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शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-100



तत्‍वज्ञ—कर्मकांड के पार—प्रवचन—ग्‍यारहवां

गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-100    
अध्‍याय—8
सूत्र:
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्मति कश्‍चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयक्तो भवार्जुन।। 27।।
वेदेषु यज्ञषु तप:सु चैव दानेषु यत्‍युण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सवर्मिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्।। 28।।

और हे पार्थ इस प्रकार इन दोनों मार्गों को तत्व से जानता हुआकोई भी योगी मोहित नहीं होता है। हस कारण हे अर्जुनतू सब काल में योग से युक्‍त हो अर्थात निरंतर मेरी प्राप्ति के लिए साधन करने वाला हो।
क्योंकि योगी पुरुष इस रहस्य को तत्‍व से जानकर वेदों के पढ़ने में तथा यज्ञतप और दानादि के करने में जो पुण्यफल कहा हैउस सब को निस्संदेह उल्लंघन कर जाता है और सनातन परम पद को प्राप्त होता है।

 प्रभु की खोज मेंपरम सत्य की खोज में दो मार्गों की हमने समझी उस संबंध में दों-तीन बातें और भी बात। खयाल में ले लेनी जरूरी हैं। और तब आसान होगा आज के इस अक्षर ब्रह्म योग अध्याय अंतिम दो सूत्रों को समझने में।

इधर सिग्मंड फ्रायड ने विगत आधी सदी में शायद गहनतम प्रभाव आदमी के मस्तिष्क पर छोड़ा है। सिग्मंड फ्रायड इधर तीन सौ वर्षों में तीन बड़े नामों में से एक है। एक व्यक्ति है गैलीलियोदूसरा व्यक्ति है चार्ल्स डार्विन और तीसरा व्यक्ति है सिग्मंड फ्रायड। इन तीन व्यक्तियों ने मनुष्य की चेतना और मनुष्य के जीवन को आमूल बदलने की दृष्टि दी है।
सिग्मंड फ्रायड की जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण खोज हैवह खोज हैडिस्कवरी आफ दि अनकांशसआदमी के भीतर जो अचेतन हैउसकी खोज। आदमी का मनजैसा हम जानते हैं उसेवह केवल ऊपर की पर्त हैचेतन मनकांशस माइंड है। उससे गहरी पर्तउससे नीचे दबा हुआ मनजो कि ज्यादा महत्वपूर्णज्यादा प्रभावशाली और जड़ों में छिपा हैऔर जिससे हम चालित होते हैं जीवनभरजिससे हम चलतेउठतेबैठते और काम करते हैंवह गहरा मन अनकांशस हैअचेतन है। फ्रायड ने उस अचेतन के महाद्वीप को खोजा है।
यह खोज बड़ी आकस्मिक थी। फ्रायड ऐसे तो खोज कर रहा था काम-विकारों के संबंध मेंसेक्स परवरशस के संबंध में आदमी के चित्त में जितनी विक्षिप्तताएं पैदा होती हैंउनमें से कोई नब्बे प्रतिशत उसकी कामवासना की विकृतियां हैं। तो फ्रायड तो चिकित्सक की भांतिआदमी के काम-विकार क्यों पैदा होते हैंइसकी खोज में लगा था।
इस खोज में उतरते -उतरते अचानक ही उसे मनुष्य के मन के नीचे छिपे हुए मन का पता चला। वह मन इस मन से बहुत बडा हैजिसे हम समझते हैंमैं हूं। जैसे कि हम एक बर्फ की चट्टान पानी में डाल देंतो नौ हिस्सा चट्टान नीचे डूब जाती हैएक हिस्सा ऊपर रहती है। फ्रायड ने अनुभव किया कि जिस मन को हम अपना सब कुछ समझकर बैठे -हुए हैंवह एक हिस्सा हैऔर नौ हिस्सा हमारा असली मन नीचे अंधेरे में डूबा हुआ है।
फ्रायड के शिष्य और बाद में फ्रायड से अलग और विरोध में हो गए कार्ल गुस्ताव जुंग ने इस अनकांशसइस अचेतन मन की और भी गहरी खोज की। और उसे पता चला कि अचेतन के नीचे और भी गहरा अचेतन छिपा हैजिसे उसने कलेक्टिव अनकांशससमूह-अचेतन का नाम दिया। उसने कहा कि व्यक्ति के मन के नीचे एक मन हैजो अचेतन है। अचेतन के नीचे भी और गहरा मन मालूम पड़ता हैजो कि समूह- अचेतन है। सबका अचेतन जुड़ा हुआ है।
यह मैं इसलिए कह रहा हूं ताकि आपको दक्षिणायण की पूरी की पूरी धारणा वैज्ञानिक रूप से समझ में आ जाए। फ्रायड और कं जो काम किए हैंवह दक्षिणायण के पथ पर है।
अगर हम मनुष्य के अचेतन में प्रवेश करेंगेतो हम नीचे उतरते जाते हैं। लेकिन मनुष्य के अचेतन की भांति ही मनुष्य का अति-चेतनसुपर-कांशस माइंड भी है। यदि हम ऊपर की तरफ यात्रा करेंतो सुपर-कांशसअति-चेतन मन की यात्रा शुरू होती है।
अब हम ऐसा समझ लें कि जिस मन से हम परिचित हैंवह मन है चेतनउससे नीचे उतरेंतो अचेतनऔर भी नीचे उतरेंतो समूह- अचेतन। ऊपर बढ़ेतो अति-चेतनऔर ऊपर बढ़ेतो ब्रह्म-चेतन।
उत्तरायण का पथ अभी भी वैज्ञानिक रूप से आविष्कृत नहीं हुआ है। दक्षिणायण का पथ वैज्ञानिक रूप से भी आविष्कृत हो गया है। और अगर दक्षिणायण का पथ ही आविष्कृत रहातो पश्चिम अपना आत्मघात कर लेगा। क्योंकि नीचे उतरने का पता चल जाए और ऊपर चढ़ने का पता न हो और ऐसा अनुभव में आने लगे कि नीचे उतरना ही स्वाभाविक हैतो मनुष्य जाति की सारी संभावनाएं विलुप्त हो जाएंगी।
पश्चिम में आज जो हमें नैतिक हास और आध्यात्मिक पतन दिखाई पड़ता हैउसका वास्तविक कारण पश्चिम का भौतिकवाद नहीं हैमैटीरियलिज्य नहीं है। वस्तुत: तो जब कोई समाज बहुत भौतिक हो जाता हैतो वहा आध्यात्मिक जागृति शुरू होती है। क्योंकि जैसे ही भौतिक सुविधाएं उपलब्ध होती हैंउन सुविधाओं की व्यर्थता भी दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है। जैसे ही धन मिलता हैधन की सार्थकता खो जाती है। और जैसे ही हम सब कुछ पा लेते हैं वस्तुओं के जगत मेंवैसे ही पता चलता है कि आत्मा वस्तुओं से घिर गई हैलेकिन आत्मा बिलकुल खालीरिक्त और अर्थहीन हो गई है। भौतिकवाद तो अध्यात्म के लिए बड़ी गहरी स्फुरणा बन जाती है।
इसलिए जब भी कोई समाज भौतिक रूप से समृद्ध होता हैतो उसका अंतिम शिखर आध्यात्मिक होता है। गरीब समाज आध्यात्मिक होने में बड़ी कठिनाई अनुभव करता है। क्योंकि गरीब को अनासक्त होना अति कठिन मालूम पड़ता है। जिसके पास छोड़ने को कुछ नहीं हैनिश्चित ही उसे छोड़ना बहुत मुश्किल मालूम पड़ता है। और जिसके पास है ही नहींउसकी अनासक्ति का कोई बहुत मूल्य भी नहीं मालूम होता। और जिसके पास कुछ भी नहीं हैउसकी अनासक्ति बहुत गहरे में संतोष होती हैकसोलेशन होती है। लेकिन जिसके पास हैउसकी अनासक्ति केवल संतोष और कसोलेशनसांत्वना नहीं होतीउसकी अनासक्ति एक आंतरिक उपलब्धि होती है।
इसका यह अर्थ नहीं है कि गरीब आदमी अध्यात्म को उपलब्ध नहीं हो सकता। गरीब व्यक्ति तो उपलब्ध हो सकता हैगरीब समाज उपलब्ध नहीं हो पाता। गरीब व्यक्तिव्यक्तिगत बात है। लेकिन यह गरीब व्यक्ति भी अपने अन्य जन्मों में धन को जाना होतो ही इस जन्म में धन से मुक्त हो सकता है। हम जो जान लेते हैंउसी से मुक्त होते हैं। शान के अतिरिक्त मुक्ति का कोई भी उपाय नहीं है।
लेकिन धनी समाज पूरा का पूरा धन सेवस्तुओं सेपदार्थ से गहरी विरक्ति से भर जाता है।
पश्चिम का पतनपश्चिम की नैतिक गिरावटभौतिकवाद का परिणाम नहीं है। पश्चिम की नैतिक गिरावट का मूल कारण हैपश्चिम ने दक्षिणायणनीचे की तरफ उतरने वाली पद्धति और मार्ग को तो खोज लिया हैऔर ऊपर की तरफ जाने वाली पद्धति को खोजने की पहली किरण भी पश्चिम में अभी नहीं उतरी है।
