पढ़े-लिखे लोग देखे, दुकानदार देखे, डाक्टर देखे, वैद्य देखे, पंडित
देखे, पुरोहित देखे। बच्चे इकट्ठे होते थे, यह तो ठीक था; मैंने बड़ों को भी इकट्ठे देखा।
फिर
धीरे-धीरे मदारी नदारद हो गए। उन्नीस सौ सैंतालीस के बाद मदारियों का पता ही नहीं।
सब बंदर, सब मदारी, सब डमरू दिल्ली चले गए। आते हैं पांच साल
में, जब चुनाव का वक्त आता है, तब वे
डमरू बजाते हैं--कि जमूरे, नाचेगा? जमूरा
कहता है कि नहीं। नाचने का मतलब--वोट देगा? कि जमूरे,
वोट देगा? जमूरा कहता है--नहीं। कि लड्डू
खिलाएंगे, वोट देगा? नहीं। नगद रुपये
लेगा। नगद नोट देख कर लेगा कि असली है कि नकली।
फिर
पांच साल के लिए सब मदारी नदारद हो जाते हैं।
यह
अहंकार बहुत शोरगुल मचाता है। अहंकार की बड़ी राजनीति है। असल में, अहंकार का
फैलाव ही राजनीति है। और अहंकार का विसर्जन ही धर्म है।
नुक्ताचीं
है गमे-दिल उसको सुनाए न बने
क्या
बने बात जहां बात बनाए न बने
मैं
बुलाता तो हूं उसको मगर जज्बए दिल
उस
पे बन आए कुछ ऐसी कि बिन आए न बने
खेल
समझा है कहीं छोड़ न दे,
भूल न जाए
काश
यूं भी हो कि बिन मेरे सताए न बने
गैर
फिरता है लिए यूं तेरे खत को कि अगर
कोई
पूछे कि ये क्या है तो छुपाए न बने
इस
नजाकत का बुरा हो,
वो भले हैं तो क्या
हाथ
आएं तो उन्हें हाथ लगाए न बने
मौत
की राह न देखूं कि बिन आए न रहे
तुमको
चाहूं कि न आओ तो बुलाए न बने
बोझ
वो सर से गिरा है कि उठाए न उठे
काम
वो आन पड़ा है कि बनाए न बने
इश्क
पर जोर नहीं है ये वो आतिश "गालिब'
कि लगाए
न लगे और
बुझाए न बने
प्रेम
स्वच्छंदता है। न तो लगाए बनता है, न बुझाए बनता है। न किसी नियम को
मानता है, न किसी व्यवस्था को मानता है। इसलिए समाज प्रेम से
भयभीत है। इसलिए समाज प्रेम का दुश्मन है। इसलिए समाज ने सदा से प्रेम को नष्ट
किया है। और उसकी जगह अहंकार को व्यवस्थित किया है। अगर तुम चाहते हो, अख्तर, कि प्रेम आसां हो जाए, तो
समाज ने जो तुम्हारे साथ धोखा किया है, उस धोखे के बाहर आ
जाओ। इस अहंकार को जाने दो। कठिन होगा, मुश्किल होगा। क्योंकि
यही तुम्हारी प्रतिष्ठा है; यही तुम्हारा सम्मान है, सत्कार है। यही तुमने आज तक जाना है कि तुम हो। छोड़ोगे तो कठिन तो होगा।
लेकिन अगर छोड़ पाओ तो जो मिलेगा वह अनंत गुना है। बूंद जाएगी और सागर पाओगे।
क्षुद्र जाएगा और विराट पाओगे। अहंकार तो डूबेगा, अहंकार तो मिटेगा।
लेकिन जो उभरेगा, जो बचेगा, इसके डूबने
के बाद, वह जीवन की परम संपदा है। चाहे उसे प्रेम कहो,
चाहे उसे परमात्मा कहो।
दोहरा
दूं मैं: प्रेम कठिन नहीं है, अहंकार ने कठिनाई पैदा कर दी है। अहंकार को
छोड़ने को जो राजी है, उसके लिए इस जगत में प्रेम से ज्यादा सरल
और स्वाभाविक और स्वस्फूर्त और कोई अनुभव नहीं है। और मजा यह है कि अहंकार तुमने
छोड़ा तो प्रेम ही संभव नहीं होता, प्रेम के साथ-साथ और भी
असंभव बातें संभव हो जाती हैं। ध्यान संभव हो जाता है। स्वतंत्रता संभव हो जाती
है। शाश्वतता संभव हो जाती है। अमृत संभव हो जाता है।
प्रेम
का द्वार क्या खुलता है,
मंदिर खुल जाता है! मंदिर, जिसके अनंत आयाम
हैं। और जो मंदिर में प्रविष्ट हुआ उसने ही जीवन के अर्थ को जाना, जीवन की गरिमा को पहचाना।
मैं
तो दो ही शब्दों पर जोर देता हूं: प्रेम और ध्यान। क्योंकि मेरे लेखे अस्तित्व के मंदिर
के दो ही विराट दरवाजे हैं: एक का नाम प्रेम, एक का नाम ध्यान। चाहो तो प्रेम से
प्रवेश कर जाओ; चाहो तो ध्यान से प्रवेश कर जाओ। हालांकि
दोनों में से प्रवेश की शर्त एक ही है। इसलिए तुम्हारी मौज। फासला कुछ भी नहीं है।
शर्त एक ही है: अहंकार दोनों में छोड़ना होता है। ध्यान में भी अहंकार को छोड़ना
होता है, प्रेम में भी अहंकार को छोड़ना होता है। तो चाहो तो
यूं कह लो कि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक तरफ प्रेम, एक
तरफ ध्यान।
और
मेरे संन्यासियों को मेरी इतनी ही शिक्षा है कि प्रेम और ध्यान, ये दो
तुम्हारे जीवन में सध जाएं। ध्यान तुम्हारा अंतस्तल बन जाए और प्रेम तुम्हारा
व्यवहार। ध्यान तुम्हारी आत्मा बन जाए और प्रेम तुम्हारा आचरण। ध्यान तुम्हारा
आंतरिक लोक और प्रेम तुम्हारा बहिर्जगत। ध्यान से तुम अपने में ठहर जाओ और प्रेम
से तुम दूसरों को बांट दो वह सब जो अपने में ठहरने से मिलता है--कि जीवन धन्य हुआ!
