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शुक्रवार, 1 दिसंबर 2017

गीता दर्शन--(भाग--5) प्रवचन--136

बेशर्त स्‍वीकार(प्रवचनआठवां)

अध्‍याय—11
सूत्र—(136)

 सजय उवाच:

एतच्‍छुत्वा वचनं केशवस्थ कृताज्जलिर्वेयमान किरीटी।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीत प्रणम्य।। 35।।

अर्जुन उवाच:

स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्यहृष्यगुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघा।। 36।।
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोउध्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्यरं यत्।। 37।।
त्वमादिदेव: पुरूष पुराणस्‍त्‍वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तामि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप।। 38।।
वायुर्यमोउग्निर्वरुण: शशाड्क: प्रजापतिस्व प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेस्‍तु सहस्रकृत्व: गुनश्च भूयोउपि नमो नमस्ते।। 39।।
नम: पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोउख ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्वं सर्वं समाम्नोषि ततोउमि सर्व:।। 40।।

इसके उपरांत संजय बोला कि हे राजन— केशव भगवान के इस वचन को सुनकर मुकुटधारी अर्जुन हाथ जोड़े हुए, कांपता हुआ नमस्कार करके फिर भी भयभीत हुआ प्रणाम करके भगवान श्रीकृष्ण के प्रति गदगद वाणी से बोला— हे अंतर्यामिन् यह योग्य ही है कि जो आपके नाम और प्रभाव के कीर्तन से जगत अति हर्षित होता है और अनुराग को भी प्राप्त होता है तथा भयभीत हुए राक्षस लोग दिशाओं में भागते हैं और सब सिद्धगणों के समुदाय नमस्कार करते हैं।

हे महात्मन— ब्रह्मा के भी आदि कर्ता और सबसे बड़े आपके लिए वे कैसे नमस्कार नहीं करें क्योंकि हे अनंत हे देवेश हे जगन्निवास जो सत्र असत और उनसे परे अक्षर अर्थात सच्चिदानंदघन ब्रह्म है वह आय ही हैं। और हे प्रभो आप आदिदेव और सनातन पुरूष हैं। आप इस जगत के परम आश्रय और जानने वाले तथा जानने योग्य और परम धाम हैं। हे अनंतरूप, आपसे यह सब जगत व्याप्त अर्थात परिपूर्ण है।
और आप वायु यमराज अग्नि वरुण चंद्रमा तथा प्रजा के स्वामी ब्रह्मा और ब्रह्मा के भी पिता हैं। आपके लिए हजारों बार नमस्कार— नमस्कार होवे। आपके लिए फिर भी बारंबार नमस्कार होवे!
और हे अनंत सामर्थ्य वाले आपके लिए आगे से और पीछे से भी नमस्कार होवे। हे सर्वात्मनु आपके लिए सब ओर से नमस्कार होवे क्योंकि अनंत पराक्रमशाली आप सब संसार को व्याप्त किए हुए हैं, इससे आप ही सर्वरूप हैं।

 एक मित्र ने पूछा है:

 कि जीवन में छोटे — बड़े दुख के कारण कभी — कभी मन अशांत, निराश और बेचैन बन जाता है। तो संसार में ही रहकर मन सदा शांत, प्रसन्न और उत्साहित कैसे रखें?