लेकिन पश्चिम के विचारशील मनुष्यों को संदेह पैदा हो गया है। यदि मन के नीचे पर्तें हो सकती हैंतो मन के ऊपर भी पर्तें हो सकती हैं। कल तककेवल साठ-सत्तर वर्ष पहले तक पश्चिम का कोई विचारक मानने को राजी नहीं था कि जो मन हम जानते हैंइसके अलावा भी कोई मन हो सकता है। लेकिन नीचे उतरकर पश्चिम को अनुभव में आया है कि बहुत अंधेरी पर्तें मनुष्य की हैंवे भी हैं। और वे ज्यादा शक्तिशाली हैं और मनुष्य की गर्दन उनके हाथों में है। अगर इतना ही अनुभव हमारा रहा..।
और पश्चिम का विचार पूरब पर भी छाता चला जा रहा है। आज पूरब का विचारशीलशिक्षितसुसंस्कृत व्यक्ति भी पूरब का मनुष्य नहीं है। वह भी पश्चिम की पैदावार हैवह भी पश्चिम की ही बाइप्रोडक्ट है। पूरब के विश्वविद्यालयपूरब के शिक्षाशास्त्री पूरब के संबंध में शायद ही कुछ जानते हैं। वे जो भी जानते हैंसब पश्चिम से आया हुआनिर्यात किया हुआ है। और वह भी सेकेंड हैंडवह भी बासा। क्योंकि पश्चिम में जो बीस-तीस साल पुराना हो जाता है-उसके पूरब में आते-आते इतना वक्त लग जाता है-जब वह वहा आउट आफ डेट हो जाता हैफिंक जाता है कचरे मेंतब यहा के विश्वविद्यालय उसे अपनी टेक्स बुक्स में रखना शुरू करते हैं।
यह स्वाभाविक है। जो भी लोग उधार जीते हैंउन्हें इतना पीछे जीना ही पड़ेगा। पश्चिम की टेबल से जो भोजन नीचे गिरा दिए जाते हैंवे पूरब के भिक्षापात्र में गिर जाते हैं।
पश्चिम जिन बातों को व्यर्थ मानकर छोड़ देता हैजब तक वह व्यर्थ मान पाता हैतब तक हम उनको समझकर सार्थक मानने की स्थिति में आ पाते हैं।
पश्चिम के फ्रायड और दा की खोजों ने मनुष्य के नीचे उतरने की सीढ़ियां तो बहुत साफ कर दींलेकिन बहुत खतरनाक स्थिति हो गई है। इस नीचे के मन को जानकर ऐसा लगना शुरू हुआ पश्चिम के मनसविद को कि आदमी का नीचे उतरना बिलकुल ही स्वाभाविक है और आदमी के चेतन मन की कोई भी सामर्थ्य नहीं है। अचेतन शक्तिशाली है और अचेतन के हाथों में जीना ही स्वस्थ होने का उपाय है। और जो व्यक्ति अपने अचेतन से लड़ेगावह विक्षिप्त होगापरवर्ट होगाविकृत होगारुग्ण हो जाएगा।
मैंने सुना है कि एक मानसिक बीमार था। उसे एक आदत थीएक आब्सेशन था कि जब भी वह किसी शराबघर में या चायघर में या काफीघर में जातातो आधा गिलास तो पी लेताऔर आधा गिलास दुकान के मालिक के ऊपर उंडेल देता। अनेक लोगों ने उसे सलाह दी। और फिर वह क्षमा मांगता और कहता कि मेरी मजबूरी हैमैं कर नहीं पाता कुछ और। यह मुझे करना ही पड़ता है। यह मेरे भीतर से कोई करवा लेता है।
एक दुकान में उसने यही कियाशराबघर मेंआधा गिलास मालिक के ऊपर उंडेला। तो मालिक नाराज हुआ और उस मालिक ने कहाअच्छा हो कि तुम किसी मनसविद की सलाह लोकिसी साइकोएनालिस्टकिसी मनोविश्लेषक के पास जाओ। यह तो बड़ी खतरनाक बात है!
छ: महीने बाद वह आदमी दुबारा आया। बहुत प्रसन्न दिखाई पड़ रहा था। आकर उसने फिर एक गिलास में शराब ली। आधी पी और आधी बड़े आनंद से फिर मालिक कै ऊपर उडेली। मालिक ने कहाहइ हो गई। मैंने तो सुना था कि तुमने मनोविश्लेषक के पास जाना शुरू कर दिया। और छ: महीने से तुम इलाज करवा रहे हो! उस आदमी ने कहा कि निश्चित ही छ: महीने से मैं इलाज करवा रहा हूं और मुझे बड़ा फायदा हुआ है। उस दुकानदार ने कहाफायदा कोई दिखाई नहीं पड़ता। फिर तुमने वही काम किया! उसने कहावही काम कियालेकिन अब मैं पश्चात्ताप जरा भी नहीं करता हूं। नाउ आई डोंट फील गिल्टी। क्योंकि मनसविद ने मुझे समझा दिया है कि यह बिलकुल स्वाभाविक है। यह होगा ही। इसे तुम नार्मल समझो। इसमें कुछ एबनार्मल नहीं है। अब मुझे पश्चात्ताप नहीं होता है।
पश्चिम की पूरी की पूरी विकृति का कारण यह है कि पश्चिम में मनसविद ने यह समझा दिया है लोगों को कि तुम जो भी कर रहे हो-अगर तुम होमोसेक्यूअल होअगर तुम समलिंगी-काम से पीड़ित होअगर तुम हर रोज अपनी पत्नी को बदलना चाहते होअगर तुम पत्नी के साथ उलटे-सीधे कामवासना के प्रयोग करना चाहते हो-तो यह सब स्वाभाविक हैक्योंकि यह मनुष्य के अचेतन में छिपा पड़ा है। यह होगा ही। और अगर तुमने यह नहीं कियातो तुम रुग्ण हो जाओगे। यह तुम्हें करना ही चाहिएतो ही तुम सामान्यस्वस्थ रह पाओगे।
पश्चिम में जो सारा उपद्रव का जाल फैला हैवह भौतिकवाद का परिणाम नहींपश्चिम में फ्रायड की खोज का-अधूरी खोज का-स्वाभाविक रूप से हुआ घातक फल है। अधूरी खोज सदा ही घातक होती है। आधा शान सदा ही खतरनाक सिद्ध होता है। आधा ज्ञान कभी-कभी तो आत्मघाती होता है।
कृष्ण ने दोनों मार्गों की सीधी बात की है। ऊपर का मार्ग साफ न होतो अच्छा है कि नीचे के मार्ग से हम परिचित ही न हों। ऊपर का मार्ग स्पष्ट हो जाएतो नीचे के मार्ग की कठिनाई समाप्त हो जाती है।
तो कृष्ण कहते हैंहे पार्थइस प्रकार इन दोनों मार्गों को तत्व से जानता हुआकोई भी योगी मोहित नहीं होता है।
इन दोनों मार्गों को तत्व से जानता हुआकोई भी योगी मोहित नहीं होता है। जिस व्यक्ति नेजिस साधक ने इन दोनों तत्वों कोइन दोनों मार्गों को उनकी आंतरिक गहनता में स्पष्ट रूप से जान लियापहचान लियाअनुभव कर लियावह मोहित नहीं होता है।
यह मोहित होने की बात को थोड़ा खयाल में ले लें। इस मोहित होने का क्या अर्थ होगाजिसने इन दोनों मार्गों को जान लियावह मोहित नहीं होता है। जो एक को जानेगावह मोहित हो सकता है।
मोह का मैकेनिज्ममोह की जो यांत्रिक प्रक्रिया हैवह खयाल में ले लें।
मोहित हम सदा विपरीत से होते हैं। मोहित हम सदा विपरीत से होते हैं-दि अपोजिट इज आलवेज दि अट्रैक्यान। और हर आदमी जिससे मोहित होता हैवह उसके विपरीत होता है। यह विपरीत का नियम जीवन के समस्त पहलुओं पर लागू होता है। पुरुष स्त्रियों में आकर्षित होते हैंउनकी विपरीतता के कारण। स्त्रियां पुरुषों में आकर्षित होती हैंउनकी विपरीतता के कारण।
आप हैरान होंगे यह जानकर कि आप जो कुछ भी जीवन में पसंद करते हैंजिसको आप कहते हैंमैं बहुत पसंद करता हूं-आपको खयाल में ही न होगा-वह आपसे विपरीत चीज है। इसलिए जिसको आप पसंद करते हैंअगर उससे दूर रहेंतो पसंदगी जारी रह सकती है। जिसे आप पसंद करते हैंअगर उसके ही साथ रहने लगेंतो कलह अनिवार्य है। क्योंकि जो विपरीत हैउससे आप आकर्षित हो सकते हैंलेकिन साथ नहीं रह सकते। क्योंकि साथ रहने पर विपरीत से कलह होनी शुरू हो जाएगी। जो विपरीत हैउससे संघर्ष होगा ही।
यह बड़े मजे की बात है। यह आदमी के मन का बहुत पैराडाक्सिकल हिसाब है कि विपरीत से आकर्षित होते हैंलेकिन विपरीत के साथ रह नहीं सकते। आकर्षण दूर पर होता हैपास आने पर संघर्ष शुरू हो जाता है। वस्तुत: हमें जो आकर्षित करता हैबहुत गहरे में हम उससे भयभीत हो जाते हैं। और जो हमें आकर्षित करता हैबहुत गहरे में हमें वह शत्रु भी मालूम पड़ता है। क्योंकि हम उसके गुलाम हो जाते हैंऔर उसका आकर्षण हमारे ऊपर पजेशनमालकियत बन जाता है।
