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शनिवार, 4 नवंबर 2017

गीता दर्शन--(भाग--4) प्रवचन--103



गीता दर्शन--(भाग--4) प्रवचन--103

(अध्‍याय9)—प्रवचन—तीसरा
जगत एक परिवार है
सूत्र:

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृति यान्ति मामिकाम् ।
कल्पक्षये युनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।। 7।।
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य धिसृजामि पुन: पुन:।
भूतग्राममिमं कृल्लमवशं क्कृतैर्वशात्।। 8।।
न च मां तानि कमगॅण निबश्वन्ति धनंजय।
उदासीनवदासीनमसक्त तेषु कर्मसु।। 9।।

और हे अर्जुन कल्य के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति की प्राप्त होते हैं अर्थात मेरी प्रकृति में लय होते हैं। और कल्य के आदि में उन्‍हें मैं फिर रचता हूं।
अपनी त्रिगुणमयी प्रकृति को अंगीकार करके स्वभाव के वश से परतंत्र हुए हम संपूर्ण भूत समुदाय को बारंबार उनके कर्मों के अनुसार रचता हूं।

हे अर्जुन उन कर्मों में आसक्तिरहित और उदातीन के सदृश स्थित हुए मुझ परमात्मा को वे कर्म नहीं बांधते हैं।

 स सूत्र के निकट पहुंचने के लिए हम दोचार मार्गों से यात्रा करेंतो आसान होगा। यह सूत्रमनुष्य के चिंतन में जो मूलभूत प्रश्न हैउससे संबंधित है। आदमी ने निरंतर जानना चाहा हैकैसे यह सृष्टि निर्मित होती हैकैसे विलीन होती है?कौन इसे बनाताकौन इसे सम्हालताकिस में यह विलीन होती हैकोई है इसे बनाने वाला या नहीं हैइस प्रकृति का कोई प्रारंभ हैकोई अंत हैया कोई प्रारभ नहींकोई अंत नहीं
इस प्रकृति में कोई प्रयोजन हैकोई लक्ष्य हैजिसे पाने के लिए सारा अस्तित्व आतुर हैया यह लक्ष्यहीन एक अराजकता हैयह जगत एक व्यवस्था है या एक अराजक संयोग हैऔर इस प्रश्न के उत्तर पर जीवन का बहुत कुछ निर्भर करता हैक्योंकि जैसा उत्तर हम स्वीकार कर लेंगेहमारे जीवन की दशा भी वही हो जग़रगी।
ऐसे विचारक रहे हैंजो मानते हैं कि जीवन एक संयोगएक एक्सिडेंट मात्र है। कोई व्यवस्था नहीं हैकोई लक्ष्य नहीं है,कहीं पहुंचना नहीं हैकोई कारण भी नहीं हैसिर्फ जीवन एक दुर्घटना है। ऐसी दृष्टि को जो मानेगावह जो कह रहा हैवह सच हो या न होउसका जीवन जरूर एक दुर्घटना हो जाएगा। वह जो कह रहा हैवह सारे जगत को प्रभावित नहीं करेगा,लेकिन उसके अपने जीवन को निश्चित ही प्रभावित करेगा।

 यदि मुझे ऐसा लगता हो कि यह सारा विस्तारयह पूरा ब्रह्माड एक संयोग मात्र हैतो मेरे अपने जीवन का केंद्र भी बिखर जाएगा। तब मेरे जीवन की सारी घटनाएं भी संयोग मात्र हो जाएंगी। फिर मैं बुरा करूं या भलामैं जीऊं या मरूंमैं किसी की हत्या करूं या किसी पर दया करूंइन सब बातों के पीछे कोई भी प्रयोजनकोई सूत्रबद्धता नहीं रह जाएगी। ऐसा जिन्होंने कहा हैउन्होंने जगत को अराजक बनाने में सुविधा दी है।
और कठिनाई यह है कि चाहे कोई विचारक कितना ही कहे कि जगत अराजक हैखुद उसकी चेतना इस बात को स्वीकार नहीं कर पाती। क्योंकि ऐसै विचारक जब अपना प्रस्ताव करते हैं कि जगत अराजक हैतो इसे भी बहुत तर्कयुक्त ढंग से सिद्ध करते हैं। ऐसे विचारक भी जब यह कहते हैं कि जगत अराजक हैतो इसकी भी सुसंगत व्यवस्था निर्मित करते हैं। वे एक सिस्टम बनाते हैं। अगर आप उनका विरोध करेंगेतो वे आपके विपरीत तर्क उपस्थित करेंगे। वे आपके तर्कों का खंडन करेंगे। वे अपने तर्कों का समर्थन करेंगे। लेकिन उन्हें शायद खयाल नहीं आता कि अगर जगत एक अराजकता हैतो किसी को भी समझाने का कोई प्रयोजन नहीं हैऔर फिर न कोई सही है और न कोई गलत।
अगर जगत एक अराजकता हैएक अनार्की हैएक केआस हैतो फिर मैं आपको समझाऊं कि सही क्या हैतो मैं मूढ़ हूं। क्योंकि अराजकता में सही कुछ भी नहीं हो सकता है। सही और गलत व्यवस्था में होते हैं।
फिर अगर मैं कहूं कि मैं ही सही हूं और आप गलत हैंतो मैं अपनी ही बात का खंडन कर रहा हूं। क्योंकि सही और गलत किसी प्रयोजन से होते हैं। अगर मैं कहूं कि यह रास्‍ता गलत हैऔर साथ ही यह भी कहूं कि यह रास्ता कहीं पहुंचता नहीं है। क्योंकि अगर रास्ता कहीं भी नहीं पहुंचता है तो रास्‍ता गलत और सही हो हीं नहीं सकता। क्योंकि रास्‍ते का सही और गलता होना इस पर निर्भर होता है कि मंजिल मिलेगी या नहींअगर मंजिल है ही नहींतो सभी रास्‍ते समान हैन वह गलत है और न सही हैं। क्योंकि कोई रास्ता कहीं भी पहुंचाता नहीं हैइसलिए जांचिएगा कैसेमापिएगा कैसे कौन सही है कौन गलत है?
जो कहते हैं कि जगत अराजक है वह भी सिद्ध करना चाहते हैं कि हम जो कह रहे हैंवह सत्‍य हैअराजकता में कोई सत्‍य असत्य नहीं हो सकता। सत्य और असत्‍य व्‍यवस्‍था की बातें है।  इसलिए मैं कहता हूं जिन्होंने ऐसा कहां है कि वह भी व्‍यवस्‍था को स्वीकार करते हैं। उनकी चेतना भी गहन रूप में व्यवस्था को अस्वीकार नहीं कर पाती। अव्यवस्था से वे भी राजी नहीं हो पाते हैं। अब तक ऐसा कोई भी जगत में व्यक्ति नहीं हुआ हैजो अव्यवस्था के लिए अंतर्मन से राजी हो। अगर आप ऐसे व्यक्ति को भी जाकर छुरा उसके हाथ में भोंक देंतो वह भी पूछेगाक्योंतुमने छुरा मुझे क्यों मार दिया है?
