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गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-18



सत्र—18 सेक्‍स या मृत्‍यु से मनोग्रस्‍त
     

     
      पूरब‍ मृत्‍यु से मनोग्रस्‍त है और पश्चिम सेक्‍स से। पदार्थवादी को सेक्‍स से मनोग्रस्‍त होना ही चाहिए और आध्‍यात्मिक को मृत्‍यु से । और ये दोनों मनेाग्रस्‍तताएं ही है।  और किसी भी मनोग्रस्‍तता के साथ जीवन जीना—पूर्वीय या पश्चिमी—न जीने के समान है, यह पूरे मौके को चूकता है। पूरव और पश्चिम एक ही सिक्‍के के दो पहलु है। और इसी प्रकार मृत्यु और सेक्‍स है। सेक्‍स ऊर्जा है—जीवन का आरंभ‍; और मृत्‍यु जीवन का चरम बिंदु है, पराकाष्‍ठा है।
      यह केवल संयोग नहीं है कि हजारों लोगों को कभी ऑर्गेज़म का कोई अनुभव नहीं होता। इसका सीधा सा कारण यह है जब तक तुम मृतयु जैसे अनुभव में से गुजरने के लिए तैयार नहीं होते तब‍ तक तुम ऑर्गेज़म को नहीं जान सकते। और कोई मरना नहीं चाहता; सब जीना चाहते है। बार-बार जीवन को आरंभ करना चाहते है।

      पूरब में विज्ञान विकसित नहीं हो सका, क्‍योंकि जब लोग चक्र को रोकने की कोशिश कर रहे है तो विज्ञान का अध्‍ययन कोन करेगा, कौन सुनेगा? कौन इसकी चिंता करेगा, किस लिए, चक्र को रोकना है। अब यह तो कोई भी बेवकूफ इसके रास्‍ते में पत्‍थर रख कर सकता है। चाक को रोकने के लिए किसी टेक्नोलॉजी की जरूरत नहीं पड़ती, लेकिन  उसे चलाने के लिए विज्ञान चाहिए।
      विज्ञान में सतत यह प्रश्‍न उठाया जाता है। कि अस्तित्‍व की गति को मूल कारण क्‍या है? या अन्‍य शब्‍दों में यह कहा जा सकता है कि इसकी खोज की जाती है कि ऐसी कौन सी यांत्रिकी-व्‍यवस्‍था है जो बिना ईंधन के अपने आप सतत चलती रहती है जिसे किसी प्रकार की ऊर्जा की आवश्‍यकता नहीं होती। क्‍योंकि यह ऊर्जा देर-अबेर चुक जाती है। और तब चाक रूक जाएगा। विज्ञान ऐसी विधि की खोज में है जिसमे कि चक्र सदा चालू रहे और ऐसी गति की खोज में जो किसी ऊर्जा पर निर्भर न हो।
      पूरब में तो विज्ञान की कभी शुरूआत ही न हो सकल, कार कभी शुरू ही न हुई। कार को चालू करने में किसी को कोई दिलचस्‍पी ही नहीं था। उन्‍हें उसे रोकने की बहुत चिंता थी। क्‍योंकि वह नीचे खिसक रही थी। पूरब में एक बिलकुल ही भिन्‍न प्रकार की घटना घटी जो कि पश्चिम में कभी भी नहीं घटी और वह है तंत्र। पूरब बिना किसी डर के बिना किसी झिझक के सेक्‍स ऊर्जा की गहनतम खोज कर सका। पूरब को सेक्‍स की बिलकुल चिंता नहीं थी।
      मैं नहीं सोचता कि जो कहानी मैंने तुम्‍हें सुनाई वह सच थी।
