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रविवार, 21 जनवरी 2018

भिक्षुओं का गृहस्‍थों के घर निमंत्रित होना—(कथायात्रा—044)

 भिक्षुओं का गृहस्‍थों के घर निमंत्रित होना—कथा—यात्रा

भिक्षु गृहस्थों के घर निमंत्रित होने पर भोजनोपरांत दानानुमोदन करते थे। किंतु तीर्थक सुखं होतु आदि कहकर ही चले जाते थे। लोग स्वभावत: भिक्षुओं की प्रशंसा करते और तीर्थको की निंदा करते थे। यह जानकर तीर्थको ने हम लोग मुनि हैं मौन रहते हैं श्रमण गौतम के शिष्य भोजन के समय महाकथा कहते हैं बकवासी हैं ऐसा कहकर प्रतिक्रिया में निंदा शुरू कर दी।

बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को सदा कहा है कि जितना लो, उससे ज्यादा लौटा देना। कहीं ऋण इकट्ठा मत करना। इसलिए बुद्ध का भिक्षु जब भोजन भी लेता कहीं तो भोजन के बाद, धन्यवाद कै रूप में, जो उसको मिला है उसकी थोड़ी बात करता था। जो आनंद उसने पाया, जो ध्यान उसे मिला है, जो शील की संपदा उसे मिली है, जो नयी—नयी किरणें और नयी—नयी उमंगों के तूफान उसके

शनिवार, 20 जनवरी 2018

एक ब्राह्मण दार्शनिक का बुद्ध से विवाद—(कथायात्रा—043)

 एक ब्राह्मण दार्शनिक का बुद्ध से विवाद—कथा—यात्रा

क ब्राह्मण दार्शनिक भगवान के पास आया और बोला हे गौतम! आप अपने शिष्यों को भिक्षाटन करने से भिक्षु कहते हैं। मैं भी भिक्षाटन करता हूं अत: मुझे भी भिक्षु कहिए। वह विवाद करने को उत्सुक था और किसी भी बहाने उलझने को तैयार था। शब्दों पर उसकी पकड़ थी सो उसने भिक्षु शब्द से ही विवाद को उठाने की सोची। उसे तो बस कोई भी निमित्त चाहिए था।
भगवान ने उससे कहा ब्राह्मण भिक्षाटन मात्र से कोई भिक्षु नहीं होता; लै भिखारी चाहो तो मान ले सकते हो। पर भिखारी और भिक्षु पर्यायवाची नहीं हैं। मैं भिक्षु उसे कहता हूं जिसने सब संस्कार छोड़ दिए। जिसके पास भीतर कोई संस्कार न बचे उसे भिक्षु कहता हूं।


जिसको जीसस ने पुअर इन स्तिट कहा है। ब्लेसेड आर द पुअर इन स्टिट, धन्य हैं वे जो भीतर से दरिद्र हैं। ईसाइयत के पास इसकी ठीक व्याख्या नहीं है कि क्या मतलब है जीसस का— भीतर से दरिद्र। बुद्ध के इस वचन में उसकी व्याख्या है। संस्काररहित। जिसने सारी कंडीशनिंग छोड़ दी।
समझो, यह बात बड़ी मूल्य की है। हम संस्कारों से जीते हैं। कोई कहता, मैं हिंदू कोई कहता, मैं मुसलमान; कोई कहता, मैं ईसाई; यह संस्कार है। कोई पैदा तो नहीं होता हिंदू की भांति, न कोई ईसाई की भांति।

शब्दो के धनी मोन में दरिद्र भिक्षु ‘’हत्‍थक’’–(कथायात्रा—042)

शब्दो के धनी मोन में दरिद्र भिक्षु‘’हत्‍थक’—(कथा—यात्रा)

एक भिक्षु थे— हत्थक। वे स्वयं को सत्य का अथक खोजी मानते थे।
स्वभावत:, जो अपने को सत्य का अथक खोजी माने, वह शास्त्रों में उलझ जाता है। जैसे कि शास्त्रों में सत्य हो। निकले सत्य की खोज को, खो जाते हैं शास्त्रों के अरण्य में। चाहते तो थे गहरे में जान लें कि जीवन क्या है, चाहते तो थे कि जान लें यह विराट अस्तित्व क्या है, लेकिन आंखें अटक जाती हैं शास्त्रों में। तो हत्‍थक बड़े शास्त्री बन गए। सत्य की खोज मन ने झुठला दी। मन ने कहा, सत्य चाहिए, शास्त्र में झांको। सत्य चाहिए, तो सारे सिद्धातों में झांको।