लेकिन अगर जगत अराजक हैतो क्यों का प्रश्न अनुचित है। यहां घटनाएं घटती हैंबिना किसी कारण के। तो मैं कह सकता हूं कि यह संयोग है कि मेरे हाथ में छुरा हैतुम्हारा हाथ करीब है। और यह संयोग है कि मेरा हाथ तुम्हारे हाथ में छुरे को भोंकता है। इसमें कोई कारण नहीं है। लेकिन अराजक आदमी भी पूछेगा कि छुरा मुझे क्यों मारा गया हैवह भी जानना चाहता है कारण।
मैं आप से यह कह रहा हूं कि मनुष्य की चेतना ही ऐसी है कि वह व्यवस्था को अस्वीकार नहीं कर सकती है। विचार में भी अस्वीकार करेतो भी अव्यवस्था के लिए भी व्यवस्था निर्मित करेगी। अगर कोई आदमी यह भी कहे कि जगत नहीं 'हैतो इसे भी वह सिद्ध करने में लग जाता है। अगर वह यह कहे कि यह सब झूठ हैजो हैतो भी वह इसे सिद्ध और सत्य करने में लग जाता है। इससे एक भीतरी बात की खबर मिलती है।
पश्चिम में एक विचारक हुआबर्कले। बर्कले कहता है कि जगत एक स्‍वप्‍न हैएक विचारबाहर कोई जगत नहीं है। लेकिन वह भी लोगों को समझाने जाता है कि मैं जो कहता हूं वह ठीक है।
वह किन्हें समझाने जाता हैअपने ही विचारों कोअपने ही सपनों कोअपने ही सपने के पात्रों कोऔर जब कोई उसको मानकर राज़ी हो जाते है और ताली बजाता हैतो वह प्रसन्न होता है। अपने ही सपनों के पात्रों से सुनी गई तालियों से प्रसन्न होता हैऔर जब कोई राज़ी नहीं होता और इनकार करता हैतो वह दुखी और पीडित होता है।
वह कहता भला हो जगत मेरा विचार है लेकिन उसकी चेतना स्‍वयं भी इसे नहीं मान पाती है।
आप क्‍या कहते है ये बहुत महत्‍वपूर्ण नहीं हैआपका अंतर्चित्त क्या स्‍वीकार करता है वह महत्‍वपूर्ण है।
तो एक द्वार आपको कहूं और वह पहला द्वार यह है कि मनुष्य की चेतना स्‍वभावत व्‍यवस्‍था को स्वीकार करती है। इस जगत में अगर कोई व्‍यवस्‍था है। तो ही हम तृप्त हो सकते हैं। अगर इस जगत में कोई व्‍यवस्‍था नहीं हैतो हम तृप्त नहीं हो सकते हैंक्योंकि हमारे प्राणों की गहराई से व्यवस्था की मांग है। इस माग का ही परिणाम ईश्वर की धारणा है।
ईश्वर की धारणा का अर्थ है कि जगत एक व्यवस्था हैएक कास्मास हैकेआस नहीं। यहां जो भी हो रहा हैवह प्रयोजनपूर्वक है। और यहां जो भी हो रहा हैउसका कोई गंतव्य है। और यहां जो भी हो रहा हैउसके पीछे कोई सुनियोजित हाथ हैं। यहां जो भी दिखाई पड़ रहा हैवह कितना ही सांयोगिक होसांयोगिक नहीं हैकार्य और कारण से आबद्ध है।
ईश्वर की धारणा का जो मौलिक आधार हैवह पहला आधार यही है कि मुनुष्य कुछ भी करेविचार कुछ भी करेविचार व्यवस्था के पार नहीं जा सकता है। विचार स्वयं ही व्यवस्था का आधार है। विचार व्यवस्था की मांग है। सोचने का अर्थ ही है कि प्रयोजन हैअन्यथा सोचने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। समझाने का अर्थ हैक्योंकि कोई प्रयोजन है।
और हम जहां भी देखेंवहां जीवन में व्यवस्था के चरण सब जगह दिखाई पड़ते हैं। छोटेसे परमाणु से लेकर आकाश में घूमते हुए विराट महाकाय ताराओं की तरफ हम आंख उठाएंचाहे क्षुद्रतम में और चाहे विराटतम मेंएक गहननिबिड़ योजना परिलक्षित होती है।
एडिंगटन ने अपने मरने के पहले लिखा हैऔर एडिंगटन तो विशुद्ध वैज्ञानिक चिंतक थाउसने लिखा है कि जब मैंने अपना विचार शुरू किया जगत के बाबततो मैं सोचता थाजगत वस्तुओं का एक समूह है। लेकिन जीवनभर की निरंतर खोज के बाद अब मुझे ऐसा लगता हैजगत वस्तुओं का समूह नहींविचार की एक व्यवस्था है। एडिंगटन ने कहा है कि नाउ दि वर्ल्ड लुक्स 'मोर लाइक ए थाट दैन लाइक ए थिंग।
वस्तु में और विचार में क्या फर्क हैवस्तु अलगअलग टुकड़ों में भी हो सकती हैलेकिन विचार सदा एक संयोजना में होता है। विचार का एक पैटर्न है। विचार के भी भीतर एक आर्गेनिक यूनिटीएक सावयव एकता है। इसे थोड़ा खयाल में ले लें,तो इस सूत्र को समझना आसान हो जाए।
'यह मेरा हाथ है। ये मेरे हाथ की पांच अंगुलियां हैं। यह मेरा पैर है। यह मेरा सिर है। यह मेरा शरीर है। अगर ये सब वस्तुएं हैंतो इनके भीतर कोई ऐक्य नहीं हो सकता। लेकिन मेरे मन में विचार !उठता हैऔर मेरा हाथ उस विचार को पूरा करने के लिए उठ जाता है। मेरे मन में कामना उठती हैऔर मेरे पैर चलने को तत्पर हो जाते हैं। मेरी आंख देखती हैऔर मेरे कानजो मेरी आंख देखती हैउसे सुनने को उत्सुक हो जाते हैं। मेरे पैर और मेरी आंख मेंऔर मेरे कान मेंऔर मेरे हाथ मेंऔर मेरे मन में एक अंतर्व्यवस्था हैएक इनर सिस्टम है। ये सिर्फ जोड़ नहीं हैं। ये सिर्फ जोड़ नहीं हैं कि हाथ मेरे पैर से जुड़ा हैपैर मेरे शरीर से जुड़े हैं। ये सिर्फ जोड़ नहीं हैं। इन सबके भीतर बहती हुई कोई एकता है। उस एकता का नाम आर्गेनिक यूनिटी है।
ईश्वर की धारणा इस बात की घोषणा है कि यह जगत भी वस्तुओं का समूह नहींएक अंतरऐक्य है। एक इनर यूनिटी इस सारे जगत के भीतर दौड़ रही है। अगर वृक्ष उग रहा है और आकाश में तारे चल रहे हैंवर्षा हो रही है और नदिया सागर की तरफ भाग रही हैंसूरज सुबह उग रहा है और चांद रात को आकाश में यात्रा करता हैयह सब का सब अलगअलग घटनाओं का जोड़ नहीं है। इन सारी घटनाओं के बीच जैसे मेरे शरीर में मेरी एकता व्याप्त हैइन सबके बीच कोई अंतर्व्यवस्था व्याप्त है। उस अंतर्व्यवस्था का नाम ईश्वर है।
ईश्वर व्यक्ति नहीं हैईश्वर अंतर्व्यवस्था है। समस्त व्यक्तियों के बीच जो अंतर्व्यवस्था हैउसका नाम ईश्वर हैसमस्त वस्तुओं के बीच जो जोड्ने वाली कड़ी है।
अब यह मजे की बात है कि अगर मेरे हाथ को काट देंतो मेरा हाथ कटकर गिर जाएगामेरा शरीर अलग हो जाएगा,लेकिन दोनों के बीच की जोड्ने वाली कड़ी दिखाई नहीं पड़ेगी। पकड़में भी नहीं आएगी। अब तक तो नहीं आ सकी है। और जितना गहरे जो जानते हैंवे कहते हैंकभी पकड़ में नहीं आ सकेगी। वह अंतर्व्यवस्था अदृश्य है।
यह तो निश्चित है कि मेरे हाथ और मेरे बीच कोई अंतरकड़ी हैतभी मेरे मन में विचार कंपता है और मेरा हाथ सक्रिय हो जाता है। विचार और मेरे हाथ में भी कोई जोड़ है। लेकिन हाथ को काटते हैंतो हाथ में और मेरे शरीर में जो जोड़ हैवह तो दिखाई पड़ता हैनसे दिखाई पड़ती हैंमसल्स दिखाई पडते हैंस्नायुहड्डियां दिखाई पड़ती हैंलेकिन मेरे हाथ और मेरे विचार में जो जोड़ हैवैह कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता! वह जोड़ है जरूर। क्योंकि इधर। मैं सोचता हूं उधर मेरा हाथ सक्रिय हो जाता है।
जब कभी वह जोड़ खो जाता हैतो हम कहते हैंआदमी को लकवा लग गयापक्षाघात हो गया। अब वह सोचता है कि मेरा हाथ उठे और हाथ नहीं उठता। तो वह आदमी कहता हैमैं पैरालाइज्‍ड हो गया।
लेकिन इस जगत में जो लोग व्यवस्था को नहीं देखतेवे एक पैरालाइज्‍ड जगत देख रहे हैंएक पक्षाघातएक लकवे से लगा हुआ जगत है उनका। इसलिए नास्तिक जिस जगत को देखता हैवह पैरालाइज्‍ड है। उसमें अंतर्व्यवस्था उसे दिखाई नहीं पड़ रही है। और ध्यान रहेजिसका जगत पैरालाइज्‍ड हैवह खुद भी उसके साथ पैरालाइज्ज हो जाएगा। जिसका जगत एक मुर्दा जोड़ हैवह आदमी भी अपने भीतर एक मुर्दा जोड़ हो जाएगा। उसकी आत्मा बिखर जाएगी। जिसे इस जगत में आत्मा नहीं दिखाई पडतीउसे अपने भीतर भी आत्मा दिखाई नहीं पड़ेगीक्योंकि तब वह भी एक वस्तुओं का जोड़ है। जैसा कि चार्वाक ने कहा है कि आदमी केवल वस्तुओं का जोड हैउसके भीतर आत्मा जैसी कोई भी वस्तु नहीं है। अगर हम आदमी को काटेंतो यह बात सच है। अगर आदमी को तोड़ेतो यह बात सच है। हमें कहीं भी वह अंतर्व्यवस्था दिखाई नहीं पडेगी। वह अंतर्व्यवस्था अदृश्य है और इसलिए परमात्मा अदृश्य है।
पहली बातपरमात्मा से प्रयोजन हैइस सारे जगत के भीतर एक जीवंत जोड़ है। यहां एक पत्ता भी नहीं हिलताजब तक कि पूरे जगत का उसे साथ न हो। यहां अगर मैं एक शब्द बोलता हूंतो यह शब्द मैं ही नहीं बोलताबोल नहीं सकता हूं;अलगअकेलाअलगथलग जगत से मैं नहीं हूं। एक शब्द भी यहां बोला जाएगाबोला जा सकता है तभीजब पूरे जगत का उसे सहयोग होजब पूरी अंतर्व्यवस्था साथ हो।
'आपकी आंख खुलेगी भी नहींअगर सूरज ढल जाएसमाप्त हो जाए। आपकी सांस चलेगी भी नहीं। अकर सूरज मर जाए। दस करोड़ मील दूर जो सूरज हैउसके साथ आपकी सांस जुड़ी है। जिस दिन सूरज समाप्त हो जाएगाउस दिन हम समाप्‍त जायेंगे और हमें पता भी नहीं चलेगा कि सूरज समाप्‍त हो गया। क्‍योंकि पता चलने के लिए भी हम बचेंगे नहीं। हमें कभी पता नहीं चलेगा कि सूरज समाप्त हो गया। क्‍योंकि सूरज समाप्‍त हुआ तत्क्षण हम समाप्त हो जाएंगे।
सारा जगत एक अंतरसंयोंगएक अंतरसंबंध है। कहें कि जगत एक परिवार है।
ईश्वर की मान्यता का अर्थ है जगत को एक परिवार के रूप में देखना। ईश्वर को इनकार करने का अर्थ है प्रत्येक व्यक्ति एटामिक हो गयाआणविक हो गया अब जगत एक परिवार नही हैप्रत्येक व्यक्ति स्वयं हैऔर कहीं कोई संबंध नहीं है।
ध्यान रहेमनुष्य की चेतना इसे स्वीकार नहीं करती है। परम नास्तिक भी अपने जीवन में व्यवस्था को खोजता है। और परम नास्तिक भी व्यवस्था की मांग करता है।
मैं एक नास्तिक को जानता हूं। मेरे. पड़ोसी थे। विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं। दर्शनशास्त्र के ही प्रोफेसर हैं। अक्सर मेरे पास आते थे। कहते थेजगत में कोई व्यवस्था नहीं है। कहते थेजगत सिर्फ परमाणुओं का जोड़ है। इसके भीतर कोई अंत:स्थूतकोई धागा नहीं है। जैसे कि माला में मनके डले होते हैं और भीतर एक अनस्थूत धागा उनको जोड़े होता हैऐसा कोई धागा इस जगत में नहीं हैक्योंकि उसी धागे का नाम ईश्वर है। मनके ही मनके हैंकहीं कोई जोड़ नहीं है। और सब चीजें सायोगिक हैं।
वे कहते थे कि जैसे हम एक टाइपराइटर पर एक बंदर को बिठा दें और वह ठोंकता रहे टाइपराइटर कोअनंतकाल तक ठोंकता रहेतो गीता भी निर्मित हो सकती है। क्योंकि एक संयोग ही हैगीता भी शब्दों का एक संयोग है। अगर एक बंदर अनंतकाल तकहम सिर्फ कल्पना कर लेंएक बंदर अनंतकाल तक टाइपराइटर को बैठकर ठोंकता रहे बिना कुछ जानेतो भी अनंतअनंत संयोगों में एक संयोग गीता भी होगी। क्योंकि आखिर गीता है क्याशब्दों का एक संयोग है। एक दफे में गीता निर्मित नहीं होगीहजार दफे में नहीं होगीकरोड़ दफे में नहीं होगी। हम सोचें अनंतकाल तक वह बंदर और टाइपराइटर दोनों लगे हुए हैंतो अनंतअनंत संयोगों में एक संयोग गीता भी होगी।
यह गाणितिक बात है। यह प्रोबेबिलिटी है। इसमें कोई शक नहीं है। यह हो सकता है। लेकिन फिर भी गीता को पढ़कर ऐसा मालूम नहीं पड़ता कि यह एक संयोग है। फिर भी ऐसा नहीं मालूम पड़ता कि किसी आदमी ने अचानक इन शब्दों को जोड़ दिया है। इन शब्दों के भीतर अनस्‍यूत धागा  पड़ता है। लेकिन वे मानने को राजी नहीं थे। मैंने उन्‍हें न मालूम कितनेकितने रूपों से समझाया होगालेकिन वें मानने को राज़ी ही नहीं है। 
जो मानने को राज़ी नहीं है! वह बहरा हो जाता हैवह सुनना बंद कर देता है। तब फिर मेरे पास एक ही उपाय थाऔर वह उपाय मैंने उनसे किया। मैं उनसे असंगत बातें करने लगा। वे पूछते आकाश कीमैं जमीन का जवाब देता। वे ईश्वर की चर्चा उठातेमैं मशीन की बात करता वे किसी के मरने की खबर देतेऔर मैं किसी के विवाह की चर्चा छेड़ता। वे मुझसे कहने लगेआपका दिमाग तो खराब नहीं हो गया हैमैं कुछ कहता हूं आप कुछ कहते हैं! इन दोनों में कोई संबंध नहीं है!