कि जीवन कृतार्थ हुआ!
वच वच वच
दूसरा प्रश्न: भगवान,
दस-बारह दिन हुए, मेरे एक मित्र अपनी पत्नी और बेटी
के साथ आश्रम आए। बहुत समय से यहां आने का आग्रह कर रहे थे। यहां पता चला कि
स्वामी विनोद भारती हैं तो उनसे मिलने का तय हुआ। उनकी सोलह वर्षीय बेटी ने
कहा--मैं भी चलूंगी। इस पर मेरे मित्र ने पूछा कि लड़की को ले चलने में कुछ खतरा तो
नहीं है? क्योंकि यहां के सेक्स के संबंध में मैंने किस्से
सुने हैं। अंततः लड़की को छोड़ कर हम लोग आश्रम आए। और लौट कर मित्र आनंदित नजर आए
और उन्होंने कहा, यहां वैसा कुछ भी तो नहीं है जैसा सुना था।
कल ही एक सरदार जी और उनके तीन साथियों ने भी यही कहा कि यहां
वैसा कुछ भी तो नहीं है, प्रवचन में तो सब लोग कपड़ों में थे।
भगवान, आश्रम के संबंध में ऐसा कुप्रचार क्यों है?
इस कुप्रचार के कारण अनेक लोग आपके सत्य और प्रसाद से वंचित हो रहे
हैं।
किशोर भारती,
पहली
तो बात, मालूम होता है ये सरदार जी और उनके साथी वही होंगे, जिनकी
मैंने अभी-अभी तुमसे चर्चा की। इन सरदारों से कहना, तुमने
ठीक से नहीं देखा। अरे बड़ी गहरी आंख चाहिए! सब नंगे बैठे हैं, मगर कपड़ों के भीतर नंगे बैठे हैं।
अब
सरदार जी हैं बेचारे,
कपड़े ही देख कर रुक गए। और जरा भीतर जाना था, और
जरा गहरा प्रवेश करते। जरा दृष्टि को और निखारते। जरा पार देखते। इसको कहते हैं
दूर-दृष्टि। जरा ध्यानपूर्वक देखते तो सब नंगे बैठे नजर आते--सब तीर्थंकर। सब...।
जैसे देखा न अभी बाहुबली का मस्तकाभिषेक होने जा रहा है। वे एक हजार साल से नंगे
खड़े हैं। कोई एतराज ही नहीं कर रहा। यहां सब बाहुबली बैठे हुए हैं। कोई कपड़ा नहीं
पहने हुए है।
किशोर
भारती, अपने सरदार मित्रों को कहना कि भइया, थोड़ा सोच-समझ
कर देखो। क्योंकि जिन लोगों ने खबरें छापी हैं अखबारों में, वे
कुछ पागल हैं? यहां आकर देखते हैं कि सब लोग नंगे बैठे
प्रवचन सुन रहे हैं। आंखें हैं उनके पास! सूक्ष्म दृष्टि जिसको कहते हैं, दिव्य दृष्टि। जैसे संजय के पास थी दिव्य दृष्टि कि दूर बैठा हुआ महाभारत
का युद्ध देखता रहा। ऐसे ही ये पत्रकार हैं। संजय समझो कि प्रथम पत्रकार थे। वे भी
पत्रकार ही थे। काम उनका यही था कि खबर सुना रहे थे वे। अंधे धृतराष्ट्र को खबर दे
रहे थे कि महाभारत के युद्ध में क्या हो रहा है। सैकड़ों मील दूर युद्ध हो रहा है।
वहां कौन मारा जा रहा है, कौन शंख फूंक रहा है, कौन गदा उठा रहा है, किसने गांडीव छोड़ दिया। और
कृष्ण गीता का पाठ पढ़ा रहे हैं।
कृष्ण