सत्य के खोजी अक्सर पंडित बन जाते हैं। वह मन ने धोखा दे दिया। सत्य की खोज का शास्त्र से क्या लेना—देना! शास्त्र से बडी तो सत्य के मार्ग में कोई और बाधा नहीं है! हां, तुम सत्य को जान लो तो शायद तुम शास्त्र में भी सत्य को पा सको, लेकिन इससे उलटा नहीं हो सकता कि तुम सत्य को बिना जाने और शास्त्र में पा सको। यह असंभव है। सत्य को जान लो, फिर शास्त्र को देखो तो शायद तुम्हें गवाहियां मिल जाएं कि हां, ठीक, जो मैंने जाना वही औरों ने भी जाना है। लेकिन तुम्हारा जानना प्राथमिक है। दूसरों का जानना दोयम, नंबर दो की बात है। तुमने न जाना हो तो दूसरों ने कितना ही जाना हो, इससे कुछ फर्क न पड़ेगा। और दूसरे जो कहेंगे, उसे तुम समझोगे कैसे?

नाटे लंकुटक स्‍थविर बुद्ध के दर्शन को आये—(कथायात्रा—041)

नाटे लंकुटक स्‍थविर बुद्ध के दर्शन को आये—(कथा—यात्रा)

कुंटक भद्दीय स्थविर नाटे थे—अति नाटे एक दिन अरण्य से तीस भिक्षु भगवान का दर्शन करने के लिए जेतवन आए। जिस समय वे शास्ता की वंदना करने जा रहे थे उसी समय लकुंटक भद्दीय स्थविर भगवान को वंदना करके लौटे थे। उन भिक्षुओं के आने पर भगवान ने पूछा क्या तुम लोगों ने जाते हुए एक स्थविर को देखा है? भंते हम लोगों ने स्थविर को तो नहीं देखा केवल एक श्रामणेर जा रहा था भगवान ने कहा भिक्षुओ वह श्रामणेर नहीं स्थविर है। भिक्षु बोले भंते अत्यंत छोटा है इतना छोटा, कैसे कोई स्थविर होगा। भगवान ने कहा भिक्षुको वृद्ध होने और स्थविर के आसन पर बैठने मात्र से कोई स्थविर नहीं होता। किंतु जो आर्य— सत्यों का ज्ञान प्राप्त कर महा जनसमूह के लिए अहिंसक हो गया है वही स्थविर है। स्थविर का संबंध उम्र या देह से नहीं बोध से है। बोध न तो समय में और न स्थान में ही सीमित है। बोध समस्त सीमाओं का अतिक्रमण है। बोध तादाक्य से मुक्ति है


और तब उन्होंने ये गाथाएं कहीं—

न तने थेरो होति येनस्‍स पलितं सिरो।
परिपक्‍को वयो तस्‍स मोधजिण्‍णोति वुच्‍चति ।।

यम्‍हि सच्‍चज्‍च धम्‍मो च अहिंसा सज्‍जमोदमो।
स वे वंतमलो धीरो हति पवुच्‍चति।।

शुक्रवार, 19 जनवरी 2018

देवता और एकुदान का उपदेश—(कथायात्रा—040)

देवता और एकुदान का उपदेश—(कथा—यात्रा)

कुदान नामक एक छीनास्रव— आस्रव क्षीण हो गए हैं जिनके— ऐसे अर्हत थे भिक्षु थे। वे जंगल में अकेले रहते थे। उन्हें एक ही उपदेश आता था— बस एक ही उपदेश जैसा मुझे आता है— बस रोज उसी को कहते रहते थे। वे उसे ही रोज देते उपदेश को। स्वभावत: उनका कोई शिष्य नहीं था

हो भी कैसे! कोई आता भी तो भाग जाता, वही उपदेश रोज। शब्दशः वही। उसमें कभी भेद ही नहीं पड़ता था। उन्हें कुछ और इसके अलावा आता ही नहीं था। लेकिन वे देते रोज थे।
कोई आदमी तो उनके पास टिकता नहीं था लेकिन जंगल के देवता उनका उपदेश सुनते थे। और जब वे उपदेश पूरा करते तो जंगल के देवता साधुकार देकर स्वागत करते थे— साधु! साधु! सारा जंगल गुंजायमान हो जाता था— साधु। साधु! धन्यवाद! धन्यवाद!

एक दिन पांच— पांच सौ शिष्यों के साथ दो त्रिपटकधारी साधु आए भिक्षु आए। एकुदान ने उनका हार्दिक स्वागत किया और प्रसन्न होते हुए बोले भंते आप भले पधारे। मैं एक ही उपदेश जानता हूं बेचारे जंगल के देवता उसे ही बार— बार सुनकर थक गए होंगे। आज आप लोग उपदेश दें। हम भी सुनेने और देवतागण भी आनंदित होंगे दयावश वे इस बूढ़े के एक ही उपदेश का भी साधु— साधु कहकर स्वागत करते हैं आप दोनों ज्ञानी हैं त्रिपटकधारी हैं आपके पांच— पांच सौ शिष्य है? देखें मेरा तो एक भी शिष्य नहीं है— एक ही उपदेश देना हो तो शिष्य कोई बनेगा ही क्यों? बनेगा ही कोई कैसे?

