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सोमवार, 9 अप्रैल 2018

अजहू चेत गवांर-(पलटू दास)-प्रवचन-01

प्रवचन—1    आस्‍था का दीप—सदगुरू की आँख में

दिनांक 21 जुलाई, 1977;
श्री रजनीश आश्रम पूना।

नाव मिली केवट नहीं, कैसे उतरै पार। ।
कैसे उतरै पार पथिक विश्वास न आवै।
लगै नहीं वैराग यार कैसे कै पावै। ।
मन में धरै न ग्यान, नहीं सतसंगति रहनी।
बात करै नहिं कान, प्रीति बिन जैसी कहनी। ।
छूटि डगमगी नाहिं, संत को वचन न मानै।
मूरख तजै विवेक, चतुराई अपनी आनै। ।
पलटू सतगुरु सब्द का तनिक न करै विचार।
नाव मिली केवट नहीं, कैसे उतरै पार ।।1।।

 साहिब वही फकीर है जो कोई पहुंचा होय। ।
जो कोई पहुंचा होय, नूर का छत्र विराजै।
सबर-तखत पर बैठि, तूर अठपहरा बाजै। ।
तंबू है असमान, जमीं का फरस बिछाया।
छिमा किया छिड़काव, खुशी का मुस्क लगाया। ।
नाम खजाना भरा, जिकिर का नेजा चलता।
साहिब चौकीदार, देखि इबलीसहुं डरता। ।
पलटू दुनिया दीन में, उनसे बड़ा न कोय।
साहिब वही फकीर है, जो कोई पहुंचा होय। । २। ।


लहना है सतनाम का, जो चाहै सो लेय। ।
जो चाहै सो लेय, जायगी लूट ओराई।
तुम का लुटिहौ यार, गांव जब दहिहै लाई। ।
 ताकै कहा गंवार, मोटभर बांध सिताबी।
लूट में देरी करै, ताहि की होय खराबी। ।
बहुरि न ऐसा दांव, नहीं फिर मानुष होना।
क्या ताक तू ठाड़, हाथ से जाता सोना। ।
मैं ऊरिन भया, मोर दोस जिन देय।
लहना है सतनाम का, जो चाहै सो लेंय। । ३। ।