      मुझे तो लगता है कि सिग्‍मंड़ फ्रायड अपने बाथरुम में दर्पण के सामने खड़े होकर अपने आप से बात कर रहा होगा। कोच पर लेटा हुआ बूढा आदमी कोई और नहीं स्‍वयं सिग्‍मंड़ फ्रायड है। अगर तुम उसकी पुस्‍तक पढ़ो तो जो मैं कह रहा हुं उस पर तुम्‍हें विश्‍वास हो जाएगा। फ्रायड के चिंतन का एकमात्र विषय था सेक्‍स। हर चीज को वह सेक्‍स में परिवर्तित कर देता। मनुष्‍य के समस्‍त इतिहास में वह सर्वाधिक सेक्‍स से मनेाग्रस्ति व्यिक्त था। और इन क्षेत्रों में इसको पिता का पद मिल गया है।
      अजीब बात तो यह है सिग्‍मंड़ फ्रायड जैसा आदमी, जो सब प्रकार के डर और भय से ग्रसित था, इस शताब्‍दी का सबसे महत्वपूर्ण‍ व्‍यक्ति बन गया। वह इस शताब्‍दी पर छा गया। वह बहुत भयभीत रहता था। यह स्‍वाभाविक है। अगर तुम किसी चीज से—सेक्‍स या मृत्‍यु से मनोग्रस्‍त हो—ये दो मुख्‍य वर्ग है..इस दुनिया में हजारों चीजें है, लेकिन उनको इन दोनों वर्गों में ही विभाजित किया जा सकता है। अगर तुम इन दोनों में से किसी एक से मनोग्रस्‍त हो तो तुम बिलकुल अज्ञानी हो, और तुम भयभीत रहोगे—प्रकाश से भयभीत, क्‍योंकि तुमने अपने अंधकार में सिद्धांतों और धर्मो की अपनी काल्‍पनिक दुनिया बना ली है। तुम्‍हें प्रकाश से डर लगेगा...लैंप लाने वाले आदमी से डर लगेगा...डायोजनीज जैसा आदमी जब सूर्य के प्रकाश में लैंप के साथ नग्‍न रूप से प्रवेश करेगा।
      कभी-कभी मैं सोचता हूं कि यह अच्‍छा होता, सिग्मंड़ फ्रायड के लिए यह अच्‍छा होता अगर डायोजनीज अपनी जलती हुई लैंप के साथ उसके तथाकथित मनोविश्‍लेषण के आफिस में नग्‍न प्रवेश कर जाता। वह सदा नग्‍न ही रहता था। इन दोनों की भेंट भी मूल्‍यवान होती।
      फ्रायड जैसे लोग प्रकाश से डरते है, इसीलिए तो डायोजनीज अपने साथ लैंप लेकर चलता था। जब भी कोई उससे पूछता कि दिन के समय वह अपने साथ लैंप क्‍यों रखता है, तो वह उत्‍तर देता कि मैं ‘मनुष्‍य’ को खोज रहा हूं, और वह अब तक मुझे नहीं मिला। मरने के एक क्षण पहले किसी ने उससे पूछा: ‘डायोजनीज अपना शरीर छोड़ने से पहले कृपया हमें बताओ कि क्‍या तुमने मनुष्‍य को खोज लिया है?
      डायोजनीज ने हंस कर कहा: ‘खेद है कि मैं उसे नहीं खोज सका, लेकिन बड़ी बात तो यह है कि वह लैंप अभी भी मेरे पास है और किसी ने उसे चुराया नहीं है।‘
      सिग्मंड़ फ्रायड तो मनोग्रस्‍त था और वह पश्चिमी दृ‍ष्टिकोण का प्रतिनिधित्‍व करता था। इसीलिए कार्ल गुस्ताख जुंग उसके साथ बहुत देर तक न रह सका। कारण स्‍पष्‍ट है। जुंग सेक्‍स से नहीं, मृत्‍यु से मनोग्रस्‍त था। उसको पश्चिम के नहीं, पूरब के गुरु की आवश्‍यकता थी। लेकिन उसे पश्चिम पर इतना गर्व था कि जब वह भारत आया और किसी ने उसे यह सुझाव दिया कि वह महर्षि रमण से मिल—महर्षि रमण उस समय जीवित थे—लेकिन जुंग नहीं गया। वहां जाने में हवाई जहाज से केवल एक घंटा लगता। वह दूसरी सब जगहों पर गया। वह भारत में एक महीने रहा। लेकिन उसके पास रमण महर्षि से मिलने का समय नहीं था। फिर कारण साफ है: रमण जैसे लोगों से मिलने के लिए हिम्‍मत चाहिए। वे एक दर्पण है। वे तुम्‍हें तुम्‍हारे असली चेहरा दिखा देंगे। वह तुम्‍हारे सब मुखौटे हटा देंगे।