मैंने उनसे कहाआपका मन भी संबंध की तलाश करता हैआप भी एक व्यवस्था की खोज करते हैंआपको व्यवस्था का खयाल छोड़ देना चाहिए। जब कोई व्यवस्था ही नहीं हैतो आप मरने की खबर देंमैं विवाह की चर्चा करूंइससे अड़चन क्या हैलेकिन आपकी भी अपेक्षा है कि आपने मरने की खबर दीतो मैं मरने की खबर के संबंध में ही बात करूं। इतनी व्यवस्था की मांग आप भी करते हैं!
हमारी चेतना व्यवस्था की मांग किए ही चली जाती है। अगर कल रास्ते पर वे मुझे मिले थे और मैंने नमस्कार किया था और आज नहीं कियातो उनका मन दुखी होता है। मैंने उनसे पूछादुखी होने की क्या जरूरत हैकल यह संयोग था कि नमस्कार हुई। आज यह संयोग है कि नमस्कार नहीं होती। दोनों के बीच कोई संबंध कहां हैतब उनका बहरापन टूटना शुरू हुआ। और उन्हें खयाल आना शुरू हुआ कि मांग तो मेरी भी व्यवस्था की ही है। चेतना व्यवस्था को मतो ही चली जाती है। व्यवस्था चेतना की गहरी प्यास है। ईश्वर उसका अंतिम उत्तर है। ईश्वर का अर्थ हैहम जगत को एक व्यवस्था मानते हैं। यहां कुछ भी अकारण नहीं है। इसलिए कृष्ण कहते हैं कि कल्प के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति को ही प्राप्त हो जाते हैंमेरी प्रकृति में लय हो जाते हैं। और कल्प के प्रारंभ में उन्हें मैं पुन: निर्मित करता हूं।
इसे हम दूसरे दरवाजे से भी चलें।
ऐसा अगर होमनुष्यता नष्ट हो जाए। कल कोई युद्ध होऔर अगर राजनीतिज्ञों की कृपा रहीतो होगा हीमनुष्यता कल नष्ट हो जाएआदमी समाप्त हो जाएऔर फिर किसी अनजाने ग्रह से मनुष्यता के इस मरघट पर कोई यात्री उतरें। अगर उन्हें माइकलएंजलो के हाथ की बनी हुई कोई तस्वीर मिल जाएतो वे क्या करें?
दो ही उपाय हैं। या तो वे सोचें कि किसी ने इसे बनाया होगा। क्योंकि इतने अनुपात मेंइतने सुसंयोजन मेंइतनी लयबद्धरंगों के साथ इतनी व्यवस्थारूप का अवतरणरंगों में निराकार की पकडूयह आकस्मिक नहीं हो सकतीकोइसिडेंटल नहीं हो सकती। ऐसा नहीं है कि रंग पड़ गए होंगे केनवस पर और यह चित्र बन गया होगा।
एक तो रास्ता यह है कि वे इस चित्र की व्यवस्था को देखकर सोचें कि किसी ने इसे निर्मित किया होगा। और दूसरा रास्ता यह है कि वे सोचें कि यह बन गई होगी।
लेकिन अगर एक चित्र हाथ में लगेतो संयोग की बात भी हो सकती है। लेकिन फिर उन्हें मूर्तियां मिलेंखजुराहो के मंदिर मिलेंकि कोणार्क की मूर्तियां मिलें। और वे जमीन के कोनेकोने पर घूमते रहें और उन्हें अनेक यंत्र मिलेंऔर अनेक व्यवस्थाएं मिलेंतब भी अगर वे यही कहे चले जाएं कि यह संयोग की बात है! यह संयोग की बात है कि यह जो रेडियो का यंत्र पड़ा हैसंयोग की बात है कि अनंतअनंत काल में अनेकअनेक चीजों के मिलने से निर्मित हो गया होगा।
लेकिन अगर एक रेडियो होतब भी यह संभव हो सकता है। जमीन पर बहुत रेडियो मिलेंरेल के इंजन मिलेंउजडे हुए कारखाने मिलेंजगहजगह व्यवस्था के लक्षण मिलेंजगहजगह बनाने वाले की खबर मिलेतब भी अगर वे यात्री जिद्द किए जाएंतो वह जिद्द उनकी नासमझी होगी।
जमीन के इंचइंच पर और प्रकृति के इंचइंच पर और विश्व के इंचइंच पर बनाने वाले की छाप है। यहां एक भी चीज निष्प्रयोजन नहीं मालूम पड़ती। और प्रत्येक चीज के भीतर एक गहन अनुपात है। अगर हम इनकार करे चले जाएंतो हम अपने ही हाथ अपने को अंधा बनाते हैं।
देखेंचारों तरफ आंखें खोलकर देखें। बीज को बोते हैं जमीन में। बीज को तोड़कर देखेंतो वृक्ष का कोई नक्‍श दिखाई नहीं पड़ताकोई ज्यूप्रिंट दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन अब वैज्ञानिक मानते हैं कि बीज में क्यूप्रिंट है ,— नहीं तो यह वृक्ष निकलेगा कैसेएक छोटेसे बीज में तोड़कर देखने पर कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता। लेकिन इस बीज को जमीन में बो देते हैं और वृक्ष अंकुरित होता हैहर कोई वृक्ष नहींएक विशिष्ट वृक्ष अंकुरित होता है। इस वृक्ष की शाखाएं हर वृक्ष जैसी नहीं होतीं। इसकी अपने ही ढंग की शाखाएं होंगीअपने ही ढंग के पत्ते होंगेअपने ही ढंग के फूल खिलेंगे। और आश्चर्य की बात यह है कि जब यह वृक्ष संपूर्ण होगातो जिस बीज को हमने बोया थावही बीज करोड़ों होकर वापस निकल आएगा। हर कोई बीज नहींवही बीज करोड़ों होकर फिर प्रकट हो जाएगा!