ने भी गजब कर दिया। कोई शंख बजा रहा है, कोई डमरू ठोंक रहा है और उन्हें
गीता की पड़ी है। उधर तालें ठोंकी जा रही हैं और गीता कहे चले जा रहे हैं।
मैं
एक दफा जबलपुर में कृष्ण-जन्माष्टमी पर पंजाबियों की एक सभा में फंस गया। ऐसा आनंद
मुझे कभी आया ही नहीं। क्या गजब की सभा थी! ज्यादातर तो स्त्रियां थीं। और सब
सज-बज कर आई थीं। सबने सिल्क के वस्त्र धारण कर रखे थे। कृष्ण की जन्माष्टमी थी।
तो सबने अपनी फरिएं निकाली थीं, और सलवारें और कुर्तियां! और क्या रसपूर्ण
वातावरण था वहां! करीब दस हजार लोग इकट्ठे थे। मगर उनमें से अनेक--मैं बोलने गया
था--अनेक तो मेरी तरफ पीठ ही किए बैठी थीं महिलाएं। एक-दूसरे से बातचीत में लगी
थीं। कोई किसी के कपड़े का पोत देख रहीं, कोई किसी के कपड़े का
दाम पूछ रहीं। और कितनी बातें थीं, जन्मों के बाद मिलना हुआ
था। कोई का बच्चा हो गया था, किसी को कुछ हो गया था, किसी की पत्नी भाग गई, किसी का पति भाग गया, किसी का किसी से प्रेम हो गया। एक से एक चीजें चल रही थीं। अब यहां कौन
कृष्ण की फिक्र करे!
मैंने
संयोजकों से कहा कि भई,
मैं यहां नहीं बोल सकूंगा।
उन्होंने
कहा, क्यों?
मैंने
कहा, मैं कोई योगेश्वर कृष्ण नहीं हूं।
उन्होंने
कहा, हम आपका मतलब नहीं समझे।
मैंने
कहा, वे योगेश्वर कृष्ण थे जो बोलते रहे महाभारत के युद्ध में। उन्होंने फिक्र
ही न की, वे अपनी गीता ही रटते रहे। छोटी-मोटी गीता नहीं,
अठारह अध्याय बक गए। और पहलवान जूझने के लिए तैयार खड़े हैं, शंख बजाए जा रहे हैं, घंटाल पीटे जा रहे हैं,
मगर उनको फिक्र ही नहीं। अर्जुन निढाल होकर बैठा है, गांडीव हाथ से गिर गया है। वह कहता है कि मैं तो मुनि होने की तैयारी कर
रहा हूं, जैन मुनि होना मुझे! मगर इन भैया को कुछ फिक्र ही
नहीं। ये अपनी गीता ही ठोंके जा रहे हैं। और कितनी लंबी गीता! अठारह अध्याय कह गए।
गजब के आदमी रहे! या तो बहरे रहे, या बिलकुल पागल रहे।
मैंने
कहा कि न मैं बहरा,
न मैं पागल। इस तरह के योग वगैरह मैंने साधे नहीं। मैं कोई योगेश्वर
कृष्ण नहीं। मुझे घर जाने दो। यहां कौरव-पांडव सब इकट्ठे हो गए हैं। और क्या गजब
का रस चल रहा है! इनके रस में बाधा डालना भी तो उचित नहीं। बोल कर, और इनका जो संभाषण हो रहा है...। ऐसा शोरगुल मचा था वहां, बच्चे रो रहे हैं, स्त्रियां बच्चों की पिटाई कर रही
हैं। और पुरुष भी घुसे बैठे हैं, धक्का-मुक्की कर रहे हैं
वहीं। ऐसे स्थान पर पुरुष भी आ जाते हैं। बड़े धार्मिक भाव से आते हैं। जहां ऐसी रस
की वर्षा हो रही हो!