      मुझे इस आदमी से, जुंग से बहुत धृणा है। भले ही मैं सिग्‍मंड़ फ्रायड की निंदा करू, लेकिन मैं उससे घृणा नहीं करता। यह शायद गलत था, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि वह बहुत प्रतिभाशाली था। सचमुच वह प्रतिभाशाली था।  यद्यपि वह जो कर रहा था उसका मैं समर्थन नहीं कर सकता, क्‍योंकि मुझे मालूम है कि वह ठीक नहीं है। लेकिन फ्रायड की तुलना में जुंग तो उसके सामने बौना है। इसके अतिरिक्‍त वह जुदास था। उसने अपने गुरु को धोखा दिया, उसके प्रति  विश्‍वासघात किया।
      यह बात दूसरी है कि गुरु स्‍वयं गलत था। गलत या सही, फ्रायड ने अपना मुख्‍य शिष्‍य बनाने के लिए जुंग को चुना था और फिर भी वह जुदास बन गया। उसमें फ्रायड जैसी योग्‍यता नहीं थी। उनके अलग हो ने का वास्‍तविक कारण—और फ्रायड या जुंग के अनुयायियों में से किसी ने नहीं किया है, मैं पहली बार बता रहा हुं—यह था कि जुंग मृत्‍यु से मनोग्रस्‍त था और फ्रायड सेक्‍स से। वे देर तक एक साथ नहीं रह सकते थे। उन्‍हें अलग होना पडा।
      हजारों वर्षों से पूरब रूग्‍ण है इस विचार से कि जीवन से छुटकारा कैसे पाया जाए। हां, मैं इसे रोग कहता हूं। मुझे तथ्‍य जैसा दिखाई देता है। वैसा ही मैं उसे कह देता हूं। इस रूग्‍णता के कारण पूर्व की बहुत हानि हुई है। जन्‍म से ही यह विचार पकड़ लेता है कि जीवन से छुटकारा कैसे पाया जाए। मेरे खयाल में यह दुनिया की सबसे पुरानी मनोग्रस्‍तता है। सिग्मंड़ फ्रायड जैसी योग्‍यता वाले हजारों लोग इस विचार से ग्रसित थे और उन्‍होंने इसे परिपुष्‍ट किया है।
      मुझे तो ऐसा एक भी आदमी याद नहीं आता जिसने इसका विरोध किया हो। यद्यपि दुसरी बातों पर वे असहमत थे, तथापि इस बात पर तो वे सब सहमत थे। मनु, महावीर, कणाद, गौतम, शंकर, नागराजन, इनकी सूची बहुत लंबी है और यह सब सिग्मंड़ फ्रायड, सी जी जुंग या एडलर और अन्‍य बहुत से नालायक, जिनको ये पीछे छोड़ गए है—से कहीं श्रेष्‍ठ है।
      लेकिन केवल प्रतिभाशाली, महान प्रतिभाशाली होने का यह अर्थ नहीं है कि तुम सही हो। कभी-कभी तो एक साधा-सादा किसान भी एक विद्धान से कहीं अधिक सही हो सकता है। एक माली एक प्रोफेसर से अधिक सही हो सकता है। जीवन सचमुच अद्भुत है। यह सदा सरलतम और प्रेमपूर्ण लोगों के पास जाता है।
      पूरब तो चूक गया है और पश्चिम भी चूक रहा है। दोनों अधूरे असंतुलित है।
मुझे इसके बारे में बात करनी पड़ी, क्‍योंकि मेरा बुनियादी योगदान यही है कि आदमी को सेक्‍स या मृत्‍यु की चिंता नहीं करनी चाहिए। उसको इन दोनों प्रकार की मनोग्रस्‍तताओं से मुक्‍त रहना चाहिए। और तभी वह जान पाता है....ओर अजीब बात ता यह है कि तब उसे मालूम होता है कि ये दोनों अलग नहीं है। गहन प्रेम का हर क्षण मृतयु का क्षण है। हर र्आर्गाज्‍म एक प्रकार का अंत है, ठहराव है। ऊँचाई तक पहुंचता है, तारों को छूता है और फिर दोबारा कभी वैसा नहीं होता—चाहे कुछ भी कर लो। सच तो यह है कि कोशिश करने से वह और दूर हो जाता है।