एक बीज के भीतर भी ब्‍लूप्रिंट है। एक बीज के भीतर भी व्यवस्था है। एक बीज के भीतर भी भविष्य की पूरी रूपरेखा है। एक मां के पेट में बच्चे ने गर्भ लिया है। वह जो पहला अणु है बच्चे काउसके भीतर पूरा का पूरा ब्‍लूप्रिंट है। उस व्यक्ति का पूरा का पूरा जीवन विकसित होगाउस सब की कहानी छिपी है।  उस सब के मूल निर्देश सूत्र छिपे हैंसारे सुझाव छिपे हैं। और शरीर उन सारे सुझावों को मानकर चलेगा। उस व्यक्ति की आँख का रंग क्या होगायह उस छोटेसे अणु में छिपा हैजो खाली आंख से देखा नहीं जा सकता। उस व्यक्ति की कितनी बुद्धि होगीकितनी मेधा होगीकितना आई क्यू होगावह उस छोटेसे अण में छिपा है। जिसको बुद्धि लाख उपाय करेतो भी पता नहीं लगा पा सकती। वह व्यक्ति कितनी उम्र का हो सकेगाकितनी उम्र का होकर मरेगाउस व्यक्ति को कौनसी खास बीमारियां हो सकती हैंवह सब उस छोटेसे बीज में छिपा है।
अगर इतने छोटेसे बीज में यह वृक्ष का सारा क्यूप्रिंट छिपा होता हैअगर छोटेसे मनुष्य के अणु मेंसेल मेंउसके पूरे जीवन की कथा छिपी होती है। तो क्या यह सोचना गलत है कि इस पूरे जगत का भी कोई क्यूप्रिंट होना चाहिएक्या यह सोचना गलत है कि इस सारे जगत की भी मूल व्यवस्था किसी अणु में छिपी हो गुड उस अणु का नाम ही परमात्मा है। यह जो इतना बड़ा विराट जगत हैइस सारे जगत के फैलाव की भी मूल व्यवस्था कहीं होनी चाहिए।
कृष्ण कहते हैंमैं ही इसे सृजन करता और मैं ही फिर इसे अपने में लीन कर लेता हूं।
इसे समझें। एक बीज से वृक्ष निर्मित होता है और फिर वृक्ष पुन: बीजों में लीन हो जाता है। प्रथम और अंतिम क्षण सदा एक होते हैं। जहां से यात्रा शुरू होती हैवहीं यात्रा पूर्ण हो जाती है। बीज से शुरू होती है यात्राबीज पर समाप्त हो जाती है।
इस सारे विराट अस्तित्व को अगर हम एक इकाई मान लेंतो इस इकाई का भी मूल कहीं छिपा होना चाहिए। लेकिन हम बीज को तोड़ते हैंतो वृक्ष नहीं मिलता। और अगर हम आदमी के अणु को तोड़ेउसके सेल कोकोष्ठ को तोड़ेतो भी उसमें आदमी नहीं मिलता। तो एक बात साफ होती है कि बीज में वृक्ष छिपा हैलेकिन किसी अदृश्य ढंग सेकिसी ऐसे ढंग से कि जब तक प्रकट न हो जाए तब तक उसका पता ही नहीं चलता।
ईश्वर का भी पता हमें तभी चलना शुरू होता हैजब किन्हीं अर्थों में वह हमारे लिए प्रकट होने लगता है। तब तक पता नहीं चलता। इसलिए सैद्धांतिक रूप से अगर भी ले कि जगत में ईश्वर हैतब भी उसका कोई प्रयोजन नहीं जब तक कि वह प्रकट न होने लगेवह अदृश्य हमें दिखाई न पड़ने लगे। उस बीज में से वृक्ष निकलने न लगेफूल न खिलने लगेंतब तक हमें उसका पूरा एहसासउसकी पूरी प्रतीति नहीं 'होती।
लेकिन यह धारणा उपयोगी हैक्योंकि यह धारणा होतो उस प्रतीति की तरफ चलने में आसानी हो जाती है। और हम उसी तरफ यात्रा कर पाते हैंजिस दिशा को हम अपने संकल्प में उन्मूक्त कर लेते हैं। जिस दिशा को हम बंद कर देते हैंउस तरफ यात्रा कठिन हो जाती है।
पश्चिम में एक विचारक अभी थाजिसका पश्चिम पर बहुत प्रभाव पड़ाएडमंड लूसेल्ड। उसका कहना हैमनुष्य का पूरा जीवन एक इनटेशनलिटी है। मनुष्य का पूरा जीवन एक गहन तीव्र इच्छा है। तो जिस दिशा में मनुष्य अपनी गहन तीव्र इच्छा को लगा देता हैवही दिशा खुल जाती हैऔर जिस दिशा से अपनी इच्छा को खींच लेता हैवही बंद हो जाती है।
तो अगर एक चित्रकार चित्रकार होना चाहता हैतो अपने समस्त प्राणों की ऊर्जा को उस दिशा में संलग्न कर देता है। एक मूर्तिकार मूर्तिकार होना चाहता हैएक वैज्ञानिक वैज्ञानिक होना चाहता है। लेकिन अगर आप कुछ भी नहीं होना चाहतेतो आप ध्यान रखिएआप कुछ भी नहीं हो पाएंगेक्योंकि आप किसी भी यात्रा पर अपनी चेतना को संगृहीत करके गतिमान नहीं कर पाते। आपके भीतर इनटेशनलिटीआपके भीतर संकल्प का आविर्भाव ही नहीं हो पाता। तो आप एक लोचपोच व्यक्ति होते हैंजिसके भीतर कोई केंद्र नहीं होता। बिना रीढ़ कीजैसे कोई शरीर हो बिना रीढ़ की हड्डी कावैसी आपकी आत्मा होती है बिना रीढ़ की।
यह जगत भी अपने समस्त रूपों में एक गहन इच्छा की सूचना देता है। यहां कोई भी चीज अकारण होती मालूम नहीं हो रही है। यहां प्रत्येक चीज विकासमान होती मालूम पड़ती है।
डार्विन ने जब पहली बार विकास काइवोज्यूशन का सिद्धात जगत को दियातो पश्चिम में विशेषकर ईसाइयत ने भारी विरोध किया। क्योंकि ईसाइयत का खयाल था कि विकास का सिद्धात धर्म के खिलाफ है। लेकिन हिंदू चिंतन सदा से विकास के सिद्धात को धर्म का अंग मनता रहा है।
असल में विकास के कारण ही पता चलता है कि जगत में परमात्मा है। विकास के कारण ही पता चलता है कि जगत किसी गहन इच्छा से प्रभावित होकर गतिमान हो रहा है। जगत ठहरा हुआ नहीं हैस्‍टैटिक नहीं है डायनैमिक है। यहां प्रत्येक चीज बढ़ रही हैऔर प्रत्येक चीज ऊपर उठ रही है। चीजें ठहरी हुई नहीं हैंचीजों के तल रूपांतरित हो रहे हैं। और यह जो विकास हैइररिवर्सिबल हैयह पीछे गिर नहीं जाता। एक बच्चे को हम दुबारा बच्चा कभी नहीं बना सकते। कोई उपाय नहीं है। क्योंकि विकास सुनिश्चित रूप से उसकी आत्मा का हिस्सा हो जाता है।
आप जो भी जान लेते हैंउसे फिर भुलाया नहीं जा सकता। आपने जो भी जान लियाउसे फिर मिटाया नहीं जा सकता। क्योंकि वह आपकी आत्मा का सुनिश्चित हिस्सा हो गया। वह आपकी आत्मा बन गई। इसलिए इस जगत में जो भी हम हो जाते हैंउससे नीचे नहीं गिर सकते।
अगर यह संयोग मात्र हैतो ठीक है। एक का किसी दिन सुबह उठकर पाए कि बच्चा हो गया! एक इतनी सुबह उठे और पाए कि सब अंधकार हो गयाअज्ञान ही अज्ञान छा गया! एक मूर्तिकार सुबह उठकर पाए कि उसकी छेनीहथौड़ी को हाथ पकड़ नहीं रहेहाथ छूट गए हैं! उसे कुछ खयाल ही नहीं आता कि कल वह क्या था!
नहींहमारा आज हमारे समस्त कल और अतीत के ज्ञान और अनुभव को अपने में समा लेता हैनिविष्ट कर लेता है। न केवल अतीत को निविष्ट कर लेता हैबल्कि भविष्य की तरफ पंखों को भी फैला देता है।
जगत एक सुनिश्चित विकास हैएक कांशस इवोल्‍यूशन। अगर जगत विकास हैतो उसका अर्थ है कि वह कहीं पहुंचना चाह रहा है। विकास. का अर्थ होता हैकहीं पहुंचना। जीवन कहीं पहुंचना चाह रहा है। जीवन किसी यात्रा पर है। कोई गंतव्य है,कोई मंजिल हैजिसकी तलाश है। हम यूं ही नहीं भटक रहे हैं। हम कहीं जा रहे हैं। जानेअनजानेपहचानते होंन पहचानते होंहमारा प्रत्येक कृत्य हमें विकसित करने की दिशा में संलग्न है।
और ध्यान रहेहमारे जीवन में जब भी आनंद के क्षण होते हैंतो वे वे ही क्षण होते हैंजब हम कोई विकास का कदम लेते हैं। जब भी हमारी चेतना किसी नए चरण को उठाती हैतभी आनंद से भर जाती है। और जब भी हमारी चेतना ठहर जाती हैअवरुद्ध हो जाती हैउसकी गति खो जाती है और कहीं चलने को मार्ग नहीं मिलतातभी दुखतभी पीड़ातभी परतंत्रता,तभी बंधन का अनुभव होता है। मुक्ति का अनुभव होता है विकास के चरण में।
जब बच्चा पहली दफा जमीन पर चलना शुरू करता हैतब आपने उसकी प्रफुल्लता देखी हैजब वह पहली दफा पैर रखता है जमीन परऔर पहली दफा डुलता हुआकंपता हुआघबड़ाया हुआभयभीतझिझकता हुआपहला कदम उठाता है,और जब पाता है कि कदम सम्हल गया और जमीन पर वह खड़े होने में समर्थ हैतो आपको पता होना चाहिए विकास का एक बहु,त बड़ा कदम उठ गया है। यह सिर्फ पैर चलना हीं नहीं हैआत्मा को एक नया भरोसा मिलाआत्मा को एक नई श्रद्धा मिलीआत्मा ने पहली दफा अपनी शक्ति को पहचाना। अब यह बच्चा दुबारा वही नहीं हो सकेगाजो यह घुटने के बल चलकर होता था। अब यह दुबारा वही नहीं हो सकेगा। अब यह सारी दुनिया भी इसको घुटने के बल झुकाने में असमर्थ हो जाएगी। एक बड़ी ऊर्जा का जन्म हो गया।
इसलिए जब कोई हार जाता हैतो हम कहते हैंउसने घुटने टेक दिए। घुटने टेकना हारने का प्रतीक हो जाता है। लेकिन कल तक यह बच्चा घुटने टेककर चल रहा .था। इसे पता ही नहीं था कि मैं क्या हो सकता हूं मैं भी खड़ा हो सकता हूंअपने ही बल मैं भी चल सकता हूं। यह दुनिया की पूरी की पूरी ताकतसारी दुनिया की शक्ति भी चेष्टा करेतो मुझे गिरा नहीं पाएगी।
इस बच्चे के भीतर इनटेशनलिटीएक तीव्र इच्छा का जन्म हो गया। जिस दिन यह बच्चा पहली बार बोलता है और पहला शब्द निकलता है इसकातुतलाता हुआडांवाडोलडरा हुआउस दिन इसके भीतर एक नया कदम हो गया। जिस दिन बच्चा पहली बार बोलता हैउसकी प्रफुल्लता का अंत नहीं है। अपने को अभिव्यक्त करने की आत्मा ने सामर्थ्य जुटा ली।
इसलिए बच्चे अक्सर एक ही शब्द कोजब वे बोलना शुरू करते हैतो दिनभर दोहराते हैं। हम समझते हैं कि सिर खा रहे हैंपरेशान कर रहे हैंवे केवल अभ्यास कर रहे हैं अपनी स्वतंत्रता का। वह जो उन्हें अभिव्यक्ति मिली हैवे बारबार उसको छूकर देख रहे हैं कि हीमैं बोल सकता हूं! अब मैं वही नहीं हूंमौनबंद। अब मेरी आत्मा मुझसे बाहर जा सकती है। नाउ कम्मुनिकेशन इज पासिबल। अब मैं दूसरे आदमी से कुछ कह सकता हूं। अब मैं अपने में बंद कारागृह नहीं हूं। मेरे द्वार खुल गए!