मैंने
उनसे कहा कि मैं व्यवधान खड़ा करूं, ऐसी दुष्ट मेरी प्रकृति नहीं।
वे
बोले, आप कैसी बातें कर रहे हैं! आपको हम बामुश्किल तो ला पाए हैं, बामुश्किल तो राजी कर पाए हैं।
मैंने
कहा कि मैं इसीलिए तो आने को राजी नहीं था, कि इस तरह मैं कोई महाभारत के
युद्ध में गीता नहीं कह सकता हूं।
ये
तुम जो अखबार वाले आते हैं यहां, इन्हें क्या-क्या दिखाई पड़ जाता है! संजय को,
दूर से, इतना उपद्रव मचा हुआ है...छोटा-मोटा
उपद्रव नहीं था वह, शास्त्रों के हिसाब से कोई सवा अरब आदमी
इकट्ठे थे कुरुक्षेत्र के मैदान में। हालांकि बन नहीं सकते इतने आदमी वहां। सवा
अरब तो क्या, सवा करोड़ भी नहीं बन सकते। मैदान मेरा देखा हुआ
है। फुटबाल वगैरह का मैच हो, बस इतने के ही लायक है। कोई
महाभारत का युद्ध हो सके ऐसा दिखता नहीं। मगर अब शास्त्रों का क्या कहना! वहां तो
चिंदी का सांप बन जाता है। अठारह अक्षौहिणी सेनाएं खड़ी हुई थीं वहां। अठारह खिलाड़ी
पर्याप्त होंगे। आखिर जगह भी चाहिए दौड़ने वगैरह को कि नहीं? अठारह
अक्षौहिणी सेनाएं होंगी तो इतने ही अक्षौहिणी घोड़े, हाथी,
रथ। जगह कहां? हिलने-डुलने की जगह नहीं,
युद्ध होगा क्या खाक! बस यही हो सकता था जो हुआ। जैसे कि अर्जुन तो
बैठे थे रथ के भीतर और उनके सारथी बकवास कर रहे थे। उनके सारथी उनको ज्ञान समझा
रहे थे। फंस गया होगा, ट्रैफिक में जाम हो गया होगा रथ। जगह
कहां! सो ड्राइवर मालिक को डांट रहा है। मालिक इतना घबड़ा गया है कि कहता है कि मैं
छोड़ कर ही चला। मगर ड्राइवर कहता है--निकलने न दूंगा। दरवाजा बंद किए हुए हूं। तुम
जाते कहां? अरे बहादुर वीर पुरुष कहीं ऐसा करते हैं! ट्रैफिक
तो ऐसा अटकता ही रहता है।
रथ
हिलता नहीं होगा,
चलता नहीं होगा। और अर्जुन भी जो नहीं भाग पाया, उसका कारण गीता नहीं; उसका कारण यही होगा, उसने देखा होगा कि भागूंगा भी तो भागूंगा कहां, जगह
कहां! इस भीड़ में से निकलना मुश्किल है। इससे रथ में ही बैठे रहो, ठीक है; सुन लो, जो ये कहते
हैं सुन लो; हां-हूं भरते रहो।
मेरे
पिता को यह हां-हूं भरने का बड़ा कौशल था। मैं लाख उपाय करके भी नहीं सीख पाया।
बचपन से ही देखता रहा। उनको बचपन से ही मालिश करवाने की आदत थी। और नाई तो तुम
जानते ही हो,
बेचारे करें भी क्या! मालिश जैसा काम करें तो कुछ तो उनको जगाए रखने
को चाहिए। तो वे बातचीत करने में कुशल हो जाते हैं। नाई तो बहुत कुशल हो जाते हैं
बातचीत करने में। इतने कुशल हो जाते हैं कि खतरा होता है उनसे। बाल वगैरह बनवाने
जाओ, ज्यादा काट दें। अगर कोई राजनीति की बात छेड़ दो,
गुस्सा आ जाए, मुंड़ाई कर दें।
रोज
नाई उनका आता था। नाई भी अफीमची था। पीनक में ही रहता था। मुझे भी बिठाल देते थे
वे उससे बाल बनवाने को। ऐसे सर्दी के दिनों में बाहर तखत डलवा कर, और उस पर
बिठाल दें। और वह नाई आकर मेरे चारों तरफ अपना कपड़ा बांध दे, और नदारद! आधे मेरे बाल बना कर नदारद! अब मैं बैठा देख रहा हूं। अब वे जब
आएं तब आएं। उनको खोजने भी कहां जाऊं! अब आधे बाल बने कहीं जाओ, जो मिले वही पूछे--क्या हुआ? कपड़ा ओढ़ा कर फंसा गया।
और कपड़े पर सब बाल ही बाल। उनका कोई पता ही नहीं है।
नत्थू
नाई उनका नाम था। पहुंचे हुए पुरुष थे! वे रोज रात उनके पैर दबाने आते, मालिश
करते। और गजब की बात यह थी कि वे एक से एक कहानियां सुनाते। और ऐसी कहानियां,
जिनको हजार दफे सुना चुके। वही कहानी, वही
सुनाने वाला, वही सुनने वाले। मगर मेरे पिता बीच-बीच में
नींद भी लेते रहते और हां-हूं भी भरते रहते। मतलब, मैंने
नत्थू नाई को कई दफे कहा कि दादा, तुम नाहक सिर पचा रहे हो,
वे सो रहे हैं! मगर वे बोले, सोते जरूर हैं,
लेकिन वक्त पर हां भी भर देते हैं, ठीक जगह पर
हूं भरते हैं।
मैंने
कहा, वही कहानी है, वही तुम हो, वही
वे हैं। जनम हो गया सुनते-सुनते। उनको भी अभ्यास हो गया है कि कब ठीक जगह आती है।
वे नींद में भी ठीक जगह हूं भर देते हैं। और इस हूं की वजह से वह सुनाए चला जाए।
क्योंकि जब वे हूं भर रहे हैं, मतलब जागे हुए हैं।
कृष्ण
भी बोलते रहे और अर्जुन फंसा हुआ बैठा हां-हूं भी भरता रहा। करे भी क्या? आखिर में
बोला कि मेरे सब संशय नष्ट हो गए भइया। जाने को जगह भी नहीं है, लड़ ही लो! जो करना है कर लो।
मगर
उस पंजाबियों की सभा में मैंने कहा, अभी जगह निकल जाने की है। मैं तो
चल ही पड़ा। मेरे पीछे संयोजक आए। मैंने कहा, तुम कितना ही आओ,
तुम कितना ही समझाओ, मैं यहां रुकने वाला नहीं
हूं। यह कोई जगह है जहां कोई अर्थ की बात कही जाए?