      लेकिन आदमी करीब-करीब चूहे की तरह जीता है, अपने बिल में छिपा रहता है। चाहे तुम इसे पूर्वीय, पश्चिमी, र्इसाई या हिंदू कहो, सभी तरह के चूहों के लिए हजारों तर‍ह के बिल उपलब्‍ध है। लेकिन बिल तो बिल ही है—चाहे कितना ही सुंदर क्‍यों न हो और भले ही उसे चर्च, मंदिर या मस्जिद की तरह सजाया गया हो। उसके भीतर रहने का अर्थ है धीरे-धारे आत्मघात करना। क्‍योंकि तुम्‍हें चूहा नहीं बनाया गया—मनुष्‍य बनो। पुरूष बनो, स्‍त्री बनो।  
      अभी तक तो सब कुछ अचेतन ढंग से होता रहा है, प्रकृति द्वारा। ले‍किन अब प्रकृति इससे अधिक कुछ नहीं कर सकती। क्‍या तुम यह नहीं देख सकते हो? डार्विन कहता है कि बंदर से मनुष्‍य का जन्‍म हुआ है। शायद यह ठीक है। मैं ऐसा नहीं मानता, इसलिए मैंने कहा, शायद वह ठीक है। लेकिन फिर क्‍या हुआ, बंदर तो आदमी नहीं बन रहे। डार्विन के सिद्धांत के अनुसार कभी किसी प्रकार बंदर को अचानक आदमी नहीं बनते देखा गया है।
      किसी बंदर को चार्ल्‍स डार्विन में कोई दिलचस्‍पी नहीं है। उन्‍होंने तो उसकी नीरस पुस्‍तकों को भी नहीं पढ़ा। मेरा तो खयाल है कि बंदर डार्विन के इस विचार से नाराज है कि मनुष्‍य विकसित हुआ है। कोई बंदर यह नहीं मान सकता कि आदमी उससे अधिक विकसित है। मैं तो सब प्रकार के लोगों—जिनमें बंदर सम्मिलित हैं—के संपर्क में रहा हूं। मेरा विश्‍वास करो कि सब बंदर यह मानते है कि मनुष्‍य बंदर का पतन है। पेड़ पर से नीचे गिर गया है। इसको वे विकास नहीं मान सकते है। मैं जिस नये शब्‍द का प्रयोग करता हूं उससे तुम्‍हें सहमत होना पड़ेगा, वह है; अंतर-विकास। शायद डार्विन सही था। लेकिन फिर क्‍या हुआ, बंदरों को भूल जाओ। हमें उनसे कोई मतलब नहीं है।
      आदमी को क्‍या हुआ, लाखों वर्ष बीत गए है और मनुष्‍य वैसा का वैसा ही है। क्‍या विकास रूक गया?  इसका क्‍या कारण है। मैं नहीं सोचता कि कोई भी डार्विन इसका उत्‍तर दे सकता है। मुझे यह अच्‍छी तरह मालूम है। मैंने डार्विन और उसके अनुयायियों का जितनी गहराई से संभव हो सके उतनी गहराई से अध्‍ययन किया है। मैं कहता हूं, जितनी गहराई से संभव हो सके, क्‍योंकि कोई खास गहराई है ही नहीं। मैं क्‍या कर सकता हूं? लेकिन डार्विन के सिद्धांत को मानने वाला एक भी व्‍यक्ति बुनियादी प्रश्‍न का उतर नहीं देता: ‘अगर विकास अस्तित्‍व का नियम है तो मनुष्‍य विकसित होकर अतिमानव या महा मानव क्‍यों नहीं बन गया। अच्‍छा महा मानव न सही, वह बहुत बड़ा शबद लगता है। लेकिन मनुष्‍य पहले से अच्‍छा क्‍यों नहीं हुआ।’