 नियति की जो बात हम कर रहे हैं, उसे अगर ठीक से समझ लें, तो मन शांत हो जाएगा। और कोई भी उपाय मन को शांत करने का नहीं है। और सब उपाय ऊपरी—ऊपरी हैं, उनसे थोड़ी—बहुत राहत मिल सकती है, लेकिन मन शांत नहीं हो सकता।
लेकिन नियति की बात थोड़ी कठिन है, समझ में थोड़ी मुश्किल से पड़ती है। मन अशांत होता है, नियति का विचार कहेगा, उस अशांति को स्वीकार कर लें। उसके विपरीत शांत होने की कोशिश मत करें। मन उदास है, नियति का विचार कहेगा, उदासी को स्वीकार कर लें, प्रफुल्लित होने की चेष्टा न करें। क्योंकि असली अशांति अशांति के कारण नहीं, अशांति को दूर हटाने के विचार से पैदा होती है।
असली उदासी उदासी से नहीं, कैसे मैं प्रफुल्लित हो जाऊं, इस धारणा से, इस विचार, इस आकांक्षा से पैदा होती है। उदासी को स्वीकार कर लें, और आप पाएंगे शीघ्र ही कि उदासी विलीन हो गई है। उसकी स्वीकृति में ही उसका अंत है।
कैसे दुखी न हों, यह न पूछें। दुखी हैं, दुख को स्वीकार कर लें। वह भाग्य। वह नियति। वह है। उससे लड़े मत। उससे सब लड़ाई छोड़ दें। उसके पार जाने की आकांक्षा भी छोड़ दें। उससे विपरीत
की मांग भी छोड़ दें। उसे स्वीकार कर लें कि यह मेरी नियति, यह मेरा भाग्य। मैं दुखी हूं, बात यहां पूरी हो गई।
दुख से राजी हो जाएं और फिर देखें कि दुख कैसे टिक सकता है। अशांति को स्वीकार कर लें और आप शांत हो जाएंगे। हमारी अशांति अशांति नहीं है। हमारी अशांति शांति की चाह से पैदा होती है। इसलिए जो लोग शांति के लिए बहुत आकांक्षी हो जाते हैं, उनसे ज्यादा अशांत कोई भी नहीं होता।
मैं रोज न मालूम कितने लोगों को इस संबंध में इस उलझन में पड़ा हुआ देखता हूं। जिस दिन से आपको खयाल हो जाता है कि शांत कैसे हों, उस दिन से आपकी अशांति बढ़ेगी। क्योंकि अशांति तो है ही, अब एक नई अशांति भी शुरू हो गई कि शांत कैसे हों!
और अशांत आदमी कैसे शांत हो सकता है? और अशांत आदमी पूजा भी करेगा, तो उसकी अशांति ही होगी उसकी पूजा में प्रकट। और अशांत आदमी ध्यान भी करेगा, तो उसका ध्यान भी उसकी अशांति से ही निकलेगा। अशांत आदमी मंदिर भी जाएगा, तो अपनी बेचैनी को साथ ले जाएगा। अशांत गीता भी पड़ेगा, तो करेगा क्या? अशांति से अशांति ही निकल सकती है। इसलिए आप कुछ भी करें, करेगा कौन? वह जो अशांत है, वही कुछ करेगा।
ध्यान रहे, एक बहुत मनोवैज्ञानिक, आधारभूत नियम, कि अगर आप अशांत हैं, तो आप जो भी करेंगे, उससे अशांति बढ़ेगी। कौन करेगा? अशांत आदमी कुछ करेगा। वह और अशांति को दुगुनी कर लेगा, तीन गुनी कर लेगा।
ऐसा समझें कि एक आदमी पागल है और वह अब ठीक होने की कोशिश कर रहा है— खुद ही। वह क्या करेगा? वह थोड़ा ज्यादा पागल हो सकता है, और कुछ भी नहीं कर सकता। उसकी कोशिश भी पागलपन से ही निकलेगी। छोड़े, पागल से शायद हमारा मन राजी न हो।
एक लोभी आदमी है, वह लोभ छोड़ने की कोशिश कर रहा है। वह करेगा क्या? यह लोभ छोड़ने की कोशिश भी लोभ से ही निकलेगी। वह आदमी लोभी है। तो अगर कोई उसको विश्वास दिला दे कि अगर तू इतना दान करता है, तो स्वर्ग में तुझे भगवान के मकान के बिलकुल पास मकान मिल जाएगा। अगर यह पक्का हो जाए, तो वह दान कर सकता है। मगर यह दान लोभ से निकलेगा। स्वर्ग में जगह बिलकुल निश्चित हो जाए, यह लोभ! तो दान कर सकता है वह। मगर यह दान लोभ के विपरीत नहीं है, लोभ का हिस्सा है।
इसलिए जिनको आप दान करते देखते हैं, यह मत समझना कि वे लोभ से मुक्त हो गए हैं। सौ में निन्यानबे मौके पर तो यही हालत है कि यह उनका नया लोभ है। इस जमीन पर उनके लोभ का अंत नहीं हो रहा है, वह परलोक तक जा रहा है। वे यहां ही नहीं इंतजाम कर लेना चाहते हैं, मरने के बाद भी उनका लोभ फैल गया है। वे वहां भी इंतजाम कर लेना चाहते हैं।
लोभी आदमी क्या करेगा? जो भी करेगा, वह लोभ के कारण ही कर सकता है। क्रोधी आदमी क्या करेगा? वह जो भी करेगा, क्रोध के कारण कर सकता है।
आप जो हैं, उसके रहते, आप जो भी करेंगे, वह आपसे ही निकलेगा। और अगर नीम से पत्ता निकलेगा, तो वह कड़वा होगा। और आपसे जो पत्ता निकलेगा, वह आपका ही स्वाद वाला होगा। नियति का विचार यह कहता है कि आप कुछ करें मत। आप कर नहीं सकते कुछ, आप सिर्फ राजी हो जाएं। इसका प्रयोग करके देखें। अशांति आई है बहुत बार और आपने शांत होने की कोशिश की है और अब तक हो नहीं पाए हैं। इस दूसरे प्रयोग को करके देखें। अशांति आए, स्वीकार कर लें कि मैं अशांत हूं। मैं आदमी ऐसा हूं कि मुझे अशांति मिलेगी। मैंने ऐसा कर्म किया होगा कि मुझे अशांति मिल रही है। मेरी नियति में अशांति का ही पात्र हूं मैं, इसे स्वीकार कर लें। इस अशांति से रत्ती—मात्र संघर्ष न करें।
क्या होगा? जैसे ही आप स्वीकार करते हैं, अशांति तिरोहित होनी शुरू हो जाती है। क्योंकि स्वीकार का भाव ही उसकी मृत्यु बन जाता है। जिस दुख के लिए हम राजी हो गए, वह दुख कहां रहा? हम तो ऐसे लोग हैं कि सुख के लिए भी राजी नहीं हो पाते। दुख के लिए राजी होना तो बहुत मुश्किल है। लेकिन जिस बात के लिए हम राजी हो गए...।
अभी कुछ ही दिन पहले एक महिला मेरे पास आई। उसके पति मर गए हैं। स्वाभाविक है, दुखी हो। अभी युवा है, कोई तीस— बत्तीस साल की उम्र है। अभी शादी हुए ही दो—चार साल हुए थे। योग्य है। पढ़ी—लिखी है। सुशिक्षित है। किसी युनिवर्सिटी में प्रोफेसर है। तो समझदारी के कारण वह रोई भी नहीं। अपने को समझाया, रोका, संयम किया। लोगों ने बड़ी प्रशंसा की। जिन्होंने भी देखा उसके धैर्य को, दृढ़ता को, सभी ने प्रशंसा की। तीन महीने पति को मरे हो गए हैं। अब उसको हिस्टीरिक फिट आने शुरू हो गए हैं, अब उसको चक्कर आकर बेहोशी आ जाती है।
मैं सारी बात समझा। मैंने उससे कहा कि तू पति के मरने पर रोई नहीं, वही उपद्रव हो गया है। पति के होने का सुख तूने जाना, तो दुख कौन जानेगा? और पति के प्रेम में तू आनंदित थी, तो पति के। विरह में दुखी कोई और होगा? वह नियति का हिस्सा है। जिसके साथ हमने सुख पाया, उसके अभाव में दुख पाएगा कौन? तुझे ही पाना होगा। इसमें बंटवारा नहीं हो सकता कि सुख तो मैं पा लूं और दुख न पाऊं। वह तो चुन लिया तूने। जिस दिन पति के साथ रहकर। सुख पाया था, उसी दिन यह दुख भी निर्धारित हो गया। यह दुख कौन पाएगा? तू रो। छाती पीट।
उसने कहा, आप ऐसी सलाह देते हैं! मुझे तो जितने बुद्धिमान आदमी मिले, सब प्रशंसा करते हैं। मैंने कहा, वे ही तेरे हिस्टीरिया के जन्मदाता हैं, वे बुद्धिमान आदमी जो तुझे मिले! जब तू पति के पास सुखी हो रही थी, तब उन बुद्धिमानों ने तुझे नहीं कहा था कि सुखी मत हो। अगर तूने सुख रोक लिया होता उस वक्त, तो अभी दुख भी न होता। लेकिन एक कदम उठा लिया, दूसरा उठाना ही पड़ेगा। तू दुखी हो ले, नहीं तो तू पागल हो जाएगी।
वह मेरी बातें सुनते समय ही फूट पड़ी। उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। उसने रोना शुरू कर दिया। वह आई थी, तब एक पहाड़ का बोझ उसके मन पर था, लौटते वक्त वह हल्की हो गई थी। उसने मुझे कहा, तो मैं हृदय भरकर रो सकती हूं?
रोना ही चाहिए। हृदय भरकर रो ले। और लड़ मत। दुख आया है, उसे स्वीकार कर ले। और ठीक से दुखी हो ले, ताकि दुख निकल जाए।
उसकी अभी मुझे खबर मिली है कि वह हल्की हो गई है। फिट बंद हो गए हैं। उसने रो लिया; हृदय भरकर दुखी हो ली। उसने स्वीकार कर लिया, दुख मेरी नियति है।
जिस चीज को हम स्वीकार कर लेते हैं, उसके हम पार हो जाते हैं। अशांत हैं, अशांति को स्वीकार कर लें। लड़े मत। फिर देखें, क्या होता है। स्वीकृति क्रांतिकारी तत्व है। और जिस बात को हम स्वीकार कर लेते हैं, उससे छुटकारा उसी क्षण शुरू हो जाता है।
