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शनिवार, 4 नवंबर 2017

गीता दर्शन--(भाग--4) प्रवचन--102



अतर्क्‍य रहस्‍य में प्रवेश—(अध्‍याय9)

गीता दर्शन--(भाग--4) प्रवचन--102
प्रवचन—दूसरा

सूत्र:

मया ततमिदं सर्व जगदस्थ्यमूर्तिना।
मत्‍स्‍थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्यवीस्थ्य:।। 4।।
न च मत्‍स्‍थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्‍न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावन:।। 5।।
यथाकाशीस्थ्योनित्यं वायु: सर्वन्‍नगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्‍स्‍थानीत्युयधारय ।। 6।।

और हे अर्जुन मेरे अव्‍यक्‍त स्वरूय से यह सब जगत परिपूर्ण है और सब भूत मेरे में स्थित हैं। इसलिए वास्तव में मैं उनमें स्थित नही हूं।
और वे सब भूत मेरे में स्थित नहीं हैमेरे
योगसामथ्‍र्य को देख कि भूतों को धारणपोषण करने वाला और भूतों को उत्पन्न करने वाला भी मेरा आत्‍मा वास्तव में भूतों में स्थित नहीं है।

क्योंकि जैसे अकाश से उत्पन्न हुआ सर्वत्र विचरने वाला महान वायु सदा ही आकाश में स्थित हैवैसे ही संपूर्ण भूत मेरे में स्थित हैऐसे जान।


 श्रद्धा की बात कहकर कृष्ण ऐसी ही कुछ बात शुरू करेंगेयह सोचा जा सकता थाजिसे कि तर्क मानने को राजी न हो। यह सूत्र अतर्क्य हैइल्लाजिकल है। इस सूत्र को कोई गणित से समझने चलेगातो या तो सूत्र गलत होगा या गणित की व्यवस्था गलत होगी। यह सूत्र तर्क की संगति में नहीं बैठेगा। यह सूत्र रहस्यपूर्ण है और पहेली जैसा है।
एक तो पहेली ऐसी होती हैजिसका हल छिपा होता हैलेकिन खोजा जा सकता है। एक पहेली ऐसी भी होती हैजिसका कोई हल होता ही नहींखोजने से भी नहीं खोजा जा सकता है।
यह सूत्र दूसरी पहेली जैसा है। जापान में झेन फकीर जिसे कोआन कहते हैं। ऐसी पहेलीजो हल न हो सके। ऐसा रहस्य,जिसे हम जितना ही खोजेंउतना ही रहस्यपूर्ण होता चला जाए। ऐसा सत्यजिसे हम जितना जानेंउतना ही पता चले कि हम नहीं जानते हैं। जितना हो परिचय प्रगाढ़उतना ही रहस्य की और गहराई बढ़ जाए। जितना लें उसे पासउतना ही पता चले कि वह बहुत दूर है। छलांग तो लग सकती है ऐसे रहस्य मेंलेकिन ऐसे रहस्य का कोई पार नहीं मिलता है। सागर में जैसे कोई कूद तो जाएलेकिन फिर सागर के पार होने का उपाय न हो।
तो द्वार तो है प्रभु में प्रवेश कालेकिन वापस निकलने के लिए कोई द्वार नहीं है। इसलिए अगम है पहेली। और कृष्ण ने इसीलिए श्रद्धा की बात अर्जुन से पहले कही कि अब तू श्रद्धायुक्त हैतो मैं तुझे उन गोपनीय रहस्यों की बात कहूंगाजो कि श्रद्धायुक्त मन न होतो कहे नहीं जा सकते। इस सूत्र को समझने के पहले श्रद्धा के संबंध में थोड़ी बात और समझ लेनी जरूरी हैतभी यह सूत्र स्पष्ट हो सकेगा।
अस्तित्व में चार प्रकार के आकर्षण हैं। या तो कहें चार प्रकार के आकर्षण या कहें कि एक ही प्रकार का आकर्षण हैचार उसकी अभिव्यक्तियां हैं। या कहें कि एक ही है राजलेकिन चार उसकी सीढ़ियां हैं। या कहें कि एक ही है सत्यचार उसके आयाम हैं! अगर बहुत स्थूल से शुरू करेंतो समझना आसान होगा।
वैज्ञानिक कहते हैंइस जगत के संगठन मेंआर्गनाइजेशन में जो तत्व काम कर रहा हैउस तत्व को हम मैग्नेटिज्म कहेंउस तत्व को हम कहें एक चुंबकीय ऊर्जाएक चुंबकीय शक्तिजिससे पदार्थ एकदूसरे से सटा है और एकदूसरे से आकर्षित है। अगर विद्युत की भाषा में कहेंतो वह निगेटिव और पाजिटिवऋण और धन विद्युत हैजो जगत के अस्तित्व को बांधे हुए है। पदार्थ भी संगठित नहीं हो सकताअगर कोई ऊर्जा आकर्षण की न हो। एक पत्थर का टुकड़ा आप देखते हैं,अरबों अणुओं का जाल है। वे अणु बिखर नहीं जातेभाग नहीं जातेछिटक नहीं जातेकिसी केंद्र परकिसी आकर्षण पर बंधे हैं। वैज्ञानिक खोज करता हैआकर्षण दिखाई पड़ने वाला नहीं है। लेकिन बंधे हैंतो खबर मिलती है कि आकर्षण है।
हम एक पत्थर को आकाश की तरफ फेंके तो वापस जमीन पर गिर जाता। हजारों हजारों साल तक आदमी के पास कोई उत्‍तर नहीं था कि क्यों गिर जाता है। लेकिन न्‍यूटन को सुझा कि जरूर जमीन खींच लेती होगी। वह जो खिंचाव है न्‍यूटन को भी नहीं पड़ा है। वह खिंचाव किसी ने कभी नहीं देखा हैकेवल पत्‍थरों को हमने नीचे गिरते देखा हैपरिणाम देखा हैवृक्ष से पत्‍ता गिरता है और नीचे आ जाता है। आप छलांग लगाये पहाड़ से और जमीन पर आ जाएंगे। हर चीज जमीन की तरफ गिर जाती हैखिंच जाती है। कोई प्रबल आकर्षणकोई कशिश हैकोई ग्रिविटेशन जरूर पीछे काम कर रहा है। जो दिखाई नहीं पड़ता।
न्‍यूटन की खोज कीमती सिद्ध हुईक्‍योंकि जीवन का बहुत सा उलझाव उसकी खोज के कारण साफ हो गया जमीन में कशिश हैकोई मैग्नेटिज्य हैकोई आकर्षण हैकोई खिंचाव है। पदार्थ के तल पर खिंचाव को विज्ञान स्वीकार करता हैयद्यपि खिंचाव को कभी किसी ने देखा नहीं है। हमने केवल खिंचाव का परिणाम देखा है। हमने देखा है कि एक मैग्नेट को रख देंतो लोहे के टुकड़े खिंचे चले आते हैं। खिंचाव नहीं दिखाई पड़तालोहे के टुकड़े खिंचते हुए दिखाई पड़ते हैं। चुंबक दिखाई पड़ता है,लोहे के टुकड़े दिखाई पड़ते हैंवह जो शक्ति खींचती हैवह दिखाई नहीं पड़ती हैवह अदृश्य है। शक्ति मात्र अदृश्य है।
लेकिन जब चुंबक खींच लेता हैतो वैज्ञानिक कहता हैखिंचाव का काम जारी है। जब जमीन खींच लेती हैतो वैज्ञानिक कहता हैखिंचाव का काम जारी है। जब एक पत्थर के अणु बिखर नहीं जातेतो उसका अर्थ हैवे कहीं न कहीं सेंटर्ड हैंकोई न कोई केंद्र उन्हें बांधे हुए है। वह केंद्र दिखाई नहीं पड़ता। वह केंद्र अनुमानित है। लेकिन एक बात विज्ञान को साफ हो गई है कि उस केंद्र के दो बिंदु हैंएक जिसे धन बिंदु कहेंएक जिसे ऋण बिंदु कहेंपाजिटिव और निगेटिव कहें। उन दोनों के बीच आकर्षण है।
अगर पदार्थ के तल पर हम मनुष्य की भाषा का उपयोग करेंतो कहें कि पदार्थ में भी स्त्रैण और पुरुष जैसे बिंदु हैं। पदार्थ भी स्त्री और पुरुष में विभाजित हैऔर उन दोनों के आकर्षण से ही सारे अस्तित्व का खेल है।
पदार्थ से ऊपर उठेंतो इसी आकर्षण की दूसरी अभिव्यक्ति हमें स्त्री और पुरुष में दिखाई पड़ती है। पदार्थ से ऊपर उठें,तो जीवन भी इसी ऊर्जा से बंधा हुआ चलता हुआ मालूम पड़ता है। स्त्री और पुरुष के भीतर भी जीवन की ऊर्जा एकदूसरे को आकर्षित करती है। वही आकर्षण जीवन प्रवाह है।
अगर पदार्थ बंधा है किसी आकर्षण सेतो जीवन भी किसी से बंधा है जगत में वह आकर्षण सेक्स या यौन के नाम से प्रकट होता है। यौनविद्युतआकर्षण का ही दूसरा रूप है जीवन। जब चुंबकिय उर्जा जीवन को उपलब्ध हो जाती हैतो यौन निर्मित होता है।
उससे और उपर चले। तो मनुष्‍य यौन से ही प्रभावित नहीं होताकुछ ऐसे प्रभाव भी है जिनसे यौन का कोई भी संबंध नहीं है। उन प्रभाव को हम प्रेम कहते है।
पदार्थ के बीच जो आकर्षण है वह है विद्युत। दो शरीरों के बीच जो आकर्षण है वह यौन दो मनों के बीच जो आकर्षण है,वह है प्रेम। यौन से भी मनसविद राजी हैं। और प्रेम के संबंध में भी
वैज्ञानिक न राजी होंमनसविद न राजी होंलेकिंन कविसाहित्यकारकलाकारचित्रकारवे सबजिनका सौंदर्य से संबंध हैवे राजी हैं। वे मानते हैं कि प्रेम भी एक प्रगाढ़ ऊर्जा है और उसके परिणाम भी प्रत्यक्ष होते हैं।
लेकिन न तो हम जमीन के आकर्षण को देख सकते हैंऔर न हम यौन के आकर्षण को देख सकते हैंअनुभव कर सकते हैं। वैसे ही हम प्रेम के आकर्षण को भी नहीं देख सकते हैं। उसे भी अनुभव ही कर सकते हैं।
ये तीन सामान्य आकर्षण हैंएक और चौथा आकर्षण है। मैंने कहादो पदार्थों के बीचनिर्जीव पदार्थों के बीच जो आकर्षण हैवह विद्युत हैया चुंबकीय ऊर्जा है। दो शरीरों के बीच जो जैविकबायोलाजिकल ग्रेविटेशन हैवह यौन है। दो मनों के बीच जो आकर्षण हैवह प्रेम है। लेकिन दो आत्माओं के बीच जो आकर्षण हैउसका नाम श्रद्धा है। वह चौथा आकर्षण है,और परम आकर्षण है।
जब दो मन एकदूसरे में आकर्षित होते हैंतो प्रेम बनता है। जब दो शरीर एकदूसरे में आकर्षित होते हैंतो यौन निर्मित होता है। जब दो पदार्थ एकदूसरे में आकर्षित होते हैंतो भौतिक कशिश निर्मित होती है। लेकिन जब दो आत्माएं एकदूसरे में आकर्षित होती हैंतो श्रद्धा निर्मित होती है।
श्रद्धा इस जगत में श्रेष्ठतम आकर्षण हैऔर चुंबकीय आकर्षण। इस जगत में निम्नतम आकर्षण है। लेकिन न तो चुंबकीय आकर्षण देखा जा सकता है और न दो आत्माओं के बीच का आकर्षण देखा जा सकता है। जब चुंबकीय आकर्षण जैसी स्थूल बात भी नहीं देखी जा सकतीतो श्रद्धा जैसी बात तो कतई नहीं देखी जा सकती। लेकिन श्रद्धा के भी परिणाम देखे जा सकते हैं।
बुद्ध के पास एक युवक आया है। वह उनके चरणों में झुका है। उसने आख उठाकर बुद्ध को देखा हैवापस चरणों में झुक गया है! बुद्ध ने पूछाकिसलिए आए होउस युवक ने कहा कि जिस लिए आया थावह बात घट गईहो गई। अब मुझे कुछ पूछना नहींकुछ कहना नहीं। बुद्ध ने कहालेकिन और लोगों को बता दोक्योंकि इन्हें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा है।
वहां कोई दस हजार भिक्षुओं की भीड़ थी। किसी को कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा था। वह युवक आया थायह दिखाई पड़ा था। वह बुद्ध के चरणों में झुका थायह भी दिखाई पड़ा था। बुद्ध का हाथ उस युवक के सिर पर गया थायह भी दिखाई पड़ा था। उस युवक ने उठकरखड़े होकर बुद्ध की आंखों में देखा थायह भी दिखाई पड़ा था। वह वापस चरणों में झुका था कोई धन्यवाद देनेयह भी देखा। उसने जो कहावह भी सुना। लेकिन बुद्ध ने कहाअब तू वह बात भी इन सबको बता देजो किसी को दिखाई नहीं पड़ी है। तुझे क्या हो गया है?