विनिश्‍चयशाला और भिक्षुओं का संदेह—(कथायात्रा—039)

विनिश्‍चयशाला और भिक्षुओं का संदेह—(कथा—यात्रा)

Image result for buddhaश्रावस्ती नगर उन दिनों की प्रसिद्ध राजधानी। कुछ भिक्षु भिक्षाटन करके भगवान के पास वापस लौट रहे थे कि अचानक बादल उठा और वर्षा होने लगी। भिक्षु सामने वाली विनिश्चयशाला (अदालत) में पानी से बचने के लिए गए उन्होंने वहां जो दृश्य देखा वह उनकी समझ में ही न आया। कोई न्यायाधीश पक्षपाती था कोई न्यायाधीश बहरा था— सुनता नहीं थ( ऐसा नहीं कान तो ठीक थे मगर उसने पहले ही से कुछ मान रखा थ( इसलिए सुनता नहीं था इसलिए बहरा था और कोई आंखों के रहते ही अंधा था। किसी ने रिश्वत ले ली थी कोई वादी— प्रतिवादी को सुनते समय झपकी खा रहा था, कोई धन के दबाव में था, कोई पद के कोई जाति— वंश के कोई धर्म के। और उन्होंने वहां देखा कि सत्य झूठ बनाया जा रहा है और झूठ सच बनाया जा रहा है। न्याय से किसी को भी कोई प्रयोजन नहीं  और जहां न्याय तक न हो वहां करुणा तो हो ही कैसे सकती थी। उन भिक्षुओं ने लौटकर यह बात भगवान को कही। भगवान ने कहा ऐसा ही है भिक्षुओ। जैसा नहीं होना चाहिए वैसा ही हो रहा है इसका नाम ही तो संसार है।


और तब उन्होंने ये दो गाथाएं कहीं—

 न तने होति धम्‍मट्ठो येनत्‍थं सहसा नये।
यो च अत्‍थं अनत्‍थज्‍च उभो निच्‍छेय्य पंडितो ।।
असाहसेन धम्‍मेन समेन नयती परे।
ध्‍म्‍मस्‍स गुत्‍तो मेधावी धम्‍मट्ठोति पवुच्‍चति ।।

महाबलवान हाथी का कीचड़ में फसना—(कथायात्रा—038)

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महाबलवान हाथी का कीचड़ में फसना—(कथा—यात्रा)

कौशल— नरेश के पास बद्धरेक नाम का एक महाबलवान हाथी था। उसके बल और पराक्रम की कहानियां दूर— दूर तक फैली थीं। लोग कहते थे कि युद्ध में उस जैसा कुशल हाथी कभी देखा ही नहीं गया था। बड़े— बड़े सम्राट उस हाथी को खरीदना चाहते थे पाना चाहते थे। बड़ों की नजरें लगी थीं उस हाथी पर। वह अपूर्व योद्धा था हाथी। युद्ध से कभी किसी ने उसको भागते नहीं देखा। कितना ही भयानक संघर्ष हो कितने ही तीर उस पर बरस रहे हो और भाले फेके जा रहे हो वह अडिग चट्टान की तरह खड़ा रहता था। उसकी चिंघाड़ भी ऐसी थी कि दुश्मनों के दिल बैठ जाते थे। उसने अपने मालिक कौशल के राजा की बड़ी सेवा की थी। अनेक युद्धों में जिताया था।

लेकिन फिर वह वृद्ध हुआ और एक दिन तालाब की कीचड़ में फंस गया। बुढ़ापे ने उसे इतना दुर्बल कर दिया था कि वह कीचड़ से अपने को निकाल न पाए।
उसने बहुत प्रयास किए लेकिन कीचड़ से अपने को न निकाल सका सो न निकाल सका। राजा के सेवकों ने भी बहुत चेष्टा की पर सब असफल गया।

विरोधी धर्म गुरूओं का बुद्ध पर कीचड़ उछालना—(कथा—037)

 विरोधी धर्म गुरूओं का बुद्ध पर कीचड़ उछालना—(कथा—यात्रा)