हमारा उपद्रव क्या है? सुख को हम पकड़ते हैं, दुख को हम पकड़ते नहीं। दुख से हम बचना चाहते हैं। सुख कहीं छूट न जाए, इस कोशिश में होते हैं। और हमें पता नहीं कि सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तो जब हम सुख को पकड़ते हैं, तब हमने।। दुख को पकड़ लिया, वह उसी का छिपा हुआ पहलू है। तो हम। उलटा काम कर रहे हैं; सुख को पकड़ना चाहते हैं, दुख को हटाना
चाहते हैं। यह नहीं होगा। या तो दोनों को छोड़ दें, या दोनों के लिए राजी हो जाएं। दोनों हालत में आपके जीवन में क्रांति हो जाएगी।
लेकिन सुख—दुख तो हमारी समझ में आ जाते हैं। जब कोई आ जाता है, कहता है, शांत—अशांति। तो लगता है, यह कोई दूसरी बात कर रहा है। बात वही है। वही के वही सिक्के हैं। नाम बदल गए हैं।
आप शांति चाहते हैं। आप शांति चाहते हैं, इसलिए आपको अशांत होना पड़ेगा। क्योंकि वह दूसरा हिस्सा कौन स्वीकार करेगा? आप शांति पा लेंगे, तो अशांति कौन पाएगा? आधा हिस्सा कहां जाएगा? और सिक्के के दो पहलू अलग नहीं किए जा सकते।
आप अशांति को भी राजी हो जाएं, अगर शांति चाहते हैं। तो दोनों को राजी हो जाएं। दोनों के लिए राजी होने में ही क्रांति घट जाती है। क्योंकि साधारणतया मन दोनों के लिए राजी नहीं होता, एक के लिए राजी होता है। मन की तरकीब यह है कि आधे को पकड़ो, आधे को छोड़ो। यही मन का द्वंद्व है, यही उसका कष्ट है।
जब आप दोनों के लिए राजी हो गए, आप मन के पार हो गए। या दोनों को छोड़ दें, या दोनों को पकड़ लें, दोनों एक ही बात है।
इसलिए जगत में दो उपाय हैं, दो विधियां हैं। परम अनुभूति के पाने की दो विधियां हैं। एक, दोनों को छोड़ दें— यह संन्यासी का मार्ग है। दोनों को पकड़ लें— यह गृहस्थ का मार्ग है। दोनों का परिणाम एक है। क्योंकि मन की तरकीब है, एक को पकड़ना और एक को छोड़ना। दोनों को छोड़े, तो भी मन छूट जाता है। दोनों को पकड़ लें, तो भी मन छूट जाता है। क्योंकि मन आधे के साथ जी सकता है।
ये दो उपाय हैं। या तो दोनों छोड़ दें— सुख भी, दुख भी; शांति भी, अशांति भी— फिर आपको कोई अशांत न कर सकेगा। या दोनों पकड़ लें। दोनों पकड़ना सहज—योग है। जहां हैं...।
इन मित्र ने यही पूछा है कि घर में, संसार में रहते हुए कैसे शांति पाऊं?
पहली बात, शांति पाने की कोशिश मत करें, अशांति को स्वीकार कर लें। आप शांत हो जाएंगे। फिर इस दुनिया में आपको कोई अशांत नहीं कर सकता।
अगर मैं अशांति के लिए राजी हूं तो मुझे कौन अशांत कर सकेगा? अगर मैं गाली के लिए राजी हूं तो कौन मेरा अपमान कर सकता है? मैं गाली के लिए राजी नहीं हूं इसलिए कोई मेरा अपमान कर सकता है। मैं अशांति के लिए राजी नहीं हूं इसलिए कोई भी अशांत कर सकेतों है। और जितना हम शांत होने की कोशिश करते हैं, उतने हम संवेदनशील हो जाते हैं।
आप देखें, अक्सर घरों में यह हो जाता है। घर में अगर एकाध धार्मिक आदमी भूल—चूक से पैदा हो जाए, तो घर भर में उपद्रव हो जाता है। क्योंकि वह प्रार्थना कर रहा है, तो कोई अशांति खड़ी नहीं कर सकता। बच्चे खेल नहीं सकते। कोई शोरगुल नहीं कर सकता। जरा कुछ खटपट हुई कि वह आदमी उपद्रव मचाएगा। वह बैठा है शांत होने को! बैठा है पूजा, प्रार्थना, ध्यान करने को!
लेकिन यह बड़ी अजीब बात है कि ध्यान करने वाला आदमी इतना परेशान क्यों होता है? गैर— ध्यान करने वाले इतने परेशान नहीं होते! यह ज्यादा आतुर होकर शांति को पकड़ने की कोशिश कर रहा है। जितनी आतुरता से शांति की मांग कर रहा है, उतनी अशांति बढ़ रही है। छोटा—सा बच्चा फिर हिल नहीं सकता। बर्तन गिर जाए, आवाज हो जाए, तो उपद्रव हो जाए। एक आदमी घर में धार्मिक हो जाए, पूरे घर को अशांत कर देगा।
क्या, कठिनाई क्या हो रही है? वह समझ ही नहीं पा रहा है कि वह मांग क्या कर रहा है! वह जो मांग रहा है, वह असंभव है। अगर हम ठीक से मन की प्रक्रिया को समझ लें, तो मन की प्रक्रिया को समझकर जीवन बदला जाता है। प्रक्रिया यह है कि मन हमेशा चीजों को दो में तोड़ लेता है—मान—अपमान, सुख—दुख, शांति—अशांति, संसार—मोक्ष—दो में तोड़ लेता है। और कहता है, एक नहीं चाहिए, अरुचिकर है, और एक चाहिए, रुचिकर है। बस, यह मन का खेल है।
इस मन से बचने के दो उपाय हैं। या तो दोनों के लिए राजी हो जाएं, मन मर जाएगा। या दोनों को छोड़ दें, तो भी मन मर जाएगा। जो आपके लिए अनुकूल मालूम पड़े, वैसा कर लें। अन्यथा आपके शांत होने का फिर कोई उपाय नहीं है।
जब तक आप शांत होना चाहते हैं, तब तक शांत न हो सकेंगे। जब तक आप सुखी होना चाहते हैं, दुख आपका भाग्य होगा। और जब तक आप मोक्ष के लिए पागल हैं, संसार आपकी परिक्रमा होगी। दोनों के लिए राजी हो जाएं। मांग ही छोड़ दें। कह दें, जो होता है, मैं राजी हूं।
लाओत्से ने कहा है, हवाएं पूरब की तरफ ले जाती हैं सूखे पत्ते को, तो पत्ता पूरब चला जाता है। और हवाएं बदल जाती हैं, पश्चिम की तरफ बहने लगती हैं, तो सूखा पत्ता पश्चिम की तरफ चला जाता है। हवाएं शांत हो जाती हैं, पत्ता जमीन पर गिर जाता है। हवाएं तूफान उठाती हैं, पत्ता आकाश में उठ जाता है। लाओत्से ने कहा है कि मैं उस दिन शांत हो गया, जिस दिन मैं सूखे पत्ते की तरह हो गया। मैंने जगत को कहा कि जहां तू ले जाए, हम राजी हैं सूखे पत्ते की तरह। दुख में ले जाओ, चलेंगे। नर्क में ले जाओ, चलेंगे।
अगर आप नर्क में जाने को राजी हैं, तो आपके लिए फिर नर्क हो ही नहीं सकता। फिर जहां भी आप हैं, वहां स्वर्ग है। और जो आदमी स्वर्ग के लिए दीवाना है, वह स्वर्ग में भी पहुंच जाए, तो नर्क में ही रहेगा।
मन की पकड़, वह जो आकांक्षा, जो वासना, यह चाहिए...। हम जब कहते हैं, मुझे यह चाहिए, तभी हम जगत के खिलाफ खड़े हो गए। और जब हम कहते हैं, जो मिल जाए..।
ऐसा समझें, दुखी आदमी का लक्षण है, वह कहता है, ऐसा हो, तो मैं सुखी होऊंगा। उसकी कंडीशन है। दुखी आदमी की शर्त है। वह कहता है, ये शर्तें पूरी हो जाएं, तो मैं सुखी हो जाऊंगा। सुखी आदमी बेशर्त है। वह कहता है, कुछ भी हो, मैं सुखी रहूंगा। मैं चाहता नहीं हूं कि ऐसा हो। जो भी होगा, उसको मैं चाहूंगा। इस फर्क को समझ लें।
एक तो है कि मैं चाहता हूं कि ऐसा हो, यह दुखी होने का उपाय है। एक यह कि जो हो जाए, वही मेरी चाह है। जो हो जाए, वही मैं चाहूंगा। अगर परमात्मा दुख दे रहा है, तो वही मेरी चाह है, वही मैंने मांगा है, वही मुझे मिला है, मैं राजी हूं।
इसका थोड़ा प्रयोग करके देखें, चौबीस घंटे, ज्यादा नहीं। लड़ने का प्रयोग तो आप हजारों जन्मों से कर रहे हैं। एक चौबीस घंटे तय कर लें कि आज सुबह छह बजे से कल सुबह छह बजे तक, जो भी होगा, उसको मैं स्वीकार कर लूंगा। जरा भी विरोध, द्वंद्व खड़ा नहीं करूंगा।
देखें, चौबीस घंटे में आपकी जिंदगी में एक नई हवा का प्रवेश हो जाएगा। जैसे कोई झरोखा अचानक खुल गया और ताजी हवा आपकी जिंदगी में आनी शुरू हो गई। फिर ये चौबीस घंटे कभी खतम न होंगे। एक दफा इसका अनुभव हो जाए, फिर आप इसमें गहरे उतरने लगेंगे।
कोई विधि नहीं है शांत होने की, शांत होना जीवन—दृष्टि है। कोई मेथड नहीं होता कि राम— राम, राम—राम जप लिया और शांत हो गए। नहीं होंगे आप शांत। राम—राम भी आपकी अशांति ही होगी। वह भी आप अशांत मन से ही जपते रहेंगे। वह भी आपकी बेचैनी और बुखार का सबूत होगा, और कुछ भी नहीं।
शांत हो जाएं। कैसे? अशांति को स्वीकार कर लें। दुख को स्वीकार कर लें। मृत्यु को स्वीकार कर लें, फिर आपकी कोई मृत्यु नहीं है। जिसे हम स्वीकार कर लेते हैं, उसके हम पार हो जाते हैं।

 एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि आप कहते हैं कि मनुष्य यदि भविष्य का निर्माण करने की कोशिश करे, तो विक्षिप्त हो जाता है; और अगर नियति को स्वीकार कर ले, तो शांत हो जाता है। सवाल यह उठता है कि क्या इन दोनों के बीच कोई मध्य मार्ग, कोई समझौता, कोई कंप्रोमाइज नहीं है? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आदमी अपने भविष्य निर्माण करने की यथाशक्य चेष्टा करे, फिर परिणाम नियति के ऊपर छोड़ दे? ऐसा ही हो, ऐसा दुराग्रह न रखे। तब भविष्य भी थोड़ा—बहुत निर्माण होगा और व्यक्ति विक्षिप्त भी नहीं होगा।

 ही मन हमेशा बांटता है। जो मन कह रहा है कि भविष्य निर्माण करने की चेष्टा करो, वह मन राजी नहीं होगा कोई भी परिणाम आए उसके लिए। और जो मन किसी भी परिणाम के लिए राजी हो सकता है, वह भविष्य निर्माण की चेष्टा के लिए व्याकुल नहीं होगा।
जब आप सोचते हैं कि मैं भविष्य का निर्माण कर सकता हूं तभी आप कर्ता हो गए। फिर परिणाम कोई भी आएगा, तो कैसे राजी होंगे? फिर परिणाम अगर अनुकूल न आएगा, तो आपको यह विचार उठेगा कि मैं ठीक से नहीं कर पाया; जैसा करना था, वैसा नहीं कर पाया; जो होना था, वह नहीं हुआ; या दुनिया मेरे विपरीत है, या शत्रु मेरे पीछे पड़े हैं। आप फिर स्वीकार न कर पाएंगे परिणाम को सहजता से।
चेष्टा जो आपने की है पाने की कुछ, उस चेष्टा में ही छिपा है वह तत्व, जो आपको परिणाम स्वीकार नहीं करने देगा। और अगर आप परिणाम स्वीकार करने की क्षमता रखते हैं, तो चेष्टा भी आप क्यों करेंगे? परमात्मा जो करवा रहा है, उसके लिए राजी हो जाएंगे।
नहीं; कोई समझौता नहीं है। जगत में सत्य के साथ कोई समझौता नहीं होता। सब समझौते झूठे होते हैं। हमारी मन की तरकीबें होती हैं। हमारा मन यह कहता है कि दोनों हाथ लड्डू! यह समझौते का मतलब यह है।
इसका मतलब यह है कि भाग्य के ऊपर छोड़ दें, तो शांत हो सकते हैं। शांत भी हमें होना है। अगर भाग्य के ऊपर छोड़ दें, तो भविष्य निर्माण करना हमारे हाथ में नहीं रह जाता। निर्माण भी हमें करना है। वह मजा भी लेना है निर्माण करने का। और शांत होने का मजा भी लेना है। तो हम कहते हैं, तरकीब निकाली जा सकती है। कर्म अपने हाथ में रखें और परिणाम जब होगा, तब कह देंगे कि ठीक, प्रभु की जो मर्जी!
आधे में आप होंगे, आधे में प्रभु? या तो पूरे में प्रभु होगा या पूरे में आप। यह आधा— आधा नहीं चल सकता। यह दो नावों पर सवार होकर चलने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि दोनों नावें बिलकुल विपरीत दिशा में जा रही हैं। इनमें बुरी तरह फंसेंगे, और त्रिशंकु हो जाएंगे। एक टांग एक नाव पर, दूसरी टांग दूसरी नाव पर; और दोनों विपरीत जा रही हैं! क्योंकि एक नियति का विचार कहता है, सब उसका है। इसलिए मेरे हाथ में कोई उपाय नहीं है। जो वह करवाएगा, मैं करूंगा। जो वह देगा, मैं ले लूंगा। जो नहीं देगा, नहीं देगा। वही है सब। करने वाला भी वही, पाने वाला भी वही, देने वाला भी वही। तब आप शांत हो पाएंगे।
आप सोचते हैं कि नहीं, थोड़ी दूर तक अपनी कोशिश भी कर लें। कुछ अपने करने से मिल जाए, वह भी ले लें। और न मिले तो शांति भी ग्रहण कर लें, क्योंकि उसकी मर्जी! ये दोनों बातें नहीं हो सकतीं। वह कुछ करने की जो वृत्ति है, वही अशांति ले आएगी। समझौता नहीं हो सकता।
वे मित्र कहते हैं कि यथाशक्य चेष्टा करने से कुछ तो निर्माण होगा और विक्षिप्तता से भी बच जाएंगे!
नहीं, जिस मात्रा में निर्माण होगा, उसी मात्रा में विक्षिप्त भी हो जाएंगे। वही मात्रा होगी। कुछ निर्माण होगा, कुछ विक्षिप्त भी होंगे। हम कर क्या लेंगे? क्या, कर क्या पाते हैं? हम से पहले जमीन पर कितने लोग रहे हैं! अरबों—खरबों लोग रहे हैं। जिस जगह आप बैठे हैं, वैज्ञानिक कहते हैं, उस जगह— हर आदमी जहां खड़ा हो सकता है, उतनी जगह में— कम से कम दस आदमियों की कब्र बन चुकी है। जहां आप बैठे हैं, वहां दस आदमी गड़े हुए हैं। जमीन पर एक इंच जमीन नहीं है, जहां कब नहीं बन चुकी है। सब मिट्टी शरीरों में घूम चुकी है। सब मिट्टी देह बन चुकी है।
उन शरीरों ने भी न मालूम क्या—क्या करने के इरादे किए थे! उन सबके करने के इरादे का क्या परिणाम है? और क्या अर्थ है आज? उनका किया हुआ वैसा ही मिट जाता है, जैसे बच्चे रेत पर घर बनाते हैं। और बना भी नहीं पाते और मिट जाता है। थोड़ी देर लगती है हमारे घरों के मिटने में। थोड़ा समय लगता है, इससे भ्रम पैदा होता है। लेकिन सब मिट जाता है।
क्या कर लेंगे आप? क्या बना लेंगे? बन भी जाएगा, तो क्या होगा? वह जो नियति का विचार है, वह यह कहता है, आदमी कर भी ले, तो क्या होगा? करने में अपनी शक्ति, अपना समय, अपना जीवन, अपना अवसर खो देगा।
इसका यह मतलब नहीं है कि आदमी कुछ भी न करे। आदमी कुछ किए बिना नहीं रह सकता, कुछ करेगा। लेकिन स्वयं को कर्ता मानकर न करे। छोड़ दे उस पर। वह जो करवाए, कर ले। फिर वह जो दे दे, ले ले।
जब हम छोड़ेंगे कर्म उस पर, तभी फल भी उस पर छूटेगा। कर्म रखेंगे अपने हाथ में, फल छोड़ेंगे उसके ऊपर! यह बेईमानी शुरू हो गई। हमने ईश्वर को भी धोखा देना शुरू कर दिया। इसका यह मतलब नहीं कि आपसे कर्म छीन लिया जाता है। सिर्फ कर्ता छीना जा रहा है, कर्म नहीं छीना जा रहा है।
और मजा तो यह है कि जिसका कर्ता शांत हो जाता है, वह इतने कर्म कर पाता है, जितने आप कभी भी न कर पाएंगे। क्योंकि आपको कर्ता को भी ढोना पड़ता है। उसके पास सिर्फ कर्म रह जाते हैं। वह शुद्ध उसकी ऊर्जा कर्म बन जाती है। आपको तो अहंकार, और कर्ता, और मैं, इसको काफी ढोना पड़ता है। ज्यादा शक्ति तो इसी में व्यय होती है। कर्म तो आपसे होगा। लेकिन आप उसके करने वाले नहीं होंगे।
नदियां बह रही हैं। अगर किसी नदी को यह खयाल आ जाए कि मुझे तो फलां जगह जाकर सागर में गिरना है, वह नदी पागल हो जाएगी। नदियां बह रही हैं, कहीं कोई फिक्र नहीं है कि कहां गिरे, पूर्व में गिरे कि पश्चिम में; कि अरब की खाड़ी में गिरे कि बंगाल की खाड़ी में; कहां गिरे, हिंद महासागर में कि पैसिफिक में, नदी को कोई चिंता नहीं है। नदी बही जा रही है अपने स्वभाव से। पहाड़ आएंगे, काटेगी। रास्तों में अड़चनें होंगी, किनारा काटकर गुजरेगी। और एक दिन सागर में गिर जाएगी। नदी बेचैन नहीं है। लंबी यात्रा है, लेकिन कोई बेचैनी नहीं है।
जो व्यक्ति सब कुछ परमात्मा पर छोड़ देता है, वह भी ऐसे ही यात्रा करता है। कर्म तो बहुत होता है उससे, लेकिन कर्ता नहीं होता। फिर सागर जहां उसे गिरा लेता है, वहीं गिरने को राजी हो जाता है। उसका कोई आग्रह नहीं होता। आग्रह हो, तो ही चेष्टा हो सकती है। आग्रह न हो, तो चेष्टा नहीं होती; कर्म होता है, कर्तारहित होता है। प्रयास, धक्का, जबरदस्ती नहीं होती।
पर हमारा मन ऐसा है कि हमारे पास दो ही तरह के उपाय हैं, आमतौर से। एक रास्ता, आपने रास्ते पर देखा हो, एक आदमी जानवरों को हकेलकर ले जाता है, तो पीछे से डंडा मारता है। एक रास्ता यह है कि कोई पीछे से हमें धक्का दिए जाए, तो हम चलते हैं। एक रास्ता यह है कि अगर होशियार हो कोई, तो आगे घास का एक गट्ठर लेकर चलने लगे, तो भी जानवर उसके पीछे चलता है, क्योंकि आगे आशा दिखाई पड़ती है कि वह घास मिलने वाला है।
तो या तो भविष्य में परिणाम की आशा हो, या परिस्थिति में जबरदस्ती का धक्का हो, इन दो से हम चलते हैं। कर्ता के चलने का यही उपाय है। तो आपको अगर आशा न हो परिणाम की, तो फिर कर्म करने का मन नहीं होता। अब अगर घास का गट्ठर न दिखता हो, तो फिर क्यों चलें? फिर चलने की कोई जरूरत नहीं है। और या फिर पीछे पत्नी, बच्चे, परिस्थिति धक्का न दे रही हो कि करो, तो भी चलने का नहीं लगता, कि क्या सार? किसके लिए चलें?
लोगों को बच्चे पैदा हो जाते हैं, तो बहुत दौड़— धूप करते हैं, क्योंकि बच्चों के लिए जी रहे हैं। उनको पता नहीं कि बच्चे धक्के दे रहे हैं पीछे से! कि चलो, अब रुक नहीं सकते। अब उनको लगता है कि जीने में कोई कारण आ गया। अब यह करना है। अब कर्तव्य है।
ये दो उपाय हमें साधारणत: दिखाई पड़ते हैं। अहंकार पशु है, वह पशु की भाषा समझता है।
एक और, अहंकार से ऊपर, जीने का उपाय है। वह आत्मिक जीवन है। वहां न आगे परिणाम का कोई सवाल है, न पीछे किसी धक्के का कोई सवाल है। आप जीवित हैं। जीवित होना..। जैसे फूल खिला है, उससे सुगंध गिर रही है। इसलिए नहीं कि कोई रास्ते से गुजरेगा, उसके लिए, कि कोई बहुत बड़े सुगंध के पारखी आ रहे हैं, उनके लिए। रास्ते से कोई न भी गुजरे, तो फूल की सुगंध गिरती रहेगी। क्योंकि फूल का अर्थ ही सुगंध का होना है।
जीवन का अर्थ कर्म है। न पीछे कोई आकांक्षा है, न आगे कोई सवाल है। आप जीवित हैं। जीवित होने का अर्थ कर्म है। इस कर्म का होना आगे—पीछे से नहीं आ रहा है, भीतर से आ रहा है। भीतर से जब आता है, तो परमात्मा से आता है। पीछे से जब आता है, तब संसार के धक्के से आता है। आगे से जब आता है, तब मन की वासना, इच्छा से आता है। जब भीतर से आता है, सहज, अभी और यहीं, जैसे नदी बह रही है, फूल खिल रहा है और सुगंध बरस रही है, ठीक ऐसे जब आपके भीतर से आने लगता है.......।
नियति का अर्थ है, जीवन को इस क्षण में भीतर से जीने का उपाय। अपने को छोड्कर परमात्मा की जो अनंतता अभी मौजूद है, उस अनंतता में अभी खिल जाने की व्यवस्था। अभी, यहीं। आगे— पीछे का कोई सवाल नहीं है।
बहुत कर्म घटित होता है ऐसे आदमी से, लेकिन कर्म का बोझ नहीं होता ऐसे आदमी पर। ऐसा आदमी बहुत करता है, लेकिन कभी भी, मैं कर रहा हूं ऐसी अस्मिता इकट्ठी नहीं होती। ऐसा आदमी जानता है, प्रभु ने जो करवाया, वह करवाया। जो नहीं करवाया, वह नहीं करवाया। जो उसकी मर्जी, यह उसका आखिरी भाव बना रहता है।
समझौता नहीं है। सत्य के जगत में कभी कोई समझौता नहीं है। मन के जगत में सब समझौता है। मन हमेशा कोशिश करता है, सबको सम्हाल लो। और एक के साधने से सब सध जाता है। और सबको साधने से एक भी नहीं सध पाता है।
एक प्रश्न और, और फिर मैं सूत्र लूं। उस प्रश्न को मैं रोके हुए हूं इतने दिन से वह रोज पूछा जाता है। तो मैंने सोचा था, जिस दिन नहीं पूछेंगे, उस दिन जवाब दे दूंगा। आज नहीं पूछा है।

 एक सज्जन रोज ही पूछे चले जाते हैं कि क्या आप भगवान हैं? इसका साफ—साफ उत्तर दें।

 मेरे लिए भगवान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। तो अगर कोई कहे कि मैं भगवान नहीं हूं तो वह असत्य बोल रहा है, मेरे लिए। मैं भगवान हूं उतना ही जितने आप भगवान हैं। भगवान के होने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। आपको पता हो या न पता हो।

तो वे मित्र रोज लिखकर पूछे चले जाते हैं कि क्या आप भगवान हैं? अगर आप नहीं हैं, तो आप जाहिर करें। अपने शिष्यों को समझा दें कि वे आपको भगवान न कहें।

 न्होंने नाम नहीं लिखा है, नहीं तो मैं अपने शिष्यों को कहूं कि उनको भी भगवान कहें। मेरी कोशिश यह है कि आपकी समझ में आ जाए कि आप भगवान हैं। उनकी कोशिश यह है कि मेरी समझ में डाल दें कि मैं भगवान नहीं हूं!
सारी चेष्टा धर्म की यह है कि आपको खयाल में आ जाए कि आप भगवान हैं। और जब तक यह खयाल न आ जाए, तब तक जीवन परेशानी होगी, दुख होगा, पीड़ा होगी। इससे कम में काम नहीं चलेगा। इससे कम में कोई तृप्ति भी नहीं है। इसके पहले कोई मंजिल भी नहीं है। इसके पहले उपद्रव ही है। यही है मुकाम।
लेकिन हमें तकलीफ होती है। हमें तकलीफ होती है। तकलीफ क्या होती है? क्योंकि हमने भगवान की कुछ धारणा बना रखी हैं।

 वे मित्र बार—बार लिखते हैं कि भगवान ने तो सृष्टि बनाई, आपने सृष्टि बनाई?