उस युवक ने चारों तरफ देखा और उसने कहा कि उसे मैं कैसे कहूंमैं बदलने के लिए आया था और मैं बदल गया हूं। मैं रूपांतरित होने आया था और मैं रूपांतरित हो गया हूं। मैं किसी क्रांति के लिए आया था कि मेरी आत्मा किसी और जगत में प्रवेश कर जाएवह प्रवेश कर गई है।
लोगों ने पूछालेकिन यह कैसे हुआ त्र: क्योंकि न कोई साधनान कोई प्रयत्न! यह हुआ कैसे?
उस युवक ने कहामैं नहीं जानता। इतना ही मैं जानता हूं कोई अलौकिक प्रेम मेरे और बुद्ध के बीच घटित हो गया है,कोई श्रद्धा जन्म गई हैकोई भरोसा पैदा हो गया है। बुद्ध को देखकर मुझे भरोसा आ गया। उस भरोसे के साथ ही मैं बदल गया। शायद भरोसे की कमी ही मेरी क्रांति में बाधा थी। बुद्ध को देखकर मुझे यह भरोसा आ गया कि जो बुद्ध में हो सकता है,वह मुझ में भी हो सकता है। जो बुद्ध को हुआ हैवह मुझे भी हो सकता है। बुद्ध मेरा भविष्य हैं। जो मैं कल हो सकता हूं वह बुद्ध आज हैं। इस भरोसे के साथ ही जब मैं चरणों में झुका और वापस उठातो मैं दूसरा आदमी हो गया हूं।
लोगों को भरोसा नहीं आयालेकिन देखा कि वह आदमी बदल गया है। और वह आदमी साधारण आदमी नहीं थाहत्यारा थाडाकू थालुटेरा था। और दूसरे दिन वह आदमी गाव में भिक्षा मागने गया है। और लोगों ने अपनी छतों पर खड़े होकर उसे पत्थर मारे हैंक्योंकि लोग तो उसे लुटेरा ही देख रहे थे। वह जो घटना घटी थीवह तो उन्हें दिखाई नहीं पड़ सकती थी कि वह आदमी अब बुद्ध जैसा हो गया था। वह घटना तो आख के बाहर थीअगोचर थी। उन्होंने पत्थर मारे हैंक्योंकि वह हत्यारा था,चोर थालुटेरा था। गाव उससे पीड़ित रहा है। उसे कौन भिक्षा देगापत्थरों के अतिरिक्त उसे भिक्षा में कुछ भी नहीं मिला। वह पत्थरों में दबकर सड़क के किनारे पड़ा हुआ है। बुद्ध भिक्षा मांगने निकले हैं। उन्होंने आकर उसके सिर पर हाथ रखा। उसने आख खोली और बुद्ध ने कहाकोई पीड़ा तो नहीं हो रही?
उस मरणासन्न व्यक्ति ने कहापीड़ा! पीड़ा जिसे हो सकती थीवह आपके चरणों में मर चुका है। और जिसे पीड़ा नहीं हो सकतीवही अब बाकी बचा है।
बुद्ध ने कहालेकिन तुम मर रहे हो।
उस युवक ने कहाजो मर सकता थावह आपके चरणों में मर चुका है। और अब जो नहीं मर सकतावही केवल शेष है।
बुद्ध ने भिक्षुओं को कहा कि देखो! जिसका तुम्हें भरोसा नहीं आया थाउसका परिणाम देखो।
श्रद्धा के परिणाम देखे जा सकते हैं। जीवन में शक्तियां दिखाई नहीं पड़ती हैंकेवल उनके परिणाम दिखाई पड़ते हैं। इसलिए आपसे मैं कहता हूं आप अगर सोचते हों कि श्रद्धालु हैंतो इतना काफी नहीं है। आपकी श्रद्धा का एक ही प्रमाण है कि आपका जीवन रूपांतरित होता हो। तो जो आस्तिक कहता हैमैं श्रद्धालु हूं और नास्तिक और उसकी जिंदगी में कोई फर्क नहीं है,तो वह अपने को धोखा दे रहा है। क्योंकि श्रद्धा तो कशिश हैश्रद्धा तो क्रांति है।
तो जो कहता हैमैं श्रद्धालु हूं उसका सबूत एक ही है कि उसका जीवन गवाही देउसका अस्तित्व गवाही देवह एक विटनेस हो जाएवह एक साक्षी बन जाए परमात्मा के होने का। लेकिन अगर वह कहता है कि नहींमैं श्रद्धा तो करता हूं लेकिन मुझ में और नास्तिक में कोई ऐसे फर्क नहीं हैतो जानना कि श्रद्धा झूठी है। और र्झूठी श्रद्धा से सच्चा संदेह भी बेहतर है। क्योंकि सच्चा संदेह कभी श्रद्धा तक पहुंच सकता हैलेकिन झूठी श्रद्धा कभी श्रद्धा तक नहीं पहुंच सकती है।
यह जो श्रद्धा हैजैसा मैंने कहादो पदार्थों के बीच जो कशिश हैआकर्षण है भौतिकदो शरीरों के जीवन यौन बन जाता हैदो मनों के बीच सचेतन प्रेम बन जाता हैदो आत्‍माओं के बीच श्रद्धा हो जाती है। अगर दो पदार्थ आपस में न मिलेतो अस्तित्व बिखर जाए। और अगर दो शरीर आपस में न मिले तो जगत से जीवन बिखर जायेगा। अगर दो मन आपस में न मिलेतो जीवन से सब सौंदर्य बिखर जायेगा।
पदार्थ एक दूसरे को खिंचते हैइसलिए आस्‍तित्‍व संगठित है। आर्गनाइज्‍ड है। चाहे चाँद तारे घूमते हो और सूरज के आसपास पृथ्वी चक्कर मारतीहो और चाहे परमाणु घूमते होंजहां भी पदार्थ हैउसका कारण पदार्थ को आपस में बांधने वाली ऊर्जा है।
हमारी सदी पूछती हैईश्वर कहां हैअसल में हमें पूछना इसलिए कि पत्नी से भी नीचे गिराकुर्सी ज्यादा मूल्यवान है। पत्नी चाहिएश्रद्धा कहां हैक्योंकि श्रद्धा न होतो ईश्वर का कोई कुर्सी पर चढ़ाई जा सकती है। बच्चे कुर्सी पर चढ़ाए जा सकते हैं।

 अनुभव नहीं होगा। श्रद्धा न होतो ईश्वर न होने जैसा हो जाएगा। ईश्वर के प्रकट होने के लिए जिस आकर्षण की जरूरत हैवह श्रद्धा है।
और हर आकर्षण सृजनात्मक है। पदार्थ खिंचता हैतो जगत निर्मित हो जाता है। अभी तक वैज्ञानिक नहीं समझा पाए कि पृथ्वी कैसे बन गई! अब तक वे नहीं समझा पाए कि चांदतारे कैसे बन गए! अनुमान हैं बहुतलेकिन सारे अनुमानों के बीच एक आधार हैऔर वह आधार यह है कि जरूर किसी ऊर्जा के कारण यह सारा संगठन फलित हुआ हैकिसी शक्ति के कारण। उसके नाम कुछ भी दिए जा सकते हैं।
अगर दो शरीर संयुक्त न होंतो जीवन की धारा बिखर जाती है। इसलिए यौन कासेक्स का प्रबल आकर्षण है। लेकिन आदमी आदमी होकर भी पहले आकर्षण से भी ऊपर नहीं उठ पातातो आखिरी आकर्षण तक पहुंचना बहुत मुश्किल है। हममें से अधिक लोग यौन से भी नीचे जीते हैं। यह सुनकर आपको कठिनाई होगी। हममें से बहुतसे लोग हैंजिनको यौन का आकर्षण भी ऊपर है अभी। जो पदार्थ के आकर्षण पर जीते हैं।
अब एक आदमी रुपए इकट्ठे करने के लिए जी रहा हैवह अभी यौन के आकर्षण तक भी ऊपर नहीं उठा है। अभी वह पदार्थ के आकर्षण से बंधा है। अभी जब वह रुपए हाथ में रखता हैतो जो आनंद उसे अनुभव होता हैवह दो पदार्थों के बीच जो आकर्षण हैउसका ही आनंद है।
इसलिए धन के पीछे जो पागल हैवह पहले आकर्षण में जी रहा है। इस लिए लोभी काम से संयोग ले भी नीची अवस्था है। लोभग्रीड सेक्स से भी नीचे की अवस्‍था है', ध्यान रखना। और बहुतसे लोग हैं ऐसे जो धन के लिए सेक्‍स को कर्बान कर सकते हैं। और शायद मन में सोचते हो का काम कर रहे है। की तरफ जा रहे हैं। वे यौन से भी नीचे गिर रहे है। यौन की बलि चढा देते हैं। वो बिलकुल ही स्‍थूल आकर्षण में पड़े है।
एक आदमी है जिसको कुर्सी का मोह हैपद का मोह हैसिंहसान का मोह हैवह कुर्सी के आकर्षण पर जी रहा है। इसलिए राजनीतिज्ञ अकसर अपनी की फिक्र छोड़ सकता है। इसलिए नहीं कि वह भी बुद्ध जैसा हो गया है कि पत्नी को छोड़ सकता है,
इसलिए कि पत्‍नी से भी नीचे गिराकुर्सी ज्‍यादा मूल्‍यवान है। पत्‍नी कुर्सी पर चढ़ाई जा सकती है। बच्‍चे कुर्सी पर चढ़ाइ जा सकती है। वह पहला स्‍थूल आकर्षण है। वह पहला स्थूल आकर्षण है।
धनपदबहुत स्थूल आकर्षण हैं। वे आकर्षण वैसे ही हैंजैसे चुंबक के पास लोहा खिंचता है। ऐसे ही हम खिंचे चले जाते हैं। ध्यान रखनाआप चुंबक नहीं हैं। जब आप धन की तरफ खिंचते हैंतो ध्यान रखनाधन आपकी तरफ कभी नहीं खिंचता है। आप ही धन की तरफ खिंचते हैं। धन चुंबक होता है। ध्यान रखनाधन पुरुष हो जाता हैआप स्त्रैण हो जाते हैं।
इसलिए धन को प्रेम करने वाला रुपए को ऐसे देखता हैजैसे अपने प्रेमी को। वह उसका परमात्मा है। रुपए को छूता है ऐसेजैसे किसी जीवित चीज को भी उसने कभी नहीं छुआ है। रुपए को उलटपलटकर देखता है!