गवान् केर कौशांबी में विहरते समय की घटना है। बुद्ध—विरोधी धर्म गुरुओं ने गुंडों—बदमाशों को रुपए—पैसे खिला—पिलाकर भगवान का तथा भिक्षुसंघ का आक्रोशन? अपमान करके भगा देने के लिए तैयार कर लिया था। वे भिक्षुओं को देखकर भद्दी गालिया देते थे। नहीं लिखी जा सकें ऐसी शास्त्र कहते हैं। जो लिखी जा सके वे ये थी—भिक्षुनिकलते तो उनसे कहते तुम मूर्ख हो पागल हो झक्की हो, चोर—उचक्के हो बैल—गधे हो पशु हो पाशविक हो नारकीय हो पतित हो विकृत हो इस तरह के शब्द भिक्षुओं से कहते।

ये तो जो लिखी जा सकें। न लिखी जा सकें तुम समझ लेना।
वे भिक्षणिओं को भी अपमानजनक शब्द बोलते थे। वे भगवान पर तरह— तरह की कीचड़ उछालते थे। उन्होंने बड़ी अनूठी— अनूठी कहानियां गढ़ रखी थीं और उन कहानियों में उस कीचड़ में बहुत से धर्मगुरुओं का हाथ था।

जब बहुत लोग बात कहते हों तो साधारणजन मान लेते हैं कि ठीक ही कहते होंगे। आखिर इतने लोगों को कहने की जरूरत भी क्या है? ठीक ही कहते होंगे।

गुरुवार, 18 जनवरी 2018

बच्‍चों ने बुद्ध में चुम्‍बकीय आकर्षण देखा—(कथायात्रा-036)

बच्‍चों ने बुद्ध में चुम्‍बकीय आकर्षण देखा—(कथा—यात्रा) 

गौतम बुद्ध का नाम ही संकीर्ण सांप्रदायिक चित्त के लोगों को भयाक्रांत कर देता था। उस नाम में ही विद्रोह था। वह नाम आमूल क्रांति का ही पर्यायवाची था ऐसे भयभीत लोग स्वयं तो बुद्ध से दूर—दूर रहते ही थे अपने बच्चों को भी दूर—दूर रखते थे। बच्चों के लिए युवकों— युवतियों के लिए उनका भय स्वभावत: और भी ज्यादा था। ऐसे लोगों ने अपने बच्चों को कह रखा था कि वे कभी बुद्ध की हवा में भी न जाएं। उन्हें उन्होंने शपथें दिला रखी थीं कि वे कभी भी बुद्ध या बुद्ध के भिक्षुओं को प्रणाम न करेगे।
एक दिन कुछ बच्चे जेतवन के बाहर खेल रहे थे। खेलते—खेलते उन्हें प्यास लगी। वे भूल गए अपने माता—पिताओं और धर्मगुरुओं को दिए वचन और जेतवन में पानी की तलाश में प्रवेश कर गए। संयोग की बात कि भगवान से ही उनका मिलना हो गया।
भगवान ने उन्हें पानी पिलाया और बहुत कुछ और भी पिलाया— प्रेम भी पिलाया। ऊपर की प्यास तो मिटायी और भीतर की प्यास जगायी। वे बच्चे खेल इत्यादि भूलकर दिनभर भगवान के पास ही रहे ऐसा प्रेम तो उन्होंने कभी न जाना था। न जाना था ऐसा चुंबकीय आकर्षण न देखा था ऐसा सौदर्य न देखा था ऐसा प्रसाद ऐसी शांति ऐसा आनंद ऐसा अपूर्व उत्सव; वे भगवान में ही डूब गए वह अपूर्व रस वह अलौकिक रंग उन सरल बच्चों के हृदयों को लग गया। वे फिर रोज ही आने लगे। वे भगवान के पास धीरे— धीरे ध्यान में भी बैठने लगे उनकी सरल श्रद्धा देखते ही बनती थी।

लव कुंठक भद्दीय बुद्धभगवान से विदा ली—(कथायात्रा—035)

लव कुंठक भद्दीय बुद्धभगवान से विदा ली—(कथा—यात्रा)

यह बहुत अनूठा सूत्र है।
बुद्ध के अनूठे से अनूठे सूत्रों में एक। इसे खूब खयाल से समझ लेना।

 प्रभातवेला आकाश में उठता सूर्य आम्रवन में पक्षियों का कलरव भगवान जेतवन में विहरते थे। उनके पास ही बहुत से आगंतुक भिक्षु भगवान की वंदना कर एक ओर बैठे थे। उसी समय लव कुंठक भद्दीय स्थविर भगवान से विदा ले कुछ समय के लिए भगवान से दूर जा रहे थे। उन्हें जाते देख भगवान ने उनकी ओर संकेत कर कहा— भिक्षुओ देखते हो इस भाग्यशाली भिक्षु को? वह माता— पिता को मारकर दुखरहित होकर जा रहा है।
माता—पिता को मारकर! वे भिक्षु भगवान की बात सुनकर चौके चौककर एक— दूसरे का मुंह देखने लगे कि भगवान ने यह क्या कहा? माता— पिता को मारकर दुखरहित होकर जा रहा है इस भाग्यशाली भिक्षु को देखो! उन्हें तो अपने कानों पर भरोसा नहीं हुआ! माता— पिता की हत्या से बड़ा तो कोई और पाप नहीं है। भगवान यह क्या कहते हैं? कहीं कुछ चूक है। या तो हम सुनने में चूक गए या भगवान कहने में चूक गए। माता— पिता के हत्यारे को भाग्यशाली कहना यह कैसी शिक्षा है? भगवान होश में हैं?