वह बच्चा सिर्फ अभ्यास कर रहा है। अभ्यास ही नहीं कर रहा हैवह बारबार मजा ले रहा है। वह जिस शब्द को बोल सकता हैउसे बोलकर वह बारबार मजा ले रहा है। वह कह रहा है कि ठीक! अब यह बच्चा दुबारा वही नहीं हो सकताजो यह एक शब्द बोलने के पहले था। एक नई दुनिया में यात्रा शुरू हो गई। विकास का एक चरण हुआ।
न केवल हम ठहरे हुए ही नहीं हैंहम प्रतिपल विकासमान हैं। और एकएक व्यक्ति ही नहींपूरा जगत विकासमान है। यह जो विकास की अनंत धारा हैअगर हैतो ही जगत में ईश्वर है। क्योंकि ईश्वर का अर्थ हैटेल्हार्ड डि चार्डिन ने एक शब्द का प्रयोग किया हैदि ओमेगा प्याइंट। अंग्रेजी में अल्फा पहला शब्द है और ओमेगा अंतिम। अल्फा का अर्थ हैपहलाओमेगा का अर्थ हैअंतिम। चार्डिन ने कहा है कि गॉड इज दि ओमेगा ज्वाइंट। ईश्वर जो है. वह अंतिम बिंदु है विकास का। विकास की अंतिम संभावनाविकास का जो अंतिम रूप हैविकास की जो हम कल्पना कर सकते हैंवह ईश्वर है।
ईश्वर का अर्थ है कि यह जगत किसी एक सुनिश्चित बिंदु की तरफ यात्रा कर रहा है। कितना ही हम भटकते होंऔर कितना ही मार्ग से च्युत हो जाते होंऔर कितने ही गिरते होंकितने ही खाईखड्ड होंलेकिन इन सारे खाईखड्डोंइन सारी गिर जाने की संभावनाओं के बावजूद भी हम उठते हैंबढ़ते हैंऔर कोई दिशा हैजहां हम खिंचे चले जा रहे हैं। आदमी की चेतना विकसित होती चली जा रही है।
इसे हम ऐसा समझें। अस्तित्वजो है हमारे चारों तरफउसका नाम है। अस्तित्व से भी महत्वपूर्ण और कीमतीऔर अस्तित्व में जो केंद्रीय हैवह है जीवन। लाइफ इज सेंट्रल इन एक्सिस्टेंस। क्यों?
एक पत्थर पड़ा हैपत्थर कितना ही खूबसूरत होऔर पास में एक फूल खिल रहा हैऔर फूल कितना ही बदसूरत हो,तो भी फूल पत्थर से कीमती है। क्योंफूल विकासमान हैफूल जीवंत हैपत्थर मुर्दा है। फूल बढ़ रहा है। पत्थर की कोई संभावना नहीं हैफूल की संभावना है। पत्थर कल भी पत्थर रहेगाफूल आज कली हैकल खिलेगा। फूल विकासमान है,डायनैमिक है।
अस्तित्व का जो केंद्र हैवह जीवन है। कहें हम ऐसा कि अस्तित्व जीवन के लिए है। एक्सिस्टेंस इज फार लाइफ। अस्तित्व का अंत है जीवन। अस्तित्व का लक्ष्य है जीवन। लेकिन जीवन भी किसी के लिए है। जीवन में अगर हम खोजें कि क्या है केंद्रीयतो हम पाएंगेचिंतनमननविचारमन।
जैसे अस्तित्व का केंद्र है जीवनऐसे जीवन का केंद्र है विचार। इसलिए एक फूल खिल रहा हैकितना ही खूबसूरत हो;और एक मोर नाच रहा हैकितनी ही उसकी नृत्य। होलेकिन एक छोटासा मूढ़ बच्चा भी उसके पास बैठा है तो यह बच्चा ज्यादा मूल्यवान है। यह बच्चा कुरूप होतो भी फूल से ज्यादा मूल्यवान है। और यह बच्चा बिलकुल मूढ़ होतो भी मोर से ज्यादा मूल्यवान है! क्योंक्योंकि इस बच्चे के पास एक भीतरी संभावना हैजो फूल के पास और मोर के पास नहीं है। इस बच्चे के पास भीतर एक मन की संभावना हैकितनी ही छोटीलेकिन एक और नई संभावना का द्वार खुल गया है। यह विकास के एक ऊपर के तल पर खड़ा हो गया है।
पत्थर पड़ा है। पत्थर से फूल एक कदम ऊपर हैविकासमान है। फूल से यह बच्चा एक कदम ऊपर हैक्योंकि यह विकासमान ही नहीं हैयह मनन की क्षमता से भी भरा हैयह सोच भी सकता है। माइंड इज सेंट्रल टु लाइफ। मन जीवन का केंद्र है। लेकिन मन कितना ही विकसित होएक आइंस्टीन बैठा होजिसके पास विकसित से विकसित मन हैजिसने जगत को कीमती सिद्धात दिएशक्ति दीविज्ञान दिया। लेकिन पास में ही एक साधारणसा मनुष्य बैठा हो ध्यान में लीनतो आइंस्टीन से ज्यादा कीमती है। एक साधारणसा व्यक्ति ध्यान में लीन बैठा होतो आइंस्टीन से ज्यादा कीमती है।
क्योंक्योंकि उसने और एक नया चरण पूरा किया। अब वह मन में ही नहीं जीतामन को भी शात करने परविचार के भी खो जाने पर जो चेतना शेष रह जाती हैउसमें जीता है।
कांशसनेस इज सेंट्रल टु माइंडमन का भी केंद्र चैतन्य है। चैतन्य शिखर है। अस्तित्व आधार हैचैतन्य शिखर है। लेकिन चैतन्य का भी प्रयोजन क्याएक आदमी बैठा है शातमन के विचार खो गएअशांति खो गईसब खो गया। शात है बिलकुल। चेतना से भरा है। लेकिन उसके पास ही एक दूसरा आदमी बैठा हैजो सिर्फ शात ही नहीं हैमात्र शाति निषेध है,नकार हैअभाव हैजो केवल शात ही नहीं हैजो परमात्मा के अनुभव से नाच उठा है।
गॉड इज सेंट्रल टु कांशसनेस। अकेले शात हो जाना निषेध है। मन तो खो गयालेकिन नया कुछ अवतरित नहीं हुआ है। लेकिन चेतना जब परमात्म से भर जाए और चेतना जब दिव्यता से भर जाए तो अब एक नया रंगएक नया आनंदएक एक्सटैसीएक वर्षा अमृत की हो गई है। यह शिखरों में भी शिखर है।
ये पांचअस्तित्वजीवनमनध्यानपरमात्मा। और समझ में आने की बात होगीआसान हो जाएगाअगर परमात्मा पीक हैशिखर है हमारा सबकाहमारे अस्तित्व कातो जो अंत में प्रकट होता हैवह पहले ही मौजूद होना चाहिएअन्यथा प्रकट नहीं हो सकता। इसे थोड़ा समझना कठिन होगा।
लेकिन अंत में वही प्रकट होता हैजो प्रथम में मौजूद होता हैयह जीवन के शाश्वत नियमों में एक है। अगर फूल में से अंत में बीज निकलते हैंबीज से अंत में बीज निकलते हैंवृक्ष से अंत में बीज निकलते हैंतो वे बीज खबर देते हैं कि प्रथम में भी बीज ही रहा होगा।
आपने या माली ने एक पौधा लगाया। यह माली मर जाएगा। इसके बेटे इस वृक्ष में आए हुए बीजों को बटोरेंगे। फिर भी वे कह सकते हैं कि बीज चूंकि अंतिम हैइसलिए बीज प्रथम में भी रहे होंगे। क्योंकि अंतिम वही होता हैजो प्रथम में मौजूद था। अंत में वही तो प्रकट होता हैजो पहले से छिपा था। अंत प्रथम की अभिव्यक्ति है।
तो जैसा चार्डिन ने शब्द उपयोग किया हैओमेगाअंत। बट ओमेगा इज आल्सो दि अल्का। वह जो पहला हैवही अंतिम है। तो अगर ईश्वर जीवन की परम शिखर अनुभूति हैतो निश्चित ही वह प्रथम भी मौजूद होगी। इसलिए कृष्ण के इस सूत्र को अब हम् समझेंतो आसानी हो जाएगी।
कहते हैंकल्प के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं। वे यह कह रहे हैं कि कल्प के अंत में सभी कुछ अंतत: ईश्वरीय हो जाता हैएवरीथिंग बिकम्स डिवाइन। अंत मेंअंत का अर्थ हैयह परम जो स्थिति होगी विकास होतेहोतेयात्रा चलतेचलतेजो आखिरी मंदिर आएगाउसमें पत्थर भीप्राण भीसभी कुछ मुझ में लीन हो जाता है। क्योंकि मैं ही प्रथम और मैं ही अंतिम हूं। कल्प के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैंअर्थात मेरी प्रकृति में लय हो जाते हैं। मेरा जो स्वभाव हैमेरा जो होना हैमेरा जो अस्तित्व हैअंत में सभी कुछ उसमें लीन हो जाता है।
इसलिए कल्प को दो तरह से देखें। उसको सिर्फ अंत ही न समझेंउसे लक्ष्य भी समझें। वह दोहरे अर्थों में अंत है। वह समाप्ति भी हैवह पूर्णता भी। और हर पूर्णता समाप्ति होती है। हर समाप्ति पूर्णता नहीं होतीलेकिन हर पूर्णता समाप्ति होती है।