और हम सबको पता है। स्त्रियों को पता है। इसलिए स्त्रियां अपने शरीर की उतनी फिक्र नहीं करती हैंजितनी अपने गहनों की फिक्र करती हैं। क्योंकि आसपास जो लोग हैंवे पदार्थ से आकर्षित होते हैं। अभी शरीर का भी आकर्षण दूर है।
इसलिए स्त्री अपने शरीर को गंवा सकती हैलेकिन अपने हीरे को नहीं खो सकती। उसके हाथ में उतना आकर्षण नहीं मालूम पड़ता उसेजितना हीरे की अंगूठी में मालूम पड़ता है। और उसकी समझ एक लिहाज से सही है। क्योंकि जब भी कोई उसके हाथ को देखता हैतो सौ में से नब्बे मौके पर हाथ को देखने वाले बहुत कम लोग हैंहीरे की अंगूठी को देखने वाले ज्यादा लोग हैं। इसलिए अगर कुरूप हाथ भी हो और हीरे की अंगूठी होतो आपको हाथ का कुरूप होना दिखाई नहीं पड़ता। हीरे की अंगूठी का सौंदर्य हाथ पर छा जाता है। इसलिए कुरूप व्यक्ति आभूषणों से अपने को लादता चला जाता है। असल में कुरूपता ही केवल आभूषण के प्रति आकर्षित होती हैक्योंकि वह और नीचे के तल का आकर्षण है।
पुरुष भी भलीभांति जानते हैं कि उनका बड़ा मकान एक स्त्री को आकर्षित कर सकता है। उनका बैंक बैलेंस एक स्त्री को आकर्षित कर सकता है। उनकी बड़ी कार एक स्त्री को आकर्षित कर सकती है। इसलिए पुरुषों को भी अपने शरीर की भी उतनी चिंता नहीं हैजितनी अपनी कार की हैजितनी अपने मकान की हैजितनी अपनी तिजोड़ी की है। क्योंकि आदमी के जिस समाज में हम जी रहे हैंवह पदार्थ के तल पर आकर्षित हो रहा हैऔर श्रद्धा बहुत लंबी यात्रा है फिर।
पदार्थ से ऊपर उठेंबड़ी कृपा होगीलोभ से ऊपर उठें। कम से कम जीवित व्यक्ति में आकर्षित होंमृत पदार्थों में नहीं। यह भी बड़ी क्रांति है। कुछ लोग जीवित व्यक्तियों में आकर्षित होते हैंलेकिन यौन के बाहर उनका आकर्षण नहीं जाता। एकदूसरे के शरीर तो मिलते हैंलेकिन एकदूसरे के मन कभी भी नहीं मिल पाते हैं।
इसलिए जिन मुल्कों में तलाक की सुविधा हो गई हैउन मुल्कों में विवाह अब बच नहीं सकता। क्योंकि मन तो कहीं मिलते ही नहींतन ही मिलते हैं। और तन जल्दी ही बासेऔर जल्दी ही उबाने वाले हो जाते हैं।
एक ही शरीर कितनी बार भोगा जा सकता हैऔर एक ही शरीर कितनी देर तक आकर्षक हो सकता हैऔर एक ही शरीर कितनी देर तक खींचेगाफिर वह खिंचाव भी एक ऊब और बोर्डम हो जाती है। और मन तो मिलते नहीं।
इसलिए पश्चिम मेंजहां तलाक सुविधापूर्ण होता चला जा रहा हैविवाह बिखरता चला जा रहा है। उन्नीस सौ में अमेरिका में चार शादियों में एक तलाक होते थेअब चार शादियों में तीन तलाक की नौबत है। सिर्फ पचास साल में! और पचास सालमैं आपको भरोसा दिलाता हूं तलाक समाप्त हो जाएंगेक्योंकि विवाह समाप्त हो जाएगा। तलाक बच नहीं सकते ज्यादा दिन तकक्योंकि तलाक को बचाने के लिए विवाह जरूरी है। और विवाह ही बचने वाला नहीं है। क्या कारण है गुड शरीर का आकर्षण यौन हैऔर मन का तो आकर्षण पैदा ही नहीं हो पाता।
हमारे पास मन जैसी कोई चीज भी हैऔर हम कभी किसी के मन से भी आकर्षित होते हैंतो ही हमें प्रेम का अनुभव शुरू होगा। प्रेमशरीरमुक्त दो मन के बीच आकर्षण है। प्रेम मैत्री है।
लेकिन हमें प्रेम का अनुभव नहीं है। मित्रता दुर्लभ होती चली गई है। और प्रेम का ही पता न होतो श्रद्धा बहुत कठिन हो जाएगी। मन का प्रेम मित्रता को जन्म देता है।
चौथा जो आकर्षण हैश्रद्धावह गुरु और शिष्य के बीच क्रा संबंध है। किसी की आत्मा इतनी आकर्षक हो जातीउसका मन भी मूल्य का नहींउसका शरीर भी मूल्य का नहींउसके पास जो पदार्थगत कुछ भी होवह भी किसी मूल्य का नहींबस उस व्यक्ति का अस्तित्वउसका होना ही मूल्यवान हो जाता है। इस मूल्य का भी एक जोड़ और एक संबंध है।
पदार्थ के तल पर निगेटिव और पाजिटिव मिलते हैंवे भी स्त्रीपुरुष हैं। शरीर के तल पर यौन संयुक्त होता हैवे भी स्त्रीपुरुष हैं। यह आपको जानकर कठिनाई होगी कि जब दो मनों का भी मेल होता हैतो उसमें एक मन स्त्रैण और एक मन पुरुष जैसा होता है। असल में जहां भी मेल घटित होता हैजहां भी मिलन होता हैवह। स्त्री और पुरुष का अंश मौजूद होता है। और जब श्रद्धा जन्मती हैतब भीआत्मा के तल पर भीस्त्री और पुरुष का अंश मौजूद रहता है।
स्त्री और पुरुष का विभाजन शारीरिक ही नहीं हैजैविक ही नहीं हैसारा अस्तित्व बंटा हुआ है। इसलिए कृष्ण को प्रेम करने वाले भक्तों ने अगर कहा है कि एक ही पुरुष है जगत मेंकृष्णतो उसका कारण है।
अगर मीरा ने वृंदावन के मंदिर में पुजारी को कहा हैक्योंकि उस पुजारी ने नियम ले रखा था कि किसी स्त्री को मंदिर में प्रवेश नहीं करने देगा। और मीरा जब नाचती हुई उस मंदिर के द्वार पर पहुंच गईतो द्वार बंद कर दिए गए। और लोगों ने खबर दी कि मंदिर के पुजारी जो हैंगोस्वामी जो हैंवे स्त्री को भीतर प्रवेश नहीं करने देते हैंआप लौट जाएं। मीरा ने कहा,इतनी खबर पुजारी तक पहुंचा दोमैं तो सोचती थी कि जगत में केवल एक ही पुरुष हैकृष्ण। गोस्वामी भी पुरुष हैंउनसे इतना पूछ आएं।
द्वार खुल गए। गोस्वामी मीरा के चरणों में गिर पड़ा। क्योंकि गोस्वामी को संदेश मिल गया। गोस्वामी को खयाल आ गया कि भक्त होकर कृष्ण कावह पुरुष कैसे हो सकता हैएक आत्मिक तल पर कृष्ण पुरुष हो गए और गोस्वामी उनका भक्त हैतो स्त्रैण हो गया।
स्त्रैण और पुरुष शब्द का मैं प्रयोग कर रहा हूं। पुरुष वह हैजो खींचता हैस्त्री वह है जो समर्पित होती है। गुरु और शिष्‍य के बीच समर्पण का यहीं संबंध है। इस समर्पण के बाद वैसी बातें हो सकती हैजो अन्‍यथा नहीं हो सकती।
तो कृष्ण अब एक बहुत गुरु गंभीर बात अर्जुन से कह रहे है। सुनकर सिर चकराता मालूम पडे इस बात को कृष्‍ण भी इसके पहले नहीं कह सकते थे। जब पक्‍की हो गई बात और अर्जुन श्रृद्धा  से भर गया हैसमर्पित हैउसके ह्रदय के द्वार खुले हैसंदह की दीवालें गिर गई हैंशंकाएं कुशंकाए निषेद हो गई है। अब आतुर है।  ठीक वैसे हीजैसे कभी कोई स्‍त्री प्रेम के किसी क्षण में पुरूष को अपने भीतर लेने को आतुर होती है। प्रेम के किसी में जैसे स्त्री पुरुष को अपने द्वारा पुन: जन्माने को आतुर होती है। प्रेम के किसी क्षण में जैसे स्त्री अपने भीतर नए जीवन के लिएनए जीवन को जन्म देने के लिएगर्भाधान के लिएपुरुष के प्रति समग्ररूपेण समर्पित होती है। ऐसे ही श्रद्धा से भरा हुआ चित्त गुरु के प्रति अपने सब द्वार खोल देता है,ताकि गुरु की ऊर्जा उसमें प्रविष्ट हो जाए और जीवन रूपांतरित होऔर एक नए जीवन का जन्म हो सके।
मैंने कहा कि जब दो पदार्थ मिलते हैंतब भी नई चीज निर्मित हो जाती है। अगर आक्सीजन और हाइड्रोजन मिल जाते हैंतो पानी निर्मित हो जाता है। जब एक 'स्त्री और पुरुष का मिलन होता हैतो एक तीसरे जीवन का जन्म हो जाता है। जब दो प्रेम से भरे हुए मन मिलते हैंतो इस जगत में सौंदर्य केआनंद के बड़े फूल खिलते हैं। और जब प्रेम से दो व्यक्तियों का मिलन होता हैतब भी वे दो व्यक्ति भी रूपांतरित हो जाते हैं। अगर आपने कभी प्रेम की पुलक अनुभव की हैतो आपने तत्काल पाया होगाआप दूसरे आदमी हो गए हैं।