वैशाली में मृत्‍यु का तांडव नृत्‍य—(कथायात्रा—034)

वैशाली में मृत्‍यु का तांडव नृत्‍य—(कथा—यात्रा)

क समय वैशाली में दुर्भिक्ष हुआ था और महामारी फैली थी। लोग कुत्तों की मौत पर रहे थे। मृत्यु का तांडव नृत्य हो रहा था। मृत्यु का ऐसा विकराल रूप तो लोगों ने कभी नहीं देखा था न सुना था। सब उपाय किए गए थे लेकिन सब उपाय हार गए थे। फिर कोई और मार्ग न देखकर लिच्छवी राजा राजगृह जाकर भगवान को वैशाली लाए। भगवान की उपस्थिति में मृत्यु का नंगा नृत्य धीरे— धीरे शांत हो गया था— मृत्यु पर तो अमृत की ही विजय हो सकती है। फिर जल भी बरसा था सूखे वृक्ष पुन: हरे हुए थे; फूल वर्षों से न लगे थे फिर से लगे थे फिर फल आने शुरू हुए थे। लोग अति प्रसन्न थे।

और भगवान ने जब वैशाली से विदा ली थी तो लोगों ने महोत्सव मनाया था उनके हृदय आभार और अनुग्रह से गदगद थे। और तब किसी भिक्षु ने भगवान से पूछा था— यह चमत्कार कैसे हुआ? भगवान ने कहा था—भिक्षुओ बात आज की नहीं है। बीज तो बहुत पुराना है वृक्ष जरूर आज हुआ है। मैं पूर्वकाल में शंख नामक ब्राह्मण होकर प्रत्येक बुद्धपुरुष के चैत्यों की पूजा किया करता था। और यह जो कुछ हुआ है उसी पूजा के विपाक से हुआ है। जो उस दिन किया था वह तो अल्प था अत्यल्प था लेकिन उसका ऐसा महान कल हुआ है, बीज तो होते भी छोटे ही हैं।

बुधवार, 17 जनवरी 2018

बुद्ध के परिनिर्वाण घोषणा और धम्‍माराम—(कथायात्रा—033)

 बुद्ध के परिनिर्वाण घोषणा और धम्‍माराम—(कथा—यात्रा)

गवान के यह कहने पर कि चार माह के पश्चात मेरा परिनिर्वाण होगा भिक्षु अपने को रोक नहीं सके— जार— जार रोने लगे भिक्षुओं के आंसू बहने लगे। भिक्षुओं की तो क्या कही जाए बात अर्हतों के भी धर्मसंवेग का उदय हुआ। उनकी आंखें तो आंसुओ से नहीं भरी लेकिन हृदय उनका भी डांवाडोल हो गया
उस समय धम्माराम नाम के एक स्थविर ने यह सोचकर कि मैं अभी रागरहित नहीं हुआ और शास्ता का परिनिर्वाण होने जा रहा है इसलिए शास्ता के रहते ही मुझे अर्हत्व प्राप्त कर लेना चाहिए— ऐसा सोच एकांत में जाकर समग्र संकल्प से साधना में लग गया

धम्माराम उस दिन से एकांत में रहते मौन रखते ध्यान करते। भिक्षुओं के कुछ पूछने पर भी उत्तर नहीं देते थे स्वभावत; भिक्षुओं को इससे चोट लगी। धम्माराम अपने को समझता क्या है? पूछने पर उत्तर नहीं देता। उपेक्षा करता है। इस तरह चलता है जैसे अकेला है कोई यहां है ही नहीं।
वहा दस हजार भिक्षु थे बुद्ध के पास। यह धम्माराम भूल ही गया उन दस हजार भिक्षुओं को। स्वभावत: अनेक को चोटें लगीं। अनेक को बात जंची नहीं। लोग जयरामजी करते, उसका भी उत्तर नहीं देता था! बात ही छोड़ दी थी यह। जैसे संसार मिट गया।

स्‍थविर अंकूर का दान—(कथायात्रा—032)

 स्‍थविर अंकूर का दान—(कथा—यात्रा)

