नभ तुन तो देखा होगा, अनन्त सृष्टियों
का संघ हार।
है धीर-दृष्टा तुझे कभी तो आता होगा
इस पर प्यार।
तू कैसे इतना अडिग खड़ा,
थिरता का मंदिर सा बनकर।
मेरे दीपक की क्षणिक ज्योति,
कंप जाती है नित रह-रह कर।।
बुझने और मिटने से पहले,
अहसास चाहता विलीन लहर सा।
नहीं चाहता मैं रह जाऊं।
जब तक पूर्णता न पाऊँ।
क्या तू परितोषित कर देगा मुझको?
या तू भर देगा अपने से मुझको,
जो मिटा सकूँ मैं आपने अहं को
फैल सकूँ संपूर्ण जगत में
एक प्रीत प्यार की सरिता बन कर........
एक साध छलती, नहीं थमती।
सांस-सांस पर आकर कहती।
कैसे मैं तुझ सा हो जाऊँ
या तुझ में ही मैं खो जाऊँ।