मैं
यहां व्यर्थ के लोगों को इकट्ठा नहीं करना चाहता।
किशोर
भारती, तुम पूछते हो कि "आश्रम के संबंध में ऐसा कुप्रचार क्यों है?'
मेरे
ही कारण। मैं ही जिम्मेवार हूं। कोई और जिम्मेवार नहीं। यह कुप्रचार गलत लोगों को
आने से रोक देता है। मैं भीड़-भाड़ यहां चाहता नहीं। यहां कोई महाभारत का युद्ध थोड़े
ही करवाना है! यहां मैं उन्हीं को चाहता हूं जो सच में ही जीवन को रूपांतरित करने
को आतुर हैं,
अभीप्सु हैं।
और
तुम कहते हो: "इस कुप्रचार के कारण अनेक लोग आपके सत्य और प्रसाद से वंचित हो
रहे हैं।'
नहीं, जिसको
सत्य चाहिए, वह इस प्रचार-कुप्रचार की फिक्र नहीं करता,
वह आ ही जाता है। आखिर तुम यहां कैसे आ गए? और
लोग यहां कैसे आ गए? जिसको सत्य खोजना है, वह तो सब धुएं को पार करके आ जाएगा। और जिसको सत्य नहीं खोजना है, वह आ जाए तो धुआं खड़ा कर लेगा ताकि सत्य दिखाई न पड़े।
यह
कुप्रचार मेरे काम आ रहा है। इससे मैं जरा भी चिंतित नहीं हूं। इससे मेरा काम सध
रहा है। इससे बड़ा सुगम हो गया है काम। इससे व्यर्थ के कूड़ा-कर्कट लोग भीतर ही नहीं
आ पाते। वे भागे ही रहते हैं, दूर ही रहते हैं।
और
दूसरा भी एक फायदा हुआ है। जो तुम कहते हो कि तुम्हारे मित्र आए और अपनी लड़की को
तक लाने में यहां डरे। और फिर आकर देखा जो उन्होंने तो कहा कि नहीं, जो मैंने
सुना था वैसा तो नहीं है। वह जो सुना था उससे पृष्ठभूमि बन जाती है। उससे कोई
नुकसान नहीं हो रहा है। मेरा अपना हिसाब है, मेरा अपना गणित
है। मैं अपने धंधे को ठीक से समझता हूं।
यहां
जो लोग सब तरह की गलत बातें सुन कर आते हैं वे एक पृष्ठभूमि बना कर आते हैं। कांटे
ही कांटों की पृष्ठभूमि बना कर आते हैं। उस पृष्ठभूमि में, यहां अगर
उन्हें एक फूल भी खिलता हुआ दिखाई पड़ जाता है तो तत्क्षण क्रांति घटित होती है।
अगर वे कांटों की पृष्ठभूमि न लाते तो शायद फूल दिखाई भी न पड़ता। जैसे काले
ब्लैकबोर्ड पर सफेद खड़िया से लिखते हैं न। काला ब्लैकबोर्ड जरूरी है, नहीं तो सफेद खड़िया की लिखावट दिखाई न पड़ेगी।
तो
मैं एक काला ब्लैकबोर्ड अपने चारों तरफ खड़ा भी कर रहा हूं। मैं ही खड़ा कर रहा हूं।
इसको मैं यूं बदल सकता हूं। दो दिन में बदल सकता हूं। इसमें कुछ मामला नहीं है।
सुप्रचार करवाना हो तो मुझे कोई अड़चन है? अभी शुरू हो जाए। कुछ मुझे अड़चन
नहीं है। बहुत आसान है। इससे ज्यादा आसान कोई चीज ही नहीं है। एक अनाथालय खोल दूं,
एक अस्पताल खोल दूं, एकाध मरीज के पास बैठ कर
पांव दबाने लगूं--इसमें कौन सी अड़चन है? खासकर जब फोटो उतर
रही हो तब पांव दबा दूं। एक फावड़ा लेकर जमीन खोदने लगूं। झाड़ लगाने लगूं। खासकर जब
फोटोग्राफर मौजूद हो, अखबारवाले आएं, तो
एकदम वृक्षारोपण...। इसमें क्या मामला है? यह बहुत आसानी से
हो सकता है। दरिद्रता की प्रशंसा करने लगूं। भारत के गुण-गौरव का विस्तार से
उल्लेख करने लगूं। मुझे कुछ अड़चन तो नहीं है।
लेकिन
तब, जो मैं कर रहा हूं, वह नहीं हो पाएगा। तब यहां
भीड़-भड़क्का हो जाएगा। और उस भीड़-भड़क्के में मैं रह चुका हूं।
कल
ही मुझे एक पत्र मिला। अखबार में छपा है। एक सज्जन ने लिखा है कि आप जब बंबई के
क्रास मैदान में गीता पर प्रवचन देते थे तो कैसा महान कार्य कर रहे थे! वह आपने
क्यों छोड़ दिया?