जब सारा जीवन विकसित होकर प्रभु के पास पहुंच जाता हैतो जगत तिरोहित हो जाता हैसिर्फ परमात्मचेतना शेष रह जाती है। यह एक कल्प का अंत है।
कृष्ण कहते हैंऔर कल्प के प्रारंभ में मैं उनको फिर रचता हूंफिर उनका निर्माण करता हूं।
ध्यान रहेयह निर्माण भी विकास की यात्रा है। यह निर्माण भी फिर पुराने जैसा नहीं होता। यह निर्माण भी और एक अगला कदम है। यह फिर से निर्माणफिर एक अगला कदम है।
अपनी त्रिगुणमयी प्रकृति को अंगीकार करकेस्वभाव के वश से परतंत्र हुए इस संपूर्ण भूत समुदाय को बारंबार उनके कर्मों के अनुसार रचता हूं।
और जो भी रचना घटित होती हैकृष्ण कह रहे हैंवह रचना प्रत्येक के कर्मानुसार घटित होती है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति जो करता हैवैसा ही हो जाता है। और प्रत्येक भूत समुदाय जोजो करके गुजरता हैवही करना उसकी आत्मा बनती चली जाती है। और वही आत्मा उसके नए जन्म का रूप देती है। वही आत्मावही कर्मों का समुच्चित रूप उसके नए जन्म का ब्‍लूप्रिंट है। न केवल व्यक्ति के लिएवरन समस्त जगत के लिए भी।
यह समस्त जगत जब पुन: निर्मित होगातो इस जगत ने जो भी कियाजो भी पायाजो भी अनुभवजो भी यात्रा का फलवह सब का सब पुन: बीज बन जाता है।
जब एक वृक्ष में बीज लगते हैंतो क्या होता हैवृक्ष का सारा अनुभववृक्ष की सारी यात्रावृक्ष का सारा जीवन बीज में पुन: प्रविष्ट हो जाता है। सार मेंइसेंस में सब बीज में छिप जाता है। फिर बीज जमीन में पड़ता है। फिर वृक्ष का जन्म होता है।
इस संबंध में एक बात और समझ लेनी जरूरी है कि भारतीयहिंदू चिंतन जगत को एक वर्तुलाकार यात्रा मानता है। ईसाई चिंतन जगत की यात्रा को रेखाबद्ध यात्रा मानता है। ईसाई चिंतन का खयाल है कि समय एक रेखा में चलता हैसीधा,बिलकुल सीधालीनियर कंसेप्ट आफ टाइमसीधा। लेकिन हिंदू चिंतन मानता है कि समय एक वर्तुल में चलता हैसर्कुलर। जैसे गाड़ी का चाक घूमता हैऐसा समय घूमता है।
अब यह आश्चर्य की बात है कि हिंदू चिंतन की जो धारणा हैवही वैज्ञानिक हैक्योंकि इस जगत में कोई भी गति सीधी नहीं होती। तो समय की भी होने का कोई कारण नहीं है। इस जगत में समस्त गतियां सर्कुलर हैं। चाहे जमीन सूरज का चक्कर लगाती होऔर चाहे सूरज महासूर्यों का चक्कर लगाता होचाहे यह आकाश के इतने अनंतअनंत तारे चक्कर लगाते हैं किसी धुरी काचाहे एक परमाणु को हम तोड़ेतो परमाणु के जो इलेक्ट्रान और न्‍यूट्रान हैंवे चक्कर लगाते हैं। जहां भी गति हैगति सर्कुलर है।
और अब तक जगत में ऐसी कोई गति नहीं मिली हैजो लीनियर होजो रेखाबद्ध हो। समय की गति तो देखी नहीं जा सकतीसमय को पकड़ा नहीं जा सकता। अगर समय की गति पकड़कर हम नापजोख करतेतो तय हो जाता कि ईसाई जैसा सोचते हैंवह सही हैया हिंदू जैसा सोचते हैंवह सही है! लेकिन समय को तो पकड़ा नहीं जा सकतासमय को देखा नहीं जा सकताफिर कैसे तय करें?
तो हिंदू का चिंतन गहरा मालूम पड़ता है। वह कहता हैतुम मुझे कोई एकाध भी ऐसी गति बता दोजो पकड़ी जा सकती होजो सीधी होरेखाबद्ध हो। जितनी गतिया मनुष्य को पता हैंसभी वर्तुल हैं। तो हिंदू कहता हैफिर जो गति हमें दिखाई नहीं पड़तीज्यादा उचित है कि हम मानेंवह भी वर्तुल होगी। कोई कारण नहीं है उसके रेखाबद्ध होने का। हिंदू मानता है कि गति मात्र वर्तुलाकार है।
बच्चा हैयह वर्तुल का पहला बिंदु है। इसलिए अक्सर के जो हैंफिर बच्चों जैसे हो जाते हैंजैसे। बच्चे नहीं हो जाते,बच्चों जैसे हो जाते हैंनिरीहअसहायपुन:। एक वर्तुल पूरा हुआ। हिंदू कहता है कि बच्चे और के के बीच सीधी रेखा नहीं है,वर्तुलाकार है। इसलिए पैंतीस साल के करीब आदमी वर्तुल के शिखर पर होता हैफिर गिरना शुरू हो जाता है। फिर वापस आने लगा। कब में पहुंचतेपहुंचते वह वहीं पहुंच जाता हैजहां अपने घर के झूले में थावापस। और अगर हम गौर से देखेंतो दिखाई पड़ेगा कि का धीरेधीरेधीरेधीरे बच्चे जैसा निरीह होता चला जाता हैबच्चे से भी ज्यादा निरीह। क्योंकि बच्चे पर तो कोई दया भी करता था। अब उस पर कोई दया करने वाला भी नहीं मिलता। क्योंकि लोग समझते हैंवह का हैउस पर क्या दया करनी! इसलिए भारत ने जो खयाल दुनिया को दिया था कि बच्चे से भी ज्यादा चिंता वृद्ध की करनाउसके पीछे कारण था। उसके पीछे कारण था कि वृद्ध दिखाई नहीं पड़तालेकिन वह बच्चे जैसा हो गया है। बच्चे को हम माफ कर देते हैं,अगर वह नाराज हो। के को हम माफ नहीं कर पातेअगर वह नाराज हो।
लेकिन भारत की बहुत गहरी समझ थीऔर वह यह थी कि बच्चे को तुम चाहे माफ मत भी करनाक्योंकि अभी बच्चे को कुछ पता भी नहीं है कि माफ किया जाता है कि नहीं किया जाता हैलेकिन के को तो बिलकुल माफ कर देना। माफ ही मत कर देनामान लेना कि वही ठीक हैतुम गलत हो। क्‍योंकि उसे भी खयाल है कि वह का हैलेकिन उसकी प्रकृति उसे बिलकुल बच्चे जैसी
हो गई है। वर्तुल पूरा हो गया है। वह बच्चे ही जैसी नासमझिया करेगालेकिन समझदारी के खयाल के साथ करेगा।
इसलिए का कठिन हो जाता है। बच्चे जैसी ही नासमझिया करेगा। बच्चे जैसी ही जिद्द के आदमी में वापस लौट आती है। वैसा ही हठधर्मीपन आ जाता है। और एक और खतरा साथ हो गया होता हैक्योंकि उसे खयाल होता है कि वह बच्चा नहीं है। तो के निरंतर कहते हैं कि मैं कोई बच्चा नहीं हूं। उसे खयाल यह होता है कि वह का हैउसे सारे जीवन का अनुभव है। और उसे पता नहीं कि प्रकृति उसे वापस वर्तुल की पूर्णता की स्थिति पर ले आई है। क्योंकि मृत्यु वहीं होती हैजहां जन्म होता है। वह बिंदु बिलकुल एक है। इसलिए वापस प्रकृति उसको ला रही है। मगर अनुभवमनस्मृतिउसे कहती हैवह सब जानता है,और व्यवहार वह ऐसा करता हैजैसे कुछ न जानता हो।
तो उसका व्यवहार उसके ही बच्चों को अखरने लगता है। उसके बच्चों को लगता है कि काम तो ऐसे करते होजैसे कुछ न जानते हो। और बातें ऐसी करते होजैसे सब जानते हो! इसलिए बच्चों को भी सहना मुश्किल हो जाता है।
लेकिन भारत की समझ थी कि बूढ़े के साथ ऐसे ही व्यवहार ' करना जैसे वह बच्चा है। उसकी हठधर्मी सही है। वह गलत होइससे कोई चिंता मत करना। वह ठीक हो कि गलत होहमेशा उसे ठीक मान लेना। वह गलत भी करेतो भी उसके चरणों में सिर रख देना। वह वापस लौटता हुआ वर्तुल है। बच्चे से ज्यादा दयनीय है। बच्चे में तो अभी शक्ति जगेगी। अभी तो बच्चा शक्ति का स्रोत है। का तो चुक गया। उसकी शक्ति खो गई। इसलिए पूरब ने बूढ़े को जो आदर दिया हैउसके पीछे बड़ी सूझ हैखयाल हैकारण है। सारी गतियां वहीं शुरू होती हैंवहीं अंत होती हैं।
कृष्ण कहते हैंसब मुझमें लीन हो जाता है और फिर मुझसे पुन: रचा जाता है। यह रचना जगत के कर्मानुसारभूतों के कर्मानुसार घटित होती है।