विनसेंट वानगाग के संबंध में मैंने पढ़ा है। वह एक बड़ा डच चित्रकार था। उसे किसी स्त्री ने कभी कोई प्रेम नहीं किया। कुरूप था। और मन को प्रेम करने वाले तो खोजने कठिन हैं। गरीब था। और धन को प्रेम करने वाले तो चारों तरफ हैं। उसे किसी ने कोई प्रेम् नहीं दिया। वह जवान हो गयाउसकी जवानी भी उतरने के करीब आने लगी। उसे कभी किसी ने प्रेम की नजर से नहीं देखा। वह चलता था तो ऐसेजैसे मुर्दा चल रहा होअपना बोझ खुद खींचता हो। अपने ही पैर उठाने पड़तेतो लगता कि किसी और के पैर उठा रहा है। आँख उठाकर देखता तो ऐसेजैसे आंखों की पलकों पर पत्‍थर बंधे हो।
वह जहां नौकरी करता था वह मालिक भी परेशान हो गया था उसके आलस्‍य को देखकर उसक़े तमस को देखकर। मालिक सोचता था इतने तमस की क्‍या जरूरत हैइतने आलस्य कीइतने प्रमाद की। बैठा तो बैठा ही रह जाता। उठने की भी कोई प्रेरणा नहीं थी। सोता तो सोया रह जाता। सुबह किसलिए उठूंइसका भी कोई कारण नहीं था।
लेकिन एक दिन मालिक देखकर चकित हुआ कि वानगाग न मालूम कितने वर्षो के बाद स्‍नान करकेमालूम कितने महीनों के बाद कपड़े बदलकर शायद जीवन में पहली दफा गीत गुनगुनाता हुआ दुकान में प्रविष्‍ट हुआ। उसने पूछाआज क्‍या हो गया है तुम्हेंकोई चमत्कार! तुम और गीत गुनगुनाओगे! और तुमने क्या स्नान भी किया हैऔर क्या तुमने ताजे कपड़े भी पहन लिए हैं?
वानगाग ने कहा कि हौकिसी ने मुझे आज प्रेम से देख लिया है! किसी के प्रेम का मैं पात्र हो गया हूं!
अब यह आदमी दूसरा है। प्रेम से गुजरकर दोनों व्यक्तियों का पुनर्जन्म हो जाता है।
श्रद्धा से गुजरकर जो होता हैवह आत्यंतिक क्रांति है। श्रद्धा से गुजरकर पुराना तो मर ही जाता हैनए का ही आविर्भाव हो जाता है। प्रेम में तो पुराना बदलता हैश्रद्धा में पुराना मरता है और नया आता है। प्रेम में एक कंटिन्यूटी हैसातत्य है। श्रद्धा में डिसकंटिन्यूटी हैसातत्य टूट जाता है। श्रद्धा के बाद आप वही नहीं होतेजो पहले थे। आप दूसरे ही होते हैं। दोनों के बीच कोई संबंध भी नहीं होतादोनों के बीच कोई रेखा भी नहीं होती। पुराना बस समाप्त हो जाता हैऔर नया आविर्भूत हो जाता है।
श्रद्धा इस जगत में सबसे बड़ी छलांग है। छलांग का मतलब होता हैपुराने से कोई संबंध न रह जाए। इसलिए श्रद्धा जब भी किसी जीवन में घटित होती हैतो इस जगत में सबसे बड़ी क्रांति घटित होती है। और सब क्रांतिया बचकानी हैंसिर्फ आत्मक्रांति ही आधारभूत क्रांति है।
इस क्रांति के द्वार पर खड़ा देखकर कृष्ण ने अर्जुन से कहाहे अर्जुनमेरे अव्यक्त स्वरूप से यह सब जगत परिपूर्ण है।
अब ये सब बातें उलटी हैं। कबीर की उलटबासी के संबंध में आपने सुना होगा। कबीर बहुत उलटी बातें कहते हैंजो नहीं हो सकतीं। कहते हैं कि नदी में आग लग गईजो नहीं हो सकता। कहते हैं कि मछलियां घबड़ाकर दरख्तों पर चढ़ गईंजो नहीं हो सकता। लेकिन कबीर इसलिए कहते हैं कि इस जगत में जो नहीं हो सकतावह हो रहा हैयहींआंखों के सामने। जो हो सकता हैवह तो हो ही रहा हैवह महत्वपूर्ण नहीं है। और जो उसको ही देख पाता हैजो हो रहा हैवह अंधा है। जो नहीं हो सकता हैवह भी हो रहा है। जिसको कोई तर्क नहीं कहेगा कि हो सकता हैवह भी हो रहा है। कोई गणित जिस निष्पत्ति को नहीं देगावह भी हो रहा है। इस जगत में अनहोना भी हो रहा है। वही इस जगत में ईश्वर का सबूत है। वही चमत्कार है। वही मिरेकल है।
तो बड़ी अनहोनी बात कृष्ण कहते हैं। वे कहते हैंमेरे अव्यक्त स्वरूप से यह सब जगत परिपूर्ण है।
अब यह जगत है व्यक्तदि मैनिफेस्ट। और कृष्ण कहते हैंथू दिस मैनिफेस्टमाई अनमैनिफेस्ट इज मैनिफेस्टेड। यह जो प्रकट है जगतयह जो व्यक्त हैयह जो दिखाई पड़ रहा हैयह जो न साकार हैयह जो सगुण हैयह जो रूप से भरा है,इसके भीतर मेरा अरूपमेरा निर्गुणमेरा निराकारमेरा अव्यक्तमेरा अदृश्य प्रकट हो रहा है।
अब ये दोनों बातें सही नहीं हो सकती हैं हमारे गणित से। हमारी बुद्धि से ये दोनों बातें सही नहीं हो सकती हैं। सीधी बात कहनी चाहिए। अव्यक्त का अर्थ हैजो प्रकट नहीं होताजो प्रकट हुआ ही नहीं कभी। तो जगत से प्रकट कैसे होगाऔर अगर जगत से प्रकट हो रहा हैतो उसे अव्यक्त कहने की क्या जरूरत हैदो में से कुछ एक करो। तर्क अगर होगातो कहेगादो में से कुछ एक करो। या तो कहो कि यह जो प्रकट हुआ हैयही मैं हूं प्रकट हुआऔर या कहोयह जो प्रकट हुआ हैयह मैं नहीं हूंअप्रकट हूं मैं। लेकिन कृष्ण कहते हैंयह जो प्रकट हुआ हैइसमें मैं ही व्याप्त हूंमैं ही इसमें भरा हूंमैं ही इसमें परिपूर्ण हूं। रूप के भीतर मेरा ही अरूप है। आकार के भीतर मेरा ही निराकार है। दृश्य के भीतर मैं ही अदृश्य हूं।
यह हमें कठिनाई में डालता है। लेकिन इसे समझना पड़े। श्रद्धा होतब तो यह तत्काल समझ में आ जाता हैसमझना नहीं पड़ता। श्रद्धा न होतो इसे थोड़ा समझना पड़े। इसे थोड़ी चेष्टा करनी 'पड़े कि क्या प्रयोजन होगा ऐसी उलटी बात कहने काऔर फिर यह उलटी बात आगे बढ़ती ही चली जाती है। वे इसे और उलटाते चले जाते हैं।
हमारी बुद्धि की सोचने की जो व्यवस्था हैहमारी बुद्धि की जो कैटेगरीज हैंहमारे सोचने के जो नियम हैंउन नियमों में ही बुनियादी भूल है। उन नियमों के कारणजो जीवन में हो रहा हैवह हमें दिखाई नहीं पड़ता।
जैसे अगर मैं यह कहूं कि जन्म भी मैं हूं और मृत्यु भी मैंतो गणित और तर्क के लिहाज से गलत है। क्योंकि अगर मैं जन्म हूं तो मृत्यु कैसे हो सकता हूंजन्म और मृत्यु तो विपरीत हैं।
हमारे सोचने में विपरीत हैंवस्तुत: विपरीत नहीं हैं। अस्तित्व में जन्म और मृत्यु जुड़े हैंएक हैं। जन्ममृत्यु का ही पहला छोर हैऔर मृत्युजन्म का ही दूसरा। जन्म लेकर हम करते क्या हैं सिवाय मृत्यु तक पहुंचने के! जन्म और मृत्यु दो चीजें नहीं हैं। विपरीत तो हैं ही नहींदो भी नहीं हैं। दो तो हैं ही नहींभिन्न भी नहीं हैं। एक ही चीज के दो छोर हैं। जन्म एक छोर हैमृत्यु दूसरा छोर हैउसकाजिसे हम जीवन कहते हैं।
लेकिन सोचने में मृत्यु दुश्मन और जन्म मित्र मालूम पड़ता है। तो जन्म के समय हम बैंडबाजे बजाकर स्वागत कर लेते हैंऔर मृत्यु के समय रोधोकर विदा कर देते हैं।
शायद हमें खयाल हो कि हंसना और रोना भी विपरीत चीजें हैंतो फिर हम गलती में हैं। हमारी भाषा और सोचने के नियम की भूल है। अगर आप रोते ही चले जाएंतो थोड़ी ही देर में रोना हंसने में बदल जाएगा। प्रयोग करके देखें। यह तो कोई बहुत कठिन प्रयोग नहीं है। रोते ही चले जाएंरुके ही मतएक क्षण आएगा कि आप पाएंगेरोना समाप्त हो गया और हंसने का जन्म हो गया है! हंसते चले जाएंरुके ही मततो आप पाएंगे कि हंसना विलीन हो गया और रोना शुरू हो गया।
