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शनिवार, 2 दिसंबर 2017

09-पा लूं गा विस्‍तार आप सा ( कविता ) -स्वामी आनंद प्रसाद मनसा



09--पा लूं गा विस्‍तार आप सा ( कविता ) 


नभ तुन तो देखा होगा, अनन्‍त सृष्‍टियों  का संघ हार।
है धीर-दृष्‍टा तुझे कभी तो आता होगा इस  पर  प्‍यार।

तू कैसे इतना अडिग खड़ा,
थिरता का मंदिर सा बनकर।
मेरे दीपक की क्षणिक ज्‍योति,
कंप जाती है नित रह-रह कर।।
बुझने और मिटने से पहले,
अहसास चाहता विलीन लहर सा।
नहीं चाहता मैं रह जाऊं।
जब तक पूर्णता न पाऊँ।
क्‍या तू परितोषित कर देगा मुझको?
या तू भर देगा अपने से मुझको,
जो मिटा सकूँ मैं आपने अहं को
फैल सकूँ संपूर्ण जगत में
एक प्रीत प्‍यार की सरिता बन कर........
एक साध छलती, नहीं थमती।
सांस-सांस पर आकर कहती।
कैसे मैं तुझ सा हो जाऊँ
या तुझ में ही मैं खो जाऊँ।

गीता दर्शन--(भाग--6) प्रवचन--142



दो मार्ग: साकार और निराकार(प्रवचनदूसरा)

अध्‍याय—12
सूत्र—(141)

ये त्‍वक्षरमनिर्दश्यमव्‍यक्‍तं यर्युयासते।
सर्वत्रगमचिन्‍त्‍यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्।। 3।।
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबद्धय:।
ते प्राम्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:।। 4।।

और जो पुरूष इंद्रियों के समुदाय को अच्छी प्रकार वश में करके मन— बुद्धि से परे सर्वव्यायी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्‍य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानंदघन ब्रह्म को निरंतर एकीभाव से ध्यान करते हुए उपासते है, वे संपूर्ण भूतों के हित में रत हुए और सब में समान भाव वाले योगी भी मेरे को ही प्राप्त होते हैं।

 पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है कि भजन भी करते हैं, प्रभु का स्मरण भी करते हैं। लेकिन कोई इच्छा कभी पूरी नहीं होती!

गीता दर्शन--(भाग--6) प्रवचन--141


प्रेम का द्वार: भक्‍ति में प्रवेश(प्रवचनपहला)

अध्‍याय—12
(श्रीमद्भगवद्गली अथ द्वद्वशोऽध्याय)

      अर्जन उवाच:
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्‍त्वां ययुंपासते।
ये चाप्यक्षरमक्तं तेषां के यीगीवत्तमा: ।।। 1।।

श्रॉभगवानवाच:

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्‍ता उपासते।
श्रद्धया यरयौयेतास्ते मे युक्ततमा मता:।। 2।।

इस प्रकार भगवान के वचनों को सुनकर अर्जुन बोला है, कृष्ण, जो अनन्य प्रेमी भक्तजन हम पूर्वोक्त प्रकार से निरंतर आपके भजन व ध्यान में लगे हुए आप सगुणरूप परमेश्वर को अति श्रेष्ठ भाव से उपासते हैं और जो अविनाशी सच्चिदानंदघन निराकार को ही उपासते है, उन दोनों प्रकार के भक्तों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन है?
इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण भगवान बोले मेरे में मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन— ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रृद्धा  से युक्‍त हुए मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते है, वे मेरे को योगियों में भी अति उत्तम योगी मान्य हैं अर्थात उनको मैं अति श्रेष्ठ मानता हूं।

गीता—दर्शन—(भाग—6) (ओशो)



गीता—दर्शन—(भाग—6)

(ओशो)
अध्‍याय—(12—13)

(ओशो द्वारा श्रीमद्भगवदगीता के अध्‍याय बारह भक्‍तियोग एवं तेरह क्षेत्र—क्षेत्रक—विभाग—योग पर दिए गए तेईस अमृत प्रवचनों का अर्पूव संकलन।)

जो शब्‍द अर्जुन से कहे थे, उन पर तो बहुत धूल जम गयी है; उसे हमें रोज बुहारना पड़ता है। और जितनी पुरानी चीज हो, उतना ही श्रम करना पड़ता है, ताकि वह नयी बनी रहे। इसलिए समय का प्रवाह तो किसी को भी माफ नहीं करता, पर अगर हम हमेशा समय के करीब खींच लाएं पुराने शास्त्र को, तो शास्त्र पुन: — पुन: नया हो जाता है। उसमें फिर अर्थ जीवित हो उठते हैं, नये पत्ते लग जाते हैं, नये फूल खिलने लगते हैं।
गीता मरेगी नहीं, क्योंकि हम किसी एक कृष्ण से बंधे नहीं हैं। हमारी धारणा में कृष्ण कोई व्यक्ति नहीं हैं —सतत आवर्तित होने वाली चेतना की परम घटना हैं। इसलिए कृष्ण कह पाते हैं कि जब —जब होगा अंधेरा, होगी धर्म की ग्लानि, तब —तब मैं वापस आ जाऊंगा—सम्भवामि युगे युगे। हर युग में वापस आ जाऊंगा।

