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शनिवार, 5 अगस्त 2017

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-06



उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

आनंद स्वभाव है-(प्रवचन-छटवां)
दिनांक 06 जनवरी सन् 1979 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्नसार:

     भगवान, कभी सोचा भी नहीं था कि जीवन इतना स्वाभाविकता से, आनंदपूर्ण जीया जा
      सकता है! शाम को गायन-समूह में इतनी नृत्यपूर्ण हो जाती हूं! जिस जीवन की खोज थी मुझे,
      वह मिलता जा रहा है। कहां थी--और कहां ले जा रहे हैं आप!
      जितना अनुग्रह मानूं उतना कम है। ऐसा प्यार बहा रहे हो भगवान, चरणों में झुकी जाती हूं मैं!

     भगवान, आप अमृत दे रहे हैं और अंधे लोग आपको जहर पिलाने पर आमादा हैं।
      यह कैसा अन्याय है?
     
     भगवान, कोकिल की कुहू-कुहू और आपका प्रवचन, दोनों इकट्ठे चलते हैं।
      किस पर ध्यान करें? कृपया बताएं।

     भगवान, सत्य कहां है?

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-05



उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

मैं सिर्फ एक अवसर हूं-(प्रवचन-पांचवां)
दिनांक 05 जनवरी सन् 1979 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्नसार:

भगवान, अनेक संतों और सिद्धों के संबंध में कथाएं प्रचलित हैं कि वे जिन पर प्रसन्न होते थे
उन पर गालियों की वर्षा करते थे। परमहंस रामकृष्ण के मुंह से ऐसे ही बहुत गालियां
निकलती थीं, बात-बात में गालियां। यही बात प्रख्यात संगीत गुरु अलाउद्दीन खां       के जीवन में भी उल्लेखनीय है। क्या इस पर कुछ प्रकाश डालने की अनुकंपा करेंगे?

भगवान, आप कल की भांति हमेशा ही मेरी झोली खुशियों से भर देते हैं।
मेरे प्रभु, कैसे आपको धन्यवाद दूं! देखो न यह धन्यवाद शब्द ही कितना छोटा है,
कितना असमर्थ! आपने जो दिया है वह विराट!
कैसे कहूं दिल की बात! पर कहे बिना रहा भी नहीं जाता।
आंखें आपके प्रेम में आंसुओं से भर गई हैं, हृदय आनंद से और रोम-रोम अनुग्रह से।
      मेरे प्यारे प्रभु, इसी तरह मुझमें समाए रहना! मैं तो बार-बार आपको भूल-भूल जाती हूं,
      पर आप इसी भांति याद बन कर मेरी सांस-सांस में समाए रहना!

भगवान, हम कैसे जीएं कि जीवन में कोई भूल न हो?

शुक्रवार, 4 अगस्त 2017

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-04



उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

सरस राग रस गंध भरो-(प्रवचन-चौथा)
दिनांक 04 जनवरी सन् 1979 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्नसार:

    भगवान, आनंद क्या है? उत्सव क्या है?

     भगवान, क्या जीवन मात्र संघर्ष ही है--संघर्ष और संघर्ष? या कुछ और भी?

भगवान, इस जीवन में मैंने दुख ही दुख क्यों पाया है?

भगवान, आपका संदेश घर-घर पहुंचाने का संकल्प अपने आप ही सघन होता जा रहा है।
      समाज हजार बाधाएं खड़ी करेगा, कर रहा है। जीवन भी संकट में पड़ सकता है।
      मैं क्या करूं?

पहला प्रश्न: भगवान, आनंद क्या है? उत्सव क्या है?

गुरुवार, 3 अगस्त 2017

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-03



उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

प्राण के ओ दीप मेरे-(प्रवचन-तीसरा)
दिनांक 03 जनवरी सन् 1979 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्नसार:

     भगवान, परमात्मा जिनका अनुभव नहीं बना है, उनकी प्रार्थना क्या हो? उनका भजन क्या हो?