इसलिए ग्रामीण स्त्रियां भी जानती हैं कि बच्चों को ज्यादा हंसने नहीं देतीं। कहती हैंअगर ज्यादा हंसेगातो फिर रोएगा। इसलिए हंसने में ही रोक लेना उचित है। लेकिन हमारी भाषा में हंसना और रोना विपरीत हैजन्म और मृत्यु विपरीत है;अंधेरा और प्रकाश विपरीत हैबचपन और बुढ़ापा विपरीत हैसर्दी और गर्मी विपरीत है।
यह भाषा की भूल है। यह तर्क की भूल है। ये विपरीत हैं नहीं! ऐसा कहीं प्रकाश देखा है आपनेजो अंधेरे से न जुड़ा हो?ऐसा कहीं कोई अंधेरा देखा है आपनेजो प्रकाश से न जुड़ा होसगेसाथी हैंसंगी हैंऐसा भी कहना ठीक नहीं है। एक ही चीज के दो छोर हैं। अगर यह खयाल में आ जाएतो कृष्‍ण का सूत्र इतना बेबूझ नहीं मालूम होगा।
लेकिन इस सूत्र ने बड़ी कठिनाइयांद दी है। इस बात ने बड़ी कठिनाइयां दी हैं कि परमात्मा सगुण है या निर्गुण। कितना उपद्रवकितने विवादनामसझी का कोई अंत नहीं पड़ता। और जिन्हें हम सोचते हों कि समझदार वह भी बैठे कर रह विवाद,कि परमात्मा निर्गुण है या सगुण।
 सगुण के उपासक हैं वे कहते कि निर्गुण की बात ही मत करोनिर्गुण के उपासक हैंवे कहते हैंकि सगुण की सब बकवास। आकार को मानने वाले हैंतो मूर्ति बनाकर बेठे है। निराकार को मानने वाले हैंतो मूर्तियां तोड्ने में लगे है।
मुसलमान हैंवे निराकार को मानने वाले है। उन्‍होने कितनी मूर्तियां मिटा दीं दुनिया से! बनाने वालों ने जिनी मेहनत नहीं किउन बेचारों ने उससे भी ज्यादा मेहनत की मिटाने में! बनाने वाले भी इतनी फिक्र नहीं करते मूर्ति कीजितनी मिटाने वाले को करनी पड़ती है। मिटाने वाला जान की जोखिम लगा देता हैमूर्ति को मिटा देता हैक्योंकि परमात्मा निराकार है।
लेकिन कैसे मूर्तियां मिटाओगेबनाने वाले बनाए चले जाते हैं। जिन्होंने मूर्तियां बनाईंउनका कोई हिसाब हैभारत में हम समझते हैं कि जितने आदमी हैंउससे कम परमात्मा नहीं हैंउससे कम परमात्मा की मूर्तियां नहीं हैं। पहले तैंतीस करोड़ आदमी हुआ करते थेतो तैंतीस करोड़ देवता थे हमारे पास। इधर आदमियों ने तो थोड़ी संख्या बढ़ा ली हैपता नहीं देवता क्या कर रहे हैं!
बनाने वाले बनाए चले जाते हैंक्योंकि वे कहते हैंसगुण हैसाकार हैरूपवान है। मिटाने वाले मिटाए चले जाते हैं।
लेकिन भाषा की भूल इतनी महंगी पड़ सकती है! जिसे हम सगुण कहते हैंवह निर्गुण का ही एक छोर है। जिसे हम निर्गुण कहते हैंवह सगुण का ही एक छोर है। सगुण और निर्गुण दो विपरीत घटनाएं नहींएक ही अस्तित्व के दो छोर हैं। जिसे हम रूप कहते हैंवह अरूप का ही एक हिस्सा है।
इसे ऐसा समझें कि अरूप का जो हिस्सा हमारी इंद्रियों की पकड़ में आ जाता हैउसे हम रूप कहते हैं। और रूप का भी जो हिस्सा हमारी इंद्रियों की पकड़ के बाहर चला जाता हैउसे हम अरूप कहते हैं। सगुणजिसे हम नाप लेते हैंतौल लेते हैं,वह सगुण हो जाता है। निर्गुणजो हमारी नापतौल के पार निकल जाता हैतो निर्गुण हो जाता है।
मेरे घर में आंगन हैतो मेरे आंगन का अपना आकाश हैदीवाल है आँगन की मेरा आकाश पड़ोसी के आकाश से जुदा हैभिन्न है। अगर पड़ोसी मेरे आकाश में आना चाहेतो मैं इनकार करूंगा। मेरा आकार मेरे आँगन का आकाश!
लेकिन इससे क्‍या आकाश विभाजित होता हैकितनी ही हम दीवाल खड़ी करे इससे सिर्फ हमारी सीमा बनती है देखने की। लेकिन दीवाल के पार का आकाश और मेरे आंगन के आकाश में क्या कोई खंड हो जाता हैकोईकोई टूट हो जाती है?
मेरी दिवाल मेरी ही आँख के लिए बाधा बनती हैआकाश के लिए नहीं। ध्‍यान रखे मेरी दिवाल मेरी ही आंख की सीमा बनती हैआकाश की नहीं। आकाश दो हिस्‍सों में बंट जात हैआकाश नहीं बंटतामेरे आँगन का आकाश उस आकाश का ही हिस्‍सा है। बहार हैऔर जो बाहर हैवह मेरे आँगन के ही आकाश का विस्तार है।
जितने भी विपरीत शब्द हैं हमारे पासवे सभी एक ही अस्तित्व के छोर हैं। इसलिए कृष्ण कहते हैंमेरे अव्यक्त स्वरूप से यह सब जगत परिपूर्ण है। मेरा निराकार इन सब आकारों में छिपा है। मेरा निर्गुण इन सब गुणों में प्रकट हुआ है। मेरा परमात्मा ही इस पदार्थ का आधार है। और सब भूत मुझमें स्थित हैं। और यह जो सारा जगत दिखाई पड़ रहा हैयह मुझमें स्थित है, .मुझमें ही ठहरा हुआ है। और तब तत्काल एक विपरीत बात वे कहते हैंविपरीत हमें दिखाई पड़ती हैऔर सब भूत मुझमें स्थित हैंलेकिन मैं उनमें स्थित नहीं हूं।
सब भूत मुझमें हैंलेकिन मैं उनमें नहीं हूं यह कैसे होगाअगर सब भूत परमात्मा में स्थापित हैं और अगर परमात्मा ही सब में प्रकट हो रहा हैतो फिर यह कहना कि मैं उनमें नहीं हूंहमारे तर्क को नई दुविधा दे देगा।
श्रद्धा को कठिनाई नहीं हैक्योंकि श्रद्धा प्रश्न नहीं उठाती। श्रद्धा आरपार देख लेती हैट्रासपैरेंट है। वह देख लेगी कि ठीक हैकुछ अड़चन नहीं है। बिलकुल ठीक है।
झेन फकीर बोकोजू के पास एक जिज्ञासु आया है और उस जिज्ञासु ने पूछा कि परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग क्या है?
बोकोजू चुपचाप बैठा रहा और फिर उसने खिड़की के बाहर झांककर देखा और कहा कि देखो! सूरज ढलने लगासांझ होने के करीब है।
कोई संबंध न था! उस आदमी ने पूछा थाईश्वर को पाने का मार्ग क्या हैऔर यह आदमी खिड़की के बाहर हाथ उठाकर बोलादेखोसांझ होने लगीसूरज ढलने के करीब है। उस आदमी ने पैर छुए और चला गया।
एक दूसरा आदमी बैठा थावह हैरान हो गया। यह बोकोजू तो पागल है हीवह जो आ गया थावह महापागल मालूम पड़ता है! उसने जो प्रश्न पूछा था कि ईश्वर को पाने का मार्ग क्या हैहद्द पागल आदमी था! और इसने जो उत्तर दिया! कुछ लेनदेन ही नहीं दोनों में! कोई संबंध नहीं! कोई दूर की भी संगति नहीं। कहां ईश्वर को पाने का मार्ग! और क्या मतलब इससे कि सूरज डूबता है और सांझ हो रही है!
उस आदमी ने कहा कि मुझे भी एक सवाल पूछना हैलेकिन कृपा करके ऐसा जवाब मत देना। मुझे यह पूछना है कि इस आदमी ने जो पूछाउसका क्या हुआ?
बोकोजू ने कहा कि जवाब दे दिया ग:या। और केवल दे ही नहीं दिया गयाजवाब पहुंच भी गया है।
उस आदमी ने कहाजवाब मेरी समझ में नहीं आया। जवाब था ही नहींपहुंच कैसे सकता हैसूरज डूब रहा हैइससे क्या लेनादेना है उसकी जिज्ञासा का?
बोकोजू ने कहाबेहतर हो कि तू उस आदमी से जाकर पूछ कि सवाल का जवाब मिल गया है या नहीं?
वह आदमी बाहर गया उस आदमी को खोजने। बाहर हीद्वार के पास हीवृक्ष के नीचे वह आदमी आख बंद करके ध्यान में बैठा था। उसे हिलाया और पूछा कि जवाब मिल गया है?
उस आदमी ने कहाजवाब मिल गया है। सूरज डूबने के करीब हैमेरा जीवन भी डूबने के करीब है। और बोकोजू ने मुझे कह दिया है कि अगर जीवनभर की व्यर्थता भी तेरे लिए परमात्मा को पाने का मार्ग नहीं बन सकीतो अब और क्या मार्ग बनेगाअगर जीवनभर का अनुभव भी तुझे परमात्मा के दरवाजे पर नहीं ले आया हैतो अब और किस रास्ते से तू आ सकेगाऔर मौत करीब हैसूरज डूबने के करीब हैसांझ होने लगी है। अब तू खो मत समय को।
उस आदमी ने पूछाआप यहा क्या कर रहे हैं?
तो उस आदमी ने कहा कि अब मैं डूबने की तैयारी कर रहा हूं। जीवनभर मैंने जीने की तैयारी की थीवह व्यर्थ गई है। अब मैं अपने हाथ से डूबने की तैयारी कर रहा हूं। जिस तरह वहां बाहर सूरज डूब रहा हैइसी तरह भीतर मैं भी डूब जाऊंयही उनका संकेत है।
और सुबह जब सूरज उग रहा था दूसरे दिनतब भी वह आदमी उसी झाडू के नीचे बैठा था। बोकोजू बाहर आया। वह तीसरा आदमी भी रातभर मौजूद रहा कि यह क्या हो रहा है! सब बात बेक हो गई थी। बोकोजू सुबह बाहर आया। उसने उस आदमी कोजो ध्यान में रातभर बैठा रहा थाहिलाया और पूछा कि कुछ खबर दो।
उस आदमी ने आख खोलीं। और उस आदमी ने कहा कि सूरज उग रहा है। सुबह होने के करीब है। बोकोजू ने उसे आशीर्वाद दिया और कहा कि अब तू जा सकता है।
उस आदमी ने कहा कि मैं अगर यहां ज्यादा रुकातीसरे आदमी नेतो मैं पागल हो जाऊंगाइसका डर है। यह क्या हो रहा है?
यह एक और तरह की भाषा हैजो श्रद्धा समझ पाती है। उस आदमी ने कहा कि सूरज उगने लगा है। वह तो डूब गया,उसे छोड़ ही दियाजो मैं था। अब दूसरे का ही जन्म हो रहा हैरास्ता मिल गया है।
कृष्ण कहते हैंये सब मुझमें स्थित हैंये सारे भूतलेकिन मैं उनमें स्थित नहीं हूं।
यह इंगित हैऔर महत्वपूर्ण है। श्रद्धा तो सीधा समझ लेगीविचार को थोड़ासा चक्कर काटना पड़ेगा। जो भी विराटतर हैवह क्षुद्रतर में प्रविष्ट भी हो जाएतो भी प्रविष्ट नहीं होता। एक छोटासा वर्तुल मैं खींचूं एक छोटा सर्किलऔर फिर एक बड़ा सर्किल उसके चारों तरफ बनाऊंतो यह कहना तो बिलकुल ठीक हैबड़ा सर्किल यह कह सकता है कि छोटा सर्किल मुझमें स्थित हैफिर भी मैं उसमें स्थित नहीं हूं। क्योंकि छोटा सर्किल तो पूरा ही बड़े सर्किल में उपस्थित हैलेकिन बड़ा सर्किल छोटे सर्किल के बाहर भी फैला हुआ है।
तो जीवन का एक अनिवार्य नियम है कि क्षुद्र तो विराट में स्थित होता हैलेकिन विराट क्षुद्र में नहीं। इसे ऐसा समझें,एक का आदमी कह सकता है कि मैं बच्चे में मौजूद हूं बच्चा मुझमें स्थित हैफिर भी मैं बच्चे के बाहर हूं। एक के आदमी में बचपन भी छिपा होता हैजवानी भी छिपी होती है। उन सबको उसने अपने में समा लिया हैफिर भी वह कुछ ज्यादा होता है,समथिंग मोर। उनसे कुछ फैला होता है। उसकी परिधि बड़ी है।
जो भी छोटा हैवह बड़े में समाया होता हैलेकिन बड़ा उस छोटे में समाया नहीं होता। छोटे से भी बड़ा प्रकट होता है,फिर भी समाया नहीं होता। सागर कह सकता है कि सभी नदियां मुझमें समाई हुई हैंफिर भी मैं नदियों में नहीं समाया हुआ हूं।
अर्थ इतना ही हैतर्क और विचार की दृष्‍टी से जो विराट है वह क्षुद्र के पार है। क्षुद्र से प्रकट भी होता है तो भी क्षुद्र के पार है। यह जो पारगामिता हैट्रांसेंडेंस हैये जो सदा पार होना है। बियांडनेस हैइसका सूत्र है यह इसका मूल्‍य है इसका अर्थ हैवह हमारे खयाल में आ सकेगा?
और वे सब भूत मुझमें स्थित नहीं है। पहले कहा वे सब भूत मुझमें स्थित हैं। और अब तत्क्षण एक पंक्‍ति भी नहीं पूरी हो पाई और कृष्ण कहते हैंऔर वे सब भूत मुझमें स्‍थित नहीं है।
किंतु मेरे योग को देखमेरी माया को देख जो समस्‍त भूतों को धारणपोषण करने वाला होकर भी मैं भूतो में स्‍थित नहीं हूं। क्योंकि जैसे आकाश से उत्पन्न हुआ सर्वत्र विचरने वाला वायु सदा ही आकाश में स्थित हैवैसे ही संपूर्ण भूत मेरे में स्थित हैंऐसा जान।
एक के बाद दूसरी पंक्ति पहले को खंडित करती चली जाती है। एकदम अतर्क्य वक्तव्य है। जो कहते हैं एक क्षणदूसरे क्षण खंडित कर देते हैं। जो दूसरें क्षण कहते हैंतीसरी पंक्ति में उसके पार निकल जाते हैं। क्या कहना चाहते हैंक्या इशारा हैक्योंकि जो कहा हैवह अतर्क्य है। शायद यही कहना चाहते हैं कि मैं अतर्क्य हूं।
इसे समझ लें। इस वक्तव्य का सार भाव यही है कि कृष्ण यह कह रहे हैं कि तू समझने से समझ सकेऐसा मैं नहीं हूं। तू जानने से जान सकेऐसा मैं नहीं हूं। तू पहचानने से पहचान सकेवह मैं नहीं हूं। तू जानना छोड़तू पहचानना छोड़तू समझ छोड़तू गणित छोड़तू तर्क छोड़तो तू मुझे जान सकता हैक्योंकि मैं अतर्क्य हूं।
अतर्क्य का अर्थ हैमैं रहस्य हूं। रहस्य का अर्थ हैकोई भी सिद्धातकोई भी नियम मुझे नहीं घेर पाएगा। मैं पारे की तरह हूं। मुट्ठी तू बांधेगा तर्क की और मैं बिखरकर बाहर छिटक जाऊंगा। जब तक तू नहीं बांधेगातब तक शायद मुझे पाए भी कि मैं हूंजैसे ही तू मुट्ठी बांधेगामैं छिटक जाऊंगा। बुद्धि जैसे ही जीवन के सत्य को पकड़ना चाहती हैसत्य छिटक जाता है पारे की तरह। तो तू मुझे बांधने की कोशिश मत कर।
कृष्ण ने अब तक जो अनुभव किया हैवह यही है कि अर्जुन उन्हें बांधने की कोशिश कर रहा है। अर्जुन ने सब तरह से कोशिश की है। क्योंकि अगर अर्जुन कृष्ण को बांध ले तर्क मेंविचार मेंतो इस युद्ध से छुटकारा हो सकता है।
क्‍योंकि कृष्‍ण कहते है कि यह सब माया हैतो अर्जुन कहना चाहता है। अगर सब माया है,  तो मुझे इसमें क्यों उलझाते हैंकृष्ण कहते है कि ये कोई मरते नहीं मारने सेतो अर्जुन कहेगा कि जब ये मरते ही नहीं मारने से तो मारने से भी क्या सार हैकृष्ण कहते है कि तू अपने अंश के और प्रतिष्ठा के लिए लड़तो यश और प्रतिष्‍ठा तो सब अहंकार हैऔर आप ही तो समझाते है कि अहंकार ही तो बाधा है! अगर कृष्ण कहते हैं कि धर्म के लिए तुझे लड़ना है तो अर्जुन कहेगा कि मुझ से क्या धर्म की स्‍थापना हो सकेगी जब आप ही मौजूद हैतो धर्म की स्‍थापना उतने से काफी है। अगर कृष्‍ण है कि यह जीवन आसार हैतो अर्जुन चाहता है कि उसे छुटकार दो। ताकि मैं एकांत में जाकर समाधि में लीन हो जाऊं।
कृष्ण कुछ भी कहेंअर्जुन उन्हें बांध लेना चाहता है। उस बांधने में ही उसे अपना छुटकारा दिखाई पड़ता है। अगर कृष्ण फंस जाएंजो कह रहे हैं उसी मेंतो अर्जुन कृष्ण से जीत जा सकता है।
एक बहुत मजे की बात है कि अगर यह चर्चा बिलकुल तर्कयुक्त ढंग से चलेतो कृष्ण की हार निश्चित है। अगर यह ठीक नियम से खेल चले तर्क केतो कृष्ण की हार निश्चित है। अर्जुन सुनिश्चित जीतेगा।
कृष्ण ने सब तर्कों के जवाब दिए हैं। एकएक तर्क को काटने की कोशिश की है। अर्जुन ऐसी जगह आ गया है कि अब और तर्क उठाने का उसका मन नहीं है। तो कृष्ण तत्काल अपना बेबूझपन प्रकट करते हैं। वे कहते हैं कि अब मैं तुझे बता दूं वहजैसा मैं हूं। अब तक तू जो कह रहा थातो मैं भी खेल रहा था। अब तक तू

 जो पूछ रहा थातो मैं भी जवाब दे रहा था। लेकिन वह शतरंज का खेल था। मैं देख रहा थातू किसलिए पूछ रहा है,तो क्या जवाब देना जरूरी हैवह मैं दे रहा था। अब मैं तुझे वही बताता हूं जो मैं हूं। यह जो दिखाई पड़ रहा हैइसमें मैं न दिखाई पड़ने वाले की तरह छिपा हूं। यह सारा जगत मुझमें ठहरा हुआ हैऔर इसमें मैं नहीं हूंऔर फिर भी मैं तुझसे कहता हूं कि यह जगत भी मुझमें ठहरा हुआ नहीं हैऔर फिर भी मैं तुझसे कहता हूं कि मैं इस जगत में समाया हुआ हूं।
अर्जुन का सिर घूम जाता। जो भी विचार से चलेगाउसका घूमेगा। श्रद्धा नहीं घूमती है। श्रद्धा इतनी शक्तिशाली है कि कृष्ण भी उसे डांवाडोल नहीं कर सकते। इतनी बात कृष्ण ने अगर पहले कही होतीतो अर्जुन अब तक हजार सवाल उठा दिया होता। वह चुप है। वह समझने की कोशिश कर रहा है। समझने से ज्यादा वह कृष्ण को पीने की कोशिश कर रहा है। कृष्ण क्या कह रहे हैंयह मूल्यवान नहीं रहा अब। कृष्ण क्या हैंउनकी प्रेजेंसउनकी मौजूदगीउनका होनावह अपने द्वार खोलकर उनको अपने भीतर समा रहा है। कृष्ण क्या कह रहे हैंयह अब सवाल नहीं है बहुत महत्वपूर्ण। क्यों कह रहे हैं! क्या कह रहे हैं,यह महत्वपूर्ण नहीं है। कौन कह रहा है!
इसलिए अर्जुन चुपचाप पी रहा है। जिन बातों में एकएक पद पर संकट होना चाहिएऔर संदेह होना चाहिएउन्हें वह चुपचाप पीए जा रहा है। उसे कहीं कोई विरोध जैसे दिखाई भी नहीं पड़ रहा है।
ध्यान रखेंयह विरोध हों सकता है दो कारणों से दिखाई न पड़े। मैंने गीता के कई सतत पाठी देखे हैंउन्हें भी नहीं दिखाई पड़ता। उसका कारण यह नहीं है कि उनकी श्रद्धा इतनी है कि उन्हें इसमें विरोध नहीं दिखाई पड़ता। वे इतनी बुद्धि भी नहीं लगाते कि विरोध दिखाई पड़े। पढ़ते चले जाते हैं। पढ़तेपढ़ते आदत हो जाती है। और जो बीच में विरोध है स्पष्टवह भी दिखाई नहीं पड़ता। सुनते रहते हैंविरोध दिखाई नहीं पड़ता।
विरोध न दिखाई पड़़ना दो तरह से संभव है। एक तो श्रद्धा इतनी प्रगाढ़ हो कि विरोध के बीच में वह जो आदमी खड़ा है,वही दिखाई पड़ेविरोध के पार वह जो चेतना खड़ी हैवही दिखाई पड़ेऔर या फिर बुद्धि इतनी कम हो कि पहले वक्तव्य में और दूसरे वक्तव्य में विरोध हैयह भी दिखाई न पड़े।
बुद्धि की कमी को श्रद्धा की गहराई मत समझ लेना। बहुत बार बुद्धि का उथलापन श्रद्धा की गहराई समझ ली जाती है। श्रद्धा की गहराई बुद्धि के उथलेपन का नाम नहीं है! श्रद्धा की गहराई बुद्धि से मुक्ति है।
इसे पढ़ना। पहले तो विरोध खोजने की कोशिश करना। सब तरह से विरोध देखने की कोशिश करना। और जब बुद्धि थक जाए जैसा कि मैं कुछ दोतीन बातें कहूं तो खयाल में आ जाए।
इस सदी के मध्य में विज्ञान ने एक नया सिद्धात खोजा। कहें खोजाया कहना चाहिएखोज में आ गया अचानक। जैसे ही परमाणु की खोज हुईतो विज्ञान को पता चला कि परमाणु के जो घटकइलेक्ट्रांस हैंवे बड़े अदभुत हैंरहस्यपूर्ण हैं। रहस्यपूर्ण इसलिए हैं कि हमारे पास कोई शब्द ही नहीं कि हम उनको बताएं कि वे क्या .हैं। किन्हीं वैज्ञानिकों ने खबर दी कि वे कण हैं। और किन्हीं वैज्ञानिकों ने खबर दी कि वे कण नहीं हैंतरंग हैं। और तब किन्हीं वैज्ञानिकों ने खबर दी कि वे दोनों एक साथ हैंकण भी और तरंग भी।
कण का मतलब होता है कि जो कभी तरंग नहीं हो सकता। तरंग का मतलब होता है कि जो कभी कण नहीं हो सकती। अगर मैं कहूं कि मैंने आपकी दीवाल पर एक बिंदु बनायायह बिंदु भी है और लकीर भीप्याइंट भी है और लाइन भी। तो आप कहेंगेक्या कह रहे हैं आप! दो में से एक ही बात हो सकती हैअन्यथा युक्लिड बेचारे का क्या होगाज्यामेट्री का क्या होगा?आप क्या कहते हैं! अगर मैं कहूं कि यह बिंदु भी है और रेखा भीदोनों एक साथ। तो आप कहेंगेकृपा करें! यह दोनों एक साथ हो नहीं सकता। और अगर मैं खींचना भी चाहूं ऐसी कोई चीज तख्ते परतो खींच नहीं सकताजो दोनों एक साथ हो। या तो बिंदु होगाया रेखा होगी।
रेखा का मतलब ही हैबहुतसे बिंदु सततबहुतसे बिंदु थृंखला में। अगर यह बिंदु हैतो रेखा नहीं हो सकती। अगर यह रेखा हैतो बिंदु नहीं हो सकता। बिंदु का मतलब ही है कि जो और विभाजित न किया जा सके। रेखा तो विभाजित की जा सकती है। लेकिन वैज्ञानिक बड़ी मुश्किल में पड़ गए। युक्लिड को मानें कि इस इलेक्ट्रान को मानेंक्या करेंऔर यह इलेक्ट्रान है कि युक्लिड की फिक्र ही नहीं करताज्यामिति की फिक्र नहीं करतागणित के नियम नहीं मानताऔर दोनों तरह का व्यवहार करता है! बिहेक बोथ वेज साइमल्टेनियसली। कोई शब्द नहीं है हमारे पास। कणतरंगइसको क्या नाम देंकणतरंग कहें! दोनों विपरीत शब्द हैं। वैज्ञानिक बड़े पेशोपस में थे कि क्या करें।
लेकिन तथ्य को तो मानना ही पड़ेगाचाहे युक्लिड के ही खिलाफ जाता हो। अंततः यही हुआ कि युक्लिड को छोड़ देना पड़ातथ्य को ही मानना पड़ा।
आइंस्टीन से किसी ने पूछा है कि यह तो नियम के विपरीत है! तो आइंस्टीन ने कहाहम क्या करेंकहना चाहिए,नियम ही तथ्य के विपरीत है। नियम बदला जा सकता हैतथ्य नहीं बदला जा सकता। नियम बदला जा सकता हैनियम हमारा बनाया हुआ है। तथ्य नहीं बदला जा सकता हैतथ्य हमारा बनाया हुआ नहीं है। युक्लिड को हारना पड़ेगाक्योंकि तथ्य यह है।
विपरीत एक साथ मौजूद है जीवन में। उसी तथ्य को भौतिकी इस इलेक्ट्रान के व्यवहार में पाईकि जीवन एक साथ मौजूद है।
फ्रायड ने अपने अंतिम जीवन के क्षणों में अनुभव किया कि आदमी के भीतर जीवन की लालसा तो है ही। मृत्‍यु की भी लालसा है। जिंदगी भर वह कहता थाआदमी के जीवन में एक ही खास चीज हैलिबिडो। लिबिडो उसके लिए शब्‍द था जीवेषणा। आदमी जीना चाहता हैलेकिन आखरी उम्र में जीवन का अध्ययन जीवनभर करने के बाद उसे लगा कि यह बात अधूरी है। आदमी सिर्फ जीना ही नहीं चाहता आदमी साथ ही मरना चाहता है। यह चाह भी आदमी के भीतर छीपी है।
अब बड़ी मुश्किल हुई। क्या ये दोनों चाहे एक साथ भीतर छिपी हैंक्या यह आदमी  दोनो चाहे है। फ्रायड खुद परेशान हुआक्योंकि वह तर्कयुक्त गणित में भरोसा करता था। उसे कठिनाई मालूम पड़ी कि आदमी में दौ चाहे कैसे हो सकती हैया तो जीने की चाह हो या मरने की चाह हो ये समझ में आता है कि एक आदमी में अभी जीने की चाह हैफिर बाद में मरने की चाह आ जाएयह समझ में आ सकता हैलेकिन दोनों एक साथ!
वहीजो भौतिकविद पहुंचे पदार्थ मेंमनसविद पहुंच गए मनुष्य की वासना मेंतो पाया कि दोनों वासनाएं एक साथ मौजूद हैं। और अब जो और गहरे जा रहे हैं लोगवे अनुभव करते हैं कि उन्हें दो वासनाएं कहना गलत है। आदमी के भीतर एक ही वासना हैजो जीने और मरने की दोनों है। तो जब तक अच्छा लगता हैतो आदमी उस वासना की व्याख्या करता है कि मैं जीना चाहता हूं। जब अच्छा नहीं लगतातो उसी वासना की व्याख्या करता है कि मैं मरना चाहता हूं।
बूढ़े आदमी कहते हुए सुने जाते हैं कि भगवानअब हमें उठा ले! तो ऐसा मत समझना कि कुछ बदलाहट हो गई है उनमेंकि कोई क्रांति हो गई है उनमें। वही चाह विफल होकरअसफल होकरहारकरपराजित होकरजराजीर्ण होकर अब मृत्यु की भाषा बोल रही है। वही चाह है।
अभी कोई आ जाए और कहे कि एक नया यंत्र बन गया है। इस दरवाजे से घुसोउधर से निकलोजवान हो जाते हो! वह का आदमी कहेगाभगवान! अभी थोड़ा ठहरना। मैं इस यंत्र से जरा गुजरकर एक बार देख लूं। अगर ऐसा होता होतो अभी मरने की ऐसी कुछ जल्दी नहीं है!