अजहूं चेत गंवार! नासमझ! अब भी चेत! ऐसे भी बहुत देर हो गई। जितनी न हो नी थी, ऐसे भी उतनी देर हो गई। फिर भी, सुबह का भूला सांझ घर आ जाए तो भूला नहीं।
     अजहूं चेत गंवार! अब भी जाग! अब भी होश को संभाल! ये प्यारे पद एक अपूर्व संत के हैं। डुबकी मारी तो बहुत हीरे तुम खोज पाओगे पलटूदास के संबंध में बहुत ज्यादा ज्ञात नहीं है। संत तो पक्षियों जैसे होते हैं। आकाश पर उड़ते जरूर हैं, लेकिन पदचिह्न नहीं छोड़ जाते। संतों के संबंध में बहुत कुछ ज्ञात नहीं है। संत का होना ही अज्ञात होना है। अनाम। संत का जीवन अंतर्जीवन है। बाहर के जीवन के तो परिणाम होते हैं इतिहास पर, इतिवृत्त बनता है। घटनाएं घटती हैं बाहर के जीवन की। भीतर के जीवन की तो कहीं कोई रेख भी नहीं पड़ती। भीतर के जीवन की तो समय की रेत पर कोई अंकन नहीं होता। भीतर का जीवन तो शाश्वत, सनातन, समयातित जीवन है। जो भीतर जीते हैं उन्हें तो वे ही पहचान पाएंगे जो भीतर जाएंगे। इसलिए सिकंदरों, हिटलरों, चंगैंज और नादिरशाह, इनका तो पूरा इतिवृत्त मिल जाएगा, इनका तो पूरा इतिहास मिल जाएगा। इन के भीतर का तो कोई जीवन होता नहीं, बाहर ही बाहर का जीवन होता है; सभी को दिखाई पड़ता है।
     राजनीतिज्ञ का जीवन बाहर का जीवन होता है; धार्मिक का जीवन भीतर का जीव न होता है। उतरी गहरी आंखें तो बहुत कम लोगों के पास होती हैं कि उसे देखें; वह तो अदृश्य और सूक्ष्म है।
     अगर बाहर का हम हिसाब रखें तो संतों ने कुछ भी नहीं किया। तो, तो सारा काम असंतो ने ही किया है दुनिया में। असल में कृत्य ही असंत से निकलता है। संत के पास तो कोई कृत्य नहीं होता। संत का तो कर्ता ही नहीं होता तो कृत्य कैसे हो गा? संत तो परमात्मा में जीता है। संत तो अपने को मिटा कर जीता है-आपा मेट कर जीता है। संत को पता ही नहीं होता कि उसने कुछ किया, कि उससे कुछ हुआ, कि उससे कुछ हो सकता है। संत होता ही नहीं। तो न तो संत के कृत्य की कोई छाया पड़ती है और न ही संत के कर्ता का कोई भाव कहीं निशान छोड़ जाता  
     पलटूदास बिलकुल ही अज्ञात संत हैं। इनके संबंध में बड़ी थोड़ी-सी बातें ज्ञात हैं-उगंलियों पर गिनी जा सकें। एक-उनके ही वचनों से पता चलता है गुरु के नाम का। गोविंद उनके गुरु थे। गोविंद संत भीखा के शिष्य थे, एक परम संत के शिष्य थे। और गोविंद उनके गुरु थे।
     संतों ने अपने बाबत चाहे कुछ भी न कहा हो, लेकिन गुरु का स्मरण किया है, जरूर किया है। अपने को तो मिटा डाला है, लेकिन गुरु में हो गए। अपने को पोंछ डाला, सब तरह से अपने को समाप्त कर लिया। उसी समाप्ति में गुरु से तो संबंध जुड़ता है। और परमात्मा की याद की है, लेकिन गुरु की याद को नहीं भूले हैं। क्योंकि परमात्मा से जिसने जुड़ाया उसे कैसे भूल जाएंगे!  
     ... तो गोविंद उनके गुरु थे, यह बात ज्ञात है। दूसरी बात, जो उनके पदों से ज्ञात होती है, वह यह कि वे वणिक थे, वैश्य थे, बनिया थे। वह भी इसलिए ज्ञात हो ती है कि वैश्य की भाषा का उपयोग किया है। जैसे कबीर जुलाहे थे तो कबीर के पदों में जुलाहे की भाषा का उपयोग है। स्वाभाविक। झीनी-झीनी बीनी रें चदरिया! अब यह कोई दूसरा नहीं लिखेगा, जिसने चदरिया कभी बीनी ही न हो। यह दूसरा नहीं लिख सकता। गोरा कुम्हार लिखेगा तो वह मटके बनाने की बात लिखता है। ऐसे इनके पदों में इनके वणिक होने का प्रमाण मिलता है। बड़ी मस्ती की बात कह है। कहा है कि ' मैं राम का मोदी' -राम का बनिया हूं; राम को बेचता हूं! छोटी- मोटी दुकान नहीं करता।

 सुनो ये अद्भुत वचन—

कौन करै बनियाई, अब मोरे कौन करै बनियाई। ।
त्रिकुटी में है भरती मेरी, सुखमन में है गादी।  
दसवें द्वारे कोठी मेरी, बैठा पुरुष अनादी। ।
इंगला-पिंगला पलरा नौ, लागी सुरति की जोति।
सत्त सबद की डांडी पकरौं, तौलौं भर-भर मोती। ।
चांद-सुरज दोउ करैं रखवारी, लगी सत्त की ढेरी।
तुरिया चढ़िके बेचन लागा, ऐसी साहिबी मेरी। ।
सतगुरु साहिब किहा सिपारस, मिली राम मुदियाई।
पलटू के घर नौबत बाजत, निति उठ होति सबाई। ।