और आप कहां की उपद्रव की बातें करने लगे? इससे
नाहक आपकी बदनामी हो रही है। तब आपका कैसा सुनाम था!
तो
अभी फिर गीता-ज्ञान-यज्ञ शुरू कर सकता हूं। इसमें क्या अड़चन है? मुझे कोई
कठिनाई तो नहीं। बहुत आसान सा मामला है।
एक
चित्रकार का बेटा अपने मित्र से कह रहा था कि मेरे पिता बड़े अदभुत चित्रकार हैं।
कल एक चित्र बना रहे थे। और एक उदास आदमी की तस्वीर। मैंने उनसे कहा कि क्यों इतना
उदास बनाया इसे?
उन्होंने कहा, अच्छा ठीक। उठाई तूलिका और
सिर्फ एक लकीर खींच दी उस आदमी के चेहरे पर। और उदास आदमी एकदम हंसने लगा! उदास
आदमी को बस एक इशारे से हंसता हुआ बना दिया।
उस
दूसरे बच्चे ने कहा,
यह कुछ भी नहीं। अरे मेरी मां, मैं हंस रहा
होऊं, एक चपत लगाती है और खेल खतम। मेरे पिताजी भी तो
मुस्कुराते चले आते हैं घर में और जैसे ही मां को देखते हैं, चपत भी नहीं लगानी पड़ती, एकदम उदास हो जाते हैं।
इसमें कौन सी खूबी की बात है? सिर्फ देखते ही से उदास हो
जाते हैं। चारों खाने चित्त, होश-हवास गुम! बाहर रहते हैं तो
सब ठीक-ठाक। उनकी अकड़ देखने लायक। सिंह की तरह दहाड़ते हैं। और घर में आए कि बस
ढेंचू-ढेंचू। पूंछ दबाए, अखबार के पीछे छिपे। मेरी मां की
मौजूदगी काफी है। इसमें कौन सी खूबी की बात है?
यह
कुछ अड़चन की बात नहीं है। भीड़ इकट्ठी करनी हो तो मैं बीस साल बहुत भीड़ में जीया
हूं। ऐसी भीड़ में जीया हूं कि मैं अच्छी तरह जानता हूं, भीड़ को
इकट्ठा करने में क्या दिक्कत है! थोड़ा सा डमरू बजाना पड़े, और
बस भीड़ आ जाएगी।
मगर
भीड़ को क्या करना है?
भीड़ सत्य की खोजी नहीं है।
यह
कुप्रचार अच्छा है। जो कर रहे हैं, उनको पता नहीं कि मेरी सेवा में
लगे हैं। काश, उनको पता हो जाए! बताना मत, किसी को कहना मत! मैंने तुमसे राज की बात कह दी, इसका
यह मतलब नहीं कि तुम हर किसी को कहते फिरो। संयम रखना। कुछ तो संयम सीखो! इसको तो
अपने भीतर ही सम्हाल कर रखना। किसी को कहना ही मत। उनको कुप्रचार करने दो। और उनकी
जितनी सहायता बन सके तुम किया करो, कि कुप्रचार होने दो।
इस
कुप्रचार के दो परिणाम हो रहे हैं। एक तो यह परिणाम हो रहा है कि लोग सोचते हैं कि
बात क्या है?
एक आदमी के खिलाफ सारा देश अगर लगा हो तो कुछ न कुछ माजरा होना
चाहिए। मामला क्या है?