 स्वभावतः, भगवान की हमारी धारणा है, जिसने सृष्टि बनाई। लेकिन हमारी यह कल्पना में भी नहीं है कि सृष्टि भी भगवान अपने भीतर, अपने में से ही बनाएगा। और उसके बाहर तो कुछ लाने को है नहीं। भगवान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, कोई मैटीरियल भी नहीं है, जिससे वह सृष्टि बना ले। अगर वह सृष्टि भी बनाएगा, तो वह वैसे ही, जैसे मकड़ी अपने ही भीतर से जाला बुनती है। वह मकड़ी का उतना ही हिस्सा है।
सृष्टि भगवान से कुछ अलग नहीं है। क्योंकि उससे अलग कुछ है नहीं, जिसको वह बना दे, और जिसके आधार पर सृष्टि खड़ी कर दे। सृष्टि उसके ही भीतर से फैलाव है। तो सृष्टि स्रष्टा का हिस्सा है। और एक पत्थर भी जो रास्ते के किनारे पड़ा है, वह उतना ही भगवान है, जितना बनाने वाला भगवान हो। जो बनाया गया है, वह भी भगवान है। जो बनाने वाला है, वह भी भगवान है। और यह बनाने वाला, और बनाया गया का जो शब्द है हमारा, यह हमारी भाषा की भूल है।
इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि भगवान को कभी कुम्हार की तरह मत सोचना कि वह घड़े को बना रहा है। क्योंकि कुम्हार मर जाए, तो भी घड़ा रहेगा। घड़ा तो कुम्हार से अलग हो गया। कुम्हार के मरने से घड़ा नहीं मर जाएगा। लेकिन अगर भगवान न हो, तो यह जगत इसी क्षण विलीन हो जाएगा। इसलिए घड़ा और कुम्हार की बात ठीक नहीं है। यहां बनाने वाला, जो बनाया है, उसमें समाया हुआ है, अलग नहीं है।
इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि भगवान है नर्तक की तरह, नटराज। एक नाच रहा है आदमी। तो नृत्य है और नृत्यकार है। लेकिन अलग—अलग नहीं। अगर नृत्यकार चला जाए, तो नर्तन बचेगा नहीं पीछे; वह भी उसी के साथ चला जाएगा। आप नृत्य को अलग नहीं कर सकते नृत्यकार से।
इसलिए हमने परमात्मा की नटराज की मूर्ति बनाई है। वह बहुत अर्थ की है। कुम्हार और घड़े वाली बात तो बचकानी है, और जिनके पास बुद्धि कम है, उनके काम की है। नटराज का अर्थ यह है कि यह जो नृत्य है विराट, यह उससे अलग नहीं है। यह सारा का सारा नृत्य नृत्यकार ही है, नर्तक ही है।
तो मैं आपसे कहता हूं कि इस सृष्टि को बनाने में मेरा उतना ही हाथ है, जितना आपका, जितना एक पक्षी का, जितना एक पौधे का, जितना राम का, कृष्ण का, बुद्ध का। हम इस विराट के उतने ही हिस्से हैं, जितना कोई और।
आप स्रष्टा भी हैं, सृष्टि भी। आप नर्तक भी हैं, नृत्य भी। और जब तक आप समझते हैं कि आप सिर्फ नृत्य हैं, नर्तक नहीं, तब तक आप भूल में हैं। क्योंकि नृत्य हो ही नहीं सकता नर्तक के बिना। सृष्टि हो ही नहीं सकती स्रष्टा के बिना, अगर स्रष्टा उसके भीतर मौजूद नहीं है। वह आपके भीतर भी मौजूद है। आपको उसकी खबर नहीं है, इसलिए परेशान हैं।

      वे मित्र पूछते हैं कि राम को हम भगवान कहते हैं, कृष्ण को हम भगवान कहते हैं, बुद्ध को, महावीर को कहते हैं। लेकिन उन्होंने खुद अपने को भगवान नहीं कहा। और यहां ऐसा मालूम पड़ता है कि आप लोगों से अपने को भगवान कहला रहे हैं!

 न्हें कुछ पता नहीं है। कृष्ण तो बहुत स्पष्ट अर्जुन से कहते हैं, सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं वज— सब छोड़ और मेरी शरण में आ। कृष्‍ण तो कहते हैं, मैं ही परात्पर ब्रह्म हूं। बुद्ध ने तो कहा है, मैंने वह पा लिया, जो अंतिम है। अब मैं मनुष्य नहीं, अब मैं बुद्ध हो गया हूं। महावीर ने तो कहा है, आत्मा जब शुद्ध हो जाती है, तो उसी का नाम परमात्मा है। और मैं परिपूर्ण शुद्ध हो गया हूं।
इन मित्र का खयाल ऐसा है कि महावीर, बुद्ध, कृष्‍ण के अनुयायियों ने उनको भगवान कह दिया। उन्होंने नहीं कहा। अगर वे थे, तो कहने में डर क्या है? और अगर वे नहीं थे या कहने में कुछ संकोच करते थे, तो अनुयायियों के कहने से भी नहीं हो जाएंगे। सीधी घोषणा है उनकी। और उन्होंने यही नहीं कहा कि वे भगवान हैं, उन्होंने समझाने की कोशिश की है कि आप भी भगवान हैं। और जिसको इतना भी बल न हो कहने का कि मैं भगवान हूं वह आपसे क्या कहेगा कि आप भगवान हैं! जिसको अपने पर इतना भरोसा न हो कि कह सके, वह आपसे क्या कहेगा कि आप भगवान हैं!

 उन मित्र ने एक बात और पूछी है कि कृष्ण भगवान थे, तो उन्होंने अर्जुन को तो विराट का दर्शन कराया। आप करवा सकते हैं?