      'सतगुरु साहिब किहा सिपारस...'। तो गुरु ने सिफारिश कर दी परमात्मा से, लिख दी चिट्ठी मेरे नाम। उनकी बिना सिफारिश के तो कुछ होता नहीं। अपने से तो मैं पहुंच नहीं सकता था। वह तो उनकी सिफारिश से पहुंच गया। नहीं तो कहां मुझे प ता परमात्मा का!
     'सतगुरु साहिब किहा सिपारस, मिली राम मुदियाई। ' खूब सिफारिश की, तब से रा म का मोदी हो गया, राम का बनिया हो गया, तब से राम को ही बेचता हूं।  
     और ये सारे शब्द...
     तुरिया चढ़िके बेचन लागा....
     चार अवस्थाएं हैं चेतना की : जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरिया। कहते हैं पलटू कि तीनों को पार कर गया। तुरिया चढ़िके बेचन लागा, ऐसी साहिबी मेरी। अब मैं तुरिया ही बेचता हूं, अब तो मेरे पास कुछ है भी नहीं। मेरी मस्ती देखो! मेरी साह बी देखो। मेरा धन देखो-मैं तुरिया बेचता हूं!  
     'चांद-सुरज दोउ करैं रखवारी, लगी सत्त की ढेरी।
     सत्त सबद की डांडी पकरौं, तौलौं भर भर मोती। ।
     '-अब और तो कुछ बचा नहीं, मोती ही लुटा रहा हूं।
     मगर यह भाषा वैश्य की है।  
     ' कौन करै बनियाई, अब मोरे कौन करै बनियाई!
     त्रिकुटी में है भरती मेरी, सुखमन है गादी। 
     -अति महासूक्ष्म में गादी जमा कर बैठ गया हूं। और त्रिकुटी में मेरा धन है अब। तीसरा नेत्र खुला है, वहां मेरी असली संपदा है।
' दसवें द्वारे कोठी मेरी...'। नौ द्वार से हम परिचित हैं। ये जो नौ छेद हैं शरीर में , ये नौ द्वार कहते हैं संत-आख, कान, नाक.. ये जो नौ छेद हैं शरीर में। एक दस वां छेद भी है, उसमें सरक गए तो परमात्मा में पहुंच गए। वह दिखाई नहीं पड़ता। वह तुम्हारे अंतरतम में है। वह परम छिद्र है। उसको दसवां द्वार कहा है।  
     'दसवें द्वारे कोठी मेरी, बैठा पुरुष अनादी।
     इंगला-पिंगला पलरा नौ, लागी सुरत की ज्योति। ।  
     इंगला-पिंगला को कहते हैं दो पलड़े हैं मेरे तराजू के।
     सत्त सबद की डांडी पकरौं... और उन दोनों के बीच में सत्य की डांडी है, सत्य का संतुलन है। यह जो भाषा है, यह वणिक की है। इस संबंध में एक बात खयाल रख लेना, जो तुम्हें याद दिला देनी जरूरी है-कि तुम कहीं भी हो वहीं से परमात्मा का रास्ता है। अगर बनिये हो तो वहां से भी रास्‍ता है : तो राम के मोदी हो जाओ। कोई ऐसा नहीं है कि ब्राह्मण का ही ब्रह्म पर दावा है। कुछ ऐसा भी नहीं है कि क्षत्रियों का ही दावा है। ब्राह्मण भी सत्य को उप लब्ध हुए हैं, क्षत्रिय भी, वणिक भी, शूद्र भी। प्रत्येक जीवन के ढंग की अपनी सुविधा है, अपनी असुविधा है। ब्राह्मण को एक सुविधा... और ध्यान रखना, जब मैं इन शब्दों का उपयोग कर रहा हूं तो मेरा मतलब जन्मजात नहीं है। जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता और जन्म से कोई शूद्र नहीं होता। जन्म से इसका क्या संबंध! लेकिन वृत्ति से ब्राह्मण होते हैं, वृत्ति से शूद्र होते हैं, वृत्ति से क्षत्रिय होते हैं। वृत्ति की बात है। यह व्यक्तित्व की बात है। ये जो चार वर्ण हैं, ये जो चार रंग हैं... वर्ण का अर्थ होता है रंग। थोड़ा सोचना। ये चार रंग के लोग हैं दुनिया में। चार ढंग के लोग हैं दुनिया में। अ और की जो व्याख्या है, पांच हजार साल हो गए, हिंदुओं ने जब तय यह चार ढंग किया था कि चार रंग के लोग हैं, चार ढंग के लोग हैं-इसे आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। अभी भी कार्ल गुस्ताव जुग ने जो फिर से विवेचन किया मनुष्य के संबंध में तो चार ढंग फिर आ गए। नाम कुछ भी हों, लेकिन चार कोटियों में बंटे हुए लोग हैं। इससे बचा नहीं जा सकता।
     कुछ लोग हैं जो बुद्धि में जीते हैं, वे ब्राह्मण। कुछ लोग हैं जो भुजाओं में जीते हैं। कुछ लोग हैं जिनकी सारी खोज विचार की है, वे ब्राह्मण हैं। कुछ लोग हैं जिनकी खोज शक्ति की है, शक्ति के पूजक-वें क्षत्रिय। कुछ लोग हैं जिनकी खोज महत्त्वाकंशा, प्रतिष्ठा, धन, इस बात की है-वें लोग वैश्य। कुछ लोग हैं जिनकी कोई खोज ही नहीं है; जो ऐसे ही जीते हैं, जैसे कि एक लकड़ी का टुकड़ा नदी में बहता चला जाए-न कहीं जाना, न कहीं पहुंचना, न कोई मंजिल है, न कोई गंतव्य है। न कोई बड़ी भविष्य की महत्त्वाकांक्षा है-ऐसे व्यक्ति शूद्र। वे कुछ भी छोटा-मोटा कर के गुजार लेते हैं। जिंदगी गुजारनी है, जिंदगी से कुछ बनाना नहीं है। ये चार वृत्तियां हैं। प्रत्येक वृत्ति का लाभ है और प्रत्येक वृत्ति की हानि भी है। जैसे कि जो आदमी बुद्धि में जीता है, अगर उसका ठीक उपयोग कर ले तो बुद्धि ही नखरते-निखरते चैतन्य बन जाती है, होश, जागरूकता, सुरति बन जाती है। तो ब्राह्मण को एक लाभ है कि वह अपनी बुद्धि को किसी भी दूसरे वर्ण की बजाय- क्षीत्रय, शूद्र, वैश्य की बजाय-ज्यादा आसानी से ध्यान में लगा सकता है। यह तो लाभ है। लेकिन खतरा भी है। खतरा यह है कि इतनी ही आसानी से वह अपनी बुद्धि को पांडित्य इकट्ठा करने में भी लगा सकता है।
     प्रत्येक लाभ अपने साथ छाया की तरह अपनी हानि लाता है। तो जितनी सुविधा है ब्राह्मण को उतनी ही असुविधा भी है। सुविधा यह है कि अगर ठीक मार्ग पकड़ ले-स्मृति को भरने में न लग जाए, बोध को जगाने में लग जाए-तो, तो बुद्ध हो जाए। लेकिन अगर स्मृति को भरने में लग गया, जिसकी बहुत संभावना है, क्योंकि स्‍मृति को भरना ऐसे है जैसे कोई ढलान की तरफ चले, उसमें मेहनत नहीं है। और बोध को जगाना ऐसे है जैसे कोई पहाड़ की यात्रा करे; उसमें बड़ा श्रम है। तो बहुत संभावनाएं हैं। निन्यानवे ब्राह्मण वृत्ति के लोग, सौ में से निन्यानवे स्मृति को भर ने में लग जाएंगे, पंडित हो जाएंगे। इसलिए ब्राह्मण पंडित हो कर समाप्त हो जाते हैं। कभी-कभी कोई एकाध, सौ में एकाध प्रज्ञावान होता है।