—ओशो

शुक्रवार, 1 दिसंबर 2017

गीता दर्शन--(भाग--5) प्रवचन--140

आंतरिक सौंदर्य(प्रवचनबारहवां)

अध्‍याय—11
सूत्र—(140)

श्रीभगवानुवाच:

गर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्यम।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाक्षिण:।। 52।।
नाहं वेदैर्न तयसा न दानेन न चेज्यया।
शक्य एवंविधो दृष्‍टुं दृष्टवानसि मां यथा।। 53।।
भक्त्‍या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोउर्जुन।
ज्ञातुं दृष्‍टुं च तत्वेन प्रवेष्‍टुं च परंतप।। 54।।
मत्कर्मकृन्मत्यरमो मइभक्त: संगवर्जित:।
निर्वैर: सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।। 55।।

इस प्रकार अर्जुन के वचन को सुनकर श्रीकृष्ण भगवान बोले हे अर्जुन मेरा यह चतुर्भुज रूप देखने को अति दुर्लभ है कि जिसको तुमने देखा है क्योंकि देवता भी सदा इस रूप के दर्शन करने की इच्छा वाले हैं।
और हे अर्जुन न वेदों से न तय से न दान से और न यह से हम प्रकार चतुर्भुज रूप वाला मैं देखा जाने को शक्य हूं कि जैसे मेरे को तुमने देखा है।

गीता दर्शन--(भाग--5) प्रवचन--139

मांग और प्रार्थना(प्रवचनग्‍यारहवां)

अध्‍याय—11
सूत्रL139)

मा ते व्‍यथा मा च विमूढभावो दृष्‍ट्वा रूपं घोरमीदृड्ममेदम्।
व्‍यपेतभी: प्रीतमना: पुनस्‍त्‍वं तदेव मे रूपमिद प्रयश्य।। 49।।

संजय उवाच:

ड़त्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्ला स्वकं रूयं दर्शयामास भूय:।
आश्वासयामास व भीतमेनं भूत्वा पुन: सौम्यवगुर्महात्मा।। 50।।

अर्जुन उवाच:

दृष्ट्रवेदं मानुष रूपं तव सौम्य जनार्दन।
हदानीमस्थि संवृत: सचेता: प्रकृतिं गत:।। 5।।

इस प्रकार के मेरे हस विकराल रूप को देखकर तेरे को व्याकुलता न होवे और मूलभाव भी न होवे और भयरहित प्रीतियुक्त मन वाला तू उस ही मेरे हम शंख चक्र गदा पद्य सहित चतुर्भुज रूप को फिर देख।
उसके उपरांत संजय बोला हे राजन— वासुदेव भगवान ने अर्जुन के प्रति इस प्रकार कहकर फिर वैसे ही अपने चतुर्भूज रूप को दिखाया और फिर महात्मा कृष्ण ने सौम्यमूर्ति होकर हम भयभीत हुए अर्जुन को धीरज दिया। उसके उपरांत अर्जुन बोला हे जनार्दन आपके हल अतिशांत मनुष्य रूप को देखकर अब मैं शांतचित्त हुआ अपने स्वभाव को प्राप्त हो गया हूं।

गीता दर्शन--(भाग--5) प्रवचन--138

मनुष्‍य बीज है परमात्‍मा का(प्रवचनदसवां)

अध्‍याय—11
सूत्र—(138)

            अदृष्‍टपूर्व हषितोउस्‍मि दष्टवा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।
तदेव मे दर्शय देवरूयं प्रसीद देवेश जगन्निवास।। 45।।
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रकुमहं तथैव।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहसबाहो भव विश्वमूर्ते।। 46।।

श्रीभगवानुवाच:

मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्।
तेजोमय विश्वमनन्तमाद्य यन्धे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्।। 47।।
न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न न क्रियाभिर्न तयोभिरुग्रै।
एवंरूक शक्य अहं नृलोके द्रझुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर।। 48।।

हे विश्वमूर्ते मैं पहले न देखे हुए आश्चर्यमय आपके इस रूप को देखकर हर्षित हो रहा हूं और मेरा मन भय से अति व्याकुल भी हो रहा है। हसलिए हे देव आय उस अपने चतुर्भुज रूप को ही मेरे लिए दिखाइए। हे देवेश हे जगन्निवास प्रसन्न होइए।
और हे विष्णो मैं वैसे ही आपको मुकुट धारण किए हुए तथा गदा और चक्र हाथ में लिए हुए देखना चाहता हूं। इसलिए हे विश्वरूप हे सहस्त्रबाहो आप उस ही चतुर्भुज रूप से युक्त होइए।
हस प्रकार अर्जुन की प्रार्थना को सुनकर श्रीकृष्ण भगवान बोले हे अर्जुन अनुग्रहपूर्वक मैने अपनी योगशक्ति के प्रभाव से यह मेरा परम तेजोमय सबका आदि और सीमारहित विराट रूप तेरे को दिखाया है जो कि तेरे सिवाय दूसरे से पहले नहीं देखा गया।