     भगवान, चार्वाक-दर्शन की ग्रंथ-संपदा को क्यों नष्ट किया गया?
      चार्वाक के बारे में आपके क्या विचार हैं?

     भगवान, आप ऐसी भाषा में क्यों नहीं बोलते जो मेरी समझ में आ सके?
      आपको सुनता हूं, रोता हूं, लेकिन कुछ समझ में नहीं आता है।

     भगवान, आपको सुनता हूं तो परमात्मा के लिए बहुत तड़फ उठती है,
      विरह का अनुभव होता है। रोता हूं, बहुत रोता हूं।
      अब आगे क्या होगा?

     भगवान, पत्नी संन्यास लेने से रोकती है,
      उसे दुख भी नहीं देना चाहता हूं और संन्यास भी लेना ही है।
      अब आपने ही उलझाया, आप ही सुलझावें।

बुधवार, 2 अगस्त 2017

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-02



उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

डूबो-(प्रवचन-दूसरा)
दिनांक 2 जनवरी सन् 1979 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्नसार:
     भगवान, स्त्री तो बिना प्रेम के नहीं पहुंच सकती। स्त्री तो सिर्फ डूबना जानती है।
      और आप में डूब कर ही जाना हो सकता है। मुझे डुबा लें और उबार लें।

     भगवान, सुना है श्री मोरारजी भाई को गीता पूरी कंठस्थ याद है।
      फिर भी वे राजनीति में इतने उत्सुक क्यों हैं?

     भगवान, मेरी होने वाली पत्नी मुझे छोड़ना चाहती है, यह बात ही मुझे कटार की भांति चुभती है।
      मैं उसे प्रेम करता हूं और जीते जी कभी छोड़ नहीं सकता हूं। वह किसी और के प्रेम में है।
      कृपया, आप ऐसा कुछ करें कि वह मुझे छोड़े नहीं।
      मैं उसके डर के कारण अपना नाम भी नहीं लिख रहा हूं।

     मैं कौन हूं? भगवान, क्या आप बता सकते हैं?

मंगलवार, 1 अगस्त 2017

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-01

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
जग-जग कहते जुग भये-(प्रवचन-पहला)
दिनांक 1 जनवरी सन् 1979 ओशो आश्रम पूना।

प्रश्न-01     भगवान, नव-आश्रम के निर्माण में इतनी देर क्यों हो रही है?
      हम आस लगाए बैठे हैं कि कब हम भी बुद्ध-ऊर्जा के अलौकिक क्षेत्र में प्रवेश करें।
      और हम ही नहीं, हजारों आस लगाए बैठे हैं। अंधेरा बहुत है, प्रकाश चाहिए।
      और प्रकाश के दुश्मन भी बहुत हैं। इससे भय भी लगता है कि कहीं
      यह जीवन भी और जीवनों की भांति खाली का खाली न बीत जाए!

प्रश्न-02     भगवान, संग का रंग लगता ही है या कि यह केवल संयोग मात्र है? कृपा कर समझावें!

प्रश्न-03     भगवान,
            काल करंते आज कर, आज करंते अब।
            पल में परलय होयगी, बहुरि करोगे कब।।
                  और
            आज करंते काल कर, काल करंते परसों।
            जल्दी-जल्दी क्यों करता है, अभी तो जीना बरसों।।
      आपके हिसाब से तो दोनों कहावतें सच होंगी, पर हमारे लिए कौन सा निदान है?
      कृपा करके समझाएं!

प्रश्न-04     भगवान, हम संन्यासियों का परिचय क्या?

सोमवार, 31 जुलाई 2017

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-11




सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो

ठहरो, विराम में आओ—प्रवचन-ग्याहरवां  
दिनांक 31 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,
संत बुल्लेशाह की ते काफी इस प्रकार है--
तंग छिदर नहीं विच तेरे, जिथे कख न इक समांवदा ए।
ढूंढ वेख जहां दी ठौर किथे, अनहुंदड़ा नजरी आंवदा ए।
जिवें ख्वाब दा खयाल होवे सुत्तियां नूं, तरहां तरहां दे रूप दिखांवदा ए।
बुल्लाशाह न तुझ थीं कुझ बाहर, तेरा भरम तैनूं भरमांवदा ए।
अर्थात, हे प्यारे, तू इतना तंग है कि तुझमें कोई छिद्र झरोखा नहीं, जिसमें एक तिनका भी नहीं समा सकता है।
ढूंढ कर देख कि इस जहान की ठौर कहां है? अनहोना नजर आ रहा है।
जिस प्रकार सोए हुओं को ख्वाब के खयाल होते हैं, ऐसे ही तरहत्तरह के रूप दिख रहे हैं।
बुल्लेशाह कहते हैं कि तुझसे कुछ भी बाहर नहीं है, किंतु तेरा भरम ही तुझे भरमा रहा है।
भगवान, निवेदन है कि बुल्लेशाह की इस काफी को हमें समझाएं।

 ऊषा,
मनुष्य एक अद्वितीय स्थिति है। और ध्यान रखना शब्द--स्थिति। एक जगत है मनुष्यों के नीचे पशुओं का। वे पूरे ही पैदा होते हैं; उन्हें जो होना है, वैसे ही पैदा होते हैं। और एक जगत है मनुष्य के ऊपर बुद्धों का। उन्हें जैसा होना है वे हो गए हैं, अब कुछ होने को नहीं बचा। और दोनों के मध्य में मनुष्य की चिंता का लोक है। उसे जो होना है अभी हुआ नहीं; जो नहीं होना है वह अभी है। इसलिए तनाव है, खिंचाव है।

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-10



सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो

समाधि की सुवास—प्रवचन-दसवां  
दिनांक 30 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,
आपने उस दिन आद्य शंकराचार्य का निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया था, उस पर विस्तार से प्रकाश डालें--
तत्वं किमेकं शिवमद्वितीयं,
      किमुत्तमं सच्चरितं यदस्ति।
त्याज्यं सुखं किम् स्त्रियमेव,
      सम्यग देयं परमं किम् त्वभयं सदैव।।
एक तत्व क्या है? अद्वितीय शिवत्तत्व ही। सबसे उत्तम क्या है? सच्चरित्र। कौन सुख छोड़ना चाहिए? सब प्रकार से स्त्री का सुख ही। परम दान क्या है? सर्वदा अभय ही।

 सहजानंद,
मैं तो इस सूत्र से किसी भी भांति राजी नहीं हो सकता हूं। इसमें बुनियादी भ्रांतियां हैं। जैसे: "सबसे उत्तम क्या है?' शंकराचार्य कहते हैं: "सच्चरित्र।'

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-09



सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो

दरवाजा खुला रखना—प्रवचन-नौवां  
दिनांक 29 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,
कल बुल्लेशाह की आपने अलफ काफी हमें पिलाई। उनकी बे काफी इस प्रकार है--
बन्ह अखीं अते कन्न दोवें, गोशे बैठ के बात विचारिए जी।
छड खाहिशां जग जहान कूड़ा, कहिआ आरफा दा हीए धारिए जी।
पैरी पहन जंजीर बेखाहिशी दी, इस नफस नूं कैद कर डारिए जी।
जा जान देवें जान रूप तेरा, बुल्लाशाह एह खुशी गुजारिए जी।
अर्थात आंख और कान दोनों बंद करके, होश में बैठ कर बात का विचार करो।
जगत की ख्वाहिशें छोड़ो, जगत झूठा है। ब्रह्मज्ञानी के कहे हुए को हृदय में धारण करो।
पैरों में बेख्वाहिशों की जंजीर पहन कर, इस क्षण को कैद कर डालो।
अगर अपनी जान जाने दो तो अपना रूप जानो। बुल्लेशाह कहते हैं कि यही खुशी है जिसमें गुजारा है।
भगवान, निवेदन है कि बुल्लेशाह की यह काफी भी हमें पिलाएं।

 योग शुक्ला,

रविवार, 30 जुलाई 2017

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-08



सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो

आपने आपनूं समझ पहले—प्रवचन-आठवां  
दिनांक 28 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,
संत बुल्लेशाह ने आत्म-परिचय पर जोर देते हुए इस प्रकार गाया है--
आपने आपनूं समझ पहले, कि वस्त है तेरड़ा रूप प्यारे।
बाझ अपने आपदे सही कीते, रहियों विच विश्वास दे दुख भारे।
होर लख उपाओ न सुख होवे, पुछ वेख सियानने जग सारे।
सुख रूप अखेड़ चेतन है तू, बुल्लाशाह पुकार दे वेद सारे।
अर्थात हे प्यारे, पहले अपने आप को समझ कि तेरा यह रूप क्या है, किसलिए है?
बिना अपने आप की पहचान किए विश्वासों में जीना भारी दुख है।
और लाख उपाय करो, सुख न होगा, सारे जगत के सयाने लोगों से पूछ कर देख ले।
सुख-रूप तो केवल तेरा चैतन्य है, बुल्लेशाह कहते हैं कि समस्त वेद यही पुकारते हैं।
भगवान, बुल्लेशाह की इस काफी पर कुछ कहें।

विनोद भारती,

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-07



सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो

जीवन चुनौती है, खतरा है—प्रवचन-सातवां  
दिनांक 27 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,
आपके कल के ओजस्वी प्रवचन से ऐसा स्पष्ट आभास हुआ कि आप भारत को उसकी अनंत क्षमताओं के प्रति जगा रहे हैं। भारत का यह परम सौभाग्य है कि उसे आप जैसा मार्गदर्शक उपलब्ध है, फिर भी वह आपकी बातों को अपनाता क्यों नहीं? और क्यों नहीं सर्वांगीण विकास के पथ पर अग्रसर होता? वरन आपका तिरस्कार और उपेक्षा क्यों करता है?
भगवान, निवेदन है कि कुछ कहें।

भारत भूषण,
भारत के दुर्भाग्य की कथा बहुत पुरानी है। भारत की जड़ें विषाक्त हो गई हैं। साधारण औषधियों से भारत की चिकित्सा नहीं हो सकती; शल्य-क्रिया करनी होगी। और मवाद जब भीतर गहरे पहुंच गया हो तो उसे निकालने में कष्ट भी होता है, पीड़ा भी होती है। इसीलिए मेरा तिरस्कार है, उपेक्षा है। मेरा सम्मान हो सकता है, समादर हो सकता है; लेकिन तब मुझे भारत की उन्हीं विषाक्त जड़ों को जल देना होगा, जो उसके दुर्भाग्य का कारण हैं। मेरे लिए तो आसान होगा यही कि उन्हीं जड़ों को जल दे दूं, लेकिन भारत के लिए उससे बड़ी और कोई बदकिस्मती नहीं हो सकती।
तो मैंने यही चुना कि अपमान मिले, तिरस्कार मिले, उपेक्षा मिले, लेकिन गलत जड़ों को काटना ही है। और मुझे फर्क नहीं पड़ता अपमान से, उपेक्षा से या तिरस्कार से। थोड़ी भी जड़ें काट सका, थोड़े भी संस्कार पोंछ सका, थोड़ी भी भारत के मन को स्वच्छता दे सका, स्वास्थ्य दे सका, तो सूर्योदय दूर नहीं।

शनिवार, 29 जुलाई 2017

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-06



सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो

विज्ञान और धर्म के बीच सेतु—प्रवचन-छठवां  
दिनांक 26 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,
पड़ोसी देशों द्वारा किए जाने वाले शस्त्र-संग्रह और उसके कारण बढ़ रहे तनाव के संदर्भ में देश की सुरक्षा की दृष्टि से श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा हाल ही एक भाषण में दी गई चेतावनी की आलोचना करते हुए महर्षि महेश योगी ने कहा है कि देश को इस प्रकार के भय और अनिश्चितता से छुड़वाने के लिए सरकार को उनके भावातीत ध्यान (टी.एम.) तथा टी.एम. सिद्धि कार्यक्रम का उपयोग करना चाहिए। अपनी ध्यान पद्धति को वैदिक ज्ञान का सार बताते हुए उन्होंने कहा है कि इसके प्रयोग द्वारा व्यक्ति अपने तनावों से मुक्त होकर अपनी चेतना को ऊपर उठाते हैं और समाज में सामंजस्य स्थापित करने में प्रभावशाली होते हैं। महर्षि महेश योगी के अनुसार उनकी ध्यान पद्धति अपनाने से सेना और शस्त्रों की जरूरत नहीं रह जाएगी और बहुत थोड़े-से खर्च में भारत की सुरक्षा हो सकेगी, उसकी समस्याएं हल हो सकेंगी तथा देश की चेतना में सत्व का उदय हो सकेगा।
भगवान, श्री महेश योगी द्वारा किए गए इस दावे में क्या कुछ सचाई है? साथ ही आप जिस ध्यान को समझाते हैं तथा उसका प्रयोग करा रहे हैं, क्या वही ध्यान ऊपर बताई गई बातों के संदर्भ में अधिक प्रभावशाली और कारगर सिद्ध नहीं होगा? निवेदन है कि इस विषय में कुछ कहें।

 सत्य वेदांत,

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-05



सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो

प्रेम एक इंद्रधनुष है—प्रवचन-पांचवां
दिनांक 25 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,
प्रेम क्या है? और क्या प्रेम कभी नष्ट भी हो सकता है या नहीं?

 राम किशोर,
प्रेम एक इंद्रधनुष है। उसमें सभी रंग हैं--निम्नतम से लेकर श्रेष्ठतम तक, काम से लेकर राम तक। प्रेम कोई एक-आयामी घटना नहीं है, बहु-आयामी है। मूलतः तीन आयाम समझ लेने जरूरी हैं।
पहला आयाम तो शरीर का है। शरीर का प्रेम नाममात्र को प्रेम है। प्रेम की भ्रांति ज्यादा प्रेम का अस्तित्व कम। एक प्रतिशत प्रेम, निन्यानबे प्रतिशत रसायनशास्त्र। एक प्रतिशत तुम, निन्यानबे प्रतिशत अचेतन प्रकृति। उसी तल पर पशु जीते हैं। उसी तल पर अधिकतम मनुष्य भी जीते हैं। और जिन्होंने प्रेम का पहला तल ही जाना, वे स्वभावतः प्रेम के दुश्मन हो जाएंगे। उस तरह के दुश्मनों ने ही धर्म को विकृत किया है। प्रेम की ऊंचाइयां जानी नहीं, प्रेम की क्षुद्रताओं को ही जाना--और तब प्रेम के विपरीत हो गए। और तब प्रेम से दुश्मनी कर ली। और तब प्रेम की तरफ पीठ करके भाग चले।

शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-04



सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो

बुद्ध का शून्य: मीरा की वीणा—प्रवचन-चौथा
दिनांक 24 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,
भारत के लोग सदियों से गुलाम और गरीब रहने के कारण भयानक हीनता के भाव से पीड़ित हैं, और इसलिए पश्चिम का अंधानुकरण कर रहे हैं। क्या यह अंधानुकरण अस्वस्थ नहीं है? और क्या उन्हें अपना मार्ग और गंतव्य स्वयं ही नहीं ढूंढना चाहिए? इस संदर्भ में आप हमें क्या मार्गदर्शन देंगे?

 मृत्युंजय देसाई,
यह प्रश्न तो महत्वपूर्ण है, लेकिन उत्तर शायद तुम्हें चोट पहुंचाए। क्योंकि इस प्रश्न के भीतर और बहुत-से प्रश्न छिपे हैं, शायद तुम्हें उनका बोध भी न हो।
सबसे महत्वपूर्ण बात तो विचारणीय यह है, जैसा तुम कहते हो कि भारत के लोग सदियों से गुलाम और गरीब रहने के कारण भयानक हीनता के भाव से पीड़ित हैं, पूछना यह चाहिए कि सदियों से भारत के लोग गुलाम और गरीब क्यों हैं? इनकी गुलामी और गरीबी का कारण कहां है? इनकी गुलामी और गरीबी की बुनियाद कहां है? जड़ें कहां हैं? यूं ही तो गुलाम और गरीब नहीं हैं। कोई दिन दो-चार दिन के लिए, माह दो माह के लिए, वर्ष दो वर्ष के लिए जबरदस्ती गुलाम बनाया जा सकता है; लेकिन दो हजार वर्षों तक कोई जबरदस्ती गुलाम बनाया जा सकता है?

गुरुवार, 27 जुलाई 2017

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-03



सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो

जीवन एक तिलिस्म है—प्रवचन-तीसरा
दिनांक 23 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,
हाजार बोछोर धोरे
कोतो नोदी-प्रांतर,
बेरिए गेलाम।
ए चौलार माने तोबू
बोझा गेलो ना!
आमि हारिए गेलाम।
आमि हारिए गेलाम।
अर्थात हजारों वर्षों की यात्रा में मैंने कितने ही नदी और वन-प्रांतर पार किए, लेकिन फिर भी इस चलने का अर्थ अब तक नहीं समझ पाया। अब तो मैं हार गया, हार ही गया!
भगवान, एक बंगला गीत का यह अंश मेरे भीतर अक्सर गूंज उठता है। मैं भी अपनी वासनाओं से हारा हुआ हूं। वासनाओं की व्यर्थता का बोध होने पर भी वे जाती क्यों नहीं हैं?

 अनिल भारती,
जीवन का जो अर्थ खोजने चलेगा वह निश्चित ही हारेगा, असफल होगा। जीवन का अर्थ खोजने का अर्थ होगा कि जीवन रहस्य नहीं है, एक गणित है। जीवन फिर एक पहेली है, जो सुलझाई जा सकती है। और जीवन एक पहेली नहीं है। पहेली और रहस्य का यही भेद है: जो सुलझाया न जा सके, जान-जान कर भी जो अनजाना रह जाए, कितना ही ज्ञात हो फिर भी अज्ञात शेष रहे।
विज्ञान और धर्म का यही भेद है। विज्ञान अस्तित्व को दो खंडों में बांटता है--ज्ञात और अज्ञात। जो कल अज्ञात था, आज ज्ञात हो गया है। जो आज अज्ञात है, कल ज्ञात हो जाएगा। ज्ञात और अज्ञात में कोई मौलिक भेद नहीं, कोई गुणात्मक अंतर नहीं। वे दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और विज्ञान कहता है उन दोनों के पार और कुछ भी नहीं। यही है उसकी अस्वीकृति चैतन्य के लिए।

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-02



सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो

स्वयं का बोध मुक्ति है—प्रवचन-दूसरा
दिनांक 22 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,
आद्य शंकराचार्य की एक प्रश्नोत्तरी इस प्रकार है--
कस्याऽस्ति नाशे मनसो हि मोक्षः
      क्व सर्वथा नास्ति भयं विमुक्तौ।
शल्यं परं किम् निजमूर्खतेव
      के के हयुपास्या गुरुदेववृद्धाः।।
किसके नाश में मोक्ष है? मन के नाश में ही। किसमें सर्वथा भय नहीं है? मोक्ष में। सबसे बड़ा कांटा कौन है? अपनी मूर्खता ही। कौन-कौन उपासना के योग्य हैं? गुरु, देवता और वृद्ध।
भगवान, इन प्रश्नों पर आप क्या कहते हैं?

अभयानंद, यह सूत्र प्यारा है--सोचने योग्य। ध्याने योग्य।
कस्याऽस्ति नाशे मनसो हि मोक्षः।
"किसके नाश में मोक्ष है? मन के नाश में ही।'
मन ही बंधन है। और बंधन भी ऐसा, जो केवल हमारी प्रतीति में है। नाश करने को वस्तुतः कुछ भी नहीं है, सिर्फ आंख खोल कर देखने की बात है और मन नष्ट हो जाता है। आंख बंद है तो मन है; आंख खुली कि मन गया।