लेकिन सभी मोहसभी अटैचमेंटविपरीत सेअपोजिट से होता है। ठीक अपने समान व्यक्ति को आप प्रेम नहीं कर सकते। समान एक-दूसरे को रिपेल करते हैं। जैसे कि चुंबकऋण और धन एक-दूसरे को खींचते हैं। धन और धन को अगर पास लाएंतो एक-दूसरे को खींचते नहीं हैं। ऋण और ऋणएक-दूसरे को खींचते नहीं हैं। खिंचावट के लिए ऋण और धन चाहिए। निगेटिव और पाजिटिव पोल एक-दूसरे को खींचते हैं। समानजातीयसमानधर्मा व्यक्ति एक-दूसरे को खींचते नहीं।
इसलिए बहुत आश्चर्य की बात नहीं है कि बुद्ध और महावीर जैसे व्यक्ति एक ही समय में होंलेकिन एक-दूसरे के पास बिलकुल नहीं आते। पोलेरिटी नहीं है। इसलिए अक्सर ऐसा होता हैअक्सर ऐसा होता है कि समानधर्मा व्यक्ति एक-दूसरे से फासले पर ही बने रहते हैं। विपरीत आकर्षित हो जाते हैं और निकट आ जाते हैं। विपरीत ही आकर्षण का सूत्र है।
इसलिए कृष्ण कहते हैंजो इन दोनों मार्गों को तत्व से जानता है! तत्व से जानने का अर्थ हैवन हू हैज एक्सपीरिएंस्टजिसने अनुभव से जानावही तत्व से जानता है। और जिसने अनुभव से नहीं जानावह केवल सिद्धात से जानता हैतत्व से नहीं। तो सिद्धात से तो कोई भी पढ़कर जान सकता है। लेकिन वह शान तत्व-ज्ञान नहीं है। वह ज्ञान नालेज नहीं हैएक्येनटेंस है।
बर्ट्रेंड रसेल ने ज्ञान के दो विभाजन किए हैं। एक को कहा है नालेजज्ञानऔर एक को कहा है एक्येनटेंसपरिचय। तो जो हम सिद्धात से जानते हैंवह परिचय मात्र हैमियर एक्येनटेंस। वह ज्ञान नहीं है। जिसको रसेल ने ज्ञान कहा हैउसी को कृष्ण तत्व से जानना कहते हैं। टु नो ए थिंग इन इट्स एलिमेंटउसकी जो गहरी से गहरी तात्विकता हैउसकी जो गहरी से गहरी बुनियाद हैउसमें ही जानना। अनुभव के अतिरिक्त बुनियाद में जानने का कोई उपाय नहीं है।
जो व्यक्ति इन दोनों मार्गों को अनुभव से जानता हैवह मोहित नहीं होता। क्योंकि जो दोनों को जान लेता हैउसके लिए विपरीत का आकर्षण विलीन हो जाता है। इसे ऐसा समझेंजो व्यक्ति दक्षिणायण के मार्ग पर चलेगावह चलता रहे दक्षिणायण के मार्ग परलेकिन उसके चित्त में निरंतर ही आकर्षण उत्तरायण की तरफ बना रहेगाविपरीत खींचता रहेगा। जो व्यक्ति उत्तरायण की तरफ चलेगा सीधाबिना दक्षिणायण के अनुभव केउस व्यक्ति को दक्षिणायण का मार्ग निरंतर ही आकर्षित करता रहेगाबुलाता रहेगापुकारता रहेगाबाधा बनता रहेगा। और सदा मार्ग में ऐसी अड़चनें आ जाएंगीजब वह आदमी ! कभी उत्तरायण की तरफकभी दक्षिणायण की तरफ डोलने। लगेगा। और जो व्यक्ति विपरीत की तरफ डांवाडोल होता रहेवह अग्रसर नहीं हो पाता है।
इन दोनों मार्गों को जो उनके तत्व में जान लेता हैवह फिर मोहित नहीं होता है। वह इन दोनों मार्गों में ही मोहित नहीं होता हैऐसा नहींवह समस्त विपरीतता के चक्कर से मुक्त हो जाता है। संसार से मुक्त होने का गहनतम जो अर्थ हैवह हैमुक्त हो जाना संसार की विपरीतता के नियम सेदि ला आफ दि अपोजिट। वह जोविपरीत खींचता है..।
इसलिए योगी स्त्री को छोड्कर इसलिए नहीं जाता कि वह स्त्री है। या योगी स्त्री के साथ रहकर भी स्त्री को इसलिए नहीं छोड़ देता है कि वह स्त्री है। या अगर योगिनी हैतो पुरुष को छोड्कर इसलिए नहीं जातीया पुरुष के साथ रहकर भी पुरुष का आकर्षण इसलिए नहीं छोड़ देती कि वह पुरुष हैबल्कि इसलिए कि वह अपोजिट हैवह विपरीत है।
और विपरीत से मुक्त हुए बिना कोई भी व्यक्ति शात नहीं हो सकता। मोह से मुक्त हुए बिनानिर्मोह हुए बिना कोई भी व्यक्ति शात नहीं हो सकता। क्योंकि वह दूसरा खींचता ही रहेगा। और जब आप एक तरफ होते हैंतब दूसरा आपको खींचता हैजब आप दूसरी तरफ जाते हैंतब जिससे आप हट गए हैंवह आपको पुन: खींचने लगता है। पूरा जीवन इसी तरह घड़ी के पेंडुलम की तरह दो अतियों के बीच में डांवाडोल होता है। जिसे छोड़ देते हैंवह फिर आकर्षक हो जाता हैफिर पुकारने लगता हैफिर बुलाने लगता है। पश्चिम के मनोवैज्ञानिक दंपतियों को सलाह देते हैं कि अगर पत्नी से न बन रही हो ठीकया पति से ठीक न बन रही होतो थोड़ी देर के लिए दूसरे स्त्री-पुरुषों के साथ प्रेम के अस्थायी संबंध निर्मित कर लेने चाहिए।
बड़ी हैरानी की बात है। क्योंकि कोई स्त्री यह नहीं सोच सकती कि उसका पतिजब उससे नहीं बन रही हैअगर किसी और स्त्री के थोड़े-बहुत दिन के प्रेम में पड़ जाएतो इससे कुछ लाभ होगा। इससे तो बात बिलकुल टूट जाएगी।
लेकिन पश्चिम का मनोवैज्ञानिक ठीक कहता है। वह कहता हैदूसरी स्त्री से थोड़े दिन संबंध बनाकर वह फिर अपनी स्त्री के प्रति आकर्षित हो जाता हैअतियों में डोल जाता है।
इसलिए पश्चिम में एक बहुत ही अजीब-सी घटना चल रही हैऔर वह यह है कि स्त्रियों की बदलाहट करनी-स्वोपिंग क्लब्सजहां मित्र अपनी पत्नियों को बदलने का गुप्त प्रयोग करते रहते हैं। और हैरानी की बात है कि जिन पति-पत्नी के बीच नहीं बनता थाउनके बीच फिर से बनाव आ सकता है।
असल में जिससे हम दूर हटते हैंउसके प्रति हम फिर आकर्षित होने लगते हैं। दूर हटनापास आने की तरकीब हैपास आनादूर जाने की व्यवस्था है। हर चीज ऐसे ही खींचती रहती है।
आज अमेरिका में करोड़पति परिवारों के बच्चे भिखमंगों की भांति सड्कों पर घूमने सारी दुनिया में निकल पड़े हैं। गरीबी भी अब आकर्षण बन गई है। अमीरी बहुत हैतो गरीबी पुकारती है। विपरीत फिर खींचने लगता है।
तो जिसे परम मुक्ति चाहिएउसे विपरीत से मुक्त होना पड़ेगा। ये दो विपरीत मार्ग मनुष्य के भीतर हैं। यदि इनको तत्व से कोई जान लेतो इन दोनों का आकर्षण खो जाता है। और जब दोनों का ही आकर्षण खो जाता हैजब दोनों ही नहीं पुकारतेजब दोनों ही नहीं बुलातेजब दोनों की विपरीतता मिट जाती हैऔर दोनों ही एक सिक्के के पहलू मालूम पड़ने लगते हैं-उसी क्षण व्यक्ति परम मुक्ति को उपलब्ध हो जाता हैउसी क्षण। उस क्षण के बाद उसके लिए संसार में कोई भी अर्थ नहीं है। उसके बाद उसके लिए मोहवासना और तृष्णा का कोई उपाय नहीं है।
इसलिए कृष्ण कहते हैंतत्व से जानता हुआ कोई भी योगी फिर मोहित नहीं होता है। इस कारण हे अर्जुनतू सब काल में योग-युक्त हो।
सब काल मेंसब समय मेंहर स्थिति में योग-युक्त हो। यहां योग-युक्त का अर्थ दोनों अतियों के बीच मध्य में थिर हो जाना हैदो अतियों के बीच मध्य में थिर हो जाना हैनिर्मोह हो जाना है। जो पुकारते हैं आकर्षण के बिंदु बहुत आसान है एक से दूसरे पर हट जाना। एक आदमी बहुत भोजन करता हैउसे उपवास आकर्षित करने लगता है। इसलिए उपवास जहां-जहां करवाया जाता हैवहां अक्सर ज्यादा भोजन करने वाले पेटू लोग चिकित्सा के लिए इकट्ठे होते हैं। आपके उरली काचन में आप सदा पाएंगेवे ही लोग वहां चिकित्सा के लिए आएंगेजो ज्यादा खा गए हैंओवर फेड!