इस संबंध में भी पूर्वीय चिंतन अति वैज्ञानिक है। क्योंकि पूरब मानता हैअकारण कुछ भी घटित नहीं होता। जो भी होगावह कारण से बंधा होगा। अगर इस पूरे जगत को हम एक व्यक्ति मान लेंतो इस पूरे जगत के एक कल्प का जो कर्म होगावही कर्म इसके नए कल्प की शुरुआत होगी। यह विशाल है बातऔर मस्तिष्क पकड़ नहीं पाएगा। लेकिन बूंद को भी समझ लेंतो सागर समझ में आ जाता है।
आप आज जो भी हैंवह आपके समस्त कलों का जोड़ है। और कल आप जो होंगेउसमें आज और जुड़ जाएगा। आप जो बोलेंगेजो सोचेंगेजो होंगेजो व्यवहार करेंगेजो करेंगे और जो नहीं करेंगेवह भीवह आपके समस्त सार से निकलेगा। आपके पूरे जीवन के कर्मों के सार से निकलेगा। एक अर्थ में यह सेल्फ प्रपोगेटिंगस्वचालित व्यवस्था है। इससे अन्यथा होने का कोई उपाय नहीं है। अगर हम इस सारी बात कोपूरे जगत को एक व्यक्ति मान ले. तो पूरे जगत में भी ऐसा ही घटित होगा।
हे अर्जुनउन कर्मों में आसक्तिरहित और उदासीन के सदृश स्थित रहते हुए वे कर्म मुझे नहीं बांधते हैं।
यह अंतिम सूत्र खयाल में ले लेने जैसा है। क्योंकि यह सवाल उठ सकता है कि अगर व्यक्ति कर्म करता हैतो अपने कर्मों से बंध जाता हैऔर अगर परमात्मा भी जगत को रचता हैबनाता हैमिटाता हैसम्हालता हैतो क्या ये कर्म उसे नहीं बांधते होंगेक्या ये कर्म उसका बंधन न बन जाते होंगेक्या ये कर्म फिर उसके लिए भी कारागृह निर्माण न करते होंगेअगर व्यक्ति बंध जाता हैतो होगा वह महाव्यक्तिलेकिन उसके महाकर्म भी तो उसे बांधने वाले सिद्ध होंगे।
इसलिए क्या ने कहा है कि यह सब करता हूंअनासक्त। किस कर्म में व्यक्ति अनासक्त रह सकता हैसिर्फ व्यक्ति खेल में अनासक्त रह सकता हैबाकी सभी कर्मों में आसक्त हो जाता है। सिर्फ खेल में अनासक्त रह सकता है। हम तो खेल में भी नहीं रह सकते हैं। क्योंकि हमारे लिए खेल भी कर्म बन जाता है। अगर दो आदमियों को ताश खेलते देखेंतो उनके माथे पर ऐसी सिकुड़ने पड़ी होती हैंजैसे जीवनमरण का सवाल है। दो आदमियों को शतरंज खेलते देखेंतो जैसे इसी खेल पर सब कुछ निर्भर है। इस जगत का पूरा भविष्यइनके इस खेल पर निर्भर है! यह जो शतरंज के सिपाहियों को यहा से वहा उठाकर रख रहे हैंसारे प्राण उनके खिंचे हैं! उनका ब्लड प्रेशर नापेबढ़ जाएगा। उनकी छाती की धड़कन बढ़ जाएगी। उनका एक घोड़ा मरेगा,कि एक हाथी मरेगातो न मालूम कितनी पीड़ा और कितना क्या हो जाएगा!
इस शतरंज के खेल पर बैठा हुआ आदमी भी खेल में नहीं है। यह भी कर्म हो गया! और अगर हार जाएगातो रातभर सो नहीं सकेगा। रातभर शतरंज चलती रहेगी। फिर रखता रहेगासोचता रहेगा। शतरंज के जो बड़े खिलाड़ी हैंवे कहते हैं कि शतरंज में वही जीत सकता हैजो पांचवीं चाल तक को पहले से सोच लेपांचवीं चाल! अभी मैं यह चलूंगायह उत्तर आएगा;तब मैं यह चलूंगातब यह उत्तर आएगा। ऐसे पांच को जो पहले से सोच लेवही शतरंज में कुशल हो सकता है।
निश्चित ही हैकुशल शतरंज में होगा कि नहीं होगाएक बात पक्की हैपागल हो जाएगा।
तो मैंने सुना है कि इजिप्त का एक सम्राट शतरंज खेलतेखेलते पागल हो गया। बड़ा खिलाड़ी था। सब इलाज किए गए,वह ठीक न हो सका। तो फिर मनसविदों ने कहा कि अब एक ही उपाय है कि इससे भी बड़ा शतरंज का खिलाड़ी कोई मिलेतो शायद यह ठीक हो जाए। बहुत खोज की गईआखिर एक आदमी मिल गया। उसने मना किया। बहुत प्रलोभन दिए गए प्रलोभन में आकर वह चला आया। क्योंकि पागल के साथ वह शतरंज खेलने को तैयार नहीं होना चाहता था। ऐसे तो शतरंज का खेल ही पागल करने वाला हैफिर पागल खिलाड़ी भी सामने हो! तो वह खेलना नहीं चाहता था। लेकिन सम्राट का मामला थाबड़े प्रलोभन थे। लाखों रुपए का कहा गयाआ गया।
कहते हैंसालभर यह खेल चला। सम्राट ठीक हो गयालेकिन वह जो खेलने आया थावह पागल हो गया! वह गरीब आदमी था। फिर उससे बड़ा खिलाड़ी खोजना भी मुश्किल था। और उतना वह पुरस्कार भी नहीं दे सकता था। वह पागल ही मरा।
शतरंज भी आदमी खेलता हैतो भारी तनाव! और अगर तनाव न होदो आदमी ताश खेलते होंतनाव ज्यादा न रहा हो,तो खीसे से कुछ निकालकर दाव पर लगा लेते हैं। क्योंकि ये रुपए जो हैंये तत्काल किसी भी खेल को काम में परिवर्तित कर देते हैं। तो थोड़ा आदमी दाव लगा लेता है। थोड़ा ही सहीतो फिर खेल में रस आ जाता है।
रस क्यों आ जाता है खेल मेंखेल में रस ही नहीं है आपकोजब तक कि कर्म न बन जाए। जब तक आसक्ति न बने,तब तक रस नहीं है। रुपए के साथ जुड़ते ही आसक्ति जुड़ जाती है। रुपया सेतु का काम कर जाता है। अनासक्त कर्म तो एक ही हो सकता हैजैसे छोटे बच्चे खेलते हैं।
बुद्ध ने कहा है कि गुजरता था एक नदी के किनारे से। बच्चों को रेत के घर बनाते देखारुककर खड़ा हो गया। इसलिए खड़ा हो गया कि बच्चे भी रेत के घर बनाते हैं और के भी। थोड़ा इनके खेल को देख लूं। रेत के ही घर थे। हवा का झोंका आताकोई घर खिसक जाता। किसी बच्चे का धक्का लग जाताकिसी का घर गिर जाता। किसी का पैर पड़ जाताकिसी का बनाबनाया महल जमीन पर हो जाता। बच्चे लड़तेगाली देतेएकदूसरे को मारते। किसी ने किसी का घर गिरा दिया होतो झगड़ा तो सुनिश्चित है। सारे झगड़े ही घरों के हैं। किसी का धक्का लग गयाकिसी का घर गिर गया। किसी ने बड़ी मुश्किल से तो आकाश तक पहुंचाने की कोशिश की थीऔर किसी ने चोट मार दीऔर सब जमीन पर गिर गया!
तो बुद्ध खड़े होकर देखते रहे। बच्चे एकदूसरे से लड़ते रहे। झगड़ा होता रहा। फिर सांझ होने लगी। फिर सूरज ढलने लगा। फिर किसी ने नदी के किनारे आकर जोर से आवाज लगाई कि तुम्हारी माताएं तुम्हारी घर राह देख रही हैंअब घर जाओ! जैसे ही बच्चों ने यह सुनाअपने ही बनाए हुए घरों पर कूदफांद करकेउनको गिराकरवे घर की तरफ चल पड़े।
बुद्ध खड़े थेदेखते रहे। उन्होंने कहाजिस दिन हम अपने सारे जीवन को रेत के खेल जैसा समझ लेंऔर जिस दिन खयाल हमें आ जाए कि अब यह खेल समाप्त हुआपुकार आ गई वहां से असली घर कीअब उस तरफ चलेंतो उस दिन हम भी इनको गिराकर इसी तरह चले जाएंगे। अभी लड़ रहे थे कि मेरे घर को गिरा दियाअब खुद ही गिराकर भाग गए हैं!
बच्चे जैसे रेत के घर बनाकर खेल खेल रहे होंवैसे ही जब कोई व्यक्ति जीवन को खेल बना लेतो अनासक्त हो जाता है। परमात्मा के लिए जीवन एक खेल है।
ध्यान रहेइसलिए हमने जो शब्द प्रयोग किया हैवह हैलीला। उसका अर्थ हैप्ले।
पृथ्वी पर किसी दूसरे धर्म ने जगत के निर्माण को लीला नहीं कहा है। ईसाई ईश्वर अति गंभीर है। इसलिए छ: दिन में उसने इतना कठिन काम किया कि सातवें दिन विश्राम किया। ईसाई ईश्वर की धारणा है कि संडे जो हैवह विश्राम का दिन है। इसलिए हालीडे हैइसलिए छुट्टी है। क्योंकि छ: दिन में ईश्वर ने दुनिया बनाईफिर वह इतना थक गयाइतना परेशान हो गया कि सातवें दिन उसने विश्राम किया। वह सातवें दिन इसीलिए ईसाई अभी भी काम करना पसंद नहीं करता। कि जब भगवान तक सातवें दिन काम नहीं करतातो हमें तो करना ही नहीं चाहिए!