 गवान के तातविंस भवन में पांडुकमल शिलासन पर बैठे समय देवताओं में यह चर्चा चली— कि इंदक के अपने लिए लाए भोजन में से कलछीभर अनुरुद्ध स्थविर को दिया दान का फल अंकुर के दस हजार वर्ष तक बारह योजन तक चूल्हों की कतार बनवाकर दिए हुए दान से भी महाफल का हुआ। यह कैसा गणित है? इसके पीछे तर्क— सरणी क्या है?
इसे सुनकर शास्ता ने अंकुर से कहा : अंकुर! दान चुनकर देना चाहिए। ऐसा करने से वह अच्छे खेत में भली प्रकार बोए हुए बीज के सदृश्य महाफल होता है। किंतु तूने वैसा नहीं किया इसलिए तेरा दान महाफल नहीं हुआ। दान ही सब कुछ नहीं है; जिसे दिया वह भी अति महत्वपूर्ण है। और जिस भावदशा से दिया वह भी अति महत्वपूर्ण है। और तब उन्होंने ये गाथाएं कहीं.

 तिणदोसानि खेत्‍तानि रागदोसा अयं पजा।
तस्‍मा हि वितरागेसु दिन्‍नं होति महप्फलं ।।
तिणदोसानि खेत्‍तानि दोसदोसा अयं पजा।
तस्‍मा हि वीतदोसेसु दिन्‍नं होति महप्फलं ।।

कौशल नरेश का धन में उलझना—(कथायात्रा—031)

कौशल नरेश का धन में उलझना—(कथा—यात्रा)

श्रावस्ती के एक अपुत्रक श्रेष्ठी के मर जाने के बाद कोशल नरेश ने सात दिन तक उसके धन को गाड़ियों में खुलवाकर राजमहल में मंगवाया। इन सात दिनों तक धन ढुलवाने में वह इस तरह उलझा कि भगवान के पास एक दिन भी न जा सका। वैसे साधारणत: वह नियम से प्रतिदिन प्रातःकाल भगवान के दर्शन और सत्संग के लिए आता था।

जिस दिन धन खुलवाने का कार्य पूरा हुआ उस दिन उसे भगवान की याद आयी सो वह भरी दुपहरी में ही भगवान के पास जा पहुंचा।
भगवान ने उससे दोपहर में आने का कारण पूछा। राजा ने सब समाचार बताए और फिर पूछा भंते। एक बात मेरे मन को मथे डालती है। उस अपुत्रक श्रेष्ठी के पास इतना धन था कि मुझे सात दिन लग गए गाडियों में ढुलवाते— ढुलवाते तब बामुश्किल उसके धन को राजमहल ला पाया हूं। फिर भी वह रूखा— सूखा खाता था! फटा— पुराना पहनता था! और टूटे हुए. जराजीर्ण रथों पर चलता था!
इसे सुनकर भगवान ने कहा महाराज! वह पूर्वकाल में तगरशिखी बुद्ध को दान दिया था। दान तो कुछ बड़ा नहीं दिया था। बड़े दान देने की उसकी क्षमता नहीं थी। दान तो बड़ा क्षुद्र दिया था। लेकिन क्षुद्र दान का विराट परिणाम हुआ। उस दान के फलस्वरूप उसे इतनी धन— संपत्ति इस जीवन में मिली।

मंगलवार, 16 जनवरी 2018

इंद्र सहित सभी देवता जेतवन आये—(कथायात्रा—030)

 इंद्र सहित सभी देवता जेतवन आये—(कथा--यात्रा)

क बार देवताओं में यह प्रश्न उठा कि दानों में कोन दान श्रेष्ठ है? रसो में कोन रस श्रेष्ठ है? रतियों में कोन रति श्रेष्ठ है? और तृष्णा— क्षय को क्यों सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है?
कोई भी इन प्रश्नों का उत्तर न दे सका। देवताओं ने सबसे पूछने के बाद इंद्र से पूछा। वह भी इसका उत्तर न दे सका। तब इंद्र सहित सभी देवताओं ने जेतवन में जाकर भगवान के पास आ इन प्रश्नों को पूछा।
भगवान ने कहा धर्म के अनुभव में सब प्रश्नों के उत्तर हैं। फिर प्रश्न बहुत नहीं हैं एक ही है। सोचने मात्र से समाधान नहीं होगा। जागो। जागने में समाधान है। धर्म के अनुभव में समाधान है। सब व्याधियों के लिए एक ही औषधि है— धर्म। तब उन्होंने यह सूत्र कहा।

सबदानं धम्मदानं जिनाति सब्बं रसं धम्मरसो जिनाति।
सब्बं रति धम्मरती जिनाति तण्हक्सयो सबदुखं जिनाति ।।