यह बड़े मजे की बात है कि जो भी समाज धनी होता हैवह ज्यादा खाने लगता हैतो उस समाज में उपवास सहज बन जाता है। हिंदुस्तान में जैनों के समाज में उपवास भारी चीज है। और उसका कुल कारण यह नहीं कि उपवास भारी चीज हैउसका कुल कारण यह है कि हिंदुस्तान में ओवर फेडज्यादा खाने वाला समाज जैनों का है। जहां भी ज्यादा भोजन होगावहा उपवास आकर्षित करने लगेगा।
यह बड़े मजे की बात है कि गरीब समाज का जब धार्मिक दिन आएगातो उस दिन वे अच्छा भोजन बनाएंगे। और अमीर समाज का जब धार्मिक दिन आएगातो उस दिन वे उपवास करेंगेदि अपोजिट! अगर गरीब आदमी का धार्मिक दिन आएगामुसलमान का अगर धार्मिक दिन आएगातो वह नएताजे और रंगीन कपड़े पहनकर सड़क पर निकलेगा। और अगर अमीर धार्मिक का धर्म का दिन आ जाएतो वह सादगी वरण करेगाउस दिन वह सादा होगा। वह जो विपरीत हैवह हमारे मन में जगह बना लेता है। वह जो विपरीत हैवह हमें खींचता रहता है। इसलिए ज्यादा खाने वाला उपवास में उत्सुक हो जाएगा। ज्यादा पहनने वाला नग्न होने की भी तैयारी दिखा सकता है।
लेकिन विपरीत पर चले जाने से अंत नहीं होता। विपरीत पर जो गया हैवह मोह के ही बंधन में गया है। इसलिए उलटे को मत चुनना। उलटे का चुनाव खतरनाक है। अगर चुनना ही होतो दोनों के मध्य को चुनना। दि एग्जेक्ट मिडिल इज दि प्याइंट आफ फ्रीडम। दो अतियों के बीच जो बिलकुल ठीक मध्य हैवही मुक्त होने की जगह है।
अगर बहुत भोजन करते होंतो उपवास को मत चुननासम्यक भोजन को चुननाबीच में रुक जाना। वह कठिन होगा। उपवास आसान पड़ेगाक्योंकि अति आसान है सदा। अगर क्रोधी आदमी हैतो क्षमावान बनना आसान हैअक्रोधी होना मुश्किल है। दूसरी तरफ जाना सदा आसान है। क्योंकि हम एक तरफ अति पर आकर मोमेंटम इकट्ठा कर लेते हैं। फिर पेंडुलम को छोड़ दोवह अपने आप दूसरी तरफ चला जाता है। बीच में रुकना बहुत कठिन है। योग-युक्त होने का अर्थ हैजो व्यक्ति सदा अतियों के बीच में खड़ा हो जाता हैवही योगी है। उसने ही जाना वह बिंदुजहां से मुक्ति का आयाम शुरू होता है।
कृष्ण कहते हैंइस कारण हे अर्जुनतू सब काल में योग-युक्त हो और सदा ही मेरी प्राप्ति के लिए साधन करने वाला हो।
यह बिंदु भी थोड़ा-सा कठिन है। हम सदा ही परमात्मा को संसार के विपरीत रखते हैं। हम सदा ही मोक्ष को संसार के विपरीत रखते हैं। हम सदा यही सोचते हैं कि संसार को छोड़ना है और परमात्मा को पाना है। हमारे मन में परमात्मा भी एक अपोजिट हैएक विपरीतता हैसंसार के विपरीत। जो संसार से ऊब गयावह

 कहता हैअब तो मुझे परमात्मा को पाना है। संसार के विपरीत हम परमात्मा के वैपरीत्य को खड़ा करते हैंएक पोलर अपोजिट की तरह। एक आदमी कहता हैअब धन तो बहुत कर लियाअब धर्म करना है।
लेकिन परमात्मा विपरीत नहीं है। और जिसका परमात्मा संसार के विपरीत हैउसका परमात्मा सांसारिक ही होगा। और जिसका परमात्मा संसार से उलटा हैउसका परमात्मा संसार के बाहर नहीं हैविदिन दि पोलर अपोजिटवह जो विपरीत हैउसके भीतर ही है। वह भी संसार की एक अति है।
इसलिए कृष्ण का जीवन बहुत अदभुत है। कृष्ण का जीवन उन थोड़े-से जीवन में से एक हैजो संसार के विरोध में नहीं हैं। कृष्ण का जीवन विरागी का जीवन नहीं हैऔर कृष्ण का जीवन रागी का जीवन भी नहीं है। और कृष्ण वहीं खड़े हैंजहां सब रागी खडे रहते हैं। और कृष्ण ऐसे खड़े हैंजैसे विरागी खड़े रहते हैं। कृष्ण का जीवनदो विपरीत के बीच मध्य की खोज है। इतना मध्यस्थ व्यक्ति पृथ्वी पर शायद ठीक दूसरा नहीं हुआ।
हम तो आमतौर से कहेंगे कि अगर कृष्ण शांतिवादी हैंतो युद्ध में कदम नहीं रखना चाहिए। और अगर युद्धवादी हैंतो फिर परमात्मा और दिव्यता और ब्रह्मइनकी बात नहीं करनी चाहिए। दो में से कुछ एक साफ चुन लो।
हम तो कहते हैंअगर कृष्ण कहते हैंअनासक्ति ही जीवन का सूत्र हैतो यह गोपियों के बीच नृत्य इनकसिस्टेंट हैअसंगत है। यह नहीं चलना चाहिए। यह बंद होना चाहिए। और अगर यह गोपियों के बीच नृत्य ही चलना है और यह बांसुरी ही बजनी हैऔर यह मोर-मुकुट बांधकर नाचना ही हैतो फिर अनासक्ति और योग और समाधि और ब्रह्मइसकी चर्चा बंद कर देनी चाहिए। दो में से कुछ साफ चुन लो।
और कृष्ण कहते हैंहम चुनेंगे ही नहीं। इसलिए कृष्ण बहुत बेबूझ हैंबहुत रहस्यमय हैं। गणित की तरह साफ-सुथरे नहीं हैंकाव्य की तरह रहस्यमय हैं। तर्क की तरह कटे-बंटे नहीं हैंप्रेम की तरह बहुत रहस्यपूर्ण हैं। दोनों हैं एक साथ। और दोनों नहीं हैं। योग-युक्त होने का यही अर्थ है।
इसलिए हम कृष्ण को महायोगी कह सके। महायोगी कहने का कारण हैऔर वह कारण यह है कि कृष्ण शायद पहले व्यक्ति हैंजिन्होंने दोनों अतियों के बीच में-ठीक बीच में-खड़े होने की व्यवस्था दी है। अगर हम ठीक बीच में भी खड़े होंतो थोड़ा-सा मन डांवाडोल होता है। अगर हम बीच में भी खड़े होंतो हम इसीलिए खड़े होना चाहते हैं कि संसार से कैसे मुक्त हो जाएं! अगर संसार से कैसे मुक्त हो जाएंयही भीतर लगा हुआ हैतो आप थोड़े-से झुके हुए खड़े होंगेबीच में खड़े नहीं हो सकते हैं। मैंने सुना हैमुल्ला नसरुद्दीन की दो पत्नियां थीं। और निश्चित हीदो पत्नियां जिसकी होती हैंवह जानता है कि उसकी क्या मुसीबत हो सकती है! एक पत्नी में आप हजार का गुणा कर लेंदो का नहीं। क्योंकि जब दो पत्नियां होती हैंतो जोड़ नहीं होतागुणनफल होता है। बड़ी मुसीबत में था और निरंतर यह विवाद थादोनों पत्नियां आमने-सामने पूछ लेती थीं उससेकि बोलोहम दोनों में सुंदर कौन हैमुल्ला नसरुद्दीन कहता थातुम दोनों एक-दूसरे से ज्यादा सुंदर हो!