मैं वायदा करता हूं मैं करवा सकता हूं। लेकिन अर्जुन होने की तैयारी चाहिए। हम कभी सोचते नहीं, हम क्या पूछ रहे हैं!
मेरी तरफ से वायदा पक्का है। जिसको भी विराट के दर्शन करने हों, मैं करवाऊंगा। लेकिन आने के पहले छाती पर हाथ रखकर इतना भर सोच लेना कि अर्जुन जैसी तैयारी है? फिर कोई बाधा नहीं है। फिर मेरे बिना भी दर्शन हो सकता है। कोई मेरी जरूरत नहीं है। आपकी अर्जुन जैसी तैयारी हो, तो परमात्मा आपको कहीं भी उपलब्ध हो जाएगा। वह अर्जुन की तैयारी जब होती है, तो वह सब जगह उपलब्ध है। और जब अर्जुन की तैयारी नहीं होती, तब वह आपके सामने भी खड़ा हो, तो आप यही पूछते रहेंगे, आप भगवान हैं?
जीवन को सदा इस दृष्टि से सोचें और सदा इस दृष्टि से पूछें कि उस पूछने से आपके लिए क्या हो सकेगा? मैं भगवान हूं या नहीं हूं इससे आपको क्या हो सकेगा? इससे क्या परिणाम होगा? आपकी जिंदगी कैसे इससे बदलेगी? सदा अगर कोई इतना खयाल रख सके, तो उसकी जिज्ञासा सार्थक, अर्थपूर्ण हो जाती है, उपयोगी हो जाती है।
अकारण कुछ मत पूछते रहें। इतना तो खयाल निश्चित ही रखें कि इसके उत्तर से आपको क्या होगा? आप इस उत्तर का क्या उपयोग करेंगे? यह आपकी जिंदगी को कहां से बदलेगा? आपकी जिंदगी के लिए किस तरह औषधि बन सकेगा? वही प्रश्न पूछें, जो आपके लिए औषधि बन जाए। अन्यथा प्रश्नों का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए मैं इस प्रश्न को टाल रहा था इतने दिन तक, और सोच रखा था, जिस दिन नहीं पूछेंगे मित्र, उस दिन जवाब दे दूंगा। क्यों ऐसा सोच रखा था कि नहीं पूछेंगे उस दिन जवाब दूंगा? इसीलिए कि शायद इतने दिन सुनकर बुद्धि थोड़ी आ जाए और न पूछें। और इतनी भी बुद्धि न आए, तो फिर उत्तर भी समझ में नहीं आएगा। इसलिए रुक गया था।
आज उन्होंने नहीं पूछा है, मान लेता हूं—डर तो यह है कि शायद वे न भी आए हों— लेकिन मान लेता हूं कि उन्हें थोड़ी समझ आई होगी कि इन बातों के पूछने का कोई भी अर्थ नहीं है।
कौन भगवान है, कौन नहीं है, इससे क्या लेना—देना! एक बात का पता लगाइए कि आप भगवान हैं या नहीं हैं। बस, उसकी फिक्र में लग जाइए।
और जिस दिन आपको पता चल जाए कि आप भगवान हैं, उस दिन डरिए मत, छिपाइए मत, खबर करिए। हो सकता है, आपकी खबर से किसी के कान में भनक पड़ जाए और उसे भी खयाल आने लगे कि अगर यह आदमी भगवान हो सकता है, तो मुझमें ऐसी क्या अड़चन है? मैं भी थोड़ी चेष्टा करूं। शायद आपके गीत को सुनकर किसी और को भी गीत गाने का खयाल आ जाए। शायद कोई और भी गुनगुनाने लगे। शायद आपको नाचता देखकर किसी के पैरों में थिरकन आ जाए, शायद कोई और भी नाचने लगे।
अब हम सूत्र को लें।
इसके उपरांत संजय बोला कि हे राजन्! केशव भगवान के इस वचन को सुनकर मुकुटधारी अर्जुन हाथ जोड़े हुए, कांपता हुआ, नमस्कार करके, फिर भी भयभीत हुआ प्रणाम करके, भगवान कृष्‍ण के प्रति गदगद वाणी से बोला।
कंप रहा है अर्जुन। जो देखा है, उससे उसका रोआं—रोआं कैप गया है। भविष्य की झलक बड़ी खतरनाक हो सकती है। शायद इसीलिए प्रकृति हमें भविष्य के प्रति अंधा बनाती है। नहीं तो जीना बहुत मुश्किल हो जाए।
आप देखते हैं, तांगे में जुता हुआ घोडा चलता है, उसकी आंखों पर दोनों तरफ से पट्टी लगी होती है। अगर वह पट्टी न लगी हो, तो घोड़ा सीधा नहीं चल पाता। वह पट्टी खुली हो, तो दोनों तरफ उसे दिखाई पड़ता है। उसकी वजह से अड़चन खड़ी होती है। फिर वह सीधा नहीं चल पाता। तो दोनों तरफ से उसकी आंखें हम अंधी कर देते हैं। बस, सिर्फ वह आगे देख पाता है दो कदम। बस, एक सीधी रेखा में चलता रहता है।
ठीक हम भी अंधे आदमी हैं। हमें भविष्य दिखाई नहीं पड़ता। भविष्य दिखाई पड़े, तो हम बड़ी मुश्किल में पड़ जाएं। आप किसी स्त्री को प्रेम कर रहे हैं और उससे कह रहे हैं कि तेरे बिना मैं जी न सकूंगा। और आपको दिखाई भी पड़ रहा हो कि दो दिन बाद यह मर जाएगी—न केवल मैं जीऊंगा, दूसरी शादी भी करूंगा। अगर यह भी आपको दिखाई पड़ रहा हो, तो किस मुंह से कह सकिएगा कि तेरे बिना जी न सकूंगा? मुश्किल हो जाएगा। जब दिख रहा हो कि दो दिन बाद यह स्त्री मरेगी और मैं जीऊंगा। और न केवल जीऊंगा, कोई और स्त्री से शादी करूंगा। और उस स्त्री से भी मैं यही कहूंगा कि तेरे बिना कभी न जी सकूंगा।
आपको भविष्य दिखता नहीं है। बच्चा पैदा हो और उसको उसका पूरा भविष्य दिख जाए, कैसी मुश्किल हो जाए! जीना बिलकुल असंभव हो जाए। एक—एक कदम चलना मुश्किल हो जाए। आपको पता नहीं है, इसलिए अंधे की तरह शान से चले जाते हैं। क्या कर रहे हैं, कोई फिक्र नहीं है। क्या हो रहा है, कोई फिक्र नहीं है। क्या परिणाम होगा, कोई फिक्र नहीं है।
अतीत भूलता चला जाता है, भविष्य दिखाई नहीं पड़ता, इसलिए आप जी पाते हैं। अतीत भूले न, भविष्य दिखाई पड़ने लगे, आप यहीं ठप्प हो जाएं। इंचभर हिलने का उपाय न रह जाए। आपको दिखाई पड़ जाए कि आप मरने वाले हैं, चाहे सत्तर साल बाद सही; साफ दिखाई पड़ जाए कि फलां तिथि को मरने वाले हैं, सत्तर साल बाद। लेकिन ये बीच के सत्तर साल बेकार हो गए। अब आप जी न सकेंगे। अब आप किस इरादे से मकान बनाएंगे? किसी और के रहने के लिए? किस इरादे से बैंक में धन इकट्ठा करेंगे? किसी और के भोग के लिए? किस इरादे से लड़ेंगे किसी से?
अब कोई इरादा नहीं रह जाएगा। मौत सारे इरादों को काट देगी। और जीना तो पड़ेगा। अगर आपको यह भी पता हो कि सत्तर साल जीना ही पड़ेगा। मौत इसी तरह होगी, जैसी होने वाली है। बीच में आत्महत्या भी करने का कोई उपाय नहीं है, भविष्य नहीं है; भविष्य तो मरने का है खाट पर। फिर हाथ—पैर कंपते रहेंगे। पूरे जीवन आप कंपते रहेंगे। जो बहुत विचारशील लोग हैं, उनके कंपन का कारण यही है।
सोरेन कीर्कगार्ड ने, एक डेनिश विचारक ने लिखा है कि जिस दिन से मुझे होश आया, मैं कैप रहा हूं। तब से मेरा कंपन नहीं रुकता। रात सो नहीं सकता हूं क्योंकि मुझे पता है कि कल मौत है। और मैं हैरान हूं कि सारी दुनिया क्यों मजे से चली जा रही है! शायद इन्हें पता नहीं है कि कल मौत है।
भविष्य नहीं दिखाई पड़ता, इसलिए हम बड़े निश्चिंत हैं। दिखाई पड़े तो बड़ी अड़चन हो जाए। अर्जुन को दिखाई पड़ा है, अभी उसने देखा। एक झलक उसे मिली है। वह कैप रहा है, वह भयभीत हो रहा है।
संजय कहता है, कांपता हुआ, हाथ जोडे हुए, नमस्कार करता है, भयभीत हुआ प्रणाम करता है। गदगद भी हो रहा है।
उसकी स्थिति बड़ी दुविधा की है। जो दिखाई पड़ा है, वह उसकी विजय है। जो दिखाई पड़ा है, उसमें वह जीतेगा, इसलिए आनंदित भी हो रहा है। जो दिखाई पड़ा है, वह विराट की झलक है। यह सौभाग्य है। यह कृपा है। यह प्रसाद है। वह गदगद भी हो रहा है। और जो दिखाई पड़ा है, वह मृत्यु भी है। वह भयभीत भी हो रहा है।
और एक अर्थ से और भी भयभीत हो रहा है। क्योंकि जो विजय सुनिश्चित हो, उसमें भी मजा चला जाता है। अगर आप एक खेल खेल रहे हैं किसी के साथ, जिसमें आपकी जीत निश्चित है; खेल का मजा चला जाता है। खेल का तो मजा इसी में है कि जीत अनिश्चित है। आप जीत भी सकते हैं, हार भी सकते हैं। जिस खेल में आपको जीतना ही है, जिसमें कोई उपाय ही नहीं है हार का, वह खेल खतम हो गया। वह तो एक बंधन हो गया।
इसे थोड़ा समझ लें, थोड़ा बारीक है।
अगर आपको पक्का ही है और कोई उपाय जगत में नहीं है कि आप हार सकें, आप जीतेंगे ही, तो मजा ही जीत का चला गया। और जीत से भी भय पैदा होगा। यह जीत भी एक जबरदस्ती मालूम पड़ेगी। इसमें अहंकार को रस तो रह नहीं गया।
अर्जुन ने देखा है कि वह जीतेगा। उसके योद्धा विपरीत जो खड़े हैं, वे मृत्यु में विलीन हो रहे हैं। उसकी जीत सुनिश्चित है, नियति है, भाग्य है।
अगर जीत नियति है, तो फिर अहंकार को उससे कुछ भी रस नहीं मिलेगा। फिर मैं नहीं जीतता हूं। जीतना था, इसलिए जीतता हूं। फिर दुर्योधन नहीं हारता है। हारना था बेचारे को, इसलिए हारता है। तब न तो कोई रस है अपने अहंकार में और न दुर्योधन की हार में कोई रस है। तब तो हम पात्र हो गए, खिलौने हो गए। तब तो हम गुड़ियों की तरह नाच रहे हैं, कोई भीतर से तार खींच रहा है। किसी को जिताता है, वह जीत जाता है। किसी को हराता है, वह हार जाता है। किसका गौरव? किसका अपयश?
अगर यह सच है कि मेरी जीत निश्चित है, तो अर्जुन कैप गया होगा इससे भी। क्योंकि तब तो मजा ही चला गया। तब किस मुंह से वह कहेगा कि दुर्योधन को मैंने हराया; कि कौरव हारे पांडव से। तब इसका कोई अर्थ नहीं रह गया। कौरव हारे, क्योंकि नियति उनकी हारने की थी। पांडव जीते, क्योंकि नियति उन्हें जिता रही थी। और नियति दोनों के हाथ के बाहर है। यह भी बहुत भय देने वाली बात है। यह तो मजा ही चला गया!
एक तो मृत्यु को देखा, उससे वह कंपित हो रहा है। दूसरा, सुनिश्चित विजय को देखा। उससे भी, उससे भी वह भयभीत हो रहा है। अर्जुन योद्धा था। फेअर नहीं है अब लड़ाई। अब जो युद्ध है, वह न्याय—संगत नहीं है। अब तो हारने वाले हारेंगे, जीतने वाला जीतेगा। और कृष्‍ण कहते हैं, मैं पहले ही काट चुका हूं इनको, तू सिर्फ निमित्त है। यह भी कंपित कर देगा। क्षत्रिय का सारा मजा ही चला गया। अब यह युद्ध हो रहा है, जैसे हो या न हो बराबर है। एक झूठा युद्ध रह गया, एक सूडो, मिथ्या, भ्रामक। जिसमें सब बातें पहले से ही तय हों, उसमें क्या सार है?
एक अर्थ में गदगद है कि कृष्ण ने अनुभव का मौका दिया; एक द्वार खोला अनंत का। और एक लिहाज से भयभीत है। दोनों बातें एक साथ!
संजय कहता है, ऐसा भयभीत, साथ ही गदगद हुआ, प्रणाम करके, अर्जुन कहने लगा, हे अंतर्यामिन्! यह योग्य ही है कि जो आपके नाम और प्रभाव के कीर्तन से जगत अति हर्षित होता है और अनुराग को भी प्राप्त होता है। तथा भयभीत हुए राक्षस लोग दिशाओं में भागते हैं और सब सिद्धगणों के समुदाय नमस्कार करते हैं।
यह योग्य ही है। ये दोनों बातें ही योग्य हैं कि कोई आपके नाम से हर्षित होता है, और कोई आपके नाम से भयभीत होता है। ये दोनों बातें ठीक ही हैं। क्योंकि जो मिटने जा रहा है आपको देखकर, आप जिसके लिए विनाश बन जाते हैं, उसका भयभीत होना; और वह जो आपको देखकर आनंद को, परम अवस्था को उपलब्ध होने जा रहा है, जिसके भीतर नये का सृजन हो रहा है, उसका हर्षित होना, दोनों ही ठीक हैं।
लेकिन अर्जुन को दोनों हो रहे हैं। और आपको भी दोनों होंगे। क्योंकि इस जमीन पर देवता को अलग और राक्षस को अलग खोजना बहुत मुश्किल है। वे दोनों मिले—जुले हैं। वे हर आदमी में हैं। वे आदमी के दो पहलू हैं। मन दो के बिना होता ही नहीं।
इसलिए आप ऐसा देवता पुरुष भी नहीं खोज सकते, जिसका कोई हिस्सा राक्षसी न हो। और आप ऐसा कोई राक्षस भी नहीं खोज सकते, जिसका कोई हिस्सा देवता जैसा न हो। रावण के भीतर भी एक कोना राम का होगा, और राम के भीतर भी एक कोना रावण का होगा। अन्यथा उनका संसार में होने का कोई उपाय नहीं है। इस जगत में प्रकट होने का उपाय है मन। और मन है द्वंद्व। इसलिए अच्छे से अच्छे आदमी में थोड़ी—सी कालिख कहीं न कहीं लगी होती है। बुरे से बुरे आदमी में भी एक चमकदार रेखा होती है। वही उन दोनों को आदमी बनाती है। नहीं तो वे आदमी नहीं रह जाएंगे। नहीं तो उनके आदमी होने का कोई उपाय नहीं रह जाएगा। यहां तो हर आदमी दोनों है।
इसलिए जब परम अनुभव का द्वार खुलता है, तो दोनों बातें एक साथ घटती हैं। वह जो आपके भीतर राक्षस है, वह भयभीत होने लगता है। और वह जो आपके भीतर दिव्य है, वह आनंदित होने लगता है। परमात्मा के सामने दोनों बातें एक साथ घट जाती हैं। यह तो तोड़कर कहा है, ताकि समझ में आ सके।
अर्जुन कहता है, लोग अनुराग को उपलब्ध होते हैं, हर्षित होते हैं, आपके कीर्तन, आपके नाम को सुनकर। और ऐसे लोग भी हैं, जो भागते हैं दसों दिशाओं में। और देखता हूं सिद्धगणों को भी कि पैर झुकाए, घुटने टेके, आपको नमस्कार कर रहे हैं। यह ठीक ही है अंतर्यामिन्!
आज अर्जुन को लगा कि ऐसा क्यों है। ऐसा क्यों है कि कोई भगवान का नाम सुनते ही पीड़ित और दुखी क्यों हो जाता है? और कोई भगवान का नाम सुनते ही आनंदित, प्रफुल्लित क्यों हो जाता है?
जब आप भगवान का नाम सुनकर दुःखी होते है, तो आप खबर दे रहे हैं कि भगवान आपके लिए कहीं न कहीं मृत्यु से जुड़ा हुआ है। कुछ आप कर रहे हैं, जो भगवान के सान्निध्य में टूटेगा और नष्ट होगा। कुछ आप कर रहे हैं, जो धारा के विपरीत है, जो निसर्ग के प्रतिकूल है। और जब भगवान का नाम सुनकर आप आनंदित होते हैं, तब उसका अर्थ है कि आपके भीतर कोई धारा है, जो भगवान के साथ बह रही है। तो नाम भी सुनकर आप प्रफुल्लित हो जाते हैं।
रामकृष्‍ण के सामने कोई नाम भी ले दे भगवान का, तो वे तत्‍क्षण समाधिस्थ हो जाते थे। नाम लेना मुश्किल हो गया था। क्योंकि फिर वे छह—छह घंटे, बारह—बारह घंटे समाधि में रह जाते थे। सड़क से गुजर रहे हैं, तो उनके भक्तों को उन्हें सम्हालकर ले जाना पड़ता था कि कहीं कोई जयरामजी ही न कर दे। नहीं तो वहीं नाचने लगते, और वहीं सड़क पर गिर जाते, होश खो देते। कई बार तो कई—कई दिन लग जाते उनका वापस होश आने में। वे इतने आनंदित हो जाते कि यह जगत विसर्जित हो जाता, वे अपने में लीन हो जाते।
उनको सम्हालकर ले जाना पड़ता था कि कहीं कोई असमय में नाम न ले दे, कोई अकारण ऐसे ही सहज नाम न ले दे। फिर उन्हें दिनों तक पानी पिलाना पड़ता, दूध देना पड़ता, क्योंकि उनको शरीर की कोई सुध न रह जाती। और जब उन्हें होश आता, तब वे छाती पीटकर रोने लगते कि क्या तू नाराज है, इतने जल्दी वापस भेज दिया! क्या तू नाराज है कि अपने से इतनी जल्दी दूर कर दिया! वापस बुला ले। उनकी आंख से आंसू बहते। वापस बुला ले। कोई नाम ले दे तो!
क्या था? रामकृष्‍ण बड़ी, जिसको हम कहें, शुद्धतम देह, शरीर जैसे पवित्रतम, जैसे रोआं—रोआं इतना पवित्र कि नाम भी भगवान का पर्याप्त, कि रोआं—रोआं कंपित होकर भीतर लीन हो जाए। शरीर जैसे इतना संवेदनशील।
पुजारी थे रामकृष्‍ण तो दक्षिणेश्वर के मंदिर में। तो पूजा करने जाते थे, पूजा का थाल गिर जाता हाथ से। क्योंकि देखते महाकाली की मूर्ति, वह देखते ही थाल गिर जाता। दीये बुझ जाते। वे नीचे गिर जाते। पूजा न हो पाती।
पूजा करने के लिए भी बड़ा कठोर मन चाहिए। पूजा करने के लिए भी इतना तो मन चाहिए कि डटे रहे। रामकृष्ण से पूजा ही न हो पाती, क्योंकि थाल हाथ से छूट जाता। देखते आंखों में काली की, और सुध—बुध खो देते। फिर बाद के दिनों में तो उन्हें मंदिर में नहीं ले जाते थे। पूजा कोई और कर लेता। क्योंकि मंदिर में जाना खतरनाक था।
और जिस दिन रामकृष्ण को अनुभव हुआ, उस दिन वे दक्षिणेश्वर की छत पर चढ़ गए, छप्पर पर, और जोर—जोर से चिल्लाने लगे कि जिसकी मुझे खोज थी, वह मिल गया। अब जिनको चाहिए, वे जल्दी आओ! कहां हैं वे लोग, जिन्हें मैं बांट दूं? आओ जल्दी दूर—दूर से। जहां भी, जिसको भी आकांक्षा हो, जल्दी आ जाए। क्योंकि जो मुझे चाहिए था, वह मिल गया।
क्या मिल गया? एक संगति, एक संगीत, एक लयबद्धता। उस परमात्मा और अपने बीच एक स्वर का तालमेल मिल गया। अब, जैसे ही वह स्वर का तालमेल बैठ जाता है, वैसे ही रामकृष्ण नहीं रह जाते, भगवान हो जाते हैं, परमात्मा हो जाते हैं।
कीर्तन का मतलब ही केवल इतना है कि एक सुर—ताल बैठ जाए। और वह जो आदमी होने का होश है, वह खो जाए, और वह जो परमात्मा होने का होश है, वह आ जाए। यह रामकृष्ण की जो बेहोशी है, यह सिर्फ एक तरफ से बेहोशी है, आदमी की तरफ से। दूसरी, भीतर की तरफ से तो परम होश है।
तो रामकृष्ण कहते थे कि तुम सोचते हो, मैं बेहोश हो गया! तुम उलटा सोचते हो। जब मैं होश में आता हूं तुम्हारे सामने, तब मैं बेहोश हो जाता हूं। मैं जिसको भीतर देख रहा था, वह फिर मुझे दिखाई नहीं पड़ता। तुम जिसे बेहोशी कहते हो, वह होश है मेरे लिए। और तुम जिसे होश कहते हो, वह बेहोशी है। जब मेरी आंख संसार की तरफ होश से भर जाती है, तो मैं वहां भूल जाता हूं। और जब यहां मेरा पर्दा गिर जाता है, तो मैं वहां हो जाता हूं।
कीर्तन का इतना ही अर्थ है अध्यात्म में कि उससे हम एक नाम के सहारे, एक शब्द के सहारे, एक गीत के सहारे, एक धुन के सहारे, एक नृत्य की गति के सहारे, वह जो मनुष्य होने का होश है, वह खो रहे हैं; और वह जो परमात्मा होने का होश है, उसकी तरफ जा रहे हैं।