गीता दर्शन--(भाग--5) प्रवचन--137

चरणस्‍पर्श का विज्ञान(प्रवचननौवां)

अध्‍याय—11
सूत्र—(137)

      सखेति मत्वा प्रसभं क्ट्रूम्क्तंक हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्‍प्रणयेन वापि।। 41।।
यच्चावहासार्थमसरूतोउसि विहारशय्यासनभोजनेषु।
एकोउथवाध्यम्हत तत्समक्षं तकामये त्वामहमप्रमेयम्।। 42।
पितासि लोकस्य चराचरस्थ त्वमस्य यूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।
न त्वत्समोउस्लथ्यधिक: कुतोउन्यो लोकत्रयेउध्यप्रतिमप्रभाव।। 43।।
तस्माह्मणम्य प्रणिधाय काय प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्।
पितेव युत्रस्य सखेव सखु: प्रिय: प्रियायार्हसि देव सोहुम।। 44।।

हे परमेश्वर सखा ऐसे मानकर आपके इस प्रभाव को न जानते हुए मेरे द्वारा प्रेम से अथवा प्रमाद से भी हे कृष्ण हे यादव हे सखे इस प्रकार जो कुछ हठपूर्वक कहा गया है; और हे अच्‍युतू जो आप हंसी के लिए विहार शय्या आसन और भोजनादिको में अकेले अथवा उन सखाओं के सामने भी अपमानित किए गए हैं, वे सब अपराध अप्रमेयस्वरूय अर्थात अचिंत्य प्रभाव वाले आपसे मैं क्षमा कराता हूं।
हे विश्वेश्वर आप इस चराचर जगत के पिता और गुरु से भी बड़े गुरु एवं अति पूजनीय हैं। हे अतिशय प्रभाव वाले तीनों लोकों में आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है फिर अधिक कैसे होवे।

गीता दर्शन--(भाग--5) प्रवचन--136

बेशर्त स्‍वीकार(प्रवचनआठवां)

अध्‍याय—11
सूत्र—(136)

 सजय उवाच:

एतच्‍छुत्वा वचनं केशवस्थ कृताज्जलिर्वेयमान किरीटी।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीत प्रणम्य।। 35।।

अर्जुन उवाच:

स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्यहृष्यगुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघा।। 36।।
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोउध्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्यरं यत्।। 37।।
त्वमादिदेव: पुरूष पुराणस्‍त्‍वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तामि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप।। 38।।
वायुर्यमोउग्निर्वरुण: शशाड्क: प्रजापतिस्व प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेस्‍तु सहस्रकृत्व: गुनश्च भूयोउपि नमो नमस्ते।। 39।।
नम: पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोउख ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्वं सर्वं समाम्नोषि ततोउमि सर्व:।। 40।।

इसके उपरांत संजय बोला कि हे राजन— केशव भगवान के इस वचन को सुनकर मुकुटधारी अर्जुन हाथ जोड़े हुए, कांपता हुआ नमस्कार करके फिर भी भयभीत हुआ प्रणाम करके भगवान श्रीकृष्ण के प्रति गदगद वाणी से बोला— हे अंतर्यामिन् यह योग्य ही है कि जो आपके नाम और प्रभाव के कीर्तन से जगत अति हर्षित होता है और अनुराग को भी प्राप्त होता है तथा भयभीत हुए राक्षस लोग दिशाओं में भागते हैं और सब सिद्धगणों के समुदाय नमस्कार करते हैं।

गीता दर्शन--(भाग--5) प्रवचन--135

साधना के चार चरण—(प्रवचन—सांतवां)

अध्‍याय—11
सूत्र—(135)

श्रीभगवागुवाच:

कालोउस्थि लोकक्षयकृत्यवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्त:।
ऋतेउयि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येउवस्थिता प्राचनीकेषु ।। 32।।
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुड्क्ष्‍व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहता: पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।। 33।।
द्रोणं च भीष्म च जयद्रथ च कर्ण तथान्यानयि योधवीरान्।
मया हतांस्त्‍वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्।। 34।।

इस प्रकार अर्जुन के क्रहने पर श्रीकृष्ण भगवान बोले हे अर्जुन मैं लोकों का नाश करने वाला बडा हुआ महाकाल हूं। इस समय हन लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूं। इसलिए जो प्रतियक्षियों की सेना में स्थित हुए योद्धा लोग हैं वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे अर्थात तेरे युद्ध न करने मे भी सबका नाश हो जाएगा।
इससे तू खड़ा हो और यश को प्राप्त कर तथा शत्रुओं को जीतकर धनधान्य से संपन्‍न राज्य को भोग। और ये सब शूरवीर पहले से ही मेरे द्वारा मारे हुए हैं। हे सव्यसाचिन— तू तो केवल निमित्तमात्र ही हो जा।
तथा इन द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह तथा जयद्रथ और कर्ण तथा और भी बहुत— से मेरे द्वारा मारे हुए सूरवीर योद्धाओं को तू मार और भय मत कर निस्संदेह तू युद्ध में वैरियों को जीतेगा इसलिए युद्ध कर!