           ऐसी ही क्षत्रिय की वृत्ति है। क्षत्रिय की वृत्ति के आदमी को एक लाभ है। उसके पास संकल्प का बल है; जूझ सकता है; जुझारू है; लड़ सकता है। दूसरे से लड़ना हो तो दूसरे से भी लड़ सकता है और अपने से लड़ना हो तो अपने से भी लड़ सकता है। लड़ने की उसके पास कला है। लड़ेगा तो फिर वह संकोच नहीं करता। जान ले ने में भी उतना ही कुशल है, उतना ही देने की तैयारी भी रखता है। जिसकी लेनी हो जान उसे देने की भी तैयारी रखनी पड़ती है। तो अगर क्षत्रिय को ठीक राह मिल जाए तो वह तीर्थंकर हो जाएगा। जैनों के चौबसि तीर्थंकर क्षत्रिय हैं। हिंदुओं के सारे अवतार क्षत्रिय हैं। बुद्ध क्षत्रिय हैं। जुझारू लोग! तलवार दूसरे पर चलती रही-चलते-चलते एक दिन समझ आ गई, तो अपने पर चलने लगी। जिस दिन अपने पर चलने लगी, उस दिन अहंकार काट कर गिरा दिया। काटने की कला तो आती ही थी।  ब्राह्मण हैं-याज्ञवल्‍क्‍य और अष्टावक्र और शंकराचार्य। ठीक चले कोई तो शंकर हो जाए; चूके तो पंडित हो जाए।
           ऐसी ही वैश्य की संभावनाएं हैं। धन की उसे पकड़ है। सौ में निन्यानवे मौके पर तो वह धन को ही इकट्ठा करेगा और धन को ही इकट्ठा करके मर जाएगा और लोग कहते हैं; मर कर फिर सांप हो जाएगा और धन पर कुंडली मार कर बैठ जाएगा। मर कर भी वह धन की ही रक्षा करेगा। लेकिन, अगर परम धन की याद आ जाए वैश्य कों-वह धन का खोजी है, धन पर सब लगा देता है, दांव सब लगा देता है-एक दफा परम धन की उसे याद आ जाए, कि उसे यह समझ में आ जाए कि धन मेरे भीतर है, बाहर नहीं, तो फिर वैश्य जितनी सुविधा से भीतर जा सकता है उतनी सुविधा से कौन जाएगा।
     ऐसी ही बात शूद्र की भी है। सौ में निन्यानवे मौके पर शूद्र तो बस ऐसे ही इधर-उधर छोटा-मोटा काम करके जिंदगी समाप्त कर लेता है। खा-पी लेगा, बस ओढ़ना- बिछौना हो जाए, घर पर छप्पर हो जाए, खाना-पीना हो जाएगा, फिर उसकी ज्यादा फिक्र नहीं है, साधारणत: खाओ-पीओ मौज करो, न कोई जिंदगी में पाना है कुछ, न कहीं जाना है कुछ-जीवन में कोई अर्थ की तलाश नहीं है। ऐसे समाप्त हो जाएं गे सौ में निन्यानवे। लेकिन अगर ठीक दिशा लग जाए तो सौ में एक लाओत्सु