 एक मित्र ने पूछा है कि गीता के संबंध में उन्हें कुछ भी नहीं पूछना। लेकिन यहां जो कीर्तन होता है, उस संबंध में उन्हें बड़ी अड़चन है!

 गीता के संबंध में उन्हें नहीं पूछना है, क्योंकि गीता वे समझ चुके होंगे! यहां किस लिए आते हैं, पता नहीं। यहां आने का कोई प्रयोजन नहीं है। गीता समझ ही गए हों, तो यहां आने का क्या प्रयोजन है! चढ़ जाएं किसी मंदिर पर और चिल्ला दें कि आ जाओ, जिनको पाना हो। मुझे मिल गया! कीर्तन के संबंध में उन्हें अड़चन है।
किया है कभी कीर्तन? अगर किया है, तो अड़चन नहीं हो सकती। और नहीं किया है, तो सवाल नहीं उठाना चाहिए। जो नहीं किया है, उसके बाबत नहीं पूछना चाहिए। अड़चन यही होगी कि यह क्या है कि लोग नाचने लगते हैं, होश खो देते हैं! अड़चन यही है कि स्त्री—पुरुष साथ—साथ नाच रहे हैं!
अगर इतनी भी बेहोशी न हो कि स्त्री—पुरुष भी न भूलें, तो क्या खाक कुछ भूलेगा! यह भी होश बना रहा कि मैं पुरुष हूं वह पास में खड़ी स्त्री है, आप कीर्तन कर रहे हैं? इतना भी होश न भूले, तो क्या खाक कीर्तन होगा?
कीर्तन तो पागलों का रास्ता है, वे जो भूलने को तैयार हैं बाहर को। फिर क्या होता है, इसे करने का थोड़े ही सवाल है। कीर्तन कुछ किया थोड़े ही जाता है। कीर्तन तो अपने को धारा में छोड़ना है, फिर जो हो जाए। पर देखने वाले को अड़चन होगी, देखने वाले को सदा ही अड़चन होगी। क्योंकि देखने वाला बाहर खड़ा है। करके देखें। थोड़ी देर के लिए होश खोकर देखें। थोड़ी देर के लिए एक दूसरे जगत में प्रवेश करें, और एक दूसरा होश उपलब्ध करें। थोड़ी देर को बह जाएं बाहर से और भीतर हो जाएं। और होने दें, जो हो रहा है; छोड़ दें परमात्मा में। पूरे चौबीस घंटे छोड़ना शायद मुश्किल होगा। क्योंकि आपको खयाल है, दुकान आप चलाते हैं। आपको खयाल है, आप नहीं होंगे, तो संसार का क्या होगा! आपके बिना कुछ चलेगा नहीं! शायद पूरे समय छोड़ना मुश्किल हो, घड़ी, आधा घड़ी को...।
कीर्तन सिर्फ एक व्यवस्था है, जिससे थोड़ी देर को हम छोड़ देते हैं। हम अपने को नहीं चलाते, हम सिर्फ छोड़ देते हैं; एक लेट गो। अपने को ढीला छोड़ देते हैं धुन के ऊपर। और धीरे— धीरे भीतर जहां ले जाना चाहता है, ले जाने लगता है। फिर पैर थिरकने लगते हैं। हाथ—पैर मुद्राएं बनाने लगते हैं। आंखें बंद हो जाती हैं। किसी दूसरे लोक में प्रवेश हो जाता है। फिर फिक्र छोड़े कि कौन बाहर खड़ा है। उसकी थोड़े ही फिक्र करनी है। उसकी फिक्र करिएगा, तो भीतर नहीं जा सकते।
कीर्तन की कला खो गई, क्योंकि हम अति बुद्धिमान हो गए हैं। यह बुद्धिमानों का काम नहीं है। यह बुद्धिमानों का काम नहीं है। जिन मित्र ने पूछा है, बुद्धिमान आदमी हैं। यह बुद्धिमानों का काम नहीं है। इसलिए वे कहते हैं, गीता के संबंध में कुछ नहीं पूछना है। क्योंकि गीता तो बुद्धिमानी खुद ही समझ लेगी। कीर्तन से अड़चन है।
यह बुद्धिमानों का काम नहीं है। बुद्धिमानी का काम संसार है। यहां तो बुद्धि छोड्कर, बुद्धि फेंककर कोई प्रवेश करता है। और ये जो मैं इतनी बातें आपसे बुद्धि की कर रहा हूं सिर्फ इसी आशा में कि किसी दिन आप ऊब जाएंगे इस बुद्धि से। इसे छोड्कर, उतारकर, बाहर इसके निकलने की कोशिश करेंगे।
अगर बुद्धिमानी से इतनी बात भी समझ में आ जाए कि बुद्धि काफी नहीं है, तो बस, बुद्धि का काम पूरा हो गया। अगर बुद्धिमानी इतना समझा दे कि इसको छोड्कर पार जाना है, कहीं दूर, इससे हटना है, इसके बंधन और सीमाओं के पार, तो बुद्धिमानी का काम पूरा हो गया। बुद्धिमान आदमी हम उसको कहते हैं, जो बुद्धिमानी को छोड़ने की भी क्षमता रखता है।
यह कीर्तन तो बुद्धि को छोडने की बात है।
वह अर्जुन कह रहा है कि आज मैं समझ पाता हूं कि आपके प्रभाव से, आपके प्रभाव के कीर्तन से जगत हर्षित होता है, अनुराग से भर जाता है। पर कोई हैं, जो घबड़ाते हैं, भागते हैं, भयभीत होते हैं। और देखता हूं कि सिद्धों के समुदाय भी कंपित आपको नमस्कार कर रहे हैं।
हे महात्मन्! ब्रह्मा के भी आदि कर्ता और सबसे बड़े आपके लिए वे कैसे नमस्कार न करें! क्योंकि हे अनंत, हे देवेश, हे जगन्निवास, जो सत, असत और उनसे परे अक्षर अर्थात सच्चिदानंदघन ब्रह्म है, वह आप ही हैं।
और हे प्रभु, आप आदि देव और सनातन पुरुष हैं, और आप इस जगत के परम आश्रय और जानने वाले तथा जानने योग्य और परम धाम हैं। हे अनंत रूप, आपसे यह सब जगत व्याप्त और परिपूर्ण है। और आप वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चंद्रमा तथा प्रजा के स्वामी ब्रह्मा, ब्रह्मा के भी पिता हैं। आपके लिए हजारों बार, हजारों बार नमस्कार। आपके लिए बार—बार नमस्कार।
और हे अनंत सामर्थ्य वाले, आपके लिए आगे से, पीछे से, सब तरफ से नमस्कार। हे सर्वात्मन्! आपके लिए सब ओर से नमस्कार होवे। क्योंकि अनंत पराक्रमशाली, आप, संसार को व्याप्त किए हुए हैं, इससे आप ही सर्वरूप हैं।
ये सारे वचन परमात्मा के प्रति एक धन्यभाव के वचन हैं, एक अहोभाव के।
अर्जुन भयभीत हुआ है, लेकिन धन्यभागी भी हुआ है। यह अनूठा, अद्वितीय अवसर उसे मिला है कि एक झलक उसे मिली है विराट में, जहां सब सीमाएं टूट जाती हैं। जहां जानने वाला और जाना जाने वाला एक हो जाते हैं। और जहां सृष्टि और सृष्टि का निर्माता, वे भी पीछे छूट जाते हैं। और मूल आश्रय और परमधाम का अनुभव होता है।
वह धन्यभागी हुआ है। वह अपने धन्यभाग को प्रकट कर रहा है। उसकी वाणी बड़ी अजीब—सी लगेगी। वह कहता है, नमस्कार, बार—बार नमस्कार, हजार बार नमस्कार। आगे से नमस्कार, पीछे से नमस्कार। लगेगा, क्या कह रहा है यह! नमस्कार तो एक दफा कहने से भी काम चल जाएगा। लेकिन उसका मन नहीं भरता है। वह सब तरफ से नमस्कार कर रहा है, फिर भी उसे लगता है कि जो मुझे मिला है, उसका अनुग्रह मैं मान भी न पाऊंगा। उससे उऋण होने की तो कोई व्यवस्था नहीं है, उसका अनुग्रह भी न मान पाऊंगा।
कहा जाता है, कठिन है पिता के ऋण से मुक्त होना, कठिन है मां के ऋण से मुक्त होना। लेकिन असंभव नहीं। गुरु के ऋण से मुक्त होना असंभव है। और गुरु के ऋण से मुक्त होने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि जो अनुभव गुरु के माध्यम से उपलब्ध होता है, यह जो कृष्य के माध्यम से अर्जुन को हुआ, अब इस अनुभव के लिए कोई भी तो मूल्य नहीं चुकाया जा सकता। कुछ भी नहीं दिया जा सकता। सच तो यह है कि देने वाला भी कहां बचा अब? क्या दे? अब जो भी दे, सब छोटा है, व्यर्थ है। सिर्फ नमस्कार रह जाता है, सिर्फ नमन रह जाता है।
गुरु का हमने जो इतना आदर किया है, वह किसी और कारण से नहीं। क्योंकि कुछ और करने का उपाय ही नहीं है। उसे हम कुछ दे भी नहीं सकते। कुछ दें, तो व्यर्थ है। जो हम देंगे, वह संसार का कुछ हिस्सा होगा। और वह हमें संसार के पार ले गया। उस संसार के पार ले जाने वाले अनुभव के लिए संसार का कुछ भी दें, पूरा संसार भी दें, तो बेमानी है। अब हम क्या कर सकते हैं? सिर्फ एक अनुग्रह का भाव रह जाता है।
इसलिए अर्जुन कह रहा है, नमस्कार, नमस्कार, हजार बार नमस्‍कार! कई बहाने खोज रहा है कि आप परमात्मा, आप ब्रह्मा के भी पिता!
वह कुछ भी कह रहा है। वह बच्चों जैसी बात है। वह जो कुछ भी कह रहा है, एक ही बात है। वह हर तरफ से कोशिश कर रहा है कि आपको मैं नमस्कार कर सकूं।
उस विराट के सामने हमारे पास नमन के सिवाय और कुछ भी नहीं है, झुक जाने के सिवाय और कुछ भी नहीं है।
एक बहुत मजे की बात है कि सिर्फ भारत अकेला मुल्क है, जहां गुरु के चरणों में झुकने की लंबी धारा है। और अगर कहीं भी यह बात गई है, तो वह भारत से गई है। दुनिया में कहीं भी गुरु के चरणों में सिर रखकर अपने को सब भांति समर्पित करने की कोई धारणा नहीं है।
इसलिए पश्चिम से जब लोग आते हैं, तो उन्हें जो सबसे मुश्किल बात खटकती है, वह गुरु के प्रति इतनी अनन्य श्रद्धा खटकती है। इतनी श्रद्धा उनको अंधापन मालूम पड़ती है। और उनका मालूम पड़ना ठीक ही है। क्योंकि किसी के चरणों में सिर रखना, और किसी के प्रति इस तरह सब समर्पित कर देना, अजीब— सा मालूम पड़ता है। और लगता है, यह तो एक तरह की मानव— प्रतिष्ठा हो गई! यह तो मनुष्य की पूजा हो गई! और उनका लगना ठीक है, क्योंकि उन्हें जो दिखाई पड़ रहा है, वह मनुष्य ही है।
लेकिन अगर किसी शिष्य को विराट की थोड़ी—सी भी किरण मिली हो किसी के द्वारा, तो अब वह क्या करे? वह कहां जाए? वह कैसे अपने भार को हल्का करे?
उसके पास एक ही उपाय है कि वह सब तरह से झुक जाए। और यह झुकना बड़ा अदभुत है। यह झुकना दोहरे अर्थों में अदभुत है। जो मिला है, उसका अनुग्रह इससे प्रकट होता है। और इस झुकने में और मिलने की संभावना सघन हो जाती है। जो बिलकुल झुकना जानता है, उसे सब मिल जाएगा। यह सवाल नहीं है कि वह कहां झुकता है। झुकने की कला जिसे आती है!
हम तो, कई लोग ऐसे हैं, जो नदी में खड़े हैं, पैर पानी में डूबे हैं, लेकिन झुक नहीं सकते, इसलिए प्यासे मर रहे हैं। क्योंकि झुकें, चुल्ल बनाएं, पानी को भरें, तब प्यास बुझ सके। खड़े हैं नदी में, लेकिन अकड़े हैं। झुक नहीं सकते। वह घड़ा भी, जो पानी में जाए, न झुके, आड़ा न हो, तो भर नहीं सकता, अकड़ा रहे।
हम नदी में खड़े हैं, परमात्मा चारों तरफ बह रहा है, मगर झुक नहीं सकते। कैसे झुकें! वह जो झुकने का डर है, वह हमें अटका देता है।
धर्म की खोज झुकने की कला है। और जो झुककर चुल्ल भर लेता है, फिर उसे पता चल गया रहस्य। फिर तो वह पूरा झुककर पानी में डुबकी भी मार ले सकता है। फिर तो वह जानता है कि अगर सिर को मैं बिलकुल झुका दूं और पानी के नीचे ले जाऊं, तो मैं पूरा ही नहा जाऊंगा।
अर्जुन कह रहा है कि जो मैंने जाना, जाना कि तुम्हीं हो सब कुछ। इसलिए हम गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश, क्या—क्या नहीं कहते रहे हैं! जिन्होंने कहा होगा, हमें लगता है, कैसे लोग रहे होंगे! लेकिन जिन्होंने कहा है, उन्होंने किसी कारण से कहा है। अगर हम बिना कारण के कह रहे हैं, तो जरूर हमें अजीब—सी बात लगती है कि गुरु ही ब्रह्मा, गुरु ही विष्णु, गुरु ही सब कुछ!
यही अर्जुन कह रहा है कि तुम्हीं सब कुछ हो, परात्पर ब्रह्म तुम्हीं हो।
उसने देखा। गुरु झरोखा बन गया। उसके द्वार से उसने पहली दफा झांका। सारी सीमाएं हट गईं; अनंत सामने आ गया। उस अनंत की छाया उस पर पड़ी। पहली दफा जो स्वप्न था, वह टूटा और सत्य उदघाटित हुआ है। उसका अनुग्रह स्वाभाविक है।
आज इतना ही।
पांच मिनट रुके। कीर्तन करें, और फिर जाएं।


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