क्या हुआये चाहें दो नहीं हैं। लेकिन भाषा में बड़ी कठिनाई है। दो ही कहना पडेगी। ये एक ही हैं। मनसविद हमारे भीतर खोज करकरके एक और तीसरे तथ्य पर पहुंचे हैं। आपको खयाल में आ जाए कि वैपरीत्य वैपरीत्य नहीं है। मनसविद कहते हैं कि हम जिस व्यक्ति को प्रेम करते होउसी को घृणा भी करते हैं।
यह जब पहली दफा उदघाटन हुआतो यह पहली दो बातों से भी ज्यादा मन को दबाने वाली बात है। क्योंकि मां को अगर कोई कहे कि तू अपने बेटे को प्रेम भी करती है और घृणा भीसाथ हीतो कोई मां राज़ी नहीं होगी। लेकिन फ्रायड कहता है कि उसका न राजी होना केवल उसके भीतर के भय को बताता है। वह जानती है गहरे में कियह सच है।
अगर किसी प्रेमी को हम कहे तू जिस प्रेयसी के लिए मरा जा रहा हैउसी को कल मार भी सकता है। अभी उसके लिए अमृत की तलाश कर रहा है। कल इसी दुकान से उसी के लिए जहर
भी खरीद सकता है। और कल तो बहुत दूर हैमनसविद कहते हैंइसी क्षण में भी प्रेम और घृणा दोनों साथ ही मौजूद हैं। पर हमें कठिनाई है। क्योंकि हमारे लिए प्रेम और घृणा विपरीत बातें हैंअलगअलग।
ऐसा नहीं है। इसलिए प्रेम क्षणभर में घृणा बन सकता हैऔर घृणा क्षणभर में प्रेम बन सकती है। जो आकर्षण हैवह विकर्षण बन सकता है। जो विकर्षण हैवह आकर्षण बन सकता है। वे बदलने योग्य हैंएक्सचेंजेबल हैंऔर लिक्विड हैंतरल हैंएकदूसरे में बह जाते हैं। सच तो यह है कि वे दो नहीं हैंएक ही हैं।
कृष्ण यही कह रहे हैं कि मैं दोनों हूं। जहांजहां तुझे वैपरीत्य दिखाई पड़ेवह दोनों मैं हूं।
इस संबंध में हिंदू चिंतन बहुत अनूठा है। दुनिया के किर्सी धर्म ने भी द्वंद्व को इतनी गहराई से आत्मसात नहीं किया। इसलिए मैं कहता हूं कि आइंस्टीन के लिए या फ्रायड के लिए हिंदू चिंतन जितनी सहजता से आत्मसात कर सकता हैउतना क्रिश्चियन चिंतन आत्मसात नहीं कर सकता है। क्योंकि क्रिश्चियनिटी या इस्लाम द्वंद्व को मानकर चलते हैं।
यह भी खयाल में ले लें। कल मैंने आपसे कहा थादो धाराएं हैंएक यहूदी और एक हिंदू। शेष धाराएं उनकी शाखाएं हैं। यहूदी धारा जीवन को द्वंद्व में तोड़कर चलती है। भगवान है एकशैतान है एकदोनों दुश्मन हैं। अच्छाई है एकबुराई है एक,दोनों में .दुश्मनी है। पाप है एकपुण्य है एकदोनों विपरीत हैं। नर्क है एकस्वर्ग है एकदोनों में विरोध है। सिर्फ हिंदू चितना द्वंद्व को आत्मसात करती है। इसलिए हमने कुछ अदभुत चीजें बनाईं। जैसेजैसे मनुष्य की समझ बढ़ेगीउन चीजों की गरिमा और महत्ता भी समझ में आएगी।
हम अकेली कौम हैं इस जमीन परजिन्होंने परमात्मा के विपरीत एक बुराई का परमात्मा खड़ा नहीं किया। खड़ा ही नहीं किया। शैतान कीहमारी चितना मेंकोई गुंजाइश नहीं है। मगर यह बड़ा कठिन काम है। ईसाई और मुसलमान एक लिहाज से सीधे और सरल हैंसाफ हैं। जटिलता नहीं है। क्योंकि जोजो बुराई हैवह शैतान पर छोड़ देते हैंऔर जोजो भलाई हैवह परमात्मा पर रख लेते हैं। इसलिए उनका परमात्मा एकदम भला है। अंग्रेजी में जो शब्द गॉड हैवह गुड का ही रूपांतरण है। वह जो शुभ हैवही परमात्मा है। और जो अशुभ हैवही शैतान है।
लेकिन हम क्या करेंगेहमारे परमात्मा को दोनों होना पड़ेगा एक साथपरमात्मा भी और शैतान भी। इसलिए हमने एक कल्पना की हैजो बहुत गहरी है। वह यह है कि परमात्मा निर्माता भी है और विध्वंसक भी। ईसाइयत कहेगीपरमात्मा बनाता हैशैतान मिटाता है। हम कहते हैंपरमात्मा दोनों ही काम करता हैवही बनाता हैवही मिटाता है।
हमने अर्द्धनारीश्वर की प्रतिमा बनाई है। हमने शिव की प्रतिमा बनाई हैजिसमें वे आधे पुरुष हैं और आधे स्त्री। दुनिया में कोई ऐसी कल्पना नहीं कर सकता। एक ही व्यक्ति दोनों कैसे हो सकता. हैया तो स्त्री हो या पुरुष हो। लेकिन दोनों हैं,दोनों एक साथ। इसलिए कृष्ण यह भी कहते हैं कि यह सारा संसार मुझमें समाया हुआ है और फिर भी मैं इसमें नहीं हूं। अगर कृष्ण से कोई पूछे कि ये जो पाप हो रहे हैंइनके संबंध में आपका क्या खयाल हैतो कृष्ण कहेंगेसारे पापियों में भी मैं समाया हुआ हूं और फिर भी मैं उनमें नहीं हूं। और सारे पाप मेरे ही भीतर हो रहे हैं और फिर भी मैं उनमें नहीं हूं।
यह जो द्वंद्वातीतट्रांसेंडेंटलदोनों को स्वीकार करके भी उनके पार होने की बात हैयही भारतीय धर्म का गुह्यतम सूत्र है। इसलिए हमारा परमात्माहमारी जो परमात्मा की धारणा हैवह दुनिया के दूसरे लोगों को बहुत अजीब मालूम पड़ती है। उनकी कल्पना में नहीं आती है कि यह कैसी बात है! हमारे मुल्क में भी ऐसे लोग हैंजिनकी समझ में नहीं आती।
जैसे कृष्ण का ही व्यक्तित्व हैयह जैनों की समझ में नहीं आ सकता। क्योंकि वे कहेंगेयह आदमी कैसा हैयह बांसुरी भी बजा सकता हैयह युद्ध के मैदान पर भी खड़ा हो सकता है! यह अहिंसा की परम बात भी कह सकता है और हिंसा के बड़े युद्ध में अर्जुन को जाने की सलाह देता है! सलाह ही नहीं देताफुसलाता है। और इतने ढंग से फुसलाता है कि किसी सेल्समैन ने कभी किसी दूसरे को नहीं फुसलाया होगा। उसको धक्का देता है कि जा और जूझ जाबिलकुल बेफिक्र रह! और एक अजीब सूत्र देता हैउससे कहता हैबेफिक्री से मारक्योंकि आत्मा कभी मरती ही नहीं!
यह जो द्वंद्वातीत अतिक्रमण की क्षमता हैयह गहनतम खोज है। इस सूत्र में कृष्ण यही कह रहे हैं कि तू मेरे रूप को दो विरोधों में मत बांट। दोनों में मैं मौजूद हूंरूप में भीअरूप में भीमूर्त में भीअमूर्त में भीपदार्थ में भीपरमात्मा में भीमैं ही हूं। और फिर भी मैं तुझसे कहता हूं कि इन सबमें होकर भी मैं बाहर रह जाता हूं। इन सबके बीच में खड़े होकर भी मैं इनमें डूब नहीं जाता हूं। इसे आप अनुभव कर सकते हैं। यहां आप भीड़ में बैठे हुए हैंभीड़ में बिलकुल डूबे हुए हैं। फिर भी अगर आपको थोड़ीसी भी ध्यान की क्षमता होआख बंद कर लेंअपने भीतर ध्यान में हो जाएंतो आप कह सकते हैं कि मैं भीड़ में मौजूद हूं और फिर भी भीड़ में नहीं हूं।
आप जंगल में चले जाएं और ध्यान की बिलकुल क्षमता न होएक वृक्ष के नीचे बैठ जाएंकोई वहां नहीं हैनिराट सुनसान हैआख बंद करेंभीड़ मौजूद है! तब आपको वहां कहना पड़ेगाभीड़ यहां बिलकुल नहीं हैफिर भी मैं भीड़ में मौजूद हूं।
इस भीड़ में बैठकर भी आप भीड़ के बाहर हो सकते हैं। तब आपको एक जटिल सत्य का अनुभव होगाभीड़ में हूं भीड़ में समाया हुं बैठा हूं चारों तरफ भीड़ हैफिर भी मैं भीड़ में नहीं हूं। तब आपको खयाल में आएगा कि यह द्वंद्वातीत अतिक्रमण क्या है! यह नानडुअल ट्रांसेंडेंस क्या है! यह कृष्ण किस गहन पहेली की बात कर रहे हैं!
वे यह कह रहे हैंमैं ही लड़ता हूंमैं ही लड़ाता हूंमैं ही भागता हूंमैं ही भगाता हूंऔर फिर भी मैं इस सब में नहीं हूं।
लेकिन यह ध्यान की या श्रद्धा कीसमाधि की जो परम अवस्था हैतभी खयाल में आती है। तभी खयाल में आती है।
एक सूफी फकीर मरने के करीब था। चिकित्सक उसे दवा दे रहे हैं। वह दवा पी रहा है। लेकिन चिकित्सक को उसकी आंखों को देखकर शक हुआ कि वह दवा नहीं पी रहा है। चिकित्सक ने कहा कि आप दवा पी तो जरूर रहे हैंलेकिन आपकी आंखों से ऐसा लग रहा है कि आपको कोई प्रयोजन नहीं है।
उस फकीर ने कहातुम्हारे लिए दवा पी रहा हूंमैं दवा नहीं पी रहा हूं। दवा तो पी ही रहा हैलेकिन उसने कहां तुम्‍हारे लिए दवा पी रहा हूं। मैं दवा नहीं पी रहा हूं।
अगर कोई मोहम्मद के हाथ में तलवार को देखकर पूछता कि आप यह तलवार क्यों लिए हुए है। तो शायद वो भी कहते,तुम्हारे लिए हुं। मेरे हाथ में तलवार नहीं हैइसलिए मोहम्मद ने अपनी तलवार पर लिख रखा था ''शांति''। शांति मेरा संदेश है। 
पागलपन है! तलवार परशांति मेरा संदेश है। उलटी हो गई बात। कृष्ण जैसी हो गई। तलवार पर लिखा कि शांति मेरा संदेश हैऔर कोई जगह नहीं मिलती लिखने को। इसलाम शब्‍द का अर्थ होता है शांति।
लेकिन मोहम्मद ठीक कह रहे है तलवार उनकी तलवार के लिए नहीं उठी है। और तलवार उनके हाथ में है ही नहीं। मगर यह कठिन है। यह तो एक गहन अनुभव होतो ही खयाल में आ सकता है। कुछ प्रयोग करेंतो समझ में आएगा। कुछ थोड़ेसे प्रयोग करेंतो आसान हो जाएगा।
जैसे मैंने कहायहां भीड़ में बैठे हैं। एक क्षण को बदल लें ध्यानभूल जाएं भीड़ को। भीड़ खो गईआप अकेले हो गए। भीड़ फिर भी रहेगीआप अकेले हो गए। भोजन कर रहे हैं। समझ लेंजान लें कि शरीर में भोजन जा रहा हैआप में नहीं। शरीर में भोजन जाता रहेगाआप बाहर हो गए।
कोई आपको चांटा मार रहा होतब समझें कि पदार्थ से पदार्थ टकरायाहाथ चेहरे से लगामैं दूर ही खड़ा रह गया हूं;मुझे छुआ नहीं जा सका। तब चांटे की आवाज भी होगीगाल पर निज्ञान भी आ जाएगावह आदमी तृप्त होकर भी लौट जाएगा और आप भीतर अछूते बाहर खqऊए रह जाएंगे! थोड़े प्रयोग करेंतो यह पहेली खयाल में आ सकती है।
आज इतना ही।
लेकिन अभी उठें नहीं। पांच मिनट बैठे रहें। यहां कीर्तन होगा। पांच मिनट सम्मिलित हों। और बैठे ही न रहेंसम्मिलित हों। दोहराएं साथ में आनंद से और फिर वापस जाएं।


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