      शताब्दियों से उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इतिहासकारों की जानकारी के अनुसार तो मनुष्‍य आज की तरह हमेशा बुरा और घृणित रहा है। अगर कोई परिवर्तन हुआ है तो यही कि वह और बुरा बन गया है। हां जो कह रहा हूं वह और कोर्इ नहीं कहता, राजनीतिज्ञ यह नहीं कह सकते  क्‍योंकि राजनीतिज्ञों को बंदरों के वोट चाहिए। तथाकथित फिलासफर भी नहीं कह सकते, क्‍योंकि उनको नोबल प्राइज़ प्राप्‍त करने की आशा है। और उस कमेटी में तो सब बंदर ही बंदर ही है। अगर कोई सच्‍ची बात कहे तो मेरी तरह वह भी मुसीबत में पड़ जाएगा। जब से मैंने होश सम्‍हाला है तब से मेरा एक भी दिन बिना मुसीबत के नहीं बीत। मेरे भीतर तो कोई मुसीबत नहीं है। वहां सब मुसीबतें समाप्‍त हो गई है। लेकिन बाहर का हर क्षण मुसीबत से
भरा है। अगर किसी का मेरे साथ कोई संबंध है तो वह भी मुसीबत में पड़ जाएगा।
      अभी उस दिन मुझे खबर मिली कि हमारे एक केंद्र पर लोगों ने हमला किया। खिड़कियाँ तोड़ दी और सब कुछ लूट कर ले गए। और उसके बाद एक केंद्र को आग लगा दी गई।
      अब मेरे लोगों ने किसी का कुछ बिगाडा नहीं है। वे सिर्फ वहां मिलते थे, ध्‍यान करते थे। पुलिसमैन ने भी यही कहा कि यह अजीब बात है, हम इनको दो बरस से देख रहे है। ये लोग बिलकुल बेकसूर है। त तो ये किसी राजनीतिक पार्टी के है, ना ये किसी विशेष‍ सिद्धांत का प्रचार करते है। यक अपने आनंद में मस्‍त रहते है। इनके मकान क्‍यों जला दिए गए, इसका कोई कारण समझ में नहीं आता।
      पुलिस शायद इसका कारण न जान पाएगी, क्‍योंकि कारण तो यहां है, डेंटल चेयर पर लेटा हुआ।
      हम लोगों ने कभी किसी का कोई नुकसान नहीं किया। फिर भी हर रोज कोई न कोर्इ मुसीबत खड़ी हो जाती है। मैंने किसी का कुछ नहीं बिगाडा, मेरे लोगों ने किसी का कोई नुकसान नहीं किया...पर शायद यही हमारा कसूर है। माफिया ठीक है; में नहीं, तुम नहीं। रहेगी अगर हम स्‍वस्‍थ, पुष्‍ट मनुष्‍य चाहते है तो हमे अपने दृष्टि को बदल कर नये ढंग से सोचना पड़ेगा।
      पहली बात जो मैं कहना चाहता हूं वह यह है कि जो कुछ भी पहले से मौजूद है, उसे स्‍वीकार करो। परमात्‍मा का शुक्र है कि तुमने सेक्‍स का सृजन नहीं किया। नहीं तो हर व्यिक्त उलग-उलग ढंग के यंत्र का उपयोग करता। और इसके कारण बहुत निराशा भी होती, क्‍योंकि वे यंत्र ठीक ने बैठते। जब बिलकुल एक जैसे होने पर भी वे ‘फिट’ नहीं होते, स्‍वर सामंजस्‍य के बावजूद भी वे संगीत पूर्ण नहीं होते, अगर सब लोग अपनी-अपनी कामवासना का सृजन करते बहुत गड़बड़ हो जाता। तुम इसकी कल्‍पना भी नहीं कर सकते। यह तो अच्‍छा है कि तुम पहले से तैयार होकर ही आए हो, तुम पहले से ही अपनी संभावना को लेकर आए हो।
      और मृतयु भी तो स्‍वाभाविक चीज है। एक क्षण के लिए यह कल्‍पना करो कि तुम सदा जीवित रहोगे। तब तुम क्‍या करोगे, याद रखो कि तुम आत्महत्या नहीं कर सकोगे। मुझे सिकंदर की शाश्वत जीवन की खोज बहुत अच्‍छी लगती है।....अंत में उसे वह अरब के रेगिस्‍तान में मिला। वह अत्यंत आनंदित हुआ—चह तो खुशी से नाच उठा होगा। लेकिन उसी समय एक कौए ने कहा, ‘ठहरो, पानी पीने से पहले थोड़ा रूक जाओ। यह साधारण पानी नहीं है। मैंने इसे पी लिया था और अफसोस कि अब में मर भी नहीं सकता। सब उपाय कर लिए मैंने , लेकिन कोई काम नहीं आया। जहर मुझे मार नहीं सकता।  मैंने अपने सिर को चट्टान पर पटका। चट्टान तो टूट गई, लेकिन मुझे कुछ नहीं हुआ। इस पानी को पीने से पहले तुम अच्‍छा तरह से सोच लो। कहानी कहती है कि सिकंदर इस डर से वहा से भाग गया कि कहीं वह उस पानी को पी न ले।’
      सिकंदर का गुरू था महान अरस्‍तू जो यूरोपीय फिलासफी और तर्क का पिता माना जाता है। सचमुच महान पिता, उसके बिना विज्ञान न होता और न होता हिरोशिमा या नागासाकी, बिना अरस्‍तू के पश्चिम के बारे में सोच भी नहीं जा सकता। अरस्‍तू सिकंदर का शिक्षक था। और मुझे शिक्षक सदा दयनीय लगते है।
      अपने बचपन में मैंने एक पुस्‍तक देखी थी—मुझे याद नहीं है कि वह कौन सी थी, शायद सह सिनेमा था। उसमें दिखाया गया था कि अरस्‍तू सिकंदर को पढ़ा रहा है और उस बच्‍चे सिकंदर ने कहा, ‘अभी मैं कुछ नहीं पढ़ना चाहता। मैं घोड़े पर सवार होना चाहता हूं। आप मेरा घोड़ा बन जाओ।’ सो बेचारे अरस्तू को घोड़ा बनना पडा। वह हाथों और घुटनों के बल बैठ गया और सिकंदर उसकी पीठ पर सवार हो गया। और यही है वह आदमी जो पश्चिमी फिलासफी का पिता बना। कैसा पिता।
      सुक़रात को पश्चिमी फिलासफी की पिता कभी नहीं कहा जाता। सुक़रात प्लेटों का गुरु था और प्लेटों अरस्तू का गुरु था। लेकिन सुक़रात को जहर पिलाया गया, क्‍योंकि यह रुचिकर नहीं था। उसको पचाना आसान न था। पश्चिम उसके बारे में सब कुछ भूल जाना चाहता था। शायद वह उस समन्‍वय को प्रस्‍तुत करता जिसकी मैं बात करता हूं। अगर उसको जहर न दिया जात और अगर उसकी बात को सुना जाता और उसकी सत्य की खोज को आधार बनाया जाता तो हम एक दूसरे ही तरह की दुनिया में जी रहे होते।
      प्लेटों को भी पिता नहीं माना गया, कयोंकि खतरनाक सुक़रात के साथ उसका नजदीकी संबंध था। सुक़रात के बारे में हम केवल वही जानते है जो प्लेटों ने उसके बारे में लिखा है। जिस प्रकार देव गीत नोट लिखता है। ठीक उसी प्रकार प्लेटों ने उसके बारे में लिखा, नोट करता रहा होगा। प्लेटों को स्‍वीकार नहीं किया गया, क्‍योंकि वह सुक़रात की छाया मात्र था। अरस्तू प्लेटों का शिष्‍य था, लेकिन जुदास था। वह आरंभ में उसका शिष्‍य था और उसने अपने गुरु से सब कुछ सीख लिया और बाद में स्‍वय गुरु बन गया। लेकिन कैसा बेचारा गुरु था। सम्राट ले उसे वेतन देकर अपने बेटे का शिक्षक नियुक्‍त किया था। वह जान कर कितना बुरा लगता है कि वह सिकंदर का घोड़ा बनने के लिए तैयार था। कौन किसे पढ़ा रहा है और वास्‍तविक गुरु कौन है?
      मैं विश्‍वविद्यालय में शिक्षक था। मैं जानता हुं कि सिकंदर का अरस्‍तू पर सवार होना यह सिद्ध करता है कि वह पश्चिमी फिलासफी का पिता नहीं था। अगर वह पिता हे तो पश्चिम की सारी फिलासफी उस अनाथ बच्‍चे जैसी है जिसे ईसाई मिशनरियों ने गोद ले लिया—शायद कलकते की मदर टेरेसा ने। वह महान महीना कुछ भी कर सकती है। अरस्‍तू पर मुझे दया आती है। उसके लिए मुझे दूसरा कोई शब्‍द नहीं सूझता। उसके कारण मुझे लज्जित होना पड़ता है, क्‍योंकि मैं भी प्रोफेसर था।
      हर रोज अपनी क्‍लास के  विद्यार्थियों से मैं सबसे पहले यही कहता था, ‘याद रखो’ यहां मैं गुरु हूं। अगर तुम मुझे नहीं सुनना चाहते तो तुरंत चले जाओ। अगर सुनना चाहते हो तो चुपचाप सुनो। मैं तुम्‍हारे सब प्रश्‍नों के उत्‍तर देने को तैयार हूं। लेकिन मैं किसी प्रकार की कोई आवाज बरदाश्‍त नहीं करूंगा—फुसफुसाहट भी नहीं। अगर तुम्‍हारी गर्ल-फ्रैंड यहां है तो तुम अभी बाहर चले जाओ, और मैं तुम्‍हें अपनी गर्ल-फ्रैंड के साथ जाने की अनुमति देता हूं। जब मैं बोल रहा हूं तो केवल मैं ही बोल रहा हूं। और तुम सुन रहे हो। अगर तुम कुछ कहना चाहते हो तो अपना हाथ उठा दो और उठाए रहो, क्‍योंकि इसका अर्थ यह नहीं है कि तुम जब पूछना चाहो तभी मैं उत्‍तर दे दूँ। मैं यहां पर तुम्‍हारा नौकर नहीं हूं। मैं अरस्तू नहीं हूं। सिकंदर भी मुझे घोड़ा नहीं बना सकता।‘
      हर रोज बस यही मेरा परिचय होता। और मुझे खुशी है कि वे समझ जाते उन्‍हें समझना ही पड़ता था। इसीलिए कभी-कभी मैं तुमसे देव गीत कठोर हो जाता हूं कि तुम्‍हें बटन दबाने पड़ते हैं और उससे आवाज तो होगी ही, तुम क्‍या कर सकते हो, मुझे यह अच्‍छी तरह से मालूम है। यह सिर्फ मेरी पुरानी आदत है।
      मैं जब‍ भी बोला गहन मौन में बोला। तुम तो जानते हो। वर्षों से तुम सुन रहे हो। तुम बुद्धा-हॉल के मौन से परिचित हो। केवल उस मौन में....तुम्‍हारा अंग्रेजी का यह मुहावरा बहुत अर्थपूर्ण है कि मौन इतना गहन है कि जमीन पर सूई के गिरने की आवाज भी तुम सुन सकते हो। इस लिए मैं जानता हूं लेकिन मुझे मौन की आदत है।
      उस दिन जब मैं कमरे से बाहर जा रहा था तो तुम खुश नहीं दिखाई दे रहे थे। उसके बाद मुझे ब‍हुत बुरा लगा, बहुत पीडा हुई मुझे। मैं तो कभी भी किसी तरह तुम्‍हारा दिल दुखाना नहीं चाहता था। यह तो सिर्फ मेरी पुरानी आदत है और अब तूम नई बातें मुझे नहीं सिखा सकते। सीखने की सीमा के मैं पार चला गया हूं।

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