लेकिन पत्नियों को शक था कि वह किसी की तरफ ज्यादा झुका हुआ होगा ही। दो स्त्रियां मान ही नहीं सकतीं कि उनके बीच में कोई पुरुष खड़ा होतो वह जरा-सा कहीं ज्यादा झुका हुआ नहीं होगा। और ऐसे सौ में निन्यानबे मौके पर यह बात सच भी है। उनका शक काफी दूर तक सही है। हम बीच में खड़े हो ही नहीं सकते।
पहली पत्नी की मृत्यु हुईतो उसने कहा कि जिंदगी में जो हुआ हुआलेकिन एक बात का वायदा कर दो कि मरने के बाद दोनों पत्नियों की तुम कब बनाना और अपनी कब बिलकुल ठीक बीच में बनानाजस्ट राइट इन दि मिडिल। क्योंकि जिंदगी में जो हुआ हुआलेकिन मरने के बाद कयामत तक मैं कब्र में परेशान नहीं होना चाहती कि तुम जरा उस तरफ झुके हुए हो। बिलकुल ठीक ज्यामिति के हिसाब सेगणित के हिसाब से साफ कर लेना। नसरुद्दीन ने वायदा किया।
दूसरी पत्नी का भी आग्रह यही था। कभी नसरुद्दीन ने बताया नहीं। पहली पत्नी का नाम था फातिमादूसरी पत्नी का नाम था सुलाना। उसका मन सदा दूसरी की तरफ थोड़ा झुका हुआ थालेकिन यह कहने की हिम्मत उसे कभी जुटी नहीं।
दोनों मर गईंतो नसरुद्दीन ने अपने कब बनाने वाले को कहा कि बिलकुल ठीक बीच में बनाना मेरी कबलेकिन जरा-सी झुकी हुई सुलाना की तरफजरा-सीजस्ट ए बिट लीनिग टुवर्ड्स सुलाना। बनाना बीच मेंलेकिन जरा तिरछी बनानाझुकी हुई! लेकिन कब बनाने वाले ने कहा कि तुम्हारी दोनों पत्नियों की वसीयत में लिखा हुआ हैठीक बीच में होनी चाहिए। और दो मृत आत्माओं को मैं कष्ट नहीं देना चाहूंगा। और फिर कौन झंझट में पड़े तुम्हारी। तो मैं किसी झंझट में पीछे नहीं पड़ना चाहता हूं। मैं तो ठीक बीच में बना दूंगा। मैं झुकी हुई नहीं बना सकता।
तो मुल्ला नसरुद्दीन ने कहातो फिर ऐसा करना कि मुझे करवट लेकर भीतर लिटा देनासुलाना की तरफ करवट लेकरसीधा मत लिटाना!
बीच में होना बड़ा कठिन है। रस हमारा चुनाव करना चाहता है। अगर हम परमात्मा को भी चुनते हैंतो संसार के खिलाफ। लेकिन जो आदमी संसार के खिलाफ परमात्मा को चुनता हैवह परमात्मा को चुनता ही नहीं। क्योंकि परमात्मा को केवल वही चुन सकता हैजिसने सब चुनाव छोड़ दिएच्वाइसलेस हो गयाजिसका कोई चुनाव नहीं है। जो कहता हैसंसार भी मेरे लिए परमात्मा हैजो कहता हैपरमात्मा भी मेरे लिए संसार हैअब मुझे कुछ फर्क न रही। जो कहता हैजीवन मुझे मृत्यु हैमृत्यु मुझे जीवन है। जो कहता हैधन भी मेरे लिए निर्धनता हैऔर निर्धनता भी मेरे लिए धन है। ऐसा व्यक्ति ही ठीक मध्य में खड़ा होता है। और ऐसे मध्य में खड़े व्यक्ति का नाम ही योग-युक्त है।
योग-युक्त का अर्थ हैपूर्ण रूप से संतुलित हो गया जो। जैसे कि तराजू का काटा बीच में खड़ा हो जाए और दोनों पलड़े बराबर होंजरा भी यहां-वहां झुके हुए नहीं। जब तराजू का काटा ठीक बीच में होता हैतो योग-युक्त होता है। ऐसे ही जब आपका चित्त ठीक बीच में होता हैतो योग-युक्त होता है।
जीवन के समस्त विरोधों में मध्य में खड़े हो जाने का नाम योग है। जीवन की समस्त विपरीतताओ में अचुनाव का नाम योग-युक्त होना है। और ऐसा जो योग-युक्त हैवहीकृष्ण कहते हैंमेरी प्राप्ति का अधिकारी है।
इसे ठीक से खयाल में ले लें।
परमात्मा को कभी भी संसार के विपरीत लक्ष्य न बनाएं। मोक्ष को कभी भी संसार के विरोध में खडा न करें। मोक्ष किसी का भी विरोध नहीं है। मोक्ष केवल चुनाव का विरोध है। चुनाव ही मत करें। और जिस क्षण भी आप चुनाव-शून्य हैंच्वाइसलेस हैंउसी क्षण वह परम घटना घट जाती हैजिसकी कृष्ण चर्चा कर रहे हैं। क्योंकि योगी पुरुष इस रहस्य को तत्व से जानकरवेदों के पढ़ने में तथा यज्ञतप और दानादि के करने में जो पुण्य फल कहा हैउस सबको निस्संदेह उल्लंघन कर जाते हैं और सनातन परम पद को प्राप्त होते हैं।
यह बड़ा क्रांतिकारी वचन है। और गीता में होगाइसका खयाल भी एकदम से नहीं आता। क्योंकि कृष्ण यह कह रहे हैं कि जो पुरुषजो योगी पुरुष इस तत्व के रहस्य को जान लेते हैंउनके लिए वेद का ज्ञानयज्ञ के फलदान का पुण्यसब व्यर्थ हो जाते हैं। वे सब का उल्लंघन कर जाते हैं।
वेद के ज्ञान का फिर कोई मूल्य नहीं है उसेजिसने तत्व से जान लिया। तब वेद सिर्फ तोतारटत रह जाते हैं। तब वेदपाठी केवल शब्दों का जानकार रह जाता हैमात्र कोरा पंडित। और कोरे पंडित से ज्यादा दयनीय अवस्था इस जगत में किसी की भी नहीं हैअज्ञानी की भी नहीं है।
अज्ञानी के लिए भी उपाय हैपंडित के लिए उपाय भी नहीं बचता। क्योंकि अज्ञानी को एक तो विनम्रता होती ही है कि मैं नहीं जानता हूं। पंडित को वह विनम्रता भी खो जाती है। पंडित को लगता हैमैं जानता तो हूं हीऔर जानता बिलकुल नहीं है।
पंडित का अज्ञान और भी अहंकारी अज्ञान हो जाता है। जानता हुआझूठा ही जानता हुआ..। क्योंकि शब्द को जानकर सत्य कभी जाना नहीं गया है। हासत्य को जानकर शब्द मैं कोई सत्य को खोज लेता हैवह दूसरी बात है। लेकिन सत्यशब्द को जानकर कभी नहीं जाना गया है। सत्य को जानकर शब्द जान लिए जाते हैं। जो तत्व से जान लेता हैअनुभूति सेउसके लिए वेद परम ज्ञान के आधार हो जाते हैं। लेकिन जो वेद को ही जानता हैजो वेद को ही जानता हैवह वैसी स्थिति में होता है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक राह से गुजरता था और पानी भरने को कुएं पर झुका। भूल-चूक हो गई और कुएं में गिर गया। बड़ी देर तक हाथ. पैर मारेबड़ी देर तक चिल्लाया। और तब राह से कोई ग्रामीणकोई बुद्ध बिलकुल गंवार। झांककर उसने नीचे देखा। उसने कहाअच्छा! अरे! तो तुम! तो मैं तुम्हें अभी निकाले देता हूं। लेकिन नसरुद्दीन ने कहा कि तुम्हारा बोलना बिलकुल असंस्कृत है। मैं तू करके अजनबियों से बात की जाती हैतो उस आदमी ने कहारुको। मैं महीनेपंद्रह दिन में वापस लौटूंगा सुसंस्कृत होकर! नसरुद्दीन ने कहा कि मैं रुक सकता हूं महीनेपंद्रह दिन। लेकिन जिस आदमी को शब्दों का भी ठीक-ठीक बोध नहींबोलचाल की भाषा भी ठीक नहीं आतीउसके हाथ से निकाला जाना पसंद नहीं कर सकता हूं।