लेकिन ईसाई जो धारणा है ईश्वर कीवह बहुत सीरियस हैगंभीर है। तभी तो थक गया। और ये कृष्ण कभी नहीं कहेंगे कि मैं थकता हूं। ये कहते हैंकल्पों के बाद भी मैं हूं। फिर सब मुझ में लीन हो जाते हैंमैं फिर रचता हूं। ये फिर मुझ में लीन हो जाते हैंमैं फिर रचता हूंएड इनफिनिटम। इसका कोई हिसाब नहीं है। ये थकते ही नहीं। इन्होंने कोई हालीडे नहीं मनाया। इसका कुछ कारण होगा। ये बहुत गंभीर नहीं मालूम पड़तेनहीं तो थक जाते।
हिंदू धारणा ईश्वर कीगंभीर धारणा नहीं है। बहुत प्रफुल्लितबहुत खेल जैसी धारणा है। इसलिए हमने जगत को लीला कहा है। लीला अनूठा शब्द है। दुनिया की किसी भाषा में इसका अनुवाद 'नहीं किया जा सकता। क्योंकि अगर हम कहें प्लेतो वह खेल का अनुवाद है। लीला परमात्मा के खेल का नाम है। और दुनिया में किसी धर्म ने चूंकि परमात्मा को कभी खेल के रूप में देखा नहींइसलिए लीला जैसा किसी भाषा में कोई शब्द नहीं है। लीला अनूठे रूप से भारतीय शब्द है। इसका कोई उपाय नहीं है। अगर हमें करना भी हो कोशिशतो उसको डिवाइन प्ले। लेकिन वह शब्द नहीं बनते।
लीला काफी है। उसमें ईश्वर को जोड़ना नहीं पड़ता। लीला शब्द पर्याप्त है। उसका मतलब यह है कि यह सारा का सारा जो सृजन हैयह कोई गंभीर कृत्य नहीं है। यह एक आनंद की अभिव्यक्ति है। यह सारा जो विकास हैयह कोई सिरमाथे पर सलवटें पड़ी हों ईश्वर केऐसा नहीं है। यह एक नाचता हुआयह एक मौज से चलता हुआ प्रवाह है। यह भारी चिंता नहीं हैयह मौज है।
इसे थोड़ा खयाल में ले लेंक्योंकि यह बहुत उपयोग का है। और जिस दिन कोई व्यक्ति अपने जीवन को भी लीला बना लेता हैउसी दिन मुक्त हो जाता हैउसी दिन वह ईश्वरीय हो जाता हैउसी दिन वह ईश्वर हो जाता है।
जब तक आपका जीवन काम हैतब तक आप एक गुलाम हैंअपनी ही चिंताओं केअपनी ही गंभीरता के। अपनी ही गंभीरता के पत्थरों के नीचे दबे जा रहे हैं। ये पहाड़ जो आपके सिर पर हैंआपकी ही गंभीरता के हैं। उतार दें इन पहाड़ों को। जीवन को एक खेल समझेंएक आनंदतो फिर सिर पर कोई बोझ नहीं है। फिर आप जीवन से नाचते हुए गुजर सकते हैं। फिर आपके होंठ पर भी बांसुरी हो सकती है। फिर आपके प्राण में भी गीत हो सकता है। और जिस दिन आपकेप्राण में भी यह लीला का भाव उदय होगाउस दिन आप इस सूत्र को समझ पाएंगे कि यह पूरा का पूरा जगत उस परमात्मा के लिए भी लीला है।
और ध्यान रहे यह जगत इतना सुंदर इसीलिए है कि उस परमात्मा के लिए लीला है। यह इतना सुंदर नहीं हो सकता,अगर यह उसके लिए काम हो। सभी काम कुरूप हो जाते हैं। सभी काम कुरूप हो जाते हैं।
एक नर्स एक बच्चे की सेवा करती हैतब वह काम होता हैऔर एक मां जब अपने बच्चे को खिलाती हैतब वह खेल होता हैवह लीला होती हैकाम नहीं होता। वह उसका आनंद है। इसलिए जब एक मां अपने बच्चे के साथ खेल रही होती है,तब एक अनूठा सौंदर्य प्रकट होता है। और जब एक नर्स भी उस बच्चे के साथ खेल रही होती हैतब एक कुरूपता प्रकट होती है। उस कुरूपता का कारण नर्स नहीं हैबच्चा नहीं हैउस कुरूपता का कारण काम है। जिस जगह भी काम आ जाएगावहीं चित्त उदास हो जाता है। और जहां खेल आ जाता हैवहीं चित्त नृत्य से भर जाता है।
लेकिन अगर हम अपने महात्माओं की तरफ देखेंतो हमें शक होगा। इनको देखें अगर हमतो हमें लगेगाये तो भारी उदास हैं! अगर इन्हीं महात्माओं की तरफ से परमात्मा की तरफ जाना होतो हमें मानना चाहिएपरमात्मा तो सतत रो ही रहा होगा! महात्मा ही अगर उसका दरवाजा हैंतो ये महात्मा तो ऐसे मरे हुए बैठे हैं कि जीवन की कोई पुलक इनमें मालूम नहीं होती। ये तो अपने भीतर जैसे मरघट लिए हुए हैंताबूत हैंकब्रें हैं।
जीसस ने इस शब्द का उपयोग किया है। जीसस ने कहा है कि ये धर्मगुरु! तुम सफेद ताबूत हो। तुम पुतीपुताई सफेद कब्रें हो। तुममें जो स्वच्छता दिखाई पड़ रही हैवह केवल ऊपर की पुताई हैभीतर तुम सड़ी हुई लाशें हो।
महात्मा का उदास होना जरूरी है। महात्मा हंसता हुआ मिलेतो भक्त चले जाएंगे। क्योंकि महात्मा में हम प्रफुल्लता देखने को राजी नहीं हैं। हमने धर्म को एक गंभीर कृत्य बना लिया है। हमने धर्म को इतना गंभीर कृत्य बना लिया है कि उसमें ईश्वरीय तत्व तो विलीन ही हो जाएगा।
इसलिए आज अगर कृष्ण जैसा आदमी हमारे बीच होतो आप यह मत सोचना कि आप कृष्ण के पैर छू सकोगे। आप नहीं छू सकोगे। क्योंकि अगर यह कृष्ण चौरस्ते पर खड़े होकर चौपाटी पर बांसुरी बजाता मिल जाएतो आप पुलिस में खबर करोगे! आप कहोगेयह हमारा कृष्ण नहीं है। यह क्या बात है! कृष्ण और बांसुरी बजा रहे हैंवह तो आप किताब में पढ़ लेते होतो टाल जाते हो। यू कैन टालरेट। अगर चौपाटी पर बजाएतो बहुत मुश्किल हो जाएगी।
क्योंकि हम सबकी आदत मुर्दा महात्माओं को देखने की हो गई है। जितना मरा हुआ आदमी होउतना बड़ा महात्मा मालूम होता है। जीवन की जरासी पुलक दिखाई न पड़े। और क्षुद्रतम बातों को भी वह गंभीरता दे देता है। और कृष्ण जैसे व्यक्ति विराटतम बातों को भी गैरगंभीर आनंद दे देते हैं। क्षुद्रतम बातों को! वह पूछेगा कि यह खाना कितनी देर का बना है?यह ब्राह्मण ने बनाया है कि नहीं बनायाइसको किसी स्त्री ने तो नहीं छू दिया?
यह महात्मा है! यह खाने तक को प्रफुल्लता से नहीं ले सकता। यह खाने में भी गणित रखता है! यह पूछता है कि घी कितने पहर का हैइतने पहर से ज्यादा हो गयातो फिर घी नहीं ले सकता! यह दूध गाय का है कि नहीं?
यह जो बुद्धि हैयह जीवन को लीला नहीं बना सकती। यह जीवन को अति गंभीर बना देती है। अगर एक स्त्री बैठी हो,उठ जाएतो यह महात्मा पूछेगास्त्री को उठे हुए इस जमीन से कितनी देर हुईक्योंकि उसके हिसाब हैंगणित हैंकि स्त्री जब यहां से उठ जाएतब इतनी देर तक भी उसका प्रभाव उस जमीन के टुकड़े पर रहता है। तो तब तक महात्मा वहा नहीं बैठेगा। अगर आप रुपया महात्मा को देंगेतो वह अपने हाथ में नहीं लेगाछोड़ भी नहीं सकता। वह एक शिष्य को साथ में रखेगाउसको दिलवाएगा! क्योंकि रुपया लेना पाप है। लेकिन बिना रुपए लिए भी नहीं चल सकतातो यह पाप दूसरे से करवाता रहेगा!
ये जो गुरुगंभीर लोग हैंहिंदू धर्म के प्राण इन्होंने ले डाले। हिंदू धर्म जमीन पर अकेला हंसता हुआ धर्म था और जिसमें हंसने की प्रगाढ़ क्षमता थी। उदासी जिसका लक्ष्य न थाआनंद जिसका गंतव्य था। लेकिन मूल सूत्र खो जाते हैं। और अक्सर ऐसा होता है कि हम वही करने लगते हैंजो हम करना चाहते हैं।
जीवन को लीला की दृष्टि से देखा जा सकेतो कृष्ण का यह सूत्र आपको स्पष्ट हो जाएगा कि कैसे कोई जीवनशक्ति इतने विराट जाल को रचते हुए दूर खड़े रहकर देख सकती हैअनासक्त!
इसलिए कृष्ण कहते हैंयह मुझे बांधता नहीं है। क्योंकि बांधती है आसक्तिकर्म नहीं। और अगर कर्म अनासक्त होतो बंधन नहीं होता है।
शेष हम कल बात करेंगे।
लेकिन पाँच मिनट रूकें। कोई उठे न। देखें पहले भी अपको कहा है कि बीच से जिन लोगों को उठना होवे कल से बीच में बिलकुल न बैठें। वे बाहर रहें। बीच से उठकर कल से कोई जाएगातो आप जो पास में बैठे हैंउसको बिठालेंलीलापूर्वक! उससे कहें कि बैठ जा! पांच मिनट कीर्तन में सम्मिलित होंफिर विदा हों।

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