सकता है। वह सौ में एक जो है, जो अगर इस बात को समझ ले कि जीवन में सच में ही कोई आकांक्षा नहीं है कुछ भी पाना नहीं है, परम विश्राम में बैठ जाए- तो शूद्र जितनी आसानी से परम विश्राम में बैठ सकता है उतना कोई नहीं बैठ स कता।  क्षत्रिय के भीतर कुछ-न-कुछ चलता ही रहता है। ब्राह्मण के सिर में कुछ-न-कुछ च लता रहता है। बनिये के हृदय में सुगबुग ही लगी रहती है : धन, धन, पद-प्रतिष्ठा  ! यहां भी मिले, वहां भी मिले, परलोक में भी मिले! वह इंतजाम ही करता रहता है। शूद्र को एक लाभ है। उसको बहुत फिक्र नहीं है-न धन की न पद की, न शहइ क्त की, न ज्ञान की। चूंकि यह कोई फिक्र नहीं है, उसकी वासना खून मात्र है, आइ त खून है। गिराने में देर न लगेगी। तो शूद्र जैसे गोरा या रैदास, परमज्ञान को उप लब्ध हुए। तुम जहां भी हो, जो भी हो, उससे कभी यह चिंता मत लेना कि तुम जहां हो वहां से परमात्मा नहीं पाया जा सकता। सब जगह से सौ में से एक व्यक्ति परमात्मा को पाता है। तुम वह एक व्यक्ति बन जाओ। तुम जहां हो, वहीं से। निन्यानवे तो भटक जाते हैं, तुम उस निन्यानवे के भटकाव से बचना। तीसरी बात पता चलती है पलटू के वचनों से कि दो भाई और दोनों पलट गए। बा हर के धन की फिक्र छोड़ दी और भीतर का धन खोजने लगे-खोजने नहीं लगे, खो ज ही लिया। बाहर तो धन खोज कर भी कहां कौन खोज पाता है! बाहर धन है ही नहीं जो खो ज सको। बाहर तो धन का भुलावा है, छलावा है, छल है। मृग-मरीचिका है, दिखा ई पड़ता है। दूर क्षितिज दिखायी पड़ता है मिलता जमीन से; जैसे-जैसे पास पहुंचते हो, क्षितिज दूर हटता जाता है। कभी तुम ऐसी जगह नहीं पहुंच पाओगे जहां क्षिति ज वस्तुत: जमीन से मिलता हो। ऐसे ही कभी भी वासना तृप्ति से नहीं मिलती। वा क्षितिज की भांति है।  दोनों भाई बदल गए। बदलने के कारण गुरु ने दोनों को पलटू नाम दे दिया। एक भ को कहा पलटूप्रसाद और एक भाई को कहा पलटूदास। यह शब्द बड़ा प्यारा दिय गुरु ने : ' पलटू'! ईसाई जिसको कनवर्सन कहते हैं। पलट गए! जिसको वैज्ञानिक एक सौ अस्सी डिग्री का रूपांतरण कहते हैं। एकदम पलट गए। कहीं जाते थे और ठीक उलटे चल पड़े। ऐसे पलटे कि क्षण में पलट गए। देर-दार न की। सोच-विचार न किया। कहां बाजार में गादी लगा कर बैठे थे और कहां सूक्ष्म में गादी लगा दी। कहां तौलते थे-अनाज तौलते होंगे, साग-सब्जी तौलते होंगे, कुछ तौलते होगे-औ र कहां ' सत्त शब्द- से ढेरी ' से तौलने लगे! और कहां साधारण चीजें बेचते रहे होंगे -और तुरिया बेचने लगे; समाधि बेचने लगे! ऐसा रूपांतरण था कि गुरु ने कहा कि तुम बिस्कुल ही पलट गए! ऐसा मुश्किल से होता है। यह क्रांति थी।  नाम का अर्थ हुआ क्रांति। एक बड़ी अपूर्व क्रांति हुई। यह नाम भी बड़ा प्यारा है 'पलटू'। असली नाम का तो कुछ पता नहीं है। असली नाम यानी मां-बाप ने जो दिया

1 टिप्पणी:

  1. का ताको है ठाड़,
    बहुरि न मानुष होना…
    पास से जाता सोना!

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