शब्द से घिरे हुए लोगसंसार में नसरुद्दीन जैसा कुएं में पड़ा हैऐसे पड जाते हैं। अगर कबीर जैसा आदमी आकर उनका द्वार खटखटाएतो उन्हें बिलकुल न जंचेगा। क्योंकि कबीर वेद को बिलकुल नहीं जानते। अगर नानक उनका हाथ पकड़कर कहें कि आओमैं तुम्हें कुएं के बाहर निकाल लूंतो वे कहेंगे कि संस्कृत कहां तक पढ़ी हैकाशी में कितने दिन रहे होकितने वेदों के जानकार होनानक को किसी वेद का कोई भी पता नहीं है। और फिर भी वेदों में जो कहा हैवह सब पता है। और कबीर ने कोई वेद पढ़ा नहीं हैफिर भी वेदों में जो कहा हैकबीर जितना जानते हैंवेदपाठी नहीं जानते।
जानने का एक और द्वार भी है सीधाइमीजिएटमाध्यम से मुक्तशब्द से मुक्तउसको ही तत्व-शान कहा हैवही है तत्व-शान। उस तत्व-शान को जो उपलब्ध होता हैतब फिर वेदों का पढना और यज्ञ करनाऔर तप और दानइन सभी का उल्लंघन कर जाता है। इन सब का फिर कोई अर्थ नहीं रह जाता। ये सब उनके लिए हैंजिन्होंने अभी जानने की वास्तविक यात्रा शुरू ही नहीं की हैजिन्होंने अभी खोज के ऊपर पहला कदम ही नहीं रखा है।
बहुत हैं लेकिन ऐसे लोगजो शब्दों के संग्रह को सोच लेते हैं ज्ञान की उपलब्धि। जो इकट्ठा करते जाते हैं शब्दों कोशास्त्रों कोऔर सोचते हैं कि मुक्ति करीब आ रही है। उन्हें पता नहीं कि वे केवल शब्दों के बोझ से और भी दबे जा रहे हैं। मुक्ति शायद और भी दूर हुई जा रही है। शायद शब्दों काशास्त्रों का बोझ उन्हें और भी संसार की गहरी पर्तों में डुबाने वाला सिद्ध होगा। क्योंकि शास्त्र बोझ ही बन जाते हैंसत्य ही मुक्ति बनता है।
लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि वेदों का कोई उपयोग नहीं है। इसका यह भी अर्थ नहीं कि वेदों में रहस्य नहीं छिपा है। इसका यह भी अर्थ नहीं कि शब्द की सामर्थ्य नहीं है। लेकिन शब्द की सामर्थ्य भी उसी के लिए हैजो शब्द पर रुकने के लिए तैयार नहीं हैशब्द के पार जाना है। और वेद भी उसके लिए सहयोगी हो जाता हैजो वेद को पार करने की क्षमता रखता है। और गुरु केवल उन्हीं के लिए गुरु सिद्ध होते हैंजो गुरु से भी मुक्त होने की क्षमतासाहस से भरे हैं।
नहीं तो गुरु भी बंधन बन जाते हैं। नहीं तो शास्त्र भी बंधन बन जाते हैं। नहीं तो वे शब्द भीजो सत्यों के लिए प्रयुक्त किए हैंवे भी केवल कारागृह ही सिद्ध होते हैं और हम उनमें कैद हो जाते हैं।
कृष्ण कहते हैंजो तत्व से जान लेता है योगीवह सबसे मुका हो जाता है।
लेकिन वेद से ही नहीं। उन्होंने और बातें भी कही हैं। उन्होंने कहायज्ञ से भी मुका हो जाता है। क्योंकि यज्ञ से अर्थ हैसमस्त क्रिया-कांडरिचुअलधर्मों का समस्त क्रिया-कांड। धर्मों के समस्त शास्त्र-ज्ञान से अर्थ हैवेद। धर्मों के समस्त रिचुअलक्रिया-काडउससे अर्थ हैयज्ञ। उससे भी मुक्त हो जाता है। क्योंकि जिसने अपने भीतर परमात्मा को जानाअब कोई भी क्रियाअब कोई भी कर्मअब कोई भी रिचुअलकोई भी उपासना-पद्धति व्यर्थ हो गई। अब बाहर दौड़ने का कोई प्रयोजन न रहा।
जिसने भीतर की ही अग्नि को जान लियाअब बाहर अग्नियां जलाकर वह उनकी पूजा करने बैठेगातो पागल है। और अगर कभी बैठ भी जाता होतो सिर्फ इसीलिए कि जिन्होंने भी भीतर की अग्नि नहीं जलाई हैशायद उनके लिए सहयोगी हो सके। और अगर खंडन भी नहीं करता है कि यह व्यर्थ हैतो सिर्फ इसीलिए कि जिनको अभी भीतर का कोई पता नहींशायद बाहर की अग्नि भी उनके लिए प्रतीक बनेसहयोगी बनेयात्रा में साथी हो जाए।
लेकिन जब भी ऐसा व्यक्ति देखेगा कि बाहर की अग्नि भीतर की अग्नि तक पहुंचने में सहयोगी न रहीबाधा बन गईतो विरोध भी करता हैखंडन भी करता है। और इसीलिए निरंतर धार्मिक व्यक्ति पुराने रिचुअल्सपुराने किया-काड के विपरीत पड़ जाते दिखाई पड़ते हैं। लेकिन तय करना मुश्किल है कि वह क्या करेगा। अगर आप यज्ञ कर रहे होंतो वैसा योगी जिसने तत्व से जाना हैक्या करेगाकहना मुश्किल है। अगर उसको आपके भीतर भी बाहर जलती अग्नि की थोडी-सी भी झलक दिखाई पडेतो वह बराबर आपके यज्ञ का सहयोग करेगा। लेकिन अगर आपके भीतर धुआं ही धुआंअंधकार ही अंधकार दिखाई पड़े और बाहर की अग्नि उस अंधकार को और भी बढ़ाती होतो वह निश्चित ही विरोध करेगा।
इसलिए ऐसे व्यक्ति के वक्तव्य निरंतर असंगत होंगेइनकंसिस्टेंट होंगे। कभी वह कहेगा कि ठीक है मंदिरऔर कभी कहेगाव्यर्थ है। और कभी कहेगा कि इस मूर्ति में परमात्मा हैऔर कभी कहेगाइस मूर्ति को तोड़ डालोइसी के कारण परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता है। निर्भर करेगा इस बात पर कि वह किससे कह रहा है।
लेकिन यश की ही बात नहीं करते छोड़ने कीवे कहते हैंतप भीतप भी व्यर्थ हो जाता है। क्योंकि जिसे भीतर का स्रोत दिखाई पड़ गयाअब वह व्यर्थ अपने को कष्ट देने की चेष्टा में संलग्न नहीं होता है।
और अक्सर तो ऐसा होता है कि जो लोग अपने को कष्ट देते हैंवे कष्ट देने में रस पाते हैं-सैडिस्ट हैं। अपने को सताने में या दूसरे को सताने में। या सैडिस्ट हैं या मैसोचिस्ट हैं। जो लोग तप को बहुत आदर देते हैंवे अक्सर मैसोचिस्ट होते हैंखुद को सताने में रस पाते हैं।
मैसोच एक लेखक हुआ हैजो अपने को कोड़े मारतातभी प्रफुल्लित हो सकता। अपने को काटे चुभाताअपने को सताताभूखा मारताअपनी नसों को काट लेतातभी उसे थोड़ी-सी सुख की रसानुभूति होती।
और एक दूसरा लेखक हुआमारकुस सादे। वह जब तक दूसरे को सता न ले! तो वह अपने प्रेमियों को मारने के लिए हंटर रखताअपनी प्रेयसियों को सताने के लिए पूरा इंतजाम अपने साथ रखता। एक झोला रखता। क्योंकि नाखून ज्यादा नहीं सता सकतेतो वह छुरी-काटे अपने साथ रखता। ताला बंद कर देताऔर तब प्रेयसी को प्रेम करना शुरू करताऔर प्रेम का अंत अक्सर होता कि वह लहूलुहान कर देता। लेकिन जब तक वह दूसरे को लहूलुहान न कर लेतब तक उसे रस की अनुभूति न होती।
ये विकृतियां हैं। अध्यात्म में भी ये विकृतियां खूब प्रवेश कर जाती हैं। कुछ लोग हैंजो अपने को सताने में ही मजा लेने लगते हैं। और इन लोगों के आस-पासजो अपने को सताने में मजा लेते हैंमैसोच जैसे लोगइनके आस-पास सैडिस्ट इकट्ठे हो जाते हैंजो दूसरे को सताने में मजा लेते हैं।
अगर एक आदमी ने बीस दिन का उपवास किया हैतो उसके जुलूस में पचासों लोग इकट्ठे होकर सम्मिलित होंगे। आप देख लेनाजो उपवास किया हैवह मैसोचिस्ट हैऔर जो जुलूस में सम्मिलित हुए हैंवे सैडिस्ट हैं। इनको मजा आ रहा है कि इसने उपवास कियाइनको बडा मजा आ रहा है कि यह आदमी भूखा मरा। यह भूखा मरने वाला हैइसने अपने को सताकर मजा लिया। ये इसके सताए जाने में मजा ले रहे हैं। इनको बड़ा रस आ रहा है।
तप के नाम से सौ में निन्यानबे मौकों पर मानसिक बीमार संलग्न होते हैं। लेकिन एक व्यक्ति सौ में ऐसा भी होता हैजो तप में मानसिक बीमारी की तरह नहीं जाता। वस्तुत: सत्य की खोज में जो भी कष्ट आ जाएंउन्हें सहने की तैयारी दिखाता हैउसी का नाम तप है। सत्य की खोज में जो भी कष्ट आ जाएं! कष्टों को निर्मित नहीं करता। अगर वह ध्यान करने खड़ा है और धूप आ जाएतो वह धूप को सहने को तैयार होता है। लेकिन वह ध्यान करने के लिए धूप की खोज नहीं करताकि छाया में बैठा होतो ध्यान न कर सके। अगर उसे लगे कि ध्यान करते वक्त अगर भोजन नहीं लिया जाए तो ध्यान गहरा हो जाता हैतो वह उपवास भी करता है। लेकिन वह ऐसा नहीं कहता कि उपवास करोतो ही ध्यान हो सकेगा। सहज जो भी कष्ट उसे झेलने पडे परम सत्य की खोज मेंवह उनके लिए तैयार होता हैसहर्ष!
लेकिन तब उनकी प्रशंसा की वह चिंता नहीं करता। अगर आप उससे कहें कि तुमने धूप में रहकर बडा काम किया हैहम तुम्हारी पूजा करेंगे। तो वह कहेगा कि तुम पागल हो। धूप में खड़े रहकर मैंने कोई काम नहीं किया है। काम तो मैं भीतर कर रहा थाधूप आ गईतो मैंने उसकी बाधा को अस्वीकार नहीं किया। - मैंने उसे स्वीकार कर लिया। ध्यान तो मैं भीतर कर रहा था। भूख लग गईअगर भोजन के लिए जाऊं तो बाधा पडेगीइसलिए भोजन के लिए नहीं गयाभूख के लिए राजी हो गया। काम तो मैं भीतर कर रहा था। मैं भूखा नहीं रहा हूं। मैं धूप में नहीं खड़ा हूं। यह परिस्थिति थीउसे मैंने शांति से सह लिया है।
तप का वास्तविक अर्थ हैसत्य की खोज में जो भी दुख आ जाएंउन्हें सहज स्वीकार करने की तैयारी। लेकिन सत्य की खोज से विचलित न होनासत्य की खोज से रंचमात्र भी यहां-वहां न जानाचाहे कितने ही कांटे हों पथ पर।
लेकिन बीमार आदमी उस पथ पर चलेंगे ही नहींजहां काटे न हों। वे कहेंगेकाटे कहां हैं! पहले कांटे बिछाओतब हम चलेंगे। यह फर्क समझ लेना। सत्य का खोजी अगर काटे रास्ते पर होंतो उन काटो को भी झेलने को तैयार रहेगा। लेकिन रुग्णपरवटेंड माइंडसैडिस्ट हो या मैसोचिस्टवह कहेगायह सत्य का रास्ता हो ही नहीं सकता। इस पर काटे कहां हैंपहले कांटे बिछाओतब हम चलेंगे! अगर उसको फूलों वाला रास्‍ता मिल जाएतो वह मुकर जाएगा कि इस पर हम नहीं जाते। इस पर तो फूल बिछे हैं! और सत्य के रास्ते परेतो सूली ही लगती हैफूल कहौ!
यह आदमी सूली में उत्सुक हैसत्य में नहीं। यह कीटों में उत्सुक हैसत्य में नहीं। तो यह अपने लिए काटे निर्मित करता रहेगा। ऐसा तप रुग्ण है।
लेकिन वह एक प्रतिशत तप भीकृष्ण कहते हैंछूट जाता है। निश्चित ही! जब तत्व का बोध हो जाएतो तप करने की क्या जरूरत रहीजब मंजिल मिल जाएतो रास्ते पर दौडने का फिर क्या प्रयोजन हैफिर कोई भी प्रयोजन नहीं है। अगर कभी सत्य को पा लेने वाला भी तप करता हैतो उसका एक ही कारण होता हैताकि दूसरे तप को सहने की सामर्थ्य को पैदा कर लें। और कोई प्रयोजन नहीं होता।
अगर महावीर ने ज्ञान के बाद भी उपवास किए तो इसलिए नहीं कि अब उन्हें उपवास की कोई भी जरूरत थी। और अगर महावीर शान के बाद भी नग्न ही बने रहेउन्होंने वस्त्र न पहनेतो इसका यह कारण नहीं कि वस्त्रों से उन्हें अब कोई भय थाऔर नग्न रहने की कोई जरूरत थी। लेकिन जो पीछे लोग आ रहे हैंअगर महावीर उपवास छोड़ देंनग्नता छोड़ देंमहावीर वापस महल में आकर रहने लगेंतो वे जो पीछे आने वाले लोग हैंवे बीच की यात्रा कभी कर ही न पाएंगे। शायद वे यही समझेंगे कि महावीर को अपनी भूल पता चल गईलौट आए अपने घर! हम पहले से ही अपने घर हैं। अच्छा हुआझंझट में न पड़े!
महावीर को महल का अब कोई भय नहीं है। महावीर के लिए महल और जंगल बराबर हो गए। लेकिन फिर भी महावीर जंगल में रहे चले जाते हैंकेवल उन लोगों के प्रति करुणावशजिनको अभी महल के कारागृह से ऊपर उठना है।
वैसा व्यक्ति अगर तप जारी भी रखेतो सिर्फ इसलिएअगर वैसा व्यक्ति वेद की चर्चा भी जारी रखेतो सिर्फ इसलिए कि किसी के काम पड़ जाए। वैसा व्यक्ति अगर यश में भी सहयोगी होतो इसीलिए कि जो अभी तत्व तक नहीं उठ सकतेवे शायद रिचुअल के माध्यम सेउपासना सेकोई क्रिया-काड से सहारा पा लें और ऊपर उठ जाए।
कृष्य कहते हैंवैसा व्यक्ति दान से भी मुक्त हो जाता है।
दान भी सत्य की खोज में एक सहयोगी मार्ग है। दान का अर्थ हैजो भी हम दे सकें-वह दे देंऔर जिसको जरूरत होउसे दे दें। दान का मौलिक अर्थ है हम जो व्यर्थ हैउसे संगृहीत न करें। दान का गहरा अर्थ हैअपरिग्रह। हमजो जरूरी होउतना काफीशेष सब उन्हें दे देंजिन्हें उसकी जरूरत है। और कभी ऐसा क्षण भी आ जाए कि हमसे ज्यादा जरूरत किसी को होतो भी हम दे दें।
लेकिन कृष्ण कहते हैंऐसा व्यक्ति दान से भी मुक्त हो जाता है। यह और भी कठिन मालूम पड़ेगा। क्योंकि इसका अर्थ हुआ कि वैसा व्यक्ति दान नहीं करता है।
नहींइसका यह अर्थ नहीं कि वैसा व्यक्ति दान नहीं करता। इसका यह अर्थ हुआ कि वैसा व्यक्ति अब पाता ही नहीं कि कोई पराया है। वैसा व्यक्ति अब पाता ही नहीं कि मैं अलग हूं। वैसा व्यक्ति अब पाता ही नहीं कि यह जगत और मेरे बीच कोई फासला है। वैसा व्यक्ति दान नहीं करताउसका इतना ही अर्थ है कि वैसे व्यक्ति के पास अब दान करने को कुछ बचा नहींउसने स्वयं को ही दान कर दिया है। अब सब समर्पित हो गया हैसब विसर्जित हो गया है। एक छोटी-सी घटना कहूं शायद उससे खयाल में आए।
कबीर के घर बहुत लोग इकट्ठे होते हैं रोज। वे रोज उन्हें भोजन करा देते हैं। कबीर का बेटा मुश्किल में पड़ गया है। और उसने कहाहम पर कर्ज होता चला जाता है। रोज लोग आते हैंआप
रोज उनसे जाते वक्त कहते हैंभोजन कर जाओ। वे भजन-कीर्तन करने आते हैंउनको जाने देंभोजन के लिए मत रोकें। कबीर रोज कहते कि कल खयाल रखूंगा। कल फिर वही भूल होती। लोग भजन-कीर्तन करने सुबह आतेऔर जब जाने लगतेतो कबीर कहतेभोजन तो कर जाओ!
आखिर एक दिन उसके बेटे ने कहा कि अब यह असंभव है और आगे खींचना। क्या मैं चोरी करने लगूंकर्ज बढ़ता चला जाता है!
तो कबीर एकदम आनंदित हो गए और उन्होंने कहापागलअगर चोरी से यह हल हो सकता थातो तूने पहले क्यों न सोचाकमाल तो थोड़ा दिक्कत में पड़ाउनका बेटा तो दिक्कत में पडा। समझा उसने कि शायद कबीर समझ नहीं पाए कि मैंने क्या कहाचोरी! उसने कहाआप समझे भी! सुना भी! मैं कह रहा हूं क्या मैं चोरी करने लगकबीर ने कहाबिलकुल समझा। लेकिन इतने दिन से तेरी बुद्धि कहां गई थी?
कमाल ने कहाअब बात को आखिर तक ही खींचना पड़ेगा। कमाल था बेटाऔर कमाल का ही बेटा था। कबीर ने उसे नाम दिया था और अदभुत बेटा था। उसने कहातो फिर ठीक है। तो आज मैं चोरी को जाता हूं।
रात उठाआधी रातऔर उसने कहामैं जा रहा हूं। आशा हैआशीर्वाद हैकबीर ने कहा कि प्रभु तेरी सब भांति सहायता करें। कमाल केवल कबीर की परीक्षा ले रहा है कि बात कहो तक जाती है! हद्द इसकी कहा है! कमाल ने कहालेकिन अकेला शायद सामान ज्यादा चुरा लूं र तो लाने में दिक्कत हो। क्या आप भी साथ चलने को तैयार हैंकबीर ने कहाअब तो नींद टूट ही गई। चलोचला चलता हूं।
तब कमाल की बेचैनी बहुत बढ़ने लगी। यह क्या हो रहा है। कबीर! और चोरी को जा रहा है! पर कमाल ही थाउसका बेटा ही थाउसने कहाइतनी जल्दी छुटकारा ठीक नहीं। बात पूरे लाजिकल एंडतर्क के अंत तक ले जानी जरूरी हैतभी शायद पहचान हो पाए कि यह मजाक है या गंभीरता है।
जाकर उसने सेंध लगाई। कबीर पास खड़ा रहा। सेंध लगाते वक्त उसका हाथ कंपता था। कभी चोरी की नहीं। कभी चोरी का सोचा नहीं। लेकिन कबीर ने उससे कहातेरा हाथ क्यों कंपता हैचोरी ही कर रहे हैं नकुछ बुरा तो नहीं कर रहे! कबीर के बेटे ने अपने सिर पर हाथ ठोंक लिया। उसने कहाहद्द हो गई! चोरी ही कर रहे हैंकुछ बुरा तो नहीं कर रहे हैं! अब बुरा और क्या होता हैकबीर ने कहायह हाथ का कंपना बहुत बुरा है। जब चोरी कर रहे हैंतो पूरी कुशलता से करनी चाहिए।
योग कर्म की कुशलता हैहाथ न कंपे।
फिर कमाल भीतर गयाऔर एक बोरा गेहूं खींचकर बाहर लाया। कबीर ने उसे खींचने में सहायता दी। और जब कमाल उसे अपने कंधे पर रखने लगाउठाने लगातो कबीर ने कहारुक। घर के लोगों को बता आया कि नहींघर के लोगों को जाकर कम से कम कह दे कि हम एक बोरा चुराकर लिए जा रहे हैं! कमाल ने कहायह चोरी हो रही है या क्या हो रहा है!
और जब कमाल ने कबीर से पूछा कि इस सबका मतलब क्या हैतो कबीर ने कहा कि जब से हम न रहेवही रह गयातो अब किसकी चोरीऔर कौन करे! और कौन दान दे और कौन लेउसी का माल है। वही वहा सोते सोच रहा है कि मेरा है। मैं भी उसी का। वही मेरे भीतर कह रहा है कि ले चलो। वही सुबह कीर्तन करने आएगा। उससे कैसे कहूं कि बिना भोजन किए जाओसभी उसका है।
इस तल पर उठ जाने की भी संभावना है तत्वविद की। तत्वविद निश्चित ही इस तल पर उठ जाता हैजहां चोरी चोरी नहीं रह जातीजहां दान दान नहीं रह जाताजहां नीति- अनीति की सब सीमाएं अतिक्रमित हो जाती हैं। जहां सबजिसे हम धर्म कहते हैंवह कचरे की भांति नीचे गिर जाता है और व्यक्ति उस परम चैतन्य के साथ इतना एकरसएकभूत हो जाता है कि जो करवा रहा हैवही। जो कर रहा हैवही। जिस पर हो रहा हैवही। भेद जहां नहींवहां नीति कहांभेद जहां नहींवहां दानधर्मपुण्य कहौ!
भेद जहां नहींवही कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि अगर तू तत्वविद हो जाएतो कौन मारता है और कौन मरता है! पागलों की बातें हैं। न कोई मरताऔर न कोई मारता है। और ये जो सामने तेरे खड़े हैंइनमें भी वही हैजो कभी मरता नहीं। और तू जो लड़ने खड़ा हैतुझमें भी वही हैजो कभी मरता नहीं। और जो ये देहें खडी हैंये देहें तो मर ही जाती हैं।
कृष्ण का यह जो संदेश हैबहुत एमारल हैबहुत अतिनैतिक है। इसलिए जिन लोगों ने-डयूसन नेया शापेनहार ने जब पहली दफा गीता पढ़ीतो बहुत घबड़ा गए। घबड़ा गएक्योंकि इसका मतलब क्या हुआइतनी अतिनैतिक बाततो हमारी नीति का क्या होगाहमारी नीतिमत्ता का क्या होगाहमारी मारैलिटी का क्या होगाअगर दान भी व्यर्थ हो जाता हैतप भी व्यर्थ हो जाता हैयश भी व्यर्थ हो जाता हैवेद भी व्यर्थ हो जाते हैंतो सभी कुछ व्यर्थ हो जाता हैजिसे हमने आधार समझा है।
निश्चित हीजो परम आधार की तरफ चलता हैउसके लिए हमारे समाज के द्वारा दिए गए सभी आधार व्यर्थ हो जाते हैं। लेकिन वह अनैतिक नहीं हो जातावह अतिनैतिक हो जाता है। वह इम्मारल नहीं होताएमारल हो जाता है या सुपर मारल हो जाता है। शायद वही परम नैतिकता हैसुप्रीम मारैलिटी है। समस्त नीति के पार हो जाना ही शायद परम नीति है। और समस्त धर्मों के ऊपर उठ जाना ही शायद परम धर्म है।
कृष्ण ने यह उल्लंघन की बात कही है कि इन सबका उल्लंघन करकेवह सनातन पद कोपरम पद को प्राप्त होता है। वह फिर ब्रह्म जैसा हो जाता है। वह ब्रह्म ही हो जाता है।

आज इतना ही।
लेकिन अभी उठेंगे नहीं। एक पांच मिनट और। पांच मिनट अपनी जगह ही आप बैठे रहेंगे। हमारे संन्यासी कीर्तन करेंगे। अंतिम दिन का उनका प्रसाद लेकर जाएं। अपनी जगह पर ही कीर्तन में सम्मिलित हों।

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