तो
जिनको उत्सुकता है,
जिज्ञासा है, खोज है, वे
चले आते हैं देखने--कि एक दफा तो देख लो जाकर कि बात क्या है। और एक दफा देख लेते
हैं तो सारी बात बदल जाती है। और वह कुप्रचार काले तखते की तरह काम आ जाता है। उस
पर जो देखते हैं वह सफेद खड़िया की तरह उभर आता है। जैसे रात के अंधेरे में तारे
उभर कर दिख जाते हैं। दिन में नहीं दिखाई पड़ते। सुप्रचार में नहीं दिखाई पड़ेंगे।
दिन की रोशनी में भी तारे तो वहीं हैं जहां रात को होते हैं। मगर दिन की रोशनी में
दिखाई नहीं पड़ते, रात के अंधेरे में चमकते हैं। अमावस की रात
तारों में जैसा निखार आता है वैसा किसी और रात को नहीं होता।
तो
एक तो कुप्रचार का फायदा यह है कि उससे पृष्ठभूमि बन गई है, बन रही
है।
दूसरा
फायदा यह है कि जो गलत लोग हैं, जिनको मैं चाहता हूं कि यहां आएं ही न, उनके लिए रुकावट हो जाती है। जो ठीक लोग हैं वे जानने के लिए आना चाहते
हैं--कि क्या बात है? और जो गलत लोग हैं वे प्रचार को मान कर
ही रुक जाते हैं कि वहां जाकर क्या करना! वहां जाना ही नहीं। दोनों अर्थों में लाभ
है।
मैं
अपने धंधे को बहुत व्यवस्थित रूप से समझता हूं। भीड़ भी पहले मैंने इकट्ठी कर ली थी, उसका भी
उपयोग था। शुरुआत में जरूरत थी। क्योंकि उसी भीड़ में से मुझे वे लोग चुनने थे जो
सत्य के खोजी हैं। उनको मैंने चुन लिया। भीड़ को मैंने विदा कर दिया। विदा करने में
मुझे देर नहीं लगती। बस तूलिका का जरा इशारा।
जैसे
जैनियों की भीड़ मेरे पास थी। फिर उसमें से मुझे जिन-जिन को विदा करना था, उनको विदा
करने में देर न लगी। हिंदुओं की भीड़ मेरे पास थी, उनको विदा
करने में मुझे देर न लगी। गांधीवादियों की भीड़ मेरे पास थी, उनको
विदा करने में मुझे देर न लगी। एक वक्तव्य दे दिया कि वे भाग खड़े हो जाते हैं।
किसी को विदा करने में क्या देर लगती है?
इस
तरह मैं छांटता रहा हूं। अब मैंने वे लोग बचा लिए हैं...सब घास-पात उखाड़ फेंकी है, अब सिर्फ
गुलाब बचा लिए हैं। अब उन पर ही श्रम करना है। मेरा प्रत्येक संन्यासी बुद्धत्व को
उपलब्ध हो सके, इस तरफ मेरी चेष्टा है। जिसने भी संन्यास की
हिम्मत की है उसके लिए कम से कम इतना पुरस्कार तो मिल ही जाना चाहिए, कि उसके जीवन में बुद्धत्व का फूल खिल जाए। उसने अगर इतना समर्पण किया है
तो इतनी भेंट पाने का वह हकदार हो गया है। अब यहां अगर भीड़ इकट्ठी कर लूं तो यह
संभव नहीं हो सकेगा। यह महत कार्य असंभव हो जाएगा।
इसलिए
किशोर भारती,
चिंता न करो कुप्रचार की। वह मेरा ही करवाया हुआ है। और उसके लाभ
हैं। और मैं उनके पूरे लाभ उठा रहा हूं। जो मेरे काम में लगे हैं, उन बेचारों को पता नहीं कि मेरी सेवा कर रहे हैं, मुफ्त
नौकरी कर रहे हैं। कितने लोगों को मैंने लगा रखा है प्रचार में! मुझे गालियां देने
के लिए कितने लोग मैंने लगा रखे हैं, यह तुम देखते हो?
न तनख्वाह देता उनको, जान-पहचान भी नहीं है,
आमना-सामना भी कभी नहीं हुआ। और एक देश में ही नहीं, सारी दुनिया के कोने-कोने में लगा रखे हैं। ऐसा कोई देश नहीं है जहां मेरे
आदमी न हों।
मेरे
आदमी दो तरह के हैं। एक तो मेरे संन्यासी हैं, जो सत्य की शोध में लगे हैं। और एक
मेरे विरोधी हैं, जो इनको सत्य की शोध में लगवा रहे हैं।
कचरे को तो मैंने छांटा है।
गो
जरा-सी बात पर बरसों के याराने गए
लेकिन इतना
तो हुआ, कुछ लोग
पहचाने गए
यूं
मैंने बहुत गंवाए लोग,
मगर इतना तो हुआ--कुछ लोग पहचाने गए। जो गंवाए वे कचरा थे। कौड़ियां
तो फेंक दीं मैंने, हीरे बचा लिए।
गो
जरा-सी बात पर बरसों के याराने गए
लेकिन
इतना तो हुआ,
कुछ लोग पहचाने गए
गर्मिए-महफिल
फकत एक नारा-ए-मस्ताना है
और
वो खुश हैं कि इस महफिल से दीवाने गए
मैं
इसे शोहरत कहूं या अपनी रुसवाई कहूं
मुझसे
पहले उस गली में मेरे अफसाने गए
यूं
तो वो मेरी रगे-जां से भी थे नजदीकतर
आंसुओं
की धुंध में लेकिन न पहचाने गए
वहशतें
कुछ इस तरह अपना मुकद्दर हो गईं
हम
जहां पहुंचे,
हमारे साथ वीराने गए
अब
भी उन यादों की खुशबू जेहन में महफूज है
बारहा
हम जिनसे गुलजारों को महकाने गए
क्या
कयामत है कि "खातिर'
कुश्तए-शब भी थे हम
सुबह
भी आई तो मुजरिम हम ही गर्दाने गए
गो
जरा-सी बात पर बरसों के याराने गए
लेकिन इतना
तो हुआ, कुछ लोग
पहचाने गए
बहुतों
से मेरी दोस्ती थी,
बहुतों से मेरा याराना था, लाखों से मेरे
संबंध थे। लेकिन जरा सी बात पर! और वह जरा सी बात के लिए वे जिम्मेवार नहीं,
मैं ही जिम्मेवार। जब मैंने उन्हें विदा करना चाहा, जरा सी बात कह दी और विदा कर दिया। और इस ढंग से विदा कर दिया कि उन्हें
यह भी अहसास न हुआ कि मैंने विदा किया है। वे यही समझ कर गए कि अपनी मर्जी से जा
रहे हैं, मुझे छोड़ कर जा रहे हैं। मैंने उन्हें यह मजा भी
लेने दिया कि वे अपनी मर्जी से मुझे छोड़ कर जा रहे हैं। असल में, मैंने उन्हें छोड़ दिया था। लेकिन वे मुझे न छोड़ पाते अगर मैं कुछ बात न
कहता। कुछ बात मुझे कहनी जरूरी थी।
और
जरा सी बात से लोग चले जाते हैं। जो जरा सी बात से चले जाते हैं वे सत्य की लंबी
यात्रा पर चल न पाएंगे। वहां बहुत बातें होंगी। वहां तुम्हारी बहुत धारणाएं तोड़ी
जाएंगी। वहां तुम्हारे बहुत से विश्वास खंडित किए जाएंगे। वहां तुमसे बहुत कुछ
छीना जाएगा। जो जरा सी बातों में चले जाते हैं, वे उतनी लंबी यात्रा पर कैसे साथ
दे सकेंगे?
अब
तो मैंने उन लोगों को रोक रखा है, जो सब तरह से मेरे साथ चलने को राजी हैं--सब
तरह से, हर तरह से। जो हटेंगे ही नहीं, चाहे मैं कुछ भी कहूं। चाहे मैं यूं कहूं, चाहे यूं
कहूं। चाहे पक्ष में कहूं उनके, चाहे विपक्ष में कहूं उनके।
जिन्होंने तय कर लिया है कि वे हटेंगे ही नहीं, बस अब उन्हीं
के लिए हूं। और उन्हीं के लिए कुछ करने योग्य भी है।
बदनामी
के लिए मैं ही जिम्मेवार हूं, कोई और नहीं।
ये
न थी हमारी किस्मत कि विसाले-यार होता
अगर
और जीते रहते,
यही इंतजार होता
तेरे
वादे पे जिए हम,
तो ये जान झूठ जाना
कि
खुशी से मर न जाते,
अगर एतबार होता
कोई
मेरे दिल से पूछे,
तेरे तीरे-नीमकश को
ये
खलिश कहां से होती,
जो जिगर के पार होता
ये
कहां की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई
चारासाज होता,
कोई गमगुसार होता
रगे-संग
से टपकता, वो लहू कि फिर न थमता
जिसे
गम समझ रहे हो,
ये अगर शरार होता
कहूं
किससे मैं कि क्या है,
शबे-गम बुरी बला है
मुझे
क्या बुरा था मरना,
अगर एक बार होता
ये
मसाइलेत्तसव्वुफ,
ये तेरा बयान "गालिब'
तुझे हम
वली समझते, जो न
वादाख्वार होता
गालिब
ने प्यारी बात कही। कहा कि यह तेरा सूफियाना ढंग, ये तेरी सूफियों जैसी
बातें! ये मसाइलेत्तसव्वुफ। ये दर्शन की तेरी ऊंचाइयां, तसव्वुफ!
प्रेम की ये तेरी ऊंचाइयां।
ये मसाइलेत्तसव्वुफ, ये तेरा
बयान "गालिब'
और
ये तेरे कहने का ढंग और ये तेरा बयान गालिब!
तुझे हम
वली समझते...
हमने
तुझे तीर्थंकर समझा होता। हम तुझे पैगंबर समझते।
...जो न
वादाख्वार होता
बस
शराबी था, इसलिए सब गड़बड़ हो गया।
मैं
भी शराबी हूं। यह महफिल पियक्कड़ों की है। बदनामी के लिए जिम्मेवार मैं हूं।
ये
मसाइलेत्तसव्वुफ,
ये तेरा बयान "गालिब'
तुझे हम
वली समझते, जो न
वादाख्वार होता
लोग
तो तीर्थंकर समझते,
कसूर मेरा है। लोग तो तीर्थंकर समझ ही रहे थे, कसूर मेरा है। मैंने ही भीड़ को इनकार कर दिया, क्योंकि
भीड़ के साथ समय खराब करना था। जब तक जरूरत थी तब तक भीड़ को मैंने साथ रखा। अब कोई
जरूरत नहीं है। अब तो सिर्फ उन थोड़े से लोगों की जरूरत है, जो
तैयार हैं उस आग से गुजरने को जिसमें अहंकार जल जाता है और प्रेम का कमल खिलता है।
आज इतना ही।
वच वच वच
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