'धर्म का दान सब दानों में बढ़कर है। धर्म-रस सब रसों में प्रबल है। धर्म में रति सब रतियों में बढ़कर है। और तृष्णा का विनाश सारे दुखों को जीत लेता है और धर्म की उपलब्धि उससे होती है, इसलिए वह सर्वश्रेष्ठ है।'

सारनाथ के मार्ग में आजीवक का मिलना—(कथायात्रा—029)

 सारनाथ में आजीवक का मिलना—(कथा—यात्रा)

गवान सर्वप्रथम ऋषिपत्तन मृगदाय में— जिसे अब सारनाथ कहते है— पंचवर्गीय भिक्षुओं को उपदेश देने के लिए उरुवेला से काशी की ओर आ रहे थे। मार्ग में उन्हें एक आजीवक मिला। वह तथागत को देखकर बोला आवुस। तेरी इंद्रियां परिशुद्ध और विमल हैं तुम किसे उद्देश्य कर प्रव्रजित हुए हो? कोन तुम्हारे शास्ता कोन तुम्हारे गुरु? या तुम किसके धर्म को मानते हो? ऐसा पूछा। तब शास्ता ने कहा : मेरे आचार्य या उपाध्याय नहीं हैं। मेरा कोई धर्म नहीं है। मेरे जीवन में कोई उद्देश्य नहीं है। तब उन्होंने यह गाथा कही:

सब्‍बाभिभु सब्‍बविदूहमस्‍मि सब्‍बेसु धम्‍मे अनूलितो।
सब्‍बज्‍जहो तण्‍हक्‍खये विमुत्‍तो सयं अभिज्‍जाय कमुद्दिसेय्यं ।।

 'मैं सभी को परास्त करने वाला हूं। मैं सब जानता हूं। मैं सभी धर्मों—तृष्णा इत्यादि—से अलिप्त हूं। सर्वत्यागी हूं। तृष्णा के नाश से मुक्त हूं। स्वयं ही विमल ज्ञान को जानकर किसको गुरु कहूं, किसको शिष्य सिखाऊं!'
यह बड़ा अपूर्व वचन है। पहले तो दृश्य को ठीक से समझ लें।

तरूण भिक्षु स्‍त्री आग्रह पर चीवर छोड़ना—(कथायात्रा—028)


 तरूण भिक्षु स्‍त्री आग्रह पर चीवर छोड़ना (कथा—यात्रा)

गवान जेतवन में विहरते थे। एक तरुण भिक्षु पर एक स्त्री मोहित होकर उसे गृहस्थ बनाने के लिए नाना प्रकार के प्रलोभन। वह भिक्षु अंतत: उसकी बातों में आकर चीवर छोड़कर गृहस्थ हो जाने के तैयार हो गया। भगवान यह सब चुपचाप देखते रहे थे। जब युवक गिरने को ही हो गया तब उन्होंने उसे पास बुलाया और कहा. स्मृति को सम्हाल! होश को जगा? पागल ऐसे ही तो पूर्व में भी तू गिरा है और बार— बार पछताया है। अब फिर वही! भूलों से कुछ सीख! स्मृति को सम्हाल. और तब उन्होंने ये दो गाथाएं कहीं :


वितक्‍कपमथितस्‍स जंतुनो तिब्‍बरागस्‍स सुभानुपास्सिनो।
भिय्यो तण्‍हा पबड्ढति एसो खो दल्‍हं करोति बंधनं ।।
वितक्‍कूपसमें च यो रत्‍तो असुभं भावयति सदा सतो।
एस खो व्‍यन्‍तिकाहिनी एसच्‍छेच्‍छति मारबंधनं ।।

 'जो मनुष्य संदेह से मथित है, और तीव्र राग से युक्त है, शुभ ही शुभ देखने वाला है, उसकी तृष्णा और भी बढ़ती है। और वह अपने लिए और भी दृढ़ बंधन बनाता है।'

'जो मनुष्य .संदेह के शांत हो जाने में रत है, सदा सचेत रहकर जो अशुभ की भावना करता है, वह मार के बंधन को छिन्न करेगा और तृष्णा का विनाश करेगा। इसके पहले कि हम गाथाओं में उतरें, इस परिस्थिति को ठीक से समझ लें। ये परिस्थितियां मनुष्य के मन की ही परिस्थितियां हैं। इन परिस्थितियों में मनुष्य के मन में उठने वाले संदेहों का ही विश्लेषण है।
एक तरुण भिक्षु पर एक स्त्री मोहित हो गयी।

सोमवार, 15 जनवरी 2018

उग्‍गसेन का नट कन्‍या पर मोहित होना—(कथा—027)

उग्‍गसेन का नट कन्‍या पर मोहित होना-(कथा—यात्रा)

 राजगृह में प्रतिवर्ष एक विशेष समारोह में नटों के खेलों का आयोजन होता था। एक बार जब नटों का खेल हो रहा था तब राजगृह नगर के श्रेष्ठी का उग्गसेन नामक पुत्र एक नट— कन्या के खेल को देखकर उस पर मोहित हो उसी से अपना विवाह कर नटों के साथ हो लिया। वह उनके साथ घूमते हुए थोडे ही वर्षों में नट— विद्या में निपुण हो गया। फिर एक उत्सव में भाग लेने वह भी राजगृह आया। उसका खेल देखने स्वभावत: हजारों लोग इकट्ठे हुए। वह नगर के सब से बड़े सेठ का बेटा था—— नगरसेठ का बेटा था।
उस दिन जब भगवान भिक्षाटन को निकले तो श्रेष्ठीपुत्र उग्गसेन साठ हाथ ऊंचे दो भवनों के बीच में बंधी रस्सी पर चलकर अपना खेल दिखाना शुरू करने ही वाला था। लेकिन भगवान को देखकर सभी दर्शक उग्गसेन की ओर से मुख मोड़कर भगवान को देखने लग गए! उग्गसेन उदास हो बैठ रहा।

भगवान ने उसे उदास देख महामौद्गल्यायन स्थविर से कहा मौद्गल्यायन। उग्गसेन को कहो कि अपना खेल दिखाए। बेचारा उदास और दुखी होकर बैठ गया!

बुद्ध एक सुअरी को देख कर मुस्‍कुराए—(कथायात्रा—026)

 बुद्ध एक सुअरी को देख कर मुस्‍कुराए--(कथा--यात्रा)

गवान वेणुवन में विहार करते थे। एक दिन भिक्षाटन को जाते हुए राह में एक सुअरी को देखकर ठिठक गए और फिर कुछ सोचकर मुस्कुराए और आगे बड़े एक सुअरी को देखकर...। आनंद स्थविर ने— जो उनके साथ सदा छाया की तरह लगा रहता था उनका सेवक था— यह देखा कि बुद्ध ठिठके एक सुअरी को देखकर! कुछ सोचा। फिर मुस्कुराए और आगे बड़े। आनंद अपनी जिज्ञासा को न रोक सका। और उसने भगवान से ठिठकने फिर कुछ सोचने और फिर मुस्कुराने का कारण पूछा
शास्ता ने कहा. आनंद! यह सुअरी ककुसंध बुद्ध के शासन में एक मुर्गी थी। और प्राचीन बुद्ध ककुसंधु उनके शासन में एक मुर्गी थी। भगवान ककुसंध के वचनों को सुनकर और भगवान के विहार— स्थल के पास ही रहने के कारण उनके प्रति प्रीति को उत्पन्न हो गयी थी।
जब वे बोलते तो यह सदा पास आ जाती। समझ न भी सकती तो भी सुनती समझ कोन सकता है? तो भी सुनती। भावविभोर हो जाती तन्मय हो जाती।

आनंद पर बुद्ध के प्रसाद की वर्षा—(कथायात्रा—025)

 आनंद पर बुद्ध के प्रसाद की वर्षा--(कथा--यात्रा)

गवान के मिगारमातु— प्रसाद में विहार करते समय एक दिन आनंद स्थविर ने भगवान को प्रणाम करके कहा भंते! आज मैं यह जानकर धन्य हुआ हूं कि सब प्रकाशों में आपका प्रकाश ही बस प्रकाश है। और प्रकाश तो नाममात्र को ही प्रकाश कहे जाते हैं। आपके प्रकाश के समक्ष वे सब अंधेरे जैसे मालूम हो रहे हैं। भंते! मैं आज ही आपको और आपकी अलौकिक ज्योतिर्मयता को देख पाया हूं दर्शन कर पाया हूं और अब मैं कह सकता हूं कि मैं अंधा नहीं हूं।
शास्ता ने यह सुन आनंद की आंखों में देर तक झांका। और और—और आलोक उसके ऊपर फेंका।

आनंद डूबने लगा होगा उस प्रसाद में, उस प्रकाश में, उस प्रशांति में।
और फिर उन्होंने कहा. हां आनंद ऐसा ही है। लेकिन इसमें मेरा कुछ भी नहीं है। मैं तो हूं ही नहीं इसीलिए प्रकाश है। यह बुद्धत्व का प्रकाश है मेरा नहीं। यह समाधि की ज्योति है मेरी नहीं। मैं मिटा तभी यह ज्योति प्रगट हुई है। मेरी राख पर यह ज्योति प्रगट हुई है।
तब यह सूत्र उन्होंने आनंद को कहा: